श्रीकान्त (बांग्ला उपन्यास) : शरतचंद्र चट्टोपाध्याय

Shrikant (Bangla Novel in Hindi) : Sarat Chandra Chattopadhyay

अध्याय 1

मेरी सारी जिन्दगी घूमने में ही बीती है। इस घुमक्कड़ जीवन के तीसरे पहर में खड़े होकर, उसके एक अध्यापक को सुनाते हुए, आज मुझे न जाने कितनी बातें याद आ रही हैं। यों घूमते-फिरते ही तो मैं बच्चे से बूढ़ा हुआ हूँ। अपने-पराए सभी के मुँह से अपने सम्बन्ध में केवल 'छि:-छि:' सुनते-सुनते मैं अपनी जिन्दगी को एक बड़ी भारी 'छि:-छि:' के सिवाय और कुछ भी नहीं समझ सका। किन्तु बहुत काल के बाद जब आज मैं कुछ याद और कुछ भूली हुई कहानी की माला गूँथने बैठा हूँ और सोचता हूँ कि जीवन के उस प्रभात में ही क्यों उस सुदीर्घ 'छि:-छि:' की भूमिका अंकित हो गयी थी, तब हठात् यह सन्देह होने लगता है कि सब लोग इस 'छि: छि:' को जितनी बड़ी बनाकर देखते थे उतनी बड़ी शायद वह नहीं थी। जान पड़ता है, भगवान जिसे अपनी सृष्टि के ठीक बीच में जबरन धकेल देते हैं शायद उसे भला लड़का कहलाकर एग्जाम पास करने की सुविधा नहीं देते; और न वे उसे गाड़ी-घोड़े पालकी पर लाव-लश्कर के साथ भ्रमण करके 'कहानी' नाम देकर छपाने की ही अभिरुचि देते हैं। उसे बुद्धि तो शायद, वे कुछ दे देते हैं, परन्तु दुनियादार लोग उसे 'सु-बुद्धि' नहीं कहते। इसी कारण उसकी प्रवृत्ति ऐसी असंगत, ऐसी निराली होती है, और उसके देखने की चीजें, और जानने की तृष्णा, स्वभावत: ऐसी बेजोड़ होती हैं कि यदि उसका वर्णन किया जाए तो, शायद, 'सु-बुद्धि' वाले हँसते-हँसते मर जाँय। उसके बाद वह मन्द बालक; न जाने किस तरह, अनादर और अवहेलना के कारण, बुरों के आकर्षण से और भी बुरा होकर, धक्के और ठोकरें खाता हुआ, अज्ञात-रूप से अन्त में किसी दिन अपयश की झोली कन्धों पर रखकर कहीं चल देता है, और बहुत समय तक उसका कोई पता नहीं लगता।

अतएव इन सब बातों को रहने देता हूँ। जो कुछ कहने बैठा हूँ वही कहता हूँ। परन्तु कहने से ही तो कहना नहीं हो जाता। भ्रमण करना एक बात है और उसका वर्णन करना दूसरी बात। जिसके भी दो पैर हैं, वह भ्रमण कर सकता है किन्तु दो हाथ होने से ही तो किसी से लिखा नहीं जा सकता। लिखना तो बड़ा कठिन है। सिवाय इसके, बड़ी भारी मुश्किल यह है कि भगवान ने मेरे भीतर कल्पना-कवित्व की एक बूँद भी नहीं डाली। इन अभागिनी आँखों से जो कुछ दीखता है, ठीक वही देखता हूँ। वृक्ष को ठीक वृक्ष ही देखता हूँ और पहाड़-पर्वतों को पहाड़-पर्वत। जल की ओर देखने से वह जल के सिवाय और कुछ नहीं जान पड़ता। आकाश में बादलों की तरफ आँखें फाड़कर देखते-देखते मेरी गर्दन अवश्य दु:खने लगी है, बादल बादल ही नजर आए हैं, उनमें किसी की निबिड़ केश-राशि तो क्या दीखेगी, कभी बाल का टुकड़ा भी खोजे नहीं मिला। चन्द्रमा की ओर देखते-देखते आँखें पथरा गयी हैं; परन्तु उसमें भी कभी किसी का मुख-उख नजर न आया। इस प्रकार भगवान ने ही जिसकी विडम्बना की हो उसके द्वारा कवित्व-सृष्टि कैसे हो सकती है? यदि हो सकती है तो केवल यही कि वह सच-सच बात सीधी तरह से कह दे। इसलिए मैं यही करूँगा।

किन्तु मैं घुमक्कड़ क्यों हो गया, यह बताने के पहले उस व्यक्ति का कुछ परिचय देना आवश्यक है जिसने जीवन के प्रभात में ही मुझे इस नशे में मत्त कर दिया था। उसका नाम था इन्द्रनाथ। हम दोनों का प्रथम परिचय एक फुटबाल-मैच में हुआ। जानता नहीं कि वह आज जीवित है या नहीं। क्योंकि, बरसों पहले एक दिन वह बड़े सुबह उठकर, घर-बार, जमीन-जायदाद और अपने कुटुम्ब को छोड़कर केवल एक धोती लेकर चला गया और फिर लौटकर नहीं आया। ओह, वह दिन आज किस तरह याद है।

स्कूल के मैदान में बंगाली और मुसलमान छात्रों में फुटबाल-मैच था। संध्याख हो रही थी। मगन होकर देख रहा था। आनन्द की सीमा न थी। हठात्-अरे यह क्या! तड़ातड़-तड़ातड़ शब्द और 'मारो साले को, पकड़ो साले को' की पुकार मच गयी। मैं विह्वल-सा हो गया। दो-तीन मिनट,- बस इतने में कहाँ कौन गायब हो गया, निश्चय ही न कर पाया। ठीक तौर से पता लगा तब, जब कि मेरी पीठ पर आकर एक छतरी का पूरा बेंट तड़ाक से टूट गया तथा और भी दो-तीन बेंट सिर और भी दो-तीन बेंट सिर और पीठ पर पड़ने को उद्यत दीखे। देखा, पाँच-सात मुसलमान छोकरों ने मेरे चारों ओर व्यूह-रचना कर ली है और भाग जाने को जरा-सा भी रास्ता नहीं छोड़ा है। और भी एक बेंट,- और भी एक। ठीक इसी समय जो मनुष्य बिजली के वेग से उस व्यूह को भेदता हुआ मेरे आगे आकर खड़ा हो गया, वह था इन्द्रनाथ। रंग उसका काला था। नाक वंशी के समान, कपाल प्रशस्त और सुडौल, मुख पर दो-चार चेचक के दाग। ऊँचाई मेरे बराबर ही थी, किन्तु उम्र मुझसे कुछ अधिक थी। कहने लगा, “कोई डर नहीं है, तुम मेरे पीछे-पीछे बाहर निकल आओ।”

उस लड़के की छाती में जो साहस और करुणा थी, वह दुर्लभ होते हुए भी शायद असाधारण नहीं थी। परन्तु इसमें जरा भी सन्देह नहीं कि उसके दोनों हाथ असाधारण थे। यही नहीं कि वे बहुत बलिष्ठ थे, वरन् लम्बाई में भी घुटनों तक पहुँचते थे। सिवाय इसके, उसे एक सुविधा यह भी थी कि जो उसे जानता नहीं था उसके मन में यह आशंका भी न हो सकती थी कि विवाद के समय यह भला आदमी अकस्मात् अपना तीन हाथ लम्बा हाथ बाहर निकालकर मेरी नाक पर एकाएक इस अन्दाज का घूँसा मार सकेगा। वह घूँसा क्या था, उसे बाघ का पंजा कहना ही अधिक उपयुक्त होगा।

दो ही मिनट के भीतर मैं उसकी पीठ से सटा हुआ बाहर आ गया; और तब, इन्द्र ने बिना किसी आडम्बर के कहा, “भागो।”

भागना शुरू करके मैंने पूछा, “और तुम?” उसने रूखाई से जवाब दिया, “अरे तू तो भाग-गधे कहीं के।”

गधा होऊँ- या चाहे जो होऊँ, मुझे खूब याद है, मैंने हठात् लौटकर और खड़े होकर कहा, “नहीं, मैं नहीं भागूँगा।”

बचपन में मार-पीट किसने न की होगी? किन्तु, मैं था गाँव का लड़का- दो-तीन महीने पहले ही लिखने-पढ़ने के लिए शहर में बुआजी के यहाँ आया था। इसके पहले, इस प्रकार दल बाँधकर, न तो मैंने मार-पीट ही की थी, और न किसी दिन इस तरह दो पूरे छतरी के बेंट ही मेरी पीठ के ऊपर टूटे थे। फिर भी मैं अकेला भाग न सका। इन्द्र ने एक बार मेरे मुँह की ओर देखकर कहा, “नहीं भागेगा, तो क्या खड़े-खड़े मार खाएगा? देख, उस तरफ से वे लोग आ रहे हैं-अच्छा, तो चल, खूब कसकर दौड़ें।”

यह काम तो मैं खूब कर सकता था। दौड़ते-दौड़ते जब हम लोग बड़ी सड़क पर पहुँचे, तब शाम हो गयी थी। दुकानों में रोशनी हो गयी थी और रास्ते पर म्युनिसिपल के केरॉसिन के लैम्प, लोहे के खम्भों पर, एक यहाँ और दूसरा वहाँ, जल रहे थे। आँखों में जोर होने पर, ऐसा नहीं है कि एक के पास खड़े होने पर दूसरा दिखाई न पड़ता। आततायियों की अब कोई आशंका नहीं थी। इन्द्र अत्यन्त स्वाभाविक सहज स्वर से बात कर रहा था। मेरा गला सूख रहा था, परन्तु आश्चर्य है कि इन्द्र रत्ती-भर भी नहीं हाँफा था। मानो कुछ हुआ ही न हो- न मारा हो, न मार खाई हो और न दौड़ा ही हो। जैसे कुछ हुआ ही न हो, ऐसे भाव से उसने पूछा, “तेरा नाम क्या है रे?”

“श्रीकांत।”

“श्रीकांत? अच्छा।” कहकर उसने अपनी जेब से मुट्ठी-भर सूखी पत्ती बाहर निकाली। उसमें से कुछ तो उसने खा ली और कुछ मेरे हाथ में देकर कहा, “आज खूब ठोका सालों को, ले खा।”

“क्या है यह?”

“बूटी।”

मैंने अत्यन्त विस्मित होकर कहा, “भाँग? यह तो मैं नहीं खाता।”

उसने मुझसे भी अधिक विस्मित होकर कहा, “खाता नहीं? कहाँ का गधा है रे। खूब नशा होगा- खा, चबाकर लील जा।”

नशे की चीज का मजा उस समय ज्ञात नहीं था; इसलिए सिर हिलाकर मैंने उसे वापस कर दिया। वह उसे भी चबाकर निगल गया।

“अच्छा, तो फिर सिगरेट पी।” यह कहकर उसने जेब से दो सिगरेट और दियासलाई बाहर निकाली। एक तो उसने मेरे हाथ में दे दी और दूसरी अपने हाथ में रखी। इसके बाद, वह अपनी दोनों हथेलियों को एक विचित्र प्रकार से जुटाकर, उस सिगरेट को चिलम बनाकर जोर से खींचने लगा। बाप रे,- कैसे जोर से दम खींचा कि एक ही दम में सिगरेट की आग सिरे से चलकर नीचे उतर आई! लोग चारों तरफ खड़े थे- मैं बहुत ही डर गया। मैंने डरते हुए पूछा, “पीते हुए यदि कोई देख ले तो?”

“देख ले तो क्या? सभी जानते हैं।” यह कहकर स्वच्छन्दता से सिगरेट पीता हुआ वह चौराहे पर मुड़ा और मेरे मन पर एक गहरी छाप लगाकर, एक ओर को चल दिया।

आज उस दिन की बहुत-सी बातें याद आती हैं। सिर्फ इतना ही याद नहीं आता, कि उस अद्भुत बालक के प्रति, उस दिन मुझे प्रेम उत्पन्न हुआ था, अथवा यों खुले आम भाँग और तमाखू पीने के कारण, मन ही मन घृणा। इस घटना के बाद करीब एक महीना बीत गया। एक दिन रात्रि जितनी उष्ण थी उतनी ही अंधेरी। कहीं वृक्ष की एक पत्ती तक न हिलती थी। सब छत पर सोए हुए थे। बारह बज चुके थे, परन्तु किसी की भी आँखों में नींद का नाम न था। एकाएक बाँसुरी का बहुत मधुर स्वर कानों में आने लगा। साधारण 'रामप्रसादी' सुर था। कितनी ही दफे तो सुन चुका था, किन्तु बाँसुरी इस प्रकार मुग्ध कर सकती है, यह मैं न जानता था। हमारे मकान के दक्षिण-पूर्व के कोने में एक बड़ा भारी आम और कटहल का बाग था। कई हिस्सेदारों की सम्पत्ति होने के कारण कोई उसकी खोज-खबर नहीं लेता था, इसलिए पूरा बाग निबिड़ जंगल के रूप में परिणत हो गया था। गाय-बैलों के आने-जाने से उस बाग के बीच में से केवल एक पतली-सी पगडंडी बन गयी थी। ऐसा मालूम हुआ कि मानो उसी वन-पथ से बाँसुरी का सुर क्रमश: निकटवर्ती होता हुआ आ रहा है। बुआ उठकर बैठ गयीं और अपने बड़े लड़के को उद्देश्य कर बोलीं, “हाँ रे नवीन, यह बाँसुरी राय-परिवार का इन्द्र ही बजा रहा है न?” तब मैंने समझा कि इस बंसीधारी को ये सभी चीन्हते हैं। बड़े भइया ने कहा, “उस हतभागे को छोड़कर ऐसी दूसरा कौन बजायेगा और उस जंगल में ऐसा कौन है जो ढूँकेगा?”

“बोलता क्या है रे? वह क्या गुसाईं के बगीचे से आ रहा है?”

बड़े भइया बोले, “हाँ।”

ऐसे भयंकर अन्धकार में उस अदूरवर्ती गहरे जंगल का खयाल करके बुआ मन ही मन सिहर उठीं और डर भरे कण्ठ से प्रश्न कर उठीं, “अच्छा, उसकी माँ भी क्या उसे नहीं रोकती? गुसाईं के बाग में तो न जाने कितने लोग साँप के काटने से मर गये हैं- उस जंगल में इतनी रात को वह लड़का आया ही क्यों?”

बड़े भइया कुछ हँसकर बोले, “इसलिए कि उस मुहल्ले से इस मुहल्ले तक आने का वही सीधा रास्ता है। जिसे भय नहीं है, प्राणों की परवाह नहीं है, वह क्यों बड़े रास्ते से चक्कर काटकर आएगा माँ? उसे तो जल्दी आने से मतलब, फिर चाहे उस रास्ते में नदी-नाले हों- चाहे साँप-बिच्छू और बाघ-भालू हों!”

“धन्य है रे लड़के, तुझे!” कहकर बुआ एक नि:श्वास डालकर चुप हो रहीं। वंशी की ध्वानि क्रमश: सुस्पष्ट होती गयीं और फिर धीरे-धीरे अस्पष्ट होती हुई दूर जाकर विलीन हो गयी।

यही था वह इन्द्रनाथ। उस दिन तो मैं यह सोचता रहा था कि क्या ही अच्छा होता, यदि इतना अधिक बल मुझमें भी होता और मैं भी इसी तरह मार-पीट कर सकता और आज रात्रि को जब तक, सो न गया, तब तक यही कामना करता रहा कि यदि किसी तरह ऐसी वंशी बजा सकता!

परन्तु उससे सद्भाव किस तरह पैदा करूँ? वह तो मुझसे बहुत ऊँचे पर है। उस समय वह स्कूल में भी न पढ़ता था। सुना था कि हेडमास्टर साहब ने अन्याय करके उसके सिर पर ज्यों ही गधे की टोपी लगाने का आयोजन किया, त्यों ही वह मर्माहत हो, अकस्मात् हेडमास्टर की पीठ पर एक धौल जमाकर, घृणा भाव से स्कूल की रेलिंग फाँदता हुआ घर भाग आया और फिर गया ही नहीं। बहुत दिनों बाद उसी के मुँह से सुना था कि वह एक न कुछ अपराध था। हिंदुस्तानी पंडितजी को क्लास के समय में ही नींद आने लगती थी, सो एक बार जब वे नींद ले रहे थे तब, उनकी गाँठ बँधी चोटी को उसने कैंची से काटकर जरा छोटा भर कर दिया था! और उससे उनकी विशेष कुछ हानि भी नहीं हुई, क्योंकि पण्डितजी जब घर पहुँचे तब अपनी चोटी अपनी चपकन की जेब में ही पड़ी हुई मिल गयी! वह कहीं खोई नहीं गयी, फिर भी पंडितजी का गुस्सा शान्त क्यों न हुआ और क्यों वे हेडमास्टर साहब के पास नालिश करने गये- यह बात आज तक भी इन्द्र की समझ में नहीं आई। परन्तु फिर भी यह बात वह ठीक समझ गया था कि स्कूल से रेलिंग फाँदकर घर आने का रास्ता तैयार हो जाने पर फिर फाटक में से वापिस लौटकर जाने का रास्ता प्राय: खुला नहीं रह जाता। और फाटक का रास्ता खुला रहा या नहीं रहा, यह देखने की उत्सुकता भी, उसे बिल्कुलल नहीं हुई। यहाँ तक कि सिर पर 10-20 अभिभावकों के होने पर भी, उनमें से कोई भी, उसका मुँह किसी भी तरह फिर विद्यालय की ओर नहीं फेर सका।

इन्द्र ने कलम फेंककर नाव का डाँड़ हाथ में ले लिया। तब से वह सारे दिन गंगा में नाव के ऊपर रहने लगा। उसकी अपनी एक छोटी-सी डोंगी थी। चाहे आँधी हो चाहे पानी, चाहे दिन हो चाहे रात, वह अकेला उसी पर बना रहता। कभी-कभी एकाएक ऐसा होता कि वह पश्चिम की गंगा के इकतरफा बहाव में अपनी डोंगी को छोड़ देता, डाँड़ पकड़े चुपचाप बैठा रहता और दस-दस, पन्द्रह-पन्द्रह दिन तक फिर उसका कुछ भी पता न लगता।

एक दिन इसी प्रकार जब वह बिना किसी उद्देश्य के अपनी डोंगी बहाए जा रहा था, तब उसके साथ मिलन की गाँठ को सुदृढ़ करने का मुझे मौका मिला। उस समय मेरी यह एकमात्र कामना थी कि उससे किसी न किसी प्रकार मित्रता का सम्बन्ध दृढ़ किया जाए, और यही बतलाने के लिए मैंने इतना कहा है।

किन्तु जो लोग मुझे जानते हैं वे तो कहेंगे कि यह तो तुम्हें नहीं सोहता भैया, तुम ठहरे गरीब के लड़के और फिर लिखना-पढ़ना सीखने के लिए अपना गाँव छोड़कर पराए घर आकर रहे हो, फिर तुम उससे मिले ही क्यों और मिलने के लिए इतने व्याकुल ही क्यों हुए? यदि ऐसा न किया होता, तो आज तुम-

ठहरो, ठहरो, अधिक कहने की जरूरत नहीं है। यह बात हजारों लोगों ने लाखों ही बार मुझसे कही है; स्वयं खुद मैंने ही यह प्रश्न अपने आपसे करोड़ों बार पूछा है, परन्तु सब व्यर्थ। वह कौन था? इसका जवाब तुममें से कोई भी नहीं दे सकता और फिर, “यदि ऐसा न हुआ होता तो मैं क्या हो जाता?” इस प्रश्न का समाधन भी तुममें से कोई कैसे कर सकता है? जो सब कुछ जानते हैं, केवल वे (भगवान) ही बता सकते हैं कि क्यों इतने आदमियों को छोड़कर एकमात्र उसी हतभागे के प्रति मेरा सारा हृदय आकृष्ट हुआ और क्यों उस मन्द से मिलने के लिए मेरे शरीर का प्रत्येक कण उन्मुख हो उठा।

वह दिन मुझे खूब याद है। सारे दिन लगातार गिरते रहने पर भी मेह बन्द नहीं हुआ था। सावन का आकाश घने बादलों से घिरा हुआ था। शाम होते-न-होते चारों ओर अन्धकार छा गया। जल्दी-जल्दी खाकर, हम कई भाई रोज की तरह बाहर बैठकखाने में बिछे हुए बिस्तर पर रेड़ी के तेल का दीपक जलाकर, पुस्तक खोलकर, बैठ गये थे। बाहर के बरामदे में एक तरफ फूफाजी केन्वास की खाट पर लेटे हुए अपनी सांध्यी तन्द्रा का उपभोग कर रहे थे और दूसरी ओर बूढ़े रामकमल भट्टाचार्य अफीम खाकर अन्धकार में आँखें मींचे हुए हुक्का गुड़गुड़ा रहे थे। डयोढ़ी पर हिंदुस्तानी दरबान का 'तुलसीदास स्वर' सुन पड़ रहा था और भीतर हम तीनों भाई मँझले भइया की कड़ी देख-रेख में चुपचाप विद्याभ्यास कर रहे थे। छोटे भइया, जतीन और मैं तीसरी और चौथी कक्षा में पढ़ते थे और गम्भीर स्वभाव के मँझले भइया दो दफे एण्ट्रेस फेल होकर तीसरी दफे की तैयारी कर रहे थे। उनके प्रचण्ड शासन में किसी को एक मिनट भी नष्ट करने का साहस न होता था। हम लोगों का पढ़ने का समय था। 7.30 से 9 बजे तक। उस समय बातचीत करके हम उनकी 'पास होने' की पढ़ाई में विघ्न न डाल सकें, इसके लिए वे रोज कैंची से काट-काटकर कागज के 25-30 टिकट जैसे टुकड़े रख छोड़ते। उनमें से किसी में लिखा होता, 'बाहर जाना है', किसी में 'थूकना है', किसी में 'नाक साफ करना है', किसी में 'पानी पीना है' आदि। जतीन भइया ने नाक साफ करने का एक टिकट मँझले भइया के सामने पेश किया। मँझले भइया ने उस पर अपने हाथ से लिख दिया, '8 बजकर 33 मिनट से लेकर 8 बजकर 33.30 मिनट तक।' अर्थात् इतने समय के लिए नाक साफ करने जा सकते हैं। छुट्टी पाकर जतीन भइया टिकट हाथ में लेकर गये ही थे कि छोटे भइया ने थूकने जाने का टिकट पेश कर दिया। मँझले भइया ने उस पर 'नहीं' लिख दिया। इस पर दो मिनट तक छोटे भइया मुँह फुलाए बैठे रहे और उसके बाद उन्होंने पानी पीने की अर्जी दाखिल कर दी। इस बार वह मंजूर हो गयी। मँझले भइया ने इसके लिए लिख दिया, “हाँ, 8 बजकर 41 मिनट से लेकर 8 बजकर 47 मिनट तक।” परवाना लेकर छोटे भइया हँसते हुए ज्यों ही बाहर गये त्यों ही जतीन भइया ने लौटकर हाथ का टिकट वापस दे दिया। मँझले भइया ने घड़ी देखकर और समय मिलाकर एक रजिस्टर बाहर निकाला और उसमें वह टिकट गोंद से चिपका दिया। यह सब सामान उनकी हाथ की पहुँच के भीतर ही रक्खा रहता था। सप्ताह सप्ताह होने पर इन सब टिकटों को सामने रखकर कैफियत तलब की जाती थी कि क्यों अमुक दिन तुमने इजाजत से अधिक समय लगा दिया।

इस प्रकार मँझले भइया की अत्यन्त सतर्कता और श्रृंखलाबद्धता से- हमारा और उनका खुद का-किसी का जरा-सा भी समय नष्ट न होने पाता था। इस तरह प्रतिदिन, डेढ़ घण्टा, खूब पढ़ लेने के उपरान्त, जब हम लोग रात के 9 बजे घर में सोने को आते थे तब निश्चय ही माता सरस्वती हमें घर की चौखट तक पहुँचा जाती थीं; और दूसरे दिन स्कूल की कक्षा से जो सब सम्मान सौभाग्य प्राप्त करके हम घर लौटते थे वह तो आप समझ ही गये होंगे। परन्तु मँझले भइया का दुर्भाग्य कि उनके बेवकूफ परीक्षक उन्हें कभी न चीह्न सके! वे निज की तथा पराई शिक्षा-दीक्षा के प्रति इतना प्रबल अनुराग तथा समय के मूल्य के सम्बन्ध में अपने उत्तरदायित्व का इतना सूक्ष्म खयाल रखते थे फिर भी, वे उन्हें बराबर फेल ही करते गये। इसे ही कहते हैं अदृष्ट का अन्धा न्याय-विचार। खैर, जाने दो-अब उसके लिए दुखी होने से क्या लाभ?

उस रात्रि को भी घर के बाहर वही घना अन्धकार, बरामदे में तन्द्राभिभूत वे दोनों बुङ्ढे और भीतर दीपक के मन्द प्रकाश के सम्मुख गम्भीर अध्यघयन में लगे हुए हम चार प्राणी थे।

छोटे भइया के लौट आते ही प्यास के मारे मेरी छाती एकबारगी फटने लगी। इसीलिए टिकट पेश करके मैं हुक्म की राह देखने लगा। मँझले भइया उसी टिकटों वाले रजिस्टर के ऊपर झुककर परीक्षा करने लगे कि मेरा पानी पीने के लिए जाना नियम-संगत है या नहीं- अर्थात् कल परसों किस परिमाण में पानी पिया था।

अकस्मात् मेरे ठीक पीछे से एक 'हुम्' शब्द और साथ ही साथ छोटे भइया और जतीन भइया का आर्तकण्ठ से निकला हुआ, “अरे बाप रे! मार डाला रे' का गगनभेदी चीत्कार सुन पड़ा। उन्हें किसने मार डाला, सिर घुमाकर यह देखने के पहले ही, मँझले भइया ने सिर उठाकर विकट शब्द किया और बिजली की तेजी से सामने पैर फैला दिए, जिससे दीवट उलट गया। तब उस अन्धकार में 'दक्ष-यज्ञ' मच गया। मँझले भइया को थी मिर्गी की बीमारी, इसलिऐ वे 'ओं-ओं' करके दीवट उलटाकर जो चित्त गिरे सो फिर न उठे।

ठेलठाल करके मैं बाहर निकला तो देखा कि फूफाजी अपने दोनों लड़कों को बगल में दबाए हुए, उनसे भी अधिक तीव्र स्वर में चिल्लाकर छप्पर फाड़े डाल रहे हैं। ऐसा लगता था मानो उन तीनों बाप-बेटों में इस बात की होड़ लगी हुई है कि कौन कितना गला फाड़ सकता है।

इसी अवसर पर एक चोर जी छोड़कर भागा जा रहा था और डयोढ़ी के सिपाहियों ने उसे पकड़ लिया था। फूफाजी प्रचण्ड चीत्कार करके हुक्म दे रहे थे, “और मारो, साले को, मार डालो।” इत्यादि।

दम भर में रोशनी हो गयी, नौकर-चाकरों और पास-पड़ोसियों से आँगन खचाखच भर गया। दरबानों ने चोर को मारते-मारते अधमरा कर दिया और प्रकाश के सम्मुख खींच लाकर, धक्का देकर गिरा दिया। पर चोर का मुँह देखकर घर-भर के लोगों का मुँह सूख गया-अरे, ये तो भट्टाचार्य महाशय हैं!

तब कोई तो जल ले आया, कोई पंखे से हवा करने लगा, और कोई उनकी आँखों और मुँह पर हाथ फेरने लगा। उधर घर के भीतर मँझले भइया के साथ भी यही हो रहा था।

पंखे की हवा और जल के छींटे खाकर रामकमल होश में आकर लगे फफक-फफक कर रोने। सभी लोग पूछने लगे, “आप इस तरह भागे क्यों जा रहे थे?” भट्टाचार्य महाशय रोते-रोते बोले, “बाबा, बाघ नहीं, वह एक तगड़ा भालू था- छलाँग मारकर बैठकखाने में से बाहर आ गया।”

छोटे भइया और जतीन भइया बारम्बार कहने लगे, “भालू नहीं बाबा, एक भेड़िया था, पूँछ समेटे पायन्दाज के ऊपर बैठा गुर्रा रहा था।”

मँझले भइया, होश में आते ही अधमिची आँखों से दीर्घ निश्वास छोड़ते हुए संक्षेप में बोले, “दी रॉयल बंगाल टाइगर।”

परन्तु वह है कहाँ? चाहे मँझले भइया का 'दी रॉयल बंगाल' हो, चाहे रामकमल का 'तगड़ा भालू' हो, परन्तु वह यहाँ आया ही किस तरह और चला ही कहाँ गया? जब इतने लोगों ने उसे देखा है तब वह होगा तो कुछ न कुछ अवश्य ही।

तब किसी ने विश्वास किया और किसी ने नहीं किया। किन्तु सभी भय-चकित नेत्रों से लालटेन लेकर चारों तरफ खोजने लगे।

अकस्मात् पहलवान किशोरसिंह 'वह बैठा है' कहकर एक छलाँग में बरामदे में ऊपर चढ़ गया। उसके बाद वहाँ भी ठेला-ठेली मच गयी। उतने सब लोग बरामदे पर एक साथ चढ़ना चाहते थे, किसी से भी क्षण-भर की देर न सही जाती थी। आँगन के एक तरफ अनार का दरख्त था। मालूम पड़ा कि उसी की घनी डालियों में एक बड़ा जानवर बैठा है। वह बाघ के समान ही मालूम होता था। पलक मारते न मारते सारा बरामदा खाली हो गया और बैठकखाना खचाखच भर गया। बरामदे में एक भी आदमी न रहा। घर की उस भीड़ में से फूफाजी का उत्तेजित कण्ठ स्वर सुन पड़ने लगा, “बरछी लाओ-बन्दूक लाओ।” हमारे मकान के पास के मकान में गगन बाबू के पास एक मुंगेरी बन्दूक थी। उनका लक्ष्य उसी अस्त्र पर था।

'लाओ' तो ठीक, किन्तु लाए कौन? अनार का झाड़ था दरवाजे के ही निकट और फिर उस पर बैठा था भेड़िया। हिंदुस्तानी सिटपिटाए तक नहीं और जो लोग तमाशा देखने आए थे वे भी सनाका खींचकर रह गये।

ऐसी विपत्ति के समय न जाने कहाँ से इन्द्र आकर उपस्थित हो गया। शायद वह सामने के रास्ते से कहीं जा रहा था और शोरगुल सुनकर अन्दर घुस आया था। पल-भर में सौ कण्ठ एक साथ चीत्कार कर उठे, “ओ रे, बाघ है बाघ! भाग जा रे लड़के, भाग जा!”

पहले तो वह हड़बड़ाकर भीतर दौड़ आया किन्तु पलभर बाद ही, सब हाल सुनकर, निर्भय हो, आँगन में उतर लालटेन उठाकर देखने लगा।

दुमंजिले की खिड़कियों में से औरतें साँस रोककर इस साहसी लड़के की ओर देख-देखकर 'दुर्गा' नाम जपने लगीं। नीचे भीड़ में खड़े हुए हिंदुस्तानी सिपाही उसे हिम्मत बँधाने लगे और आभास देने लगे कि एकाध हथियार मिलने पर वे भी वहाँ आने को तैयार हैं!

अच्छी तरह देखकर इन्द्र ने कहा, “द्वारिका बाबू, यह तो बाघ नहीं मालूम होता।” उसकी बात समाप्त होते न होते वह 'रॉयल बंगाल टाइगर' दोनों हाथ जोड़कर मनुष्य के ही स्वर में रो पड़ा और बोला, “नहीं, बाबूजी, नहीं, मैं बाघ-भालू नहीं, श्रीनाथ बहुरूपिया हूँ।” इन्द्र ठठाकर हँस पड़ा। भट्टाचार्य महाशय खड़ाऊँ हाथ में लिये सबसे आगे दौड़ पड़े-

“हरामजादे, तुझे डराने के लिए और कोई जगह नहीं मिली?” फूफाजी ने महाक्रोध से हुक्म दिया, “साले को कान पकड़कर लाओ।”

किशोरी सिंह ने उसे सबसे पहले देखा था, इसलिए उसका दावा सबसे प्रबल था। वह गया और उसके कान पकड़कर घसीटता हुआ ले आया। भट्टाचार्य महाशय उसकी पीठ पर जोर-जोर से खड़ाऊँ मारने लगे और गुस्से के मारे दनादन हिंदी बोलने लगे-

“इसी हरामजादे बदजात के कारण मेरी हड्डी-पसली चूर हो गयी है। साले पछहियों ने घूँसे मार-मारकर कचूमर निकाल दिया।”

श्रीनाथ का मकान बारासत में था। वह हर साल इसी समय एक बार रोजगार करने आता था। कल भी वह इस घर में नारद बनकर गाना सुना गया था। वह कभी भट्टाचार्य महाशय के और कभी फूफाजी के पैर पकड़ने लगा। बोला, “लड़कों ने इतना अधिक भयभीत होकर, और दीवट लुढ़काकर, ऐसा भीषण काण्ड मचा दिया कि मैं स्वयं भी मारे डर के उस वृक्ष की आड़ में जाकर छिप गया। सोचता था कि कुछ शान्ति होने पर, बाहर आकर, अपना स्वाँग दिखाकर जाऊँगा। किन्तु मामला उत्तरोत्तर ऐसा होता गया कि मेरी फिर हिम्मत ही नहीं हुई।”

श्रीनाथ आरजू-मिन्नत करने लगा; किन्तु फूफाजी का क्रोध कम हुआ ही नहीं। बुआजी स्वयं ऊपर से बोलीं, “तुम्हारे भाग्य भले थे जो सचमुच का बाघ-भालू नहीं निकला, नहीं, तो जैसे बहादुर तुम और तुम्हारे दरबान हैं- छोड़ दो बेचारे को, और दूर कर दो डयोढ़ी के इन पछहियाँ दरबानों को। एक जरा से लड़के में जो साहस है उतना घर-भर के सब आदमियों में मिलकर भी नहीं है।” फूफाजी ने कोई बात ही न सुनी; वरन् उन्होंने बुआजी के इस अभियोग पर आँखें घुमाकर ऐसा भाव धारण किया कि मानो इच्छा करते ही वे इन सब बातों का काफी और माकूल जवाब दे सकते हैं, परन्तु चूँकि औरतों की बातों का उत्तर देने की कोशिश करना भी पुरुष जाति के लिए अपमानकारक है इसलिए, और भी गरम होकर हुक्म दिया, “इसकी पूँछ काट डालो।” तब उसकी रंगीन कपड़े से लिपटी हुई घास की बनी लम्बी पूँछ काट डाली गयी, और उसे भगा दिया गया। बुआजी ऊपर से गुस्से में बोलीं, “पूँछ को सँभालकर रख छोड़ो, किसी समय काम आएगी!”

इन्द्र ने मेरी ओर देखकर कहा, “मालूम पड़ता है, तुम इसी मकान में रहते हो, श्रीकांत!”

मैंने कहा, “हाँ, तुम, इतनी रात को कहाँ जाते थे?”

इन्द्र हँसकर बोला, “रात कहाँ है रे, अभी तो संध्यास हुई है। मैं जाता हूँ अपनी डोंगी पर मछली पकड़ने। चलता है?”

मैंने डरकर पूछा, “इतने अन्धकार में डोंगी पर चढ़ोगे?”

वह फिर हँसा, बोला, “डर क्या है रे? इसी में तो मजा है। सिवाय इसके क्या अंधेरा हुए बगैर मछलियाँ पाई जा सकती हैं? तैरना जानता है?”

“खूब जानता हूँ।”

“तो फिर चल भाई।” यह कहकर उसने मेरा हाथ पकड़ लिया। कहा, “मैं अकेला इतने बहाव में उस तरफ को नाव नहीं ले सकता, ऐसे ही किसी की खोज में था जो डरे नहीं।”

मैंने फिर कुछ न कहा। उसका हाथ पकड़े हुए चुपचाप रास्ते पर आ पहुँचा। पहले तो मानो मुझे अपने आप पर ही विश्वास न हुआ कि सचमुच ही उस रात्रि को मैं नाव चलाने जा रहा हूँ, क्योंकि जिस आह्नान के आकर्षण से उस स्तब्ध निबिड़ निशा में, घर के समस्त शासन-पाश को तुच्छ समझकर, अकेला बाहर चला आया था वह कितना बड़ा आकर्षण था, यह उस समय विचारकर देख सकना मेरे लिए साध्यु ही नहीं था। अधिक समय बीतने के पूर्व ही गोसाईं बाग के उस भयंकर वन-पथ के सामने आ उपस्थित हुआ और इन्द्र का अनुसरण करता हुआ स्वप्नाविष्ट पुरुष की भाँति उसे पारकर गंगा के किनारे जा पहुँचा।

कंकड़-पत्थरों का खड़ा किनारा है। सिर के ऊपर एक बहुत प्राचीन बरगद का वृक्ष मूर्तिमान अन्धकार के समान चुपचाप खड़ा है और उसी के करीब तीस हाथ नीचे सूचीभेद्य अन्धकार के तल में, पूरी बरसात का गम्भीर जल-स्रोत चट्टानों से टकराकर, भँवरों की रचना करता हुआ, उद्दाम वेग से दौड़ रहा है। देखा कि, उसी स्थान पर इन्द्र की छोटी-सी नाव बँधी हुई है। ऊपर से देखने पर ऐसा मालूम हुआ मानो उस खूब तेज जल-धारा के मुख पर केले के फूल का एक छोटा-सा छिलका लगातार टकरा-टकराकर मर रहा है।

मैं स्वयं भी बिल्कुरल डरपोक नहीं था। किन्तु जब इन्द्र ने ऊपर से नीचे तक लटकती हुई एक रस्सी दिखलाकर कहा, “डोंगी की इस रस्सी को पकड़कर चुपचाप नीचे उतर जा; सावधानी से उतरना, फिसल गया तो फिर खोजने से भी तेरा पता नहीं लगेगा।” तब दरअसल मेरी छाती धड़क उठी। जान पड़ा कि यह असम्भव है, फिर भी मेरे लिए तो रस्सी का सहारा है-”किन्तु तुम क्या करोगे?”

उसने कहा, “तेरे नीचे जाते ही मैं रस्सी खोल दूँगा और फिर नीचे उतरूँगा। डर की बात नहीं है, मेरे नीचे उतरने के लिए बहुत-सी घास की जड़ें झूल रही हैं।”

और कुछ न कहकर मैं रस्सी के सहारे बड़ी सावधानी से बमुश्किल नीचे उतरकर नाव पर बैठ गया। इसके बाद उसने रस्सी खोल दी और वह झूल गया। वह किस चीज के सहारे नीचे उतरने लगा सो मैं आज भी नहीं जानता हूँ! डर के मारे मेरी छाती इतने जोर से धड़कने लगी कि उसकी और मैं देख भी न सका। दो-तीन मिनट तक विपुल जल-धारा के उन्मत्त गर्जन के सिवाय कहीं से कोई शब्द भी नहीं सुनाई दिया। एकाएक एक हलकी-सी हँसी के शब्द से चौंककर मुँह फिराया तो देखता हूँ कि इन्द्र ने दोनों हाथों से डोंगी को जोर से धक्का देकर ठेल दिया है और आप कूदकर उस पर चढ़ बैठा है। क्षुद्र तरी एक चक्कर-सा खाकर नक्षत्र-वेग से बहने लगी।

कुछ ही देर में सामने और पीछे सब कुछ सघन अन्धकार से लिप-पुतकर एकाकार हो गया। रह गयी दाहिनी ओर बाईं ओर दोनों सीमाओं तक फैली हुई विपुल उद्दाम जल की धारा, और उसके ऊपर खूब तेजी से चलने वाली वह छोटी-सी नाव और उस पर किशोरवय के दो बालक। यद्यपि प्रकृति देवी के अपरिमेय गम्भीर रूप को समझने की उम्र वह नहीं थी, किन्तु उसे मैं आज भी नहीं भूल सका हूँ। वायुहीन, निष्कम्प, निस्तब्ध, नि:संग, निशीथनी की मानो वह एक विराट काली मूर्ति थी। उसके निबिड़ काले बालों से आकाश और पृथ्वी ढँक गयी थी और उस सूची-भेद्य अन्धकार को विदीर्ण करके, कराल दाढ़ों की रेखा के समान, उस दिगन्त-विस्तृत तीव्र जलधारा से मानो एक तरह की अद्भुत निश्चल द्युति, निष्ठुर दबी हुई हँसी के समान, बिखर रही थी। आसपास और सामने, कहीं तो जल की उन्मत्त धारा तल देश में जाकर तथा ऊपर को उठकर फट पड़ती थी, कहीं परस्पर के प्रतिकूल गति संघात से आवर्तों की रचना करती हुई चक्कर खाती थी, और कहीं अप्रतिहित जल-प्रवाह पागल की तरह दौड़ा जा रहा था।

हमारी डोंगी एक कोने से दूसरे कोने की ओर जा रही है, बस इतना ही मालूम हो रहा था। किन्तु उस पार के उस दुर्भेद्य अन्धकार में, किस जगह लक्ष्य स्थिर करके, इन्द्र हाल को पकड़े चुपचाप बैठा है, यह मैं कुछ न जानता था। इस उम्र में वह कितना पक्का माझी बन गया था, इसकी मुझे उस समय कल्पना भी न थी। एकाएक वह बोला-

“क्यों रे श्रीकांत, डर लगता है क्या?”

मैं बोला, “नहीं।”

इन्द्र खुश होकर बोला, “यही तो चाहिए। जब तैरना आता है तब फिर डर किस बात का?” प्रत्युत्तर में मैंने एक छोटे-से नि:श्वास को दबा दिया कि कहीं वह सुन न ले। किन्तु, ऐसी गहरी अंधेरी रात में, ऐसी जल-राशि और ऐसे दुर्जय प्रवाह में, तैरना जानने और न जानने में क्या अन्तर है, सो मेरी समझ में न आ सका। उसने भी और कोई बात नहीं कही। बहुत देर तक इसी तरह चलते रहने के बाद कहीं से कुछ आवाज-सी आई, जो कि अस्फुट और क्षीण थी, किन्तु नौका जैसे-जैसे अग्रसर होने लगी वैसे ही वैसे वह आवाज भी स्पष्ट और प्रबल होने लगी। मानो लोगों का बहुत दूर से आता हुआ क्रुद्ध आह्नान हो- मानो कितने ही बाधा-विघ्नों को लाँघकर, हटाकर, वह आह्नान हमारे कानों तक आ पहुँचा हो। वह आह्नान थका हुआ-सा था, फिर भी न उसमें विराम था और न विच्छेद ही- मानो उनका क्रोध न कम होता था न बढ़ता ही था और न थमना ही चाहता था। बीच-बीच में एकाध दफा 'भप्-भप् शब्द भी होता थ। मैंने पूछा, “इन्द्र यह काहे की आवाज सुन पड़ती है?” उसने नौका का मुँह कुछ और सीधा करके कहा, “जल के प्रवाह से उस पार के कगारे, टूट-टूटकर गिर रहे हैं, उसी का यह शब्द है।”

मैंने पूछा, “कितने बड़े कगारे हैं? और कैसा प्रवाह है?”

“बड़ा भयानक प्रवाह है। ओह! तभी तो- कल पानी बरस गया है,- आज उसके तले से न गया जाएेगा। कहीं एक भी कगारा गिर पड़ा तो नाव और हम सभी पिस जाँयगे। अच्छा, तू तो डाँड़ चला सकता है न?”

“चला सकता हूँ।”

“तो चला।”

मैंने डाँड़ चलाना शुरू कर दिया। इन्द्र ने कहा, “वही, वही जो बायीं ओर काला-काला दीख पड़ता है, वह चड़ा¹ है। उसके बीच में से एक नहर-सी गयी है, उसी में से होकर निकल जाना होगा- परन्तु बहुत आहिस्ते। अगर कहीं धीवरों को जरा भी पता लग गया, तो फिर लौटना न हो सकेगा। वे लग्गी की मार से सिर फोड़कर इसी कीचड़ में गाड़ देंगे।”

यह क्या? मैंने डरते हुए कहा, “तो फिर उस नहर में होकर मत चलो।” इन्द्र ने शायद कुछ हँसकर कहा, “और तो कोई रास्ता ही नहीं है। उसके भीतर होकर तो जाना ही होगा। द्वीप के बायीं ओर की रेहं को ठेलकर तो जहाज भी नहीं जा सकता- फिर हम कैसे जाँयगे? लौटती में वापिस आ सकते हैं किन्तु जा नहीं सकते।”

“तो फिर मछलियों के चुराने की जरूरत नहीं है भइया।” कहकर मैंने डाँड़ ऊपर उठा लिया। पलक मारते ही नाव चक्कर खाकर लौट चली। इन्द्र खीझ उठा। उसने आहिस्ते से झिड़कते हुए कहा, “तो फिर आया क्यों? चल-तुझे वापिस पहुँचा आऊँ। कायर कहीं का!” उस समय मैंने चौदह पूरे करके पन्द्रहवें में पैर रक्खा था। मैं कायर? झट से डाँड़ को पानी में फेंककर प्राणप्रण से खेने लगा। इन्द्र खुश होकर बोला, “यही तो चाहिए, किन्तु भाई धीरे-धीरे चलाओ- साले बहुत पाजी हैं। मैं झाऊ के वन के पास से, मकई के खेतों के भीतर होकर, इस तरह बचाकर ले चलूँगा कि सालों को जरा भी पता न पड़ेगा!” फिर कुछ हँसकर बोला, “और यदि सालों को पता लग भी गया तो क्या? पकड़ लेना क्या इतना सहज है? देख श्रीकांत, कुछ भी डर नहीं है- यह ठीक है कि उन सालों की चार नावें हैं- किन्तु यदि देखो कि घिर ही गये हैं, और भाग जाने की कोई जुगत नहीं है, तो चट से कूदकर डुबकी लगा जाना और जितनी दूर तक हो सके उतनी दूर जाकर निकलना, बस काम बन जाएेगा। इस अन्धकार में देख सकने का तो कोई उपाय ही नहीं है- उसके बाद मजे से सतूया के टीले पर चढ़कर भोर के समय तैरकर इस पार आ जाँयगे और गंगा के किनारे-किनारे घर पहुँच जाँयगे- बस, फिर क्या कर लेंगे साले हमारा?”

यह नाम मैंने सुना था; कहा, “सतूया का टीला तो 'घोर' नाले के सामने है, वह तो बहुत दूर है।”

इन्द्र ने उपेक्षा के भाव से कहा, “कहाँ, बहुत दूर है? छ:-सात कोस भी तो न होगा! तैरते-तैरते यदि हाथ भर आवें तो चित्त होकर सुस्ता लेना; इसके सिवाय, मुर्दे जलाने के काम आए हुए बहुत-से बड़े-बड़े लक्कड़ भी तो बहते मिल जाँयगे।”

आत्म-रक्षा का जो सरल रास्ता था सो उसने दिखा दिया, उसमें प्रतिवाद करने की कोई गुंजाइश नहीं थी। उस अंधेरी रात में, जिसमें दिशाओं का कोई चिह्न नजर न आता था, और उस तेज जल-प्रवाह में, जिसमें जगह-जगह भयानक आवत्त पड़ रहे थे, सात कोस तक तैरकर जाना और फिर भोर होने की प्रतीक्षा करते रहना! सवेरे से पहले इस तरफ के किनारे पर चढ़ने का कोई उपाय नहीं। दस-पन्द्रह हाथ ऊँचा खड़ा हुआ बालू का कगारा है, जो टूटकर सिर पर आ सकता है,- और इसी तरफ गंगा का प्रवाह भीषण टक्करें लेता हुआ अर्ध्दवृत्ताकार दौड़ा जा रहा है।

वस्तुस्थिति का अस्पष्ट आभास पाकर ही मेरा विस्तृत वीर-हृदय सिकुड़कर बिन्दु जैसा रह गया। कुछ देर तक डाँड़ चलाकर मैं बोला, “किन्तु हमारी नाव का क्या होगा?”

इन्द्र बोला, “उस दिन भी मैं ठीक इसी तरह भागा था, और उसके दूसरे ही दिन आकर नाव निकाल ले गया था- कह दिया था कि घाट पर से डोंगी चोरी करके कोई और ले आया होगा- मैं नहीं लाया।”

तो यह सब इसकी कल्पना ही नहीं है- बिल्कुयल परीक्षा किया हुआ प्रत्यक्ष सत्य है! क्रमश: नौका खाड़ी के सामने आ पहुँची। देख पड़ा कि मछुओं की नावें कतार बाँधकर खाड़ी के मुहाने पर खड़ी हैं और उनमें दीए भी टिमटिमा रहे हैं। दो टीलों के बीच का वह जल-प्रवाह नहर की तरह मालूम होता था। घूमकर हम लोग उस नहर के दूसरे किनारे पर जाकर उपस्थित हो गये। उस जगह जल के वेग से अनेक मुहाने से बन गये हैं और जंगली झाऊ के पेड़ों ने परस्पर एक-दूसरे को ओट में कर रक्खा है। उनमें से एक के भीतर होकर कुछ दूर जाने से ही हम नहर के भीतर जा पहुँचे। धीवरों की नावें वहाँ से दूर पर खड़ी हुई काली-काली झाड़ियों की तरह दिखाई पड़ती थीं। और भी कुछ दूर जाने पर हम उद्दिष्ट स्थान पर पहुँच गये।

धीवर देवताओं ने, नहर का सिंहद्वार सुरक्षित है-यह समझकर इस स्थान पर पहरा नहीं रक्खा था। इसे 'माया-जाल' कहते हैं। नहर में जब पानी रहता है तब इस किनारे से लेकर उस किनारे तक ऊँचे-ऊँचे लट्ठ मजबूती से गाड़ दिए जाते हैं और उनके बाहरी ओर जाल टाँग दिया जाता है। बाद में वर्षा के समय, जब जल के प्रवाह में बड़े-बड़े रोहू, कातला आदि मच्छ बह कर आते हैं, तब इन लट्ठों से बाधा पाकर वे कूदकर इस बाजू आ जाना चाहते हैं और डोरी के जाल में फँस जाते हैं।

दस-पन्द्रह बीस सेर के पाँच-छह रोहू-कातला मच्छ दम-भर में पकड़कर इन्द्र ने नाव पर रख लिये। विराटकाय मच्छराज अपनी पूँछों की फटकार से हमारी उस छोटी-सी नौका को चूर्ण-विचूर्ण कर डालने का उपक्रम करने लगे और उनका शब्द भी कुछ कम नहीं हुआ।

“इतनी मछलियों का क्या होगा, भाई?”

“जरूरत है। बस, अब और नहीं, चलो भाग चलें।” कहकर उसने जाल छोड़ दिया। अब डाँड़ चलाने की जरूरत नहीं रही। मैं चुपचाप बैठ रहा। उसी प्रकार छिपे-छिपे उसी रास्ते से बाहर जाना था। अनुकूल बहाव में दो-तीन मिनट प्रखर गति से बहने के उपरान्त, एकाएक एक स्थान पर मानो जरा धक्का खाकर, हमारी वह छोटी डोंगी पास के मकई के खेत में प्रवेश कर गयी। उसके इस आकस्मिक गति-परिवर्तन से मैंने चकित होकर पूछा, “क्यों? क्या हुआ?”

इन्द्र ने एक ओर धक्का देकर, उसे कुछ और भी अन्दर ले जाते हुए कहा, “चुप, सालों को मालूम हो गया है- चार नावों को खोलकर साले यहीं आ रहे हैं-वह देखो।” इन्द्र ठीक कह रहा था। जोर के साथ जल को काटती और 'छप-छप्' शब्द करती हुई तीन नौकाएँ हमें निगल जाने के लिए कृष्णकाय दैत्यों के समान दौड़ी आ रही थीं। उस तरफ तो जाल से रास्ता बन्द था; और इस तरफ से ये लोग आ रहे थे- भागकर छुटकारा पाने का जरा-सा भी अवकाश नहीं था। इस मकई के खेत के बीच अपने आपको छिपाया जा सकेगा, यह भी मुझे सम्भव नहीं जान पड़ा।

“अब क्या होगा भाई।” कहते-कहते ही अदम्य वाष्पोच्छवास से मेरा कण्ठ रुद्ध हो गया। इस अन्धकार में, इस पिंजरे के भीतर, अगर ये लोग हमारा खून करके भी इस खेत में गाड़ दें, तो इन्हें कौन रोकेगा?”

इसके पहले पाँच-छह बार इन्द्र 'चोरी की विद्या बड़ी विद्या है', इस बात को सप्रमाण सिद्ध करके निर्विघ्न निकल गया था; इतने दिन, पीछा किये जाने पर भी हाथ न आया था, किन्तु आज?

उसने मुख से कहा कि, “डर की कोई बात नहीं है।” किन्तु मानो गला उसका काँप गया। किन्तु वह रुका नहीं, प्राण-प्रण से लग्गी ठेलकर धीरे-धीरे भीतर छिपने की चेष्टा करने लगा। समस्त टीका जलमय हो गया था। उसके ऊपर आठ-आठ, दस-दस हाथ लम्बे मकई और ज्वार के पेड़ थे और भीतर हम दोनों चोर। कहीं तो पानी छाती तक था, कहीं कमर तक और कहीं घुटनों से अधिक नहीं। ऊपर निबिड़ अन्धकार और आगे-पीछे दायें-बायें निर्भेद्य जंगल। लग्गी कीचड़ में धाँसने लगी और डोंगी अब एक हाथ भी आगे नहीं बढ़ती। पीछे से धीवरों की अस्पष्ट बातचीत कानों में आने लगी। इस बात में अब जरा भी संशय नहीं रहा कि कुछ संदेह करके ही वे लोग चले हैं और अब भी खोजते फिर रहे हैं।

सहसा डोंगी एक ओर कुछ झुककर सीधी हो गयी। आँख उठाकर देखा कि मैं अकेला ही रह गया हूँ, दूसरा व्यक्ति नहीं है। डरते हुए मैंने आवाज दी, “इन्द्र।” पाँच-छह हाथ दूर वन के बीच से आवाज आई, “मैं नीचे हूँ।”

“नीचे क्यों?”

“डोंगी खींचकर निकालनी होगी। मेरी कमर से रस्सी बँधी है।”

“खींचकर कहाँ ले जाओगे?”

“उस गंगा में। थोड़ी ही दूर ले जाने पर बड़ी धारा मिल जाएेगी।”

सुनकर मैं चुप हो गया और क्रम-क्रम से धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगा। अकस्मात् कुछ दूर पर वन के बीच कनस्तर पीटने और फटे बाँसों के फटाफट शब्द से मैं चौंक उठा। डरते हुए मैंने पूछा, “वह क्या है भाई?” उसने उत्तर दिया, “खेतिहर लोग मचान पर बैठे हुए जंगली सूअरों को भगा रहे हैं।”

“जंगली सूअर! कहाँ हैं वे?” इन्द्र नाव खींचते-खींचते लापरवाही से बोला, “मुझे क्या दीख पड़ते हैं, जो बताऊँ? होंगे यहीं कहीं।” जवाब सुनकर मैं स्तब्ध हो रहा। सोचा, किसका मुँह देखा था आज सुबह! सरेशाम ही तो आज घर के भीतर बाघ के हाथ पड़ गया था, अब यदि इस जंगल में बनैले सूअरों के हाथ पड़ जाऊँ, तो इसमें विचित्र ही क्या है? फिर भी मैं तो नाव में बैठा हूँ, किन्तु, यह आदमी, छाती तक कीचड़ और जल में, इस जंगल के भीतर खड़ा है! एक कदम हिलने-डुलने का उपाय भी तो इसके पास नहीं है! कोई पन्द्रह मिनट इसी तरह सोच-विचार में निकल गये। और भी एक वस्तु पर मैं ध्यायन दे रहा था। अक्सर देखता था कि पास ही किसी न किसी ज्वार या मकई के पेड़ का अगला हिस्सा एकाएक हिलने लगता था और 'छप-छप' शब्द होता था। एक दफे तो मेरे हाथ के पास ही हरकत हुई। सशंक होकर उस तरफ मैंने इन्द्र का ध्या न आकर्षित किया कि “बड़ा सूअर न सही, कोई बच्चा-कच्चा हो नहीं है?”

इन्द्र ने अत्यन्त सहज भाव से उत्तर दिया, “वह, कुछ नहीं-साँप लिपटे हैं; आहट पाकर जल में कूद पड़ते हैं।”

“कुछ नहीं, साँप!” काँपकर मैं नाव के बीच सिकुड़कर बैठ गया। अस्फुट स्वर में पूछा, “कैसे साँप भाई?”

इन्द्र ने कहा, “सब किस्म के साँप हैं!-टोंडा, बोंडा, कौंडियाल, काले आदि। पानी में बहते-बहते आए और झाड़ों में लिपट रहे- कहीं भी तो सूखी जमीन नहीं है, देखते नहीं हो?”

“सो तो देखता हूँ।” भय के मारे मेरे तो पैरों के नख से लेकर सिर के बाल तक खड़े हो गये। परन्तु उस भले मानुस ने भूरक्षेप तक न किया, अपना काम करते-करते ही वह कहने लगा, “किन्तु ये काटते नहीं है। ये खुद ही बेचारे डर के मारे मरे जा रहे हैं, दो-तीन तो मेरे ही शरीर को छूते हुए भाग गये हैं। कई एक तो खूब मोटे हैं, मालूम पड़ता है कि वे टोंडा, बोंडा होंगे। और यदि कदाचित् काट ही खायँ, तो क्या किया जाए, मरना तो एक दिन होगा ही भाई! इसी प्रकार वह और भी कुछ अपने मृदु स्वाभाविक कण्ठ से बोलता रहा, मेरे कानों तक कुछ तो पहुँचा और कुछ नहीं पहुँचा। मैं निर्वाक्, निष्पन्द काठ के समान जड़ होकर एक ही स्थान पर एक ही भाव से बैठा रहा। श्वास छोड़ने में भी मानो भय मालूम होने लगा- 'छप' से कहीं कोई मेरी नाव में ही न आ गिरे।

और चाहे जो हो, किन्तु वह क्या आदमी है?, मनुष्य देवता, पिशाच-वह क्या है? किसके साथ मैं इस जंगल में घूम रहा हूँ? यदि मनुष्य है तो क्या वह नहीं जानता कि इस विश्व-संसार में भय नाम की भी कोई चीज होती है? हृदय क्या उसका पत्थर से बना है? क्या वह हमारी ही तरह सिकुड़ता-फैलता नहीं है? तो फिर उस दिन, खेल के मैदान में, सबके भाग जाने पर, बिल्कुशल अपरिचित होते हुए भी, मुझे अकेले को निर्विघ्न बाहर निकाल देने के लिए जो वह शत्रुओं के मध्यद में घुस आया था, सो क्या वह दया-माया भी इस पत्थर में ही विनिहित थी? और आज विपत्ति का सब हाल राई-राई, तिल-तिल, जानते-सुनते हुए भी चुपचाप अकुंठित चित्त से वह इस भयावह और अति भीषण मृत्यु के मुख में उतरकर खड़ा है। एक बार मुँह से यह भी नहीं कहता कि “श्रीकांत भाई, एक बार तू नीचे उतर आ।” वह तो मुझे जबरन नीचे उतारकर नौका खिंचवा सकता था। यह केवल खेल तो है नहीं! जीवन और मृत्यु के आमने-सामने खड़े होकर इस उम्र में, ऐसा स्वार्थ-त्याग कितने आदमियों ने किया है? बिना आडम्बर के कितने सहज भाव से उसने कह दिया कि, 'मरना तो एक दिन होगा ही भाई।' कितने लोग ऐसी सच बात कहते दिखाई देते हैं? यह सच है कि इस विपत्ति में वही मुझे खींच लाया है, फिर भी उसके इतने बड़े स्वार्थ-त्याग को मनुष्य की देह धारण करते हुए मैं किस तरह भूल जाऊँ भला? किस तरह भूलूँ उसे,- जिसके हृदय के भीतर से इतना बड़ा अयाचित दान इतनी सरलता से बाहर आ गया? उस हृदय को किसने किस चीज से गढ़ा होगा? उसके बाद कितने काल और कितने सुख-दु:खों में से होकर मैं आज इस बुढ़ापे को प्राप्त हुआ हूँ। कितने देश, कितने प्रान्त, कितने नद-नदी, पहाड़-पर्वत, वन-जंगल, घूमा फिरा हूँ-कितने प्रकार के मनुष्य इन दो आँखों के सामने से गुजर गये हैं- किन्तु इतना बड़ा महाप्राण व्यक्ति तो और कभी देखने को नहीं मिला! परन्तु वह अब नहीं रहा, अकस्मात् एक दिन मानो बुद्बु की तरह शून्य में मिल गया। आज उसकी याद आते ही दोनों सूखी आँखें जल से भर आती हैं, केवल एक निष्फल अभिमान हृदय के तल-देश को आलोड़ित करके ऊपर की ओर फेन के माफिक तैर आता है। हे सृष्टिकर्ता! क्यों तूने उस अद्भुत, अपार्थिव वस्तु को सृष्ट करके भेजा था और इस प्रकार व्यर्थ करके क्यों उसे वापिस बुला लिया? बड़ी ही व्यथा से मेरा यह असहिष्णु मन आज बारम्बार यही प्रश्न करता है- भगवान! तुम्हें रुपया-पैसा, धन-दौलत, विद्या-बुद्धि तो अपने अखूट, भंडार से ढेर की ढेर देते हुए देखता हूँ किन्तु इतने बड़े महाप्राण व्यक्ति आज तक तुम कितने दे सके हो? खैर, जाने दो इस बात को। घोर जल-कल्लोल क्रमश: पास में आता-जाता है, इस बात को मैं जान रहा था; इसलिए और कोई सवाल किये बगैर मैंने समझ लिया कि इस जंगल के बीच में ही वह भीषण प्रवाह प्रवाहि‍त हो रहा है जिसको स्टीमर भी पार नहीं कर पाते। मैं खूब अनुभव कर रहा था कि पानी का वेग बढ़ रहा है और धूसर वर्ण का फेन का पुंज विस्तृत रेत-राशि का भ्रम उत्पन्न कर रहा है। इन्द्र नौका पर चढ़ आया और डाँड़ को हाथ में लेकर सामने के उद्दाम स्रोत का सामना करने को तैयार हो बैठा। वह बोला, “अब कोई डर नहीं है, हम बड़ी गंगा में आ पहुँचे हैं।” मैंने मन ही मन कहा- अब, डर नहीं है तो अच्छा है। किन्तु डर तुम्हें काहे का है सो तो मैं समझा ही नहीं। क्षण-भर बाद ही नौका एक बार मानो सिर से पैर तक काँप उठी और पलक मारने के पहले ही मैंने देखा कि वह बड़ी गंगा के स्रोत में पड़कर उल्का के वेग से दौड़ी जा रही है।

उस समय छिन्न बादलों की आड़ में मालूम हुआ, मानो चन्द्रमा उदय हो रहा है क्योंकि जैसे अन्धकार में हम अभी तक यात्रा करते आ रहे थे वैसा अन्धकार अब नहीं रहा था। अब बहुत दूर तक, चाहे साफ भले ही न हो, दिखाई देने लगा था। मैंने देखा जंगली झाऊ और मकई-जुआरवाला टीला दाहिनी ओर छोड़कर हमारी नाव सीधी चली जा रही है।

“बहुत जोर से नींद आ रही है इन्द्र, अब घर लौट चलो भाई!” इन्द्र ने कुछ हँसकर ठीक स्त्री-सुलभ स्नेहार्द्र कोमल स्वर में कहा, “नींद आने की तो बात ही है भइया, पर क्या किया जाए श्रीकांत आज तो कुछ देर होगी ही- अभी बहुत-सा काम पड़ा है। अच्छा एक काम करो न, इसी जगह थोड़ा-सा लेट लो।”

दुबारा अनुरोध की जरूरत ही नहीं हुई, मैं गुड़मुड़ होकर उसी स्थान पर लेट गया। परन्तु नींद नहीं आई। अधामुँदी आँखों से मैं चुपचाप आकाश में बादलों और चाँद की आँख-मिचौनी देखने लगा। यह डूबा, वह निकला, फिर डूबा, हँसा। और कान में आने लगी जल-प्रवाह की, वही सतत हुंकार। यह एक ही बात प्राय: मेरे मन में आया करती है कि मैं उस दिन इस प्रकार सब कुछ भूल-भालकर बादलों और चन्द्रमा के बीच कैसे डूब गया था? तन्मय होकर चाँद देखने की अवस्था तो मेरी उस समय थी नहीं। किन्तु बड़े-बूढ़े लोग पृथ्वी के अनेक व्यापार देख-सुनकर कहा करते हैं कि यह बाहरी चाँद कुछ नहीं है, बादल भी कुछ नहीं है- सब माया है, मिथ्या है, दरअसल कुछ चीज है तो यह अपना मन है। वह जब जिसे जो दिखता है विभोर होकर तब वह केवल वही देखता है। मेरी भी यही दशा थी। इतने प्रकार की भयंकर घटनाओं में से, इस प्रकार सही-सलामत बाहर निकल आने के उपरान्त, मेरा निर्जीव मन, उस समय, शायद, ऐसी ही किसी एक शान्त तसवीर के भीतर विश्राम लेना चाहता था।

इतने में घण्टे-दो घण्टे निकल गये, जिनकी मुझे खबर ही नहीं हुई। एकाएक मुझे मालूम हुआ कि मानो चाँद बादलों के बीच एक लम्बी डुबकी लगा गया है, और एकाएक दाहिनी ओर से बाईं ओर जाकर अपना मुँह बाहर निकाल रहा है। गर्दन कुछ ऊपर उठाकर देखा, नौका अब उस पार जाने की तैयारी में है। प्रश्न करने अथवा कुछ कहने का उद्यम भी, शायद उस समय मुझमें शेष नहीं था; इसलिए मैं फिर उसी तरह लेट गया। फिर वही आँखें भरकर प्रवाह का गर्जन-तर्जन देखने-सुनने लगा। शायद इस तरह एक घण्टा और भी बीत गया।

खस्-से-रेत के टीले पर नौका टकराई। व्यस्त होकर मैं उठकर बैठ गया। अरे, यह तो इस पार आ पहुँचे। परन्तु यह जगह कौन-सी है? घर मेरा कितनी दूर है? रेत के ढेर के सिवाय और तो कहीं कुछ दीख ही नहीं रहा है? सवाल करने के पहले ही एकाएक कहीं पास ही कुत्तों का भूँकना सुनकर मैं और भी सीधा होकर बैठ गया। निश्चय ही कहीं पास में बस्ती है।

इन्द्र बोला, “तनिक ठहर श्रीकांत, मैं थोड़ा-सा घूमकर अभी लौट आऊँगा- तुझे अब कुछ डर नहीं है। इस कगारे के उस पार ही धीवरों के मकान हैं।”

साहस की इतनी परीक्षाएँ पास करने के उपरान्त अन्त में यहाँ आकर फेल हो जाने की मेरी बिल्कुनल इच्छा नहीं थी; और खास करके मनुष्य की इस किशोर अवस्था में, जिसके समान महा-विस्मयकारी वस्तु संसार में शायद और कोई नहीं है। एक तो वैसे ही मनुष्य की मानसिक गतिविधि बहुत ही दुर्जेय होती है; और फिर किशोर-किशोरी के मन का भाव तो, मैं समझता हूँ, बिल्कुनल ही अज्ञेय है। इसीलिए शायद, श्रीवृन्दावन के उन किशोर-किशोरी की किशोरलीला चिरकाल से ऐसे रहस्य से आच्छादित चली आती है। बुद्धि के द्वारा ग्राह्य न कर सकने के कारण किसी ने उसे कहा, 'अच्छी' किसी ने कहा, 'बुरी'-किसी ने 'नीति' की दुहाई दी, किसी ने 'रुचि' की और किसी ने कोई भी बात न सुनी-वे तर्क-वितर्क के समस्त घेरों का उल्लघंन कर बाहर हो गये। जो बाहर हो गये, वे डूब गये, पागल हो गये; और नाचकर, रोकर, गाकर-एकाकार करके संसार को उन्होंने मानो एक पागलखाना बना छोड़ा। तब, जिन लोगों ने 'बुरी' कहकर गालियाँ दी थीं उन्होंने भी कहा कि- और चाहे जो हो किन्तु, ऐसा रस का झरना और कहीं नहीं है। जिनकी 'रुचि' के साथ इस लीला का मेल नहीं मिलता था उन्होंने भी स्वीकार किया- इस पागलों के दल को छोड़कर हमने ऐसा गान और कहीं नहीं सुना। किन्तु यह घटना जिस आश्रय को लेकर घटित हुई, जो सदा पुरातन है, और साथ ही चिर-नूतन भी- वृन्दावन के वन-वन में होने वाली किशोर-किशोरी की उस सुन्दरतम लीला का अन्त किसने कब खोज पाया है, जिसके निकट वेदान्त तुच्छ है और मुक्ति-फल जिसकी तुलना में बारिश के आगे वारि-बिन्दु के समान क्षुद्र है! न किसी ने खोज पाया है और न कोई कभी खोज पायेगा। इसीलिए तो मैंने कहा कि उस समय मेरी वही किशोर अवस्था थी। भले ही उस समय यौवन का तेज और दृढ़ता न आई हो, परन्तु फिर भी उसका दम्भ तो आकर हाजिर हो गया था! आत्मसम्मान की आकांक्षा तो हृदय में सजग हो गयी थी! उस समय अपने सखा के निकट अपने को कौन डरपोक सिद्ध करना चाहेगा? इसलिए मैंने उसी दम जवाब दिया, “मैं डरूँगा क्यों? अच्छा तो है, जाओ।” इन्द्र ने और दूसरा वाक्य खर्च न किया और वह जल्दी-जल्दी पैर बढ़ाता हुआ अदृश्य हो गया।

ऊपर सिर पर अन्धकार-प्रकाश की वह आँख-मिचौनी हो रही थी, पीछे बहुत दूर तक अविश्रान्त सतत गर्जन-तर्जन हो रहा था और सामने वही रेती का किनारा था। यह कौन स्थान है, सोच ही रहा था कि इन्द्र दौड़ता हुआ आकर खड़ा हो गया। बोला, “श्रीकांत, तुझसे एक बात कहने को लौट आया हूँ। यदि कोई मच्छ माँगने आवे तो खबरदार देना नहीं- कहे देता हूँ, खबरदार, हरगिज न देना। ठीक मेरे समान रूप बनाकर यदि कोई आवे, तो भी मत देना। कहना, तेरे मुँह पर धूल, इच्छा हो तो तू खुद ही उठा ले जा, खबरदार! हाथ से किसी को उठाकर न देना, भले ही मैं ही क्यों न होऊँ- खबरदार!”

“क्यों भाई?”

“लौटने पर बताऊँगा- किन्तु खबरदार।” यह कहते-कहते वह जैसे आया था वैसे ही दौड़ता हुआ चला गया।

इस दफे नख से शिख तक मेरे सब रोंगटे खड़े हो गये। जान पड़ा कि मानो शरीर की प्रत्येक शिरा उपशिरा में से बरफ का गला हुआ पानी बह चला है। मैं बिल्कुयल बच्चा तो था नहीं, जो उसके इशारे का मतलब बिल्कुंल न भाँप सकता! मेरे जीवन में ऐसी अनेक घटनाएँ घट चुकी हैं जिनकी तुलना में यह घटना समुद्र के आगे गौ के खुर के गढ़े में भरे हुए पानी के समान थी। किन्तु फिर भी इस रात्रि की यात्रा में जो भय मैंने अनुभव किया, उसे भाषा में व्यक्त नहीं किया जा सकता। मालूम होता था कि भय के मारे होश-हवास गुम करने की अन्तिम सीढ़ी पर आकर ही मैंने पैर रख दिया है। प्रतिक्षण जान पड़ता था कि कगार के उस तरफ से मानो कोई झाँक-झाँककर देख रहा है। जैसे ही मैं तिरछी दृष्टि से देखता हूँ, वैसे ही मानो वह सिर नीचा करके छिप जाता है।

समय कटता नहीं था। मानो इन्द्र ने जाने कितने युग हुए चला गया है- और लौट नहीं रहा है।

ऐसा मालूम हुआ मानो किसी मनुष्य की आवाज सुनी हो। जनेऊ को अंगूठे में सैकड़ों बार लपेटकर मुख नीचा करके कान खड़े करके सुनने लगा। गले की आवाज क्रमश: अधिक साफ होने लगी, अच्छी तरह मालूम पड़ने लगा कि दो-तीन आदमी बातचीत करते हुए इसी तरह आ रहे हैं। उनमें से एक तो इन्द्र है और बाकी दो हिंदुस्तानी। वे हों चाहे जो, किन्तु उनके मुख की ओर देखने के पूर्व मैंने यह अच्छी तरह देख लिया कि चाँदनी में उनकी छाया जमीन पर पड़ी है या नहीं! क्योंकि इस अवि-संवादी सत्य को मैं छुटपन से ही अच्छी तरह जानता था कि 'उन लोगों' (भूतों) की छाया नहीं पड़ती!”

आ:, यह तो छाया है! उतनी ही साफ, फिर भी छाया है! संसार में उस दिन किसी भी आदमी ने और किसी वस्तु को देखकर, क्या मेरे जैसी तृप्ति पाई होगी? पाई हो या न पाई हो, परन्तु यह बात तो मैं बाजी लगाकर कह सकता हूँ कि दृष्टि का चरम आनन्द जिसे कहते हैं, वह यही था। जो लोग आए उन्होंने असाधारण तेजी से उन बड़े-बड़े मच्छों को नाव में से उठाकर एक जाल जैसे वस्त्र के टुकड़े में बाँध लिया, और उसके बदले में उन्होंने इन्द्र की मुट्ठी में जो कुछ थमा दिया उसने 'खन्' से एक मृदु-मधुर शब्द करके अपना परिचय भी मेरे आगे पूर्णत: गुप्त न रहने दिया।

इन्द्र ने नाव खोल दी; परन्तु बहाव में नहीं छोड़ी। धार के पास-पास, प्रवाह के प्रतिकूल, लग्गी से ठेलते हुए वह धीरे-धीरे अग्रसर होने लगा।

मैंने कोई बात नहीं कही, क्योंकि मेरा मन उस समय उसके विरुद्ध घृणा के भाव से और एक प्रकार के क्षोभ से लबालब भर गया था। किन्तु यह क्या! अभी-अभी ही तो उसे चन्द्रमा के प्रकाश में छाया डालते हुए, लौटते देखकर अधीर आनन्द से दौड़कर छाती से लगा लेने के लिए उन्मुख हो उठा था!

हाँ, सो मनुष्य का स्वभाव ही ऐसा है। तनिक-सा दोष देखते ही, कुछ क्षणपूर्व की सभी बातें भूलते उसे कितनी-सी देर लगती है! राम! राम! राम! उसने इस तरह रुपये प्राप्त किये! अब तक मछली चुराने का यह व्यापार मेरे मन में, बहुत स्पष्ट तौर से, चोरी के रूप में शायद स्थान न पा सका था! क्योंकि लड़कपन से ही, रुपये पैसों की चोरी ही मानो वास्तविक चोरी है-और सब, अनीती भले ही हो किन्तु, न जाने क्यों ठीक-ठीक चोरी नहीं है- इस तरह की अद्भुत धारणा प्राय: सभी लड़कों की होती है। मेरी भी यही धारणा थी। ऐसा न होता तो इस 'खन्' शब्द के कान में जाते ही इतने समय का इतना वीरत्व, इतना पौरुष, सब कुछ क्षण-भर में इस प्रकार शुष्क तृण के समान न झड़ जाता। यदि उन मच्छों को गंगा में फेंक दिया जाता- अथवा और कुछ किया जाता- केवल रुपयों के साथ उनका संसर्ग घटित न होता, फिर भी हमारी उस मत्स्य-संग्रह-यात्रा को कोई 'चोरी' कहकर पुकारता, तो शायद गुस्से में आकर मैं उसका सिर फोड़ देता और समझता कि उसने वास्तव में जो सजा मिलनी चाहिए वही पाई है- किन्तु राम! राम! यह क्या! यह काम तो जेलखाने के कैदी किया करते हैं!

इन्द्र ने बात शुरू की पूछा, “तुझे दूसरा भी डर न लगा, क्यों रे श्रीकांत?”

मैंने संक्षेप में जवाब दिया, “नहीं!”

इन्द्र बोला, “किन्तु तेरे सिवा वहाँ और कोई बैठा न रह सकता, यह जानता है तू? तुझे मैं खूब प्यार करता हूँ- मेरा ऐसा दोस्त और कोई नहीं है। मैं अब जब आऊँगा, सिर्फ तुझे ही लाऊँगा। क्यों?”

मैंने जवाब नहीं दिया। किन्तु इसी समय उसके मुख पर तुरंत के मेघ मुक्त चन्द्रमा का जो प्रकाश पड़ा, उससे मुख पर जो कुछ दिखाई दिया उससे एकाएक मैं अपना इतनी देर का सब क्रोध, क्षोभ भूल गया। मैंने पूछा, “अच्छा इन्द्र, तुमने कभी 'उन सब को1 देखा है?”

“किन सबको?”

“वही जो मच्छ माँगने आते हैं?”

“नहीं भाई, देखा तो नहीं है, लेकिन लोग जो कहते हैं वह सुना है।”

“अच्छा तुम यहाँ अकेले आ सकते हो?”

इन्द्र हँसा, बोला, “मैं तो अकेला ही आया करता हूँ।”

“डर नहीं लगता?”

“नहीं राम का नाम लेता हूँ, फिर वे किसी तरह नहीं आ सकते।”

कुछ देर रुककर फिर कहना शुरू किया, “राम-नाम क्या कोई साधारण चीज है रे? यदि तू राम का नाम लेते-लेते साँप के मुँह में चला जाए, तो तेरा कुछ न बिगडेग़ा। देखेगा, कि मारे डर के सभी रास्ता छोड़कर भागने लगे हैं। किन्तु डरने से काम नहीं चलता। तब तो वे जान जाते हैं कि, यह सिर्फ चालाकी कर रहा है-वे सब अन्तर्यामी जो हैं!”

रेती का किनारा खत्म होते ही कंकड़ों का किनारा शुरू हो गया। उस पार की अपेक्षा इस पार पानी का बहाव बहुत कम था। बल्कि यहाँ तो मालूम हुआ मानो बहाव उलटी तरफ जा रहा है। इन्द्र ने लग्गी उठाकर कर्ण (पतवार) हाथ में लेते हुए कहा, “वह जो सामने वन सरीखा दीख पड़ता है, उसी में से होकर हमें जाना है। यहाँ जरा मैं उतरूँगा। जाऊँगा और आ जाऊँगा। देर न लगेगी। क्यों उतर जाऊँ?”

1. 'उन सब' से तात्पर्य भूतों का है। बंगाल में प्रवाद है कि अकेले में भूत मछली माँगने आते हैं।

इच्छा ने रहते भी मैंने कहा, 'अच्छा' क्योंकि 'नहीं' कहने का रास्ता तो मैं एक प्रकार से आप ही बन्द कर चुका था। और अब इन्द्र भी मेरी निर्भीकता के सम्बन्ध में शायद निश्चिन्त हो गया था। परन्तु बात मुझे अच्छी न लगी। यहाँ से वह जगह ऐसी जंगल सरीखी अंधेरी दीख पड़ती थी कि अभी-अभी राम-नाम का असाधारण माहात्म्य श्रवण करके भी, उस अंधकार में, प्राचीन वट-वृक्ष के नीचे, डोंगी के ऊपर अकेले बैठे रहकर, इतनी रात को राम-नाम का शक्ति-सामर्थ्य जाँच करने की मेरी जरा भी प्रवृत्ति नहीं हुई और शरीर में कँपकँपी होने लगी। यह ठीक है कि मछलियाँ और नहीं थीं, इसलिए मछली लेने वालों का शुभागमन न हो सकेगा, किन्तु उन सबका लोभ मछलियों के ऊपर ही है, यह भी कौन कह सकता है? मनुष्य की गर्दन मरोड़ कर गुनगुना रक्त पीने और मांस खाने का इतिहास भी तो सुना गया है!

बहाव की अनुकूलता और डाँड़ की ताड़ना से डोंगी सर्राटे से आगे बढ़ने लगी। और भी कुछ देर जाते ही, दाहिनी बाजू का गर्दन तक डूबा हुआ जंगली झाऊ और काँस का वन माथा उठाकर हम दोनों असीम-साहसी मानव-शिशुओं की तरफ विस्मय से स्तब्ध हो देखता रहा और उसमें से कोई-कोई झाड़ तो सिर हिलाकर मानो अपना निषेध जताने लगा! बाईं ओर भी उन्हीं के आत्मीय परिजन खूब ऊँचे कंकरीले किनारों पर फैले हुए थे; वे भी उसी भाव से देखते रहे और उसी तरह मना करने लगे। मैं अगर अकेला होता तो निश्चय से उनका यह संकेत अमान्य नहीं करता; परन्तु मेरा कर्णधार जो था, उसके निकट ऐसा मालूम हुआ कि मानो एक राम-नाम के जोर से उनके समस्त आवेदन-निवेदन एक बार ही व्यर्थ हो गये। उसने किसी तरफ भौंहें तक न फिराईं। दाहिनी ओर के टीले के अधिक विस्तार के कारण यह जगह एक छोटी-मोटी झील के समान हो गयी थी- सिर्फ उत्तर की ओर का मुँह खुला हुआ था। मैंने पूछा, “अच्छा, नाव को बाँधकर ऊपर जाने का घाट तो है नहीं, तुम जाओगे किस तरह?”

इन्द्र बोला, “यह जो बड़का वृक्ष है, उसके पास में ही एक छोटा-सा घाटहै।”

कुछ देर से न जाने कैसी दुर्गन्ध बीच-बीच में हवा के साथ नाक तक आ रही थी। एकाएक एक हवा के झोंके के साथ वह दुर्गन्ध इतनी निकट होकर नाक में लगी कि असह्य हो गयी। जितना ही आगे बढ़ते थे, उतनी ही वह बढ़ती थी। नाक पर कपड़ा दबाते हुए मैं बोला, “निश्चय से कुछ सड़ गया है, इन्द्र।”

इन्द्र बोला, “मुर्दे सड़ गये हैं। आजकल भयानक कालरा जो फैल रहा है। सभी तो लाशों को जला पाते नहीं, मुँह पर जरा आग छुआकर छोड़कर चले जाते हैं। सियार और कुत्ते उन्हें खाते हैं- और वे सड़ती हैं। उन्हीं की तो यह इतनी गन्ध है।”

“लाशों को किस जगह फेंक जाते हैं, भइया?”

“वहाँ से लेकर यहाँ तक- सब ही तो श्मशान हैं। जहाँ चाहें फेंक देते हैं और इस बड़के नीचे के घाट पर स्नान करके घर चले जाते हैं। अरे दुर! डर क्या है रे! वे सियार-सियार आपस में लड़ रहे हैं। अच्छा, आ-आ, मेरे पास आकर बैठ।”

“मेरे गले से आवाज न निकलती थी- किसी तरह मैं घिसटकर उसकी गोद के निकट जाकर बैठ गया। पल-भर के लिए मुझे स्पर्श करके और हँसकर वह बोला, “डर क्या है श्रीकांत, कितनी दफे रात को मैं इस रास्ते आया-गया हूँ। तीन बार राम का नाम लेने से फिर किसकी ताकत है जो पास में फटके?”

उसे स्पर्श करके मानो मेरी देह में जरा चेतना आई। मैंने अस्फुट स्वर में कहा, “नहीं भाई, तुम्हारे दोनों पैर पड़ता हूँ, यहाँ पर कहीं मत उतरो- सीधे ही चले चलो।”

उसने फिर मेरे कन्धों पर हाथ रखकर कहा, “नहीं श्रीकांत, एक दफे जाना ही पड़ेगा। यह रुपये दिए बिना काम न चलेगा- वे बैठे राह देख रहे होंगे- मैं तीन दिन से नहीं आ पाया।”

“रुपये कल न दे देना भाई!”

“नहीं भाई, ऐसी बात न कर। मेरे साथ तू भी चल- किन्तु किसी से यह बात कहना मत।”

मैं धीरे से 'ना' कहकर उसे उसी तरह स्पर्श किये हुए, पत्थर की नाईं बैठा रहा। गला सूखकर काठ हो गया था। किन्तु हाथ बढ़ाकर पानी पी लूँ, या हिलने-डोलने की कोई चेष्टा करूँ, यह शक्ति ही नहीं रही थी।

पेड़ों की छाया के बीच में आ पड़ने से पास ही वह घाट दीख पड़ा। जहाँ हमें नीचे उतरना था वह स्थान, ऊपर पेड़ वगैरह न होने से, म्लान ज्योत्सरना के प्रकाश में भी खूब प्रकाशमान हो रहा था- यह देखकर इतने दु:ख में भी मुझे आराम मिला। घाट के कंकड़ों में जाकर डोंगी धक्का न खा जाए, इसलिए इन्द्र पहले से ही उतरने के लिए प्रस्तुत होकर डोंगी के मुँह के पास तक खिसक आया था। किनारे लगते न लगते वह उस पर से फाँद पड़ा; पर फाँदते ही भयभीत स्वर से 'उफ' कर उठा। मैं उसके पीछे ही था, इसलिए दोनों की नजर उस वस्तु पर प्राय: एक ही साथ पड़ी। उस समय वह नीचे था और मैं नौका के ऊपर।

शायद मेरे जीवन में 'अकाल-मृत्यु' कभी उतने करुणा रूप में नजर नहीं आई थी। वह कितनी बड़ी व्यथा का कारण होती है, यह बात, उस तरह न देखी जाए तो, शायद और तरह से जानी ही नहीं जा सकती। गम्भीर रात्रि में चारों दिशाएँ निबिड़ स्तब्धता से परिपूर्ण थीं। सिर्फ बीच-बीच में झाड़-झंखाड़ों में से कहीं श्मशानचारी सियारों का क्षुधार्त कलह-चीत्कार, कहीं वृक्षों पर सोते हुए अर्धसुप्त बृहत्काय पक्षियों के पंखों की फड़फड़ाहट और बहुत दूर से आया हुआ तीव्र जल प्रवाह का 'हू-हू' आर्त्तनाद सुन पड़ता था। हम दोनों, इन सबके बीच, निर्वाक् निस्तब्ध होकर उस महा करुण दृश्य की ओर देखते रहे। एक छह-सात वर्ष का गौरवर्ण हृष्ट-पुष्ट बालक पड़ा हुआ दिखाई दिया, जिसका सर्वाक्ष पानी में डूबा हुआ था और सिर्फ सिर घाट के ऊपर था। शायद सियार हाल में ही उसे पानी से बाहर निकाल रहे थे, और अब केवल हमारे आकस्मिक आगमन के कारण, कहीं पास ही खड़े हुए हमारे जाने की राह देख रहे हैं। बहुत करके उसे मरे हुए तीन-चार घण्टे से अधिक नहीं हुए थे। मानो वह बेचारा विसूचिका (हैजा) की दारुण यातना भोगकर माता गंगा की गोद में ही सो गया था, और माँ मानो बड़ी सावधानी से उसकी सुकुमार सुन्दर देह को अभी-अभी अपनी गोद से उतारकर बिछौने पर सुला रही थी। इस तरह कुछ जल और कुछ स्थल पर पड़ी हुई उस सोते हुए शिशु की देह पर हमारी आँखें जा पड़ीं।

मुँह ऊपर उठाया तो देखा कि इन्द्र की दोनों आँखों से आँसुओं के बड़े-बड़े बिन्दु झर रहे हैं। वह बोला, “तू जरा हटकर खड़ा हो जा श्रीकांत, मैं इस बेचार को, नौका में रखकर टीले के उस झाऊ-वन के भीतर रखे आता हूँ।”

यह सत्य है कि उसकी आँखों में आँसू देखते ही मेरी आँखों में भी आँसू आ गये, किन्तु इस छूने-ऊने के प्रस्ताव में मैं एकबारगी संकुचित हो उठा। इस बात को मैं अस्वीकार नहीं करता कि दूसरे के दु:ख में दु:खी होकर आँखों से आँसू बहाना सहज नहीं है, किन्तु इसी कारण, उस दु:ख के बीच अपने दोनों हाथ बढ़ाकर जुट जाना- यह बहुत अधिक कठिन काम है। उस समय छोटी-बड़ी न जाने कितनी जगहों से खिंचाव पड़ता है। अव्वल तो मैं इस पृथ्वी के शिरोभूत हिन्दू-घर में वशिष्ठ इत्यादि के पवित्र पूज्य रक्त का वंशधर होकर जन्मा, इसलिए, जन्मगत संस्कारों के वश मैंने सीख रक्खा था कि मृत देह को स्पर्श करना भी एक भीषण कठिन व्यापार है। दूसरे इसमें न जाने कितने शास्त्रीय विधि-निषेधों की बाधाएँ हैं और कितने तरह-तरह के कर्म-काण्डों का घटाटोप है। इसके सिवा यह किस रोग से मरा है, किसका लड़का है, किस जाति का है- आदि कुछ न जानते हुए और मरने के बाद यह ठीक तौर से प्रायश्चित करके घर से बाहर हुआ था या नहीं, इसका पता लगाए बिना ही इसे स्पर्श किस तरह किया जा सकता है?

कुण्ठित होकर जैसे ही मैंने पूछा, “किस जाति का मुर्दा है और क्या तुम इसे छुओगे?” कि इन्द्र ने आगे बढ़कर एक हाथ उसकी गर्दन के नीचे और दूसरा हाथ घुटनों के नीचे देकर उसे सूखे तिनकों के समान उठा लिया और कहा, “नहीं तो बेचारे को सियार नोच-नोचकर न खा जाँयगे? अहा, इसके मुँह से तो अभी तक औषधियों की गन्ध आ रही है रे!” यह कहते-कहते उसने नौका के उसी तख्त पर, जिस पर कि पहले मैं सोया था, उसे सुला दिया और नाव को ठेलकर स्वयं भी चढ़ गया। बोला, “मुर्दे की क्या जात होती है रे?” मैंने तर्क किया, “क्यों नहीं होती?”

इन्द्र बोला, “अरे यह तो मुर्दा है! मरे हुए की जात क्या? यह तो वैसा ही है जैसे हमारी यह डोंगी- इसकी भला क्या जात है? आम या जामुन जिस कभी भी काठ की बनी हो- अब तो इसे 'डोंगी' छोड़ कोई भी नहीं कहेगा कि यह आम है या जामुन। समझा कि नहीं? यह भी उसी तरह है।”

अब मालूम होता है कि यह दृष्टान्त निरे बच्चों का सा था- किन्तु अन्तर में यह भी तो अस्वीकार करते नहीं बनता कि यहीं कहीं, इसी के बीच, एक अति तीक्ष्ण सत्य अपने आपको छुपाए हुए बैठा है। बीच-बीच में ऐसी ही खरी बातें वह कह जाएा करता था। इसीलिए, मैंने अनेक दफे सोचा है कि इस उम्र में, किसी के पास कुछ भी शिक्षा पाए बगैर, बल्कि प्रचलित शिक्षा-संस्कारों को अतिक्रम करके- इन सब तत्वों को उसने पाया कहाँ? किन्तु अब ऐसा जान पड़ता है कि उम्र बढ़ने के साथ मानो मैंने इसका उत्तर भी पा लिया है। कपट तो मानो इन्द्र में था ही नहीं। उद्देश्य को गुप्त रखकर तो वह कोई काम करना जानता ही न था। इसलिए मैं समझता हूँ, उसके हृदय का वह व्यक्तिगत विच्छिन्न सत्य किसी अज्ञात नियम के वंशवर्ती होकर, उस विश्वव्यापी अविच्छिन्न निखिल सत्य का साक्षात् करके, अनायास ही, बहुत ही, सहज में, उसे अपने आप में आकर्षित कर आत्मसात् कर सकता था। उसकी शुद्ध सरल बुद्धि, पक्के उस्ताद की उम्मैदवारी किये बगैर ही, समस्त व्यापार को ठीक-ठीक अच्छी तरह जान लेती थी। वास्तविक, अकपट सहज बुद्धि ही तो संसार में परम और चरम बुद्धि है। इसके ऊपर और कुछ भी नहीं है। अच्छी तरह से देखने पर 'मिथ्या' नाम की किसी भी वस्तु का अस्तित्व इस विश्व-ब्रह्माण्ड में नजर नहीं पड़ता। 'मिथ्या' तो सिर्फ मनुष्य के मानने का और एक फलमात्र है। सोने को पीतल मानना भी मिथ्या है और मनाना भी- यह मैं जानता हूँ। परन्तु इससे सोने का अथवा पीतल का क्या आता-जाता है। तुम्हारी जो इच्छा हो सो उसे मानो, वह तो जो कुछ है, सो ही रहेगा। सोना समझकर उसे सन्दूक में बन्द करके रखने से उसके वास्तविक मूल्य में वृद्धि नहीं होती, और पीतल कहकर बाहर फेंक देने से उसका मूल्य नहीं घटता। उस दिन भी वह पीतल था और आज भी पीतल है। तुम्हारे 'मिथ्या' के लिए तुम्हें छोड़कर न और कोई उत्तरदायी है; और न कोई भ्रूक्षेप ही करता है। इस विश्व-ब्रह्माण्ड का समस्त ही परिपूर्ण सत्य है। मिथ्या का अस्तित्व यदि कहीं है तो वह मनुष्य के मन को छोड़कर और कहीं नहीं है। इसलिए इन्द्र ने इस असत्य को, अपने अन्तर में जाने या अनजाने में, किसी दिन जब स्थान नहीं दिया तब यदि उसकी विशुद्ध बुद्धि मंगल और सत्य को ही प्राप्त करती है, तो इसमें विचित्र ही क्या हुआ?

किन्तु यह बात उसके लिए विचित्र न होने पर भी, मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि किसी के लिए भी विचित्र नहीं है। ठीक इसी बहाने, मैंने अपने जीवन में ही जो इसका प्रमाण पाया है, उसे कह देने का लोभ मैं यहाँ संवरण नहीं कर सकता।

उक्त घटना के 10-11 वर्ष बाद एकाएक एक दिन शाम के वक्त यह संवाद मिला कि एक वृद्धा ब्राह्मणी उस मुहल्ले में सुबह से मरी पड़ी है- किसी तरह भी उसके क्रिया-कर्म के लिए लोग नहीं जुटते। न जुटने का हेतु यह है कि वह काशी-यात्रा से लौटते समय रास्ते में रोग-ग्रस्त हो गयी, और उस शहर में, रेल पर से उतरकर सामान्य परिचय के सहारे जिनके घर आकर, उसने आश्रय ग्रहण किया, और दो रात रहकर आज सुबह प्राण-त्याग किया, वे महाशय विलायत से लौटे हुए थे और बिरादरी से अलग थे। वृद्धा का यही अपराध था कि उसे नितान्त निरुपाय अवस्था में इस 'बिरादरी से खारिज' घर में मरना पड़ा।

खैर, अग्नि-संस्कार करके दूसरे दिन सुबह वापस आकर मैंने देखा कि हर एक घर के किवाड़ बन्द हो गये हैं। सुनने में आया कि गत रात को, ग्यारह बजे तक, हरिकेन लालटेन हाथ में लिये हुए, पंच लोगों ने घर-घर फिरकर स्थिर कर दिया है कि इस अत्यन्त शास्त्र-विरुद्ध अपकर्म (दाह) करने के कारण इन कुलांगारों को सिर मुँड़ाना होगा, अपराध स्वीकार करना होगा और एक ऐसी वस्तु (गोबर) खानी पड़ेगी जो कि सुपवित्र होते हुए भी खाद्य नहीं है। उन्होंने घर-घर जाकर स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि इसमें उनका कोई भी हाथ नहीं है; क्योंकि अपने जीते-जी, वे समाज में किसी भी तरह यह अशास्त्रीय काम नहीं होने दे सकते। हम लोग, और कोई उपाय न रहने पर डॉक्टर साहब के शरण में गये। वे ही उस शहर में सर्वश्रेष्ठ चिकित्सक थे और बिना दक्षिणा के ही बंगालियों की चिकित्सा किया करते थे। हमारी कहानी सुनकर डॉक्टर महाशय क्रोध से सुलग उठे और बोले, “जो लोग इस तरह लोगों को सताते हैं, उनके घरों में यदि कोई मेरी आँखों के सामने बिना चिकित्सा के मरता होगा, तो भी मैं उस ओर आँख उठाकर नहीं देखूँगा।” न मालूम, किसने यह बात पंचों के कानों तक पहुँचा दी। बस, शाम होते न होते मैंने सुना कि सिर मुँड़ाने की जरूरत नहीं है, सिर्फ अपराध स्वीकार करके उस सुपवित्र पदार्थ को खा लेने मात्र से काम चल जाएेगा! हमारे स्वीकार न करने पर दूसरे दिन सुबह सुना गया, अपराध स्वीकार कर लेने से ही काम हो जाएेगा- वह पदार्थ न खाना हो तो न सही! इसे भी न स्वीकार करने पर सुना गया कि चूँकि यह हम लोगों का प्रथम अपराध है, इसलिए, उन्होंने उसे यों ही माफ कर दिया है, प्रायश्चित की कोई जरूरत नहीं है! किन्तु, डॉक्टर साहब बोले, “ठीक है कि प्रायश्चित की कोई जरूरत नहीं परन्तु दो दिन तक इन्हें जो क्लेश दिया गया है, उसके लिए यदि प्रत्येक आदमी आकर क्षमा प्रार्थना न करेगा, तो फिर, जैसा कि वे पहले कह चुके हैं, वैसा ही करेंगे, अर्थात् किसी के भी घर न जाँयगे।” इसके बाद उसी दिन संध्यान के समय से डॉक्टर साहब के घर एक-एक करके सभी वृद्ध पंचों का शुभागमन होना शुरू हो गया। आशीर्वाद दे-देकर उन्होंने क्या-क्या कहा, उसे तो अवश्य ही मैं नहीं सुन पाया, किन्तु दूसरे दिन देखा कि डॉक्टर साहब का क्रोध ठण्डा हो गया है और हम लोगों को भी प्रायश्चित करने की जरूरत नहीं रही है।

जाने दो, क्या कह रहा था और क्या बात बीच में आ पड़ी। किन्तु, वह चाहे जो हो मैं निश्चयपूर्वक जानता हूँ कि जो लोग जानते हैं वे, इस नाम-धाम-हीन विवरण में से, पूरा सत्य प्राप्त कर लेंगे। मेरे कहने का मूल विषय यह है कि इन्द्र ने इस उम्र में अपने अन्तर के मध्यव में जिस सत्य का साक्षात् कर लिया था, इतने बड़े-बड़े पंच सरदार, इतनी बड़ी उम्र तक भी, उसका कोई तत्व न पा सके थे; और डॉक्टर साहब यदि उस दिन इस प्रकार उनके शास्त्र-ज्ञान की चिकित्सा न कर देते, तो कभी उनकी यह व्याधि अच्छी होती या नहीं, सो जगदीश्वर ही जाने।

टीले पर आकर, आधे डूबे जंगली झाऊ के अन्धकार में, जल के ऊपर, उस अपरिचित शिशु की देह को, इन्द्र ने जब अपूर्व ममता के साथ रख दिया तब रात्रि अधिक नहीं थी। कुछ देर तक वह उस शव की ओर माथा झुकाए रहा और अन्त में जब उसने मुँह उठाकर देखा, तब धुँधली चाँदनी में उसका मुख जितना कुछ दिखाई दिया वह मलिन था और उसके सूखे मुँह पर ठीक वैसा ही भाव प्रकट हो रहा था जैसे कि कोई कान उठाकर किसी की राह देख रहा हो।

मैं बोला, “इन्द्र, अब चलो।”

इन्द्र अन्यमनस्क भाव से बोला, “कहाँ?”

“अभी जहाँ चलने के लिए तुमने कहा था।”

“रहने दो, आज नहीं जाऊँगा।”

मैं खुश होकर बोला, “ठीक, यही अच्छा है भाई-चलो, घर चलें।”

प्रत्युत्तर में इन्द्र मेरे मुँह की ओर देखकर बोला, “हाँ रे श्रीकांत, मरने पर मनुष्य का क्या होता है, जानता है?”

मैंने तुरन्त ही जवाब दिया, “नहीं भाई, नहीं जानता; अब तो तुम घर चलो। वे सब स्वर्ग चले जाते हैं, भइया, तुम्हारे पैरों पड़ता हूँ, तुम मुझे मेरे घर पहुँचा आओ।”

इन्द्र ने मानो सुना ही नहीं, और कहा, “सभी लोग तो स्वर्ग जा नहीं सकते। इसके सिवाय, कुछ समय तक तो सभी को यहाँ रहना पड़ता है। देखो, मैंने जब उसको जल के ऊपर सुला दिया था, तब उसने धीरे से साफ-साफ कहा था, 'भइया'।” मैं काँपते हुए स्वर से रोते हुए बोल उठा, “क्यों मुझे डराते हो भाई, मैं बेहोश हो जाऊँगा।” इन्द्र ने न तो कुछ कहा और न अभय ही दिया- धीरे से डाँड़ को हाथ में लेकर उसने नाव को झाऊ-वन में से बाहर कर लिया और फिर सीधा चलाने लगा। मिनट-दो मिनट चुप रहकर उसने गम्भीर मृदु स्वर से कहा, “श्रीकांत मन ही मन 'राम' का नाम ले, 'वह' नौका छोड़कर नहीं गया है- हमारे पीछे ही बैठा है!”

उसके बाद मैं उसी जगह मुँह ढँककर औंधा हो गया था। फिर मुझे कुछ सुध नहीं रही। जब आँखें खोलीं तब अन्धकार नहीं था- नाव किनारे लगी हुई थी। इन्द्र मेरे पैरों के पास बैठा था; बोला, “अब थोड़ा चलना होगा, श्रीकांत"

  • श्रीकांत अध्याय (2)
  • शरतचंद्र चट्टोपाध्याय की बांग्ला कहानियाँ और उपन्यास हिन्दी में
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