श्रीरुक्मिणीरमणो विजयते (रुक्मिणी परिणय) : अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध
Shree Rukminiramno Vijayate : Ayodhya Singh Upadhyay Hariaudh
प्रार्थना
प्रिय सहृदय पाठकगण!
नाटकरचना विषयक मेरा यह प्रथमोन्माद है। इस नाटक के प्रथम मैंने कोई दूसरा नाटक लिपिबद्ध नहीं किया है। नाटक क्या, वास्तव बात तो यह है कि एक 'श्रीकृष्णशतक' नामक लघु पुस्तिका के अतिरिक्त इस नाटक के प्रथम अपर कथित ग्रन्थ मेरे द्वारा न अनुवादित हुआ है न रचा गया है। नाटक रचकर विद्वज्जनमण्डली में अंकित होना और उसको सांगोपांग सम्पन्न करना, कैसा दुरूह कार्य है, इससे विबुध समाज अनभिज्ञ नहीं है, अतएव इस विषय का उत्थान यहाँ निरर्थक जान पड़ता है। हाँ, यह विषय यहाँ अवश्य वक्तव्य है कि मैं इस दुरूहताबारिधि-सन्तरण में कहाँ तक कृतकार्य हुआ हूँ। प्यारे पाठक! मेरी जिह्ना क्या ऐसी क्षमता रखती है जो नाटक विषय की थोड़ी अवतारणा भी यहाँ कर सके? इतना ही नहीं, इस जटिल प्रश्न की मीमांसा आप लोगों द्वारा ही होनी है! मैं शंकित हूँ कि मुझको आप लोगों द्वारा उपहास का लक्ष्य अवश्य बनना पड़ेगा, क्योंकि यह बहुत सत्य है कि मैंने बामन होकर चाँद को छूने का साहस किया है। किन्तु यदि बाण सावधान करता सनसनाता हुआ समीप से निकल जावेगा, अंग भंग की न ठहरेगी, तो मैं अपने ऊपर आप लोगों का प्रसाद समझूँगा, अन्यथा मुझको वेदना परवश होना पड़ेगा, यह अप्रगट नहीं है।
मुझको इस छोटे नाटक में जितने दोषों के होने की आशंका है उतने सद्गुणों के होने की आशा नहीं है। कारण यह है कि यह एक ऐसी अप्रगल्भा और अर्ध्दशिक्षिता बुध्दि द्वारा प्रणीत हुआ है जो अपने कलेवर को नाटकरचना प्रणाली और काव्य-रीति-परिपक्वता आदि आभूषणों से नितान्त असज्जित रखती है। किन्तु हर्ष का स्थान है कि इसने एक लोकोत्तर व्यक्ति की गाथा गुंफन में अपने समय को व्यय किया है, किसी ऐसे पुरुष का रोमांच कर चरित्र नहीं लिखा है जिसके नाम श्रवण से ही आप कान पर हाथ रखें। अतएव आशा है कि आप लोगों के हृदय में जो बिराग मेरी उच्छृंखल वाक्य रचना और अमनोरंजक नाटक-प्रणयन प्रणाली से उत्पन्न होगा वह उक्त श्रध्दास्पद पूजनीय महानुभाव के हृदयग्राही सच्चरित्रों और अलौकिक स्पृहणीय कार्य-कलापों की समालोचना से विदूरित हो जावेगा। यद्यपि मेरे सौभाग्य के लिए यह पर्याप्त नहीं है, तथापि मैं आपलोगों की इतनी ही उद्भावित प्रसन्नता को अपनी मनस्तुष्टि के लिए विशेष समझता हूँ। और इस युक्तिसंगत सम्भाषण पश्चात् किसी और विषय का उत्थान निरर्थक समझ अपनी लेखनी को अब यहीं विश्राम देता हूँ।
अनुगृहीत
पं. अयोध्या सिंह ( हरिऔध )
निजामाबाद-आजमगढ़
नान्दी पाठ
दोहा
अहि विधु झख केहरि कमल जोहि घन के उपमान।
बरसि बारि मति सो हरित करै अ बुध महि जान।
कुण्डलिया
बानी गननायक सदा रहत जासु बल सौंह।
निसदिन ताकी चहत हौं सू धी कुटिल सुभौंह।
सूधी कुटिल सुभौंह चहत हौं निसदिन ताकी।
रचन चहत हरिऔध ग्रन्थ अनुकम्पा जाकी।
रहित सुवास प्रसून सुग न्धि त करन प्रमानी।
जासु कृपा आधार देहि सो बर बु धि बानी।
(इसके अनन्तर सूत्रधार का प्रवेश)
सूत्र- अहा अब बिलम्ब का क्या कारण है ।(इधर उधर और उपर देखकर) रात्रि अपने प्यारे निशाकर के संयोग में दो घडी व्यतीत कर चुकी है,रसिकों के नेत्र रंगशाला की ओर लग रहे हैं हमारे साथियों ने उचित परेचछॆ धारण करने का प्रयत्न कर लिया है,वाद्धोंके स्वर ताल मिल गये हैं,दर्शकों की वाणी कंठ में रुक रही है,कौतुक देखने की कामना से उनका ह्रदय उमग रहा है,जिसका प्रकाश उनकी मन्द मुस्कान और अंगडाइयां लेने से भली-भांति होताहै,रंगभूमि शब्दहीन होकर कालाभिधान भगवान रुद्रकृतप्रलयान्त की भूमि का अनुभव करा रही है, शीतल वायु के मन्द मन्द चलने से चित्त हरा और कौतूहललाक्रान्त हो रहा है,अतएव अब अभिनय होना भी युक्तिसंगत जान पडता है, (थोडा आगे बढकर) कोई है ?
(नट का प्रवेश)
नट- (सूत्रधार की ओर देखकर आप ही आप) मनुष्य के चित्त को भी ईश्वर ने कैसा बनाया है, अभी आज ही इनका मन कुछ सांसारिक झमेलों से कैसा मलीन था, पर अब इस समय कैसा प्रसन्न है, मानो किसी अकाल वृष्टि से आकुल कृषक का मन आकाश को स्वच्छ देखकर आनन्द प्रगट करता है, उत्साह की सीमा नहीं है, उमंग पूर्णिमा के समुद्र समान अनुक्षण बढ़ता जाता है, फिर मैं क्यों न इस आनन्द का भागी बनूँ (प्रगट) महोदय! मैं उपस्थित हूँ, कहिए क्या आज्ञा है?
सूत्र.- (प्रसन्न होकर) मित्र! मेरा मन कुछ काल के लिए समस्त सांसारिक झमेलों से रहित और समग्र उपस्थित असमंजसों से निरस्त होकर इस काल ऐसा प्रसन्न है, जैसा किसी काल महाराज भीष्मक का चित्त भगवान वासुदेव और श्रीरुक्मिणी का संयोग हो जाने पर था, मैं चाहता हूँ कि अपने इस आनन्द का भागी किसी उत्तम अभिनय अभिनीत द्वारा सकल दर्शक महाशयों को बनाऊँ, क्या तुम इस समय कोई उत्तम और नवीन नाटक बतला सकते हो? जिसके अभिनय के लिए मैं बद्धपरिकर हो जाऊँ।
नट- महाशय! कुछ काल हुआ कि मेरे हृदय में यह कामना आज स्वभावत: हुई कि कोई उत्तम नाटक खेला जाय, अतएव प्रिया ने मेरे हृदय का भाव जान कर एक नवीन नाटक खेलने का प्रयत्न इस भाँति कर रखा है जैसे महारानी जानकी ने भगवान रामचन्द्र के हृदयज विचारों को जानकर अग्नि को अपना निवास स्थान बना रखा था, किन्तु मैं उससे पूर्ण अभिज्ञ नहीं हूँ, इस कारण इस विषय का परिज्ञान बिना उसके नहीं हो सकता, आज्ञा हो तो उसको बुलाकर पूछ देखूँ।
सूत्र.- हाँ! हाँ! बुलाओ।
नट- (नेपथ्य की ओर देखकर) प्रिये! क्या अभी पात्रों का यथोचित शृंगार नहीं हुआ?
( नटी का प्रवेश)
नटी- प्राणोपम! हो तो गया, पर इतने विलम्ब होने का कारण केवल आप लोगों का निदेशन देना है, यदि आज्ञा हो तो नाटकपात्रगण को निज कलाकामिनी द्वारा दर्शकजनों के मनहरण करने की आज्ञा दी जावे।
सूत्र. - वरानने! क्या कोई नवीन अभिनय अभिनीत करने की कामना है? और यदि नवीन है तो उसका रचयिता कौन है?
नटी- हाँ! रुक्मिणीपरिणय नामक नवीन नाटक खेलने की इच्छा है, जो थोड़ा दिन हुआ कि मृगराज सहित रघुनाथ राजधनी द्वारा निर्मित हुआ है।
सूत्र.- यह तो कूट सा जान पड़ता है (विचारकर) अहा। समझ गया, पण्डित अयोध्यासिंह निजामाबाद निवासी रचित, जिनका संकेत नाम हरिऔध है। यद्यपि ये नवीन ग्रन्थकार हैं, और प्रशंसित लेख और उत्तम ढंग इनके नाटक में होने की कम आशा है, तथापि चरित्र विलक्षण है, जो आशा है कि सज्जन दर्शकों को अवश्य मोदजनक होगा, क्योंकि स्वरूपानुरागी मनुष्यों को आभूषण की कोई आवश्यकता नहीं होती, उनका सुन्दर स्वरूप ही आनन्दकर होता है।
नट- (हर्ष से) आपके मुख से नवीन ग्रन्थकार प्रभृति शब्द सुनकर मेरा मन इस काल किसी उत्तम नाटक अन्वेषण करने के लिए अति असमंजस में पड़ गया था, पर अब आपके उक्त नाटक को किसी प्रकार पसन्द कर लेने से वह असमंजस दूर हो गया, मानो निविड़ पर्जन्यआच्छादित आकाशमण्डल प्रचण्ड वायु के झोंकों से स्वच्छ और निर्मल बन गया।
नटी- प्रियतम! अब बृथा कथोपकथन करके समय नष्ट करने का अवसर नहीं है, राजा जनक समान महाराज भीष्मक भी इस समय कन्यापाणिपीड़न विषय में अति आकुल हो रहे हैं, अतएव सभ्यजनों को एकत्र करके शीघ्र कोई उचित उपाय करना चाहते हैं, सो अब हम लोग भी चलकर करणीयकर्तव्य में तत्पर हों, और जैसे हो उस चिन्ता के निवारण करने का यत्न करें, जिसके कारण महाराज का मुखमयंक पीतवर्ण और शरीर कृमिखादित काष्ठ की भाँति सारहीन होता जाता है।
सूत्र.- (आप ही आप) सत्य है! चिन्ता ऐसी ही वस्तु है इससे केवल शरीर ही निर्बल नहीं होता, एक ही विषय के बार-बार विचार करने से मन भी दुर्बल हो जाता है, जिससे मनुष्य की बड़ी हानि होती है। यह मनुष्य के आन्तरिक भाग में जीवित जन्तु का गुण रखती है, जो सदैव उसके रुधिर और मांस से अपना पोषण करता और उसे निर्बल बनाता रहता है (सुनना नाटय करके प्रकट) अहा! यह मधुरस्वर मिलित अनुपम गान की ध्वनि कैसी आनन्दजनक है।
नटी- महाशय! ऐसा जान पड़ता है कि कुछ याचकों का समूह गान करता हुआ इसी ओर आ रहा है।
सूत्र. - वरेक्षणे! तो चलो हम लोग भी चलकर आवश्यकीय कार्यसाधन में तत्पर हों।
नटी- जो आज्ञा? (सब जाते हैं)
(जवनिका पतन)
प्रथमांक
(स्थान-राजद्वार के सन्मुख की भूमि)
(महाराणी रुक्मिणी अटा पर विराजमान)
(कुछ याचकों का प्रवेश)
पहला याचक- अहा! यह नगर भी कैसा रमणीय है, विशेषत: स्वर्ग में कैलाश की भाँति, अथवा सत्यलोक में बैकुण्ठ समान इस नगर में यह राजद्वार कैसा अपूर्व है। किन्तु इसकी छबि और द्वारिका की छबि में चन्द्र और चन्द्रिका का-सा अन्तर है। जिस दिन से इन ऑंखों ने उस स्वर्ग बिनिन्दक नगर का अवलोकन किया है उस दिन से इनकी दृष्टि में कोई दूसरा नगर जँचता ही नहीं। भगवान श्रीकृष्ण और उनके चरित्र धन्य हैं। जिनके पदपाथोज राजग्रहण के कारण द्वारिका की ऐसी शोभा है।
(गाता है)
राग सोरठ
जय प्राची दिसि-देवकिचन्द।
श्रीबृषभानुनन्दिनी कैरबिकारक परमाऽनन्द।
असुरधवान्त जग तापमिटावन मुनिचकोर सुखदैन।
बिमल वेदपथ औष धि पोषक उचरि सुधा सम बैन।
पातक-रत पामर कपटी नृप कमल करन छबिहीन।
कल कौमुदी सरिस माया सों कारक जगत अ धी न।
नास्तिक चोर हियो सन्तापक विरहि खलन दुखदायक।
हरिऔध गोपिन राका रजनी हिय मोद बिधायक। 1 ।
दूसरा याचक-(झटपट उसी सुर में गाता हुआ)
जयति बनज यदुबंस तुमारी।
अखिल बिस्वबर ब्योमप्रकासक प्रगटित निसा अविद्याहारी।
जनमन चक्रवाक अनुमोदक खल उलूकगन हिय दुखदाई।
बान भौम आदिक तारागनहत प्रकास कर नृप समुदाई।
कुमुदसुयोधनादिअविकासकपौण्ड्रकादिजगधवान्त बिनासी।
हरिऔध मुनिभृंगबिनोदक बर बिचार पय कमल प्रकासी। 2 ।
तीसरा याचक- (द्वारिका के ध्यान में मग्न होकर) मित्रवरो! जब से मैंने द्वारिका का परित्याग किया है, उस दिवस से मेरी वही दशा हो रही है, जैसी उस जीव की होती है जो अपने तपोबल से कुछ दिवस स्वर्गवास करने के उपरान्त पुन: मृत्युलोक में निवास पाता है। भगवान श्रीकृष्ण की मन्द मुसकान, कमल सी ऑंखें, घुघुरारी अलकें, क्षणभर नहीं भूलतीं अतएव इन दिनों मेरी वैसी ही गति है जो गति उस चकोर की हो सकती है जो पृथ्वी के उस भाग को छोड़कर जहाँ वह परमोत्सुकता से पूण्र् चन्द की मयूखों का पान करता हो, किसी कारण से उस भाग में आ पड़े, जहाँ कुहू की काली रात हो।
(गाता है)
राग बिहाग
स्याम को रूप अनूप निहारी।
उपमा सकल मोहि लघु लागत सब वि धि कहत बिचारी।
बिबरनिबास कीनअहिकच लखिमुख लखि नभ निसि स्वामी।
नैन बिलोकि मीन मृग खंजन भये बिकल बनगामी।
नासा ग्रीवा कटि सुगमन लखि कीर कपोत सिंह गज लाजे।
लखि मृनाल प्रभु भुजप्रलम्ब को दुरयो जल जलज समाजे।
अंग अंग सब रुचिर मनोहर हरिऔध का पै कहि जाई।
नैनन लखो बैन किमि भाखै प्रभुसरूप जनमन सुखदाई।
चौथा याचक- (प्रसन्न होकर) प्रियवर! सत्य है! केवल तुमारी ही यह गति नहीं है, ऐसा कौन है जो महात्मा श्रीकृष्ण के सुन्दर स्वरूप का अवलोकन कर तन मन से उसका अनुरागी नहीं होता, जैसे जितना ही उत्तम दूरदर्शक यन्त्र होता है, आकाशमण्डल में उतने ही अधिक और बहुत तारे दीखने लगते हैं, वैसे ही भगवान के विषय में विचारदृष्टि से जितनी विवेचना की जाती है, उतने ही उनमें विशेष नवीन और विचित्र गुणगण दृष्टिमान होते हैं, और इसी कारण भगवान का नाम अनन्त है।
(गाता है)
चंचरीक
कहिये गुन कौन जदुपति असुरारी।
कमलज मनहरनवार सुरपति भ्रमकरनवार जलपति दुखदरनवार श्रीपति सुखकारी।
नाशककंसादि कूर जनगन सुखकरन भूर व्रजजन-आनन्दमूर सन्तनअघहारी।
कालिय सन्तापशमन अघ-बकबृषभादिदमन जमुना कलकूलरमन मोहन बनवारी।
बृन्दाबन रासकरन सुरमुनिमन मोदभरन असरनजन एकसरन गिरवर-करधारी।
द्विज तिय आनन्द भौन अखिल-दुहिततापदौन हरिऔध दास तौन चरनन बलिहारी। 4 ।
पाँचवाँ याचक-हाय! कैसी खेद और लज्जा की बात है कि भगवान वासुदेव में इन सब अद्भुत और अलौकिक गुण के रहते बहुत से पामर उनकी गोचारक इत्यादि विशेषणों से निन्दा करते रहते हैं। सत्य है। मच्छिकानिकर को सुन्दर अंग में वर्ण अथवा छिद्रही प्रिय होता है, रक्तपयोपूरित कुच में रुधिर को ही ग्रहण करती है। किसी ने कितना सच कहा है-
कवित्त
कमल सों आनन कुरंगन सो दृग जाके बाँकी कटिकेहरि मृनाल बाँहें ऐन है।
कोकिला सों कण्ठ कीर नासिका धनुष भौंहैं बानी सुभसर जाके लागे नहिं चैन है।
तियन को मोहत फिरत ग्राम आसपास जैसे बिरहिन के दाहिबे को पति रैन है।
पुनि मतिमन्द लोग जानत न भेष याको एते पर कहैं चरवारो स्याम धॆ न है। 5 ।
श्रीरुक्मिणी- (स्वगत) अहा। इस समय मेरे मन का कैसा भाव हो रहा है, याचकों के मधुर और सुस्वरगान सम्मिश्रित भगवत सुयश ने इसको लोहे चुम्बक समान अपनी ओर कैसा आकर्षित किया है। यद्यपि मैं इस को अधिकार में रखने की बहुत चेष्टा करती हूँ, तथापि यह कभी भगवतसंयोगसुखानुभव करना चाहता है, कभी उसको एक असंभाव्य विषय जानकर बिकल हो जाता है, कभी मुझको उपदेश करता है, कि जैसे श्रीअपर्णा ने अपनी तपस्या के बल से अप्राप्य भगवान शिव को प्राप्त किया, उसी प्रकार तू भी भगवान बासुदेव के लिए तपस्या कर! और मेरी अभिलाषा पूरी करके सुयश ले, कभी कछुवे समान अर्थात् जैसे वह अपने अण्डे के पक जाने के दिन की गणना बड़े स्मरण और प्रीति के साथ करता है, उसी प्रकार उस दिन की गणना किया चाहता है जिस दिन उसको भगवान के पदसरोज दर्शन की आशा होवे। हाय! नैनों ने तो अभी भगवान का लोक-मोहन स्वरूप देखा ही नहीं, केवल उनके सुयश को सुनकर प्रेम ने मन की यह दशा कर दी। अब तो यह भवन दु:ख-स्वरूप और कुलमर्याद महारोग ज्ञात होता है, क्षण भर का वियोग युग समान प्रतीत होता है, नेत्र स्वरूप देखने के लिए, श्रवण मधुर बैन सुनने के लिए बिकल हो रहे हैं। शरीर असमर्थ जान पड़ता है, हाथ पाँव कहने में नहीं हैं। सत्य है।
दोहा
नहिं सुप्रेम केवल लखे हिय मैं होत उदोत।
बहुधा यह गुन सुने ते प्रगट आपही होत।
मेरी यह दशा, शरीर की यह अवस्था, इन्द्रियों की यह गति, पर अब उपचार क्या हो सकता है, सीप का विदीर्ण हृदय स्वाति बुन्द के अभाव में कब पूरित हुआ है (चिन्ता नाटय करती है)
(नेपथ्य में वीणाध्वनि और गान)
जयति ब्रजबल्लवी प्रानबल्लभ परम।
तापसन्ताप उपताप पातकहरन दरन गहि दाप भौ भूरि भीषण भरम।
कठिन कलिकलुखकुलकाल कल्यान कर कोषकरतूति कौतुक अलौकिक करम।
धरनिधर धन्य धुरध्यान धारी ध्रुवादिक धराधीस के धाम धीरज धरम।
निखिलनयनीतिनि धि नवलनीरजनयन निपट नागर सुनवनीतहूँ ते नरम।
मंजु तम मैनमनहरन हरिऔध मंगल महामूल मं त्र दिमोचन मरम। 7 ।
श्रीरु.- (चकित सी होकर) अहा! यह अमृत की वर्षा कौन महाशय कर रहे हैं ?
प.या.- (सुनना नाटय करके) मित्रवरो! जान पड़ता है भगवान नारद आते हैं!
स.या.- (सानन्द) इसमें क्या आश्चर्य है। भगवत् गुणानुवाद गान का फल सन्तदर्शन होता ही है।
(भगवान नारद का प्रवेश)
नारद- (याचकों की ओर देखकर) याचकगन! मैं इस समय अन्तरिक्षपथ से कुछ आवश्यकीय कार्यों के लिए द्वारिका जा रहा था, अकस्मात् भगवान श्रीकृष्ण नामांकित तुम लोगों का मधुरगान श्रवणगोचर हुआ, अतएव मैं यहाँ आने के लिए बाध्य हुआ, कहो परम पराक्रान्त भगवान श्रीकृष्णप्रतिपालित द्वारिका की इन दिनों कैसी अवस्था है?
स.या.- (सादर प्रणिपात पुरस्सर) महात्मन्! विश्व का कोई विषय ऐसा नहीं जो आपको अनवगत हो, तथापि आपने जो द्वारिका का समाचार पूछकर हम लोगों को प्रतिष्ठा दी है अतएव हम लोगों को भी उस विषय को कुछ श्रीचरण की सेवा में निवेदन करना उचित है। यह एक दोहा महानुभाव के प्रश्न का पर्याप्त उत्तर होगा?
दोहा
खरे हार नृपगन रहत सुरगन जात सकात।
धन जनपूरित नगर लखि सर आनँद अ धि कात।
ना.- सत्य है! सत्य है!! बहुत सत्य है!!! बरन जिस नगर की पृथ्वी अक्लिष्टकर्मैकधाम भगवान श्रीकृष्ण के बज्रांकुशादि चिद्दित आरक्तिम पदतल से सुरंचिता होती रहती है, उसके लिए यह एक साधारण बात है
श्री रु.- आहा! मेरी कामना-पावकशिखा के लिए महात्मा नारद की बातें तो घी से भी बढ़कर हैं। उनके युक्तिसंगतप्रलाप से मम हृदयोद्भूत भगवान श्रीकृष्ण प्रेम अनुक्षण कैसा बढ़ता जाता है।
ना.- (स्वगत सुनना नाटय करके) क्या कहा? ''आह! मेरी कामनापावकशिखा के लिए महात्मा नारद की बातें तो घी से बढ़कर हैं'' फिर क्या कहा? ''उनके युक्तिसंगतप्रलाप से ममहृदयोद्भूत भगवान श्रीकृष्ण प्रेम अनुक्षण कैसा बढ़ता जाता है'' (ऊपर देखकर) क्या ये भीष्मकनन्दिनी कुमारी रुक्मिणी के वाक्य हैं? मैं कृतकार्य हुआ। जान पड़ता है मेरे आने के प्रथम याचकों के गान और वाक्यों ने ही कुमारी के हृदय में भगवत् प्रेम उत्पादन कर दिया था। चलो यह भी अच्छा हुआ, जिस कार्य के लिए मैं आया था, उसके लिए मुझको विशेष प्रयास नहीं करना पड़ा। तो अब यहाँ विशेष विलम्ब करने का कौन काम है (प्रगट) याचकगन! मैं तुम लोगों के उत्तर से बहुत प्रसन्न हुआ, और द्वारिका के समाचार से भी अभिज्ञ हो गया, अतएव अब जाना चाहता हूँ।
स.या.- जैसी महानुभाव की इच्छा।
(महात्मा नारद का उसी प्रकार गाते-गाते प्रस्थान)
ए.या.- (स्वगत) जैसे बसन्त ऋतु की शोभा अवलोकन करने से स्वभावत: हृदय में काम का संचार होता है, अथवा किसी महात्मा का दर्शन करने से अकस्मात हृदय में विज्ञान का प्रादुर्भाव होता है, उसी प्रकार इस राजद्वार की शोभा देखकर हम लोगों को स्वत: भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन का काल स्मरण हो आया, जिससे हम लोगों को ही परमानन्द नहीं हुआ, प्रत्युत समस्त भगवत्सुयशश्रवणकर्तार्ओं को भी अत्यन्त हर्ष हुआ। किन्तु अब भगवान तमारि स्वरश्मियों को आकर्षण कर अस्ताचल को पधारा चाहते हैं, अतएव हम लोगों को भी डेरे चलना उचित जान पड़ता है (प्रगट) मित्रगण! अब चलने में क्या विलम्ब है? क्योंकि सन्ध्या हुआ चाहती है।
स.या.- राजद्वार का दर्शन हुआ ही, साथ ही महात्मा नारद ने भी अनुग्रह किया, हम लोगों की कामना सफल हुई। फिर अब चलने में क्या विलम्ब है, चलो चलें!
(याचकगण 'जय प्राचीदिशि देवकिचन्द' इत्यादि गाते जाते हैं ,
साथ ही जवनिकापतन होता है)
द्वितीयांक
स्थान-राजसभा)
( महाराज भीष्मक , रुक्म , रुक्मकेश , मंत्री और सभासद्गण
यथास्थान बैठे हैं)
भीष्मक- (चिन्ता से स्वगत) ईश्वर की रचना क्या ही अपूर्व है। वह एक ही जठर है, जिससे कन्या पुत्र दोनों उत्पन्न होते हैं, पर एक की अपेक्षा दूसरे के प्रसव का हर्ष और उत्साह विलक्षण होता है। यद्यपि कन्या जायमान होने पर खेद प्रगट करना संकीण्र्हृदयों का काम है, ईश्वरप्रदत्त वस्तु पर अरुचि प्रगट करना है, तथापि मनुष्य कन्या से कभी सुखी नहीं होता। जब वे समर्थ होती हैं, उस समय योग्य घर बर मिलने के लिए जो चिन्ता माँ-बाप को आ लगती है, उसको वे ही जानते हैं, जब मेरे चित्त को परमात्मा ने किसी भाँति असमर्थ नहीं बनाया है, रुक्मिणी को समर्थ देख यह दशा है। तो मैं नहीं जानता घर में समर्थ कन्या देखकर असमर्थों की क्या दशा होती होगी। राजा जनक से विभवसम्पन्न जन को स्वप्यारी पुत्री जनकनन्दिनी को समर्थ देख कितनी चिन्ता थी, जो राजाओं की सभा में भी छिपी न रह सकी और भीषणमुर्ति धारण करके प्रगट हुई। यद्यपि रुक्मिणी अभी अधिक समर्थ नहीं है, तथापि वायु संचलित चलदल पत्तों समान मेरा मन कैसा चंचल है। नेत्रों से निद्रा बिल्कुल जाती रही है, चित्त सदा उद्विग्न रहता है, चिन्ता शरीर को दुर्बल किए देती है। किन्तु अब इस विषय में अधिक मीमांसा की आवश्यकता नहीं, जो कुछ कर्तव्य हो, सभावालों के परामर्शानुसार स्थिर कर देना ही उत्तम है। (प्रगट मंत्री से) मंत्री! रुक्मिणी विवाहयोग्य हो गयी, पर अब तक मेरी दृष्टि में कोई ऐसा राजकुमार नहीं पड़ा है, जो उसके योग्य हो; सब में किसी-न-किसी विषय की त्रुटि अवश्य दीखती है, इससे हमारा चित्त परम आकुल हो रहा है। क्या तुम कोई उपाय सोच सकते हो? अथवा किसी रूप गुणकुलसम्पन्न राजकुमार को बतला सकते हो? जिसके समाचार वायु की सहायता से मेरा मनमयंक जो अनेक प्रकार के तर्क-वितर्क घनपटल में समाच्छन्न है, बाहर निकल आवे?
मं.- (विचारकर) यों तो निजोदरपरायण मदांध बहुतेरे राजकुमार हैं, पर जैसी आपकी अभिलाषा है, वैसे बहुत थोड़े और महान अन्वेषण से मिलेंगे? क्योंकि कुल गुणरूपादि जो अपूर्वमणि है, सब मनुष्यों में ऐसे नहीं होते, जैसे सब गजराज के मस्तकों में मुक्ता और सम्पूर्ण गहवनों में चन्दन नहीं होता।
ए.स.- फिर यदि इन गुणों से रहित है, और बड़ा धनमान और प्रतापी ही है तो किस काम का। मतिमानों ने बैर प्रीति विवाह समान से करना कहा है, असमान से तीनों भयंकर है। गृद्धराज के मारे जाने का, नहुष के सर्प शरीरधारण् करने का, शकुन्तला के महत् क्लेशभागी होने का कारण, केवल उक्त वस्तुओं का असमानत्व ही था। इससे हम लोगों का मुख्य कर्तव्य है कि जैसे हो सके राजतनया के लिए योग्य वर और समान पति मिलने के लिए परिकरबद्ध होकर प्रयत्न करें, क्योंकि संसार की यह रीति है, कि मनुष्य जिस कार्य के लिए हृदय से यत्नवान होता है (चाहे वह अलभ्य ही क्यों न होवे)उसको अवश्य प्राप्त करता है। वायुतनय वीर केशरी हनुमान ने अपने साहस से ही जनकराजदुहिता का पता लगाया। महात्मा आसुरि ने अपने उद्योग से ही अगम्य राजस्थल में प्रवेश करके भगवान श्रीकृष्ण का दर्शन किया। फिर क्या कारण है कि यदि हम लोग सच्चे हृदय और पूर्ण अध्वसाय से राजदुहितार्थ योग्य पति खोजने के लिए दृढ़प्रतिज्ञ होंगे और न खोज सकेंगे!
दू.स.- यद्यपि भवदीय सभ्य विज्ञवर का विचार अति प्रशंसनीय है, किन्तु महाराज! जहाँ तक यह अल्पमति विचारता है, यही निश्चित होता है, कि सम्प्रति इस भारतवर्ष में दुर्योधन, जरासंध, शाल्व, अर्जुन, धृष्टद्युम्न, से अधिक प्रतापी कोई राजा नहीं है, ए अपनी भुजाबल से इन्द्र को जीत सकते हैं। दशों दिक्पाल के मान को दूर कर सकते हैं, इनके धनुष की उग्रता सन्मुख बज्री का बज्र, पिनाकी का पिनाक, दण्डी का दण्ड शोभा मात्र हैं। इनके प्रताप के सम्मुख निदाघांशु शीतल, शीतलांशु मलीन, नृपसमाज अगौरव, और त्रिलोकविजयी विगतधर्य दिखलाई पड़ते हैं। यदि इनका कुलकुमुदबन्धु किसी लांच्छन द्वारा लांछनित न हो और ये पृथ्वीनाथ की दृष्टि में सुयोग्य परिगणित हों तो इस कृपापात्र की दृष्टि में इनसे प्रतापी, गुणज्ञ, और सुयोग्य वर पृथ्वी में दूसरा कदापि निश्चित नहीं हो सकता।
रुक्म- (झुँझलाकर) बस! अब आगे किसी दूसरे को कुछ कहने की कोई आवश्यकता नहीं है। और न इस विषय में अधिक विचार और कथनानुकथन का कोई प्रयोजन है, क्योंकि महाराज शिशुपाल को छोड़ जो सब भाँति कुल गुणरूपादि में रुक्मिणी के समान है ''जिसकी धन्वा की टंकार से पृथ्वी चलायमान हो जाती है, सूर्य के घोडे पथ भूल जाते हैं, शेषनाग बधिर हो जाते हैं,सह्स्त्राक्ष के सह्स्त्रों, षड़ानन के द्वादशों नेत्र बन्द हो जाते हैं, लोक का हृदय काँपने लगता है'' दूसरा कोई योग्य वर पृथ्वी में नहीं है, और न अब इस शुभकार्य में विशेष विलम्ब करने का प्रयोजन है।
रुक्मकेश- पूजनीय पिता, माननीय श्रेष्ठभ्राता, अथच सकलसभासदों की जो अनुमति होवे सोई उत्तम और शिरोधार्य है। किन्तु मेरी समझ में रुक्मिणी के योग्य और सकलकुलगुणरूपादि सांसारिक अमूल्य मणि रत्नाकर इस समय त्रिलोक में भगवान वासुदेव के अतिरिक्त कोई दूसरा नहीं है।
पद
तेहि कुल कहा बड़ाई कीजै।
जेहि कुल प्रगट भये श्री जदुपति जासु नाम भवसेतु कहीजै ,
जाहि स्वास ते प्रगट भये जग चार बेद जे गुन उपजाये।
ताके गुन अपार अगनित को अस जग को बरनि बताये।
जेहि प्रकास ते रवि ससि मन्मथ जोति सरूप मान जगगावै।
ताको रूप अलौकिक अनुपम किमि इक लघुजन पै कहिआवै।
भृकुटिबिलास जासुमाया के अखिल विश्व छन माँहिं नसावै।
इदमित्थं असीम बल ताको भूलि कबौं कहिबो न सुहावै।
अपर कहा बन तृनहुं न कबहूँ बिन निदेस जाके जग डोलै।
तासु प्रताप कथन हित कैसे हरीऔध पामर मुख खोलै।
विशेष कहने की कोई आवश्यकता नहीं, सूर्य अपने गुणों से आप ही प्रकाशित है, मृगांक अपने सौन्दर्य से आप ही जगतप्रिय है, ऐसे ही महात्मा श्रीकृष्ण भी अपने सच्चरित्रों और अद्भुत कर्मों से आप ही लोकविख्यात और प्रिय हैं, उनके परिचय के लिए मुझको किसी वस्तु विशेष का निर्देश अयुक्त जान पड़ता है। क्या इस शैलसागरसंकुला पृथ्वी में कोई ऐसा भी होगा, जो उक्त महात्मा के सत्कर्मवारिजकाष्टपद न हो, और जिसके हृदयागार में भगवान के सच्चरित्र के चित्र न खिंचे हों ? कदापि नहीं।
भी.- (सानन्द) प्रिय पुत्र! आज तुमारे युक्तिसंगत इन कोमल अथच मधुर वचनों को श्रवण कर चित्त अति आनन्दित हुआ, इतनी थोड़ी अवस्था में तुमारी ऐसी विलक्षण मति निरीक्षण कर हम अति सन्तुष्ट हुए। निसन्देह रुक्मिणी श्रीकृष्ण को ही पाणिगृहीता होने योग्य है, क्योंकि रमा की शोभा रमानाथ के ही अंक में है!
एक.स.- (एक स्वर से) महाराज! राजकुमार के इस उत्तम परामर्श को श्रवण कर ऐसा कौन होगा, जिसके हृदय में आनन्द का संचार न हुआ होगा। कुमार जैसे स्वयं तेजमान और दीप्तिसम्पन्न हैं, वैसी ही इनकी बुध्दि भी है। सत्य है! अमरावती के ही सुवर्ण में सुगन्धि होती है।
ए.स.- (आप ही आप रुक्मा की ओर देखकर) अहा! राजकुमार रुक्म का क्रोध सभासदों के वाक्यों को सुनकर कैसा बढ़ रहा है। जैसा पूर्णिमा को समुद्र की तरंगें बढ़ती हैं। ऑंखें प्रात:काल अथवा सायंकाल के नभोमण्डल की भाँति कैसी अरुण हो गयी हैं, अधार कैसे फरक रहे हैं, भौंहें कुटिल पुरुषों के मन की भाँति कैसी टेढ़ी हुई जाती हैं, मुख प्रात:काल के सूर्य बिम्ब समान कैसा आरक्त हो गया है! यद्यपि जन का कथन कुमार की क्रोधग्नि में घृत का काम दे रहा है, तथापि उनका वाक्य आद्योपान्त श्रवण करने के लिए उन्होंने उसको कैसा रोक रखा है। मानो युगान्त भगवान रुद्र ने लोकान्त की अभिलाषा करके जीवधारियों के चित्र विचित्र कथनोपकथन सुनने की इच्छा से कुछ काल के लिए स्वकर्तव्य का परित्याग किया है।
रु.- (क्रोध से) आज इन सद्विवेचकों को क्या हो गया, जो इन्होंने एक अज्ञ बालक के अनुचित परामर्श पर अपनी अनुमति प्रगट की। आज इस सकल सभ्य विद्वज्जनमण्डली की बुध्दि क्या हो गयी, जिससे इन शिष्ट महाशयों ने एक अति अयोग्य विचार का अनुमोदन किया। बड़े खेद का स्थल है, बड़ी लज्जा की बात है, बड़ी स्पर्धा का विषय है, बड़े शोक का समाचार है। जो आपलोगों ने ऐसे अकरणीय कर्म की समालोचना करने में थोड़ा भी अनुशीलन नहीं किया, क्या यज्ञहवि काक के योग्य हो सकती है? क्या सुरसरी अकूपार त्याग छुद्र नद सहवास कर सकती है? क्या रोहिणी राहु समागम में शोभा पा सकती है? क्या सुधा असुरों के योग्य कही जा सकती है? इसी भाँति क्या रुक्मिणी कुटिल कृष्ण के योग्य निश्चित हो सकती है? कदापि नहीं। कृष्ण को कौन नहीं जानता, यदुवंशियों की कुलीनता किससे छिपी है? क्या हुआ जो आज उन्नतिशाली हो गये, विधुन्तुद ग्रहों में परिगणित होने से देवता नहीं हो सकता, फिर जिस के माता-पिता का आज तक नाम ही न ज्ञात हुआ, उसको किस वंश का कहैं, कैसे उसके कुल की विवेचना करें, उसका ग्वालों में रहना, दुग्धदि का चुराना, गोवादि को चराना, मातुलादि को मारना, किस पर अप्रगट है। वह जिसकी उग्रसेन के भृत्यों में गणना है, हमसे क्षत्रियों की समानता कब कर सकता है, कब हमसे कुलीनों की कुलोद्भूत कन्या के पाणिग्रहण करने योग्य कहा जा सकता है? शिशुपाल जो उससे सब भाँति उत्तम और श्रेष्ठ है, जिसका प्रताप अखिल भूमण्डल में व्याप्त है, रुक्मिणी के विवाह योग्य है। उचित है, रुक्मिणी उन्हीं को ब्याह दी जावे, और मेरे सामने फिर कृष्ण का नाम न लिया जावे, क्योंकि अयोग्य पति मिलने से केवल कन्या ही को कष्ट नहीं होता, वरन उसके दूसरे सम्बन्धियों और पितु भ्रातादि को भी बड़ा क्लेश भोगना पड़ता है। देवयानी की कथा से कौन अनिभज्ञ है, अयोग्य पति मिलने से वह अपने अपमान का जितना ध्यान रखती थी, उतनी ही दुखी रहती थी, इस कारण् उसके पिता असुर गुरु महात्मा शुक्र को जो संकट हुआ करता वह किस पर अविदित है।
स.स- राजकुमार की जैसी इच्छा।
(महाराज भीष्मक सभासदों के साथ उठ जाते हैं)
(जवनिका पतन होता है)
तृतीयांक
स्थान-गृहान्तर्गत एक पुष्पोद्यान)
( महारानी रुक्मिणी चिन्तान्वित सिंहासन पर एक कुंज में विराजमान अनामा और अनाभिधाना दो सखियों का प्रवेश)
अनामा- सखी अनाभिधाने! वसन्तागम से इस उद्यान की कैसी शोभा है, रसाल के नवदलों में उसकी नूतन मंजरियाँ कैसी शोभा दे रही हैं, कोकिला की वाणी कैसी सुहावनी लगती है, पाटल के सरस सुमनों के मकरन्दों को पान कर भ्रमरगण कैसा शब्द कर रहे हैं, नवीन अथच हरित पत्रों से मूल से आशिखर सज्जित पादपगण कैसे सुन्दर जान पड़ते हैं। उनके उन हरित पत्रों के मध्य सुललित कुसुमचय की कैसी शोभा हो रही है। ऐसा ज्ञात होता है, मानो भगवान कुसुमायुध ने निज हरित वितानों को विविध रंग के अनुपम चित्रों से चित्रित किया है। पुष्पसुरभि सौरभित वायु के मन्द-मन्द चलने से चित्त कैसा प्रफुल्लित होता है, रसालमंजरीमद निष्कासित सुगन्धि द्वारा उद्यान कैसा सुगन्धमय हो गया है, सरों में विकसित सरसिज कुसुमों की कैसी छवि है। जान पड़ता है इस मनोहर उद्यान की शोभा देखने के लिए सर ने अनेक नैन धारण किए हैं। (चकित सी होकर) प्रिय सखी! उस (तर्जनी द्वारा लक्ष्य करती है) मालती के सघन कुंज में जहाँ सूर्य की किरणें कठिनता से गमन करती हैं, प्रकाश कैसा हो रहा है? ऐसा ज्ञात होता है कि किसी ने निबिड़ अन्धकाराच्छन्नभवन को एक उज्ज्वल दीप्तिमान मणि द्वारा प्रकाशित किया है।
अनाभिधाना- (कुछ काल तक देखकर आश्चर्य से) अनामे! यद्यपि मैं बहुत विचारती हूँ कि उस कुंज में इतना प्रकाश होने का क्या कारण है, तथापि मेरे ध्यान में कोई बात नहीं आती। क्या इस उपवन को नन्दन वन से अनुत्तम अवलोकन कर देवराज शचीपति ने सस्त्रीक उस स्थान को शोभित तो नहीं किया है। अथवा निज प्रिय मित्र ऋतुनायक वसन्त के साथ भगवान कुसुमायुध ने उस सघन कुंज की शोभा को द्विगुणित बनाया है। या भगवान दिवाकर ने अरुण को अपना प्रतिनिधि स्थापन कर शीतल होने की कामना से उस क्रीडास्थल को विश्रामस्थल कर रक्खा है। किम्वा छपानाथ ने निज प्रिया रजनी के विरह से कातर हो अन्वेषण करते-करते उस कुंज में उसके होने की आशंका करके उसमें पयान किया है। वा कश्चित देवबधू किम्वा किसी अप्सरा ने उपवन शोभा अवलोकनोपरान्त उस एकान्त स्थल को अपने तेजोमय आभूषणों और शरीर द्वारा आरंजित करना चाहा है। ( सूँघना नाटय करती है)अहा! समझ गयी। जान पड़ता है राजनन्दिनी रुक्मिणी उस निकुंज में विराजमान हैं क्योंकि यह वायु जो उस ओर से आ रही है, वैसी ही सुगन्धित है जैसी राजकिशोरी के शरीर की सुवास है।
अनामा- सत्य है! चलो अब हम दोनों भी वहीं चलैं और जैसे जनकनन्दिनी को उनकी सखियों ने मर्यादापुरुषोत्तम भगवान रामचन्द्र का परिचय देकर उनको आनन्दित किया था, वैसे ही हम दोनों भी राजतनया को शिशुपाल का परिचय देकर (जिसके यहाँ रुक्म ने आज टीका भेजा है) आनन्दित करें।
अना.- हाँ! चलो! (जाती हैं)
श्रीरु.- (ठण्डी साँस भरकर स्वगत) हे मन! तू ही धन्य है! जो इस प्रकार प्राणनाथ श्रीकृष्ण के पादारविन्द का मिलिन्द हो रहा है, कि नाना विघ्नों, तीव्र कंटकों की आशंका होने पर भी उसके ध्यानानन्द मधुपान से विरक्त नहीं है। शरीर का क्या, आज रहा कल न रहा। मुझको तो तभी इससे निराशा हो गयी, जब मेरे कानों ने इस असह्य रोमांचकर समाचार को सुना कि ''रुक्म ने आज शिशुपाल के यहाँ टीका भेज दिया।'' पर हाय! ए नैन जो सर्वदा प्राणनाथ की अलौकिक छवि अवलोकन करने के लिए चकोरवत् उत्सुक रहे! ए कर, जिनको प्रभुपादारविन्द सेवन की बड़ी उत्कण्ठा है! ए श्रवण, जिनको प्रियतम के कोमल मधुर अथच मेघगम्भीर भाषण सुनने की बड़ी कामना है! ए नासाछिद्र, जिनको प्राणपति के अतसीकुसुमोपमेय कान्ति सम्पन्न शरीर की सुगन्धि घ्राण की एकान्त इच्छा है। यह अंक जिसको प्राण धन जीवन को भर अंक भरने का परम अनुराग और घनी लिप्सा है। क्या अब अपनी अभिलाषा को न पूरी कर सकेंगे? क्या इन अभिलाषाओं की विशद बेलि जो हृदयालवाल में भली-भाँति फैली हुई है, अब उस घनश्याम की कृपावारि से सिंचित न होकर सूख जाएगी? विधाता! तू बड़ा कठोर है! जो पहले मन को प्रियतम प्रीति से संलग्न कर, अब उसको वियोग का फल चखाया चाहता है। और उसकी इतनी विकलता देखकर भी तेरा हृदय नहीं द्रवता। हे अपटु! यद्यपि तेरी अपटुता अप्रगट नहीं। क्योंकि तेरी ही कुमति का यह फल है कि जगन्नैनोत्सव निसाकर असित लाँछन द्वारा लाँछनित है! जगज्जीव आशा पात्र उदधि लवण है! कुसुमकुलशिरोमणि पाटल की शाखा कण्टकाकीर्णहै! चतुराकर असतंस, गुणगणैकनिलय, मनुष्य जाति मृत्युभय संचसित है। तथापि कहीं-कहीं वह अतिसय खेदजनक होती है। ब्रह्मा! क्या तू ऐसे-ऐसे कामों को करके सुखी रहेगा? कदापि नहीं! अवश्य कोई वह दिन भी होगा, जिस दिन निज सताए हुए लोगों की पुकार से विकल होकर तुझको भी अप्रिय कर्म का फल भोगना पड़ेगा। हा! कहाँ इस बात की अभिलाषा थी कि एक वह दिन होगा जिस दिन मैं प्राण प्यारे की दासी करके संसार में प्रख्यात हूँगी, और अपने को कृतकृत्य मानूँगी। कहाँ अब इस बात की चिन्ता है कि किस दिन इस शरीर को त्याग उस अधर्मी शिशुपाल का मुख देखूँगी, और अपना धर्म निबाहूँगी। हाय! क्या सचमुच अब प्राणनाथ के दर्शन से ए नैन सफल न होंगे? क्या वास्तव में ए पापी प्राण प्राणनाथ के संयोग सुख का अनुभव न कर सकेंगे? हा! निर्दयी दैव! न जाने तुझको ऐसा करने में क्या लाभ है!!! (मूच्छित होकर गिरना चाहती हैं, गिरते देख दूर से दौड़कर अनामा उनको पकड़ लेती है साथ ही अनाभिधाना भी दौड़ आती है)
अनामा- (व्याकुल होकर) सखी अनाभिधाने! देख! राजकुमारी की इस समय कैसी दशा हो रही है, मुख प्रात:कालीन मयंक समान पीतवर्ण हो गया है। नेत्रों से अश्रुबिन्दु मुक्ता समान गिरे जाते हैं, हृदय बार-बार कंपित हो उठता है, सम्पूर्ण अंग शिथिल हुआ जाता है, शरीर में इतनी ज्वलन है कि उसकी ऑंच से समीप खड़े रहना कठिन है, सकल आभूषण इतस्तत: हो गये हैं, संज्ञा नष्टप्राय है, क्या तुम इसका कारण बतला सकती हो?
अना.- ''सखी! इस समय कारण जानने के लिए अधिक विचार करना व्यर्थ है। वरन राजनन्दिनी को सुधि में लाने का प्रयत्न करना अत्यन्त उचित जान पड़ता है। क्योंकि सुधि हुए पीछे सब कारण आप ही ज्ञात हो जावेंगे। दीपक द्वारा भवनान्धकार विदूरित होने के उपरान्त उसमें की सब वस्तु आप ही दीखने लगती हैं ( अंचल द्वारा वायु करती है)।
श्रीरु.- (सुधि में आकर) अरे मन! तू इतना क्यों आकुल होता है, ईश्वर बड़ा विलक्षण है! उसके सन्मुख कोई भी विषय असाध्य है नहीं, क्या आश्चर्य है जो उसकी कृपा से तेरी कामना पूरी होवे। क्या दमयन्ती को कभी आशा थी कि नल के मुखचन्द्र दर्शन से उसका हृत्कुमुद फिर विकसित होगा पर उस करुणालय जगदीश की कृपा से उसकी अभिलाषा पूर्ण ही हुई।
अनामा- राजतनये! यद्यपि कोई भेद तुमारा ऐसा नहीं है, जो हम लोगों पर अप्रगट होवे, तथापि जिस कारण से तुमारी आज यह दशा है, उससे हम सब सर्वथा अनभिज्ञ हैं। आज मन तुमारे विवाह के मंगल समाचार को सुनकर बड़ा आनन्दित था, उस मंगलमय दिवस की परिगणना बड़ी उत्सुकता के साथ करता रहा, पर इस काल तुमारी ऐसी शोचनीया अवस्था देखकर उसका वह आनन्द ऐसे उड़ गया, जैसे पारा अग्नि संपर्क से उड़ जाता है, क्या किसी रोग करके तुमारी यह दशा है अथवा कोई दूसरा कारण है? प्यारी! शीघ्र बताओ, जिससे हम लोग उसके निवारण का तत्काल प्रयत्न करें, क्योंकि तुमारी यह दशा देखकर मन ऐसा उद्विग्न है, जैसे मणि खो जाने की आशंका से सर्प विकल होवे।
श्रीरु.- सखी अनामे! अब क्या प्रयत्न हो सकता है, जो होना था सो तो हो ही गया। अब क्या सम्भव है कि रुक्म अपने प्रण को त्याग देगा, जब उसने शिशुपाल के यहाँ टीका ही भेज दिया तो अब त्यागने की कौन आशा है। पर क्या भागीरथी के प्रवाह को रत्नाकर की ओर से बलात रोककर कोई किसी अपूर्ण सरोवर की ओर कर सकता है? अथवा वसुन्धरा का सूर्य के आसपास का भ्रमण करना अवरोध होकर किसी छुद्र ग्रह के आसपास हो सकता है? ऐसे ही जिस मनमयंक ने अपने को श्रीकृष्ण पादरज दर्शनभानु से प्रकाशित करने की अभिलाषा की है, भला यह कैसे हो सकता है कि अब वह शिशुपाल से खद्योतसम का आश्रय करके अपने को कलंकित करेगा।
अनामा- मन में अकस्मात बिना बिचारे ऐसी भावना कैसे कर ली, यद्यपि चन्द्रमा सूर्य के ही प्रकाश से प्रकाशित है, किन्तु चन्द्रमा के हत प्रकाश होने का कारण भी तो सूर्य ही है। फिर जिससे उपकार के साथ अपकार की भी आशंका है, और जिस कार्य के होने की कदापि सम्भावना नहीं, उसके लिए आग्रह के वशीभूत होना अयुक्ति छोड़ और क्या हो सकता है।
श्रीरु.- फिर मन क्या स्ववश है! यदि इसको युक्ति ही सूझती और अपने हानि-लाभ का ही विचार होता तो ऐसा क्यों करता? इसके अतिरिक्त जिसने प्रेम मार्ग में पैर रखा है, उसको हानि-लाभ से क्या प्रयोजन। उपलभ्य से चातकी स्वाति घन की आशा त्याग किसी छुद्र सरोवरादि की आशा कर सकती है? अथवा कंटक विद्ध होने की आशंका से चंचरीकपाटल प्रसून से विरत हो निर्गंधि जवासपुष्प से प्रीत हो सकती है? कदापि नहीं? फिर मैं कब प्राणभय से भगवान वासुदेव के पादारविन्दसेवन से विरक्त हो सकती हूँ।
अनामा- राजनन्दिनी! प्रीति वही उत्तम होती है, जो परस्पर हो, एक ओर तो प्रीति का प्रवाह उमड़ता हो और दूसरी ओर उसके जाने के लिए मार्ग भी न हो तो ऐसी प्रीति किस काम की। पतंग का दीपक का भाव जाने बिना उससे प्रीत होने का कैसा भयंकर परिणाम होता है।
श्रीरु.- प्रीति तो बड़ी प्रशंसनीय होती है, जो निस्स्वार्थ हो, किसी उपकार अथवा उत्तमता की आशा से प्रीति करना प्रेम का निकृष्ट मार्ग है। निज प्रीति पात्र के अनजान में और उससे अपमानित होने पर जो प्रेम ध्रुव समान अटल रहता है, विबुधों की दृष्टि में वही उत्तम और उत्कृष्ट गिना जाता है। जैसा माननीया जनकराजदुहिता का भगवान रामचन्द्र के साथ था, अथवा श्रध्दास्पदा वृषभानुनन्दिनी और प्रात:स्मरणीया गोपीजन का श्रीगोपीबल्लभ के साथ है।
अनामा- जैसे प्रचण्ड केहरी के सुतीक्षण नखों का व्रण मेघगम्भीर स्वन श्रवण कर विदीर्ण होने लगता है। वैसे ही तुमारे शोक से आहतमन का संताप कुमार रुक्म के राजसभा में तरजने का समाचार स्मरण कर अधिक हो जाता है। पर हाय! क्या महात्मा जनक के आग्रह को कोई निवारण कर सकता था, यदि श्रीजनकनन्दिनी के सौभाग्यबल से पुरुषोत्तम भगवान रामचन्द्र द्वारा धनुषभंग न होता।
श्रीरु.- सखी अनामे! रुक्म अपना हठ भले ही निबाहे मुझको इस में कुछ कथन की कोई आवश्यकता नहीं। पर मेरे हृदय का भाव ब्रह्मा के लेख की भाँति किसी प्रकार भी नहीं पलट सकता। वायु अपने प्रचण्ड वेग से घनपटल को निवारण कर ही देती है, पर इससे चाहे चात्रिक के भाव में कुछ अन्तर होता हो, कदापि नहीं होता।
पद
कहा लाभ बहु कहे सुने मैं।
दुखी भये मन सोक बढ़ाए बिबिध तर्क हिय माहिं गुने मैं।
त्यागि कृष्णपदकंज प्रीति छन आन ध्यान नहिं होत हिये मैं।
भलो होत जिय एक आस विस्वास एक इक ओट किये मैं।
बसो आनि हिय धाम स्याम छबि रोम-रोम अरु नैन दोऊ मैं।
दियो छोरि कुल नीति रीति रति चहौं नाहिें अब भूलि सोऊ मैं।
परो लाज पै गाज जाहि ते अन्तर होय सुरारि प्रेम मैं।
कहा लाभ प्रभु बिमुख जोग विज्ञान ज्ञान धारु किये नेम मैं।
अहै हानि हरिऔध नाथ तजि आन माहिं निज चित्त दिये मैं।
दीप्तिमान मनि त्याग काँच को कहा लाभ व्यवसाय किये मैं।
अनामा- राजकन्यके! तुमारा व्रत बड़ा कठोर है, परमात्मा तुमको इस व्रत के उद्यापन में कृतकार्य करे। (ऊपर देखकर) क्या अब संध्या समय समीप है? तो अभी कहिए यह कार्यों का परिशोध करना भी अवशेष है। राजात्मजे! चलो राजमन्दिर को चलैं।
अनामा- सखी अनामे! सत्य है। दिनमणि, जिसने अपनी प्राणप्यारी छाया के अन्वेषण में बड़ा परिश्रम किया था, उसको न पाकर, वियोगी पुरुषों की भाँति अब उसके वियोग से कैसा मलीन और निस्तेज हो रहा है। अधिक परिश्रम करने से उसका मुख कैसा अरुण हो गया है। पादपगण जिन्होंने छाया को अपने अधोभाग में शरण दिया था, अब अपनी विजय समझ कैसे हरित और प्रफुल्लित हो रहे हैं। पक्षिगण जो इतस्तत: कलरव करते वृक्षों की ओर आते दृष्टिगत होते हैं, उनको और वृक्ष के पत्रों का संचालित होना देखकर ऐसी प्रतीति होती है, मानो पादपगण पक्षिसमूह को अपने विजय का शुभ समाचार सुनाने के लिए संकेत द्वारा निकट बुला रहे हैं, किन्तु वह पहले ही इस विजय समाचार से अभिज्ञ होकर उन को जीत की बधाई दे रहे हैं। (इधर उधर देखकर) अहा! अब तो सूर्य का कुछ प्रकाश शेष न रहा, शीतलमंद सुगंध विविध वायु चलने से संसार का चित्त हरा हो रहा है, किन्तु प्यारी रुक्मिणी के दु:ख से हम लोगों का मन मलीन और अनुत्साह है। सन्ध्या समय की सुख सामग्री आज हम लोगों के उपयुक्त नहीं है।
श्रीरु.- सखियो! क्यों वृथा तुम सब भी मेरे साथ दु:खिनी बनती हो, चलो चलैं।
अनामा- राजनन्दिनी की जैसी आज्ञा।
(सब जाती हैं)
चतुर्थांक
स्थान-राजभवन। भगवान श्रीकृष्ण सिंहासन पर विराजमान)
( एक ब्राह्मण का प्रवेश)
ब्रा.- (आप ही आप) मेरा मन द्वारिका के बाह्योपगत भवनों की छटा देखकर इतना चमत्कृत हुआ था, कि अपने को बिल्कुल भूल गया था। किन्तु इस काल महात्मा श्रीकृष्ण के लोकललाम गृहों को देखकर इसकी जैसी दशा है, वह इस अवस्था से भी विलक्षण् है। मेरी ऑंखों ने बडे-बड़े रम्य मन्दिरों को देखा है, किन्तु इस मन्दिर और अवलोकित मन्दिरों की शोभा में, बैकुण्ठ और एक साधारण गृह का सा अन्तर है। आहा! कनकनिर्मित भीतों में जो मणियाँ जटित हैं, वह सुमेरप्रान्तस्थित भगवान दिवाकर से क्या कम दृष्टिरंजक हैं। स्वच्छता देखिए तो दर्पण क्या है, सरितसरों का निर्मल जल क्या है। ग्रीष्मऋतु की चटकीली धूप शरदर्तु की विमल चाँदनी क्या प्रकाश सम्मुख स्थान ग्रहण कर सकती है, कदापि नहीं। (सामने देखकर) वह मकरध्वज मानमर्दक महात्मा श्रीकृष्ण सिंहासन पर विराजमान हैं। आहा! क्या मेरी ऑंखों ने कभी ऐसा सुन्दर स्वरूप देखा है? क्या कानों ने कभी ऐसे लोकमोहन मूर्ति का वर्णन सुना है? इस काल तो मुझको जगतपिता धाता के आठ, देवसैन्धनायक श्यामकार्तिक के द्वादस, भगवान भूतनाथ के पंचदस, और सचीप्राणबल्लभ देवराज के सह्स्त्र नेत्रों पर ईष्या हो रही है। किन्तु बृथा, क्योंकि महात्मा ब्रह्मादि की कौन कहे, क्या देवराज इन्द्र जिसके सह्स्त्र ऑंखें हैं, प्यारे श्रीकृष्ण की छवि अवलोकन कर सन्तुष्ट होता होगा? उसकी दर्शनेच्छा तो हम लोगों से भी अधिक बलवती होती होगी। नृपकुलतिलक राजराजे पृथु सह्स्त्र श्रवणों से भगवत सुयश श्रवण करते थे, पर क्या सन्तुष्ट होते थे? महात्मा श्रीकृष्ण का दर्शन करके आज मेरे नेत्र ही सफल नहीं हुए, मेरा रोम-रोम पवित्र हो गया, क्योंकि मैं इस काल उस पुरुष का दर्शन कर रहा हूँ, जो अनादि नित्य, निर्विकार, और जन्म-जरादि रहित है। जिसने स्वभक्तजन रक्षणार्थ निजेच्छावश यह पंचतत्तवात्मक शरीर धारण किया है। आज ऐसा कौन तप, यज्ञ, दान है जिसको मैंने नहीं किया, ऐसा कौन व्रत उपासना ज्ञान है जिसका फल मैंने नहीं पाया। पंचानन लोमस सनकादि को भी यह आनन्द कभी न प्राप्त हुआ होगा, जो आनन्द इस क्षण मुझको प्राप्त है।(आनन्द में मग्न होकर खड़ा रह जाता है, भगवान ब्राह्मण को आते देख , सिंहासन से उतर प्रणाम करते हैं, और ले जाकर उसी पर बिठाते हैं।)
श्रीकृ.- (पादप्रच्छालनादि उपरान्त) द्विजदेव! यद्यपि आपका इस लघुगृह को पावन करके मुझे कृतार्थ करना स्वाभाविक धर्म है, क्योंकि रविचन्द अथवा पयोद की भाँति महज्जनों की यह नैसर्गिक प्रकृति है कि वह बिना इच्छा प्रगट किए संसार का उपकार करके उसको कृतकृत्य करते हैं, तथापि मैं पूछने का साहस करता हूँ कि किसी कार्य विशेष से तो आपने अपने इस कमल जैसे कोमल चरणों को कष्ट नहीं दिया है?
ब्रा.- (चकित सा होकर स्वगत) अहा! भगवान श्री और उनके नवनीत से कोमल, पीयूष से मधुर, इक्षु समान रका पूरित बचनों का श्रवण कर, और उनकी महज्जन, अंगीकृत नम्रता और दैन्य अवलोकन कर मेरे हृदय का कैसा भाव हो रहा है, मैं द्वार पर द्वारपालों से न रोके जाने ही को उक्त महात्मा की ब्राह्मणों पर बड़ी अनुकम्पा समझता था, पर इस सन्मान और सप्रेम आलाप सन्मुख सच तो यह है कि वह एक साधारण बात थी। उत्तमजनों की कैसी उदारनीति है जब उनको गौरव प्राप्त होता है, वह फलित वृक्ष अथवा जलपूरित मेघ की भाँति कैसी नम्रता धारण कर लेते हैं। सत्य है, महत्व पाकर वर्षाकाल के छुद्र नदों की भाँति अति शीघ्र उमड़ चलना नीच मनुष्यों का ही कर्म है ( प्रगट) दीनबन्धु! यद्यपि मेरे आने का कारण आप पर अप्रगट नहीं, तथापि मैं उसको कहता हूँ आप श्रवण करें।
श्रीकृ.- आप कहैं मैं सुनता हूँ।
ब्रा.- भुवनविख्यात कुण्डलपुराधीश जिनका सुयश दिनमणि के प्रकाश सदृश अखिल संसार में व्याप्त है-
श्रीकृ.- मैं समझ गया, आप महाराज भीष्मक का नाम लेंगे।
ब्रा.- एक दिन उन्होंने निजभुवनमोहिनी तनया श्रीरुक्मिणी के लिए योग्य वर विचार की कामना से सभा की।
श्रीकृ.- (स्वगत) यह महाशय राजतनया रुक्मिणी को भुवनमोहिनी उपमा से उपमानित करते हैं। पर वास्तव में वह भुवनोद्वेगिनी है, क्योंकि मैंने जिस दिवस से भगवान नारद के मुख से उसकी उपमा सुनी है, उस दिवस से ऐसा उद्विग्न हो रहा हूँ, जैसा रुरुशर्मा मुनिकन्या को देखकर हुआ था, (प्रगट) तब क्या हुआ?
ब्रा.- उस काल अनेक सभासदों ने बहुत से राजकुमारों का कुलगुणरूपादि वर्णन किया, किन्तु महाराज भीष्मक ने किसी को स्वीकार न किया। किन्तु जिस काल कनिष्ठ राजकुमार रुक्मकेश ने आपका नाम लिया, महाराज भीष्मक को उस समय बिना आपका लोकमोहनस्वरूप देखे केवल नाम श्रवण से ऐसा आनन्द हुआ, जैसा ग्रीष्मऋतु में सुशीतल पवन और वसन्तऋतु में पुष्पसौरभ से दर्शनाभाव में होता है और उन्होंने कुमारी रुक्मिणी के योग्य आप ही को निश्चित किया।
श्रीकृ.- फिर क्या हुआ?
ब्रा.- राजकुमार रुक्मा को यह बात अच्छी न लगी और उन्होंने राजाज्ञा को न मान महाराणी रुक्मिणी का हरिऔध शिशुपाल के साथ जोड़ा, अब वह बड़ी धुमधाम से रुक्मिणी का पाणिग्रहण करने के लिए कुण्डलपुर आ रहा है।
श्रीकृ.- फिर आप यहाँ क्यों आये?
ब्रा.- राजनन्दिनी रुक्मिणी का मनमधुप इस घटना के पहले ही आपके पादारविन्द के रजोग्रहण के लिए लुब्ध है। अतएव उन्हांने प्रतिज्ञा की है कि यदि मैं महात्मा श्रीकृष्ण के पादपद्म की रजग्राहिणी न हो सकूँगी, तो अवश्य शरीर त्याग दूँगी। और अपने इस अकृत्रिम प्रेम के प्रभाव से जन्मान्तर में भगवान की दासी होकर अपने को कृतार्थ करूँगी। अतएव आप को भी इस विषय से अवगत कराना युक्तिसंगत था, राजतनया ने मुझको कृपासिन्धु का दर्शन कराया है और यह निवेदनपत्र दिया है। (देता है)
श्रीकृ.- (लेकर स्वगत) अहा !यह प्राणप्यारी के ह्र्त्प्रेम का प्रकाशक इस समय मुझॆ कैसा हर्षप्रद है।इसका स्पर्श करके शरीर पनसफल , हृदय कैसा प्रफुल्ल है। जैसे कंगाल को पारस मिले पीछे बिना सुवर्ण बनाए चैन नहीं आता, क्षुधित को जैसे भोजन आगे आने पर बिना खाए शान्ति नहीं होती, उसी प्रकार यद्यपि यह पत्र मेरे हाथ में है तथापि मन को पठन करने के लिए कैसी उद्विग्नता हो रही है। (पत्र को खोलकर पढ़ते हैं, प्रगट)
छन्द
सिध्दि अमित श्रीसहित प्रानजीवन धन प्यारे।
करुनाखान कृपाल सकल जिय जाननवारे।
समन अखिल सन्ताप दीनदुखभंजन स्वामी।
रखहु लाज मम धाइ अहो गरुडासनगामी।
गज पुकार जिमि मुनी सुत्यों मेरी सु धि लीजै।
जिमि दमयन्तिहिं रखी व्याधाते तिमि रखि लीजै।
धारा कांहिं जिमि कनकनयन कर ते छुटकायो।
लंकनाथ ते राखि सिया जिमि जग जस छायो।
जच्छ फन्द ते रच्छि गोपिका दुख जिमि टारयो।
राखि बृकासुर ते गिरीसजा दुख जिमि दारयो।
तिमि रखिकै सिसुपाल हाथ ते मम पति आई।
लीजिय नाथ उबारि करन लगि पग सेवकाई।
जलविहीन जिमि मीन वायु बिन जिमि तनधारी।
तिमि कृपाल पद छुटे होयगी दसा हमारी।
जदपि न मैं प्रभु जोग तदपि इक बिनय सुनीजै।
किये बिसाखा संग चन्द को नहिं कछु छीजै।
जिमि कुबजा को मान राखि तेहि जनम सुधा रे।
तिमि राखहु मम मान अहो दुखियन रखवारे।
रहे ब्याह मैं तीन दिवस अब श्रीगिरधारी।
एकलब्य लौं राखि लेहु मम प्रन बनवारी।
टरैं चन्द अरु सूर टरै जग नियम अपारा।
ध्रुव हु क्यों न टरि जाय टरै किन कनक पहारा।
पै न टरैगो नाथ प्रेमपन कौनेहु भाँती।
नसे आस प्रभु प्रान होंहिंगे चरन सँघाती।
करब सोई हरिऔध आस पुजवै जी ही की।
अधिक कहाँ लगि लिखौं आप सब जानत जी की।
ब्रा.- अहा! श्रीराजनन्दिनी का आपके चरणकमलों में कैसा अविरल प्रेम है। आर्द्रवस्त्र से जल की भाँति इस गान के प्रतिपदों से आपका अनुराग टपका पड़ताहै।
श्रीकृ.- द्विजराज! इस पत्र के पठन से मेरे हृदय में अलौकिक प्रेम की प्रतिमूर्ति सी खिंच गयी है। प्राण प्यारी के सच्चे प्रेम के प्राबल्य से चन्द्र सन्मुखस्थ चन्द्रकान्तिमणि समान मन द्रवता जाता है। क्या वास्तव में मेरे लिए श्रीरुक्मिणी की यह दशा है। द्विजवर! सच कहना।
ब्रा.- (करुणा से)
रेखता
पूछैं न नाथ मुझसे दु:ख राजनन्दिनी का।
त्यागैं न पान तन की लखि रूप बन्दिनी का।
पारा समान गति है दिन रैन तासु ही का।
रन में चढ़े सुभट लौं टुक लोभ है न जी का।
मृग के वियोग भय ते जो हाल हो मृगी का।
चकवा संजोग के हित गति रैन जो खगी का।
घन रूप हेरित बेहित जिमि आस मोरिनी का।
ताहू ते बेस प्रभु हित है हाल रुकमिनी का।
तरिवर लों मौन साधे सहती हैं सब किसी का।
अरजुन की भाँति कवल तकती हैं लक्ष्य पी का।
सब लोक लाज तजिकै हरिऔध आप ही का।
करती हैं ध्यान निसदिन जिमि रोहिनी ससी का।
श्रीकृ.- द्विजदेव! प्राणप्यारी रुक्मिणी जिसका यह प्रण है (टरैं चन्द्र, इत्यादि पढ़ते हैं) और जिसकी मेरे लिए इतनी उत्कण्ठा है (मृग के वियोग, इत्यादि पढ़ते हैं) क्या मेरे बिरह दु:ख से दुखी होकर अपने प्राण को त्याग सकती है। हाय!! क्या मेरे जीते प्रियतमा की यह दशा हो सकती है!!! कदापि नहीं। चन्द्रमा के प्रकाशित रहते कुमुदिनी कब मलीन हुई है? अगाध जलशाली अकूपार का भगवती भागीरथी को कब वियोग हुआ है ?
ब्रा.- सत्य है! किन्तु जहाँ तक हो सके इस कार्य के लिए शीघ्र यत्नवान होना चाहिए, क्योंकि कृषि सूख जाने पर वर्षा निष्फल होती है, बृक के बालक उठा ले जाने पर ग्रामवालों का उद्योग व्यर्थ होता है।
श्रीकृ.- द्विजपुंगव! आप आकुल न हों, यदि भवदीय प्रसाद होगा, तो जैसे उद्योगी पुरुष दुष्ट जन्तुओं से रक्षित रहकर समुद्र के हृदय में से रत्नराशि संग्रह करता है, और वीर पुरुष करिकुम्भ विदीर्ण करके मुक्ता ग्रहण करता है। उसी प्रकार रुक्म व शिशुपाल प्रभृति का हृच्छेदन करके मैं आपकी राजकन्यका को प्राप्त करूँगा। अन्यथा कदापि न होगा।
ब्रा.- (हाथ उठाकर) ईश्वर से प्रार्थना है कि वह ऐसा ही करें, और रुक्मिणी की आशालता को, जो मुरझा सी रही है निज कृपा वारिवृष्टि से सिंचित कर हम लोगों को आनन्दित बनावें। विशेष क्या?
( भगवान श्रीकृष्ण और ब्राह्मण का प्रस्थान)
( जवनिका पतन)
पंचमांक
स्थान-राजभवन)
( महारानी रुक्मिणी शोकाकुल एक सिंहासन पर बैठी हैं और अनामा , अनाभिधाना पास खड़ी हैं)
अनामा- राजकन्यके! आज विवाह का पहिला दिन है, नगर निवासियों का हृदय प्रफुल्ल शतदल समान सुविकसित है। पर हाय! तुमारी यह दशा देखकर हम दोनों का हृदय दाड़िम की भाँति विदीर्ण हो रहा है, हर्ष का लेशमात्र भी नहीं है।
श्रीरु.- सखी! क्या मेरी यह दशा कभी ईर्षा छोड़ सकती है? अभी तो केवल प्राणनाथ के न आने के समाचार को पाकर मन अर्ध मृत सर्प समान तड़प रहा है, न जाने इसकी उस समय क्या गति होगी, जब इसको प्रियतम के वियोग का पूरा भय हो जावेगा।
अनामा- राजतनये! ऐसा क्यों होगा, क्या किसी ने हिमगिरिनन्दिनी का विवाह बलात् पुरन्दरादि से कर दिया? किन्तु भगवान श्रीकृष्ण पर अपनी इस धर्म संकटापन्न अवस्था को तुम्हें प्रथम ही प्रगट करना योग्य था।
श्रीरु.- सखी! तुमसे क्या दुराव है, मैंने कई दिन हुआ एक ब्राह्मण द्वारा अपनी अवस्था प्राणप्यारे पर प्रगट कर दी है। पर हाय! प्राणनाथ ने उसका स्वल्प ध्यान भी नहीं किया।
अनामा- ऐसा कहना कदापि योग्य नहीं है, वे अन्तर्यामी हैं, बिना आये न रहेंगे।
श्रीरु.- यदि प्रचण्ड विक्रम सिंह की शरण में जाने पर भी श्रृंगाल का भय हुआ, तो सिंह के शरण में जाने ही से क्या लाभ है? जिस तृषार्त ने जल की अप्राप्ति में अपना प्राण त्याग दिया, उसको फिर समुद्र ही मिले तो क्या प्रयोजन? यदि मुझको शिशुपाल का मुख देखना ही पड़ा, और मैंने अपना प्राण त्याग ही दिया, तो प्राणप्यारे आ ही के क्या करेंगे।
अनामा- ऐसा कब हो सकता है। क्या सन्ध्या समागम से निशाकर अपनी कम शोभा समझता है? क्या ऊषा से सम्मिलित होने के लिए दिनेश कम आकुल होता है?
श्रीरु.- यदि ऐसा है तो प्राणनाथ अब तक क्यों नहीं आये? क्या मुझको कुरूपा समझा, अथवा ब्राह्मण वहाँ नहीं पहुँचा, अथवा गुरुजनों ने उनको न आने दिया, क्या कारण है, सखी इस काल मेरी वही दशा है, जैसी मयूरी की घनागम की प्रत्याशा में ग्रीष्म ऋतु के अन्त में होती है।
अनामा- कल्पना किया भगवान श्रीकृष्ण किसी कारण से आज न आये, तो क्या रुक्म अम्बालिका की कथा नहीं जानता, जो बलात् शिशुपाल से तुमारा पाणिग्रहण करेगा।
श्रीरु.- किसी विषय के जानने पर किसी कार्य का भार नहीं है, यदि उसके विषय में विवेचना न की जावे। चन्द्रमा जानता था कि गुरुपत्नीगमन करने से महापाप होता है, फिर उसने ऐसा क्यों किया?
अनामा- राजकन्यके! रुक्म के जानने और न जानने से क्या प्रयोजन है? मेरा मन साक्षी देता है कि भगवान श्रीकृष्ण बिना आये न रहेंगे।
श्रीरु.- यदि न आये तो क्या मैं अम्बालिका की भाँति एक की होकर दूसरी की बनूँगी, और अपने को कलंकिनी बनाने में बाध्य हूँगी, कदापि नहीं। मैं अपने प्राण को शरीर से ऐसे निकाल दूँगी जैसे पक्षी पिंजरे से निकल जाता है, और उसका उसको कुछ स्नेह नहीं होता।
अनामा- ऐसा मत कहो। शरीर रहेगा तो बहुतेरे उपयुक्त वर मिल रहेंगे। केतकी के सुगन्धित रहते अनेक चंचरीक उसके दृष्टिगोचर हो रहते हैं।
श्रीरु.- आह सखी! तू इतनी मूढ़ है। यह भी नहीं जानती कि त्रिलोक में भगवान श्रीकृष्ण समान और कौन हो सकता है।
छन्द
कब मिलि अमित खद्योत रविसम होंहिं कहहिं बिचारि कै।
मिलि अधिक उडुगण होंहि कब सम चन्द पेख निहारि कै।
नहिं होय कबहुँ अनेक लघु नद मिलि नदीस समान कै।
तिमि मिलि अमितजगनृपति कब सम होंहिं प्रियतम प्रान कै।
इसके अतिरिक्त क्या केतकी की भाँति मैं अनेक की प्रत्याशा कर सकती हूँ? त्रहि। इस बात के तो सुनने से भी पाप लगता है।
अनामा- राजात्मजे! इतना बिकल होने की कोई आवश्यकता नहीं है। मुझे दृढ़ विश्वास है कि कोई शीघ्र आकर इस वाक्यरव से कि भगवान श्रीकृष्ण आ गये, तुमारे मन को वैसा ही प्रसन्न किया चाहता है, जैसा जनकनन्दिनी का मन धनुषभंग के शब्द को सुनकर प्रसन्न हुआ था।
श्रीरु.- सखी! कोई वह समय भी होगा, जिस समय मेरे श्रवणों में यह शुभ समाचार सीपी में स्वातिबुन्द समान पड़कर सुखद होगा।
छन्द
कोउ होयगो वह समय जब प्रियप्रान की सु धि पाइहौं।
हिय हरषि निरखन हेत छबि जिय अमित मोद बढ़ाइहौं।
बदि ताप उपतापादि को दुख सकल दूर बहाइहौं।
व्रत नेम तप उपवास को यह अमल फल इक पाइहौं।
पै होत नहिं विस्वास कबहुँ कि त्यागि हठ बिध देयगो।
करि काज बिरहिन की सकल जग सुजस अनुपम लेयगो।
( ब्राह्मण आकर उसी सुर में पढ़ता हुआ)
लखि कोप तव बि धि सहमि निज हठ कबहिं दीनो त्यागि है।
अब छाड़ि निद्रा मोह की तव भाग अनुपम जागि है।
जिमि रैन कारो अन्त मैं जग बिमल होत प्रभात है।
तिमि निवरि दुख अब होयगी सुख कहत साँची बात है।
अनामा- (स्वगत) अहा! घन के गम्भीर निनाद से मयूरी समान राजनन्दिनी द्विजदेव के वाक्यों को श्रवण कर कैसी प्रसन्न हो गयी है, शरीर जो कुम्हलाये हुए फूल के समान था, अब कैसा प्रफुल्लित हो गया है। निर्वाणोन्मुख दीपक समान कैसा प्रज्वलित हो उठा है। सत्य है। ''परमेश्वर की परतीति यही मिली चाहिए ताहि मिलावत है।''
अनामा- (श्रीरुक्मिणी का भाव समझकर) द्विजदेव! राजनन्दिनी द्वारिका का समाचार पूछती हैं?
ब्रा.- जब मैं राजनन्दिनी से बिदा होकर नगर बाहर गया, उस काल मेरे में वायु से अधिक शशांक को मृगों से विशेष खगराज तुल्य गति हो गयी है, और मैं अल्पकाल में द्वारिका पहुँच गया।
अनामा- तब क्या हुआ?
ब्रा.- देखते-ही-देखते कुछ काल में वहाँ पहुँचा, जहाँ भगवान श्रीकृष्ण कोटि कन्दर्पदर्पशमन करके सिंहासन पर शोभायमान थे।
अनामा- फिर क्या हुआ?
ब्रा.- भगवान ने मेरा बड़ा सम्मान किया, और मुझसे सस्नेह राजनन्दिनी का सकल समाचार पूछ-पूछ कर बड़े प्रेम से सुना, और राजतनया का निवेदनपत्र पढ़कर ऐसे गद्गद हुए कि नेत्रों से निर्झर समान नीर झरने लगा, और उनको जनक की भाँति विदेहता हो गयी।
श्रीरु.- (स्वगत) मन! धीरज धर! बहुत दिनों पर तेरी अभिलाषा की बेलि में इष्ट प्राप्ति का फूल लगा है। फिर इतना क्यों आकुल होता है, यदि प्राणेश ऐसे आर्द्रहृदय हैं तो संयोग का फल लगने में क्या विलम्ब है।
अनामा- हाँ। तब क्या किया?
ब्रा.- जब भगवान का चित्त स्वस्थ हुआ, मुझे लेकर राजसभा में गये और महाराज उग्रसेन व पितृचरण वसुदेव को सकल समाचार सुनाकर कुण्डलपुर आने की आज्ञा चाही।
अनामा- हाँ। कहे जाइये।
ब्रा.- यद्यपि प्रथम उन लोगों की भगवान के वियोग की आशंका से वही दशा हुई जैसी महाराज दशरथ को भगवान रामचन्द्र के तपोधन विस्वामित्र के साथ जाने के समय हुई थी। किन्तु भगवान श्रीकृष्ण को नितान्त उत्सुक देखकर उनको यहाँ आने की आज्ञा दी, और श्रीबलराम को बहुत सी सेना के साथ उनके संग कर दिया।
अनामा- (आकुलता से) क्या भगवान श्रीकृष्ण कुण्डलपुर में आ गये?
ब्रा.- हाँ। आ गये, मैंने महाराज भीष्मक पर इस भेद को प्रगट कर दिया है, भगवान राजबाड़ी में साग्रज सब सैन्य के विराजमान हैं, अनेक स्त्री पुरुष वहाँ जा जाकर उनके मुखमयंक की सुधा अपने नैन चकोर से पान कर रहे हैं, और प्रार्थना करते हैं कि हे ईश्वर! जैसे तूने दमयन्ती को नल से, शकुन्तला को दुष्यंत से और विदेहजा को रामचन्द्रजी से मिलाकर उनको सुखी किया वैसे ही हमारी राजनन्दिनी को भगवान श्रीकृष्ण के समागम से सुशोभित करके उसको सुखी कर।
दो.स.- हम दोनों की भी ईश्वर से यही प्रार्थना है।
ब्रा.- हमारी भी।
( महारानी रुक्मिणी लज्जा से सिर नीचा कर लेती हैं और फिर अनामा से कुछ कहती हैं)
अनामा- द्विजराज! राजनन्दिनी कहती हैं कि आप जाकर भगवान श्रीकृष्ण को इस विषय से अभिज्ञ कर दें कि आज दो घड़ी दिन शेष रहे नगर की पश्चिम दिशा में देवी का जो एक मन्दिर है वहाँ पूजा करने के लिए वह जावेंगी। भगवान को वहीं आकर कुमारी के प्रण की लज्जा रखने योग्य है।
ब्रा.- जो आज्ञा (जाना चाहता है)
श्रीरु.- (स्वगत) अहा! द्विजदेव ने भी मेरे साथ कितना उपकार किया है, उपकार क्या यदि सूक्ष्म दृष्टि से विवेचना की जावे तो प्राणदाता ये ही महाशय हैं, अतएव इनकी सेवा मैं यदि रोम-रोम से करूँ तो भी थोड़ी है। इनके लिए यदि मैं तन-मन-धन तीनों को निछावर कर दूँ तो भी इनसे उऋण होना कठिन है। इनका उपकार मेरे साथ ऐसा ही है जैसा घनागम में वायु का चातकी के साथ। (सकृपा दृष्टिपात)
(ब्राह्मण का प्रस्थान)
अनामा- सखी अनाभिधाने! यद्यपि राजनन्दिनी की मनोकामना पूरी होने से हम दोनों को इस काल वैसा ही आनन्द है जैसा प्रियंवदा और अनसूया को शकुन्तला और दुष्यंत के समागम से हुआ था किन्तु यह आनन्द स्वच्छ नहीं है, इसके साथ उद्वेग का अंश भी मिला हुआ है। क्योंकि राजकन्या की वियोगआशंका से हम दोनों की उन्हीं दोनों के उस समय की दशा समान दशा हो रही है जिस समय शकुन्तला के महात्मा कण्व से बिदा होकर राजभवन में जाने का समाचार तपोवन में फैल गया था।
अनामा- सखी! इस समय हम दोनों का दु:ख सुख कार्तिक अथवा चैत्र के दिवारात्रि की तरह समान है अतएव इस मंगलकार्योपलक्ष में खेद प्रकाश करना अनुचित जान पड़ता है।
अनामा- सत्य है।
(एक स्त्री का प्रवेश)
स्त्री.- राजनन्दिनी! अब चार घड़ी दिन और रह गया, अतएव आपकी माता ने गौरीपूजन निमित्त स्नान और शृंगारादि द्वारा आपको सज्जित करने के लिए बुलाया है।
श्रीरु.- बहुत अच्छा, आओे सखियो, चलैं।
दोनो.- चलैं। (सब जाती हैं)
(जवनिकापतन)
षष्ठांक
जनवासे का एक विस्तृत भवन)
( शिशुपाल , जरासन्ध , शाल्व , विदूरथ , रुक्म , दन्तवक्र प्रभृति अनेक सूरमे यथास्थान बैठे हैं)
शि.- (भय से) मैंने सुना है, आज बहुत सी सेना लेकर बलराम श्रीकृष्ण यहाँ आया है, यदि यह सत्य है तो इस विवाह के मंगलकार्य में बिना कोई उत्पात हुए न रहेगा, क्योंकि जैसे दैविक उत्पात के चिह्न आकाशादि का अरुण होना और प्रतिमा प्रभृति का हँसना है, उसी प्रकार भौतिक उत्पात का चिह्न इन दोनों का किसी शुभकार्य में आगमन करना है। अतएव मैं पहले ही कहे देता हूँ कि हम लोगों को बहुत सतर्क रहना समुचित और योग्य है।
शा.- (हँसकर) क्या सिंह कभी छुद्रतम जन्तु शशक के त्रस से अपने किसी कार्य में सावधनी ग्रहण करता है? क्या टीड़ीदल अथवा कीडीदल समान यादवों की सेना हमसे सूरों का सामना कर सकती है?
वि.- इस विषय में विवाद कौन करे, किन्तु शत्रु को तुच्छ समझकर अपने कर्तव्य से समय पर चूक जाना नितान्त अयुक्ति है। भारतवर्ष में टीड़ीदल जिस क्षेत्र पर पड़ता है उसको बिलकुल सत्यानाश कर देता है। छुद्र पिपीलिका जब काल पाकर गजेन्द्र के शरीर में उत्पन्न हो जाती है, तो उसके समान बलिष्ठ जन्तु का नाश करने में भी नहीं चूकतीं।
ज.- सत्य है, पर उनकी सेना टीड़ीदल अथवा कीड़ीदल नहीं है। वह प्रचण्ड वायु के समान है जिसके सन्मुख पादक ऐसे दृढ़ सूरमों का भी पैर उखड़ जाता है, और वे छुद्रतम जन्तु शशक समान नहीं हैं, प्रचण्ड बलशाली गैण्डे के तुल्य हैं, जिसके खाँगों के भय से सिंह का भी कलेजा दहलता है।
दं.- तो क्या आप लोग शत्रु का बलकथन करके हमसे सूरमों का उत्साह भंग कर सकते हैं? कभी नहीं, रणभूमि में यदि काल स्वयं आकर सन्मुख हो तो भी हम लोग सशंकित नहीं हो सकते। कृष्ण बलराम किस गिनती में हैं।
ज.- मैं कुछ उनकी प्रशंसा नहीं करता, पर जो बात सत्य है, उसको छिपा भी नहीं सकता, महात्मा वशिष्ठ के तपोधन विश्वामित्र परम शत्रु थे। पर जिस कुल सती अरुन्धती ने पूर्णिमा के शशि की सुखमा अवलोकन कर उनसे पूछा इस समय संसार में ऐसा निर्मल यश किसका है। महात्मा बशिष्ठ ने ईर्षा छोड़कर कहा ऋषिवर्य विश्वामित्र का।
शा.- कृष्ण बलराम में ऐसी कौन विशेषता है, जिससे आपके कथन को हम सत्य जानें।
ज.- वो कुछ अप्रगट नहीं है। उन लोगों ने बाल्यावस्था में बड़े-बड़े दानवों को खेल में मार लिया। दुर्धर्ष अथच परमबलिष्ठ कंस को देखते-देखते मार गिराया। मेरे त्रयोविंशति अक्षौहिणीदल को सत्रह बार ऐसे काट डाला, जैसे कृषक क्षेत्र को बिना प्रयास काट डालता है। अठारहवीं बार न जाने क्यों मेरे सम्मुख से भागे, और एक पर्वत पर चढ़ गये, जब मैं ने पर्वत को जला दिया, वह लोग इस प्रकार अपना प्राण लेकर वहाँ से अन्तर्धान हो गये जैसे देवराज इन्द्र नृपति सगर के यज्ञशाला में से श्यामकर्ण लेकर अन्तर्धान हो गया, कि किसी ने देखा तक नहीं।
रु.- (शोक से स्वगत) आह। क्या कृष्ण ऐसा प्रबल है, यह सुनकर मेरा हृदय काँच की भट्ठी समान जल ही रहा था कि महाराज भीष्मक राजबाड़ी में उनसे मिलने के लिए गये थे। अब जरासंध के वाक्यों ने उस पर और रंग जमाया। पर हाय! उपाय क्या है, मैंने पिता से पूछा भी तो कि कृष्ण किसके बुलाया आया है, पर उन्होंने कुछ न बताया, प्रति वाक्यों से अपने को निर्दोष निश्चित किया। दैव बड़ा दुर्दान्त है जो अब इस प्रकार सुसज्जित नानाभाँति के सुन्दर व्यंजनों को विष डालकर बिगाड़ा चाहता है।
शा.- जो हो। पर एक कृष्ण नहीं यदि ऐसे-ऐसे सौ कृष्ण हों और एक बलराम नहीं सह्स्त्रों बलराम आवें, इन्द्र, शिव, सुरसेनपादि पृथ्वी में आकर उनकी सहायता करें, तो भी अकेला मैं उनको ऐसे जीत लूँगा, जैसे प्रात समय एकाकी भगवान दिवाकर ग्यारह सह्स्त्र राक्षसों को जीतकर उदय होतेहैं।
द.- अहा! युद्ध का नाम सुनते ही मेरी भुजाएँ कैसी फड़क उठी हैं, हृदय में कैसा वीररस का उद्रेक हो आया है, मन को कैसा रणोन्माद हो रहा है। मानो अभी संग्राम भूमि में चलकर अपने प्यासे बाणों को शत्रु के रुधिरपान से तृप्ति कराया चाहता हूँ।
ज.- 'मुखमस्तीति वक्तव्यं दशहस्ता हरीतकी' यों तो कहने के लिए मैं भी कह सकता हूँ। हम त्रिलोक बिना प्रयास क्षण भर में जय कर सकते हैं। पर जब रणभूमि का मुख देखना पड़ता है तो बहुतों के हाथ-पैर फूल जाते हैं। जिस प्रकार ओपशाली मार्तण्ड के उदय होते ही तारागणों का प्रकाश और तेज भली-भाँति जाना जाता है, उसी प्रकार रणभूमि में पदार्पण करते ही वाचालों का बल और पराक्रम सब पर प्रगट हो जाता है।
शा.- तो क्या आपकी इच्छा है कि पवित्र क्षत्रियशोणितोद्भूत होकर प्राण की आशंका से घर भाग चलें?
ज.- यह मैंने कब कहा है, मेरी यह इच्छा कदापि नहीं है, किन्तु मेरे कहने का अभिप्राय यह है कि ऐसा प्रयत्न किया जावे जिसमें उत्पात का भय ही न होवे। और जैसे भगवान विष्णु ने समुद्र का मंथन करके कौशल से ललनाललाटभूषा लक्ष्मी को प्राप्त किया। वैसे ही हम लोग अपनी सयुक्ति बल से राजनन्दिनी रुक्मिणी को निर्विघ्न प्राप्त करें क्योंकि यह युद्धविग्रह का समय नहीं है।
रु.- (क्रोध में) आप लोग पहरों से किसके लिए इतना भावित हो रहे हैं। मैं शपथ करके कहता हूँ कि युद्ध समय यदि इस गोपजात का प्रत्येक स्वास स्वासवीर्य के स्वास की भाँति एक वीर बन जावेगा, प्रत्येक रक्तबिन्दु रक्तवीर्य के रक्तबिन्दु समान एक योद्धा हो जावेगा, प्रत्येक छिन्न अंग पुरुभुज समान एक सूरमा बनकर खड़ा होगा। तब भी वह मेरे तीव्र बाणों से त्राण पाकर द्वारका न जा सकेगा। सैन्य की कथा ही क्या है।
दं.- सत्य है। सूरमाओं को ऐसा ही अभिमान रखना योग्य है। जय विजय तो ईश्वर के हाथ है।
( एक द्वारपाल का प्रवेश)
द्वा.- (प्रणाम करके) महाराज की आज्ञा थी, कि जिस समय राजनन्दिनी देवीपूजन के लिए नगर बाहर जाने लगें, उस समय हमको जता देना, सो राजनन्दिनी अब देवीपूजन के लिए जा रही हैं, क्या आज्ञा है?
शि.- (स्वगत) जरासंध के कथन से ज्ञात होता है कि कृष्ण समान वीर्यशाली हम लोगों में से कोई भी नहीं है। फिर उन योद्धाओं का किया क्या हो सकता है, जो हम लोगों से सर्व प्रकार बलहीन हैं। जिस प्रचण्डवायु के वेग से बड़े-बड़े प्रकाण्ड वृक्ष समूल नष्ट हो जाते हैं उसके सन्मुख अरण्ड की क्या गणना है। तथापि इस समय न्यायानुमोदित यही जान पड़ता है कि राजनन्दिनी की रक्षा के लिए अपने कतिपय सामन्तों को नियुक्त और संग्रह करूँ। (प्रगट)द्वारपाल! हमारे सूरसामन्तों और योद्धाओं से जाकर कह दो कि वे राजनन्दिनी की रक्षा के लिए उनके साथ रहें।
द्वा.- जो आज्ञा। (जाता है)
शि.- (सकल सभास्थितजनों से) मित्रगण! आप लोगों ने परस्पर विवाद तो बहुत कुछ किया, पर यह न बताया कि ऐसे अवसर पर क्या कर्तव्य है ?
शा.- कर्तव्य क्या है? हम लोगों को शुध्दान्त:करण से आपकी सहायता के लिए इस प्रकार परिकरबद्ध हो जाना योग्य है, जैसे देवासुर संग्राम समय सुरराज इन्द्र की सहायता के लिए भगवान विष्णु और कैलासपति शिव परिकरबद्ध हो जाते हैं।
दं.- केवल हम लोगों को ही परिकरबद्ध हो जाना उचित नहीं है, किन्तु
समस्त सामन्तों और सूरमाओं को भी कृष्ण के आगमन के समाचार
से अभिज्ञ करके सावधान कर देना योग्य है और सर्व आयुधों को भी ठोकठाक कर लेना उचित है, क्योंकि 'सन्दीप्ते भवने तु कूपखननं प्रत्युद्यम: कीदृश:।''
रु.- (झुँझलाकर) आप लोगों को क्या हो गया है, जो आप लोग एक छुद्र व्यक्ति के लिए इतना प्रयत्न करना चाहते हैं। क्या तमसमूह के नाश करने के लिए सूर्य कभी कुछ उपाय करके उदय होता है? अथवा रज कण की उद्धतता निवारण के लिए घन कभी चिन्तातुर बनता है? जिस काल मेरे बाण सर्प समान फुंकार कर रणभूमि में प्रवेश करेंगे, शत्रुओं की सेना वधिर हो जावेगी। उनके नेत्र बन्द हो जावेंगे, सह्स्त्रश: कबन्ध रणस्थल में इधर-उधर फिरते दृष्टिगोचर होंगे, भूत प्रेत पिशाच मांस मेद मज्जा खाकर प्रलय तक के लिए तृप्त हो जावेंगे, योगिनियाँ खोपड़ियों द्वारा रुधिर पान करके आनन्द से पैर फैलाकर सो रहेंगी। युगान्तक भगवान शिव की मुण्डमाला जो आज तक अधूरी है पूरी हो जावेगी, और बड़े-बडे सूरमाओं का युद्ध का उमंग जाता रहेगा।
छन्द
जब बान और कमान लै रण मांहिं रिपु पर धाइहौं।
अस सुभट को जेहि मारिकै नहिं भूमि माहिं लुठाइहौं।
करि विकल सारथि रथिन को छन मांहिं मान उतारिहौं।
अरि अति अबल अहिकांहिं मैं जग प्रबल जिमि उरगारिहौं।
उर छेदि भेदि अनेक को रणभूमि मांहिं सुवाइहौं।
करि छिन्न भिन्न अपार रिपुदल चाव सकल नसाइहौं।
पुर समर जिमि त्रि पुरारि तिमि रिपु सकल गर्ब प्रहारिहौं।
पाकारि जिमि हियपाक को तिमि रिपुहियहिं गहि फारिहौं।
बहु कहब अनुचित होत याते अब कहत सकुचात हौं।
पै करब आपहँ लोग ऐसहिं यह अवसि पतियात हौं।
स.लो.- शाबाश! हम लोग भी यही चाहते हैं। ऐसा कौन होगा जो उसके लिए असि ग्रहण करेगा, जिसके नाश की सम्भावना केवल कर प्रहार से है किन्तु यह विशेष सतर्कता का समय अवश्य जान पड़ता है।
रु.- निस्सन्देह! किन्तु कोई चिन्ता नहीं। अब विवाह का समय समीप है यदि आप लोगों की आज्ञा हो तो मैं जाकर आवश्यक कार्यों का परिशोध करूँ ?
स.लो.- हाँ। आप जाइये, अब हम लोग भी उचित और आवश्यकीय कार्यों को करना चाहते हैं।
रु.- बहुत अच्छा। (जाता है)
(जवनिकापतन)
सप्तमांक
स्थान-देवी के मन्दिर का निकटवर्ती उद्यान)
( महारानी रुक्मिणी अपनी अनामा और अनाभिधाना प्रभृति सखियों के साथ राक्षसों की कोट में मत्तगजगति से मन्द-मन्द जा रही हैं )
अनामा- सखी अनाभिधाने! देख! राजनन्दिनी की इस समय प्रेम की तरंगों में क्या गति हो रही है। यद्यपि वह चलने के लिए पैर आगे को डालती हैं पर वे पीछे ही को पड़ते हैं। घूँघट की ओट से नेत्रों की गति रुकी हुई है। परन्तु जल ऊपर आये हुए मत्स्य की भाँति कभी-कभी वे इधर-उधर दृष्टि डालने में नहीं चूकते हैं। प्राणनाथ के संयोग सुखानुभव की आशा, और माता-पितादि के वियोग भय और आशंका से सन्ध्या कालीन एवं प्रात: कालीनसरोज समान प्यारी का मुख कैसा प्रसन्न और मलीन हो रहा है। हृदय के अनन्त अभिलाष मयंक में से मरीचि समान कैसे बाहर निकले पड़ते हैं (इतस्तत: दृष्टिनिक्षेप)
अनामा- सखी! राजनन्दिनी के हृदय की आकुलता का व्योरा तो तभी ज्ञात हो गया, जब उन्होंने पूजा समय शिवप्रिया के अंगों में चन्दन लगाने के पलटे अपने अंगों में लगा लिया, और फूलों की माला उनके गले में डालने के बदले आप पहिन लिया।
श्रीरु.- सखी! अब तो प्राणप्यारे से मिलने के लिए एक-एक पल चतुर्युग समान जान पड़ता है। हृदय का भाव वैसा ही हो रहा है जैसा उषाकाल में चकवी का होता है। नेत्र कहने ही में नहीं हैं, जो गति दूज के चाँद देखने के लिए संसार की होती है, उससे बढ़कर इनकी दशा जीवनाधार के दर्शनों के लिए है। पर हाय! यह नहीं जान पड़ता कि प्रियतम के इतना विलम्ब करने का क्या कारण है?
अनामा- राजनन्दिनी! यदि वे आ ही जावेंगे तो क्या करेंगे? क्या इन सह्स्त्रश: मेघनाद समकक्षी योद्धाओं के मध्य से तुमको ले जा सकेंगे?
श्रीरु.- सखी! मृगराज को मृगों के झुण्ड में पैठकर क्या अपना भक्ष्य लेने में विलम्ब होता है।
अनामा- (दूर से देखकर) सखी अनामे! वह देख! वायु का निरादर करते, स्ववेग सम्मुख दिनेसरथ की गति निंदनीय बनाते, विजय की ध्वजा उड़ाते, घंट घंटिध्वनि से दिङ्मण्डल को पूरित करते, किसका रथ आ रहा है?
अनामा- सखी। इस विषय को राजनन्दिनी से पूछ! क्योंकि प्रियतम के आने का समय प्यारी भली-भाँति जानती हैं। सूर्य के चिद्दों को नलिनी अच्छी तरह पहचानती है।
श्रीरु.- सखी! परीक्षा लेने की कौन आवश्यकता है। प्राणनाथ त्याग और कौन हो सकता है।
अनामा- यह कैसे?
श्रीरु.- मेरा मन कहे देता है, क्योंकि कोकिला के हृदय में आनन्द का संचार वसंतागम बिना कब हुआ है?
अनामा- कौन जाने! वसंत का प्रिय मित्र काम ही तुमारे धर्म की परीक्षा लेने के लिए न आ रहा हो।
अनामा- क्या वह नहुष शची, और धर्म वृन्दा की कथा नहीं जानता जो महारानी सी पतिव्रता के समीप आने का साहस करेगा।
अनामा- सत्य है! (रथ की ओर देखती है) सखी! रथ अब समीप आ गया, इस कारण हृदय में युगपत आनन्द और खेद का संचार होने से मेरी गति साँप-छछूँदर की सी हो रही है।
(रथ पर चढ़े भगवान श्रीकृष्ण का प्रवेश)
अनामा- (भगवान की छवि देखकर) हाय! हाय!! इन नेत्रों से न ऐसा स्वरूप कभी देखा न कानों से सुना। भगवान का अंग-अंग कैसा सुडौल है, मुख की कैसी शोभा है, पुष्प में से सरसरंग समान भगवान के प्रतिअवयवों से कैसा माधुर्य झलक रहा है। सिर के मुकुट कानों के कुण्डल की कैसी छटा है। घुघुरारी अलकैं मन को कैसा खींचे लेती हैं। क्या अनंग जो अनंग है भगवान श्रीकृष्ण की उपमा के योग्य निश्चित हो सकता है? क्या रमाहृदयबल्लभ जिनकी चार बाँहें हैं, मनमोहन के स्वरूप समान कहे जा सकते हैं? क्या भगवान स्वयंभू जिनके चार मुख हैं, इन कुलभूषण के सम्मुख पटतर पाने के लिए खड़े हो सकते हैं? क्या उमाप्राणनाथ भगवान शिव जिन के सर्पादि आभूषण हैं, यदुवंशनायक की समता पा सकते हैं? कदापि नहीं? उनमें ऐसी कोमलता, ऐसा माधुर्य, ऐसा सौन्दर्य कहाँ? यह अलौकिक मनोहारिणी शक्ति कहाँ?
अनामा- सखी! सत्य है! भगवान की तिरछी चितवन, मंद मुसुकान, कमलदल सी ऑंखें, कीर सी नासिका, कपोतवत ग्रीवा, किस को नहीं ठगतीं, उनका यह लोकमोहन स्वरूप किस को नहीं भाता। अहा! सुकुमारता तो फिसली पड़ती है। रूप उछला जाता है। हाय! विधना ने ऐसा सुन्दर रूप देखने के लिए अनन्त ऑंखें क्यों नहीं बनाईं! और जो केवल दो ही ऑंखें बनाईं तो उन पर पलक क्यों लगाया!
सवैया
नहिं हेरि कै नैनन धीरे अहै वह साँवरो रूप लख्यो ई चहैं।
लखि के मुसुकान अनूपम को छन प्रानहूं पापी न चैन लहैं।
हरिऔध न है बस में हिय आपनी कौन पै याकी बिथा को कहैं।
तन की गति जो है अरी सजनी कहु कौन उपाय कै ताको सहैं।
श्रीरु.- (स्वगत) आहा! सखियों के प्राणनाथ का स्वरूप इस प्रकार वर्णन करने से मेरे हृदय का कैसा भाव हो गया, जो प्रेम सूक्ष्म रूप से हृदय स्थल में विराजमान था वह अब ऊष्मा से वायु समान कैसा बढ़ गया, हृदयबल्लभ से मिलने की अभिलाषा देखते-ही-देखते मत्स्यावतार की भाँति कैसी कई गुनी हो गयी। जिन नेत्रों ने प्रियतम की दर्शनाशा को इतने काल तक संवरण कर रखा था, वह अब जीवनाधार का स्वरूप देखने के लिए खंजन समान कितने चंचल हो रहे हैं। जिस हृदय ने इतने दिवस तक धर्य का अवलम्बन करके अपना धर्म निबाहा था, वह अब प्राण प्यारे से मिलने के लिए बुभुक्षित व्यक्ति की भाँति कैसा आकुल हो रहा है। किन्तु कोई चिन्ता नहीं, प्यासे के लिए सरोवर पास है, भूखे के लिए समस्त व्यंजन आगे रखा है। फिर अब विलम्ब ही क्या है? प्राप्त वस्तु के लिए मनोवेदना कैसी?
( महारानी नेत्र उठाकर एक बार भगवान की छवि अवलोकनोपरान्त घूँघट डाल लेती हैं , सामन्तगण उनका अलौकिक सौन्दर्य देखकर जड़वत हो जाते हैं , अस्त्र-शस्त्र हाथों से छूट पड़ता है)
श्रीकृ.- अहा! असमय अचानक भगवान रोहिणीनाथ के प्रकाशित होने का क्या कारण था। छि: क्या निशाकर का प्रकाश ऐसा हो सकता है जो भगवान दिवाकर के प्रकाश को भी अपने ओपसन्मुख फीका बना देवे? कदापि नहीं। फिर क्या कारण है कि जिस काल वह ओप प्रकटित हुआ, दिनमणि का प्रकाश मंद पड़ गया। आहा! समझ गया, वह प्राणप्यारी के मुख मयंक का अलौकिक प्रकाश था, जिसका यह लोकोत्तर चरित्र था, और जिससे मेरी हृत्कलिका का तत्काल विकास हो गया। काले-काले राक्षसों की कोट में मत्त कुंजरवरगमन से इस ओर आती हुई प्राणाधिका की कैसी शोभा है, कैसा अद्भुत सौन्दर्य है! कैसा अपूर्ण लावण्य है। क्या बूढ़े विधाता से कभी ऐसा सुन्दर स्वरूप रचा गया होगा, ना ऐसा जान पड़ता है कि भगवान कुसुमायुध ने अपनी मदोन्मत्तारमणी रति को लज्जित करने के लिए अपने कोमल हाथों से इस अनोखे स्वरूप को बनाया है। प्यारी के उन्नत भू्र, रसीले नैन, सहज सौन्दर्यनिवास आनन, कैसे स्पृहणीय हैं! कैसे मनोरजंक हैं! प्रिया ने मेरी ओर केवल स्वाभाविक दृष्टिपात किया है, पर क्या मेरा आनन्द रजनीपति के उस काल के उस प्रमोद से कुछ कम है, जब भगवान रमानाथ ने बृन्दारकछन्द को अमिय पान कराने उपरान्त उसका घड़ा उन पर ढाल दिया था, किन्तु यह भी भ्रम है, क्योंकि-
पद
प्रिया छबि केवल मोहि न भावै।
बिहग कीट पसुहूँ लखि तियछबि हिय प्रमोद उपजावै।
मानि पद्मिनी चंचरीककुल मोर तडित सम जानी।
चन्दन सम सुबास तन को अति अहिकुल कहँ सुखदानी।
मुखमयंक सम लखि चकोर अरु मृगगन मोद बढ़ावैं।
प्रिया सिया इक रूप जानि जिय साखा मृग सिर नावैं।
कमला गुनि कुंजर सुख पावत हरि गिरिजा अनुमानी।
हरिऔध प्रमुदित मरालकुल रहत भारती मानी।
अनामा- (रुक्मिणी को लज्जिता देखकर) राजनन्दिनी! अब अपने प्राणनाथ से अशंक मिलने के परिवर्तन में तुमारा संकोच करना ऐसा है, जैसा किसी को भोजन का निमन्त्रण देकर भूखा रखना, और समय पर उस का ध्यान बिल्कुल भूल जाना, राजकन्यके! अब तुम को योग्य है कि तुम लज्जा को तिलांजलि देकर अपने प्रियतम से ऐसे मिल जाओ, जैसे लक्ष्मी भगवान विष्णु से और भगवती भागीरथी अकूपार से मिली हैं।
अनामा- सत्य है। यद्यपि हम लोगों का हृदय तुमारे वियोग की असह्यता से उद्विग्न हो रहा है, शोकोच्छ्वास के प्राबल्य से कण्ठरुद्धप्राय: होने से वाक्य स्फुरण असम्भव हो गया है। तथापि अपनी उद्विग्नतानिवारण के लिए हम तुमको इस अवसर पर चूक जाने की सन्मति कदापि नहीं देंगी। अब यह समय ऐसा ही है कि तुम अपने जीवनाधार से वाक्य गिरा, जल बीचि, समान मिल जाओ। नहीं तो अवसर पर चूक जाने से पश्चात्ताप के अतिरिक्त और कुछ हाथ न लगेगा।
श्रीरु.- सत्य है। (स्वगत) प्राणनाथ! यद्यपि यह लोक प्रसिद्ध विषय है कि जो वस्तु बिना परिश्रम हस्तगत हो जाती है, उसका मान यथोचित दृष्टि में नहीं होता, प्रतिष्ठा भी उसकी सामान्य होती है, तथापि मैंने इसका अणु मात्र भी ध्यान नहीं किया, और इस क्षणस्थायी शरीर को विधिनिषेध के चरणों की सेवा के लिए आपको अर्पण किया, अब इसका मान, सम्मान, आदर सत्कार केवल आपकी विवेचना पर निर्भर है, यदि दयासागर स्वपवित्र गृहस्थ दासिका समान भी मुझ चरणाश्रिता का सम्मान करेंगे तो मैं अपने जीवन को चरितार्थ समझूँगी। इसमें कोई सन्देह नहीं कि इस काल स्त्रीजनोचित संकोच मध्य में पड़ कर कुछ बाधक हुआ चाहता था किन्तु आनन्द का विषय है कि आदरणीया सखियों के सदुपदेश द्वारा उत्त्तेजित प्रेम के सम्मुख वह कृतकार्य न हो सका। जीवन सर्वस्व! लीजे अब यह दासी तन मन से आप पर न्यौछावर होती है, इसके मान-अपमान चक्र की डोरी आपके करकमलों में सादर समर्पित है (महारानी रुक्मिणी भगवान से मिलने के लिए हाथ बढ़ाती हैं, भगवान रथ को बढ़ा बायें हाथ से राजनन्दिनी का हाथ पकड़ रथ पर बिठा रथ को द्वारका की ओर हाँक देते हैं)
(जवनिका पतन)
अष्टमांक
स्थान-जनवासे का बाहरी प्रान्त)
( बहुत से सूरमे खड़े और शिशुपाल , शाल्व , दन्तवक्र , जरासन्ध इत्यादि बहुत से वीर बैठे हैं)
(एक दूत का प्रवेश)
दू.- (हाथ जोड़कर काँपते हुए) महाराज! बड़ा अनर्थ हुआ। भगवान श्रीकृष्ण राजनन्दिनी को आपकी सेना के मध्य से हर ले गये। हम लोगों ने किसी ने न जाना, सारी सेना चित्र की भाँति खड़ी देखती ही रही।
शि.- (क्रोध से) जैसे तुच्छ मृग पराक्रान्त मृगराज से शत्रुता करे, छुद्र पक्षी प्रचण्ड उरगारि से बैर बिसाहे, और लघु मीन बड़े ग्राह को ऑंख दिखावे, उसी प्रकार मृत्युमुखपतित कृष्ण हमसे प्रबल क्षत्रियों से बैर करके कुशल चाहता है। कुछ चिन्ता नहीं, दूत! तुम सेनावालों से जाकर कह दो कि वे संग्राम के लिए तत्काल संग्रह हों।
दू.- जो आज्ञा। (जाता है)
रु.- सत्य है। जैसे नादश्रवणलिप्सा से मृग अपने प्राण से पराङ्मुख होता है, प्रमत्तद्विरदस्वरूप दर्शनाकांक्षी होकर गर्त में पतित होता है, सरस सुगन्ध की आकांक्षा से षट्पदकमलकोष में बद्ध होता है, धवल बालुका राशि को जल समझ भ्रम आपतित कुरंग अपना प्राण गँवाता है, उसी प्रकार राजकन्या रुक्मिणी का इच्छुक होकर संग्रामीय निबिड़ जाल में फँस कृष्ण अपने जीवन से उदासीन हुआ चाहता है ''कालस्य कुटिला गति:''
शि.- (दम्भ से) मित्रवर! क्या उसने मेरे पराक्रम को नहीं सुना है, क्या वह मेरी अलौकिक रणक्षमता को नहीं जानता, जो ऐसा अन्यायानुमोदित कर्म करने के लिए बाध्य हुआ। आज मेरे पन्नग समकक्षी बाण उसके हृद्विवर में प्रवेश करके उसका ऊष्ण रुधिर पान करेंगे। मेरे प्रचण्ड दोर्दण्ड जिनकी प्रचण्डता पाकारि इन्द्र भली-भाँति जानता है, उसका प्रबल युध्दोन्माद क्षणभर में निवारण कर देंगे। जिस काल मेरा बज्रमानमर्दक चक्र छूटेगा, मैनाक की भाँति यदि वह अपारोदधि की शरण ग्रहण करेगा, तथापि त्राण न पा सकेगा, यह मेरी शाणित करवाल जिसकी प्रज्वाल सन्मुख नन्दन की शोभा क्षीण है, जब उसपर टूटेगी, दशमुख के भुज और मुख की भाँति उसके प्रत्येक अंगों का अनेक खंड कर देने में कदापि विलम्ब न करेगी।
सवैया
कोप कै लै जब दण्ड प्रचण्ड उदण्ड ह्नै शत्रु के सामुहे जैहों।
ताको प्रचारि कै मारि कै डारि कै हीय बिदारि कै मैं सुख पैहों।
छेदि अनेकन को हरिऔध कितेकन को कच सों गहि लैहों।
सेस सुरेस महेस गनेसहुँ आइ मिले नहिं संकित ह्नैहों।
शा.- प्रिय मित्र! हम क्षत्रियों को रण से विशेष इस विशाल संसार में और कौन प्रिय वस्तु है यों तो इस नश्वर जगत में जो उत्पन्न हुआ है, एक दिवस अवश्य मरेगा, किन्तु योगाभ्यास से और रणभूमि में करवाल ग्रहण करके मरना विरले ही को प्राप्त होता है। क्या यह थोड़े पुण्य का फल है कि क्षत्रियवंशधर यदि रणस्थल में विजय हस्तगत करता है तो संसार में अक्षयकीर्ति और बिपुल ऐश्वर्य का भागी बनता है। और यदि अकातर चित्त से स्ववीरत्वध्वज आरोपण करते हुए रणशैया पर शयन करता है तो योगीजन वांछनीय पवित्र स्वर्गसुख का अधिकारी होता है। अहा! धन्य है! जगतपावन क्षत्रिय धर्म!!!
दन्त.- (दाँत पीसकर) आज आप लोग मेरा युद्ध देखेंगे, जब तक युद्ध काल उपस्थित नहीं था, लोग मुझे बड़बोला जानकर मेरा उपहास करते थे, किन्तु आज मैं ऐसा युद्ध करूँगा कि भगवान शिव की समाधि भंग हो जावेगी, दिग्गज चिल्लाने लगेंगे! पृथ्वी थर्राने लगेगी। शेषनाग दहल जावेंगे! देवते चमत्कृत होंगे। भूतेश्वर की मुण्डमाल पूर्ण हो जावेगी। योगिनियाँ रुधिर पान से सन्तृप्त होकर नर्तन करेंगी। कबन्ध युद्ध करते दृष्टिगत होंगे! रुधिर की सरिता प्रवाहित होगी। कंक काक मांस खाकर शान्ति लाभ करेंगे।
कवित्ता
करिके प्रचण्ड कोप त्यागि हिय संक आज अरिदल दारि फारि पल मैं बिडारिहौं।
करि घमसान सब कसक निकारि लैहों सूर सरदारहूँ सगर मैं प्रचारि हौं।
औधहरि अरि के उमंग हिय जेती अहै कहत पुकारि ताको पल मैं निकारिहौं।
बढ़ि सर झारिहौं अनेकन को मारिहौं प्रवीर मद टारिहौं न भूलि रन हारिहौं।
जरा.- मैं क्या कहूँ, यद्यपि अपने मुख से अपनी प्रशंसा उचित नहीं होती, तथापि यह अवसर कुछ कहने ही का है, और कुछ कहना ही क्या! मैं बाण वृष्टि से आज प्रलय समान पृथ्वी आकाश को एक कर दूँगा। मेरे तीव्र शर निपातित एवं जर्जरित वीरों के शोणित से शैल काननकुन्तला धारणीकर्दमित हो जावेगी। पर्वतस्थ प्राचीन काक भुसुण्ड ने शुम्भ एवं महिषासुर के युद्ध में पर्वत के सिरोदेश से और प्रचण्ड पराक्रमशाली रावण के संग्राम समय पर्वत के निम्न भाग में अवतरण करके रुधिर पान किया था, किन्तु आज के मेरे युद्ध में यदि वे उस पर्वत के ऊपर एक ओर उन्नत वृक्ष पर जा बैठेंगे तो वहीं रक्तपान करके तृप्त हो जावेंगे, कर्तित एवं विद्ध बीरों की भुजा, सिर और अपर अंगों की राशि से पृथ्वी पर एक द्वितीय हिमाचल दृष्टिगोचर होगा। अनन्त गगन में टीड़ीदल सदृश बाण संक्रान्त इतने सिर उड़ते देखने में आवेंगे कि जिनके घनीभूत होने से आज का समुज्ज्वल दिवस तमसाच्छन्न भाद्रपद की काली रात बन जावेगा।
कवित्ता
दौरहु दिगन्त दाबि बीरबलशाली आज करिकै अपार कोप अरिहूँ अघाय देहू।
दलिमलि मारि चाव चूर करि सूरन को आन बान आपनेई हाथन नसाय देहूँ।
औधहरि बढ़ि बढ़ि बे धि बेधि बीरन को बहुत कहाँ लौं कहौं बिरद बुझायदेहु।
डाँटि कर देहु दूर दीहदाप द्रोहिन को गरजि गुमानिन को गरब गँवाय देहु।
सब वी.- पृथ्वीनाथ! हम सबों पर आपका बड़ा ऋण है। सो आज उस ऋण के परिशोध करने का, अपना पौरुष प्रगट करने का, संसार में अक्षयकीर्ति लाभ करने का, स्पृहणीय स्वर्गसुख हस्तगत करने का, उन्नतस्तनी अप्सराओं के प्रमुग्ध कर कटाक्ष अवलोकन करने का, अवसर उपस्थित हुआ है। जब तक हम लोगों के एक अंग में भी प्राण रहेगा, शरीर की एक सिरा में भी रुधिर प्रवाहित होगा, हम लोग शत्रु को साँस न लेने देंगे। आप देखेंगे कि हमलोगों के प्रबल आक्रमण से शत्रु सेना क्षणभर में ऐसे बिलाय जावेगी, जैसे जलबुद्बुद्। हम लोग दुराचारी रावण की सेना समान वाक्सूर और कापुरुष नहीं हैं, किन्तु पराक्रान्त शुंभ एवं महिषासुर की ओजस्विनीधवजिनी सदृश युद्ध कुशल और रणदुर्मद हैं।
शि.- शाबाश! बहादुरो! शाबाश!! धन्य हो। क्यों न हो। जब तुम लोग ऐसे हो तभी तो ऐसे लोमहर्षण व्यापार में पदार्पण करने के लिए कटिबद्ध हो, नहीं तो अपना प्राण किसको नहीं प्यारा है। किन्तु सूरमाओं की यह रीति केवल आज ही ऐसी नहीं है, सदा से इसकी पोषकता इसी प्रकार होती आयी है। देवासुर संग्राम में विकट वृत्रसुर की देवराज ने दोनों भुजाएँ काट दीं, पर क्या इससे वह भीत हुआ, अणु मात्र नहीं, वरन् द्विगुण्दर्प से लड़ता ही रहा। उद्धत रावण का सिर और भुजमूल बीर धुरन्धर भगवान रामचन्द्र काटते ही जाते थे, पर इससे क्या उसका उत्साहभंग होता था? नहीं। वह अनुक्षण प्रबल वेग से अधिक होताजाताथा।
शा.- अरे रणभीरु! कायरशिरोरत्न। तियचोर। दुराचार कृष्ण। यद्यपि तेरे दुष्कर्म और बंचकता से इस काल हम लोगों का हृदय कुम्हार के आवाँ की भाँति दग्ध हो रहा है, तथापि आपत्ति में पड़ा हुआ मृगेन्द्र छुद्र शृगाल के विनाश के लिए बहुत है। यदि आज तू रणभूमि में मायावी रावण समान अनेक स्वरूप धारण करके प्रगट होगा, प्रबल महिषासुर की भाँति नाना प्रकार की मूर्ति बनकर दृष्टिगोचर होगा, दनुवंश जातों का अनुकरण करके कभी अन्तर्धान कभी प्रगट होकर युद्ध करेगा, पक्षी बनकर नभोमण्डल की, जलचर स्वरूप धारण् करके अगाध उदधि की, सर्प होकर अवकाशवती धारणी की, वन्यपशु स्वरूप से अन्धाकाराच्छन्न गिरिकन्दर की, शरण लेगा, तथापि मेरे शाणित शरों से त्राण न पा सकेगा।
(एक दूत का प्रवेश)
दूत- महाराज! आपकी सम्पूर्ण सेना युद्ध के लिए तैयार खड़ी है और यादवों की सेना डंके बजाती, झण्डे उड़ाती, तूर्यनाद करती, उद्वेलित समुद्र समान कूलवर्ती पदार्थों को विनाशती, द्वारकाभिमुखयात्रा कर रही है।
रु.- (दर्प से) तो चलो अब हम लोग भी अगस्त सी शक्ति धारण करके उसके अकालोद्भूत अभिमान का निवारण करें?
शा.- (खडे होकर उच्चस्वर से)
छन्द
अबै सेहयो ले सबै बीर धाओ। रचो व्यूह सेना सजाओ सजाओ।
बली बीर के मान को दौरि दारो। बढे बैरि के हीय को फारि डारो।
उड़ाओ पताके नगाड़े बजाओ। महादाप कै मेदिनी को कँपाओ।
घने सूर सामन्त को धालि धाओ। चढ़ी चाव तिनको मिटाओ मिटाओ।
न छेड़ो कबौं जाहि पाओ प्रहारो। पुकारो पछारो प्रचारो पधारो।
कड़ाबीन को बेग दागे दगाओ। छुरी से हथी तेग गोला चलाओ।
गदा मारिकै गर्ब बैरीन ढाओ। नसाओ फँसाओ कँपाओ गिराओ।
करी कुम्भ को कोप कै कै बिदारो। जहाँ जाहि पाओ तहाँ ताहि मारो।
सब.- (मिलकर तुमुल शब्द से)
जहाँ जाहि पाओ तहाँ ताहि मारो।
जहाँ जाहि पाओ तहाँ ताहि मारो।
( कहते , हथियार निकालकर कूदते , ललकारते , कोलाहल करते घूमकर नेपथ्य में हो जाते हैं)
(जवनिका पतन होती है)
नवमांक
स्थान-रणभूमि का बहि:प्रान्त)
( भगवान श्रीकृष्ण , सारथी एवं महारानी रुक्मिणी सहित एक रथ विराजमान)
श्रीकृ.- (नेपथ्य की ओर देखकर) सारथी! देखो, पद्म व्यूह रचकर खड़ी यादवों की सेना को बली शाल्वादि महारथियों को आगे किए हुए शंखध्वनि करती शिशुपाल की सेना ने किस प्रकार आक्रमण किया है।
सा.- महाराज! कुछ चिन्ता नहीं। विकट सिंहनाद से शत्रुओं का हृदय कम्पित करके यादवों की सेना ने भी उनकी अव्याहत गति का अवरोध कर दिया।
श्रीकृ.- सत्य है। अब युद्ध आरम्भ होने में भी अनति विलम्ब है।
सा.- अनतिविलम्ब क्या, विलम्ब है ही नहीं।
(नेपथ्य में सिन्दूरा गान प्रारम्भ)
राग सिन्दूरा
कोप धारि असि प्रहारि लरत बीर भारी।
चं चं चमकत छपान , फं फं फुंकरत बान , तं तं तंकरत मान , बैरिन मदगारी।
घं घं घायल अपार , गं गं गं गिरत हार , कं कं करिकै पुकार , कायर भयकारी।
बं बं बहकत प्रबीर धां धां धनु धुन त धीर , भं भं भं भिरत भीर , बरकत दैनारी।
श्रीकृ.- सारथी, तुमने बहुत ठीक कहा, सिन्दूरा गान के साथ ही रणवाद्य बजने लगा, बारम्बार तूर्यनाद होने लगा, अग्रज ने शिशुपाल को ललकारा, सात्वकी ने शाल्व के साथ युद्ध करना प्रारम्भ किया, कृतवर्मा ने दन्तवक्र को लक्ष्य बनाया, और यादवों की समस्त सेना शिशुपाल की सेना पर टूट पड़ी।
सा.- महाराज! इस काल बड़ा घोर युद्ध हो रहा है, सामन्तों की गरज, रणवाद्यों का भयंकर शब्द, शस्त्रस्त्रों की झनत्कार, तूर्य का उत्तेजक निनाद ही चारों ओर श्रुत होता है।
श्रीकृ.- सारथी! देखो! अग्रज के कठोर मूसलाघात से आहत होकर रुधिर बमन करता हुआ शिशुपाल पृथ्वी पर गिर पड़ा, सात्वकी की अनवरत बाणवर्षा से व्याकुल होकर प्रचण्ड शाल्व ने उनके धन्वा को तो काट दिया, किन्तु करवाल के कठिन प्रहार से त्राण न पा सका, क्षतविक्षत होकर मूच्छित हो गया, कृत वर्मा ने अपने अमोघ पराक्रम से दन्तवक्र का मान चूर्णविचूर्ण कर दिया। आहा! यादवों की सेना ने भी प्रचण्ड आक्रमण करके शिशुपाल की सेना में से बहुतों को काट डाला। सूत! क्या शिशुपाल की सेना अब पलायित होने का उपक्रम कर रही है?
सा.- महाराज! ज्ञात तो ऐसा ही होता है।
श्रीकृ.- सूत! देखो। जरासन्ध की तेजस्विता देखो। शिशुपाल की सेना क्षत्रभंग देखकर पलायित हुआ ही चाहती थी। किन्तु अपनी अविरल बाण वर्षा से यादव दल को सन्धुक्षित करके उसने उनके उत्साह को द्विगुण कर दिया। अब किस ओजस्विता के साथ उसने फिर यादवीय सेना को आक्रमण किया है।
(नेपथ्य में)
अरे। युद्धदुर्मद जरासन्ध यदि कुछ पौरुष रखता है तो मेरे सन्मुख हो, बृथा अपने अप्रतियोगी यादव सैन्य के साथ क्यों बल प्रकाश करता है। यदि ओजस्वी मृगेन्द्र ने छुद्र मृगसमूह को विजित कर ही लिया तो उसकी कौन प्रशंसा है?
सा.- महाराज! क्या यह ओजस्वी वाक्य महात्मा बलराम का है?
श्रीकृ.- हाँ, देखते नहीं किस दर्प के साथ जराजन्ध ने उनको आक्रमण कियाहै।
सा.- निस्सन्देह! इन दोनों पराक्रान्त वीरों की प्रतिद्वंद्विता देखने योग्य है।
श्रीकृ.- अहा! कैसा घोर संग्राम हो रहा है। रण धुरन्धर जरासन्ध के बाणों से सारी संग्रामभूमि पूर्ण हो गयी। अग्रज महावीर्य बलराम के कठोर एवं अनिवार्य मूसलप्रहार से अनन्त वीर भग्नमस्तक हो गये। मृतकों के शरीर का ढेर लग गया, रुधिर की नदी बह निकली। किसी वीर का कबन्ध कर में करवाल ग्रहण किए सन्मुख होता है, कोई उसे खड्गप्रहार करके द्विधा कर देता है। कोई रणोन्मत्त दोनों हाथों के कटने और विरथ होने पर मुखव्यादनपूर्वक अपने प्रतियोगी को आत्मशान्त कर लेना चाहता है, किन्तु वह सबके मुख को बाणों से भरकर उसका वहीं निपात करता है। कहीं सारथी रथी का सीस हाथ में लिये रोदन करता है। कहीं कोई वीर मूर्छित हो पृथ्वी में गिरता है। घायल घूमते हैं। कायर भागने का उपक्रम करते हैं। अर्ध्दमृतकों का आर्तनाद कलेजा कम्पित करते हैं। छिन्नमस्तक और धरातलपतित रुण्ड त्रस को द्विगुण कर देता है। धरती रक्तवर्ण हो गयी। आकाश बाणों से घिर गया। वीरों का उत्कट नाद दिशाओं में भर गया। मांसभक्षी जीव इतस्तत: भ्रमण कर रहे हैं। लोहू, मांस, मज्जा, मेद पड़े दृष्टि आते हैं। रुधिराक्त शस्त्रास्त्र बिखरे पड़े हैं। शोणिताप्लुत आभूषण जहाँ तहाँ गिरे हैं। दुर्दान्त जरासन्ध के अपूर्व पराक्रम प्रकाश से आहत शिशुपाल की सेना बढ़ आयी थी, पर पूजनीय अग्रज के मूसलप्रहार और विजयी कृतवर्मा और सूर सात्वकी के अभेद्य शरवर्षण से फिर पीछे हट गयी।
छन्द
तागिड़दं तीरं छागिड़दं छुट्टे। बागिड़दं बीरं टागिड़दं टुट्टे।
कागिड़दं कोपे जागिड़दं ज्वानं। नागिडदं नासे मागिडदं मानं।
गागिड़दं गाजे खागिड़दं खेतं। भागिड़दं भूतं पागिड़दं प्रेतं।
चागिड़दं चोपे सागिड़दं सूरं। भागिड़दं भाजे कागिड़दं कूरं।
बागिड़दं बाजी ढागिड़दं ढोलं। भागिड़दं भाजी गागिड़दं गोलं।
घागिड़दं घोड़े हागिड़दं हाथी। आगिड़दं आजे सागिड़दं साथी।
मागिड़दं मारे दागिड़दं दारे। जागिड़दं जीधे सागिड़दं सारे।
दागिड़दं देखी यागिड़दं युध्दं। बागिड़दं बीरं कागिड़दं क्रुध्दं।
सा.- महाराज! यह देखिए। घोर संग्राम करने के पश्चात् वीर्यवान श्रीबलराम के मूसलप्रहार से भग्नमस्तक हो रणदुर्मद जरासन्ध पृथ्वी पर गिर पड़ा।
( नेपथ्य में सिन्दूरा गान समाप्त होता है)
श्रीकृ.- (प्रसन्नता से) सारथी! केवल इतना ही आनन्द का विषय नहीं है। जरासन्ध को भूमिपतन होते देखकर शिशुपाल की समस्त सेना क्षत्रभंग देकर पलायित हो रही है और उसके साथ ही शिशुपाल और शाल्वादि भी पलायन करते दृष्टिगत होते हैं।
सा.- सत्य है। पृथ्वी में ऐसा कौन पराक्रमी है जो आपके और महात्मा श्रीबलराम के सन्मुख कुछ काल पर्यन्त रणांगण में ठहर सके।
श्रीकृ.- सारथी! अब तो रणभूमि में विपक्षीदल का एक मनुष्य भी दृष्टिगत नहीं होता।
सा.- महाराज! दृष्टिगत कैसे हो? किसको अपना प्राण भारी पड़ा है। जिन्होंने मूर्खता की उन्होंने ही की।
(नेपथ्य में घोर कोलाहल और तूर्यनाद)
श्रीकृ.- सारथी! फिर यह कोलाहल कैसा?
सा.- (नेपथ्य की ओर मनोनिवेश के साथ देखकर) महाराज! जान पड़ता है कि एक नवीन सेना ने कोलाहल और तूर्यनाद करती आकर यादवों की सेना को फिर आक्रमण किया है।
श्रीकृ.- सत्य है! यह सेना राजकुमार रुक्म की है, क्यों कि यह देखो अविरल बाणवृष्टि करता हुआ रुक्मा हमारी ओर बढ़ा आता है।
सा.- महाराज! आप भी सावधान हो जावें।
(रथस्थ, बाणवृष्टि करते रुक्म का प्रवेश)
रु.- (क्रोध से) अरे रणभीरु! कायरशिरोमणि! कुल पांसन कृष्ण! तूने अपने को क्या समझ रखा है, दो-चार छुद्र राक्षसों को छल से मार लेने के कारण तू वीर नहीं हो सकता। तेरी कौटिल्यमयी दुस्साहसिकता वीरता में परिगणित नहीं हो सकती। तूने कतिपय अल्प पराक्रम दानवों को क्या जीत लिया, अपने को अजर अमर समझ लिया। किन्तु स्मरण रख कि तुझको आज तक किसी क्षत्रिय से काम नहीं पड़ा है। देख, आज मेरी अविराम बाणवर्षा से तेरी वही गति होगी, जो जलवर्षण से एक छुद्र रजकण पिण्ड की होती है (बाणवृष्टि)
श्रीकृ.- अरे वाक्सूर! गजभुक्तकपित्थ समान सारशून्य। क्षत्रियकुल-निशाकरकलंक! क्या स्वान के शब्द करने पर मृगेन्द्र कभी आक्षेप करता है, अथवा मत्तद्विरद के गरजने पर वह कभी रोषाविष्ट होता है। तुझ ऐसे पामर पतंगों के संहार के लिए मेरी करवाल की ज्वाला बहुत है। और मेरे पवन बाणप्रहार सन्मुख तेरी बाणवर्षा तो ठहर ही नहीं सकती (धन्वाबाणसन्धान और शरजालभेदन)
रु.- (गर्जकर) सत्य है 'विनाशकाले विपरीतबुध्दि:' जैसे मृत्युग्रस्त मत्स्य बडिशग्रहण करके स्वत: अपना नाश करता है, उसी प्रकार रुक्मिणीहरण करके तूने अपने को कालकवलित किया है और प्रचण्ड मृत्यु के शीर्षस्थ होने से इसका ज्ञान नहीं है कि मैं क्या कहता हूँ। अरे नीच! लोह की ऑंच सहने को क्षत्री ही को ईश्वर ने रचा है, गोपजातों को नहीं (पुन: शरबृष्टि)
श्रीकृ.- रे नीच! मिथ्याभिमानी! पामर! कायरों समान क्या वृथा प्रलाप करता है, कुछ काल में आप ही ज्ञात हो जावेगा कि लोहे की ऑंच सहनेवाला क्षत्री कौन है। मेंढकों सदृश अधिक टर्रटर्र करने से क्या लाभ है (पुनर्शरजाल भेदन)
रु.- अरे कपटी! कटुभाषी! वाचाल!। तेरे शस्त्रो की शोभा तभी तक थी जब तक मेरे तीक्ष्ण बाणों से उस को काम नहीं पड़ा था, देख आज इन बाणों के प्रहार से तेरे अंगों को विदीर्ण करके तेरे मांस से काकों और शृगालों को तृप्त कर देता हूँ, और तेरा सर्व रणोन्माद ऐसे उतार देता हँ जैसे लक्ष्मणानुज शत्रुघ्न के बाणों ने लवण का, भगवान भूतनाथ के शरसमूहों ने त्रिपुर का, और पराक्रान्त पुरन्दर के अमोघ वज्र ने पाक का गर्व दूर कर दिया था ( पुनर्शरवृष्टि)
श्रीकृ.- दुष्ट! वाक् वीर! समरयज्ञ पशु रुक्म। क्या वृथा प्रलाप करता है। जैसे वर्षाकाल के अनन्त छुद्र कीटों का प्रादुर्भाव तभी तक रहता है जब तक ओजस्वी शीत वितरक शरदत्तु का विकास नहीं होता, उसी प्रकार तेरे इन अनन्त शरसमूहों की दिगन्तव्यापिता तभी तक है जब तक वास्तव में मैं तेरे शरप्रहार रोकने के लिए कटिबद्ध नहीं होता, जिस काल ऐसा होगा तू शरप्रहार करना उस प्रकार भूल जावेगा, जैसे प्रसव होते ही बालक गर्भ की सकल बातें भूल जाता है। अच्छा सम्हाल। (शरनिक्षेप और रथ, सारथी, अश्व, धनु का बिनाश)
रु.- (खिजलाकर) पापिष्ठ! तिष्ठ! तिष्ठ! अभी तलवार मारकर तुझे दो टुकड़े कर देता हूँ (पैदल दौड़कर असिप्रहार)
श्रीकृ.- (ढाल पर तलवार रोककर) बस। हो चुका। देखना अब मेरी बारी है (रुक्म को पकड़ तलवार मारा चाहते हैं)
श्रीरु.- (भगवान के चरणों पर गिरकर) कृपासिन्धो। क्षमा कीजिए। क्षमा कीजिए। क्या जन्मान्ध कभी अंशुमाली सूर्य के गुण को जान सकता है, जब तक उसको सुलोचन न मिले, उसी प्रकार यह मदान्ध क्या कभी आपको पहचान सकता है, जब तक आपकी कृपा से इस बिचारे को नेत्र न प्राप्त होवें। दीनबन्धो! बिच्छू का स्वभाव ही डंक मारने का है। बालक की प्रकृति ही अपमान की है! फिर क्या महज्जन इसका विचार कर उनको दोषभागी बनाते हैं। दयानिधे! इस बालबुध्दि के दुराचार का विचार आप न करें, इसे छोड़ दें, अपनी करनी का फल यह आप ही भोगेगा, निष्कलंक सूर्य पर जो थूकता है, वह थूक उसी के मुख पर पड़ता है। और यदि आपसे जगमंगल से सगाई करने का यही फल हो कि आपके श्वसुर को पुत्र शोक और दासी को भ्रातृ शोक हो तो, यहाँ मेरी जिह्ना बन्द है, मैं कुछ नहीं निवेदन कर सकती (रोने लगती हैं)।
श्रीकृ.- सारथी! प्राणाधिका के अनुरोध से मैं रुक्म को छोड़ने के लिए बाध्य हुआ, किन्तु इसको इसके दुराचरण का फल चखाना अवश्य है, अतएव तुम इसका उचित शासन करो? (कुछ संकेत करते हैं)
सा.- जो आज्ञा। (सिर और दाढ़ी मूँछ का बाल मूँड रुक्म को रथ से बाँध देता है)
(श्री बलराम का प्रवेश)
बल.- भ्रात:। हमने रुक्म की सेना को परास्त करके विद्रूप किया, और तुमने सिर और दाढ़ी मूँछ के बाल मूँडकर इसे विद्रूप बनाया, फिर अब इसको रथ से बाँध रखने की कौन आवश्यकता है, इसको छोड़ दो?
श्रीकृ.- अग्रज की जैसी इच्छा। (रुक्म छोड़ दिया जाता है)
(भगवान श्रीकृष्ण का रथ संचालन)
(जवनिका पतन)
दशमांक
श्रीरुक्मिणीपरिणयनाटक
का एक अतिरिक्त अंक
(स्थान-शय्याभवन)
(भगवान श्रीकृष्ण एक सुकोमल तल्प पर बिराजमान, व्यजनहस्ता रुक्मिणी समीप दण्डायमान)
(सुलोचना व सुनैना दो परिचारिकाओं का प्रवेश)
सुलो.- सखी सुनयने! आज कैसा आनन्द का दिन है, समस्त द्वारिकानिवासियों का हृदय आज कैसा सुप्रसन्न है। महनीयकीर्ति महात्मा श्रीकृष्ण के सदर्प कुण्डलपुर जाने और वहाँ प्रबल शिशुपालादि के आने का विवरण सुनकर जो मन दिन रात उद्विग्न रहा करता था, वह अब उक्त महात्मा के अति पर समूह का अभिमान निवारण करके सकुशल द्वारिका आने, और लोकललामभूता महारानी रुक्मिणी के साथ समारोहपूर्वक उद्वाह करके जगज्जन को आनन्दित बनाने से कैसा दृष्ट और आनन्दविनिमग्न है। मानो दुर्ध्दर्षसिसिरसन्ताडित पुष्पविहीन पादप सरस ऋतुराज समागम से नयनोत्सव अभिनव किसलयसमूह और मनोरंजनकुसुमकदम्ब भार से अवनत बन गया।
सुन.- सखी! केवल इतना ही आनन्द का विषय नहीं है। यह कितना हर्षप्रद सुसमाचार है, कि जिस काल पूज्य महर्षिगण, राजनन्दिनी रुक्मिणी का शुभपाणिपीडन महात्मा श्रीकृष्ण के साथ करा रहे थे, उसी समय कुण्डलपुर से आगत एक दूत ने प्रभूत यौतुक महाराज उग्रसेन के सन्मुख रखा, और उसको महाराज भीष्मक का प्रेरित बतलाकर समग्र विवाहप्रांगण स्थित सुजनों को आनन्दित कर दिया।
सुलो.- यह कैसे? जिस दुष्ट रुक्म ने पिता को शुभदर्शना रुक्मिणी का विवाह लोकरंजन श्रीकृष्ण के साथ करने से रोका, सदर्प पराक्रान्त श्रीकृष्ण के साथ समरांगण में घोर आहवकार्य में परिणत हुआ, उसने फिर पिता के यौतुकप्रेरणा का अनुमोदन करके हरिऔध श्री रज्जु को क्यों पुष्ट करने दिया ?
सुन.- सखी! क्या भवितव्य के निगूढ़ दाम का बन्धन कोई उन्मोचन कर सकता है? क्या विधाता द्वारा दृढ़ीकृत हरिऔध को कोई विदूरित करने में समर्थ हो सकता है? पर इस कार्य का कारण और है।
सुलो.- सो क्या सखी! शीघ्र कह! क्यांकि इस विषय को श्रवण करने के लिए मेरा मन ऐसा समुत्सुक है जैसा किसी काल में भगवान पार्वतीनाथ का मन जगविलास भगवान विष्णु का मोहनीस्वरूप देखने के लिए समुत्कण्ठित हुआ था।
सुन.- सखी! जिस काल क्रूरकर्मा रुक्म महात्मा श्रीकृष्ण से युद्ध करने के लिए कुण्डलपुर से प्रस्थान का उपक्रम कर रहा था; उस काल उसने प्रण किया, कि यदि मैं कृष्ण को समरांगण में विजित करके सहोदरा रुक्मिणी को छीन न लाऊँगा, तो फिर कुण्डलपुर में पदार्पण न करूँगा। किन्तु यह कब हुआ है कि एक छुद्र पक्षी पराक्रमशाली पक्षिराज गरुड को परास्त करे, अथवा लघु पिपीलिका दुर्दान्त महायशा शेषनाग पर विजय पावे। अतएव वह जब पराजित होकर लौटा तो अपने प्रण अनुसार कुण्डलपुर न जाकर उसी के समीप एक भोजकट नामक नगर बसाया, और अपने पूज्य पिता से द्वेष करके अब सपरिवार वहीं रहता है। सखी! यही कारण उसके इस शुभकार्य में बाधक न होने का है अथवा यों समझो कि नागगण सुलोचना का शुभविवाह दशकणठतनय से हुए पीछे आप ही उसके मित्र हो गये।
सुलो.- हाय! रुक्म ने भी कैसी कुमति विचार की थी। जो रुक्मिणी ऐसी जगन्मोहिनी को शिशुपाल ऐसे क्रूर से प्रणयपाश में आबद्ध करना चाहाथा।
सुन.- पर यह कब हुआ है, कि मालतीलता तमालतरु छोड़ बबूर से लिपटे, और चन्द्रिका निशाकर को त्याग सैंहिकेय से स्नेह करे।
सुलो.- (शय्याभवन की ओर देखकर) सखी! यह शय्याभवन कैसा लोकललाम और मनोरंजक है। इसकी कनकनिर्मित भीत जिनमें अनेक प्रकार के समुज्वल मणि जटित हैं। कैसी सुन्दर और रमणीय हैं। स्वर्णीय स्तम्भों की विशालता और विचित्रता और उसमें के कौशल सहित रचित चित्रों की अनुपमता कैसी अपूर्व है। पन्नों द्वारा विरचित आम्रपत्र और स्वर्णविनिर्मित रजु का समन्वय करते तोरण का निर्माण कैसा कौशलमिश्रित कार्य है। मोतियों की झालरें और युक्ति पूर्वक चाँदी से रची बन्दनवारें कैसी स्पृहणीय हैं। बहुमूल्य विद्रुमविरचितयुगलद्वारकपाट कैसे ललित और प्रशंसनीय हैं। उनका मणिमय कील काँटा कैसा अद्भुत है। कलितकल्पलता के कल कुसुमों, एवं अनुपम अगर अथच मलयोद्भूत चन्दनों की सुगन्धि से सारा प्रासाद कैसा गन्धबद्ध और सौरभवितरक है। (सुनना नाटय करतीहै)
सुन.- सखी! वह (तर्जनी द्वारा लक्ष्य करती है) देखो। चन्द्रानना राजनन्दिनी रुक्मिणी खड़ी हुई लोकरंजन भगवान श्रीकृष्ण से बातें कर रही हैं! जिनके कोकिल से कोमलालाप को तुम चकित सी होकर श्रवण कर रही हो। अहा! सजलजलदगात महात्मा श्रीकृष्ण के समीप खड़ी चंचला राजतनया की कैसी शोभा है।
पद
सखी! लखु दामिनि भूमि खरी।
सजलजलदतन जदुनायक ढिग चौगुन चाव भरी।
कि धौं मालती तरु तमाल तजि रमबम आहि अरी।
कै नीलम की छरी पास है कनकबेलि बगरी।
मरकतमनि समीप कै सोहत दीपक जोति धरी।
हरिऔध कै पन्ना के ढिग राजत मोति लरी। 1 ।
सुलो.- सखी! सत्य है! ऐसी ही शोभा है। किन्तु महारानी इस काल अपने प्राणनाथ से कुछ बातें करती जान पड़ती हैं, अतएव हम दोनों का वहाँ चलना युक्तिसंगत नहीं हो सकता, आओ। शृंगारभवन की ओर चलैं।
सुन.- सत्य है। इस समय वहाँ जाने से वही गति होगी जो गति वायु की घनपटल और विद्युल्लता के बीच जाने से होती है। तथापि यहाँ से चले चलने का भी जी नहीं चाहता, क्योंकि वह दम्पती के सप्रेमसंभाषण श्रवण को परमोत्सुक है। अतएव आओ। इस पर्दे की ओट में बैठकर राजनन्दिनी और महात्मा श्रीकृष्ण के सब द्रष्टव्य चरित्रों का अवलोकन करें।
( दोनों एक पर्दे की ओट में बैठ जाती हैं)
श्रीकृ.- प्राणाधिके! यह कैसा अन्याय है जो कमलिनी अपने परमस्नेही रसिक चंचरीक से स्नेह न करके सुदूरगगनबिहारी दिवाकर से प्रीति रखती है और रात्रिकाल में उसको आपत्ति में पड़ा हुआ देखकर उसके समादर के लिए अपना मुख थोड़ा भी नहीं खोलती।
श्रीरु.- प्राणनाथ। क्या वह झूठे प्रेमी स्वार्थपरायण, अमितकुसुमसुगन्धरत, भ्रमर के लिए अपने वास्तविक हितैषी, आजन्मप्रिय, भगवान दिवानाथ के वियोग की अवस्था में सुविकसित होकर अपने धर्म को नष्ट कर सकती है। कदापि नहीं। वियोग क्या संयोगावस्था में भी वह उस चपल का विश्वास नहीं करती और स्वोदरस्थरजों से उसको अन्धा बनाती रहती है क्योंकि ऐसे अविश्वासियों से स्नेह न करना ही न्याय है।
श्रीकृ.- प्यारी! सरोजिनी को प्रखर दिवाकर से स्नेह रखने में कोई सुख नहीं है। क्योंकि वह उसके क्रीड़ा स्थल सरोवरादि के जल को सदैव शुष्क करता रहता है और स्थानच्युत होने पर वही उसको जला देता है।
श्रीरु.- भगवती पार्वती की भाँति पति से अपमानित होकर जल जाने में उसको वह दु:ख नहीं है जो उसको भ्रमर ऐसे चपल जन्तु से स्नेह करने में है।
श्रीकृ.- प्रिये! जो हो। किन्तु जहाँ तक मैं सोचता हूँ तुमको यह कदापि योग्य एवं समुचित नहीं था कि तुम पराक्रान्त शिशुपाल समान, स्वरूपमान, प्रेमिक, कुलीन, शूर और ऐश्वर्यशाली को त्याग मेरे ऐसे कुरूप, कायर, अकुलीन दासवृत्तिपरायण और कठोरान्त:करण से स्नेह करो। देखो, मैं प्रबल जरासन्ध के वास से पलायित होकर सकुटुम्ब एक छुद्र द्वीप में जीवनयात्र निर्वाह कर रहा हूँ, तथापि शंकित रहता हूँ। फिर मुझ ऐसे छुद्र एवं कापुरुष से स्नेहबद्ध होकर जीवन व्यतीत करने में तुमको कौन यश मिलेगा? प्रिये! तुम्हें कौन महारानी कहेगा? किन्तु अभी भी बहुत कुछ नहीं बिगड़ा है, इच्छा करने ही से तुम नृपवर्य शिशुपाल के यहाँ चली जा सकती हो क्योंकि मैं तुमको बहुत प्रसन्नता से आज्ञा दे दूँगा। यदि यह कहो कि ऐसा ही करना था तो आप कुण्डलपुर जाकर मुझको क्यों लाए? तो प्राणाधारे! मैं सच कहता हूँ कि इसमें मेरा अणुमात्र भी अपराध नहीं है, वास्तव बात यह है कि तुमारे पत्र के जीवन्त आशय और उत्तोजक पदों ने मुझको धोखा दिया, नहीं तो मैं कदापि ऐसे गर्हित कर्म करने में लिप्त न होता।
श्रीरु.- प्रियतम! मैंने यह नहीं समझा था कि कमलिनी के दृष्टान्त का उत्थान आपने मेरे ही लिए किया था (मूर्छासंचार)
श्रीकृ.- अहा! शरदर्तु के निर्मल नीले आकाश की भाँति प्राणप्यारी का हृदय भी निर्मल है। क्योंकि यदि ऐसा न होता तो मेरी हँसी की बातों से तत्काल प्राणोपमा की यह दशा न हो जाती (अंक में ग्रहण)
सुलो.- सखी! देख! अपने प्यारे की हँसी की बातों पर महारानी रुक्मिणी की कैसी दशा हो गयी। पंखा कर-कमलों से छूट पड़ा। मुख पीतवर्ण हो गया, नेत्रों से अविरल अश्रुप्रवाह होने लगा, और मूर्छित होकर वह गिरा ही चाहती थी, किन्तु भगवान श्रीकृष्ण ने उनको अपने गोद में लेकर सम्हाल लिया।
सुन.- सखी! आनन्द की बात है कि महात्मा श्रीकृष्ण के व्यजनद्वारा वायु करने से सुशीतल गुलाब का छींटा देने से महारानी रुक्मिणी की मूर्छाभंग हो गयी। देखो, उक्त महानुभाव के अंग से सलज्जभाव पृथक होकर वह फिर उसी प्रकार पृथ्वी पर खड़ी हो गयीं।
श्रीरु.- (हाथ जोड़कर)
छन्द
हे नाथ भवभयहरन जनसुखकरन श्रीकरुणा निधे ।
मनहरन तारनतरन जगकौतुककरन अगनित बिधे ।
प्रभु मुखकमलदल ते सुकोमल ते सु क्यों अस बच कह्यो।
जेहि ते सकल सुख निसिप को दुख सिंहिकासुत ने गह्यो।
जाके सरूप सु ओप सम नहिं अमित रतिपतिहँ अहै।
अस कौन जग मतिमन्द जो तेहि रूप को बिकृत कहै।
मुख जाहि ते द्विज छ त्रि भुज ते वैश्य उरु ते जग भनै।
पग जाहि ते जग सूद्र उपजे तासु कुल को का गनै।
अमरेस सौ विभवेस सम जग विभववारो कौन है।
ए प्रगट अनुचर जासु जग तेहि विभव को कह जौन है।
नवनीतहूँ ते सरस जाको हिय पुरान बखानहीं।
तेहि को कठोरुपमान सों कोउ बुध न कहुँ उपमानहीं।
जिन हिरनकस्यप कंस मधु कैटभ रु रावन को हने।
तेहि सूरकुलकलमुकुटमनि को कौन जग कायर गने।
जेहि नाम बल ते प्रबल पातक छोरि ततछन भाज हीं।
सो भज्यो लघु मग धे स भय ते हम न हिय अनुमानहीं।
प्रभु चरित अद्भुत अकथ को नहिं पार कोउ जग पावई।
फिर अति अलपमति नारि यह केहि भाँति ताहि बखानई।
पै कहत साँची त्यागि अस प्रभुपद हिये केहि पद धरै।
हरिऔध पारस त्यागि कै जग काँच को संग्रह करै।
श्रीकृ.- प्रिये! क्यों न हो। यदि तुम ऐसा न कहोगी तो और कौन कहेगा। भागीरथी ही का यह गुण है कि अपनी स्वाभाविक शीतलता से उदधि का हृदय तर रखती है। प्राणाधारे! ए कठोर वचन हमने केवल रहस्यवर्धन एवं तुमारी इन मधुर वचनों के श्रवण के लिए कहे थे, नहीं तो ऐसा कौन है जो सुविकसित मल्लिका पर तप्त जल निक्षेप करेगा (उठकर सानन्द परिरम्भन)।
(दोनों सखियाँ पर्दे के बाहर आकर)
(प्रगट)
पद
आज हिय परम प्रमोद भयो।
लखि मिलाप नीको पिय तिय को छन में सब दुख दूर गयो।
नित नित होत प्रीति पय जल सम हम सब लखि विनोद उपजावैं।
सोकताप संताप जगत को लखि लखि कै छबि दूर बहावैं।
नेक विभेद होय नहिं कबहूं नव अनुराग नेह सरसाई।
मती संभु , हरि रमा , गिरापद , मम दिगन्त कलकीरति छाई।
जुग जुग चिरंजीव यह जोरी रहै करै जन मन बर नेहा।
हरीऔध कर जोरि रैन दिन बिनवत रहत सदा प्रभु एहा।
(दोनों सखियों का प्रस्थान)
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