शो केस (तेलुगु कहानी) : अनिशेट्टि श्रीधर
Show Case (Telugu Story) : Anishetty Shridhar
वह भवन...समाजवाद पर पूँजीवादी शक्तियों की जीत का प्रतीक सा लग रहा है।
वह भवन...‘प्रगति के लिए स्वार्थ एक अत्यावश्यक तत्व है’ - अयान रैण्ड के इस वाक्य की टीका-सा लग रहा है!
वह भवन...देखने से लग रहा है कि उसे मानव समूह में निहित सामर्थ्य, स्वार्थ, बेइमानी और शोषण - इन सबके सम्मिश्रण से बनाया गया हो!
वह इमारत अमीरों के लिए ईर्ष्या तथा गरीबों के लिए भय का कारण एकसाथ बन सकती है।
उस भवन में और उस भवन की मलिका हारिका में ज्यादा अंतर नहीं है। हारिका उस भव्य गृह की स्वामिनी है। ठाट-बाट में, गर्व एवं गौरवशाली रूप में दोनों समान हैं। लेकिन हारिका का पति समीर तो उस भवन का मालिक नहीं बल्कि उस घर में आये एक गुमराह व्यक्ति की तरह दिखायी देता है।
जब तक समीर घर आया, केर टेकर दोनों बच्चों को नहलाकर तैयार रख चुकी। हारिका अभी कम्पनी से आयी नहीं।
महाराजाओं के भवन जैसे उस घर में ही सारी सुविधाएँ हैं। होम थियेटर, जिम, स्विमिंग पूल...बहुत विशाल लॉन सबकुछ हैं। समीर आज बच्चों को बाहर ले जाने केलिए हारिका को बहुत प्रयत्न के बाद राजी कर सका। समीर का कहना है कि बच्चों को बाहर की दुनिया के बारे में ज्ञान होना चाहिए। लेकिन हारिका ही यह तय करती है कि उन्हें कौन सी दुनिया का ज्ञान हो। आज सारा परिवार मिलकर आइमैक्स थियेटर को जानेवाले हैं।
आज सुबह से समीर का मन बहुत उदास है। घर आने के बाद देखा कि बाहर जाने को सब लोग तैयार हैं, इसलिए वह ‘ना’ नहीं कर सका।
जब तक समीर तैयार होकर आया बच्चे समीर की शादी की सी.डी. देखने में लग गये। समीर और हारिका का विवाह कहीं दस साल पहले हुआ था। उन दिनों में उस विवाह का खर्चा था-लगभग एक करोड़ रूपये!
लोगों ने कहा कि सिर्फ भोजन के लिए तीस लाख लग गये होंगे। विवाह में हाजिर सारे मेहमानों को शरमाना पड़ा था कि वे जो गिफ्ट लेकर आये, उनसे कई गुना ज्यादा कीमती गिफ्ट उन्हें मिले। खासकर विवाह का भोजन- सिर्फ देखते ही बनता था। सारे लोगों ने इतना खाया..इतना खाया, फिर भी जितना खाया गया उससे भी ज्यादा भोजन बाहर फेंक दिया गया। उस दिन समीर को यह सब आडम्बर बहुत बोझिल मालूम हो रहा था।
उसी समय समीर के दोस्त सुशील का विवाह हुआ था इस विवाह से भी अधिक आदर्श रूप में। सुशील ने जिस लड़की से प्यार किया वह सुशील के परिवार को पसंद नहीं आयी थी। इसलिए सुशील ने अपने दोस्तों की मदद लेकर रजिस्ट्रार आफिस में उस लड़की से विवाह किया। सारे दोस्तों ने मिलकर विवाह की बजट तैयार की। कुल मिलाकर लगभग पाँच लाख रूपये हुए।
सुशील ने कहा ‘‘रे समीर, मेरा विवाह ऐसा होगा कि सब लोग दंग रह जायेंगे।’’ उसने अपने विचार समीर के सामने रखे। योजना के मुताबिक सुशील का विवाह एक मंदिर में संपन्न हुआ और रजिस्ट्रार ऑफिस में बाकी कार्यक्रम पूरा हो गया। कार्यालय में सब लोगों को मिठाइयाँ बाँटी गयीं। इसका खर्चा हुआ लगभग पाँच हजार रूपये। बाकी पाँच लाख रूपये सुशील ने एक अनाथाश्रम को दे दिये!
समीर को सुशील का वह विवाह सदा के लिए याद रह गया। लेकिन उसका अपना विवाह.....जब भी वह अपने विवाह की सीडी देखने बैठता, उसे लगता है कि वह मंगल-कार्यक्रम नहीं बल्कि उसकी मातमपुरसी मनायी जा रही है!
आज फिर बच्चे वही सीडी देख रहे हैं तो समीर को गुस्सा आ गया। उसने बेटी से कहा ‘‘क्यों सुप्रिया..कितनी बार कहा कि वह सीडी मत देखा करो?’’
‘‘सॉरी पापा..छोटी बहन जिद कर रही थी इसीलिए..’’
इतने में हारिका वहाँ आ गयी।
‘‘क्या हो जाता.. हाँ? बच्चों की समझ में आयेगा कि हमारी औकात क्या है। उनके विचार भी उसी के मुताबिक बनेंगे। पैसे की अहमियत उनकी समझ में आयेगी।’’ आते ही उसने कहा।
‘‘हाँ..आयेगी जरूर। इसके साथ-साथ ‘पैसा ही सबकुछ है’ यह भावना भी उनके दिमाग में घर कर जायेगी। ये भी कल तुम्हारी तरह सारे नाते-रिश्तों को पैसे के ज़रिये तौलने लगेंगी! चलो..उनसे तुम्हारा क्या वास्ता?’’ समीर हमेशा की तरह मन में ही ये बातें कहता रहा, बाहर कहने की हिम्मत उसमें नहीं है!
आइमैक्स थियेटर में सिनेमा चल रहा है। अमीरों के जीवन की समस्याओं को बहुत ही रिच स्टाइल में प्रस्तुत किया निर्देशक ने। सारे दर्शक अपने जीवन की सारी समस्याओं को कुछ घंटों केलिए भुलाकर उन फिल्मी समस्याओं में लग गये और हीरो के प्रति अपनी सहानुभूति व्यक्त करने लगे।
इण्टरवेल का समय।
‘‘पापा..मुझे कोल्ड्रिंक चाहिए।’’ सुप्रिया ने कहा समीर से। अपनी बिकरी बढ़ाने के लिए फिल्मी सितारों को करोड़ों रूपये देकर वह सारा खर्चा आम जनता के सिर पर थोपने वाली कोल्ड्रिंक कंपनियों से समीर सख्त नफ़रत करता है। फिर भी बेटी की माँग वह ठुकरा न सका। बाहर जाकर देखा तो लोग कुछ इस कदर दिखायी दिये जैसे कि वे यहाँ फिल्म देखने नहीं बल्कि कुछ-न-कुछ खाने के लिए आये हों। समीर ने पर्स निकालते हुए पूछा- ‘‘कितना है यह कोल्ड्रिंक?’’ जवाब मिला-‘‘एक सौ पच्चीस रूपये साहब!’’ वही बोतल बाहर बारह रूपये में मिल जायेगी!
पर्स निकालते वक्त समीर को पर्स में रखी अपने पिताजी की तस्वीर दिखायी पड़ी। वह तस्वीर बहुत ही नाजुक अवस्था में है। उसमें से समीर के पिताजी का चेहरा बहुत ही मासूम और करुणाजनक दिखायी दे रहा है।
समीर वापस आकर सुप्रिया को समझाने लगा ‘‘देखो बिटिया...बाहर जाने के बाद मैं तुम्हें कोल्ड्रिंक जरूर पिलाऊँगा.. ओके? ’’ हारिका पति का मन ताड़ गयी। ‘‘समीर ! मैं कितनी बार कह चुकी..बाहर अगर तुम एक लाख रूपये देकर पिलाओगे तो भी उन्हें तसल्ली नहीं होगी..बच्चे यहीं पर पीना चाहते हैं और तुम्हें पैसे की पड़ी है ? सिर्फ पैसा होने से कुछ नहीं होने वाला..उन पैसों को खर्च करना भी जानें तब न? चल री.. हम जाकर पियेंगे’’ कहते हुए बच्चों को साथ लेकर वह बाहर चली गयी।
समीर की तरफ बच्चों ने दीनता भरी आँखों से देखा। समीर ने पर्स में रखी अपने पिताजी की तस्वीर की ओर देखा। उसकी आँखों में आँसू आ गये। वह मन मसोसकर रह गया।
समीर की माँ की मौत का कारण था- आर्थिक अभाव। जब समीर दस साल का था, तब उसकी माँ की तबियत खराब हो गयी और दवाई के लिए पर्याप्त पैसे नहीं थे। बहुत पैसा कर्ज में लेकर खर्च करवाने के बाद ही वह चल बसी।
समीर के पिताजी किसी सरकारी कंपनी में मज़दूर का काम करते थे। सरकार ने नुकसान का बहाना बनाकर कंपनी को बंद कर दिया। मजे की बात यह है कि किन लोगों से नुकसान आता है- यह बात सरकार को भी मालूम है। उसके बाद उस कंपनी से बाहर धकेल दिये गये बाकी कर्मचारियों की तरह समीर के पिता भी कई तरह के काम करते रहे। लेकिन किसी भी नौकरी में वे टिक नहीं सके।
समीर की अक्ल पर पिता को बड़ा विश्वास था। अपनी औकात से बढ़कर उन्होंने समीर को किसी अच्छे स्कूल में दाखिल करवाया। खुद भूखा रहकर बेटे को पैसे भेजते रहे। समीर जब पंद्रह साल का हो गया तब वे भी चल बसे।
उनकी मौत पर लोगों ने कहा- ‘‘बेटे पर इतना प्यार भी न हो कि खुद भूखा रह जाय। भूख ने ही बीमारी की तरह इस बेचारे को खोखला बना डाला।’’
समीर ने बहुत मेहनत की। छात्रवृत्ति पाते हुए, दोस्तों की मदद लेते हुए, छोटे-मोटे काम करते हुए, ट्यूशन लेते हुए.. जैसे-तैसे उसने इण्टरमीडिएट की शिक्षा प्राप्त की और उसे आई.आई.टी. में भी प्रवेश मिल गया। पढ़ाई के तुरंत बाद ही हारिका ग्रूप ऑफ कंपनीस में उसे अच्छी-खासी नौकरी भी मिल गयी। समीर खूब मेहनत करके कंपनी में उच्च पद प्राप्त करता गया। तभी हारिका से उसका प्रेम हुआ और हारिका ने भी उसके अतीत से वर्तमान में कोई नाता न जोड़कर उससे प्यार किया। लेकिन समस्या यह है कि हारिका बहुत ही आडम्बर दिखानेवाली औरत है जबकि समीर एक साधारण किस्म का आदमी। समीर उससे निभ नहीं पा रहा था।
सुप्रिया- उनकी बड़ी बेटी पाँच साल की है तो छोटी की उम्र एक साल है। समीर यह रिश्ता अब भी बर्दाश्त कर रहा है- मात्र इन दोनों बेटियों की वजह से।
फिल्म समाप्त हो गयी। बाद में समीर और हारिका ने अपनी संतान समेत एक फाइवस्टार होटल में भोजन किया। चार लोगों के भोजन के लिए पाँच हजार रूपयों का खर्चा! छोटी ने तो बिलकुल नहीं खाया। एक कौर मुँह में रखके सब कुछ छोड़ दिया। बिल भरते वक्त समीर के दिल में बहुत कम्पन हुआ।
‘‘समीर यह क्या..गाड़ी इस तरफ क्यों ले जा रहे हो?’’ हारिका ने घबराहट भरी आवाज में पूछा।
‘‘अब हम माहिम (मुंबई में एक प्रान्त) की तरफ से जायेंगे।’’ समीर ने दृढ़ता से उत्तर दिया।
‘‘माहिम की तरफ से क्यों? वहाँ से तो फासला बहुत बढ़ जायेगा न? अगर तुम्हारा कोई काम हो तो कल देख लो..बच्चे हैं न हमारे साथ?’’ हारिका ने कहा।
समीर कुछ नहीं बोला। वह कुछ निश्चित ढ़ंग से कॉर चला रहा था। उसकी निस्तब्धता देख, हारिका भी मौन रह गयी। वह सोचने लगी आज समीर ऐसा क्यों है..आज सुबह भी ऑफिस नहीं आया।
कॉर अब माहिम में प्रवेश करके निम्नमध्यवर्गीय जनावासों से जाने लगी। हारिका की समझ में कुछ नहीं आ रहा है। वह प्रांत, वह वातावरण हारिका को बिलकुल अच्छा नहीं लग रहे..लेकिन समीर चुपचाप बैठे ऐसे कॉर चला रहा है, जैसे कि वह उस प्रांत से बहुत परिचित हो।
अब उनकी कॉर एक तंग गली में मुड़कर एक सस्ती किस्म के होटल के सामने जा रूकी।
उस होटल के सामने ठीक दरवाजे पर कुछ फुटपाथ टाइप के लोग बैठे हुए हैं। वे लोग छोटे-मोटे काम करके जीविका चलाने वाले साधारण मज़दूर हैं। दीनता, दरिद्रता, दुःख, लज्जा, अपमान, भूख, अपराध एवं न्यूनता - इन सबको अपने दिलोदिमागों में शतप्रतिशत भरकर मुरझाये हुए मज़दूर हैं।
समीर उन्हीं की ओर देखने लगा। समय मिनटों के रूप में पिघलता जा रहा है।
‘‘समीर.. तुमने गाड़ी यहाँ क्यों रोक दी? यहाँ क्या काम है?’’ हारिका ने गुस्से में पूछा।
समीर ने कॉर की खिड़की खोली। बाहर रखे उसके हाथ में एक सौ का नोट है! वहाँ बैठे हुए लोगों में से एक आदमी दौड़ता हुआ आया और समीर के हाथ का नोट लेकर चला गया। उसके साथ-साथ उसके पास बैठे हुए चारों लोग होटल के अंदर चल दिये।
अब होटल के दरवाजे के सामने लोगों की एक और टोली आकर बैठ गयी। चेहरों में कोई अंतर नहीं...वहीं दीनता। समीर उन्हीं की तरफ ध्यान से देख रहा है।
‘‘समीर..कौन हैं ओ लोग? उन्हें तुमने पैसे क्यों दिये?’’ हारिका ने पूछा।
‘‘ओ लोग कौन हैं- यह मैं भी नहीं जानता। यह चारिटी होटल है। यहाँ बहुत सस्ते में..मतलब सिर्फ दस रूपये में भोजन मिलता है। इतना ही नहीं- इन्हें पैसे मिलने तक होटल के सामने बैठने भी देते हैं इसलिए इन जैसे होटल्स को चारिटी होटल्स कहते हैं। बड़ा मुनाफा तो नहीं मिलेगा..फिर भी माहिम के अंदर ऐसे होटल्स चालीस साल से चल रहे हैं।’’ समीर ने सोचते हुए कहा।
‘‘अच्छा..तो यह है बात! ओ लोग बेग्गर्स हैं। तुमने उन्हें पूरे सौ का नोट कैसे दे दिया...क्या ओ लोग तुम्हें जानते हैं?’’ हारिका के स्वर में कुछ व्यंग्य मिला हुआ है।
‘‘मुझे ही नहीं हारिका..वहाँ बैठे हुए लोगों में से एक भी दूसरे को नहीं जानता। बगल में बैठे आदमी का नाम, उसकी जात, उसका मज़हब, उसका गाँव..कुछ भी नहीं जानता। यह भी नहीं जानता कि बगलवाले आदमी का काम क्या है..उसकी शादी हुई कि नहीं..उसके बाल-बच्चे हैं कि नहीं..वे जानते हैं सिर्फ एक बात- भूख! हारिका..ओ लोग नहीं जानते कि मेहनतकश हाथों को रोज़गारी देने का दायित्व सरकारों का है। लेकिन एक बात उन्हें साफ-साफ मालूम है- यहाँ बैठे हुए आदमी की जेब में फूटी कौड़ी तक नहीं मिलेगी लेकिन पेट भर भूख मिलेगी। अपनी इस हालत का जिम्मेदार कौन है- यह उन्हें मालूम नहीं। शायद इन सबको इसका भान भी नहीं कि अपनी और इन सबकी हालत के पीछे भी कोई कारण हो सकता है। ’’ समीर आवेश में कहे जा रहा है :
‘‘हारिका क्या कहा तुमने? ओ लोग बेग्गर्स हैं? ..तुम गलत हो। उनका पेशा भीख मांगना नहीं है। ओ लोग झख मारकर यहाँ आ बैठते हैं। यहाँ आनेवालों में हर कोई हर रोज नहीं आयेगा। किसी की नौकरी अचानक चली गयी..दिन भर मज़दूरी करने पर भी किसी को पैसा नहीं मिला..हाथ में फूटी कौड़ी तक नहीं .. लेकिन बेचारा पेट यह सब जानता कहाँ? रोज की तरह भूख लगी है! तब ये लोग यहाँ आकर होटल के सामने बैठ जाते हैं और किसी ने कुछ दिया तो एक जून का खाना खा पाते हैं।’’ समीर ने जवाब दिया।
‘‘लेकिन ओ लोग इस तरह होटल के दरवाजे पर ही बैठना क्यों? यह तो बहुत ही भद्दा लगता है!’’
‘‘हारिका..तुम भी कैसी बातें करती हो? अगर इन जैसे लोग अंदर बैठकर खाते तो पैसे कौन देगा? रास्ते से जानेवाले लोग समझेंगे कि सबके पास पैसे है..इसलिए मजे में बैठकर खा रहे हैं। हमारे देश में गरीबी के लिए भी अच्छी-खासी शो केस चाहिए न..ताकि गरीबी का ठीक से प्रदर्शन हो..और खुद को बुद्धिजीवी समझनेवाले लोगों के दिल पिघलें और उनके हाथ जेब में पर्स तक जायें!’’
‘‘तुमने उनको सौ रूपये दिये, ठीक है। लेकिन उनके चेहरों पर तनिक भी आभार दिखायी दिया क्या - बोलो? उसने सौ रूपये ऐसे लिये जैसे कि तुमसे कर्ज वसूल करता हो..देखो, ऐसे लोगों को पैसे देना बेकार है। हमारी दया पर ये लोग ऐश करेंगे।’’ हारिका की आवाज में अब न जाने कैसे..क्रोध मिल गया।
‘‘हारिका..वे लोग हमारे दिये पैसों से ऐश नहीं करेंगे। मैं नहीं समझता कि किसी से भीख माँगकर लिये हुए पैसे से खाया भोजन उनको स्वादिष्ट लगता है। पेट की शरारत कुछ समय के लिए टाली जा सकती..बस..हम उनका उद्धार तो नहीं कर रहे हैं न! मुझे लगता है- यह खाना उनकी बीमारी के इलाज के लिए दी गयी दवा है जो बहुत अस्थायी है। तुम आभार की बात कहती हो न..पहले ही वे लोग अपनी कमजोरियों से झुक गये हैं- तुम अपनी दया से उन्हें और झुकाना चाहती हो? हाँ..एक बात और। इन होटल्स में महिलाओं के लिए प्रवेश नहीं है।’’
‘‘तब तो हम बच गये। नहीं तो तुम मुझे ही नहीं बच्चों को भी इसी होटल में लेकर आते..फिर भी तुमने पैसे दे दिये न, गाड़ी निकालो-अब भाषण क्यों झाड़ते हो?’’ हारिका की आवाज में नारी सहज कोमलता तनिक भी नहीं है।
हारिका को अचानक अपनी बेटियों की याद आयी। उसने पीछे मुड़कर देखा तो बड़ी लड़की सुप्रिया आँखें फाड़कर दरवाजे पर बैठे लोगों की तरफ ही देख रही है। उसे अब सारी बातें समझ में आ रही हैं। उसके मन में भय, वेदना और करूणा जैसे अनेक भाव पैदा होकर उसे झकझोर देने लगे।
‘‘सुप्रिया स्टाप लुकिंग एट दोज़ सिकेनिंग फेज़ेज़!’’ हारिका ने ऊँचे स्वर में बेटी को डाँटा।
समीर ने अब एक और सौ का नोट बाहर किया। एक आदमी तुरंत उसे लेकर होटल में चला गया।
हारिका इसे देखकर चिल्लायी ‘‘समीर.. यह कैसा पागलपन है? क्या तुम क्रेजी हो? तुम्हारा पागलपन मुझे और मेरे बच्चों को भी चढ़ाना चाहते हो क्या? आर यु टेकिंग रिवेंज आन मि?’’
हारिका ने दोनों बेटियों को कॉर से निकालकर रास्ते में जाती टैक्सी में ढ़केल दिया। बेटियाँ ‘‘पापा’’ करके रोने लगीं तो उसने दोनों को चुप करते हुए समीर की ओर देखते हुए कहा ‘‘उसी का बेटा है न.. उसके गुण कहाँ जायेंगे?’’ हारिका की आवाज में अब रोष की मात्रा ज्यादा है।
निस्तब्धता...ठीक ऐसी ही निस्तब्धता...जो कोई हजार टन बम फूटने के बाद, सारी दुनिया श्मशान के रूप में बदल जाने के बाद छाती है। बेटे से बहुत प्यार करके, उसके लिए दिन-रात खून-पसीना एक करके जिस पिता ने पाला-पोसा, उस पिता की चिता को आग लगाने के बाद जो निर्वेद-स्थिति महसूस हुई- समीर अब फिर उस स्थिति को, मायूसी को महसूस करने लगा।
हारिका ग्रुप ऑफ कम्पनीज़ में दो दिन के लिए कम से कम एक आदमी को नौकरी से निकाल दिया जाता है जो कि एक आम बात है। हर डिस्मिसल आर्डर पर समीर को ही हस्ताक्षर करने होते हैं। लोकोक्ति है कि मछली पकड़ने की कला सिखाना, मछली हाथ में देने से अच्छा है। समीर के मन में आया कि वह न मछली पकड़ना सिखा सकता है और न ही मछली पकड़ने का काम दिला सकता है। उसका काम तो बस, मछुआरे के हाथ से जाल छीन लेना है। इसलिए उसने अपनी नौकरी से इस्तीफा दे दिया और वह पत्र हारिका के कमरे में रखकर चला आया। उसने वह पत्र अभी देखा नहीं होगा..पर अब समीर स्पष्ट रूप से जान गया कि क्या करना है।
समीर सोच में पड़ गया- ‘हारिका ने कल क्या कहा? उसी का बेटा हूँ.. और उसके गुण कहाँ जायेंगे..यही न? हाँ..जरूर.. गुण कहाँ जायेंगे’ उसे कल सुबह की घटना फिर से याद आ गयी। उस घटना के बाद ही उसने माहिम जाने का निश्चय किया।
वह कल सुबह एक समाचार ढूँढ़ते हुए पुस्तकालय में से पंद्रह साल पुराना द हिन्दू दैनिक निकालकर पढ़ रहा था। उसमें एक होटल के बारे में दिये गये बयान पर उसकी नज़र गयी।
वह नीचे बैठकर पूरा समाचार पढ़ गया। बयान ने उसके मन को झकझोर दिया। दीनता- दरिद्रता- दुख- लज्जा- अपमान- भूख- अपरोध बोध- असुरक्षा का भाव, ये सब सौ प्रति शत अपने अंदर भरे हुए, दीनता के बोझ से दबकर, मुरझाये हुए उन लोगों के चेहरों की- मानो वह बयान- प्रदर्शनी सी थी।
पृष्ट के बीचवाली जगह में उस होटल के सामने फुटपाथ पर बैठे पाँच भूखे लोगों का फोटो छपा था। दैनिक की कापी बहुत पुरानी पड़ गयी थी और उस पर बहुत धूल जमी हुई थी।
समीर ने फोटो की तरफ ध्यान से देखा।
एक चेहरा देखने के बाद अचानक समीर को लगा कि उसके पैरों तले जमीन फट गयी और वह नीचे पाताल में खिसक गया हो...और ठीक उसके सिर पर बिजली गिर पड़ी हो...
उसके मन में वेदना का भारी विस्फोटन हुआ।
उसका कलेजा समुंदर-सा बन गया।
उसकी आँखें जलप्रपात बन गयीं।
बीच में बैठे आदमी की कलाई में एक कडा..उसके माथे पर रोली का टीका..
समीर के मुँह से उस समय आक्रोश की जो आवाज निकली और उसके दिल में जो वेदना उमड़ी, उसे कोई भी औज़ार माप नहीं सकता। वह आवाज थी-
‘‘पापा...पापा!’’
(इस कहानी में लिखित हंगर केफ कल्पना नहीं, मुंबई के माहिम प्रांत में लगभग चालीस साल से सच-मुच मौजूद हैं। अंग्रेजी दैनिक ‘‘द हिन्दू’’(18-6-2008) में इनके बारे में पढ़कर बैथरूम में जाकर फूट-फूटकर रोया। फिर यह कहानी लिखने का मन हुआ-- लेखक)
अनुवाद : डॉ. दण्डिभोट्ला नागेश्वर राव