शोलापुर (मलयालम कहानी) : बेन्यामिन

Sholapur (Malayalam Story) : Benyamin

तड़के उठकर दरवाजे पर ताला लगाने के बाद वे घर से निकले। सात बजने से पहले सड़क तक पहुँच जाएँ तो शोलापुर जानेवाली पहली बस मिल सकती है। मध्याह्न के पहले पुणे पहुँचने का इरादा था। गोपाल ने ऐसा ही कहा है। एहतियात के तौर पर शोभी ने रोटियाँ और सब्जी पोटली में बाँधकर साथ रख ली थीं। वही शोभी, जिसे चंदामाई ‘पीठ पर धूप की गरमी पड़ने पर भी नहीं उठनेवाली’ को फटकार सुनाती थी, आज खाना बनाने के लिए सुबह चार बजे उठी थी। उसकी थकान या दबावों की बातें चंदामाई के पल्ले नहीं पड़तीं। मुँह फुलाकर हरामखोर आदि गालियाँ देकर फटकार लगाती रहती है।

‘मोबाइल ले लिया न?’ खेत के बीच सूखे नाल को पार करते हुए, अब तक कई दफा दोहरा चुका वह सवाल एक बार फिर शोभी ने हनुमंता से पूछा तो जेब टटोलकर उसने हामी भरी और शोभी आश्वस्त हो गई।

‘जरा होशियार रहना, बस में बारशी के पॉकेटमार होंगे। पता है न, कीमती चीज है।’ शोभी बोली।

‘पता है, मैं नहीं सोऊँगा। सावधान रहूँगा।’ जेब को कसकर पकड़ते हुए हनुमंता ने वादा किया।

योगनिद्रा में उलटे लटकनेवाले चमगादड़ों से भरे पेड़ के नीचे थोड़ी देर उन्हें इंतजार करना पड़ा। इस बीच राम बापू के ढाबे में चाय पीनेवालों की भीड़ लग चुकी थी। दोनों ने मन-ही-मन दुआ माँगी। खुदा करे, उनमें अपनी जान-पहचान वाला कोई न हो। लेकिन तब तक तोते से पत्ता निकलवाकर भविष्य बतानेवाला लाखू बापा उन्हें देख चुका था।

‘सुबह-सुबह कहाँ चले मियाँ-बीबी दोनों?’ उसने पूछा।

‘शोलापुर, कुछ कपड़े खरीदने हैं।’ हनुमंता की जबान से यही झूठ निकला।

‘दुर्दिन में कपड़े? क्या तेरी लॉटरी लगी है? या किसी का काला धन हाथ लगा है?’

हनुमंता को इस सवाल का जवाब नहीं देना पड़ा। तभी धूल उड़ाती हुई बस आ पहुँची और एक-दूसरे को उस दृश्य से ओझल कर दिया।

बस में ज्यादा भीड़ नहीं थी। बैठने के लिए जगह मिली। हनुमंता बाहर के दृश्यों को देखकर बैठा रहा। सूखे खेतों के ऊपर भय की चादर की तरह कुहरा छा गया था। पहले इन खेतों में गेहूँ और दाल की खूब खेती होती थी। इन्हीं खेतों में हनुमंता और शोभी साल भर काम करती थी। जो उनकी हँसी-खुशी और हर्ष का जरिया था। अपनी खुशियों का गला दबा देनेवाले अकाल का दृश्य देखकर हनुमंता ने आह भर ली।

‘ठीक से ओढ़ ले, कहीं ठंड न लगे।’ शोभी ने अपनी ओढ़नी हनुमंता को दी।

‘न, मैंने अपने कान ढक लिए हैं।’ हनुमंता ने सिरबंद को कानों के ऊपर खींच लिया।

बस ने रफ्तार पकड़ी और हवा तेज हो गई तो हनुमंता ने मोबाइल को छाती से लगाकर यों पकड़ा, मानो कागज के टुकड़े की तरह वह उड़ जाएगा।

‘वह ऑफ है न?’ शोभी ने फिर एक बार सवाल किया। वह डरती थी कि कहीं चार्ज खत्म न हो जाए। उनके घर में बिजली नहीं थी। पास-पड़ोस में भी नहीं। गाँव की मंडी के पास प्रह्लाद के बारबर शॉप में ले जाकर चार्ज करना पड़ता था और इसके लिए वह दस रुपए चार्ज करता था। तकलीफ की उस दूरी का दाम शोभी को अच्छी तरह मालूम है।

पिछली बार गाँव आया तो गोपाल ने वह फोन उन्हें दिया था।

‘पैसा किश्तों में देना। तुम्हारे जैसे लोेगों को नए युग की ओर कदम रखते देखकर लगता है डिजिटल इंडियावाला सपना पूरे होने में अब देर नहीं लगेगी।’ उसने कहा था।

‘लेकिन इसमें फोटो खींचना मुझे आता नहीं है, गोपालजी।’ हनुमंता ने अपनी विवशता जताई थी।

‘हनुमंता, तू साइकिल चलाना जानता है, ट्रैक्टर चलाना जानता है, खेत में पानी भरनेवाला मोटर पंप चलाना जानता है, फिर मोबाइल क्या चीज है? दो घंटे में मैं तुझे इसका मास्टर बनाता हूँ, देख लेना।’ उसने कहा था। मोबाइल का तकनीक हनुमंता ने बड़ी आसानी से सीख लिया। वही मोबाइल आज पंख न उगे चकुले की तरह उसकी जेब में दुबका पड़ा है।

शोलापुर में उन्हें देर तक इंतजार करना पड़ा। पुणे को जानेवाली जितनी बसें आईं, सबकी सब ज्यादा किरायावाली ए.सी. बसें थीं। टिकट का दाम सुनकर हनुमंता ने सोचा कि अकेले आना अच्छा था।

‘वह कैसे? पाटील ने मुझे भी देखने की बात की है न? जाने दो। लौटते वक्त हमारी जेब मोटी होगी और हम ए.सी. बस में आराम से लौटेंगे।’ शोभी ने हनुमंता को सांत्वना दी।

आखिर उन्हें कम दामवाली साधारण बस मिली, जो धीमी चाल से जाती थी और हर स्टॉप पर रुकती थी।

‘क्या पता, जानी ने कुछ खाया होगा या नहीं!’ बस में बैठकर शोभी ने आशंका प्रकट की।

‘माँ सिर्फ तुम पर गुस्सा करती है। बिटिया को वह चाहती है।’ हनुमंता ने हाथ पकड़कर शोभी को राहत दिलाई।

बिटिया को सासू माँ के पास छोड़ आना शोभी को पसंद नहीं था। लेकिन और कोई चारा भी नहीं था। क्या पता, आज लौट पाएँगे या नहीं? काम हो जाने पर भी देर रात होने का डर है। इसलिए बेटी को चार कदम पर रहती माँ के पास छोड़ आने को हनुमंता विवश हो गया था। जिस दिन हनुमंता शोभी को घर ले आया, उसी दिन से माँ नाराज है। बीज खरीदने और फसल बेचने के लिए हनुमंता चपल गाँव की मंडी में जाता था। शोभी की माँ उस मंडी में झाड़ू-बुहार का काम करती थी। मंडी साफ करने के लिए माँ के साथ शोभी भी आया करती थी। हनुमंता ने वहीं शोभी को पसंद कर लिया था। माँ के विचार में बुहारू लोग ‘जाति में अपने नीचे’ हैं। माँ उन्हें ‘आवारा कुत्तों की जाति’ कहती है।

‘ऐसा कौन है माँ, जो हमसे भी नीचे है?’ हनुमंता पूछता था।

‘अरे अक्ल के अंधे, हमारी जाति की पंद्रह उपजातियाँ हैं। उनमें वे लोग सबसे निचले तबके के हैं। उनसे शादी करके हमारी क्या इज्जत रह जाएगी?’ चंदामाई रो पड़ी थी, पर हनुमंता ने नहीं माना। उसने शोभी से शादी की, अपना अलग घर बसाया, दो बच्चे हुए, कई साल बीते, मगर चंदामाई का गुस्सा नहीं उतरा। उसी माँ के पास बेटी को छोड़ आए हैं। शोभी इसी वजह से परेशान हो रही है।

‘अरे हनुमंता, बेटी को दादी माँ के पास क्यों ले जाता रे? कहीं जोरू के साथ आत्महत्या करने का इरादा तो नहीं?’ गली में बच्चों के साथ खेलते मिस्त्री भींशा ने पूछा था।

‘अभी नहीं भींशा। समय आने पर बताऊँगा। टी.वी. वालों को जरूर ले आना।’ शोभी ने ईंट का जवाब पत्थर से दिया।

‘अकाल यों जारी रहा तो सबका समय जल्दी आएगा।’ भींशा ने स्वागत किया।

निश्चित समय पर वे पुणे नहीं पहुँच सके। बस अड्डे पर उतरने के बाद मोबाइल ऑन करके हनुमंता ने गोपाल को बुलाया। गोपाल ने उन्हें जी भर गाली दी।

‘क्या तू सोचता है कि पाटील साब दो छछूँदरों के लिए पूरा दिन इंतजार करेगा? चंदामाई तुम्हें यों ही गाली नहीं देती। इसीलिए तुम लोग कभी जीवन में आगे नहीं बढ़ सकते।’ गोपाल ने जो जी में आया, उसे सुनाया और उसने सब चुपचाप सुन लिया। आखिर ‘मैं अभी पहुँचता हूँ’ कहते हुए फोन बंद कर दिया।

थोड़ी देर बाद गोपाल बस अड्डे पर पहुँचा और दोनों को ऑटोरिक्शा में बिठाकर पाटील की दुकान पर ले गया। पाटील तीस के करीब उम्रवाला नौजवान था। मगर उसमें चालीस की धृष्टता, पचास की चालाकी और साठ का सयानापन था।

‘पाटीलजी, मैंने इन्हीं लोगों के बारे में कहा था।’ गोपाल ने उनका परिचय दिया।

‘ऊपर जाके बैठ। मैं आता हूँ।’ पाटील ने गंभीरता ओढ़कर उन्हें दुकान की छत पर भेजा। दोनों को बड़ी भूख लगी थी। पोटली खोलकर रोटी खाई।

‘मैं जरा देखूँ?’ उन्हें पीने के लिए पानी देने के बाद गोपाल ने मोबाइल के लिए हाथ बढ़ाया।

‘नहीं गोपालजी, हमें शर्म आती है।’ हनुमंता ने जेब को कसकर पकड़ा।

‘नहीं भैया, अपने गाँव का कोई देख ले, तौहीन की बात है न? इसीलिए हम इतनी दूर सफर करके पुणे आए। वरना हम शोलापुर में ही कहीं बेच देते।’ शोभी ने हनुमंता का समर्थन किया।

उसकी बेवकूफी पर यद्यपि गोपाल को हँसी आई, पर उसने अपनी हँसी को चेहरे पर प्रकट होने नहीं दिया।

‘मुझसे क्या शरमाना, हनुमंता? पाटील साब से मनुहार करके चार रुपए ज्यादा दिलवाने के लिए मेरा देखना जरूरी है न?’ इस सवाल के आगे हनुमंता की पकड़ ढीली हो गई। झिझकते हुए उसने मोबाइल गोपाल को दिया। शोभी ने अपना चेहरा रोटी की ओर झुका दिया।

तीन महीने पहले एक शाम को राम बापू के ढाबे में बैठकर हनुमंता धुआँ पी रहा था। पास आकर बैठते हुए गोपाल ने अपने मोबाइल की कुछ गुप्त तसवीरें उसे दिखा दीं। गोपाल गाँव का एकमात्र पुलिसवाला चंदूलाल का बेटा है। गाँववालों में एक वही सबसे ज्यादा पढ़ा-लिखा है। पुणे में जाने क्या-क्या बिजनेस चलाता है। हरदम उससे तंबाकू की बू निकलती है। कभी-कभार ही गाँव में आता है और कुछ दिन ठहरकर चला जाता है। ऐसा ही एक दिन था। तसवीरें देखकर हनुमंता दंग रह गया। उसने सुना था कि ऐसी तसवीरें देखने को मिलती हैं, मगर अब तक देखी नहीं थीं। गोपाल ने कुछ वीडियो दृश्य भी दिखा दिए।

‘ये सब कहाँ से मिलते हैं, गोपालजी?’ डर के मारे हनुमंता का मुँह खुला का खुला रह गया।

‘इंटरनेट में ये सब सलभ है रे! लेकिन यों गोरी-चिट्टी औरतों में आज ज्यादा दिलचस्पी नहीं। हम जैसे ठेठ गँवारों की माँग ज्यादा है। पता है, कितने रुपए मिलते हैं? पूरी जिंदगी खेत में मर-मिटने से जितना मिलता है, उतना एक तसवीर के लिए मिलेगा। धन कमाने की जिनकी चाह है, उनकी मदद के लिए मैं तो हूँ ही। लेकिन हिम्मत होनी चाहिए।’ गोपाल ने स्वगत किया। हनुमंता इसे अनसुना करके, बिना जवाब दिए चाय पीकर उठा।

रात को उसे नींद नहीं आई। शोभी ने सोचा कि सब्जी खरीदने के लिए पैसा न होने के नाम पर हुए झगड़े की वजह से पति परेशान है। शोभी जानती थी कि जरा-जरा सी बात पर बेचैन होना हनुमंता की आदत है। इसलिए पति की छाती पर सिर रखकर उसने भरसक क्षमा माँगी और उसे सांत्वना भी देती रही। तभी हनुमंता ने गोपाल के मोबाइल पर देखी तसवीरों और वीडियो दृश्यों के बारे में शोभी को अवगत कराया। अपनी तसवीर देने को तैयार होनेवालों को मिलनेवाली मोटी रकम के बारे में भी बात बताई। उस रात शोभी भी नहीं सो सकी।

‘कैमरावाला मोबाइल मेरे लिए खरीद लाना।’ सप्ताह के आखिर में पुणे जाने के लिए बस के इंतजार में खड़े गोपाल से हनुमंता ने कहा। शोभी सलोनी है, हलकी मुसकान के साथ गोपाल ने उसे देखा। उसने सिर झुकाया। वह जेब से पैसा निकालने लगा तो गोपाल ने मना किया कि बाद में ले लेगा।

‘बढि़या! पाटील को पसंद आएगा, शर्तिया।’ मोबाइल की तसवीरें और वीडियो देखने के बाद कनखियों से शोभी को देखते हुए गोपाल ने उत्साह के साथ राय दी। शोभी ने साड़ी के पल्लू से तन को पूरा ढक लिया।

थोड़ी देर बाद पाटील सीढि़याँ चढ़कर ऊपर आया। दोनों ने उठकर हाथ जोड़े। ‘तुम दोनों ही अभिनेता हो न?’ सवाल समझ में न आने पर भी हनुमंता ने ‘हाँ’ में सिर हिलाया। पाटील ने साड़ी हटाकर शोभी को सिर से पैर तक आँका।

‘हाँ, नाक-नक्शा ठीक है। पास मार्क दिया जा सकता है। है न गोपाल?’ सौंदर्य-प्रतियोगिता के जज की तरह पाटील ने गोपाल के कानों में फुसफुसाया। वह पाटील से सहमत हो गया।

‘वीडियो के अभिनेताओं की सच्चाई जानने के लिए ही साक्षात्कार के लिए बुलाया। दूसरों के कमरों में कैमरा छिपाकर वीडियो बनानेवाले चालबाज भी बहुत हैं। आखिर पकड़ा गया तो अपलोड करनेवाले हम ही फँसेंगे।’ पाटील ने हवा में बात छेड़ी।

‘खैर, तुम्हारावाला देख लेता हूँ।’ हनुमंता ने विनय के साथ मोबाइल पाटील के हाथ में थमा दिया।

‘इसी में लिया था क्या? हो सकता है तसवीरें साफ नहीं हों। वे लोग एच.डी. माँगते हैं। कम-से-कम दस एम.पी. जरूरी है। वरना स्वीकार नहीं होगा।’

हनुमंता ने कुछ नहीं समझा। बस अनुमान लगाया कि कोई गड़बड़ जरूर है।

पाटील गैलरी खोलकर तसवीरें और वीडियो देखने लगा।

‘मैंने कहा न गोपाल, तसवीरें साफ नहीं। मानो किसी काली गुफा में खींची गई हों। देखो गोपाल, यह आदमी सरकस के बूढ़े भालू की तरह ऊपर बैठकर कैसे हाँफ रहा है। कोई कॉमेड़ी वाला ही इसे खरीदेगा। यह देखो, किसी ने डरते-डरते खींचा हो जैसे देखो कैमरा कैसे काँप रहा है।’ वीडियो और तसवीरों को देखकर पाटील उनकी आलोचना करने लगा।

‘देखो गोपाल, यह औरत बार-बार कैमरे की ओर देखती है। यद्यपि स्वेच्छा से ली गई है, यह जताना जरूरी है कि गुप्त कैमरे से ली गई है। अरे! यह क्या? औरत के पेट पर कोई बदनुमा दाग! मानो किसी ने खंजर मारा है? मक्कार, क्या तू सोचता है कि कोई इज्जतदार मर्द इस वीडियो का मजा उठा सकेगा?’ पाटील ने कु्रद्ध नजरों से हनुमंता को देखा। हनुमंता का सिर झुक गया।

‘हमने अपने गुरदे बेच दिए थे साब, उसी का निशान है।’ शोभी ने कहा, ‘तीन साल पहले तीन लाख देने का वादा करके एक एजेंट हमें ले गया। लेकिन काम हो जाने के बाद तीस हजार देकर विदा किया। हमारा बेटे शंभू को कैंसर हो गया था। हमने उस पैसे से उसे बचाने की बेकार कोशिश की। गुरदा, बेटा और पैसा तीनों ही नष्ट हो गए और यह बदसूरत दाग बाकी रह गया।’ वह चेहरा ढाँपकर रो पड़ी।

‘कर्ज बढ़ता जा रहा है, साब। इस अकाल में हम कैसे उतारेंगे अपना कर्ज। यह काम अपनी मर्जी से नहीं किया, साब।’ हनुमंता रो पड़ा। मगर पाटील का दिल नहीं पसीजा।

‘नहीं चाहिए, ले जा। शहर की कमसिन छोकरियों की बाथरूम सेल्फियों की कोई कमी नहीं।’ पाटील बिगड़ता हुआ चला गया।

‘गोपालजी, हमारी मदद कीजिए।’ हनुमंता दौड़कर गोपाल के पैरों पर गिरा।

‘पाटील साब ने सच कहा। यह किसने शूट किया। मुझसे कहा होता, मैं ठीक से कर देता। तसवीरें साफ नहीं हैं। खैर, मैं एक बार फिर कोशिश करता हूँ।’ गोपाल पाटील के पीछे दौड़ा।

‘उन्हें कुछ तो दे दीजिए साब, इतनी दूर से जो आए।’

पाटील ने आँख मारकर इशारा किया, ‘चीज बढि़या है। तुम चालाकी से मोबाइल ले लो और नाम के वास्ते कुछ रुपए देकर बिदा कर दो। तुमसे मैं बाद में मिलूँगा।’

गोपाल उनके पास पहुँचा। ‘पाटील साब को बिल्कुल पसंद नहीं आई। मोबाइल वापस कर दो। उसका दाम नहीं लूँगा। इतनी दूर आए न? बस का किराया मैं दिलवा दूँगा बस।’

मोबाइल लेकर गोपाल सीढि़याँ उतर गया। हनुमंता और शोभी ने आँसू पोंछते हुए उसका पीछा किया।

‘गोपालजी, मोबाइल की तसवीरें?’ सीढि़यों पर हनुमंता ने संदेह प्रकट किया।

‘उसकी चिंता मत करो। मैं डिलीट कर दूँगा।’ दोनों ने उस पर यकीन किया।

नीचे पहुँचने पर पाटील ने सौ के पाँच मैले-कुचैले नोट हनुमंता केहाथ में रख दिए।

‘गोपाल ने कहा, इसीलिए देता हूँ। लो, यह मोबाइल भी रख लो। इसमें बढि़या तसवीरें उतरती हैं। अकाल के खेत की तरह खुश्क तुम जैसों की तसवीरें नहीं, पास-पड़ोस की झोंपडि़यों की कमसिन छोकरियों की गुप्त तसवीरें ले आना। कर्ज चुकाने के लिए मुट्ठी भर रकम दूँगा।’ हनुमंता ने चुचचाप मोबाइल लेकर जेब में रखा।

वापसी की बस जल्दी मिली। अँधेरे खेतों की तरफ देखकर बैठे हनुमंता के मन में जब-जब बेटी की तसवीर उभरती, आँखों में पानी भर आता था। शोभी की आँखों में भी आँसू थे।

(अनुवाद : पी.के. राधामणी)

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