शिक्षा के आदर्शों में परिवर्तन : चंद्रधर शर्मा गुलेरी
Shiksha Ke Adarshon Mein Parivartan : Chandradhar Sharma Guleri
पहले यह माना जाता था कि विद्या कोई बाहरी चीज़ है जिसे गुरु पढ़नेवाले के हृदय में घुसेड़ता है। पढ़नेवाले का हृदय कोरा काग़ज़ है और उस पर गुरु नए अक्षर और नए संस्कार अंकित करता है। उसके ख़ाली मस्तिष्क में या पोल मन में कोई बहुमूल्य पदार्थ बाहर से भरा जाता है जैसा कि रहीम ने एक सुंदर उपमा से कहा है :
रहिमन विद्या पढ़न में, बालक झोंका खाय ।
तन घट अरु विद्या रतन, भरत हिलाय हिलाय ।।
अथवा जैसा वैदिक-काल की एक पुरानी गाथा कहती है :
यथा खनन् खनित्रेण नरो वार्यधिगच्छति ।
एवं गुरुगतां विद्यां शुश्रूषुरधिगच्छति ।।
(जैसे कुदाली से खोदते-खोदते आदमी को पानी मिल जाता है वैसे सेवा करने वाले को गुरु में से विद्या मिलती है)।
पर आदर्श अब बदल गया है। विद्या कोई बाहरी चीज़ नहीं है जो गुरु को बाहर से ठूँसकर भरनी पड़ती है। गुरु का काम शिष्य के हृदय की सोती हुई शक्तियों को जगाना है, उसके सहज और परंपरागत संस्कारों को चिताना है। पीढ़ियों से पशुत्व और मनुष्यत्व के जो भाव उसके मस्तिष्क में हैं उन्हें उत्तेजित करना, उनमें जो हानिकारक हों उन्हें मिटाना और जो अच्छे हों उन्हें प्रबल कर देना – ये गुरु का काम है। गुरु धोबी के गधे को जौनपुर का क़ाज़ी नहीं बना सकता। कथा के अनुसार वह फिर रस्सी देखकर दौड़ा चला जावेगा। गुरु बाहर से कुछ नहीं डालता, भीतर के अचेतन बलों को चमका देता है। गुरु का काम जिला करनेवाले का या रत्नों को घिसनेवाले का है, नई वस्तु गढ़नेवाले का नहीं। भवभूति इस सत्य को कुछ-कुछ कह गया है :
वितरति गुरु प्राज्ञे विद्यां तथैव, तथा जडे
न च खलु तयोर्ज्ञाने शक्तिं करोत्यपहन्ति वा।
भवति च त्तयोर्भूर्यान् ‘भेद:’ फलं प्रति तद्यथा,
प्रभवति शुचिर्विंबोद्ग्राहे मृणिर्न मृदां चय: ।।
जिसकी आँखों पर पट्टी बंधी हो, उसे जैसे सड़क की लीक पर छोड़ दिया और यह कह दिया कि इधर दाहिने हाथ जाना और उधर बाएँ हाथ, और उपनिषदों की भाषा में, वह ‘पंडित मेधावी गांधार देश पहुँच जाएगा।’ वैसे ही गुरु मार्ग दिखा सकता है, अज्ञान तिमिरांध की आँखें वह ज्ञानंजन शलाका से खोल सकता है, जनमांध को वह आँख नहीं दे सकता। विद्यार्थी अनगढ़ लकड़ी के कुंदे नहीं होते, वे पशु होते हैं, मनुष्य होते हैं। प्रकृति उन्हें शिक्षा दे रही है। गुरु का काम केवल प्रकृति की सहायता करना है, बल्कि बालक निचले नहीं बैठ सकते। जो गुरु उन्हें चित्र की तरह नि:स्पंद बिठाकर स्थिरोपवेश बनाना चाहता है, वह बड़ी भूल करता है। वह प्रकृति की चलती चक्की में कंकर डालता है, प्रवृत्ति के स्वाभाविक रस के स्रोत को सुखाता है। चतुर गुरु वह है जो उनकी इस प्रवृत्ति को उचित मार्ग में जोतकर वनस्पति-विज्ञान, पदार्थ-परिचय और सहयोगिता की शिक्षा देता है। पहले यह माना जाता था कि सीखनेवाले सिखाया जाना नहीं चाहते। रीते मुँह पाठशाला में जाते हैं और छूटते ही तीर की तरह भागते हैं। खेलना वे चाहते हैं। पढ़ना नहीं। खेलने से ख़राब होने की धमकी और पढ़ने से नवाब होने की प्रलोभन कहावतों में उनकी आँखों के सामने नचाई जाती थी। अब यह सब बदल गया है। खेलना बड़ी भारी शिक्षा है। जितने मनुष्यत्व के अंग खेल में और खुले में सीखे जाते हैं उतने गुरु जी की तंग कोठरी में पट्टी और खड़िया से नहीं। एक बात में पहले पंडित बनाने का यत्न किया जाता था, अब मनुष्य बनाने का यत्न आदर्श माना जाता है। यह दूसरी बात है कि आजकल की शिक्षा में कुछ दोष बिना बुलाए आ घुसते हैं, जैसे पहले की शिक्षा में गुण अकस्मात् आ जाते थे। यहाँ केवल आदर्शों का विचार है, व्यावहारिक गुण-दोष का नहीं। यही दावा है कि नई आदर्श प्रणाली जैसी चाहिए वैसी यहाँ चल रही है। प्रत्युत शिक्षा प्रणाली में यह देश बड़ी असमंजस में पड़ा हुआ है। न पुरानी चाल के अच्छे ढंग ही रहे हैं और न नई के गुण अभी चल सके हैं। इस लेख में केवल सिद्धांतों का विचार है।
विद्यार्थी पात्र (बरतन) माना जाता था। पर कुछ खेदनेवाले का-सा परिश्रम करने की उससे आशा की जाती थी। ऊपर की वैदिक भाषा में शुश्रूषु पर ध्यान दीजिए। जिस समाज में गुरु कुछ वेतन नहीं पाते थे, जहाँ विद्या का बेचना पाप था, वहाँ सेवा में शिष्यों को जोतना अर्थशास्त्र के अनुसार था। गुरु शिष्य के मन को सुधारने में जो श्रम करता था उसका विनिमय (क्योंकि बदला अवश्य चाहिए, चाहे माहवारी तनख़्वाह हो, चाहे खेती की रखवाली और चाहे समावर्तन के पीछे गुरुदक्षिणा की आशा) छात्रों की मेहनत से हो जाता था। संस्कृत का इतिहास इस सेवा के कितने ही उल्लेखों से भरा पड़ा है। कहीं गुरु बरसते पानी में शिष्य को अपनी बह जानेवाली खेत की मेंड बना देता है, कहीं वह चार सौ दुर्बल गाएँ सौंपकर उसे कहता है कि उन्हें बिना हज़ार किए जंगल से मत लौटना, कहीं अपने वीर शिष्यों के द्वारा अपने पराजय का बदला किसी अभिमानी राजा से निकालना चाहता है और गुरूपत्नियाँ कहीं अपनी भूषणप्रियता से राजमहिषी के कुंडल मंगवाती हैं, विद्यार्थियों को गौओं का दूध पीना तो दूर रहा, बछड़ों के मुँह पर लगा हुआ पीने से रोकती हैं, कहीं रगड़कर इतनी मज़दूरी लेती हैं कि विद्यार्थी पढ़ने को प्रणाम करके हिमालय में तपस्या करने चला जाता है और शिव जी को प्रसन्न करके जगत् भर से कहलाता है कि हता: पापिनिना वयम्। हमें पापिनी ने मार डाला। और विद्यार्थी पंडित होकर किस प्रकार उस अपनी कठोर सेवा को प्रेम से याद करते हैं। मुरारि ‘गुरुकुल क्लिष्ट’ होने का अभिमान करता है और श्रीहर्ष अपनी कविता की गाँठें श्रद्धा से गुरुसेवा करनेवालों से खुलवाने की आशा करता है। पर इतना पानी भरने और लकड़ियाँ ढोने पर भी जिसे कुछ आ गया, उसे आ गया, गुरु का कुछ दायित्व नहीं। अब सारा परिश्रम गुरु के सिर पर है। यदि विद्यार्थी न समझे तो उसका दोष है, समझाने का ढंग नहीं आता। वह बालक-मनोविज्ञान से अजान है। उसे प्रत्येक बालक के इतिहास से, उसके वंशगत विचारों से, उसकी रुचियों से, जानकार होना चाहिए, जिससे वह उनका सुधार कर सके।
यह सम्भव नहीं कि हर किसी को हर पढ़ा ले। तभी तो कहा गया है कि ‘मातृमान्’, ‘पितृमान्’, ‘आचार्यमान्’ ‘पुरुषो वेद’ – जिसे माता, पिता और पीछे आचार्य सिखावे, वही सीख सकता है। इसी से तो कहा गया है कि पितैबोधनयेत् पुत्रम् पिता ही पुत्र को सिखावे। जितनी बालक की प्रवृत्तियों की जानकारी माता को और उसके पीछे पिता को होती है, उतनी बाहर के किसको हो सकती है! परंतु सभ्यता के कारण काम करने की शक्ति इतनी बिखर जाती है कि प्रत्येक पिता अपने पुत्र को नहीं पढ़ा सकता और यह श्रम-विभाग का भी एक उदाहरण है कि सिखाने वालों का एक समूह पृथक बन जाए। पुराने लोग अपने खेत में अन्न उपजाकर अपने लिए आप ही कपड़ा बुनते और लकड़ी काटने के लिए आप ही कुल्हाड़ी बनाकर चौंकियाँ बना लेते हों, पर अब किसान और जुलाहा, लोहार और खाती का काम न्यारा-न्यारा है। पर पढ़ाने के काम में इतनी छीछालेदर है जितनी किसी में नहीं। रोगी अपनी चिकित्सा आप नहीं करता, न वह चाहता है कि मेरे पुत्र की चिकित्सा अनाड़ी डॉक्टर करे। अपना रुपया हम ऐसे कोठीवाले के यहाँ रखना नहीं चाहते, जो धन विनियोग के सिद्धांतों को न जानता हो। अपना मुक़दमा हम स्वयं कचहरी में नहीं ले जाते और न ऐसे वक़ील को सौंपते हैं जो पैरवी न कर सकता हो। पर अपने बालकों की शिक्षा का भार हम या तो स्वयं उठाने का बहाना करते हैं या ऐसे लोगों को सौंपते हैं जो डॉक्टर या वक़ील या कुछ और बनने में अयोग्य सिद्ध होकर लड़के पढ़ाना प्रारम्भ करते हैं। जो और पेशों में सफलता नहीं पा सकते हैं उनके लिए मास्टरी का द्वार खुला है, आफिसों के क्लर्क अपने क़लम रगड़ने से फ़ुरसत के समय को लड़के पढ़ाने में लगाना चाहते हैं और यह एक साधारण उक्ति है कि और रोज़गार नहीं हुआ तो चार लड़के पढ़ाकर गुज़ारा करेंगे। शाहजहाँ ने भी अपनी क़ैद के दिनों में अपने सुपुत्र औरंगज़ेब से समय काटने के लिए पढ़ाने को लड़के माँगे थे।
विश्वविद्यालय के नए उपाधिकारियों को गुरु बनाना, नाई का हाथ जम जाय इसलिए अपना सिर छिलवाना है। यों रटाई होती है, पढ़ाई नहीं। पढ़ाना भी एक कला है जिसे पूरी तरह न जाननेवाला निभा नहीं सकता। यों तो सिखाना कविता की तरह ईश्वर की देन है, सौ-सौ ट्रेनिंग स्कूलों में धक्के खाने पर भी वह योग्यता नहीं हो सकती जो ‘जन्म के गुरु’ को होती है, पर आजकल पढ़ाना भी पढ़ना चाहिए। पढ़ाने की परीक्षा होती है। समझाने का विज्ञान जानना पड़ता है। अच्छे पढ़ानेवालों का ढंग सीखना होता है। बालक-मनोविज्ञान समझना होता है। विकासवाद के तत्त्व टटोलने पड़ते हैं। समाजशास्त्र और प्राणिशास्त्र, ज्ञानतंतुशास्त्र और आचारशास्त्र का मनन करना होता है। यह कोई आवश्यक बात नहीं कि अच्छा विद्वान अच्छा अध्यापक हो। कभी-कभी इसके बिलकुल विपरीत होता है। विद्वान् अपने को बालकों की बुद्धि के पलड़े पर नहीं बिठा सकता, वह चौमंज़िले से खड़ा-खड़ा बालकों के क्षितिज के ऊपर देख सकता है। बालक छोटी-सी झड़बेरी के फल तोड़ सकते हैं, ऊँचे आम के नहीं।
‘मारना’ गुरुओं का एक अमोघ शस्त्र है। जो बात समझाने से किसी शिष्य के मन में न बैठे, मारकर बिठाई जाए। हज़रत सुलेमान कह गए हैं कि ‘लाठी को बचाओ और बालक को बिगाड़ो।’ मनुस्मृति में शिष्य और पुत्र के मारने की मनाही नहीं है और भाष्यकार पतंजलि खंडिकोपाध्याय की चपेटिकाओं को जगह-जगह याद करके एक पुराने श्लोक को उद्धृत करते हैं जिसके अनुसार चोर, क्रुद्ध, गुरु और भयदायक पड़ोस से दूर रहने में ही भलाई कही गई है :
दूरादावसथान्मूत्रं दूरात्पादावसेचनम् ।
दूराच्च भाव्यं दस्युभ्यो दूराच्च कुपितोद्गुरौ: ।।
एक और स्थान पर उन्होंने गुरु के हाथों को अमृतमय कहा है, परंतु ताड़न में गुण और लाड़ लड़ाने में दोष समझने की पुरानी कहावत है :
सामृतै: पाणिर्भिन्ति गुरुवो न विषोक्षितैः ।
लालनाश्रयिणो दोषासतडनाश्रयिणो गुणा: ।।
‘जोशी की चोट और विद्या की पोट’ वाली कहावत के बल पर गुरु की ‘मूरख समझावनी’ राजदंड से भी बढ़कर चला करती थी। वर्तमान शिक्षा-विज्ञान ने यह प्रतिमा भी तोड़ दी है। आजकल बालक को मारना एक कायरपन है, जिसका सहारा यह जानकर कि बालक लट्ठ नहीं मार सकता, केवल कापुरुष ही लेते हैं। आचरण सम्बंधी अपराधों में शासन के लिए मारने की उपयोगिता मानी गई है, पर वह भी भय उपजाने के लिए और दंड की बुद्धि से पीड़ा पहुँचाने और बदला लेने की नीयत से नहीं। अधिक मार से बालक निर्लज्ज हो जाते हैं और बुद्धि के दोषों, न समझने और न याद रखने आदि पर शारीरिक दंड का प्रयोग अनुचित है। गुरु की आँख का दंड, साथियों के सामने हँसे जाने का दंड और गुरु प्रसाद का पुरस्कार अब इस प्राचीन प्रथा को निर्दय और अनावश्यक सिद्ध करने जाते हैं।
यह कहा जा चुका है कि पहले पंडित बनाने का यत्न किया जाता था, अब मनुष्य बनाने का। पहले भाषा के जानने पर अनावश्यक ज़ोर दिया जाता था, अब विषयों पर ध्यान है। लैटिन या ग्रीक, या संस्कृत का कोश और व्याकरण की रटाई के भरोसे पढ़ना विद्या की सीमा थी। कितने वर्ष व्यर्थ इस अलूनी सिला को चाटने में बीतते थे। अब भाषा पढ़ाई जाती है तो वह ज्ञान का लक्ष्य नहीं मानी जाती, ज्ञान का साधन मानी जाती है। भाषा ‘भाषा’ की तरह कान और मुख को सिखाई जाती है, तोते की तरह स्मृति को नहीं। न अधिकारी और अनधिकारी का भेद था। उदार शिक्षा और विशिष्ट अभ्यास में कोई अंतर नहीं किया जाता था। संस्कृत भाषा को भाषा समझकर नहीं पढ़ा जाता था, परंतु प्रत्येक मनुष्य ही नागोजी भट्ट के लच्छेदार परिष्कारों में उलझकर रात बिताकर फिर सवेरे जहाँ से चला वहीं लंघाई के भाड़े की कुटिया पर खड़ा मिलता था। तभी तो ज्ञानी पश्चाताप करते थे कि काल के आने पर ‘डुकृज करणें’ नहीं बचाता। जो समय शब्दों में बीतता था, वह भावों में लगाया जाता है। गणित, पदार्थ-विज्ञान, रसायन आदि की शिक्षा मनुष्यों में क्यों और कैसे के प्रश्नों को नित्य जगाती जाती है। पहले जो आचार्य ने लिखा है वह बिना समझे ही मानना होता था, पीछे वर्षों के श्रम के बाद चाहे समझ में आवे, चाहे न आवे। अब गणित के नियम सूत्र या गुर से नहीं सिखाए जाते, पचास सवाल करके स्वयं गुर या सूत्र निकालने के लिए शिष्य तैयार किया जाता है। स्मृति को अनावश्यक बोझ से लादा नहीं जाता, परंतु उसे जागती हुई समझ का जेबी बटुआ बनाया जाता है। इतिहास केवल तारीख़ों की कड़ी या राजाओं की नामावली नहीं रहा है, वह मनुष्य के व्यवहारों के अनिष्फल परिणामों का अनुशीलन है। भूगोल केवल नदियों और शहरों की सूची नहीं है, वह जल, स्थल और ऋतुओं के परिवर्तन और बस्ती के बदलने के कारणों की खोज है। एक बात में पहले हम छात्रावास में मुँह में भरी हुई घास की जन्म-भर जुगाली करते थे, अब काम की चीज़ों को चुन सकने और ले सकने के लिए तैयार कर दिए जाते हैं। अपनी खोज से पाया हुआ एक आलू दूसरे के दिए हुए ज़मींकंद से अच्छा है – इस सिद्धांत के लिए छात्र तैयार किए जाते हैं। गुरु का काम साधारण और उदार शिक्षा से मन का मैल धो देना है, पीछे खोजी अपने आप जैसा रंग चाहे वैसा चढ़ा ले।
पहले जल्दी बहुत की जाती थी। आठ वर्ष की नियत अवस्था तक जिसे ब्रह्मचर्य पा सकने की प्रतीक्षा न थी उसका उपनयन पाँच वर्ष की ही उमर में किया जा सकता था। पतंजलि ने आह भरकर कहा है कि वेदमधीत्यव्वरिता: प्रवक्तारो भवंति और मध्य समय के यूरोप के विश्वविद्यालयों में जितनी छोटी उमर में डॉक्टर की पदवी पाई जाती थी उतनी ही प्रतिष्ठा होती थी। यहाँ भी यह घमंड मारा जाता है कि ‘अमुक ने बारह वर्ष की अवस्था में मैट्रीकुलेशन कर लिया था।’ इसका फल वही होता था, जो बाल विवाह का होता है। उधर दादा जी की गोदी में नाती खिलाने का सौभाग्य मिलता है, इधर दूध के दाँत टूटते न टूटते त्रिकोणमिति होने लगती है। जब सीखने की प्रकृत अवस्था आती है तब कमर झुक और आँख धँस चुकती है। प्रकृति का पृष्ठ खुलने के पहले बंद हो जाता है। वर्तमान शिक्षाशास्त्र समय को यों सरपट दौड़ाने की सम्मति नहीं देता। वह कहता है कि जब तक देह का पूरा विकास न हो ले, तब तक मन को लादने का उद्योग न करो, नहीं तो मिठाई के मार से छींके के टूटने का शोकमय नाटक अभिनीत होगा।
एक पाठशाला का वार्षिकोत्सव था। मैं भी वहाँ बुलाया गया था। वहाँ के प्रधान अध्यापक का एकमात्र पुत्र, जिसकी अवस्था 8 वर्ष की थी, बड़े लाड़ से नुमाइश में मिस्टर हादी के कोल्हू की तरह दिखाया जा रहा था। उसका मुँह पीला था, आँखें सफ़ेद थीं, दृष्टि भूमि से उठती नहीं थी। प्रश्न पूछे जा रहे थे। उनका वह उत्तर दे रहा था। धर्म के दस लक्षण वह सुना गया, नौ रसों के उदाहरण दे गया। पानी के चार डिग्री के नीचे शीघ्रता में फैल जाने के कारण और मछलियों की प्राणरक्षा को समझा गया, चंद्रग्रहण का वैज्ञानिक समाधान दे गया, अभाव को पदार्थ मानने न मानने का शास्त्रार्थ कह गया और इंग्लैंड के राजा हेनरी की स्त्रियों के नाम और पेशवाओं का कुर्सीनामा सुना गया। यह पूछा गया कि तू क्या करेगा। बालक ने सीखा-सिखाया उत्तर दिया कि मैं यावज्जन्म लोक-सेवा करूँगा। सभा ‘वाह-वाह’ करती सुन रही थी, पिता का हृदय उल्लास से भर रहा था। एक वृद्ध महाशय ने उसके सिर पर हाथ फेरकर आशीर्वाद दिया और कहा कि जो तू इनाम माँगे वही दें। बालक कुछ सोचने लगा। पिता और अध्यापक इस चिंता में लगे कि देखें यह पढ़ाई का पुतला कौन-सी पुस्तक माँगता है। बालक के मुख पर विलक्षण रंगों का परिवर्तन हो रहा था, हृदय में कृत्रिम और स्वाभाविक भावों की लड़ाई की झलक आँखों में दीख रही थी। कुछ खाँसकर, गला साफ़ कर नक़ली परदे के हट जाने पर स्वयं विस्मित होकर बालक ने धीरे से कहा, “लड्डू।” पिता और अध्यापक निराश हो गए। इतने समय तक मेरा श्वास घुट रहा था। अब मैंने सुख की साँस भरी। उन सबने बालक की प्रवृत्तियों का गला घोंटने में कुछ उठा नहीं रखा था। पर बालक बच गया। उसके बचने की आशा है, क्योंकि वह ‘लड्डू’ की पुकार जीवित वृक्ष के हरे पत्तों का मधुर मर्मर था, मरे काठ की अलमारी की सिर दुखानेवाली खड़खड़ाहट नहीं।
(विद्यार्थी; 18 नवम्बर, 1914 ईसवी)