शिक्षा का उद्देश्य (निबंध) : महादेवी वर्मा

Shiksha Ka Uddeshya (Hindi Nibandh) : Mahadevi Verma

(विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन में दीक्षांत भाषण)

स्नातक अनुजों को उपेदश देने की स्थिति में मैं अपने आपको नहीं पाती, क्योंकि मैं स्वयं एक जिज्ञासु विद्यार्थिनी हूँ । जीवन की पुस्तक का अभी एक पृष्ठ भी मैं समाप्त नहीं कर पाई। वैसे मेरे विचार से, मनुष्य चिंतन और अनुभूति की चिर नवीन उद्भावनाओं की दृष्टि से आजीवन विद्यार्थी ही रहता है। इस स्थिति में परिवर्तन के लिए उसे बुद्धि और हृदय के द्वार ही बंद कर लेने पड़ते हैं ।

भारत अपने भौगोलिक परिवेश में जितना विविध रूपात्मक है, सांस्कृतिक दृष्टि से उतना ही संश्लिष्ट और उसके सांस्कृतिक मूल्य जीवन के लिए मंगलविधायक तथा आलोकवाही रहे हैं।

जिन युगों तक इतिहास की किरणें नहीं पहुँच पातीं, उन युगों में भी भारत ने आचार्यकुलों को अपनी मूल्यात्मक उपलब्धियों का संरक्षक तथा अंतेवासियों को उनका उत्तराधिकारी स्वीकार कर दोनों को समान महत्व दिया था ।

जन्म से लेकर शिक्षा की समाप्ति तक व्यक्ति के निर्माण के लिए, जो जटिल, परंतु गंभीर संवेदनमयी व्यवस्था की शृंखला मिलती है, उसकी प्रत्येक कड़ी दीर्घ चिंतन और परीक्षण का परिणाम है।

तत्कालीन दीक्षांत अनुष्ठान ऐसी संधिवेला थी, जिसमें शिष्य की परीक्षा समाप्त और गुरु की परीक्षा का आरंभ होता था। स्नातक में कुलगुरु का ज्ञान ही नहीं, उसकी महिमा भी संक्रमित होती थी। इसी से स्नातक अपने आचार्य कुल से ही पहचाना जाता था। उनमें अनेक कुलगुरु अपनी अत्यंत क्रांतिकारिणी जीवन-दृष्टि के लिए प्रख्यात थे और उनकी शिष्य परंपरा समाज को गतिरुद्ध करनेवाली रूढ़ियों को खंड-खंड करने का संकल्प लेकर कर्मक्षेत्र में प्रवेश करती थी।

सा विद्या या विमुक्तये
(वही विद्या है जो मुक्ति के लिए है) विद्या की उपर्युक्त परिभाषा से अधिक प्रगतिशील परिभाषा खोज लेना कठिन होगा।

शिक्षा-संस्थानों में राष्ट्र बनता है, अतः आश्चर्य का विषय नहीं है कि भारतीय मनीषा ने, प्रत्येक अतीत युग में, शिक्षा के क्षेत्र को विशेष सम्मान की दृष्टि से देखा तथा तत्कालीन शासन-व्यवस्था के नियन्त्रण से उसे मुक्त रखा।

सहस्रों वर्ष पूर्व की शैक्षणिक उपलब्धियों का आज क्या उपयोग है यह जिज्ञासा भी स्वाभाविक है । यह निर्विवाद सत्य है कि हम अतीत युगों के जीवन और परिस्थितियों की आवृत्ति नहीं कर सकते। जब एक बीते क्षण, एक तीव्र संवेदन तक को लौटा लेना संभव नहीं है, तब सुदूर अतीत में जीने का प्रश्न कल्पनातीत है ।

परंतु मानव के अतीत, वर्तमान और भावी संवेदनों को सँभालने वाला समय तो अखंड ही रहता है।

विकास-क्रम में एक युग का मानव समूह अपने पूर्वजों से जो उत्तराधिकार पाता है, वह शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, सांस्कृतिक आदि दृष्टियों से विविध और उपयोग के परिप्रेक्ष्य में चिर नूतन ही रहता है। जब अतीत युगों के दर्शन, कला, साहित्य आदि, भिन्न वर्तमानयुगीन परिस्थितियों में जीवन को समृद्ध कर सकते हैं, तब उन्हें जन्म देने वाली दृष्टि और सामाजिक संस्थाओं का ज्ञान भी उपयोगी हो सकता है।

विकासक्रम में यह सत्य और भी स्पष्ट हो जाता है। व्यापक अर्थ में विश्व का समस्त मानव समूह एक परिवार है, परंतु विभिन्न प्राकृतिक परिवेशों में विकास के कारण वह वर्ण, आकृति, संस्कार, जीवन-पद्धति आदि की दृष्टि से अनेक जातियों में विभाजित हो गया है।

अपने विशेष भौगोलिक परिवेश के रागात्मक लगाव, संस्कार क्रम में उत्पन्न जीवन पद्धतियों की समानता आदि ही किसी मानव समूह को राष्ट्र की संज्ञा से अभिषिक्त करते हैं। नदी - पर्वत - समतल मात्र राष्ट्र नहीं बन जाते और न मानवों की विषम भीड़ ही राष्ट्र की गरिमा की अधिकारिणी हो जाती है।

वस्तुतः राष्ट्र शब्द से प्रबुद्ध चेतन, किंतु, स्वेच्छया एकताबद्ध मानव समूह और उसका परिवेश दोनों का बोध होता है।

माता भूमिः पुत्राऽहम् पृथिव्याः - अथर्व.
से लेकर 'मुकुट शुभ्र हिमतुषार तक जो भाव-समुद्र लहरा रहा है, उसका तट बनाने की क्षमता किसी युग को प्राप्त नहीं हो सकी है।

अनेक बौद्धिक उपलब्धियों के संबंध में भी यही सत्य है। वास्तव में किसी भी युग में जीवन अपने आपको धोई-पोंछी स्लेट के समान नहीं प्रस्तुत करता। उसमें अनिवार्यतः अनेक विगत युगों के भौतिक, मानसिक, सामाजिक, आदि संस्कारों के चिह्न रहना स्वाभाविक है। जिन संस्कारों की रेखाओं में मानव-प्रगति का इतिहास निबद्ध है, उन्हें नवीन युग की परिस्थितियों से जोड़ कर हम अपने युगांतर दीर्घ विकास की स्वर्णिम शृंखला में नवीन कड़ी जोड़ते हैं, उसे तोड़ते नहीं ।

माला में चाहे मोती गुम्फित हों चाहे फूल, उन्हें सँभालने का कार्य सूत्र ही करता है, जिसके टूटने पर बहुमूल्य और सुंदर सब कुछ धूल में बिखर जाता है ।

अपनी धरती की गहराई में जड़ें रखनेवाले पौधे किसी भी दिशा से आनेवाले पवन के उष्ण या शीतल झोंकों से खेल लेते हैं। वर्षा की झड़ी और कठिन धूप को भेंट लेते हैं। यदि वे अपनी धरती का आधार छोड़ दें तो न मलय समीर उन्हें जीवित रख सकेगा और न वर्षा का अमृत जल । धनुष पर बाण को संधान कर जब तक उसे पीछे तक नहीं खींचा जाता, तब तक उससे लक्ष्यवेध संभव नहीं होता । पीछे का पग धरती पर जमाए बिना न आगे का उठाया जा सकता है और न एक डग आगे बढ़ा जा सकता है।

गत युगों की उपलब्धियों के प्रति उपेक्षा भाव को, अपनी भावी प्रगति की शपथ मान कर हमने अपने-आपको दिग्भ्रांत ही किया है, क्योंकि बिना वर्तमान के अतीत गतिहीन है और अतीत से विच्छिन्न वर्तमान दिशा-निर्देशहीन हो जाता है।

मानव के सूक्ष्म मनोजगत से लेकर उसके प्रत्यक्ष कर्म तक जो परिष्कार-क्रम आदिमयुग से चलता आ रहा है, वही मानव-संस्कृति है और यह समः कृति निर्मित वस्तु न होकर निर्माण-परंपरा ही रहती है।

ऐसी स्थिति में एक युग की उपलब्धियाँ दूसरे युग में संक्रमित होकर ही सार्थकता पाती हैं। इस संक्रमण क्रम के टूटने पर अनेक संस्कृतियाँ तिरोहित हो चुकी हैं, यह तथ्य इतिहास से प्रमाणित हो सकता है।

संस्कृति का स्वभाव मूल्यात्मक या धनात्मक ही होने के कारण उसे निषेधात्मक या ऋणात्मक रूप में अनुभव नहीं किया जा सकता। हम किसी भी सांस्कृतिक मूल्य को उसके अभाव में नहीं अनुभव करते । उदाहरण के लिए, हम सामाजिक मूल्य के रूप में सत्य का अनुभव कर सकते हैं, परंतु उसका अभाव, असत्य हमारे अनुभूति क्षेत्र से बाहर बुद्धि का विषय है।

संस्कृति के विकास-क्रम में प्राप्त मूल्य, नैतिक, सामाजिक, आध्यात्मिक, राजनीतिक आदि विविध क्षेत्रों में विभाजित होकर भी व्यक्ति और समष्टि की दृष्टि से एक संश्लिष्ट और व्यापक प्रभाव उत्पन्न करते हैं।

इन जीवन मूल्यों के साथ अनेक मान्यताओं तथा प्रयोगजनित रूढ़ियों का संक्रमित हो जाना अनिवार्य है। अतः प्रत्येक युग में नवीन परिस्थितियों की कसौटी पर खरे उतरने पर ही वे अपने मूलरूप में प्रतिष्ठित हो पाते हैं।

भारत विशाल और पुरातन महादेश है। और उसकी सहस्रमुखी संस्कृति गंगोत्री के गोमुख से समुद्र तक प्रवाहित गंगा के समान अनेक धाराओं को समेटती रही है। उसे अंधकार के ऐसे अनेक प्रहर पार करने पड़े हैं, जिनमें किसी जीवन-मूल्य तथा मान्यता की परीक्षा से अधिक आवश्यक उसका संरक्षण था। परिणामतः कहीं मूल्यवान खो गया, कहीं मूल्यहीन संरक्षित हो गया।

राष्ट्र - जीवन के जिन क्षेत्रों को कुछ मूल्यवान खोना पड़ा है, उनमें शिक्षा का क्षेत्र विशेष स्थिति रखता है। शिक्षा किसी भी राष्ट्र का मेरुदंड कही जा सकती है। वह अतीत युगों की उपलब्धियों तथा वर्तमान परिस्थितियों का संधि स्थल ही नहीं, ऐसा आलोक भी है, जिसमें भविष्य की रूपरेखा निखरती और स्पष्ट से स्पष्टतर होती चलती है।

जिस प्रकार शरीर में हृदय सब अंगों को स्वस्थ रक्त पहुँचाने का कार्य करता है, उसी प्रकार शिक्षा क्षेत्र समाज, शासन, विज्ञान, कला, साहित्य आदि सभी क्षेत्रों में नवीन प्रतिभाएँ भेजता है। यदि शिक्षा क्षेत्र द्वारा पहुँचाया गया नवीन रक्त स्वस्थ है, तो सभी क्षेत्र स्वस्थ और क्रियाशील रहते हैं। यदि नवीन रक्त में व्याधियों के कीटाणु प्रवेश कर जाते हैं, तो राष्ट्र-जीवन के सभी क्षेत्र सांघातिक रूप से पीड़ित हो उठते हैं।

प्रबुद्ध राष्ट्र की जीवन पद्धति में शिक्षा क्षेत्र का उत्तरदायित्व विद्वानों, चिंतकों और आचार्यकुलों पर रहता है।

शिक्षाक्षेत्र के अंतः गठन में दो परस्पर पूरक पक्ष अनिवार्य हैं-ज्ञातव्य, विषय या विद्या और उसका संप्रेषण या शिक्षा और उसके बहिर्गठन में गुरु, शिष्य, पाठ्यक्रम और परिवेश अन्योऽन्याश्रित महत्वपूर्ण स्थिति रखते हैं ।

शिक्षा कमल के इन षट्दलों को संग्रथित रखनेवाला कुड्मल भाषा है, जिसके अभाव में सब दल बिखर जाते हैं।

भारत के तत्वदर्शी चिंतकों ने जीवन के किसी भी क्षेत्र या लक्ष्य को इतनी सावधानी से गठित नहीं किया है, जितनी शिक्षा क्षेत्र के गठन में मिलती है। कारण स्पष्ट है। इस क्षेत्र में मानव का दुहरा निर्माण होता है। अन्य क्षेत्रों में जब वह पहुँचता है, तब बुद्धि और हृदय से प्रबुद्ध और संवेदनशील सदस्य के रूप में प्रतिष्ठित होने योग्य बन चुकता है; परंतु शिक्षा के क्षेत्र में वह समस्त अनगढ़ पशुवृत्तियों और मानवीय संभावनाओं के साथ ही प्रवेश करता है। उसकी पशुप्रवृत्तियों को संयमित तथा मानवीय संभावनाओं को साकार बनाने का कठिन कार्य जहाँ होता है, उस क्षेत्र की उपेक्षा मानव समाज को बर्बरता की ओर लौटा देती है।

जीवन के गहन मूल्यकोष को भारतीय मनीषा ने विद्या नाम से अभिहित किया था । वेद के समान ही विद् (जानना) धातु से बनी यह संज्ञा, समय के बहुत से आँधी-तूफान पार कर आई है और मानव द्वारा अनेक सदुपयोग-दुरुपयोग के अमिट चिह्नों से चित्रमयी है। परंतु तत्वतः यह जीवन की ऐसी मूल्यात्मक उपलब्धियों का प्रतीक रही है, जो मानव - संसृति की युगांतर दीर्घ यात्रा में भी धूमिल न होकर अपनी दीप्ति से पथ को आलोकित करती रही है।

विद्या का लक्ष्य व्यक्ति और समष्टि दोनों को सामंजस्यसूत्र में बाँध कर संपूर्णता देना है तथा शिक्षा हृदय और बुद्धि के परिष्कार और समन्वय द्वारा मानव को लक्ष्य तक पहुँचने की क्षमता प्रदान करती है।

ज्ञान से अधिक कठिन उसकी संप्रेषणीयता है, अतः शिक्षा का क्षेत्र ज्ञान की दोहरी और रहस्यमयी प्रयोगशाला बन जाता है। उसे व्यक्ति के अंतर्जगत को संपूर्ण तथा मुक्त विकास भी देना पड़ता है और उसे समष्टि से सामंजस्यपूर्ण बंधन में बाँधना भी पड़ता है। उसे मनुष्य की मूलभूत प्रवृत्तियों को परिष्कार और दिशा भी देनी पड़ती है और उसके बहिर्जगत की समस्याएँ भी सुलझानी पड़ती हैं।

इसी कारण चिंतकों ने विद्या को परा और अपरा या परमार्थकरी और अर्थकरी में विभाजित कर, उसे लक्ष्यतः स्पष्ट से स्पष्टतर करना उचित समझा ।

परा विद्या मानव के आत्मबोध तथा सहजात प्रवृत्तियों के ऊर्ध्वगमन का माध्यम है और अपरा उसकी लौकिक स्थिति में विकास का साधन ।

परमार्थकरी विद्या से मानव की मानसिक वृत्तियों के उदात्तीकरण का बोध होता है और अर्थकरी उसे लौकिक दृष्टि से जीवनयापन के लिए उपयुक्त और संतुलित विकास देती है।

मानव प्रकृति तत्वतः नैतिक है। हम पशुविशेष को बल से विवश करके अपना इच्छित आचरण सिखा सकते हैं, परंतु उस क्रिया की असंख्य आवृत्तियाँ कर के भी पशु न उसमें सुख का अनुभव करने में समर्थ है और न स्वतंत्र होने पर वैसा आचरण करेगा। सर्कस में अनेक प्रकृत्या हिंस्र अहिंस्र जीव साथ रहकर सिखाए हुए आचरण के अनुसार कार्य करते हैं, परंतु इससे उनकी वृत्तियों में कोई अंतर नहीं आता।

मानव की विकास-गाथा इससे भिन्न है। उसमें तत्वगत नैतिक प्रकृति के जागरण के साथ एक असीम आनंद उद्वेलित हो उठता है, जिसे हम, आस्था, सौंदर्यबोध, और समष्टि में अपने-आपको विसर्जित करने की इच्छा कह सकते हैं । समष्टि के साथ अनुभव करने, विचार विनिमय करने और उससे एकात्म होने की इच्छा ही, मानव जाति के धर्म, दर्शन, साहित्य, कला आदि की जननी रही है।

एकोऽहम् बहुस्याम - मैं एक हूँ अनेक हो जाऊँगा, ब्रह्म के लिए कहा गया वाक्य मनुष्य के लिए भी सत्य है। यह इच्छा मनुष्य के सीमित व्यक्तित्व की समष्टिगत असीमता है।

शिक्षा अपने सीमित अर्थ में जीवन के लिए तैयारी मानी जा सकती है, परंतु व्यापक अर्थ में वह जीवन का चरम उद्देश्य ही रहेगी। इन सीमित और व्यापक अर्थों में कोई अंतर्विरोध संभव नहीं है, क्योंकि सीमित, व्यापक अर्थ में अंतर्भूत रहता है। मनुष्य व्यापक समष्टि का अंग और विश्व नागरिक होकर भी किसी देश - विशेष का नागरिक और समाज विशेष का अंग होता है और इस नाते विशेष कर्त्तव्यों तथा अधिकारों से घिरा रहता है । विसंगति तब उत्पन्न होती है, जब शिक्षा निरुद्देश्य तैयारी मात्र रह जाती है, क्योंकि वह परिणामहीन क्रियाशीलता है।

जिस प्रकार नींव की कंपन के साथ समस्त भवन हिल जाता है, उसी प्रकार उद्देश्य या लक्ष्य की अस्थिरता से शिक्षा के सभी सोपान अस्थिर हो जाते हैं।

शिक्षा के उच्च स्तर पर लक्ष्यहीनता का परिणाम अधिक सांघातिक हो, यह स्वाभाविक है।

शैशव में व्यक्तित्व अविकसित रहता है, अतः लक्ष्य के प्रश्न अनदेखे कर दिए जाते हैं, किशोरावस्था में व्यक्तित्व निर्माण के क्रम में रहता है, अतः उसकी परिणति के संबंध में विचार नहीं किया जाता, परंतु कर्मक्षेत्र के प्रवेशद्वार पर जब शरीर से अस्वस्थ और मन से हताश तरुण पहुँचता है, तब जीवन और समाज दोनों की स्थिति संकटापन्न हो जाती है।

हमारे महादेश को पराजय की तमिस्रा के दीर्घ युग पार करने पड़े हैं और इस अभिशप्त यात्रा में उसने जीवन के लिए आवश्यक पाथेय का जो मूल्यवान अंश खोया है वह शिक्षा का दर्शन है। यह निर्विवाद है कि कोई भी विजेता विजित देश पर शासन मात्र का अधिकार प्राप्त कर संतुष्ट नहीं होता। वह विजित पर सांस्कृतिक विजय भी चाहता है, जिसका सहज पर अव्यर्थ माध्यम शिक्षा ही रहती है। परशासित देश में शिक्षा का उद्देश्य वही नहीं हो सकता, जो स्वशासित देश के लिए आवश्यक है।

स्वशासित देश को अपनी सांस्कृतिक, सामाजिक, राष्ट्रीय आदि मूल्यात्मक निधियों के लिए उपयुक्त उत्तराधिकारियों का निर्माण करना होता है और परतंत्र देश के परशासकों को अपनी स्थिति यथावत बनाए रखने के लिए आवश्यक सहायक । दोनों स्थितियों में शिक्षा लक्ष्यतः कार्यतः और परिणामतः भिन्न हो तो आश्चर्य नहीं ।

भावी नागरिक के व्यक्तित्व का ऐसा विकास, जिसमें उसका स्वाभिमान, राष्ट्र-भावना, अन्याय के विरुद्ध संघर्ष की इच्छा आदि विशेषताएँ विकसित हो सकें, स्वतंत्र देश के लिए उपयोगी हो सकता है। किंतु विजेता शासकवर्ग के लिए शासितों की नई पीढ़ी का ऐसा विकास अस्त्र-शस्त्रों से अधिक शंकाजनक है, क्योंकि वह विकास विजेता की निर्णीत जय को अनिर्णीत करने और उसे पराजय में बदलने की शक्ति रखता है।

भारत में स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत भी शिक्षा के क्षेत्र में लक्ष्यतः और कार्यतः परिवर्तन नहीं किया जा सका, परिणामतः आज निर्माण की बेला में वही क्षेत्र अधिक अशांत, अस्थिर और विघटनशील है।

आधुनिक युग में छात्रवर्ग का असंतोष विश्व व्यापक हो गया है, परंतु उसके देशज कारणों और परिस्थितियों में अंतर है । जिन देशों में शरीर मुक्त हैं, पर मन बंधन में है वहाँ भी, और जहाँ मन मुक्त है, पर शरीर पर कठिन नियन्त्रण है वहाँ भी, शिक्षा का क्षेत्र ही हलचलों का केंद्र है। कहीं सामाजिक बंधन टूटते हैं, कहीं मानसिक नियन्त्रण शिथिल होता है, किंतु टूटने के क्रम में निरंतरता है ।

स्पष्ट ही मानव के अंतर्जगत में कुछ नवीन जन्म ले रहा है, जिसकी पीड़ा नई पीढ़ी को अधिक अशांत कर रही है। सामान्यतः यह पीड़ा देश - विशेष की परिस्थितियों से उसी प्रकार रंग-रूप पाती है, जैसे काँच के रंगीन पात्र में भरा जल अपने आधार से ही आकृति और रंगमयता ग्रहण करता है ।

कभी-कभी इस नियम में अपवाद भी देखा जा सकता है। अमेरिका जैसे भौतिक दृष्टि से सर्व सुविधा संपन्न और वैज्ञानिक दृष्टि से अग्रगामी देश के पचास लाख से अधिक उच्चस्तरीय छात्रों की अशांति, केवल भौतिक सुविधाओं के अभाव से उत्पन्न नहीं कही जा सकती।

तत्वतः आज का युग प्राचीन और नवीन जीवन मूल्यों की ओर मान्यताओं की संक्रांति का, टकराहट का है।

विज्ञान ने एक नवीन प्रकृति-धर्म की प्रतिष्ठा की है, जिसके कारण विश्व एक हो गया है। राजनीतिक विचारधाराओं ने एक नए नीतिशास्त्र का निर्माण किया है, जिसके कारण विश्व लघु खंडों में विभाजित होता जा रहा है। दोनों में संगति या समन्वय की स्थिति अभी उत्पन्न नहीं हो सकी है। उसे जीवन का उच्चतर लक्ष्यबोध ही संभव कर सकता है, जिसकी अभी खोज ही आरंभ नहीं हुई ।

जहाँ तक भारत के छात्रवर्ग का प्रश्न है, वह सामाजिक ही नहीं, मनोवैज्ञानिक संक्रांति के मध्य में है। उसके व्यक्तित्व की बाह्य और अंतः स्थिति इतनी विघटित है कि उसमें निर्माण की प्रेरणा जगाना दुष्कर नहीं तो कठिन अवश्य है।

आज के छात्र या स्नातक ने स्वतंत्रता के आलोक में आँखें खोली थीं और जीवन की धड़कन के साथ ही भारत का जयगान सुना था। उसकी आशाएँ, कल्पनाएँ पूर्व पीढ़ी से भिन्न हों, तो उसे स्वाभाविक ही माना जाएगा। पिछली पीढ़ी ने दासता का अभिशाप झेला था; उसकी आशाओं और कल्पना में सफलता का अंतिम बिंदु और एकमात्र केंद्र विदेशियों के शासन से मुक्त होना मात्र था। स्वतंत्र होने के उपरांत पूर्व केंद्रों से मुक्त दृष्टि कुछ प्रसन्नता और कुछ कुतूहल से नवीन केंद्र की खोज में ही भटकती और थकती रही। लौह बेड़ियाँ कट जाने पर भी पैर पर उसके चिह्न नहीं कट जाते और वे दाग ही प्रायः मुक्त बंदी की बंधनजनित वेदना की कथा कहते रहते हैं। पिछली पीढ़ी के साथ भी यही घटित हुआ।

उसने न मानसिक दासता से मुक्ति पाई, न मुक्ति पाने को आवश्यक समझा । इसके विपरीत वह मुक्ति के प्रमाण में अतीत बंधन के चिह्नों के प्रदर्शन करती रही। नवीन पीढ़ी ने इस स्थिति को पहले कुतूहल से देखा, फिर जिज्ञासा से और अंत में विरोध व्यक्त किया।

छात्रवर्ग के असंतोष के अनुमानित कारण कई हैं। यह भी कहा जाता है कि शिक्षा के क्षेत्र में अशांति का कारण, वे पिछड़े वर्ग के विद्यार्थी हैं, जिनके परिवारों में शिक्षा संबंधी कोई संस्कार नहीं था और जो अब तक शिक्षा से वंचित थे। छात्र आंदोलन का कारण, शिक्षा के उपरांत जीविकोपार्जन का कोई साधन प्राप्त न होना है, यह विश्वास भी सकारण है।

राजनीतिक दलों की प्रेरणा छात्रों के असंतोष के मूल में है यह भी प्रचलित मान्यता है । जीवन की मान्यताओं और मूल्यों में परिवर्तन ही छात्रवर्ग को अशांत कर रहा है, यह भी चिंतकों का निष्कर्ष है।

इन सभी अनुमानों में आंशिक सत्य है, संपूर्ण नहीं, क्योंकि ऐसे सामूहिक असंतोष अनेक प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष, अंतः बाह्य परिस्थितियों की विषमता के परिणाम होते हैं। वे विषमताएँ तत्काल विस्फोटक रूप नहीं पा लेतीं। जैसे भूकंप के पहले पृथ्वी के गहरे अंतराल में ज्वाला जल की विषम स्थितियाँ उत्पन्न होकर बल प्राप्त करती रहती है, वैसी ही मानव समष्टि के असंतोष की कथा है। उसका कारण न एक स्थिति है, न एक विषय । लोकतंत्र की सफलता का आधार शिक्षा है, जिसके अभाव में जनसमूह को प्रबुद्ध करना संभव नहीं होता। इस दृष्टि से भारत ने, जिसमें शिक्षा की परंपरा प्राचीन और उज्ज्वल रही है, शिक्षा के प्रसार की दिशा में अधिक प्रयत्न नहीं किया है।

स्वतंत्रता के बीस वर्षों में शिक्षा की जो प्रगति हुई है, उसमें किसी प्रदेश में विद्यार्थियों की संख्या में 6 प्रतिशत किसी में 8 और किसी में 9 प्रतिशत वृद्धि हुई है। समय का विस्तार देखते हुए और अन्य स्वतंत्र देशों की शिक्षण व्यवस्था की तुलना में यह वृद्धि आशाजनक नहीं कही जा सकती। अब भी 77 से 88 प्रतिशत के लगभग शिक्षा पाने योग्य किशोर वर्ग उससे वंचित है।

पिछड़े वर्ग से आने वाले और शिक्षा संस्कार से रहित विद्यार्थी ही शिक्षा-व्यवस्था में अराजकता के कारण हैं, यह धारणा भी सत्य से दूर है। वास्तव में पिछड़े वर्ग के विद्यार्थी को दोहरा परिश्रम करना पड़ता है। उच्चवर्ग का विद्यार्थी कम शिक्षित और कम मेधावी होने पर भी संस्कृत और संभ्रांत माना जाता है। पिछड़े वर्ग के विद्यार्थी को अपने आपको संस्कृत कहलाने के योग्य भी बनाना पड़ता है और अच्छा विद्यार्थी भी प्रमाणित करना पड़ता है। उसे छात्रवृत्ति संबंधी कुछ सुविधाएँ भी प्राप्त हैं और उत्तीर्ण होने पर आजीविका के लिए बहुत भटकना भी नहीं पड़ता। उसने अपने जीवन का स्तर भी इतना उन्नत नहीं बना लिया कि वह दुर्वह हो जावे ।

बालिकाओं के शिक्षाक्षेत्र में प्रवेश को भी ऐसी ही शंका की दृष्टि से देखा गया था, क्योंकि उनकी युगांतर दीर्घ दोहरी दासता में शिक्षा के संस्कार भी मिट गए थे। परंतु उन्होंने अपने सुविधासंपन्न सहपाठियों से अधिक कठिन श्रम करके समता ही नहीं श्रेष्ठता भी प्राप्त कर ली । वस्तुतः वर्तमान युग पीड़ितों और गिरे हुओं का है और यह वर्ग जब उठता है तब उसका वेग शिलाएँ तोड़ कर निकलनेवाले निर्झर के समान अप्रतिहत गति होता है।

शिक्षा के उपरान्त भी आजीविका के प्रश्न का समाधान न पाना और इस स्थिति के लिए समाज द्वारा उसी को दोषी ठहराया जाना, विद्यार्थी की उद्भ्रान्ति का विशेष कारण है। पहले प्राविधिक शिक्षा के उपरान्त उत्तीर्ण विद्यार्थी की बेकारी का अभिशाप नहीं झेलना पड़ता था, परन्तु अब वे भी सैकड़ों की संख्या में निष्फल भटकाव की स्थिति में हैं।

भविष्य के सम्बन्ध में आश्वस्त किये बिना विद्यार्थी वर्ग के असन्तोष का उपचार न सम्भव है, न सुकर ।

जहाँ तक राजनीतिक विचारधाराओं का प्रश्न है, उससे न आज के विद्यार्थी को अपरिचित रखा जा सकता हैं, न दूर क्योंकि वे भावी शासन व्यवस्था सम्बन्धी स्वप्नों की प्रयोगात्मक कसौटी हैं। परन्तु यदि विद्यार्थी की प्रतिभा और उसके कृतित्व को उसकी रुचि के अनुसार दिशा और लक्ष्य प्राप्त हो सके तो वह राजनीति में सक्रिय भाग लेने को आवश्यक न समझेगा। यह प्रश्न विद्यार्थी जीवन में नहीं, कर्मक्षेत्र में प्रवेश के अवसर पर उठेगा और तभी उसका समाधान समाज के लिए हितकर होगा। उससे पहले विद्यार्थी की रुचि की दिशा और उस लक्ष्य तक पहुँचने के लिए आवश्यक साधन ही महत्त्वपूर्ण रहते हैं। यदि किसी की रुचि या प्रवृत्ति की दिशा, विज्ञान या साहित्य या कला है और उसे अपनी सृजनात्मक शक्ति के विकास के लिए इच्छित अवकाश प्राप्त हो जाता है, तो वह सक्रिय राजनीति के क्षेत्र में असमय प्रवेश को समय का दुरुपयोग ही मानेगा ।

राजनीति के संघर्ष क्षेत्र में जो व्यक्ति विद्यार्थी वर्ग का अस्त्र-शस्त्र के रूप में उपयोग करते रहते हैं, उन्हें भी समष्टि के हित में अपनी कार्यप्रणाली में परिवर्तन की आवश्यकता का अनुभव हो सके, तो इस समस्या का समाधान खोजना सहज हो जाएगा।

इन सब समस्याओं से कठिन समस्या शिक्षा के अन्तःस्वरूप तथा माध्यम से सम्बन्ध रखती है। मातृभाषा ही शिक्षा का उचित माध्यम हो सकती है, इस निष्कर्ष पर विश्व के सभी शिक्षा शास्त्री एकमत हैं।

मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भाषा का प्रश्न संस्कृति से तथा राष्ट्र-भावना से सम्बद्ध रहता है, विशेषतः भारत जैसे महान् देश के लिए जो सांस्कृतिक दृष्टि से महान् होने पर भी राष्ट्र की दृष्टि से पराधीन रह चुका है।

मात्र उपयोगिता की दृष्टि से भी भारत के भावी नागरिक के निर्माण में विदेशी भाषा बाधक ही सिद्ध होती है। हमारे विद्यार्थी वर्ग में 90 प्रतिशत अंग्रेजी में अनुत्तीर्ण होते हैं और अधिकांश उक्त माध्यम से न किसी विषय को तत्त्वतः समझ पाते हैं और न व्यक्त करने में समर्थ होते हैं।

भाषा का सम्बन्ध मानवीय संवेगों से, मन से, बहुत गहरा होने के कारण विद्यार्थी के व्यक्तित्व का जैसा संश्लिष्ट विकास अपेक्षित रहता है, वह असम्भव हो जाता है। अपने-आपको व्यक्त न कर सकने की कुण्ठा से अधिक दयनीय कुण्ठा मननशील प्राणी के लिए अन्य नहीं हो सकती और जब इस मानसिक स्थिति की अभिव्यक्ति कर्म में होती है, तब वह ध्वंसात्मक प्रवृत्ति को ही प्रत्यक्ष कर सकती है।

भाषा मानव के व्यष्टिगत का भी अंग है और समष्टिगत व्यक्तित्व का भी । अतः उसे जीर्ण-शीर्ण परिधान के समान उतार फेंकने का प्रयत्न असफल तो रहता है ही, वह व्यष्टि - समष्टि के सम्बन्ध भी विषम कर देता है। सारे देश के लिए कभी किसी विदेशी भाषा को सीखना सम्भव नहीं होता, परन्तु वह अपनी भाषा को जीवन के साथ ही ग्रहण कर लेता है।

मानव की आदिम अवस्था का उल्लास, पीड़ा, विस्मय आदि ध्वनियों से जन्म पाकर भाषा उसके उदात्त और गूढ़ भावना विचार तक जैसा विस्तार पा गयी है, यह एक युग का कार्य नहीं है। अवश्य ही भाषा में परिवर्तन हुए हैं परन्तु वे नदी के मोड़ों के समान हैं, नदी का अन्त नहीं। तटों और तरंगों की नवीनता नदी की अबाध गति के लिए है, उसे खण्ड-खण्ड करने के लिए नहीं ।

'अहम् राष्ट्री संगमनी वसूनाम्' (मैं राष्ट्र की शक्ति हूँ, उसे समृद्धि से संयुक्त करती हूँ।) ऋग्वेद के इस वाक्-परिचय का प्रमाण भारत से अधिक अन्य देशों ने दिया है, जिनकी भाषाप्रीति उनकी राष्ट्रनीति का आवश्यक अंग है।

इजराइल जैसे छोटे देश ने हिब्रू जैसी कठिन और प्राचीन भाषा को भावनात्मक दृष्टि से ही अपनी राष्ट्रभाषा स्वीकार किया है। जापान जैसे लघु पर प्रबुद्ध देश ने विज्ञान जैसे जटिल क्षेत्र के लिए भी अपनी भाषा का प्रयोग उपयुक्त समझा है। सद्यःस्वतन्त्र और भौगोलिक दृष्टि से लघु देशों ने भी दूसरे देशों की सम्पन्न भाषाओं को अंगीकार किया है। बहुभाषा-भाषी महादेशों ने भी अपने राष्ट्र-व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति के लिए अपनी ही किसी सहज व्यापक भाषा को चुना है। उदाहरण के लिए हम 47 भाषाओं की स्थिति सँभालने वाले रूस और उसकी राष्ट्रभाषा रूसी को देख सकते हैं।

भारत भी बहुभाषा-भाषी महान् राष्ट्र है और उसकी सभी भाषाएँ समृद्ध हैं, परन्तु उसकी पराधीन स्थिति में भी जनमानस को सांस्कृतिक दृष्टि से संश्लिष्ट रखने में हिन्दी की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है।

आज भी गंगा-यमुना के संगम तीर्थ पर रामेश्वरम्, कन्याकुमारी, पुरी आदि के सागर तटों पर प्रायः एक छोटा भारत ही बस जाता है, जिसके समस्त आदान-प्रदान के लिए हिन्दी ही माध्यम का कार्य करती है।

सांस्कृतिक दृष्टि से ही नहीं, संवैधानिक दृष्टि से भी हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा के पद पर अभिषिक्त है और प्राण प्रतिष्ठा के उपरान्त मूर्ति को खण्डित करना आस्था को भी खण्डित करना हो जाता है।

राष्ट्रभाषा के साथ भारत की अन्य प्रादेशिक भाषाओं का गौरव भी सम्बद्ध है । जिस प्रकार सम्पूर्ण शरीर को महत्त्वहीन मानकर अंग विशेष को महत्त्वपूर्ण सिद्ध करना सम्भव नहीं, उसी प्रकार राष्ट्रप्रतिमा या उसकी समग्र अभिव्यक्ति को गौरव न देकर उसे खण्डशः गौरव देने का प्रश्न कल्पनामात्र है। वस्तुतः समग्रता से विच्छिन्न स्वयं को निर्जीव और समग्रता को विकलांग बना देता है।

आज जो स्नातकवृन्द इस जन्मतः नवीन, परन्तु सांस्कृतिक दृष्टि से प्राचीन विश्वविद्यालय से उपाधि प्राप्त कर कर्मक्षेत्र के सिंहद्वार पर उपस्थित हैं, उसके लिए मेरी समस्त शुभकामनाएँ अर्पित हैं।

युगीन परिस्थितियाँ विषम हैं परन्तु आप उन्हें अनुकूल बनाने के लिए स्वयं अपने जीवन को विषम विरूप न बना लें, तो उनमें परिवर्तन अनिवार्य हो जाएगा।

टूटे दर्पण-खण्डों में अपना मुख भी खण्डित दिखाई देता है, परन्तु इसीलिए देखनेवाला अपने मुख को खण्डित नहीं कर लेता। समुद्र में बनने वाला मेघ उसके क्षार को साथ नहीं लाता।

पूर्वकाल में अग्नि का इतना महत्त्व था कि ब्रह्मचारी उसे लेकर ही दूसरे कर्मक्षेत्र में प्रवेश करता था। आज उस अग्नि के प्रतीक रूप आप अपने हृदय में वह जीवन ज्वाला लेकर कार्यक्षेत्र में प्रवेश करें जो अन्धकार में आपको सहस्र किरण दीपक बना सके।

मेरी कामना है कि आपका पथ प्रशस्त हो, लक्ष्य उन्नत हो, गति अबाध रहे और आज का मूल मन्त्र
'संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्'
कभी विस्मृत न हो ।

जय भारत !

('सम्भाषण' से)

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