शिकायत मुझे भी है (व्यंग्य) : हरिशंकर परसाई

Shikayat Mujhe Bhi Hai (Hindi Satire) : Harishankar Parsai

मगर मेरी शिकायत यह नहीं है कि वैज्ञानिक को देश में ही नौकरी और अनुसन्धान की सुविधा क्यों नहीं मिली. क्यों उसे दूसरे देश में अनुसन्धान करके विदेशी की हैसियत से नोबुल पुरस्कार मिला? क्यों नहीं यह गौरव इसी देश को मिला?

डॉ. खुराना के मामले को लेकर ये शिकायतें कुछ लोग सोच रहे हैं. मगर मुझे शिकायत नहीं. विदेशों से हम गेहूँ, चावल वगैरह मँगाकर खाते हैं, मगर उसके दाम चुकाने की हैसियत है नहीं. उसके चुकाने में अगर प्रतिभाएँ दे देते हैं, तो क्या बुरा है? तुमने गेहूँ दिया—लो, चार वैज्ञानिक ले जाओ. मुझसे कोई प्रतिभा नहीं है, मगर मेरे बदले में अगर एक किलो गेहूँ भी मिलता हो तो मैं बिकने को तैयार हूँ. प्रतिभा को यहीं रखकर क्या करेंगे? वह खाने के काम भी तो नहीं आती.

मगर लोग हैं कि चिल्ला रहे हैं—नौकरशाही जीनियस (महान् प्रतिभा) को पनपने नहीं देती.

यह शिकायत बेबुनियाद है. मैंने बड़े बाबू से पूछ लिया है. उन्होंने कहा—वैज्ञानिक के पास ‘एम्प्लायमेंट एक्सचेंज’ का कार्ड था? मैंने कहा—बहुत करके नहीं था. बड़े बाबू बोले—तो फिर कैसे नौकरी मिलती? कार्ड लेकर आता, तो मैं ही कहीं ‘चिपका’ देता.

थूक लगाकर बड़े बाबू टिकिट चिपकाते हैं तो थोड़ा थूक ज्यादा लगाकर प्रतिभा को भी चिपका देते. मगर कार्ड चाहिए और प्रतिभा पर थोड़ी गोंद तो होनी चाहिए. किसी को चिपकाने के लिए कोई पास से गोंद थोड़े ही खर्च करेगा. लोग क्या मिलते नहीं हैं? ऐसे-ऐसे मिलते हैं जिनके शरीर से गोंद के झरने बहते रहते हैं.

कार्ड तो मैं ही सौ-पचास लिखवाकर किसी रोजगार दफ्तर से दिलवा देता. इसमें ‘सदाचार’ वगैरह की बात करना व्यर्थ है. लोग बकते बहुत हैं, पर इसका ठीक अर्थ नहीं जानते. एक साहब ने मुझे समझा दिया था. उनके पास मैं पाँच सौ रुपया घूस लेकर पहुँचा, तो वे बोले—सदाचार सप्ताह चल रहा है. कुछ तो शर्म करो. हजार रुपए के काम के लिए पाँच सौ दे रहे हो. यही तुम्हारा सदाचार है? मैं शरमा गया था.

प्रतिभाओं के बड़े साहब की भी मुझसे बात हो चुकी है. उन्होंने समझाया—भई, ये तुम्हारे प्रतिभावान लोग, एल.डी.सी. और यू.डी.सी. को बरकाकर निकलना चाहते हैं. एक वैज्ञानिक को मैंने चिपका दिया था. एक दिन वह बड़ी फुर्ती में कहीं चला जा रहा था. हमारे एल.डी.सी. ने उसे पकड़ लिया. पूछा—कहाँ जा रहे हो? उसने कहा—प्रयोगशाला. एक बढ़िया चीज सूझ गई है. एल.सी.डी. ने उसका हाथ पकड़कर कहा—ऐसे नहीं जा सकते. ‘थ्रू प्रापर चैनल’ जाओ. लौटो. वह ‘थ्रू प्रापर चैनल’ समझा ही नहीं. वह उसे इंग्लिश चैनल समझा और पार कर गया. सुना है इंग्लिश चैनल अपनी ‘प्रापर चैनल’ से कम चौड़ी है. सैकड़ों सालों की मेहनत से हमारी यह ‘प्रापर चैनल’ बनी है. तुम्हारी ये प्रतिभाएँ उसे तोड़ना चाहती हैं. राष्ट्रीय सम्पत्ति का ऐसा नुकसान कौन बरदाश्त करेगा?

मैंने एक मंत्रीजी से भी इस मामले में बात करके देखी है. उन्होंने कहा—हमने तो जी, छठवीं कक्षा की किताब में पढ़ा था कि न्यूटन ने सेब गिरते देखकर ही कोई खोज कर ली थी. और वाट नाम के लड़के ने जी, उबलती केतली से ही खोज कर ली थी. और वह कौन था जी, हाँ, आर्कमेडीज़, उसने तो नहाते-नहाते खोज कर ली थी. पर आज के इन वैज्ञानिकों को तो बड़ा तामझाम चाहिए. मैं कहता हूँ जी, इतने आम गिरते हैं, पर उन्हें देखकर कोई खोज क्यों नहीं करता? वैज्ञानिक रोज नहाता है, पर खोज नहीं करता. हमने तो जी छठवीं की किताब में पढ़ा था…

मैंने कौम के रहनुमा से भी बात कर ली है. उसने कहा—यह देश पछतावे पर जी रहा है. यह पछतावा खाता है. पछतावा इसका ‘स्टेपल फूड’ (मुख्य खाद्य) है. अगर पछतावे में कमी पड़ जाएगी तो देश मर जाएगा. पछतावों की नई-नई फसल जरूरी है, देश के जिन्दा रहने के लिए.

अगर प्रतिभाओं की कद्र होने लगे, तो पछतावा कम हो जाएगा और देश भूखा मर जाएगा. इसलिए जो हुआ, देश के स्वास्थ्य के लिए अच्छा हुआ.

सबसे मैंने पूछ लिया है. मेरी शिकायत यह नहीं है कि अपनी प्रतिभाओं की कद्र यहाँ क्यों नहीं होती.
मेरी शिकायत है कि ‘इंडियन पेनल कोड’ याने भारतीय दंड संहिता को साहित्य का नोबुल पुरस्कार क्यों नहीं मिला अभी तक?
भारतीय दंड संहिता अपना महान् महाकाव्य है. वह एकमात्र ‘क्लासिक’ है. वह काव्य है और धर्मग्रन्थ भी. सारा जातीय जीवन इसी ग्रन्थ में संचालित हो रहा है. इसी की प्रेरणा से हम राष्ट्रीय जीवन की सिर्फ एक ही साधना कर रहे हैं. उसे ‘लॉ एंड ऑर्डर’ याने ‘कानून और व्यवस्था’ कहते हैं. सारी प्रतिभा हमने कानून और व्यवस्था की साधना में लगा दी, फिर भी ‘भारतीय दंड संहिता’ को अभी तक नोबुल पुरस्कार नहीं मिला—यह मेरी शिकायत है.

‘भारतीय दंड संहिता’ अगर महाकाव्य है, तो जब-तब रचे जानेवाले अध्यादेश ललित गीत हैं. इनका संग्रह अगर ‘नव गीतांजलि’ के नाम से छप जाए, तो पश्चिम में मनीषी ‘गीतांजलि’ के धोखे में इसे नोबुल पुरस्कार दे देंगे. वे समझेंगे रवीन्द्रनाथ अपनी प्रतिभा के शिखरकाल में अध्यादेश लिखा करते थे. सच्चे कवि की पहचान यही है कि वह अध्यादेश लिख सकता है या नहीं.

मेरी शिकायत यह भी है कि जिसने सबसे पहले पुलिस की लाठी के दोनों सिरों पर लोहे के गुट्टे लगाए, उसे भौतिकशास्त्र का नोबुल पुरस्कार क्यों नहीं मिला?

उस दिन अखबारों में पढ़ा कि देश अश्रुगैस में आत्मनिर्भर हो गया, तो समझ गया कि ‘रिनॉसाँ’ हो गया. यों तो पिछले बीस सालों से इस देश में हर चीज अश्रुगैस में बदलती जा रही है. यह अजब रासायनिक क्रिया चल रही है. दुनिया के वैज्ञानिक शोध करें कि देश में गेहूँ और शक्कर अश्रुगैस में कैसे बदल जाते हैं. महँगाई, कालाबाजारी, सूखा और बाढ़ भी अश्रुगैस में बदल जाते हैं. मुझे तो लगता है, पूरा देश ही अश्रुगैस का एक कारखाना है. दुनिया-भर को हम सप्लाई कर सकते हैं. फिर भी अश्रुगैस कम पड़ती थी, तो दूसरे देशों से मँगाते थे. ऐसे देश भी हैं, जिनकी अश्रुगैस में यह खूबी है कि उससे दूसरे लोगों के आँसू ही निकलते हैं. हम ऐसी बहुत-सी गैस बाहर से मँगाते हैं. खिलाने का इन्तजाम चाहे न हो, पर रुलाने का इन्तजाम तो सरकारों को पूरा रखना ही पड़ता है. विदेशी गैस से आँसू आते थे, तो राष्ट्र को शर्म आती थी. अब अपनी ही गैस से जितना चाहो रोओ और रुलाओ.

मेरी यह भी शिकायत है कि जिसने अश्रुगैस में देश को आत्मनिर्भर बना दिया उसे शान्ति का नोबुल पुरस्कार क्यों नहीं मिला?

पुलिस मंत्री महाकवि है. ‘मेघदूत’ लिखता है. लिखता है—’आषाढ़स्य प्रथम दिवसे’—(आगे सरल हिन्दी में)—आषाढ़ के प्रथम दिन जब आकाश में श्याम मेघ छाए थे, सुहावना मौसम देख, यक्ष ने गोली चलाने का हुक्म दे दिया. थोड़ी देर में आकाश ने मनुष्य के रक्त से धरती की माँग भर दी. यह देख यक्ष को प्रिया की याद सताने लगी. उसने मेघ के द्वारा प्रिया को सन्देश भेजा.

हे मेघ, तू उड़कर उत्तर में मेरी प्रिया के पास जा. जब तू तीर्थराज प्रयाग पहुँचेगा, तब वहाँ विश्वविद्यालय में पुलिस अश्रुगैस छोड़ रही होगी. तू वहाँ बरसना मत. पानी से गैस का असर खत्म हो जाएगा. अगर बरसा तो सख्त कार्यवाही की जाएगी. जब तू कानपुर पहुँचेगा तब वहाँ लाठीचार्ज हो रहा होगा. तू वहाँ भी मत बरसना. पानी गिरने से भीड़ तितर-बितर हो जाएगी और पुलिस को सिर फोड़ने का सुख नहीं मिलेगा. जब आगरा पहुँचेगा, तब मूसलाधार बरसना, जिससे सड़क पर का खून धूल जाए. वहाँ जाँच कमीशन आनेवाला है. जब तू सुन्दर इन्द्रप्रस्थ पर पहुँचेगा तब वहाँ गोली चल रही होगी. तू नीचे मत उड़ना. गोली लग जाएगी.

हे मेघ, उड़ता हुआ तू मेरी प्रिया के पास पहुँचकर कहना—प्रिये! (यह मेरी तरफ से कहना. अपनी तरफ से नहीं, वरना साले, दस साल जेल में सड़ा दूँगा) कहना, यक्ष ने सन्देश कहलाया है कि इधर ‘लॉ एंड ऑर्डर’ की हालत अभी अच्छी नहीं है, इसलिए कुछ दिन और ‘कंट्रोल रूम’ में रहूँगा.

मेरी शिकायत है कि इस काव्य पर साहित्य का नोबुल पुरस्कार क्यों नहीं मिलता?

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