शेर सिंह उर्फ शरण सिंह : श्याम सिंह बिष्ट
Sher Singh Urf Sharan Singh : Shyam Singh Bisht
आज बाखली वाले शेरसिंह जी की खुशी का ठिकाना नहीं था, खुशी होती भी क्यों नहीं उन्होंने इतने महंगे शहर में अपने जीवन की जमा पूंजी बचाकर अपना घर जो बना लिया था ।
उनके नया घर बनने की खुशी में मुझे भी ग्रह - पूजा का निमंत्रण पहुंचा मैं भी अगले दिन अपनी झोला, झीमटी लेकर निकल पड़ा उनका नया मकान देखने के लिए - शहरों की अव्यवस्थित भीड़ को चीर कर, उनके बताए हुए बस स्टॉप पर उत्तरा, तौ ऐसा लगा मानो जैसे किसी सैनिक ने युद्ध जीत लिया हो ।
और पास खड़े हुए सज्जन से शेर सिंह के मकान के बारे में पता किया, सही जानकारी ना होने के कारण मुझे उनका मकान ढूंढने में थोड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, पर अपने दोस्त से मिलने की खुशी इन सभी कठिनाइयों पर भारी पड़ गई । आखिरकार मैंने घरों की गलियों के अंदर जाकर कुछ छोटे बच्चों को खेलते हुए देखा, उनमें से कुछ बच्चों का नक्श हमारे पहाड़ों के बच्चों से मिलता-जुलता था ।
मैंने उन्हीं में से एक बच्चे से पूछा -भुला यह शेर सिंह जी का मकान कौन सा है ?
उस बच्चे को शायद पता नहीं था, तभी पास खड़े हुए एक सज्जन व्यक्ति बोले- जिनका नया मकान बना है - वह वाले शरण सिंह क्या ? मैंने बोला हां वही शेर सिंह ।
उनका मकान थोड़ा आगे है उनका जवाब आया ।
थोड़ा आगे चलकर मैं उनके घर पर पहुंचा जैसे ही कदम आगे बढ़ाया तो मकान नंबर प्लेट पर- शेर सिंह की जगह -अपना निवास (शरण सिंह लिखा हुआ था )और साथ में मकान नंबर ।
शायद शेरसिंह जी अब शहर में आकर- शरण सिंह बन चुके थे।
उनके घर के अंदर एक 43 इंच का ऐनडरोएड, एलईडी टीवी, उनकै घर के बाहर वाले कमरे में सोफा सेट, और जमीन पर खूबसूरत सा आलीशान मेट, दिखाई दे रहा था ।
उनसे मिलने पर पैला, जुजा, हुई, शेर सिंह जो, अब शरण सिंह बन चुके थे वह मुझे अंदर वाले पूजा के कमरे में ले गए ।
जहां पंडित जी ग्रह पूजा करने में व्यस्त थे,
पंडित जी को देखकर मैंने बोला - पंडित जी पैला हो,
तभी शरण सिंह जी बोले -अरे भुला यह देसी पंडित है, गांव वाले नहीं । मैंने कहा - अरे वाह शेरसिंह जी इतना खर्चा किया है तो गांव से अपने कुल पंडित को भी बुला लेते तो अच्छा ही होता ।
पर शेर सिंह जी ने मेरी बात बीच में ही काट दी और सामने ही मंदिर की ओर मेरी नजर पड़ी, वहां सभी देवी देवताओं की मूर्ति विराजमान थी, पर मेरे मन में भी एक जिज्ञासा जाग उठी -मैंने बोला अरे शेर सिंह जी यहां सभी मूर्ति है पर तुम्हारे कुलदेवी -देवों और हमारे गोल- जयु (गोलू देवता) की मूर्ति कहां है, उनको भी यहीं बैठा लेते तो अच्छा ही होता ।
पास में खड़ी बोजी (भाभीजी) बोली -मैंने तो कितनी बार इनसे बोला है पर यह मेरी कहां सुनते हैं, कभी कबार बच्चों को झौ- झपन आ जाता है, तौ में अपने कुल देवों का नाम का बभूत लगा दैती हूं और वह ठीक हो जाता है ।
तभी शेर सिंह जी झुंझलाकर बोले -हां हां लगा दूंगा भागयवान।
भोजन करने के बाद शाम को जाने की तैयारी हुई ।
शेर सिंह बोले भुला हमारा गाव का मकान कैसा है अब ?
मैंने कहा क्या बताऊ दाजयु -दीवारे टूट चुकी है, दरवाजे, बलिया सड़ चुके हैं, सीढ़ियों पर घास ऊग चुकी है, पूरे घर में मकड़ी का जाल लग चुका है, अब तो वहां परिंदे भी घर बना कर नहीं रहते,
और तो और तुम्हारा देवी थान भी टूट चुका है ।।
मैंने बोला शेर सिंह जी -एक छोटी सी झोपड़ी गांव में भी बना लेते, कभी कबार बच्चे आते अपना गांव अपना आस-पड़ोस अपनी संस्कृति के बारे में जान जाते।
शेर सिंह जी बोले भुला गांव में फालतू का पैसा व्यर्थ करके क्या फायदा है, बच्चे गांव में आकर क्या करगैं, गांव तक जाने के लिए सड़क नहीं है, और अब तो मुझसे और बच्चों से पैदल भी नहीं चला जाता, और कभी कबार बीमार भी रहता हूं, शहर में ही ठीक है यहां सारी सुविधाएं हैं सब कुछ है ।।
यह बात सिर्फ शेर सिंह जैसे व्यक्ति तक ही सीमित नहीं है- यह बात हर उस शेर सिंह पर लागू होती है जो शहरों में आकर शरण सिंह बन चुके हैं ।
उन लोगों ने खुद तो गांव से पलायन किया साथ में अपनी आने वाली पीढ़ी का भी पहाड़ों से पलायन कर दिया ।
क्या हमारी आने वाली पीढ़ी को हक नहीं है कि वौ अपने पहाड़ों की संस्कृति, भाषा, रीति-रिवाजों को सीखे ?