शेफाली : लोक-कथा (बंगाल)

Shephali : Lok-Katha (Bangla/Bengal)

(शेफाली पश्चिम बंगाल का राज्य पुष्प है)

शेफाली के फूल की लोकप्रियता का कारण इस वृक्ष से सम्बन्धित किंवदन्तियाँ, कथाएँ और लोककथाएँ हैं। इनमें कहीं इसे स्वर्ग का फूल बताया गया है, और कहीं एक दुखी स्त्री के रूप में प्रस्तुत किया गया है। पौराणिक कथाओं के अनुसार शेफाली (पारिजात) देवराज इन्द्र के बगीचे नन्दन वन का एक पवित्र फूल है तथा एक बार इससे देवर्षि नारद ने भगवान श्रीकृष्ण की पत्नी सत्यभामा का गर्व चूर किया था।

भगवान श्रीकृष्ण की पत्नी सत्यभामा अद्वितीय सुन्दरी थी। वह कृष्ण की सभी पत्नियों में सर्वाधिक सुन्दर और रूपवती थी। वह रूपवती होने के साथ ही साथ धन-धान्य से भी बहुत सम्पन्न थी। उसके पिता के पास अपार धन-सम्पदा थी। सत्यभामा को इस बात का गर्व था कि कृष्ण की सभी पत्नियों में उसके समान सुन्दर और वैभवशाली कोई नहीं है। वह यह समझती थी कि यह रूप और धन श्रीकृष्ण के आकर्षण का आधार हैं। उसके रूप और धन पर श्रीकृष्ण मोहित हैं और अपने रूप और धन के बल पर वह श्रीकृष्ण से जो कुछ भी चाहे, करा सकती है।

देवर्षि नारद श्रीकृष्ण से भली-भाँति परिचित थे। वह जानते थे कि श्रीकृष्ण तो भगवान हैं। उन्हें कोई भी अपने रूप और धन के बल पर अपने वश में नहीं कर सकता। उन्हें सत्यभामा के गर्व पर हँसी आती थी। वह, कृष्ण की पत्नी होने के कारण उस पर विशेष ध्यान नहीं देते थे। इधर सत्यभामा का गर्व दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा था। अतः एक दिन देवर्षि नारद ने सत्यभामा को सबक सिखाने का निर्णय लिया। वह सत्यभामा का गर्व चूर करने के साथ ही साथ श्रीकृष्ण को ईश्वर सिद्ध करना चाहते थे। देवर्षि नारद यह सिद्ध करना चाहते थे कि श्रीकृष्ण पर रूप, धन, सम्पत्ति आदि का कोई प्रभाव नहीं पड़ता और श्रीकृष्ण परमपिता परमात्मा हैं। इसके लिए महर्षि नारद ने पारिजात का सहारा लिया।

देवर्षि नारद पारिजात लेने के लिए इन्द्रलोक पहुँचे। उन्होंने इन्द्र के नन्दनकानन से पारिजात का एक फूल लिया और फूल लेकर भगवान श्रीकृष्ण के पास आ गए। श्रीकृष्ण देवी रुक्मिणी के साथ बैठे प्रेमालाप कर रहे थे। अपूर्व सुन्दरी सत्यभामा भी पास ही खड़ी थीं।

भगवान श्रीकृष्ण को जब देवर्षि नारद के आने का समाचार मिला तो उन्होंने नारद को अपने पास ही बुला लिया। वह सम्भवतः नारद के आने का उद्देश्य समझ गए थे।

देवर्षि नारद ने भगवान श्रीकृष्ण के पास पहुँचकर उन्हें और उनकी दोनों पत्नियों को प्रणाम किया और पारिजात भेंट किया।

भगवान श्रीकृष्ण ने देवर्षि नारद की ओर देखा और मुस्कराए। उन्होंने पारिजात की मादक मधुर सुगन्ध का आनन्द लिया और उसे अपने हाथों से देवी रुक्मिणी के बालों में लगा दिया।

नारद का आशय पूरा हो चुका था। उन्होंने एक बार पुनः भगवान श्रीकृष्ण और देवी रुक्मिणी एवं देवी सत्यभामा को प्रणाम किया और लौट गए।

अनिंदय सुन्दरी सत्यभामा ने कभी यह कल्पना भी नहीं की थी कि भगवान श्रीकृष्ण देवर्षि नारद की भेंट इन्द्र के नन्दनकानन का पारिजात उसे न देकर अपने हाथों से देवी रुक्मिणी के बालों में लगाएँगे। उसका दर्प चूर-चूर हो गया। उसे इस सत्य का आभास हो गया कि श्रीकृष्ण ईश्वर हैं और ईश्वर को रूप और धन से वश में नहीं किया जा सकता । वह तो प्रेम, भक्ति और समर्पण चाहते हैं। वही गुण जो देवी रुक्मिणी के पास हैं।

संस्कृत साहित्य शेफाली से सम्बन्धित इस प्रकार की गाथाओं से भरा पड़ा है। भारतीय लोककथाओं, किंवदन्तियों और लोक विश्वासों में भी शेफाली के सम्बन्ध में गाथाएँ प्रचलित हैं। जनजातीय क्षेत्रों में प्रचलित एक किंवदन्ती के अनुसार शेफाली के फूलों की उत्पत्ति एक प्रेमी राजकुमारी की अस्थियों की भस्म से हुई है।

कहते हैं कि बहुत समय पहले एक राजा था। राजा बड़ा नेक, ईमानदार और प्रजा का सभी प्रकार से हितैषी था। वह बहुत धार्मिक प्रकृति का था और विद्वानों का बहुत आदर करता था। वह अपने राज्य में आनेवाले विद्वानों, साधु-सन्तों, ऋषियों-मुनियों आदि को राजकीय अतिथिशाला में ठहराता था और चलते समय उन्हें दान-दक्षिणा देकर सम्मान के साथ विदा करता था। इससे राजा की ख्याति दूर-दूर तक फैल गई थी। राजा ने अपने राज्य का राज्य पुरोहित भी एक अत्यन्त विद्वान और कर्मकांड के ज्ञाता ऋषि को नियुक्त किया था। ऋषि बड़े तपस्वी थे। वह नगर के बाहर जंगल में एक आश्रम बनाकर रहते थे और तपस्या करते थे। राज्य के बच्चे शिक्षा प्राप्त करने उनके पास आश्रम में ही आते थे। ऋषि ने आश्रम के पास ही अपने शिष्यों के भी आवास बनवा दिए थे । उनके शिष्य उनके पास रहकर शिक्षा ग्रहण करते थे। ऋषि राज्य के सामान्य कार्यो में कोई रुचि नहीं लेते थे। वह केवल यज्ञ जैसे कार्यों में ही राजा के विशेष आमन्त्रण पर राजदरवार में पहुँचते थे और कार्य पूरा होते ही अपने आश्रम में वापस आ जाते थे। राजा ऋषि का इतना सम्मान करता था कि उनके राजदरबार में आते ही अपना सिंहासन छोड़ देता था और वह सिंहासन ऋषि को सौंप देता धा। ऋषि बहुत ज्ञानी और दिव्य शक्तियों के स्वामी थे। वह भी कभी राजा थे। एक हजार वर्षों तक राज्य करने के बाद उन्होंने राज-काज छोड़ दिया था और जंगल में आकर तप करने लगे थे। यहीं पर उनकी भेंट एक ऋषि से हुई। उन्होंने ऋषि की निःस्वार्थ भाव से बहुत सेवा की । ऋषि के पास अनेक दैवीय शक्तियाँ थीं। उन्होंने मृत्यु के पूर्व वे शक्तियाँ अपने शिष्य को दे दीं।

ऋषि ने राजपुरोहित का पद अपने हित के लिए नहीं, बल्कि राजा और प्रजा दोनों के हित के लिए स्वीकार किया था। वह राजा और प्रजा दोनों को सीधे-सच्चे रास्ते पर चलना सिखाकर धर्म का वास्तविक अर्थ समझाना चाहते थे। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने अपने आश्रम में योग्य शिष्यों को शिक्षा देने का कार्य आरम्भ किया था। ऋषि दिव्य शक्तियों के ज्ञाता थे। उनके द्वारा सम्पन्न कराए जानेवाले यज्ञ चमत्कारी होते थे । वह वैदिक ढंग से यज्ञ कराते थे। उनकी मन्त्र शक्ति के सम्मुख देवता भी विवश थे। वह मन्त्र पढ़कर जिस देवता का आह्वान करते थे वह यज्ञ स्थल पर उपस्थित हो जाता था और अपना आसन ग्रहण कर लेता था। इस प्रकार ऋषि द्वारा सम्पन्न कराए जानेवाले यज्ञों में इन्द्र, नाग, सूर्य, चन्द्र, वरुण आदि सभी देवता विराजमान रहते थे। राजा के एक बेटी थी। वह बड़ी सुन्दर और चंचल थी। राजकुमारी युवा हो चुकी थी और विवाह करना चाहती थी, किन्तु वह किसी सामान्य पुरुष की पत्नी बनना नहीं चाहती थी। राजकुमारी को सूर्य देवता बहुत पसन्द थे। वह उनके अलौकिक तेज से बहुत प्रभावित थी और उन्हीं के साथ विवाह करना चाहती थी। राजा ने अपनी बेटी को बहुत समझाया, किन्तु वह अपनी जिद पर अड़ी रही। एक बार क्रषि ने भी राजकुमारी को समझाने का प्रयास किया, किन्तु उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा।

धीरे-धीरे कई महीने बीत गए राजकुमारी अभी भी अपनी जिद पर अड़ी हुई थी। उसने अपने माता-पिता से साफ-साफ कह दिया था कि वह विवाह करेगी तो केवल सूर्यदेव से करेगी, अन्य किसी व्यक्ति अथवा देवता से वह विवाह नहीं करेगी। राजकुमारी ने यह भी स्पष्ट कर दिया था कि यदि सूर्य देवता से उसका विवाह नहीं हुआ तो किसी दिन वह आत्महत्या कर लेगी।

एक दिन राजकुमारी ने अपनी एक सहेली और कुछ सैनिकों को साथ लिया और ऋषि के आश्रम की ओर चल पड़ी। प्रातःकाल का समय था। राजकुमारी को ऋषि के आश्रम तक पहुँचते-पहुँचते दोपहर हो गई। वह जिस समय आश्रम में पहुँची, ऋषि भोजन कर रहे थे। ऋषि ने राजकुमारी, उसकी सहेली और साथ आए सैनिकों को भी भोजन कराया और फिर राजकुमारी से आश्रम में आने का कारण पूछा।

राजकुमारी ने पहलेवाली बात दुहरा दी। उसने ऋषि से कहा कि वह सूर्य देवता का आह्वान करनेवाला मन्त्र उसे सिखाए, जिससे वह सूर्य देवता को अपने पास बुला सके और उनसे विवाह कर सके।

......
......
सूर्य ने राजकुमारी की स्थिति देखी तो वह सब कुछ अपने आप समझ गए । राजकुमारी अनिंद्य सुन्दरी थी। सूर्य देवता भी उसके रूप पर मोहित हो गए । इसी समय राजकुमारी ने आगे बढ़कर सूर्य देवता का हाथ पकड़ लिया और उनसे अपने मन की बात कह डाली ।
सूर्य देवता असमंजस में पड़ गए । वह स्वयं राजकुमारी की सुन्दरता पर मोहित हो गए थे, लेकिन देवलोक के नियमों के अनुसार वह किसी पृथ्वीवासी से विवाह नहीं कर सकते थे।

सूर्य देवता ने राजकुमारी को बड़े प्यार से समझाया कि वह देवता हैं और एक पृथ्वीवासी राजकुमारी से विवाह नहीं कर सकते। सूर्य देवता ने राजकुमारी को यह भी बताया कि वह बहुत सुन्दर है और उन्हें पसन्द है, किन्तु विवाह न कर पाने की अपनी विवशता स्पष्ट कर दी।
राजकुमारी को जैसे ही यह मालूम हुआ कि सूर्य देवता उस पर मोहित है तो उसका गर्व और बढ़ गया। उसे लगा कि अब तो वह सूर्य देवता को निश्चित रूप से पा लेगी। उसने सूर्य को मोहक दृष्टि से देखा और उनके निकट आ गई।

सूर्य देवता को भी राजकुमारी भा गई थी। उन्होंने राजकुमारी को अपने आलिंगन में ले लिया। दोनों एक-दूसरे के आलिंगन में रात भर रासलीला में मग्न रहे। प्रातःकाल होने के कुछ समय पूर्व सूर्य देवता ने राजकुमारी को अपने शरीर से अलग किया और देवलोक आ गए।
राजकुमारी स्वप्नलोक में विचरण कर रही थी। सूर्य देवता के साथ उसे अलौकिक आनन्द की अनुभूति हुई थी। इसी आनन्द का रसास्वादन करते-करते उसे नींद आ गई थी और वह स्वप्नलोक में पहुँच गई थी।

राजकुमारी मीठे स्वप्नों में खोई हुई कब तक सोती रही। उसे पता ही नहीं चला। लेकिन जब उसकी आँखें खुलीं तो दोपहर हो रही थी। राजकुमारी अलसाई-सी उठी और पुनः लेट गई। आज उसका बिस्तर छोड़ने का मन ही नहीं हो रहा था। खुशी के कारण उसे न भूख लग रही थी न प्यास। बस यही मन हो रहा था कि आँखें बन्द किए स्वप्नलोक में विचरण करती रहे।

इधर ऋषि ने राजा को सब कुछ बता दिया था। उन्होंने राजा को यह भी बता दिया कि राजकुमारी उनके पास आई थी और उन्होंने उसकी स्थिति को देखकर उसे सूर्य देवता का आह्वान करनेवाला मन्त्र दे दिया था। ऋषि ने राजा को आनेवाले अज्ञात अनिष्ट की आशंका से भी परिचित करा दिया था।
राजा परेशान था। वह कई बार सेविकाओं को राजकुमारी के पास भेज चुका था। किन्तु दोपहर हो जाने के बाद भी राजकुमारी अभी तक सो रही थी। अतः सेविकाएँ उसे जगाए बिना वापस आ गई थीं। अन्त में राजा ने स्वयं राजकुमारी के पास जाने का निर्णय लिया। उनके साथ रानी भी थी।
राजा और रानी के पहुँचने पर राजकुमारी अलसाई-सी उठी और दोनों आँखें झुकाकर खड़ी हो गई। उसने बड़ी धीमी आवाज में सकुचाते हुए उन्हें बताया कि उसके आह्वान पर सूर्य देवता आए थे। वह उसके रूप पर मोहित हैं और शीघ्र ही उससे विवाह कर लेंगे।
राजा और रानी ने बड़े धैर्य के साथ राजकुमारी की बात सुनी। उन्हें उसकी बात पर विश्वास नहीं हुआ। रानी ने राजकुमारी से पूछा कि क्या सूर्य देवता उसके साथ विवाह करने के लिए तैयार हैं?

इस बात का राजकुमारी ने कोई सीधा उत्तर नहीं दिया। उसने बस इतना कहा कि उसे विश्वास है कि सूर्य देवता उसके रूप पर मोहित होकर उससे विवाह कर लेंगे।

राजा और रानी को अपनी बेटी पर बड़ा तरस आया। उन्होंने उसके सिर पर बड़े प्यार से हाथ फेरा और लौट गए।

राजकुमारी शाम ढलने तक कल्पना लोक में विचरण करती रही। वह कभी कुछ गाती तो कभी कुछ गुनगुनाने लगती। कभी बिस्तर पर लेटकर मीठी यादों में खो जाती तो कभी अपने कक्ष में चहलकदमी करने लगती। वास्तव में राजकुमारी को अर्धरात्रि की प्रतीक्षा थी।

धीरे-धीरे शाम ढल गई और रात का अँधेरा बढ़ने लगा। राजकुमारी ने देर तक स्नान किया और फिर पहले के समान स्वच्छ धवल वस्त्र पहनकर सोलह श्रृंगार करके अर्धरात्रि की प्रतीक्षा करने लगी। कल के समान आज भी उसे एक-एक पल काटना कठिन हो रहा था। किन्तु आज की प्रतीक्षा बड़ी सुखद थी।

अर्धरात्रि में कुछ ही पल शेष रह गए थे । राजकुमारी ने एक बार अपने रूप और सौन्दर्य पर गर्वभरी दृष्टि डाली और फिर अपने कक्ष के द्वार के ठीक सामने आसन लगाकर बैठ गई। उसने मन-ही-मन सूर्य देवता को याद किया और ऋषि का दिया हुआ मन्त्र पढ़कर उनका आहवान किया।

पहले की तरह चमत्कार हुआ और राजकुमारी का कक्ष दिव्य प्रकाश से भर उठा। इसी समय एक सुन्दर युवक के रूप में सूर्य देवता प्रकट हो गए।

आज राजकुमारी की आँखें चकाचौंध नहीं हुईं। उसने सूर्य देवता को देखा और आगे बढ़कर उनसे लिपट गई।

सूर्य देवता का व्यवहार कुछ बदला हुआ था। उन्होंने राजकुमारी के सिर पर प्यार से हाथ फेरा और धीरे से उसे अपने शरीर से अलग कर दिया।

राजकुमारी को सूर्य देवता का बदला हुआ व्यवहार देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने आगे बढ़कर पुनः सूर्य देवता के आलिंगन का प्रयास किया, किन्तु सूर्य देवता ने उसे रोक दिया।
राजकुमारी की आँखों में आँसू आ गए।

सूर्य देवता ने राजकुमारी के आँसुओं पर कोई ध्यान नहीं दिया और उसे यह समझाने लगे कि उसका उनके साथ विवाह असम्भव है। अतः वह फिर कभी उन्हें न बुलाए।

राजकुमारी ने सूर्य देवता के पैर पकड़ लिए और उनसे प्रेम की भीख माँगने लगी, किन्तु सूर्य देवता पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा।

अन्त में राजकुमारी ने सूर्य देवता से यहाँ तक कह दिया कि यदि वह उसे पति रूप में नहीं मिले तो वह अपने प्राण दे देगी।

सूर्य देवता ने इस पर भी कोई ध्यान नहीं दिया और रोती-बिलखती राजकुमारी को छोड़कर देवलोक लौट गए।

राजकुमारी का मन दुख, क्षोम और अपमान से भर उठा। उसे अपने रूप और सौन्दर्य पर बड़ा गर्व था। राजकुमारी समझती थी कि तीनों लोकों में जो भी पुरुष उसे देखेगा, उस पर मोहित हो जाएगा । उसे विश्वास था कि सूर्य देवता भी उसके रूपजाल से नहीं बच सकते। सूर्य देवता उस पर मोहित भी हुए, किन्तु उन्होंने उससे विवाह करने से इनकार कर दिया।

राजकुमारी रात भर बिस्तर पर पड़ी रोती रही। उसे अपना जीवन व्यर्थ दिखाई दे रहा था। उसे ऐसा लग रहा था, कि अब वह किसी को अपना मुँह दिखाने योग्य नहीं रह गई हैं। उससे अपना अपमान सहन नहीं हो रहा था।

प्रातःकाल हो रहा था। राजकुमारी रात भर सोई नहीं थी। अचानक वह उठी और उसने महल की छत से नीचे छलांग लगा दी।

कुछ ही क्षणों में राजकुमारी का क्षत-विक्षत शरीर जमीन पर पड़ा था। राजकुमारी की मृत्यु का समाचार मिलते ही राजा-रानी और राज परिवार के सभी लोग एकत्रित हो गए। कुछ देर बाद राज पुरोहित ऋषि भी आ गए। उन्हें अपनी दिव्य शक्ति से राजकुमारी की मृत्यु की जानकारी मिल गई थी।

सभी को राजकुमारी की मृत्यु का कारण मालूम था, फिर भी लोग आपस में कानाफूसी कर रहे थे। जितने मुँह उतनी बातें।

राज पुरोहित के आते ही राजकुमारी के अन्तिम संस्कार की तैयारी आरम्भ हो गई और दोपहर होते-होते राजकुमारी का दाह संस्कार कर दिया गया।

राजकुमारी की चिता अभी ठंडी भी नहीं हुई थी कि अचानक इतनी तेज हवाएँ चलने लगीं, मानो कोई तूफान आ गया। यह पतझड़ का मौसम नहीं था, लेकिन हवाएँ बड़ी तेज चल रही थीं। अर्धरात्रि तक तेज हवाएँ चलती रहीं।

अगले दिन प्रातःकाल लोगों ने देखा कि, जिस स्थान पर राजकुमारी का दाह संस्कार किया गया था, वहाँ अस्थि भस्म का अंशमात्र भी शेष नहीं बचा था। तेज हवाओं ने राजकुमारी की अस्थियों की भस्म को दूर-दूर तक पहुँचा दिया था।

कहते हैं कि राजकुमारी की अस्थियों की भस्म जहाँ-जहाँ पहुँची वहाँ शेफाली के पौधे उग आए और उन पर सफेद रंग के फूल खिले। राजकुमारी ने भी सूर्य देवता से मिलते समय सफेद वस्त्र धारण किए थे।

शेफाली के फूल रात में खिलते हैं और सूर्योदय के पूर्व झर जाते हैं। कहते हैं कि हर रात राजकुमारी शेफाली के फूल के रूप में खिलती और महकती है और प्रातःकाल डाल से टूटकर जमीन पर आ गिरती है। जिससे सूर्य उसे न देख सके।

(डॉ. परशुराम शुक्ल की पुस्तक 'भारत का राष्ट्रीय
पुष्प और राज्यों के राज्य पुष्प' से साभार)

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