शत्रु (कश्मीरी कहानी) : अब्दुल गनी बेग अतहर

Shatru (Kashmiri Story) : Abdul Ghani Beg Athar

भारतीय सीमा के सुरक्षा-गार्डों की निगाहों से बचकर मैं आगे निकला। यही दिन के बारह बजे होंगे। बंकरों से मैंने किसी को निकलते न देखा। शायद वे गहरी नींद में थे अथवा वे इसलिए निश्चिंत बैठे थे कि दिन-दहाड़े कौन माई का लाल सीमा को पार करने का साहस कर सकता है? मैं गाड़ी की तरह तेज दौड़ रहा था। पसीने से नहा रहा था और अपने भाई का चेहरा मेरी आँखों के सामने घूम रहा था। सूचना देनेवाले ने कहा था कि उसकी हालत गम्भीर है। नीलम की एक छोटी-सी बस्ती में भयंकर सन्नाटा छाया हुआ था। मैं दरिया के इस ओर रहता था और मेरे माथे पर 'भारतीय' लिखा हुआ था। वह दरिया के उस पार रहता था और उसके माथे पर 'पाकिस्तान' की मुहर थी। संदेशवाहक ने कहा था कि वह बेहोशी में सिर्फ मेरा ही नाम ले रहा था। सन्देश मिलने के बाद मैं कैसे चुप बैठ सकता था! हमारा खून एक था। दौड़ते हुए आखिरकार मैं अठमुकाम के पुल तक पहुंचा। इस पुल के उस ओर उसका घर था। केवल पाँच मिनट के भीतर ही मैं वहाँ पहुँच सकता था। चोर की भाँति मैंने इधर-उधर देख लिया। मुट्ठी बन्द करके मैंने पुल के ऊपर से दौड़ लगा ली। कुछ ही दूर दौड़ पाया था कि एक तेज आवाज सुनाई दी, "रुक जा!' टाँगों की जान चली गई। नजर उठाई तो उस ओर के दो सिपाही राइफल लिये हुए मेरे सामने खड़े थे। एक बोला, "भारतीय है।" दूसरा बोला, "गिरफ्तार कर लो।"

"नहीं-नहीं जनाब, मैं न भारतीय हूँ और न पाकिस्तानी, मैं कश्मीरी हूँ। उस टूटे-फूटे घर में रहता हूँ। वह देखो, उस घर में मेरा भाई रहता है। वह बहुत बीमार है। वहाँ खुदा के सिवाय उसका और कोई नहीं है। जनाब, यदि आप केवल आधे घण्टे के लिए आजाद कर देते, तो मैं उसकी खैरियत पूछ आता। उसके लिए दवाई ले आता। उसे पानी पिलाता-बस।"

एक सिपाही ने बन्दूक का बट मेरी गर्दन पर मारा। जैसे भूचाल-सा आ गया। मेरे होश उड़ गए। फिर वे मुझे बंकर में ले गये। वहाँ और कई सिपाही थे। उन्होंने भी मेरे माथे की मुहर पढ़ ली और घोषणा की, "भारतीय सेना का जासूस है। फिर मेरी खूब पिटाई हुई। मुझसे कहा गया, 'तुम साफ-साफ बयान दे दो कि तुम भारतीय जासूस हो और पाकिस्तान के शत्रु।'

मैं क्या कहता? यही न कि मैं अपने भाई का दुश्मन हूँ, जिसकी बीमारी की सूचना ने मुझे विचलित कर दिया। फिर मुझे आर्मी हेड-क्वार्टर भेजा गया। वह मेरे भाई के निवास स्थान के बिलकुल निकट था। वहाँ मैंने अफसरों से बार-बार प्रार्थना की कि मुझे हथकड़ी पहनाए हुए ही मेरे भाई के घर तक ले चलो। वहाँ मेरा भाई बहुत बीमार है। केवल उसकी खैरियत ही पूछ लेता। मगर वह कहाँ मानते! नाखून उधेड़कर मेरे घावों पर नमक छिड़का गया। फिर मैं बेहोश हो गया। मुझे लगा जैसे मेरा भाई चारपाई पर पास ही पड़ा अन्तिम साँस ले रहा था। वह बार-बार पानी मांग रहा था और मैं बेड़ियों में जकड़ा एकदम निःसहाय। चारों ओर पानी का कोई नामोनिशान नहीं था। हथकड़ी की एक तीखी नोक से मेरी बाईं बाँह में खरोंच आ गई। खून बहने लगा तो दाईं हथेली को प्याला बनाकर उसमें उसे एकत्र किया। फिर मैं भाई की प्यास बुझाने चला गया। बेड़ियों ने मेरा लहू-भरा हाथ उसके प्यासे मुँह तक न पहुँचने दिया। वह चिल्लाया 'पानी'। फिर उसे हिचकी आई मौत की हिचकी। मैं जोर से चिल्लाया, 'सर्वनाश हो मानव की इस सोच का, जिसने खुदा की इस सल्तनत को टुकड़ों में बाँट दिया। और भाई से कहा कि 'तुम अपने भाई के शत्रु हो।'

मैं गहरी नींद से जागा। वे सारे मूंछों वाले सिपाही आँसू बहा रहे थे। उन्होंने कहा, "खिड़की से देख!"
बाहर मेरे भाई का जनाजा जा रहा था।
"मुझे चन्द लम्हों के लिए आजाद कर दो। मैं उसका चेहरा देखना चाहता हूँ और उसके जनाजे में शामिल होना चाहता हूँ।"

उन्होंने कहा, "हमें पता है कि यह लाश तुम्हारे भाई की है, मगर हम तुम्हें जनाजे में शामिल होने की इजाजत नहीं दे सकते। हम बेबस हैं।"
मैंने विनती की, “अफसरों से आज्ञा ले लीजिये।"

उन्होंने कहा, "वे भी बेबस हैं। मैंने गुजारिश की, "अफसरों के बड़े अफसरों से पूछ लो।" उत्तर मिला, “वो भी बेबस हैं।" मैंने पूछा, "फिर कौन आज्ञा दे सकता है?" उत्तर मिला, “वह सब हमें नहीं पता।"

(अनुवादक : ओंकार कौल)

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