शस्त्र-सहायता और विनम्रता (महाभारत से : कमलेश्वर

(महाभारत प्राचीन भारतीय संस्कृति, ज्ञान-विज्ञान और इतिहास का एक अनोखा, स्पष्ट और तीखा स्वर है। इसका रचनाकाल 1400 ई. पू. माना गया है। प्रस्तुत कथा की मात्र घटनाएँ महाभारत से ली गयी हैं और यहाँ उनका कहानी के रूप में पुनर्लेखन किया गया है। आज के राजनीतिक सन्दर्भों में भी ये उतनी ही महत्त्वपूर्ण और ताजा हैं, जितनी उस समय थीं।)

पांचाल देश के राजकुमार द्रुपद और द्रोण बड़े मित्र थे। वे सहपाठी भी थे। द्रुपद और द्रोण की मित्रता इतनी घनिष्ठ थी कि द्रुपद ने द्रोण से कहा था, “जब मैं पांचाल देश के राजसिंहासन पर बैठूँगा, तो अपना आधा राज्य तुम्हें दे दूँगा, ताकि हमारी मित्रता अविच्छिन्न रहे।” द्रोण ब्राह्मण थे। भरद्वाज मुनि के पुत्र। मुनि भरद्वाज ने अपने पुत्र द्रोण को सारी विद्याओं की शिक्षा अन्य क्षत्रिय राजकुमारों की तरह ही दी थी। वेद-वेदांगों का अध्ययन समाप्त कर द्रोण ने कृपाचार्य की बहन से विवाह किया। उनके एक पुत्र उत्पन्न हुआ परन्तु द्रोण की आर्थिक अवस्था बिगड़ती गयी। तब द्रुपद के वचन याद करके द्रोण पांचाल गये। पर वहाँ उनके पुराने अभिन्न मित्र ने उनका बहुत अपमान किया और उन्हें प्रताड़ित करके निकलवा दिया। द्रोण को अतिशय पीड़ा हुई। ऊपर से भूख की पीड़ा। जब बच्चे अश्वत्थामा को भूख से बिलखते वह नहीं देख पाये, तो भिक्षा के लिए निकल पड़े। वह जंगल में रह रहे थे, अतः कहीं भिक्षा भी नहीं मिली। वहीं उन्हें परशुराम का आश्रम मिला और पता चला कि परशुराम आजकल अपना सब कुछ दान कर रहे हैं... द्रोण वहाँ गये और उनसे भिक्षा की याचना की। तब परशुराम ने कहा, “बहुत दिन हुए। मैंने अपनी सारी सम्पदा वितरित कर दी। अब तो मेरे पास कुछ भी नहीं बचा है।” निराश होकर द्रोण चलने लगे, तो परशुराम को बुरा लगा कि एक ब्राह्मण इस तरह उनके सामने से बगैर कुछ पाये लौट जाए। तब परशुराम ने उन्हें बुलाकर कहा, “अब तो मेरे पास केवल ये दिव्यास्त्र बचे हैं। कुछ और अस्त्र-शस्त्र भी हैं...

आप इन्हें ले लें!” और परशुराम ने अपने सब अस्त्र-शस्त्र, दिव्यास्त्र आदि द्रोण को देते हुए कहा, “इस समय मैं यही दे सकता हूँ। इसे ही आप मेरी सहायता के रूप में ग्रहण करें।” तब परशुराम ने द्रोण को वे मन्त्र भी दिये, जिनसे वे अस्त्र-शस्त्र शक्तिमान हो जाते थे। और उन्होंने द्रोण को उनके उपयोग का विधिवत् प्रशिक्षण भी दिया। जब महाभारत का युद्ध छिड़ा, तो अपने पाँच दिनों के सेनापतित्व में द्रोणाचार्य ने पाण्डवों में हाहाकार मचा दिया। और यह सब द्रोणाचार्य ने उन्हीं अस्त्र-शस्त्रों और दिव्यास्त्रों तथा मन्त्रपूजित ब्रह्मास्त्रों द्वारा कौरवों के लिए सम्पन्न किया, जो उन्हें परशुराम ने तब दिये थे, जब वह भूख से पीड़ित होकर परशुराम के आश्रम में अन्न माँगने गये थे। कुरुक्षेत्र में कौरव-पाण्डव दोनों दल युद्ध के लिए एकत्र हो गये थे। सेनाओं ने व्यूह बना लिये थे। युद्ध प्रारम्भ होने में देर नहीं थी, सहसा धर्मराज युधिष्ठिर ने अपना कवच उतारकर रथ में रख दिया, अस्त्र-शस्त्र भी रख दिये और वे रथ से उतरकर पैदल ही कौरवों की सेना में भीष्म पितामह की ओर चल पड़े। युधिष्ठिर को इस प्रकार शस्त्रहीन, पैदल, शत्रुसेना की ओर जाते देखकर अर्जुन, भीमसेन, नकुल, सहदेव और श्रीकृष्ण भी उनके साथ चल पड़े, तब चिन्तित हो अर्जुन ने पूछा, “महाराज, आप यह क्या कर रहे हैं?”

युधिष्ठिर ने किसी को कोई उत्तर नहीं दिया। उधर कौरव दल में हर्ष-मिश्रित कोलाहल मच गया। लोग कहने लगे, “युधिष्ठिर डरपोक हैं, वह हमारी सेना देख कर डर गये हैं और भीष्म की शरण में आ रहे हैं।” कुछ लोग यह सन्देह भी करने लगे कि यह भीष्म को अपनी ओर फोड़ लेने की कोई चाल है। युधिष्ठिर सीधे भीष्म पितामह के पास पहुँचे और उन्हें प्रणाम कर बोले, “पितामह, हम लोग आपसे युद्ध करने को विवश हो गये हैं। इसलिए आप हमें आज्ञा और आशीर्वाद दें!” भीष्म बोले, “भरतश्रेष्ठ! यदि तुम इस तरह आकर मुझसे युद्ध की अनुमति न माँगते, तो मैं तुम्हें अवश्य पराजय का शाप देता। जाओ, युद्ध करो और विजयी होओ! भरतश्रेष्ठ! मनुष्य धन का दास है, धन किसी का दास नहीं। मुझे धन के द्वारा कौरवों ने वश में कर रखा है, इसी से मैं नपुंसकों की भाँति कहता हूँ कि अपने पक्ष में युद्ध करने के अलावा तुम मुझसे जो चाहो माँग लो।” “आप अजेय हैं, फिर हम लोग आपको संग्राम में किस तरह जीत सकते हैं?” युधिष्ठिर ने कहा, तो भीष्म ने उन्हें दूसरे समय आकर पूछने को कहा। वहाँ से धर्मराज द्रोणाचार्य के पास पहुँचे और उन्हें प्रणाम कर युद्ध की अनुमति माँगी। आचार्य द्रोण ने भी वही बातें कहकर आशीर्वाद दिया। परन्तु जब युधिष्ठिर ने उनसे उनकी पराजय का उपाय पूछा, तो आचार्य ने स्पष्ट कहा, “मेरे हाथ में शस्त्र रहते मुझे कोई नहीं मार सकता। परन्तु मेरा स्वभाव है कि किसी विश्वसनीय व्यक्ति के मुख से युद्ध में कोई अप्रिय समाचार सुनने पर मैं धनुष रखकर ध्यानस्थ हो जाता हूँ। उस समय मुझे मारा जा सकता है।” वहाँ से धर्मराज कृपाचार्य के पास पहुँचे। प्रणाम करके युद्ध की अनुमति माँगने पर कृपाचार्य ने भी वही सब कहा, परन्तु अपने कुलगुरु से धर्मराज उनकी मृत्यु का उपाय नहीं पूछ सके।

यह दारुण बात पूछते-पूछते वह रो पड़े। तब कृपाचार्य ने उनके मन का द्वन्द्व भाँप लिया और कहा, “राजन्, मैं अवध्य हूँ। परन्तु मैं तुम्हारी विजय में बाधक नहीं बनूँगा।” फिर धर्मराज मामा शल्य के पास गये। शल्य ने भी आशीष दिया और वचन दिया कि वह कर्ण को हतोत्साह करते रहेंगे। गुरुजनों को प्रणाम करके, उनकी अनुमति और विजय का आशीर्वाद लेकर युधिष्ठिर भाइयों के साथ अपनी सेना में लौट आये। उनकी इस विनम्रता ने भीष्म, द्रोण आदि के मन में ऐसी सहानुभूति उत्पन्न कर दी, जिसके बिना पाण्डवों की विजय सन्दिग्ध थी।

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