Sharar Aur Sarshaar (Hindi Nibandh) : Munshi Premchand
शरर और सरशार (हिन्दी निबंध) : मुंशी प्रेमचंद
हकीम बरहम साहब गोरखपुरी ने अगस्त-सितंबर के ‘उर्दू-ए-मुअल्ला’ में अद्भुत योग्यता और बारीकी से शरर और सरशार की तुलना की है जिसमें आपने हजरत शरर को ऐसा आसमान पर चढ़ाया है कि बेचारे सरशार का नाम तक उनके मुकाबले में लिया जाना ठीक नहीं समझते। उनके लेख का सारांश यह है कि सरशार का उर्दू लिटरेचर की गर्दन पर कोई एहसान नहीं है। अच्छा होता कि ऐसा लेख लिखने के पहले हकीम साहब ने यह भी देख लिया होता कि उनसे ज्यादा योग्य आलोचकों ने जिनमें शेख अब्दुल कादिर बी. ए. भी हैं, उर्दू जबान में सरशार को क्या जगह दी है। यह ध्यान रखना जरूरी है कि उर्दू शायरों या उनकी शायरी पर हर सुरुचि-सम्पन्न उर्दूदाँ राय दे सकता है मगर उर्दू नाविल पर कुछ लिखने की जवाबदेही वही आदमी ले-सकता है जो कम से कम अंग्रेजी भाषा के मशहूर उपन्यासकारों की कृतियों से परिचित हो। इस लिहाज से शेख साहब की आलोचना हकीम साहब के मुकाबले में कहीं ज्यादा वजन रखती है। मिस्टर चकबस्त का लेख आलोचनात्मक था। उसमें सरशार के गुणों के साथ-साथ उनके दोषों पर प्रकाश डाला गया था। मगर हकीम साहब ने सरशार की त्रुटियाँ तो सबकी सब दिखा दीं, चाहे काल्पनिक ही सही, मगर शरर को बिल्कुल निर्दोष समझा हालांकि सब लोग जानते हैं कि आज तक कोई आदमी ऐसा नहीं हुआ जिसमें ख़ूबियों के साथ-साथ बुराइयाँ न पाई जाएँ।
हम हकीम साहब के कहने से इस बात को मान लेते हैं कि हजरत शरर अरबी के फाजिल, फारसी के बहुत बड़े आलिम और अपने वक्त के बहुत बड़े विद्वान हैं। बहुत-सी योरोपीय भाषाएँ भी अच्छी तरह जानते हैं। डिक्शनरी की मदद से तर्जुमे कर सकते हैं और उर्दू गद्य में तो एक नए रंग के प्रवर्तक और आधुनिक साहित्य के जन्मदाता हैं। इसके विपरीत बेचारा सरशार फारसी में कच्चा और अरबी में नादान बच्चा है। इतिहास-भूगोल से उसको जरा भी लगाव नहीं, योरप की भाषाओं का क्या जिक्र उर्दू में भी काफी योग्यता नहीं रखता। मगर हमको इस वक्त इन बड़े लोगों की निजी योग्यताओं से बहस नहीं। हम सिर्फ यह देखना चाहते हैं कि कहानी लिखने के मैदान में किस का कलम उडानें भरता है और इस कला में कौन अधिक कुशल है।
स्पष्ट है कि उपन्यास लिखना और बात है, आलिम-फाजिल होना और बात। बिल्कुल उसी तरह जैसे शायरी का हाल है। गोल्डस्मिथ, शेली, बायरन जैसे बड़े-बड़े कवि अपने कालेज के भगाए हुए लोगों में से थे। उसी तरह थैकरे और डिकेन्स पांडित्य की दृष्टि से अपने समय के दूसरे विद्वानों से कहीं घटकर थे मगर कहानी के आसमान पर यही दोनों नाम तारे बनकर चमके ।
'फसाना’ और ‘नाविल’ हमको उस अनोखे भेद की याद दिलाते हैं जो हकीम साहब ने उनके बीच रक्खा है। हकीम साहब को मालूम होगा कि ‘नाविल’ अंग्रेजी शब्द है और अगर उसका अनुवाद हो सकता है तो वह ‘फसाना’ है। शाब्दिक रूप से दोनों में कुछ अंतर नहीं है किंतु आशय की दृष्टि से दोनों का अंतर काफी स्पष्ट है। नाविल उस किस्से को कहते हैं जो उस जमाने को, जिसका कि वह जिक्र कर रहा है, साफ-साफ तस्वीर उतारे और उसके रीति-रिवाज़, अदब-कायदे, रहन-सहन के ढंग वगैरह पर रोशनी डाले और अलौकिक घटनाओं को स्थान न दे या अगर दे तो उनका चित्रण भी इसी खूबी से करे कि जन-साधारण उनको यथार्थ समझने लगें। इसी का नाम है नाविल या नए ढंग का किस्सा। ‘फसानये अज्ञायब’ या ‘गुलाबकावली’ या ‘किस्सए मुमताज’ या ‘तलिस्मे होशरुबा` या ‘बोस्ताने खयाल’ सब पुराने ढंग के किस्से हैं जिनमें नए किस्से का खूबियों की गंध तक नहीं। हाँ, मीर अम्मन देहलवी की लोकप्रिय पुस्तक ‘बागोबहार’ या ‘दास्ताने अलिफलैला’ कुछ हद तक ऊपर लिखी गई खूबियाँ रखती हैं यानी अपने जमाने की तहजीब पर एक धुँधली रोशनी डालती हैं।
इस कसौटी को अपने सामने रखकर अगर सरशार के किस्सों को देखिए तो ऐसी कौन-सी खूबी है जो इनमें भरपूर नहीं। सच तो यह है कि उनकी सब किताबें अपने जमाने की सच्ची तस्वीरें हैं। अगर आज से सौ बरस बाद कोई ‘फसाना-ए-आजाद’ को पढ़े तो उसको आज से पच्चीस बरस पहले की तहजीब और सोचने-विचारने के ढंग और साधारण लोगों की साहित्य रुचि की झलकियाँ साफ नजर आएँगी जो इतिहास के अध्ययन से, चाहे वह कैसा ही विस्तृत और गंभीर क्यों न हो, हरगिज नजर नहीं आ सकतीं। सांस्कृतिक जीवन का कोई ऐसा पहलू नहीं जिस पर सरशार की जबान ने अपने निराले ढंग से फूल न बरसाए हों। यहाँ तक कि मदारियों के खेल, भांडों की नकलें, बाजारू शराब पिलानेवालियों के नखरे और ऐसी ही बेशुमार बातों की छोटी-छोटी बारीकियों में भी अद्भुत चित्रकार का कौशल दिखाया है। कहने का मतलब यह है कि `जमाने की तस्वीर` में जितनी बातें शामिल हैं उन सब पर सरशार के जादू-भरे कलम ने अपना चमत्कार दिखाया है।
इसके विपरीत हजरत शरर के जो उपन्यास मशहूर हैं उनमें कोई तो सलीबी लडाइयों (क्रूसेड) के जमाने का है, कोई महमूद गजनवी के हमले के जमाने का, कोई रोम और रूस की लडाई के वक्त का, कोई उस जमाने का जब मुसलमानों के कदम स्पेन से उखड़ चुके थे। मतलब यह कि सभी पाठक को दस-पाँच सदियाँ पीछे ले जाते हैं और चूँकि हजरत शरर को इन बातों का व्यक्तिगत अनुभव नहीं है इसलिए वह उस समय की घटनाओं का ऐसा चित्र हरगिज नहीं खींच सकते जो असल से मेल खाए। उनकी जानकारियों का सबसे उपजाऊ साधन इतिहास है, और ऐतिहासिक ज्ञान चाहे कितना ही व्यापक क्यों न हो, निजी और प्रत्यक्ष निरीक्षण की बराबरी नहीं कर सकता। ऐलफ्रेड लायल, जो एक जाना-माना अंग्रेजी आलोचक है, लिखता है कि आज तक किसी उपन्यासकार को ऐतिहासिक उपन्यास लिखने में सफलता नहीं मिली और न उसका मिलना संभव है; एक ऐसे युग के विचारों और घटनाओं की फोटो उतारना जिसको बीते हुए सदियाँ गुजर गईं, सरासर कल्पना की चीज है। हम यही अंदाजा कर सकते हैं कि ऐसी हालतों में ऐसा हुआ होगा, विश्वास के साथ हरगिज नहीं कह सकते कि ऐसा हुआ। जार्ज इलियट ने अपनी सारी उम्र में केवल एक ही ऐतिहासिक उपन्यास लिखा जिसमें इटली की एक ऐतिहासिक घटना बयान की और कई महीने तक उन्होंने वहाँ की सामाजिक प्रणाली का अध्ययन किया और जितने प्रामाणिक इतिहास वहाँ के पुस्तकालयों में प्राप्त हो सके उनको ध्यान से पढ़ा तब भी ‘रमोला’ के बारे में लोगों (अंग्रेजों) का खयाल है कि वह घटनाओं के अनुरूप नहीं। सर वाल्टर स्काट, जिसका शरर साहब ने अनुकरण किया है, ऐतिहासिक उपन्यासकारों का सरताज समझा जाता है मगर इसके बावजूद कि उसकी कल्पना-शक्ति बहुत प्रखर थी और वर्णन-शैली अत्यंत सशक्त तो भी उसके ऐतिहासिक उपन्यास अंग्रेजी आलोचकों की आँखों में नहीं जंचे। उसके रिचर्ड या सुल्तान सलाहउद्दीन बिल्कुल नकली मालूम होते हैं। जब स्काट और जार्ज इलियट जैसे कलम के जादूगर भी ऐतिहासिक उपन्यास सफलतापूर्वक नहीं निखार सकते तो हजरत शरर अपूर्ण इतिहासों की सहायता से जिस हद तक ऐसे उपन्यासों के लिखने में सफल हो सकते हैं उसका अनुमान किया जा सकता है। यह एक पक्की बात है कि कल्पना कभी निरीक्षण की बराबरी नहीं कर सकती। सरशार ने पहले ही से इन कठिनाइयों को समझ लिया और जिस प्रलोभन में पड़कर औरों ने अपनी मेहनत अकारथ की उससे बचा रहा। हजरत शरर स्काट के अनुकरण के जोश में बिल्कुल भूल गए और वही गलती कर बैठे।
मगर जरा शरर के उन नाविलों को देखिए जिनमें इन्होंने मौजूदा सोसाइटी की तस्वीरें खींचने की कोशिश की है तो खयाल होता है कि अच्छा ही हुआ उन्होंने ऐतिहासिक उपन्यास ही को अपनी कीर्ति का साधन बनाया क्योंकि भगवान् ने उनको तस्वीर खींचने की वे योग्यताएँ नहीं दीं जिनके बिना प्रत्यक्ष घटनाओं की सच्ची तस्वीर खींचना असंभव है और ऐतिहासिक उपन्यासों ने उनकी इस कमजोरी पर पर्दा डाल दिया।
आश्चर्य होता है कि हकीम बरहम जैसा आदमी यह लिखने की क्योंकर हिम्मत कर सका कि सरशार के ‘फसाना-ए-आजाद’ या दूसरे उपन्यासों में कोई कथानक या कोई निष्कर्ष नहीं है और न उनमें कोई समस्या है और न कोर्र उद्देश्य ही उनमें रक्खा गया है। जिनको भगवान ने न्यायपूर्ण दृष्टि दी है वे देख सकते हैं कि सरशार का कोई उपन्यास निष्कर्ष या उद्देश्य से खाली नहीं है। ‘फसाना-ए-आजाद’ को ही ले लीजिए। क्या उसमें कोई कथानक नहीं? आजाद का गहरी छान-बीन करने वाली निगाहें लेकर गलियों-बाजारों की खाक छानना, नवाब के दरबार में नौकरी करना, बटेर की तलाश में जाना, और बी भटियारी की तिरछी चितवनों का शिकार बनना, फिर हुस्नआरा के इश्क में गिरफ्तार होना, बड़ी हिम्मत से काम लेकर रोम को जाना, वहाँ बहादुरी के जौहर दिखाना, पोलैंड की शहज़ादी के जाल में फंसना, फिर विजयी होकर हिन्दुस्तान को लौटना, हुस्नआरा से ब्याह करना – यह कथानक नहीं है तो क्या है? एतराज करने वाला कहेगा कि कथानक है तो जरूर लेकिन बिल्कुल मामूली। हाँ, बहुत ठीक। प्लाट बिल्कुल मामूली है और वह भी सरासर ऊपरी। भीतरी प्लाट से जरा भी काम नहीं लिया गया। मगर ध्यान रहे कि उपन्यास-कला का शिखर यही है कि साधारण और सीधी-सादी लेखन-शैली में जादू का रंग पैदा कर दिया जाय। जार्ज इलियट का कायदा था कि वह अपने उपन्यासों के कथानक कभी बयान नहीं किया करती थी। इस मौके पर यह अर्ज करना और भी मुनासिब मालूम होता है कि ऐतिहासिक उपन्यास के लिए इन दो तरह के कथानकों की अत्यंत आवश्यकता है, उनके बिना किस्सा चल ही नहीं सकता। मगर ऐसे उपन्यासों के लिए जिनमें समाज के चित्र दिखाए जाएँ, बहुधा कथानक कथा के पात्रों को इस घर से उस घर और इस शहर से उस शहर तक ले जाने पर ही खत्म हो जाता है, ताकि लेखक को समाज के हर एक पहलू पर कलम चलाने का मौका मिले। चार्ल्स डिकेन्स की मशहूर किताब ‘पिकविक’ पढ़िए और उन पर एतराज कीजिए। ऐसे उपन्यासों के कथानक आमतौर पर ऊपरी हुआ करते हैं। उस पर सरशार ने यह कमाल किया है कि आजाद के किस्से के साथ-साथ शहजादे हुमायूंफर और बी अलारक्खी का किस्सा भी लिखा है ताकि पढ़ने वाले का दिल एक ही किस्सा पढ़ते-पढ़ते घबरा न जाय। इसके अलावा बीच-बीच में समाज की बुराइयाँ बड़े मोहक ढंग से दिखाता गया है जिनका सिलसिला किस्से से नहीं मिलता और न लिखने वाले की यह नीयत थी। पाठक जानते हैं कि ‘फसाना-ए-आजाद’ अखूबार की सूरत में प्रकाशित हुआ करता था और उस सुर्खी से कभी-कभी ऐसे लेख भी निकला करते थे जिनका जोड़ किस्से से नहीं मिलता था और गो इस किताब के कई संस्करण छप चुके हैं मगर मालिकों ने कभी इतनी तकलीफ गवारा न की कि उन लेखों को ‘फसाना-ए-आजाद’ से अलग कर दें ताकि किस्सा सिलसिलेवार हो जाय और उसके प्रवाह में कोई बाधा न पड़े। ‘फसाना-एआजाद’ के अलावा सरशार के तीन उपन्यास और हैं जो लोकप्रिय हो चुके हैं यानी ‘कामिनी’, ‘सैरे कोहसार’ और ‘जामे सरशार'। इन तीनों किताबों में कथानक का तो वही रंग-ढंग है जो ‘फसाना-ए- आजाद’ का मगर कुछ ज्यादा सुलझा हुआ। दैनन्दिन जीवन की घटनाएँ उसी हास्यपूर्ण शैली में लिखी गई हैं कि पाठक पन्ने के पन्ने पढ़ता जाता है मगर उसका जी नहीं भरता। कोई दूसरा आदमी जिसने वही दिमाग और वही दिल न ,पाया हो ऐसा रूखी- सूखी साधारण घटनाओं में ऐसी दिलचस्पी और रंगीनी नहीं पैदा कर सकता। जिस तरह कविता में सहज बात कहना हर आदमी का काम नहीं उसी तरह किस्सा लिखने में भी रूखे-फीके विषय में घुलावट पैदा करना कुछ ही लोगों के बस की चीज है।
हकीम बरहम साहब ने फरमाया है कि सरशार के उपन्यासों में न कोई उद्देश्य है न विचार। जितना ही इस पर गौर करते हैं उतनी ही उलझन मालूम होती है कि इस बात पर हँसें या गंभीरता से उसका जवाब दें। सरशार ने उन सामाजिक रोगों के उपचार का बीड़ा उठाया था जिनके पंजे में फँसकर समाज की जान निकली जा रही थी और दूसरे अनुभवी वैद्यों ू और हकीमों की तरह उसने भी कड़वी बदमजा दवायें शक्कर और मिश्री में घोलकर पिलाई। जिन लोगों के पास आँख है वह जानते हैं कि बीमारियों की रोक-थाम का कोई साधन ऐसा उपयोगी और असरदार नहीं है जितना कि दिल्लगी का कोड़ा और सरशार ने बड़ी बेरहमी से ऐसे कोड़े लगाए हैं। मसलन रेवेन्यू एजेंट और सलारबख्श जो मजाक का निशाना बनाए गए हैं, उसका उद्देश्य सिर्फ इतना है कि वकीलों की बहुतायत और उनकी महत्त्वहीनता का खाका उड़ाया जाय और इस घटना से यह भी प्रकट होता है कि दुष्ट लोग भोली-भाली औरतों को कैसी-कैसी ऊपरी दिखावे की चीजों से अपने धोखे के जाल में फँसाया करते हैं। डिकेन्स ने भी सर्जेन्ट बजफज के परदे में वकीलों की खूब खूबर ली है। मगर सरशार की बेधडक ठिठोली डिकेन्स के गंभीर व्यंग्य से अधिक प्रभावशाली हैं।
इसी तरह बी अलारक्खी का अपने खूसट शौहर के नाम खत लिखवाना उन कामुक बुड्ढों पर हमला है जो कब्र में पाँव लटकाए बैठे हैं मगर कमसिन औरतों से शादी करने का चाव दिल में रखते हैं। इसी तरह नवाब के दरबार, घर-बार का जो खाका खींचा है उससे वसीका खाने वालों का बुद्धूपन और उनके मुसाहिबों की ऐयारी दिखाना इष्ट है। और ‘जामे सरशार’ तो शुरू से आखिर तक शराबखोरी के बुरे नतीजों से लोगों को सावधान करने के लिए लिखा गया है। कामिनी लाजवन्ती, वफादार, पति- परायणा स्त्री का सुंदरतम उदाहरण है और हुस्नआरा का कौमी जोश, जिसने साधारण ऐन्द्रिक इच्छाओं का दबा लिया है, मिस नाइटिंगेल के लिए भी गौरव का कारण हो सकता है। कहने का अभिप्राय यह कि सरशार के जितने उपन्यास हैं वे मनुष्य के विचारों, उनके अच्छे और बुरे आचरणों और उनको सुंदर और नीच भावनाओं के सच्चे चित्र हैं जिन पर हँसी- ठिठोली का शोख रंग बेहद ख़ुशनुमा और लुभावना होता है। ऐसी कोई घटना नहीं जिसको सरशार ने अपनी किताबों में अनावश्यक स्थान दिया हो। यहाँ पर यह कह देना जरूरी मालूम होता है कि बहुधा किसी घटना का वर्णन करना स्वयं एक निष्कर्ष होता है।
मगर ग़ालिबन हकीम साहब ऐसे निष्कर्षों या नतीजों को नतीजा न
समझेंगे। उनके नजदीक उस नाविल के शीशे में निष्कर्ष, उद्देश्य और
विचार भरे होते हैं जिस पर इस तरह का कोई लेबुल लगा होता है –
'इस उपन्यास में पर्दे के बुरे नतीजे दिखाए गए हैं।'
या
'इस उपन्यास में यह सिद्ध किया गया है कि मर्जी के खिलाफ शादियों का
हमेशा बुरा नतीजा होता है।'
या
'इस उपन्यास में सलीबी लड़ाइयों का जोशो-खरोश और आपस के
मजहबी झगड़ों के भयानक नतीजे बड़ी खूबी से दिखाए गए हैं।’ आदि-
आदि।
हजरत शरर और उनके शिष्य स्वर्गीय आशिक हुसेन साहब लखनवी और मौलवी मुहम्मद अली साहब के सभी उपन्यासों के टाइटिल पेज पर इस तरह की कोई न कोई इबारत जरूर मिलती है, गोया उपन्यास न हुए कोई दर्शन की किताब हुई जिसमें किसी न किसी थ्योरी को स्थापित करना जरूरी है; इस तरह नतीजा निकालना चाहे ईसप के किस्सों के लिए उचित ठहराया जा सके मगर ऊँचे दर्जे के उपन्यासों के लिए हरगिज ठीक नहीं है। मजा तो जब है कि नतीजा ऊपर से नीचे तक भरा हो और ऐसे सरल, अनायास ढंग से कि पाठक के दिलों में खूब जाय। किसी किस्से के ऊपर उसका उद्देश्य लिखा हुआ देखकर हमको उसके पढ़ने की इच्छा बाकी नहीं रह जाती। अंग्रेजी में शायद ही कोई उपन्यास ऐसा होगा जिसमें ऐसे निकृष्ट ढंग से निष्कर्ष दिखाए गए हों, बल्कि आस्कर ब्राउनिंग ने तो एलानिया कह दिया है कि, ‘सबसे निकृष्ट उपन्यास वे हैं जिनमें कोई विशेष समस्या रक्खी जाय।’ और उसने बहुत ठीक कहा है। मनुष्य की भावनाओं और स्थितियों व प्रकृति के दृश्यों और संसार के चमत्कारों की तस्वीर खींचना स्वयं एक निष्कर्ष या नतीजा है। विज्ञान या दर्शन की बारीकियों को हल करने के लिए उपन्यासकार बनाया ही नहीं गया है बल्कि सच तो यह है कि दार्शनिक कभी उपन्यास लिख ही नहीं सकता।
कथानक के बाद जब उन पात्रों को लीजिए जो उपन्यास के स्टेज पर ऐक्ट करते हैं तो जाहिर होता है कि ऊँचे दर्जे के उपन्यासों में खास-खास पात्रों की आदतें, तौर-तरीके और सोचने-विचारने के ढंग में एक न एक विशेषता पाई जाती है और वही विशेषताएँभिन्न-भिन्न अवसरों पर और भिन्नभिन्न स्थितियों में प्रकट होती हैं। इसके विपरीत निम्न श्रेणी के उपन्यासों में या तो पात्र साधारण सीधे-सादे आदमी होते हैं या उनकी विशेषताएँ जाति, स्थान, पेशे या कुछ घिसी-पिटी बातों पर आधारित होती हैं और ऐसे ही उपन्यास उर्दू में अधिकांशतः दिखाई पड़ते हैं।
बंगाली जब आएगा अपने बोदेपन का सबूत देगा। मारवाड़ी हमेशा कंजूस मक्खी-चूस बनाया जाता है। लाला साहब बेचारे हमेशा अपनी घर की बनाई हुई फारसी बोलते सुनाई देते हैं। राजपूत हमेशा अक्खड़ और उग्र स्वभाव का होता है। ननद-भौजाई में आठों पहर दांता-किलकिल हुआ करती है। मौलवी साहब हमेशा अपनी जुमेराती की फिक्र में परीशान रहते हैं। मगर यह हरगिज न खयाल करना चाहिए कि बड़े उपन्यासकार इस तरह के पात्रों से काम नहीं लिया करते बल्कि सचमुच अच्छे उपन्यासों में दोनों तरह के पात्र मौजूद होते हैं। मसलन् डिकेन्स के ‘पिकविक’ को ले लीजिए। उसमें पिकविक, विन्कल, स्नाडग्रास, टपमैन, वार्ड और विलियर में जो विशेषताएँ हैं वह सरासर उनकी अपनी हैं। और परकर, बज्रफज, डॉडसन और स्टिगिन्स आदि में जो भेद किया गया है वह किसी खास पेशे का मजाक उड़ाने के लिए। इसी तरह और भी उदाहरण दिए जा सकते हैं। चार्ल्स डिकेन्स की तरह हजरत सरशार ने भी अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के पात्रों से सहायता ली। यह बिल्कुल ठीक है कि सब पात्र लखनवी हैं। मगर जब उसने सारे किस्से लखनऊ ही के लिखे तो पात्र क्या लन्दन से लाता? हाँ, यह देखना चाहिए कि उनमें लखनऊ के बेफिक्रों की ऐसी विशेषताएँ जो उन्हें दूसरों से अलग करती हैं, किस नफासत से दिखाई हैं। मिर्जा हुमायूंफर भी लखनवी हैं और आजाद भी लखनवी मगर दोनों के स्वभाव में बहुत स्पष्ट अंतर रक्खा गया है। अगर आजाद की जगह पर हुमायूंफर को रख दीजिए तो किस्सा बिल्कुल पलट जाएगा। नवाब साहब भी लखनवी हैं मगर हुमायूंफर से बिल्कुल अलग-थलग। मिर्जा असकरी भी लखनवी हैं मगर हुमायूंफर या आजाद से उनको मिलाइए तो जरा भी मेल नहीं खाते। उसी तरह हुस्नआरा, जहानआरा, सिपहआरा, गेतीआरा, बहारुन्निसा सब लखनऊ को शरीफजादियाँ हैं मगर सबों के स्वभावत में सूक्ष्म और गंभीर विशेषताएँ पाई जाती हैं। बहारुन्निसा को भूलकर भी हुस्नआरा का अक्स नहीं समझ सकते और न सिपहआरा को हुस्नआरा से मिला सकते हैं। इसी को उच्चकोटि की उपन्यास-कला कहते हैं। निम्नकोटि के पात्र भी बहुत से मौजूद हैं। मौलवी साहब, नए, जंटिलमैन, बी अल्लारक्खी और बी अब्बासी, हकीम साहब और रेवेन्यू एजेन्ट वगैरह-वगैरह हजारों लोग हैं जो किसी खास फिरके या पेशे का मजाक उड़ाने के लिए लाए गए हैं।
मगर इसके साथ ही यह भी खयाल रहे कि सरशार जब कभी अपने पात्रों को लखनऊ से बाहर, दूर-दूराज की जगहों पर ले गया है तो वहाँ उनको गैर-लखनवी बनाने का खूब ध्यान रक्खा है। मिस मोडा या मिस रोज या पोलैंड की शहजादी लखनऊ की शरीफजादियाँ नहीं कही जा सकतीं। अलीकूपाशा या कुस्तुनतुनिया के होटल का सौदागर लखनऊ के आवारा और बाजारी बेफिक्रे नहीं हैं।
हकीम साहब ने जो कमजोरियाँ सरशार में दिखाई थीं वह सब की सब शरर के पात्रों में पाई जाती हैं। इसमें कोई शक नहीं कि उन्होंने पात्रों का चुनाव बड़ी खूबी से किया – किसी को रोम से बुलाया, किसी को अरब से, किसी को मिस्र से, किसी को फारस से, मगर न तो उनकी जातीय विशेषताओं को और न उनकी अपनी निजी विशेषताओं को सफलतापूर्वक दिखा सके । उनके जितने नायक हैं वह सब मनचले, स्वाभिमानी, सुंदर, लंबे-तडंगे और सुसंस्कृत हैं। लिहाजा अगर हसन की जगह मलिकुल अजीज चला आए तो वह भी अपना हिस्सा इसी खूबी से अदा करेगा। इसी तरह उनके स्त्री पात्रों में भी यही दोष मिलता है। अजरा, वर्बीना, एंजेलिना , फ्लोरिन्डा सब की सब हर हालत में बिल्कुल एक-सी हैं, उनमें अंतर है तो इतना ही कि वह अलग-अलग कौमों की बताई गई हैं। हम एक को दूसरे से अलग नहीं पहचान सकते। अगर अजरा का हिस्सा एंजेलिना को दे दिया जाय तो भी अस्ल किस्से पर कुछ असर न पड़ेगा। यह त्रुटि शरर के सब उपन्यासों में पाई जाती है और जैसा कि हम पहले कह चुके हैं जिस उपन्यास में ऐसे साधारण पात्र पाए जाते हैं उसकी गिनती निम्नकोटि के उपन्यासों में होती है।
सरशार पर वह अभियोग लगाया गया है कि उसके सब पात्र लखनऊ ही के स्त्री-पुरुष हैं। फिर इसमें हर्ज की क्या है? एक शहर तो क्या एक मुहल्ले और परिवार में अलग-अलग स्वभावों और तौर-तरीकों के लोग हो सकते हें और एक सचमुच कला का धनी उपन्यासकार उन्हीं की रोजमर्रा की जिंदगी में जादू का-सा असर पैदा कर सकता है। इसके अलावा एक खास जगह के दृश्यों और संस्कृति का विस्तृत चित्र दिखाना कहीं ज्यादा अच्छा है बजाए इसके कि सारी दुनिया के भौगोलिक नक्शे दिलाएँ जाएँ। मगर इसका हमेशा खयाल रखना चाहिए कि उपन्यास लिखने को सफलता यही नहीं है कि पात्रों में केवल विशेषताएँ पैदा कर दी जाएँ। यह तो कुछ ऐसा मुश्किल काम नहीं। सच्ची कारीगरी तो इसमें है कि पात्र। में जान डाल दी जाय, उनकी जबान से जो शब्द निकलें वह खुद ब खुद निकलें, निकाले न जाएं, जो काम वह करें खुद करें, उनके हाथ-पाँव मरोड़कर जबर्दस्ती उनसे कोई काम न कराया जाय। इस कसौटी पर सरशार के पात्रों को कसिए तो वह आमतौर पर खरे निकलेंगे। उनमें वही चलत-फिरत है जो जीते-जागते आदमियों में हुआ करती है। उनमें वही छेड़छाड़, वही हँसी-मजाक, वही गुप-चुप इशारे, वही गुल-गपाडे होते हैं जो हम अपनी बेतकल्लुफी की मजलिसों में किया करते हैं। उनकी एक-एक बात से हमको हमदर्दी हो जाती है। वह हमको हँसाते हें, रुलाते हैं, चिढ़ाते हैं, सताते हैं, उनके कहकहे की आवाजें हमारे कान में आती हैं, हमारे दिल में गुदगुदी पैदा होती है और हम खुद ब खुद खिलखिला पड़ते हैं। उनके रोने की दिल हिला देने वाली आवाजें हम सुनते हें और हमारी आँखों में बरबस आँसू भर आते हैं। कौन ऐसा गंभीर आदमी है जो बुआ जाफरान और ख्वाजा बदीया की लगावट-बाजियों पर हँस न पड़े। ऐसा कौन संगदिल होगा जो शहजादा हुमायूंफर की हत्या के समय प्रभावित न हो जाए या कामिनी को रंडापे का विलाप करते देखकर रोने न लगे। और पात्रों को जाने दीजिए, सरशार का खोजी ही एक ऐसी अमर सृष्टि है जो दुनिया की किसी जबान में उसकी जबर्दस्त शोहरत का सिक्का बिठाने के लिए काफी है। माशा अल्लाह कैसा हँसता-बोलता आदमी है। सुबह हुई, आप उठे, अफीम घोली, हुक्के का दम लगाया, दाढी फटकारी, और अपने भुजदंड को देखते अकड़ते अपने जोम में मस्त चले जा रहे हैं। ज्योंही रास्ते में किसी चंद्र-बदन सुंदरी को धीमे-धीमे आते देखा वहीं आपकी बांछे खिल गईं। जरा और अकड़ गए। उसने जो कहीं आपके रंग-ढंग पर मुस्करा दिया तो आप फूल गए। गुमान हुआ मुझ पर रीझ गई। फौरन मूछों पर ताव दिया और मुस्कराकर तीखी-बांकी चितवनों से आस-पास के लोगों को देखने लगे, कि पाँव में ठोकर लगी और चारों खाने चित्त। यारों ने कहकहा लगाया मगर क्या मजाल कि हजरत के चेहरे पर जरा भी मैल आने पाए। गर्द झाड़ी, उठ खड़े हुए और बस ‘ओ गीदी’ का नारा लगाया, करौली म्यान से निकल पड़ी और चारों तरफ सुथराव हो गया, सर धडों से अलग नजर आने लगे और लाशें फड़कने लगीं। शाबाश खोजी! तुमको खुदा हमेशा जिन्दा सलामत रक्खे। तेरे एहसानों से एक दुनिया का सर झुका हुआ है। तेरी करौली ऐसे मीठे घाव लगाती है कि किसी की अधखुली शर्बती आँखों का तीर भी ऐसी प्यारी चुभन नहीं पैदा कर सकता, और तेरे तेवर बदलने में वह मजा आता है जो किसी सजीले माशूक के रूठने में भी नहीं आ सकता। बेशक तू हँसी का पुतला और दिल्लगी की जान है।
हजरत शरर ने भी बहुत से पात्रों की सृष्टि की और उनके उपन्यास पसंद भी किए गए मगर उनके मानस-पुत्रों में से किसी ने भी ऐसी ख्याति प्राप्त न की कि उसका नाम हर आदमी की जबान पर हो। सच तो यह है कि उनके स्वभाव में वह मौलिक सृजन की शक्ति ही नहीं जो अमर पात्रों को जन्म देने के लिए आवश्यक है। इसमें कोई संदेह नहीं कि जब वह किसी नए पात्र को बुलाते हैं तो पहले उसका स्वागत बड़ी धूम-धाम से करते हैं और पाठकों से उसका परिचय कराते हुए फरमाते हैं कि यह हजरत ऐसे हैं और वैसे हैं, आप आंतरिक और बाह्य सद्गुणों की खान हैं आदि-आदि। मगर केवल उनकी भूमिकाओं से पात्र में जान नहीं पड़ती क्योंकि वह बोलते हैं तो शरर की जबान से और उनकी एक-एक हरकत, उनकी एक-एक अदा, उनकी एक-एक बात साबित करती है कि लेखक परदे की आड़ में बैठा हुआ के रेक्टर का पार्ट अदा कर रहा है। हमारे दिल में खुद ब खुद यह खयाल नहीं पैदा होता कि हम कुछ आत्मीय मित्रों की संगत का मजा ले रहे हैं। वह रोए हमको परवाह नहीं, वह हँसे हमको खूबर नहीं, हम जानते हैं कि वह काल्पनिक हैं।
शरर ने अरब, अजम, फारस, तुर्किस्तान, रूस, रोम, अलीगढ़, लखनऊ, और खुदा जाने कितनी जगहों के दृश्य दिखाए मगर उनके किसी उपन्यास से वहाँ के जन-साधारण के रहन-सहन और सोचने-विचारने के ढंग का पता नहीं चलता।
सरशार के जादू-भरे कलम ने हमको गली-कूचों, मेलों-ठेलों और बाग-बगीचों की सैर ऐसी खूबी से करा दी कि शायद हम वहाँ जाकर खुद उनको देखते तो इतना लुत्फ न उठा सकते। हमको कदम-कदम पर लखनऊ के अमीर-फकीर, गंवार, ऐय्यार, भांड, दिल्लगीबाज, मसखरे, तिरछे, बांके, कुलीन-नीच, सभ्य-असभ्य, बूढे-जवान गरज हर रंग और हर तरह के आदमी नज्जर आते हैं। वह हँसते-बोलते हैं, दिल्लगी-मजाक करते हैं, नाचते-गाते हैं मगर इसलिए नहीं कि हम देख रहे हैं बल्कि यह उनका रोजमर्रा का तरीका है, हमारा जी चाहे तो हम भी देख लें।
आस्कर ब्राउनिंग ने लिखा है कि उपन्यासकार में इन चार मानसिक गुणों का होना उपन्यास के लिए नितांत आवश्यक है –
1. वर्णन-शैली, 2 हँसी-मजाक कर सकना, 3. दर्शन, 4. ड्रामा या किसी घटना में अनायास प्रभाव उत्पन्तन कर देना। अब सरशार को देखिए तो उसमें दर्शन को छोड़कर और तीनों गुण खूब मिलते हैं और हजरत शरर अगर इन गुणों में से कोई रखते हैं तो वह एक हद तक दर्शन है मगर वह दर्शन जो धर्म और जाति से संबंध रखता है और दिलों में फूट डाल देना जिसका खास, सबसे खास काम है।
यहाँ पर एक ऐसी बात की चर्चा करना भी आवश्यक मालूम होता है जो कुछ लोगों को शायद बुरी लगे। सरशार ने जितनी किताबें लिखीं उनमें एक भी ऐसी नहीं कि जिसको मुसलमान या ईसाई एक-सी दिलचस्पी से न पढ़े। वह सब धार्मिक विद्वेष से मुक्त हैं। इसके विपरीत हजरत शरर के हीरो तो हर हालत में मुसलमान होते हैं मगर हीरोइन कभी हिन्दू होती है कभी ईसाई। हजरत शरर तो फिलासफर हैं, कम से कम उन्हें इतनी समझ होनी चाहिए कि वह उस भड़कावे का अनुमान कर लें जो हिन्दू और ईसाईयों के दिल में उनकी इस गलती से पैदा होता है। क्या मुसलमानों में इतनी सुंदर, सुशील स्त्रियाँ नहीं हैं जिनको हीरोइन बनने का गौरव मिल सके? शायद कोई साहब फरमायेंगे कि कुछ हिन्दू लोगों ने भी हिन्दू हीरो से मुसलमान हीरोइन का जोड़ा मिलाया है। मगर क्या जरूरत है कि हजरत शरर भी वही गलती करें। हमने खुद देखा है कि अक्सर हिन्दू लोग मंसूर और मोहना को घृणा की दृष्टि से देखते हैं, उसी तरह जैसे कि कुछ मुसलमान दुर्गेुशनन्दिनी को देखते हैं। प्रेम का यह ढंग बहुत बुरा है। कमजोर दिमाग वाले चाहे इन विद्वेषों का शिकार हो जाएँ मगर एक जिम्मेदार आदमी की तरफ से उनका प्रकाश में आना अनुचित है। हिन्दुस्तान में यह आम रिवाज है कि लड़की के जाति वालों या रिश्तेदारों या भाई-बन्दों का महत्त्व लड़के वालों के रिश्तेदारों से कम हुआ करता है और साधारण लोगों में भोंडी रुचि के लोग दूसरों को अपना साला कहकर खुश होते हैं कि जैसे पति का तरफदार होना पत्नी के तरफदारों पर हावी होना है। बहुत बार यह भी देखने में आता है कि बेहूदा बकने वाले शोहदे अपने मस्तरंगी मुहब्बत का बड़े घमंड से जिक्र किया करते हैं। हजरत शरर इन्हीं ओछी से ओछी भावनाओं का शिकार हो गए। बहुत कम ऐसे हिन्दू होंगे जो उनके प्रशंसक हो हालांकि सरशार के सामने इज्जत से सर झुकाने वालों में अक्सर मुसलमान साहबान हैं। यहाँ उन लोगों का जिक्र नहीं है जो कौमी एकता की आड़ में फूट का बीज बोते हैं।
उपन्यासकार के लिए रसीली, रंगीन, चुलबुली, शौकीन तबीयत का होना जरूरी है। इसके बजाय हजरत शरर को जिहादियों का जोश और मुल्लाओं का दिल मिला है जो इस काम के लिए ठीक नहीं। किसी आदमी की काबलियत की एक दलील यह भी है कि वह समझ जाये कि मैं कौन-सा काम सबसे अच्छी तरह कर सकता हूँ। सरशार ने अपने दिल को समझा, हजरत शरर न समझ सके ।
मगर सबसे बड़ा जुल्म जो हकीम बरहम ने सरशार पर किया है वह उसकी लेखन-शैली पर है। हम यह कहने पर मजबूर हैं कि इस मौके पर बड़ी बेरहमी से इंसाफ का गला घोंटा गया है। अब आज उस चोटी के कलाकार के उन अधिकारों को झुठलाना जो उर्दू जबान पर कयामत तक रहेंगे सरासर धार्मिक विद्वेष और संकीर्ण-हृदयता का प्रमाण है। कोई कितनी ही लंबी-चौड़ी बघारे मगर इस सच्चाई को नहीं झुठला सकता कि सरशार ही वह पहला जोरदार लिखने वाला है जिसने नये अंग्रेजी ढंग की कहानियाँ उर्दू में लिखनी शुरू कीं। उसके साथ ही अनुकरण के जोश में आकर यहाँ तक नहीं बढ़ा कि उर्दू जबान और उसके लिखने के ढंग को बिगाड़ दे। सिर्फ तर्ज अंग्रेजी ले लिया या यों कहो कि खाका अंग्रेजी लिया उस पर हिन्दुस्तानी रंग चढ़ाये। अंग्रेजी उपन्यास की कोई खूबी ऐसी नहीं जो सरशार की कृतियों में न पाई जाय।
बरहम साहब कहते हैं कि ‘फसाना-ए-आजाद’ और ‘फसाना-ए-अजायब’ की शैली में कोई अंतर नहीं है। हमको यकीन नहीं आता कि हकीम साहब के कलम से यह रिमार्क निकला। ‘जामे सरशार’ से जो दो उद्धरण लिये गये हैं वह खुद इस दावे का खंडन करते हैं। इसमें कोई शक नहीं कि कहीं- कहीं पंडितजी ने ‘सुरूर’ के रंग में लिखा है मगर यह उनका खास रंग नहीं है बल्कि जहां कहीं तिरछे-बांके छैलों की बातचीत लिखी है वहाँ जबान की रंगीनी और काफियेबंदी पर ज्यादा जोर दिया है और इसकी उनको दाद देनी चाहिए कि बेफिकरों से बहुत गंभीर नपी-तुली बातचीत नहीं कराई जो उनके मुँह से बिल्कुल पराई मालूम होती। यह भी ख्याल रहे कि यद्यपि उपन्यासकार का खास रंग एक ही होता है मगर चूंकि वह हर ढंग और फै शन के आदमियों को बचाना-बिगाड़ता रहता है इसलिए उसकी जबान भी हर मौके पर रंग बदलती रहती है। ‘फसाना-ए-आजाद’ में जब कभी हकीम साहब तशरीफ लाते हैं तो पश्तो में बातें किया करते हैं। अब अगर कोई उनकी जबान को सरशार की जबान बतलाये तो इसका जवाब चुप रह जाने के सिवा और क्या हो सकता है। हकीम साहब ने मौलिकता के अर्थ समझने में भूल की। मौलिकता इसका नाम नहीं कि अंग्रेजी की अजनबी-सी तरकीबों, बंदिशों, उपमाओं और रूपकों के बेजोड़ रूखे अनगढ़ अनुवाद कर दिये जाएँ जैसा कि हजरत शरर ने किया है। इसी का नाम तो नक्काली है। उस पर तुर्रा यह कि बेचारे सरशार पर नक्काली का इल्जाम इसलिए लगाया है कि वह अपने पात्रों से मौके के हिसाब से बातें करवाता है। हकीम साहब को जानना चाहिए कि उर्दू कहानी कला में इसी को मौलिकता कहते हैं।
हजरत शरर जब किसी उपन्यास का आरंभ करते हैं तो पहले सीनरी का बहुत लंबा-चौड़ा बयान करते हैं और इसके बाद हर अध्याय के आरंभ में ऐसे ही बयान होते हैं जो कहानी के प्रवाह में बाधा उपस्थित करते हैं और साधारण पढ़ने वाला घबराकर उनको छोड़ देता है। हकीम बरहम साहब ने भी हाल ही में एक उपन्यास लिखा। उसमें शरर का अनुकरण इस सीमा तक किया कि नब्बे पन्नों के उपन्यास में पच्चीस पन्नों से ज्यादा सिर्फ सीनरियों पर ही खर्च कर दिये थे। यही कला का दोष है। यहाँ पर इतना कहना और जरूरी मालूम होता है कि पश्चिमी हीरोइन की तस्वीर जो हकीम साहब ने हमारे सामने बड़ी शान से पेज की है कांट-छांटकर थोड़े से शब्दों में बयान की जा सकती है। यह बात मान ली गई है कि लेखक किसी पात्र के नाक-नक्शे, चेहरे-मोहरे का बयान कैसी ही खूबी से क्यों न करे मगर पढ़ने वाले के सामने जैसी तस्वीर खींचना चाहता है हरगिज नहीं खींच सकता। जितने नये अंग्रेजी उपन्यास हैं उनमें शरीर-संबंधी बातों का बयान थोड़े से शब्दों में समाप्त हो जाता है और मानसिक गुणों को पहले से प्रकट करना तो अपने आपको उपन्यास-रचना के सिद्धांतों से नितांत अपरिचित सिद्ध करना है।
यह भी गौर करने की बात है कि हजरत सरशार के रंग में लिखने को बहुतों ने कोशिश की मगर किसी को सफलता न मिली। जैसे आजाद का अनुकरण कठिन है उसी तरह सरशार के भी रंग में लिखना मुश्किल है, हालांकि कुछ उपन्यासकारों ने शरर से पाला मार लिया है। यही वजह है कि उनके उपन्यासों की जितनी कद्र मुल्क ने की उसकी आधी भी शरर के किसी उपन्यास की नहीं हुई।
[उर्दू मासिक पत्रिका ‘उर्दू ए-मुअल्ला’, मार्च-अप्रैल, 1906]