शराबी की बात (कहानी) : आचार्य चतुरसेन शास्त्री
Sharabi Ki Baat (Hindi Story) : Acharya Chatursen Shastri
(जहांगीर अलमस्त बादशाह थे। ऊंच-नीच का कोई भेद उनमें न था। शराब और सुन्दरी ही उनका व्यसन था। उनकी खुशमिज़ाजी की एक अच्छी दास्तान इस कहानी में है।)
सम्राट जहांगीर मुग़ल वंश का एक निराला बादशाह था। वह दौला-मौला स्वभाव का आदमी था। वह शराबी, अफ़ीमची, ऐयाश और निष्ठुर था, परन्तु हद दरजे का ख़ुशमिज़ाज। उसे मज़हब से चिढ़ थी। जब वह युवराज था, तो अपने पिता सम्राट अकबर की विद्वानों की सोहबत और धर्म-चर्चा का मज़ाक़ उड़ाया करता था। उसे मौलवियों से बड़ी चिढ़ थी। रमज़ान के दिनों में बादशाह हाथियों पर बैठकर बाज़ार में निकला करता था। खाना हाथियों पर पकता रहता और बादशाह खाता जाता था। वह मुल्लाओं को तंग करने के लिए उन्हें अपने हाथ से खाना देता था और दरबारी-क़ायदे के अनुसार उन्हें खाना पड़ता था, वरना शेरों से फड़वा डालने का भय था, जो पास ही दरबार में बंधे रहते थे। बादशाह बड़ा दाता था। यदि किसी को कुछ देता तो एक लाख से कम न देता था। वह बहुधा मौज में आकर ख़लीफ़ा हारूं-अल-रशीद की भांति वेश बदलकर रात में शहर में घूमा करता था। वह सब श्रेणियों के लोगों में जाता, उनके साथ खाता-पीता, हंसी-मज़ाक़ करता और कभी-कभी बड़े मार्के के काम भी कर गुज़रता था।
सर्दी के दिन थे। बहुत कम लोग उस रात को बाहर निकलने का साहस कर सकते थे। वह आज की शानदार महानगरी दिल्ली न थी। पश्चिम की ओर लाहौरी दरवाज़े तक छोटी-छोटी बस्तियां थीं, बीच में बाग थे। शहर प्रायः उस स्थान पर ख़त्म हो जाता था, जिसे इस समय फ़तहपुरी कहते हैं और जो दिल्ली का सबसे ज़्यादा गुलज़ार हिस्सा है। उस समय दिल्ली की सबसे शानदार इमारत लाल क़िला थी। तब के और अब के लाल क़िले में बहुत फ़र्क है। अब खाइयां भर दी गई हैं। जहां यमुना क़िले के चरण चूमती थी, वहां अब बेलारोड बन गई है। जहां आज सन्ध्या समय गोरी बीवियां अभिसार किया करती हैं, उस समय क़िले की खाई में अगम जल भरा रहता था। खाई के पास एक बाग था, जिस स्थान पर अब कुछ वृक्षों के नीचे साईसों के कुछ तबेले बन गए हैं। क़िले की लाल रंग की दीवार के सामने वह बाग अत्यन्त शोभनीय प्रतीत होता था, उसमें बहुत सी जातियों के फूल-बूटे थे। इसी के सामने चौक सादुल्ला खां था, जिसे आज चांदनी चौक कहते हैं। इसी के सामने क़िले का दरवाज़ा था, जिस पर संगीन चौकी-पहरा पड़ा रहता था। ये पहरेदार ऐसे-वैसे नहीं, बड़े-बड़े अमीर-उमरा होते थे। इसके बाद ही बड़ा मैदान था, जो आज भी परेड का मैदान कहलाता है। यहां मीर बख़्शी बड़े-बड़े नए-नए घोड़ों का मुलाहिजा किया करता था और अच्छे-मज़बूत घोड़ों की रान पर शाही या अमीरों के निशान कर दिया करता था। बाज़ार में ज्योतिषी-नजूमी मैले कालीन का एक टुकड़ा बिछाए बैठे रहते थे, जिनके सामने एक बड़ी सी क़िताब खुली पड़ी रहती थी, जिसमें ग्रहों के चित्र बने रहते थे। सामने रमल फेंकने के पासे होते थे। बुर्की ओढ़े स्त्रियां इनके पास पतियों को वश में करने की या युद्ध से लौटाने की अथवा पुत्र होने की विधियां बहुधा पूछने को ठठ की ठठ जुटी रहती थीं।
बाज़ार के बरामदों में दिन-भर माल सजा रहता था। यहीं बैठकर दुकानदार ग्राहकों को पटाते थे इनके पीछे कोठरियां होती थीं, जहां रात को माल रखकर ताला बन्द कर दिया जाता था। ऊपर उन व्यापारियों के रहने के मकान होते थे। परन्तु बाज़ार को छोड़कर शेष मकान बहुधा कच्चे, घास-फूस के ही होते थे। ऐसी ही उस समय की दिल्ली नगरी थी।
आधी रात बीत रही थी, बाज़ार में सन्नाटा था, बादशाह सलामत और उनके साले तथा वज़ीरे-आज़म आसफ़अली चुपचाप एक गली में मकानों की परछाईं में चल रहे थे। एक मकान में शोरगुल होता देख बादशाह ने पूछा :
‘आसफ़, यहां क्या है?’
‘जहांपनाह, कोई शराब का अड्डा मालूम होता है।’
‘ये बदनसीब इतनी रात तक यहां बैठे शराब पिया करते हैं, और इनके बालबच्चे?’
‘जहांपनाह, वे अपना ख़ून पीते, बाट देख़ते रहते होंगे।’
‘भीतर चलो, मैं देखूँगा, यहां किस क़िस्म के लोग हैं।’
आसफ़ चुपचाप सिर झुकाकर आगे-आगे हो लिया। पीछे-पीछे बादशाह भी चला। दोनों एक रुई का साधारण लबादा ओढ़े थे। इनकी तरफ़ किसी ने भी ध्यान न दिया। सब अपनी धुन में मस्त थे। दोनों कनखियों से शराबियों को देख़ते हुए आगे बढ़ रहे थे। इन्हें देखकर कोई हंस देता, कोई रो देता, कोई बोतल और चुक्कड़ सामने करता, कोई मुंह ही बना देता।
एक जुलाहा अकेला बैठा ठर्रे के चुक्कड़ पर चुक्कड़ चढ़ा रहा था। बादशाह ने उसके पास बैठकर कहा :
‘कहो दोस्त, ख़ूब उड़ रही है।’
‘मज़े में पियो यार, अभी आधी बोतल भरी है, जेब में खनाखन हैं, आज ही एक अद्धी बेची थी – ख़ूब पियो,’ कहकर उसने ख़ूब खिलखिलाकर हंसने के बाद चुक्कड़ भरकर बादशाह के हाथ में दिया।
बादशाह ने चुक्कड़ लेकर कहा – यार बड़े मालदार मालूम पड़ते हो, काम क्या करते हो?
‘जुलाहा हूं भाई, मालदार वह जो बे-गम हो। मनहूस मक्खीचूस कितना ही मालदार हो तो क्या? यहां तो यार दिन-भर कमाना, रात को उड़ाना। पियो दोस्त, जी चाहे जितनी पियो।’
बादशाह ने चुक्कड़ पीकर कहा :
‘सच कहो दोस्त, घर में बीवी-बच्चे भी हैं या फ़कत दम ही?’
जुलाहा ज़ोर से हंसा। फिर बोला – बीवी-बच्चे तो बाप के भी नहीं थे यार, यहां तो जोरू न जाता, अल्ला मियां से नाता। पियो दोस्त तुम तो तकल्लुफ़ करते हो।
‘नहीं दोस्त,’ बादशाह ने कहा – तुम दर हक़ीक़त बड़े ज़िन्दादिल हो। यार, हमारी-तुम्हारी दोस्ती पक्की होनी चाहिए, यह नहीं कि यहां से निकले और भूल गए।
‘मंज़ूर है, तब कल घर आओ तो वह दावत दूं कि जिसका नाम। वह खाना खिलाऊं कि तुम्हारे फ़रिश्तों ने भी न देखा हो, बोलो मंज़ूर?’
‘मंज़ूर।’
जुलाहे ने बादशाह के हाथ पर हाथ मारकर कहा – देखना वादाख़िलाफ़ी न करना।
‘वाह यह भी कोई बात है, हां दोस्त, तुम्हारा नाम क्या है?’
‘सिकन्दर जुलाहा, तमाम विलायत में नाम मशहूर है। ज़रूर आना यार, वह दावत दूंगा और शराब पिलाऊंगा कि ख़ुश हो जाओ।’
बादशाह हंसकर उठ खड़े हुए। सिकन्दर भी उठा। बादशाह के हाथों में हाथ दिए, झूमता-झामता शराबख़ाने से बाहर निकला। चलती बार उसने फिर बादशाह की पीठ पर धौल जमाकर कहा – देखना यार, दगा न करना। – बादशाह ने फिर वचन दिया और दोनों दो ओर रवाना हुए।
तीसरा पहर था। सिकन्दर सिरकी के नीचे ताना-बाना बुनने की तैयरी में ज़मीन में कीलें गाड़ रहा था कि उस तंग गली में बादशाह की सवारी घुसी। गली भर में दौड़-धूप मच गई। लोग घर से बाहर निकलकर खड़े हो गए। सवार, प्यादे, हाथी और बरकन्दाज़ों से गली भर गई। नकीव ज़ोर से आवाजें लगाने लगे। आसाबर्दार चिल्लाकर रास्ता साफ़ करने लगे। बादशाह हाथी पर था। सेवकगण दाएं-बाएं थे। गुलाम लोग सिकन्दर जुलाहे का घर पूछते हुए सवारी के आगे-आगे चल रहे थे।
सिकन्दर कोलाहल सुनकर द्वार में आ खड़ा हुआ। उसकी कमर में तहमद बंधा था, बदन पर एक रुई की मिर्जई थी, हाथ में हथौड़ी थी।
ख़्वाज़ा ने पूछा – सिकन्दर जुलाहे का कौन सा घर है?
‘यही है,’ सिकन्दर ने अचकचाकर कहा।
‘और सिकन्दर कहां है?’
‘मैं ही सिकन्दर हूं।’
‘तब होश करो म्यां। बादशाह सलामत तुम्हारे घर दावत खाने आ रहे हैं।’
सिकन्दर की आंखें फटी की फटी रह गईं। कुछ देर उसके मुंह से आवाज़ नहीं निकली, वह चुपचाप घर के भीतर चला गया।
दरवाज़े पर बादशाह का हाथी बैठाया गया। बादशाह अपने अनुचरों के साथ उस छोटे से छप्पर के घर में घुस गया। सिकन्दर ने आंख उठाकर भी बादशाह को न देखा। वह समझ गया था कि रात का मेहमान कौन था। वह धड़ाधड़ हथौड़ी को कीलों पर ठोकने लगा और चिल्लाकर कहने लगा – जो शराबी की बात पर एतबार करे, वह इस हथौड़ी से पीटने के क़ाबिल है।
बादशाह यह सुनकर ठहाका मारकर हंस दिया। उसने उसका हाथ पकड़कर कहा :
‘क्या दोस्त ऐसी ही दोस्ती होती है?’
ख़ास ख़िदमतगारों ने आनन-फानन में फ़र्श-कालीन बिछा दिए। मसनद सजा दिए, चंदोवे तान दिए। बादशाह के इशारे से सिकन्दर को जड़ाऊ दरबारी पोशाक पहना दी गई और बादशाह उसे बगल में लेकर मसनद पर जा बैठा। खानसामा ने शाही दस्तरखान चुना, दोनों दोस्त खाने और बढ़-बढ़कर सीराज़ी की बोतलें खाली करने लगे बादशाह मौज में था। वह बीच-बीच में ठहाका मारकर हंस देता था। परन्तु सिकन्दर भय से पीला पड़ रहा था। खा-पीकर जब बादशाह जाने लगा तो उसने कहा :
‘वाह दोस्त ख़ूब मज़ा आया, शुक्रिया।’
सिकन्दर के मुंह से अब भी बोल न निकला। बादशाह ने हाथ मिलाया और चल दिया।
सिकन्दर जुलाहे का दारिद्र दूर हो गया। वह एक बड़ा अमीर बना दिया गया और बादशाह ने ख़ासतौर से उसके लिए आलीशान महल बनवा दिया और जब सिकन्दर ने एक अमीर की ख़ूबसूरत लड़की से शादी की, तो बादशाह ने एक बार फिर उसके घर आकर उसकी दावत मंज़ूर की। उसके साथ खाना खाया और शराब पी।