Shantiniketan Mein (Hindi Nibandh) : Munshi Premchand

शांतिनिकेतन में (हिन्दी निबंध) : मुंशी प्रेमचंद

अभी हाल में भाई जैनेन्द्रकुमार, भाई माखनलाल चतुर्वेदी तथा पं. बनारसीदास जी ने शांतिनिकेतन की यात्रा की। निमंत्रण तो हमें मिला था, पर खेद है, हम उसमे सम्मिलित न हो सके । जैनेन्द्रजी ने वहाँ से लौटकर शांतिनिकेतन के विषय में जो विचार प्रकट किए हैं, उन्हें हम धन्यवाद के साथ सहयोगी ‘अर्जुन’ से नकल करते हैं –

आजकल राजनैतिक गर्मागर्मी के काल में डॉ. रवीन्द्रनाथ ठाकुर के काम के सांस्कृतिक पहलू का महत्त्व हम लोग शायद ठीक-ठीक आकलन नहीं कर सकते, रवीन्द्र बाबू यों ही अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा के व्यक्ति नहीं हो गए हैं। उनका एक संदेश है। उस संदेश को सुनने की प्रवृत्ति और मन:स्थिति गुलाम भारत में आज न हो, फिर भी वह संदेश अत्यंत उपयोगी और महत्त्वपूर्ण है। हम बड़ी जल्दी अपने को सांप्रदायिकता और पंथों में जकड़ लेते हैं। यह ‘परे रह’ की प्रवृत्ति जीवन के लिए घातक है। राष्ट्रीयता बड़ी आसानी से एक पंथ-सी बन सकती है। इसके विरुद्ध प्रत्येक व्यक्ति को जागरूक रहना आवश्यक है। सांप्रदायिकता विशद चीज है, पर राष्ट्रीयता पर आकर आदमी के उत्कर्ष की परिधि नहीं आ जाती – इस बात की चेतावनी महात्मा गाँधी के बाद रवीन्द्र के कार्य और रचनाओं द्वारा व्यक्ति को सबसे अधिक मिलती।

हम सब व्यक्तियों को एक ही सांचे से देखने की इच्छा करने की गलती न करें। निस्संदेह आज के युग में जिस कर्मण्यता की आवश्यकता है, प्रकट में वह रवीन्द्र बाबू के आस-पास में देखने में नहीं आयेगी, किंतु रवीन्द्र एक अपने ही भाव को अपने व्यक्तित्व में और अपनी संस्था में केन्द्रित मूर्तिमान करके रह रहे हैं और वह भाव भी अपनी कीमत रखता है।

शांतिनिकेतन भिन्न-भिन्न प्रकार की संस्कृति और विचारधाराओं के सम्मेलन का केन्द्र हो रहा है। वहाँ उनको सुंदर समन्वय प्राप्त होता है। जर्मनी, जापान, तिब्बत, सुमात्रा, चीन, लंका, गुजरात, पंजाब, यू. पी., डेनमार्क आदि सुदूरवर्ती प्रांतों और भूखंड से लोग आकर, वहाँ मिलते हैं, और एक होते हैं। शांतिनिकेतन से उस कलाभिरुचि का निर्माण हो रहा है, जिसमे प्रांतीयता की बाधा कम-से-कम रह जाती हे और उसमें महिमता का सादगी के साथ समन्वय हो रहा है। वह कलाभिरुचि कम-से-कम बंगाल के जीवन में तो क्रमश: गहरी उतरती जा रही है।

रवीन्द्र की प्रतिभा ने बहुतों को साधना-सचेष्ट किया है। शांतिनिकेतन आचार्य विधुशेखर भट्टाचार्य पुराने ज्ञानारूढ ब्राह्मणत्व की याद दिलाते हैं। जितने साधारण ढंग से वह रहते हैं, जैसी उन्मुक्त हँसी वह हँसते हैं, उतने ही गंभीर तत्त्वों के वह पंडित है, जीवन के पिछले तैंतीस वर्षों से वह भारत के पुरातत्व के उद्धार में लगे हैं।

श्री नन्दलाल बोस अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा के कलाकार हैं। वह पिछले उनतालीस वर्षों से वहाँ रहकर कला का भंडार भर रहे हैं। वह इतने सादा ढंग से रहते है कि बताने पर भी विश्वास करना कठिन होता है कि यही महाशय नन्दलाल बोस है। उसी प्रकार श्री क्षितिमोहन सेन चालीस से ऊपर वर्षों से संत बानियों का संग्रह करने में लगे हुए हैं। कोई कष्ट नहीं है, जो उन्होंने नहीं उठाया। उनके पास इस तरह संतबानी का अपूर्व संग्रह है। इसी प्रकार अन्य अनेक साधक सस्ता नाम पाने की इच्छा से विमुख होकर विद्या के कोष को बढ़ाने में लगे हुए हैं। इन सबको अनुप्राणित करके एक जगह जुटाकर रखने बाली शक्ति कवीन्द्र की प्रतिभा है। इसके साथ ही श्री निकेतन भी है। वहाँ ग्राम-संगठन और ग्राम-सुधार का कार्य वैज्ञानिक ढंग पर होता है। डॉक्टर सहाय इस ओर विशेष मनोयोगपूर्वक काम करते हैं। इस कार्य का राष्ट्र के विधायक राजनैतिक कार्यक्रम की दृष्टि से भी कम महत्त्व नही है।

हाँ, कवीन्द्र से काफी देर तक बातचीत हुई। वह हिन्दी स्पष्ट नहीं बोल पाते। उन्होंने अंग्रेजी में ही बातें कीं, परंतु हम लोग हिन्दी में ही बोलते रहे। बात अधिकतर हिन्दी भाषा और उसके साहित्य को लेकर ही होती रही। उस समय वह खूब खुश थे। एक ऊनी कुर्ता और किनारों पर चुनी हुई एक महीन धोती और पैरों में चप्पल पहने थे। हल्की-सी एक चादर गले में पड़ी थी। उनकी शारीरिक अवस्था ठीक है, पर बुढ़ापा तो आ ही गया है। इसके लक्षण शरीर पर छिपते नहीं हैं।

ज्यादातर संस्थाओं में दो तरह के वातावरण होते हैं, या तो भाषामय, जहाँ भाषा की शिक्षा होती है, और जीवन के स्तर की लहरें अधिक देखने में आती हैं। वहाँ एक ओर सूखी (Academic) विद्या की पख होती है, दूसरी ओर रंग-बिरंगे फैशन के रूप में दीख पड़ते हैं। दूसरा गुरुकुलीय, जहाँ जीवन से अलग होकर तपस्यारत विद्या की रुखाई हवा में व्याप्त होती है। इन दोनों ही प्रकारों से भिन्न होकर वहाँ कुटुम्ब का-सा वातावरण है। इससे हमारी वृत्ति में एकांगिता नहीं आती। एक प्रकार की पूर्णता रहती है। तमाम शांतिनिकेतन को देखकर ऐसा भाव होता है कि सादगी के साथ-साथ बड़े सुंदर ढंग से सुरुचि की रक्षा की गई है। अलंकार और शृंगार कहीं नहीं है, पर कला सब जगह है।

[‘हंस’, जनवरी 1933]

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