शांति (कहानी) : विष्णु सखाराम खांडेकर

Shanti (Marathi Story in Hindi) : Vishnu Sakharam Khandekar

सूरज काले बादलों से धीरे-धीरे निकलने लगा था। जंगल में से गुजरने वाली नदी में खड़ा अर्घ्यदान में लीन एक संन्यासी मन-ही-मन कह रहा था- 'हे ईश्वर! तुम प्रकाशमान हो! तुम ही धरती पर होने वाले अंधकार के संहारक हो! धरती का अँधेरा तो तुम नष्ट करते हो परंतु इस धरती पर रहने वाले लोगों के मन के अँधेरे को तुम कब दूर करोगे? उसे घट-घट में रमे राम के दर्शन कब होंगे? हे दयानिधान! मुझे विश्वास है कि दुनिया को घेरे अशांति के दावानल को सिर्फ तुम्हीं शांत कर पाओगे। शांति के विधान के लिए मैं अपना तप, सुख, स्वर्ग और सब-कुछ न्योछावर करने के लिए तैयार हूँ। कुछ भी करो पर इस दुनिया में अमन, शांति का साम्राज्य फैला दो। मैं ऐसी सुंदर दुनिया देखना चाहता हूँ, जहाँ सिंह की पीठ पर खरगोश खेलता हो, उकाब की गोद में साँप सोया हो और सभी जन एक हों।'

उसी समय एक चील अपने घोंसले से झाँककर सूरज को देख रही थी। सूरज के दर्शन से उसे बेहद प्रसन्नता हुई। शायद उसे मुर्गी के छोटे, पिलपिले चूज़ों का स्मरण हो आया था।

उसका चकुला पीछे से आकर उसकी गोद में दुबकने का प्रयास करने लगा। उसे चूमकर चील बोली, “देखो बेटे, अब आखेट का समय हुआ। मैं पलभर में लौट आऊँगी। कल तुम अपने घोंसले से निकलने की कोशिश कर रहे थे, प्यारे! शायद तुम नहीं जानते हो कि तुम्हारे पंख अब भी कमज़ोर हैं। तुम सामने वाला वह जो नीला आकाश देखते हो न, वहाँ एक डायन हमेशा दाँव लगाकर बैठी रहती है। वह तुम्हारे जैसे मासूम चकुलों को इशारा करके अपनी ओर बुलाती है और फिर ठगकर उन्हें अपने घोंसले में भगा ले जाती है। गीत गाकर वह तुम्हें बहकाएगी, बादलों में छिपे सुंदर हाथी, घोड़ों का वह तुम्हें प्रलोभन दिखाएगी; पर देखो बेटे! एक बात याद रखना, चकुलों को ठगकर उनका पिलपिला मांस खाने वाली दुष्ट डायन है यह! उसकी बातों में मत आना। मेरी कसम, तुम अपने घोंसले से मत निकलना! मैं आज तुम्हारे लिए सुंदर-सा सँपोला लाऊँगी, समझे! मेरी बातों का खयाल रखना, भूलना नहीं।"

"सँपोला माने?" चकुले ने प्रश्न किया।

सँपोला छोटा होता है। उसे पकडना आसान होता है। मात्र बखान से थोडी समझ में आएगा! बेहतर है कि बड़े होने पर तुम उसे खुद पकड़कर देख लेना...।

"उस सँपोले की माँ नहीं होती?" चक्ले ने पूछा।

चील मौन रह गई। "यदि तुम उसे पकड़ोगी, तो क्या उसकी माँ नहीं रोएगी?"

"तुम कितने मासूम हो मेरे बच्चे! अरे पागल, साँप की और हमारी जाति अलग-अलग है। उनका और हमारा खून भी अलग है बेटे! उसके साथ हमारी दुश्मनी तो सदियों पुरानी है।"

"दुश्मनी से मतलब?"

"साँप चील का बैरी होता है।"

"बैरी माने?"

"बैरी को मारा जाता है।"

"क्यों?"

"पेट के लिए।"

"फिर हम कुछ और खा लें तो...।"

"पागल कहीं के! तुम्हें जंगल के उस संन्यासी की संतान होना चाहिए था। लगता है, तुम गलती से मेरी कोख में आ गए हो।" अपने चकुले को फिर प्यार से चूमकर चील ने आकाश में छलाँग लगाई। फिर अचानक वह धरती की ओर चली। मानो आकाश से धरती की ओर आने वाला कोई वायुयान हो।

उसी समय एक भील धनुष-बाण लेकर अपनी झोंपड़ी से निकल रहा था। अपने इकलौते, प्यारे बेटे को चूमकर बोला, “कल तुम अपने घर में निकलकर जंगल में रंग-बिरंगे फूलों को बटोरते दूर तक भटक रहे थे न? आज वैसी हरकत मत करना। जंगल के इन झाड़-झंखाड़ों में जहरीले साँप होते हैं। उनके काटने का डर हमेशा बना होता है। अपना खयाल रखना।"

“पर बाबा..."

"पर-वर कुछ नहीं। कल तूने चकुला लाने की ज़िद की थी न? आज मैं उसे पकड़कर ज़रूर ला दूंगा। फिर तू उसे जीभर देख लेना और उससे खेलना। मंजूर?"

"क्या उसके माँ नहीं होती?" बेटे ने पूछा।

"पागल, बिना माँ के चकुला थोड़े होगा?"

"फिर मेरे लिए वह चकुला मत लाओ। यदि तुम उसे पकड़ोगे, तो उसकी माँ रोएगी। कल जब मैं रास्ता भूल गया था, तो रो-रोकर माँ की आँखें सूज आई थीं।"

प्यार से थपथपाकर भील ने उसे समझाया, “तुम्हें जंगल के उस संन्यासी की संतान होना चाहिए था। गलती से तुमने मेरे यहाँ जन्म लिया। अरे पागल, मनुष्य और पंछी की जाति एक थोड़े ही है? जाओ, धनुष-बाण से खेलो। भागो!"

अपने बेटे के कंधों को प्यार से थपथपाकर भील शिकार के लिए निकल पड़ा। वह तीर-कमान सँभालता हुआ तेज़ी से बढ़ने लगा। मानो कोई मुस्तैद सैनिक अपनी मातृभूमि की रक्षा की धुन में निकल पड़ा हो! उसी समय सँपोले ने अपनी माँ से कहा, "देखो माँ, धूप तेज़ हो चुकी है। चलो, हम अपने घर चलें।"

माँ गुस्से में थी। बोली, "नहीं। और थोड़ी देर रुक जाओ। भील के आने का समय हो चुका है। उसे काटे बगैर मुझे चैन नहीं आएगा।"

"उसने कल तुम्हें गलती से कुचला होगा। इतनी-सी बात पर तुनक जाना ठीक नहीं। मैं तो तुम्हारे शरीर पर कितनी बार कूदता-फाँदता रहता हूँ।"

"तुम निपट पागल हो बेटे! तुम्हें जंगल के उस संन्यासी की संतान होना चाहिए था। गलती से तुम मेरी गोद में आए।"

"यदि तुम उसे काटोगी, तो क्या उसका बेटा नहीं रोएगा?" सँपोले ने माँ से प्रश्न किया। "भले रोए! उससे मेरा क्या बिगड़ेगा? मनुष्य की और हमारी जाति एक थोड़े ही है!"

इतने में सामने वाली झाड़ी से पत्तों की चरमराहट सुनाई दी। आहट पाते ही साँपिन ने सँपोले से कहा, “मैं अभी पलक मारते आ जाऊँगी। तू अपना खयाल रखना। सतर्क रहना। झाड़-झंखाड़ों की छाया को छोड़कर बाहर मत जाना। समझे!"

पत्तों की चरमर जारी थी। अपने बच्चे को प्यार से सहलाकर साँपिन आवाज़ की दिशा में रेंगती हुई चल पड़ी, मानो टेढ़े-मेढ़े रास्ते से समुंदर की ओर बढ़ने वाली नदी हो!

भील तो चील के घोंसले की खोज में मग्न था। चोरी-छिपे साँपिन भील का पीछा कर रही थी। उसने आकाश की ओर ताका। एक चील अपनी पैनी नज़रों से धरती की ओर कुछ तलाशती हुई आकाश में तैर रही थी। साँपिन रोमांचित हो उठी। उसके समूचे शरीर पर रोंगटे खड़े हो गए। वह तुरंत पास की घनी झाड़ी में छिप गई।

थोड़ी देर बाद जब उसने झाड़ी से बाहर झाँककर देखा, तब उसे मालूम हुआ कि चील आसमान को चूमने की ललक लिए ऊपर की ओर बढ़ रही थी। उसने इर्द-गिर्द नज़र दौड़ाई। भील का कहीं नामोनिशान नहीं था। गुस्से में फुफकारती हुई वह भील की तलाश में इधर-उधर घूमने लगी।

उसका बच्चा उसके पीछे दौड़ रहा था, इसका उसे पता नहीं था। भील का लड़का भी अपने बाप का अनुगामी बन गया था। आकाश के आकर्षण से चील के चकुले ने भी कब की छलाँग लगा दी थी। माँ-बाप के उपदेशों के बावजूद स्वच्छंद विचरना जीवन-क्रम की एक अभिन्न परंपरा ही रही है।

भील आसमान की ओर नज़र गड़ाकर खड़ा था। अचानक उसे चील का चकुला नज़र आया। धनुष से तीर छूटा। उसी वक्त साँपिन ने उसे काटा।

दूसरे ही क्षण सँपोले पर चील टूट पड़ी।

शांति का परम उपासक संन्यासी अर्घ्यदान से निवृत्त होकर अपनी पर्णकुटी की ओर लौट रहा था कि दूर से उस दृश्य को देखकर पलभर उसे अपनी साधना-सिद्धि पर प्रसन्नता हो आई। पलभर सारे सजीवों में बंधुता निर्माण करने की अपनी माँग पूरी होने का उसे भ्रम हुआ। चील, साँप और आदमी एक-दूसरे की बगल में सोए थे। साँप को न चील का डर, न आदमी को साँप का। कितना सुंदर, मंगल दृश्य था वह! "मेरी तपस्या की ही विजय है यह!" आँखें मूंदकर हाथ जोड़ते हुए ईश्वर को संबोधित करते हुए वह बोला, "हे ईश्वर! तुम्हारी लीला अगाध है! धन्य हो तेरी..."

वह आगे बढ़ा और सहसा चौंक उठा। उसके रोंगटे खड़े हो गए। जैसे ही उसने तीनों का शव देखा, वह सकपका गया। उसने देखा- एक आदमी, चील का एक चकुला और साँप का एक बच्चा।

उसके हाथ से कमंडल छूट गया। अब आकाश की ओर देखने का उसमें साहस तक नहीं रहा। शर्मिंदा होकर उसने अपनी आँखें धरती में गड़ाईं। उसकी आँखें धीरे-धीरे बरसने लगीं।