Shanti Ki Samasya (Hindi Nibandh) : Ramdhari Singh Dinkar

शान्ति की समस्या : रामधारी सिंह 'दिनकर'

प्रवृत्ति और निवृत्ति, ये धर्म की राजनीति हैं, जैसे इलियट ने क्लासिसिज्म और रोमांटिसिज्म को साहित्य की राजनीति कहा है। फिर भी, यह ठीक है कि प्रवृत्ति की अधिकता मनुष्य को लोभी और पर–पीड़क बना देती है। इसी प्रकार निवृत्ति की अधिकता से मनुष्य निर्धन और अत्याचार सहने योग्य हो जाता है।

किन्तु दोनों में से कौन–सा मार्ग श्रेष्ठ है? हुआ तो भारत में भी यही कि जब हम निवृत्तिवादी दर्शन के अधीन हुए, हमारी राजनीतिक स्वतन्त्रता जाती रही और जब हमने प्रवृत्ति के छूटे हुए सूत्र को फिर से पकड़ा, हम तुरन्त स्वतन्त्र हो गए। तो क्या अब हम निवृत्ति से बिलकुल अलग हो रहेंगे और प्रवृत्ति को उसी जोर से अथवा उसी अर्थ में ग्रहण करेंगे जिस जोर से या जिस अर्थ में उसे पश्चिमी जगत के लोग ग्रहण किए हुए हैं? प्रवृत्ति के अनेक गुण हैं, किन्तु उचित मात्रा में निवृत्ति को धारण किए बिना संसार में शान्ति नहीं आएगी, न मनुष्य को सन्तोष प्राप्त होगा। भविष्य तो सुस्पष्टता से दिखलाई नहीं पड़ता, किन्तु अतीत की शिक्षा का सार यह मालूम होता है कि संसार, अन्ततोगत्वा, उनका होगा जो किसी हद तक असंसारी हैं।

संसार को शान्ति की आवश्यकता पहले भी थी और आज भी है, प्रत्युत् युद्ध की घातकता में जो अपरिमित वृद्धि हुई है, उससे शान्ति की आवश्यकता आज जितनी अधिक प्रतीत होती है उतनी वह पहले कभी और अनुभूत नहीं हुई थी। यही कारण है कि शान्ति को मनुष्य आज जिस निश्छलता से पुकार रहा है, उस निश्छलता से उसने पहले उसे कभी नहीं पुकारा था। किन्तु शान्ति की पुकार ज्यों–ज्यों जोर पकड़ती जा रही है, त्यों–त्यों यह रहस्य भी खुलता जाता है कि प्रवृत्ति की गाढ़ी–कड़वी स्याही से शान्ति की कविता नहीं लिखी जा सकती। शान्ति की कविता लिखने के लिए उसमें निवृत्ति का पतला पानी मिलाया जाना चाहिए।

शान्ति की नाव कहाँ अटकी हुई है? क्या शान्ति की बाधा साम्यवाद है, जिससे प्रजातन्त्रवादी देश संसार की रक्षा करना चाहते हैं? अथवा शान्ति की बाधा मरणशील पूँजीवाद है? ये समस्या के बाहरी रूप हैं। मुख्य बाधा मनुष्य की भोगवादी वृत्ति हैय मुख्य बाधा मनुष्य की असहिष्णुता हैय मुख्य बाधा मनुष्य में मानसिक हिंसा का यह भाव है कि संसार का कल्याण केवल उस मार्ग पर चलने में है जिस पर मैं चल रहा हूँ। शान्ति के अवतरित होने के पूर्व मनुष्य में मानसिक अथवा बौद्धिक अहिंसा का उदय होना आवश्यक है।

सत्य केवल वही नहीं है जो हमें दिखाई देता है। सम्भव है, वह बात भी सत्य हो जो दूसरों के मुख से आ रही है। हिंसा केवल शारीरिक क्लेश का नाम नहीं है, न हिंसा केवल निन्दा और अपशब्द को कहते हैं। आँखें मूँदकर यह मान बैठना भी हिंसा ही है कि सत्य केवल वह है जो मुझे दिखाई पड़ता है। बौद्धिक अहिंसा मन की उदारता को कहते हैं। बौद्धिक अहिंसा समझौते और सामंजस्य की वृत्ति का नाम है। सत्य के मार्ग पर आए हुए व्यक्ति की सबसे बड़ी पहचान यह है कि वह दुराग्रही नहीं होता। वह इस हठ को नहीं मानता कि मेरा मार्ग सही तथा और सबके मार्ग गलत हैं।

भारत ने अहिंसा की साधना करते–करते जिस सर्वश्रेष्ठ सिद्धान्त का पता लगाया, वह अनेकान्तवाद या स्याद्वाद का सिद्धान्त है और भारत के सबसे बड़े अनेकान्तवादी सन्त महात्मा गांधी हुए हैं जो समझौते के सबसे बड़े प्रेमी थे। अनेकान्तवाद, शान्ति, समझौता और राज्यहीन समाज–ये एक ही तत्त्व के अनेक नाम हैं। जैसे राज्यहीन समाज में मनुष्य लाठी से हाँककर पहुँचाया नहीं जा सकता (राज्यहीन समाज के दरवाजे पर पहुँचने के पूर्व मनुष्य को भली भाँति निर्मल हो जाना पड़ेगा), उसी प्रकार, जब तक मनुष्य आँखें लाल करके बहस करने का आदी है, तब तक उसे शान्ति नहीं मिलेगी। शान्ति का मार्ग समझौते का मार्ग है, सह–अस्तित्व का मार्ग है, अनेकान्तवाद और स्याद्वाद का मार्ग है। शारीरिक हिंसा मनुष्य उसी अनुपात में कम करेगा जिस अनुपात में वह मानसिक हिंसा से परहेज करता है, जिस अनुपात में वह विरोधी मतों को समझने की धीरता प्राप्त करता है। शान्ति, विश्वबन्धुत्व और विश्ववाद–ये बहुत–कुछ वे ही गुण हैं, जिनका प्रतिनिधित्व पहले धर्म करता था।

धर्म का प्राचीन रूप निरादृत हो गया, किन्तु उसके भीतर का सत्य अब नये नारों में अपना सिर उठा रहा है। यह शुभ लक्षण है, क्योंकि धर्म मनुष्य का स्वाभाविक गुण है। धर्म सभ्यता का सबसे बड़ा मित्र है। यदि धर्म नहीं रहा तो सभ्यता भी नहीं रहेगी। क्या शान्ति की रक्षा प्रत्येक घर में प्रहरी बिठलाकर की जाएगी? आज भी पुलिस उनके लिए नहीं रखी जाती जो धार्मिक हैं, बल्कि उनके कारण, जो धर्म को नहीं मानते, जो यह विश्वास करते हैं कि पुलिस से बचकर जो कुछ किया जाए, वह पाप नहीं है।

विज्ञान की अति ने, आखिरकार, मनुष्य की आत्मा को जगा दिया। जो मनुष्य धर्म को लात मारकर बुद्धि के नेतृत्व में चला था, वह अन्तत:, अब उस जगह पहुँच गया है जहाँ उसे यह सोचना पड़ रहा है कि बुद्धि, कदाचित, यथेष्ट नहीं है। विज्ञान हमें केवल शक्ति दे सकता है। उससे यह याचना ही व्यर्थ है कि इस शक्ति का उपयोग हम किस उद्देश्य के लिए करें। इस उद्देश्य की रचना धर्म किया करता था और आज भी यह कार्य धर्म के ही हवाले किया जाएगा। रूस अथवा चीन या पंडित जवाहरलाल ईश्वर को नहीं मानते, इससे धर्म का खंडन नहीं होता। बुद्धदेव ने जिस धर्म की रचना की थी, वह अत्यन्त सात्त्विक था, किन्तु ईश्वर के लिए उसमें स्थान न था। ईश्वर रहे या न रहे, किन्तु मनुष्य के जीवन में धर्म का आवास रहना ही चाहिए। धर्म कोमलता है, धर्म दया है, धर्म विश्वबन्धुत्व और शान्ति है। घंटा, शंख, आरती और अज़ान–धर्म के ये चिह्न लुप्त होते जा रहे हैं और उनके लुप्त होने से मानवता की तनिक भी क्षति नहीं हुई। किन्तु कोमलता, दया और त्याग–ये आज भी आवश्यक हैं और धर्म में जो स्थान पहले वैयक्तिक मुक्ति का था, वह अब विश्वबन्धुत्व और शान्ति का माना जाना चाहिए। जो व्यक्ति मनुष्य–मनुष्य के बीच एकता को नहीं मानता, वह अधार्मिक है और जो शान्ति के पक्ष में अपनी जीभ खोलने से डरता है, उसे कायर नहीं, पापी कहना चाहिए।

भारत ने विश्व के शान्तियज्ञ में निर्भीकतापूर्वक जो भाग लिया है, उससे बाहर तो हमारा सुयश बढ़ा है, किन्तु देश के भीतर कहीं–कहीं लोग इस शंका से पीड़ित हो रहे हैं कि हमारी वैदेशिक नीति, हमारे अपने हित में, शायद ठीक नहीं है। उनके सामने काश्मीर और गोवा के प्रश्न हैं और वे समझते हैं कि हमारा शान्तिवाद हमारी राह में काँटा बनेगा। ये हिसाबी मुनीम की बातें हैं जो नफा और नुकसान के आँकड़ों से आगे नहीं देख सकता। प्रत्येक जाति की वैदेशिक नीति उसके राष्ट्रीय चरित्र की परछाईं होती है। हमारा राष्ट्रीय चरित्र योद्धा नहीं, शान्ति–सेवक का चरित्र रहा है। लगभग पाँच हजार वर्ष के इतिहास में हमने अपने देश से बाहर जाकर किसी देश पर आक्रमण नहीं किया, न हमने दूसरों का धन हरण करने अथवा उन्हें दास बनाने की कोशिश की। यह ठीक है कि देश के भीतर दिग्विजय करनेवाले योद्धा इस देश में भी बहुत हुए, किन्तु भारत नाम में जो दिव्यता है, उसके प्रतीक यहाँ अर्जुन नहीं, युधिष्ठिर रहे हैंय चन्द्रगुप्त नहीं, अशोक रहे हैं। और आधुनिक काल में भी भारतवर्ष की जनता का निश्छल प्रेम लोकमान्य तिलक की अपेक्षा महात्मा गांधी को अधिक प्राप्त हुआ।

हम स्वाधीन केवल अपना पेट पालने को नहीं हुए हैं। हमें विशाल विश्व की भी सेवा करनी है और, सम्भव हुआ तो, संसार की अशान्ति का भी कोई टिकाऊ समाधान निकालना है। विचित्र बात है कि आज जो देश जितना ही सबल और समृद्ध है, वह होश की बात भी उतना ही कम करता है, मानो सत्य बोलना और अक्ल की सलाह देना केवल निर्बल राष्ट्रों का कार्य रह गया हो! भारत निर्बल और एक प्रकार से नवजात राष्ट्र है, किन्तु शान्ति और न्याय के पक्ष में वह जो निर्भीकता दिखला रहा है, वह आकस्मिक बात नहीं है। सच तो यह है कि हमारी वैदेशिक नीति और कुछ हो ही नहीं सकती थी। सिकन्दर, चंगेज खाँ, नेपोलियन और हिटलर की ओर लोभ की दृष्टि से देखना अब काल के प्रतिकूल देखने के समान है। आनेवाला विश्व सिकन्दर और हिटलर का विश्व नहीं, बुद्ध, ईसा, गांधी और जवाहर का संसार होगा। तलवार की दुनिया खत्म हो रही है। अगले संसार के नेता वे होंगे जो धीर और सहनशील हैंय जो समझौते और सह–अस्तित्व को कायरता नहीं, धर्म मानकर वरण करेंगे।

मगर, कश्मीर, गोवा और फारमोसा का क्या होगा? दिल की आग भभककर दिमाग पर छा जाती है। मनुष्य में अभी भैंस के कितने ही लक्षण विद्यमान हैं। भैंस में भी तो यह राष्ट्रीयता ही है कि वह दूसरी भैंस को अपने खूँटे के पास नहीं आने देती। छोटी मनुष्यता और बड़ी मनुष्यता में संघर्ष है। और इस संघर्ष में बर्बरता विजयिनी और संस्कृति पराजित होती देखी गई है, तो क्या इस भय से हम संस्कृति के विकास पर कहीं–न–कहीं रोक लगा दें और उतनी बर्बरता बराबर लिये रहें जो बर्बरता के वार से बचने अथवा उसे नियन्त्रित करने को आवश्यक है? उत्तर के लिए हमें चाणक्य–नीति के नहीं, अपने हृदय के पन्नों को उलटना चाहिए। यही वह असि–व्रत है जिसका पालन आज भारत कर रहा है और जिसका पालन सभी देशों को करना चाहिए :

पग–पग पर हिंसा की ज्वाला, चारों ओर गरल है;
मन को बाँध शान्ति का पालन करना नहीं सरल है।
तब भी जो नरवीर असिव्रत दारुण पाल सकेंगे,
वसुधा को विष के विवर्त से वही निकाल सकेंगे।

[नील कुसुम]

[1955 ई.]

('वेणुवन' पुस्तक से)

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