शंख की बात : ओड़िआ/ओड़िशा की लोक-कथा
Shankh Ki Baat : Lok-Katha (Oriya/Odisha)
माधो बहुत अयोग्य था। कोई काम नहीं होता। भार्या जहाँ-तहाँ से लाकर जो देती, वह खाता। सब दिन कहाँ से लाए, देह क्या सदा ठीक रहती?
उस दिन बोली, “आज तबीयत ठीक नहीं है। तुम कहीं से कुछ लाओ।”
माधो, “अरी, घर में बैठे-बैठे मैं निकम्मा हो गया। अब कहती है, कहाँ से लाऊँ, कौन मुझे देगा? मुझसे कोई काम न होगा।”
सुनकर मारने झपटी। कहा, “पेट न भर सको तो ब्याह क्यों किया? कमाकर न लाए तो घर पर न आना।”
मन में दुःख कर माधो सागर में डूब मरने चला।
सागर कहाँ? जिस-तिस को पूछने लगा।
एक ने कहा, “नाक की सीध में जा, नदी पड़ेगी तो तैर जाना। पेड़ मिले तो चढ़ना। बाड़ पड़े तो लाँघना। दीवार पड़े-चढ़ जाना।”
माधो किसी तरह सागर तट पहुँचा। आँख मूँद भगवान् को याद किया। आपने जन्म दिया। बुद्धि क्यों न दी? बुद्धि नहीं, धन नहीं, जीकर क्या करूँगा? कहते-कहते वह सागर में कूदा।
सागर ने सोचा—इसका काल अभी पूरा नहीं है, मरेगा नहीं। मैं दोष का भागी क्यों बनूँ, मेरे भंडार में क्या नहीं? थोड़ा दे दूँ तो जीवन भर खाए तो भी खत्म न हो।
माधो को उठा किनारे आया। छींटे मारे होश कराया। आँख खोल देखा—सामने नीला कोई खड़ा है। कौन? लंबे हाथ-पाँव। गले में शंख माला। रत्न चमक रहे।
“कौन, तुमने क्यों बचाया?”
सागर ने कहा, “तेरे मन की समझता हूँ। यह शंख ले। जितना माँगेगा, हीरे-मोती देगा। कमी न रहेगी।”
सागर के पाँव में सिर नवा वह घर लौटा। खूब खाया, पहना, घर-बार किए। दान-खैरात दिए। माधो की उन्नति देख राजा ने दूत से पूछा, सब पता कर आया, दूत ने कहा। राजा ने शंख छीन लिया।
माधो ने सोचा—धन जहाँ, लोभ वहाँ। राजा के पास क्या नहीं, जो शंख छीन लिया। अन्नदान चल रहा। क्या बंद हो गया? मेला-मौज क्या बंद होगी। बंद न हो तो धन कहाँ से आएगा।
माधो फिर सागर में डूबने चला। सागर फिर उठा लाया। कहा, “बड़ा शंख ले। दस गुना हीरा-मोती देगा। ये राजा को देना। छोटा वापस ले आना।”
राजा ने खुश हो बड़ा शंख लिया। छोटा लौटा दिया। माधो शंख ले राज्य पार आ गया।
राजा ने कहा, “शंख, हीरा-मोती दे।” तभी दो नीले हाथ उसमें से निकले। राजा के गाल पर दो थप्पड़ मारी और माँगे तो पीठ पर। फिर सिर पर।
राजा कुछ न बोले।
सिपाही भेज माधो को खोजा।
पर उसका पता न चला।
(साभार : डॉ. शंकरलाल पुरोहित)