शक्करदानी (आर्मेनियाई कहानी) : स्टीपैन जोरियान

Shakkardani (Armenian Story in Hindi) : Stepan Zoryan

हाथ में नीले रंग का छोटा सा बंडल लिए एक युवक टिफलिस नगर के एल्दात्स्की बाजार से होकर जा रहा था। इस बाजार में लोग खीरे ककड़ी के अचार, पकाने के लिए नकली मक्खन चोरी के कपड़े और पुराना फर्नीचर बेच रहे थे ।

वह भारी और बहके हुए कदमों से चल रहा था। लेकिन वह अजनबी की तरह इधर-उधर बराबर किसी स्थान को खोजने के इरादे से देख रहा था । उसके चेहरे का भाव उस समय कुछ वैसा ही था जैसा अपने आलोचकों से शर्मिन्दा होने पर कवियों का होता है— कुछ अपराधी सा, कुछ अपमानित सा ।

अगर वह अपनी पुरानी इंगलिश टोपी की बजाय चौड़े मुंह वाला फ्रेंच-हैट पहने होता तो लोग उसे गांव के स्कूल का कोई अध्यापक समझते जो शहर में एक हैट खरीदने या कोई नाटक देखने आया हो । यदि उसने अपने लंबे और सिकुड़े हुए, गंदे और फीके रंग वाले कोट की बजाय एक साफ-सुथरी चुस्त जैकेट पहनी होती तो लोग यही समझते कि वह कोई छोटा-मोटा दुकानदार है जो किसी पास के कस्बे से आया है ।

लेकिन सचाई तो यही थी कि वह इनमें से कुछ भी न था । और अगर आप सचमुच जानना ही चाहते हैं तो जान लीजिए कि वह अभी-अभी जेल से छूटा हुआ एक कैदी है ।

जिस समय जेल के फाटक खुले थे, उसका दिल सचमुच कितनी खुशी से भर गया था। जब वह खुली सड़क पर आया तो आसमान से बड़ी सुहानी वर्षा हुई थी। जेल से छूटते वक्त हर व्यक्ति बहुत सी बातें सोचता है । निस्संदेह उसने भी उस समय बहुत कुछ सोचा था। शहर के आजाद लोग, खुली खिड़कियों वाले घर, इधर-उधर घूमती हुई गाड़ियां और आसमान से टप टप करती हुई वर्षा की बूंदें सभी कुछ उसे बहुत ही प्यारा लग रहा था। लेकिन इसके साथ ही उसने एक और बात महसूस की। जब किसी अनजान तहखाने, घर या रेस्तरां से स्वादिष्ट भोजन के पकने की खुशबू उसने महसूस की तो अचानक ही उसकी भूख जाग उठी। बस उस रास्ते में जो भी पहला रेस्तरां पड़ा, वह उसी में चला गया। जब उसका पेट भर गया तो वह अपनी स्थिति के बारे में सोचने लगा । और यह स्वाभाविक ही था, क्योंकि पेट भर जाने पर हर व्यक्ति इसी तरह सोचता है। उसने सोचा कि अब रात बिताने के लिए उसे किसके पास जाना चाहिए । उस शहर में न तो उसका कोई रिश्तेदार था और न ही कोई मित्र, जिसके पास वह जाता। उसके पास पैसे के नाम पर केवल एक ही रूबल था, जिसमें से तीस कोपेक्स का उसने भोजन कर लिया था । उसने अपने गांव लौरी के लोगों के बारे में सोचना शुरू किया जो इस शहर में आकर व्यापार करने लगे थे । उसे ओन्स नामक दर्जी की याद आयी । सोचा, उसके पास जा कर कहूं कि जब तक मुझे कोई काम नहीं मिल जाता, मेरी मदद कर दो। किंतु फिर यह सोच कर मन निराश हो गया कि एक बार ओहेन्स ने कहा था कि घर से जब शहर लोटो तो मेरे लिए थोड़ी सी फलियां लेते आना, लेकिन उसने वह छोटा सा काम नहीं किया था। फिर उसने निकाले मोची के पास जाने का इरादा किया, लेकिन वहां भी जाना संभव न था, क्योंकि एक बार बहस के दौरान उसने उस मोची को 'बुर्जुआ' कह दिया था और इस बात का मोची ने बहुत बुरा माना था। अब उस ने अपने गांव के अन्य लोगों के बारे में सोचा, जैसे—सारकिस बनिया, दुकान का नौकर बगरात और साइमन लुहार । लेकिन इनके साथ भी उसने कोई न कोई अप्रिय व्यवहार किया था । अंत में उसने यह तय किया कि वह अबेल नामक दुकानदार के पास जाएगा। दरअसल अबेल को गांव से शहर ला कर आदमी बनाने का काम उसके पिता ने ही किया था। इसलिए उसे अबेल से मदद मिलने की ज्यादा उम्मीद थी ।

उस वक्त वह शोर भरे सल्दात्स्की बाजार से गुजरता हुआ अबेल के यहां ही मदद मांगने जा रहा था। रास्ते में वह अबेल के बारे में सोचने लगा। फिर उसे उसकी दुकान याद आयी जहां वह तीन साल पहले काम कर चुका था। दुकान पर लगा बड़ा-सा साइन बोर्ड याद आया जिस पर शक्कर का एक तिकोना, एक नाशपाती और सेबों भरे बर्तन चित्रित थे । उसे पूरी आशा थी कि अबेल मदद के लिए कभी इनकार नहीं करेगा ।

'सचमुच ही वह मना नहीं करेगा, उसने अपने आप से कहा, 'क्योंकि मेरे पिता ने ही तो उसे आदमी बनाया है । अगर मेरे पिता ने उसकी मदद न की होती तो आज वह भेड़ चराने वाला मामूली गडरिया होता । फिर भी, अगर उसने न की तो मैं उससे कुछ धन उधार ले लूगां और बाद में लौटा दूंगा ।'

इन्हीं विचारों में खोया हुआ वह अबेल की दुकान पर पहुंच गया। उसने खिड़की से अंदर झांक कर देखा। दुकान में केवल एक ही लड़का था । उसने पट्टेदार कपड़े पहने थे और वह जल्दी-जल्दी चिविंगम खा रहा था। इस नवयुवक को पहले तो संकोच हुआ कि अंदर जाए न जाए। किन्तु फिर उसे जैसे ही अपनी स्थिति का ख्याल आया कि उसके पास रात बिताने के लिए कोई जगह नहीं है, खाने के लिए पैसे नहीं हैं, वह साहस बटोर कर दुकान के अंदर चला गया ।

उसे देखकर उस लड़के ने चिविंगम मुंह से निकाल ली और चुपचाप जेब के अंदर चिपका ली । 'तुम्हें क्या चाहिए ?' लड़के ने बड़ी निर्भीकता से पूछा । वह युवक एक क्षण के लिए सहम-सा गया ।

'मैं मि० अबेल यानी तुम्हारे मालिक से मिलना चाहता हूं।' वह बोला, 'क्या वह यहां हैं ?'

'वह खाना खा रहे हैं । तुम कहो तो उन्हें बुला लाऊं ?'

युवक संकोच में पड़ गया। उसे लगा कि वह गलत वक्त पर आ गया है । अगर वह कुछ देर बाद आता तो ठीक रहता। लेकिन ठीक है, यदि उसके खाने में बाधा नहीं पड़ती है तो वह लड़का बुला ही लाएगा ।

वह लड़का जल्दी से दुकान के भीतरी हिस्से में चला गया। वह युवक दुकान के काउटर के पास आ गया। जब तक मि० अबेल आएं तब तक वह एक पंक्ति में रखी हुई ढक्कनदार शक्करदानियों को देखने लगा, जिनका उपयोग आम तौर पर पुरोहित और पंडित करते हैं । वह उनके ढक्कन उठा उठा कर देखने लगा, लेकिन उसका ध्यान तो कहीं और था। वह सोच रहा था कि अबेल उसे शायद ही पहचाने । उससे आखिरी बार मिले हुए तीन साल बीत चुके हैं। लेकिन अगर वह उसे पहचान लेगा तो जरूर खुश होगा, क्योंकि आखिर उसके पिता के ही कारण तो अबेल इस दुकान को जमा सका था । इसलिए वह कभी नहीं मना करेगा । अवश्य मदद करेगा ।

'लेकिन जब उसे यह मालूग होगा कि मुझे चोरी के अपराध में जेल जाना पड़ा था, तो शायद मदद न करे', वह अपने आप से कह रहा था, 'वह शायद कभी इस बात पर विश्वास नहीं करेगा कि मैं निर्दोष था और इसीलिए मुझे जेल से मुक्त कर दिया गया है ।

उसने सोचा कि वह इसी क्षण दुकान से बाहर चला जाय, यहां से भाग जाय जिससे उसके गांव वालों को इन बातों का कुछ भी पता न लग सके। किंतु तभी उसे यह भी ख्याल आया कि ऐसा करने से वे लोग उस पर और भी दोषारोपण करेंगे । इसलिए वह वहीं खड़ा रहा ।

ठीक उसी समय बगल की दीवार के पीछे से जल्दी-जल्दी चलने की आहट सुनाई दी। उस युवक ने अभी भी उन शक्करदानियों को देखना जारी रखा जिससे उस पर किसी प्रकार शक न हो ।

तभी एक अधेड़ व्यक्ति अंदर आया । उसने अपने जूठे हाथ को अलग करके ऊपर उठा रखा था। वह उसके लौरी गांव का एक सामान्य व्यक्ति था । उसके सिर और दाढ़ी के छोटे-छोटे भूरे बाल किसी कांटेदार बाड़ी जैसे लगते थे । उसने युवक की ओर देखकर पूछा, 'तुम्हें क्या चाहिए ?'

'मुझे...' उस युवक ने अपनी आंखों को इधर-उधर घुमाते हुए कहा- 'मुझे चाहिए...'

दरअसल वह बहुत असमंजस की स्थिति में था, क्योंकि अबेल खाना छोड़ कर आया था और बेसब्री से उसकी ओर देख रहा था ।

उसने शक्करदानी के ढक्कन को घुमाते हुए कहा- 'मैं चाहता हूं....'

दुकानदार ने एक बार फिर उसकी ओर बेसब्री से देखा और उस युवक को शक्करानी की तरफ लगातार देखने के कारण पूछा- 'इस शक्करदानी को तुम खरीदना चाहते हो ? इसकी कीमत एक रूबल है ।'

'इसने शायद मुझे पहचाना नहीं' यह सोचकर युवक ने उसे अपने बारे में बताना चाहा ।

'देखिए, में खेचान चाचा का बेटा हूं।' कहकर वह शरमा गया। दूसरे ही क्षण उसे लगा कि उसने यह क्या बेवकूफी भरी बात कह दी। इसकी क्या जरूरत थी ।

'खेचान चाचा?' आश्चर्य से दुकानदार ने कहा - 'हमारे खेचान चाचा के बेटे हो ?'

'हां' वह युवक खुश हुआ। उसे लगा कि बातचीत की शुरुआत ठीक हुई है । अब अबेल उससे कुछ प्रश्न भी पूछेगा ही और वह अपनी बात कह सकेगा ।

'देखो ! अगर तुम हमारे खेचान चाचा के बेटे हो तो इसकी कीमत कुछ कम कर दूंगा' दुकानदार ने कहा---'तुम इसके नब्बे कोपेक्स दे दो और ले जाओ। यह बहुत अच्छी है । घाटे में नहीं रहोगे ।'

वह युवक चुपचाप खड़ा रहा। वह सोच रहा था कि अपनी बात को आगे कैसे बढ़ाये | इसीलिए वह चाहता था कि अबेल उसके बारे में कुछ पूछताछ करे। लेकिन उसने कुछ भी न पूछा। बस अपना जूठा हाथ अलग उठाए हुए उसकी ओर बेसब्री से देखता रहा ।

'क्यों पसंद नहीं आयी या ..

'देखिए मैं...' युवक ने फिर कहना चाहा कि वह अभी-अभी जेल से छूट कर आया है और बहुत जरूरतमंद है, लेकिन खामोश रहा।

उसे भला यह सब बताने से क्या लाभ होगा । इससे अच्छा तो...

'मेरा विश्वास करो, इसकी कीमत इससे कम नहीं हो सकती ।' दुकानदार ने जोर देकर कहा, 'मैं तुम्हारे लिए ही कीमत कम कर रहा हूं। हम इसको एक रूबल और बीस कोपेक्स में ही बेचते हैं, पर मैं तुम्हें नब्बे कोपेक्स में दे रहा हूं । चीज के बारे में तो कहना ही क्या ? यह 'ओडेसा प्रोडक्ट' है। बहुत अच्छी और चलने वाली । अगर इसे तुम टूटने से बचाते रहो तो यह बीस साल तक चलेगी ।'

वह युवक बड़े असमंजस में पड़ा हुआ था ।

देखिए, मैं अभी-अभी जेल से छूट कर आ रहा हूं, इसलिए...' वह आगे कहना चाहता था, किंतु दुकानदार और लड़के की ओर देखकर एकदम चुप हो गया।

अबेल ने फिर से बेसब्री जाहिर की, ठीक वैसे ही जैसे आधा खाना छोड़ कर आने वाला या कहीं जल्दी में जाने वाला व्यक्ति करता है ।

'भई, मैं तो खरीदवाली कीमत पर बेच रहा हूं' उसने जल्दी से कहा, 'इसी कीमत पर मैंने खरीदी है ।'

युवक ने अपने गांव वाले का स्वर समझ लिया कि वह उसे परेशान कर रहा है और शायद वह उस लड़के को भी परेशान कर रहा था। क्योंकि वह लड़का उसकी तरफ बड़ी-बड़ी गुस्सैल आंखों से देख रहा था। इसलिए उस युवक ने वहां से चले जाना ही ठीक समझा ।

'तुम्हें यह कीमत ठीक नहीं लगी ?' दूकानदार ने पूछा ।

'नहीं, बहुत मंहगी है ।'

'तुम कितना दोगे ?"

'सत्तर कोपेक्स ।'

'लेकिन इसमें तो मुझे नुकसान होगा ।'

पर इससे ज्यादा मैं दे नहीं सकता ।' युवक ने हिचकिचा कर कहा और दरवाजा खोल कर बाहर निकल गया ।

'कोई बात नहीं.. ... आओ... आओ ले जाओ इसे ।' दुकानदार ने पुकारा, 'आओ। तुम खेचान चाचा के बेटे हो, इसलिए इससे ज्यादा मैं और क्या कर सकता हूं।'

युवक बिना कुछ कहे लौट आया। उसने सत्तर कोपेक्स दे दिए उसके पास कुल इतना ही तो धन था उसने शक्करदानी उठा ली और चला आया । कुछ ही क्षणों बाद वह अब फिर सल्दात्स्की बाजार में पहले की तरह घूमने लगा था। अब उसके हाथों में नीले बंडल के अलावा एक शक्करदानी भी थी ।

(अनुवाद : विभा देवसरे)

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