शैतान (कहानी) : निकोलाई गोगोल

Shaitan (Story in Hindi) : Nikolai Gogol

तोमस ग्रिगोरियेविच में एक ऐसी विचित्रता थी जो भूत की तरह उसके पीछे लगी हुई थी। वह सब कुछ कर सकता था, लेकिन यह नहीं कि किसी कहानी को दोबारा फिर उसी रूप में दोहराकर सुनाये। संयोगवश अगर हम उससे अपनी किसी कहानी को फिर से सुनाने के लिए कहते तो वह हमेशा उसमें नये रंग भरकर सुनाता, या इस हद तक उसकी कायापलट कर देता कि उसे पहचानना मुश्किल हो जाता।

एक बार उन भलेमानसों में से एक ने - समझ में नहीं आता कि किस नाम से उनका परिचय दिया जाये - उन लोगों में से एक ने जिनका धन्धा दूसरों की चीज़ों पर भरसक हाथ साफ़ करना और चोरी के इस माल को टुकड़हे साप्ताहिक पत्रों में छपाना होता है - इन भड़ैंत लेखकों में से एक ने हमारे तोमस ग्रिगोरियेविच की एक कहानी, जो गिरजा के हमारे इस बूढ़े भण्डारी के दिमाग़ से एकदम उतर गयी थी, धोखाधड़ी करके उड़ा ली।

अब ऐसा हुआ कि एक दिन वह चोर लेखक पोल्ताना से दिकान्का आया। वह कच्ची मटर जैसे हरे रंग की टोपी पहने था। शायद आप उसकी कहानियाँ पढ़ भी चुके हों। उसके पास एक छोटी-सी किताब थी। हमें दिखाने के लिए उसने अपनी इस किताब को बीच में से खोला। तोमस ग्रिगोरियेविच अपना चश्मा निकालकर नाक पर चढ़ाने की तैयारी कर रहा था कि तभी उसे याद आया कि अरे, अपने चश्मे पर मोम से बटी डोरी बाँधना तो वह भूल ही गया, नाक पर वह टिकेगा कैसे। सो उसने पुस्तक मुझे पकड़ा दी। और चूँकि मैं अक्षर पहचानना जानता हूँ और बिना चश्मे के देख सकता हूँ, सो मैंने पढ़ना शुरू कर दिया। एक या दो पन्ना ही पढ़ा होगा कि उसने मेरी बाँह पकड़ ली।

"बस, रहने दो," उसने ललकारकर टोका, "पहले यह बताओ कि इस कहानी में है क्या?"

सच मानो, उसकी इस बात ने एक तरह से मुझे अचम्भे में डाल दिया।

"क्या तुम इतना भी नहीं जानते, तोमस ग्रिगोरियेविच? यह तुम्हारी अपनी कहानी ही तो है - और ठीक तुम्हारे ही शब्दों में यहाँ मौजूद है, बिल्कुल जैसी की तैसी।"

"मेरे अपने शब्दों में? कौन कहता है?"

"यह देखो छापे में लिखा है। ठहरो अभी बताता हूँ। इसे पढ़ो - ‘दिकान्का के भण्डारी के मुँह से सुनी।’"

"थू है इस प्रकाशक के मुँह पर!" बूढ़े भण्डारी ने चिल्लाकर कहा।

"मास्को की गलियों का कुत्ता! झूठा, एकदम झूठा! सुनो, मैं ख़ुद तुम्हें यह कहानी सुनाता हूँ।"

हम मेज़ के चारों ओर सिमट आये और उसने सुनाना शुरू किया:

मेरे नाना - स्वर्ग में उन्हें ख़ुदा का ख़ूब आतिथ्य नसीब हो और शहद से सराबोर मालपुए उन्हें खाने को मिलें - मेरे नाना कहानियाँ कहने में कमाल करते थे। जैसे ही वह कहानी शुरू करते हिलने को जी न चाहता, चाहे सारा दिन उसी जगह बैठे-बैठे क्यों न बीत जाये। उनकी भला आज के इन दुमदार लिखाड़ियों से क्या तुलना जो कहानी कहते हैं तो ऐसा मालूम होता है मानो तीन दिन के भूखे हों। जी करता है कि बस, अपनी छड़ी-टोपी सँभालो और चलते बनो।

मुझे वह सब इस तरह याद है मानो आज की ही बात हो। मेरी भली माँ तब ज़िन्दा थी। जाड़ों की लम्बी साँझों में, उस समय जबकि बाहर बर्फ़ पड़ती थी और जमकर इतनी कड़ी हो जाती थी कि पत्थर मारो तो वह भी चकनाचूर हो जाये, और हमारी छोटी-छोटी खिड़कियों के शीशों पर पाला इस तरह जम जाता था कि कुछ दिखायी नहीं देता था, मैं अपनी माँ को चरखा कातते हुए आज भी देख सकता हूँ। माँ हाथों से लम्बा सूत निकालती, एक पाँव से पालना झुलाती जाती, और मुँह से लोरी गाती जाती, जिसकी धुन आज भी मेरे रोम-रोम में समायी है।

रोशनी के लिए हम केवल मोमबत्ती के टुकड़ों से काम चलाते थे। उसकी लौ बड़ी डाँवाँडोल रहती थी और मानो किसी चीज़ से डर-डरकर बहुत ही मद्धिम रोशनी देती थी। तकुवे की एकरस ध्वनि गूँजती रहती थी और हम बच्चे, एक-दूसरे से सटे हुए, नाना की कहानियाँ सुनते रहते थे। नाना बहुत बुढ़ा गये थे, और सदा तन्दूर के पास ही चिपके रहते थे। उनके भण्डार में सभी तरह की कहानियाँ थीं - वीरों की, साहसिक यात्राओं और लड़ाइयों की। लेकिन हमें पुराने दिनों की कहानियाँ सबसे ज़्यादा पसन्द आती थीं - अद्भुत और अजीब बातों से भरी हुई, जिन्हें सुनकर बदन में चींटियाँ-सी रेंगने लगती थीं और सिर के बाल खड़े हो जाते थे।

कभी-कभी इन कहानियों को सुनने के बाद हमारे मन में इतना डर समा जाता कि रात के अँधेरे में हमें हर चीज़ भुतहा दिखायी देती। अगर हम, मिसाल के लिए, रात के समय बाहर होते तो यह ख़याल हमारा पीछा न छोड़ता कि घर लौटने पर हमें अपने बिस्तरे पर कोई भूत या जिन्न लेटा हुआ मिलेगा। सच जानो, इस कहानी को ज़ुबान पर लाने का मैं कभी साहस न करता अगर मुझे इस असलियत का पता न चलता कि भय का भूत क्या होता है। अक्सर ऐसा होता कि बिस्तर के पास खूँटी पर लटके हुए चोग़े को देखकर मुझे लगता कि यह कोई सिकुड़ा-सिमटा हुआ भूत है। लेकिन मेरे नाना की कहानियों में सबसे ख़ास बात यह थी कि वह कभी झूठ नहीं बोलते थे। सभी घटनाओं का वह ठीक उसी रूप में वर्णन करते थे जिस रूप में कि वे घटी थीं।

नाना की इन्हीं कहानियों में से एक अब मैं तुम्हें सुनाऊँगा। ख़ूब चिकने-चुपड़े और ऊँची जमातों तक पढ़े ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो अदालत में जाकर निरक्षर भट्टाचार्यों के लिए दस्तख़त बनाते और अपढ़ लिखावट पढ़ने में माहिर होने का दावा करते हैं। लेकिन अगर उनके हाथों में सप्तसन्ध्या प्रार्थनाओं की कोई स्लाव पुस्तक दे दी जाये तो वे मुँह ताकते रह जायेंगे। माहिर वे एक ही चीज़ में होते हैं। वह चीज़ है दूसरों की खिल्ली उड़ाना। उनके सामने कुछ भी क्यों न कहो, बस वे ठहाका मारकर हँसने लगेंगे। और, कितनी मुसीबतें पैदा होती हैं इस विश्वासहीनता से! लेकिन, ठहरो, अगर मैं किसी डायन का ज़िक्र शुरू कर दूँ - कहूँ कि डायनें होती हैं - तो तुम ख़ुद भी मेरे शब्दों का विश्वास नहीं करोगे। हाँ तो... भला, क्या कह रहा था मैं? और फिर भी सच्चाई यह है कि विश्वासहीनता का दामन पकड़ने में ख़तरा ही ख़तरा है। जबसे कि मैं यहाँ हूँ - ख़ुदा की मेहरबानी से एक उम्र बीत गयी यहाँ रहते हुए - किसी दूसरे धर्म को मानने वाले इन लोगों को मैंने देखा है जो पापमोचन के समय धर्मपिता के सामने इतने सहज भाव से झूठ बोलते हैं मानो नास सूँघ रहे हों, लेकिन जादू-टोनों और डायनों के असर से बचने के लिए तुरन्त सलीब का चिह्न बनाने लगते हैं। लेकिन जाने दो, मैं उनका ज़िक्र तक नहीं करना चाहता। ऐसे लोगों की बातें करना बेमतलब सिर खपाना है।

सौ साल पहले - मेरे नाना हमें बताते - अगर तुम इस गाँव को देखते तो इसे पहचान तक न पाते। तब यह एक बहुत ही गयी-बीती बस्ती से अधिक नहीं था। कुल मिलाकर दस खोहनुमा घर थे। बिना छत के, और बिना पुते हुए। खेतों के बीच यों ही जहाँ-तहाँ बिखरे थे। न बाड़ों का पता था, न खलिहान और पलानी का जिसमें मवेशी या हल रख जाते। और ये घर भी केवल उन्हीं को नसीब थे जो सबसे ज़्यादा धनी थे। हमारे जैसे लोग तो उन दिनों एकदम भिखारी थे। धरती में गड्ढे खोदकर या माँद बनाकर उनमें रह लेते थे। यही उनके घर थे। इनमें से जब कभी धुआँ उठकर हवा में चक्कर लगाता था, तभी यह पता लगता था कि यहाँ भी कोई ख़ुदा का बन्दा रहता है।

तुम पूछ सकते हो कि हमारे पुरखे इस तरह क्यों रहते थे। यह सच है कि वे ग़रीब थे, लेकिन असल में इतने ग़रीब भी नहीं थे। उन दिनों क़रीब-क़रीब सभी कस्साकों के घावों में शामिल होते थे और दूसरे देशों से लूट-खसोट का माल बटोरकर ले जाते थे। पक्का घर बनाना एक बेकार का काम था। यही वह मुख्य कारण था जिसकी वजह से हमारे पुरखे घर-बार के मामले में इतने बेफ़िक्रे थे। पोल, लिथुआनी, क्रीमियाई - दुनिया-भर के लुटेरे दलों के घाते देश में आये दिन होते थे। इनके अलावा हमारे अपने लोगों ने भी दल बना लिये थे जो अपने ही देश-भाइयों को लूटते थे। संक्षेप में यह कि थोड़ी मात्रा में ही सही, उनके पास सब चीज़ मौजूद थी।

हाँ तो उन दिनों इस गाँव में एक आदमी - बल्कि सही शब्दों में यह कि आदमी के भेष में शैतान - अक्सर आया करता था। कहाँ से वह आता था, और किस चीज़ की खोज में आता था, यह कोई नहीं जानता। वह आता और ख़ूब गुलछर्रे उड़ाता - एकदम शराब में ही लुढ़कता रहता - और इसके बाद अचानक उसी तरह ग़ायब हो जाता जैसे कि पानी में फेंका हुआ पत्थर ग़ायब हो जाता है, ढूँढ़ने पर भी उसका कोई चिह्न नहीं मिलता। और फिर उतनी ही अचानक वह दोबारा प्रकट हो जाता। ऐसा मालूम होता मानो वह आसमान से आ गिरा हो। बस, सिर झुकाये गाँव की गलियों में से गुज़रता दिखायी देता। गाँव तो वह अब नहीं रहा, लेकिन आज जिस जगह दिकान्का है, उससे कोई सौ क़दम से ज़्यादा दूर वह उन दिनों नहीं रहा होगा।

राह में जो भी कस्साक उसे मिलते, सभी को वह बटोर लेता और भारी जश्न मानता। हँसी के फ़व्वारे छूटते, गाना-बजाना होता, भरपूर धन बिखरता और वोदका की नदियाँ बहतीं। कभी-कभी वह लड़कियों को पकड़कर अपने सीने से चिपटा लेता और उन्हें ढेर सारे फ़ीतों, कान के बुन्दों और हारों से लाद देता। लड़कियों से यह सब चीज़ें सँभाले न सँभलतीं। यह सच है कि उसके तोहफ़ों को लेने से पहले लड़कियाँ दस बार सोचती थीं। कौन जाने, इन चीज़ों पर कहीं जादू-टोना न कर दिया गया हो!

मेरे नाना की चाची उन दिनों एक सराय की मालकिन थीं। यह सराय उसी सड़क पर थी जो कि आज ओपोचनियान्स्क जाती है। बसावरियोक - शैतान के अवतार उस आदमी का यही नाम था - रास-रंग और अय्याशी के लिए अक्सर इस सराय में अड्डा जमाता था, और मेरी चाची कहा करती थी कि अगर कोई सारी दुनिया का ख़ज़ाना उसे देने को कहे तब भी वह बसावरियोक के हाथ से कोई उपहार ग्रहण नहीं करेगी। यह सब तो ख़ैर ठीक था, लेकिन मुसीबत यह थी कि उसके सामने इंकार कौन करे? सूअर के बालों ऐसी कड़ी अपनी भौंहों में बल डालकर जब वह देखता था तो सब थर-थर काँपने लगते थे। किसी में हिम्मत नहीं थी कि उसकी चालाक नज़र का सामना करता, सब दुम दबाकर भागते नज़र आते थे।

अब उन लड़कियों का हाल सुनिये जो उसके उपहार लेने से इंकार नहीं करती थीं। उपहार लेने के बाद अगली रात ही उन सींगदार प्राणियों से उनकी भेंट होती थी जो कि रात को दलदल से प्रकट होते थे। वे आते और उस लड़की का गला घोंट देते जो भेंट में मिला हार अपने गले में डाले होती, या उसकी उँगली कचाकच चबा डालते अगर वह अपनी उँगली में भेंट में मिली अँगूठी पहने होती, या उसके बालों को नोंच डालते अगर वह उनमें भेंट के फ़ीते बाँधे होती। जहन्नुम में जायें बसावरियोक के ऐसे उपहार! लेकिन मुसीबत यह थी कि उनसे छुटकारा पाना असम्भव था। अँगूठियों और हारों को जोहड़ में फेंका जा सकता था। लेकिन भेंट में मिली ये सब चीज़ें फिर उभर आतीं, पानी के सतह पर तैरने लगतीं, और उछलकर फिर आपके हाथों में लौट आतीं!

गाँव का गिरजा, अगर मैं भूलता नहीं हूँ तो, सन्त पान्तेलेई की अर्चना में बना था और पवित्र स्मृति धर्मपिता अफ़नासिउस उसके कर्ता-धर्ता थे। जब उन्होंने देखा कि बसावरियोक ईस्टर में भी गिरजा की ओर मुँह नहीं करता तो उन्होंने उसे गुनाहगार घोषित करने और उसे खुलेआम प्रायश्चित करने की सज़ा देने का निश्चय किया। वह तो कहो कि पवित्र धर्मपिता का भाग्य सीधा था, इसलिए बच गये, नहीं तो जाने उनके भौतिक शरीर का क्या हाल होता!

धर्मपिता की घोषणा सुनकर बसावरियोक आगबबूला हो गया। जवाब में बोला:

"भले आदमी, मेरी बात सुन। ख़ैर इसी में है कि दूसरों के मामलों में टाँग न अड़ाकर अपने काम से काम रख। हाँ, अगर अपने गले में उबलते हुए चावल भरवाना हो तो दूसरी बात है!"

अब तुम्हीं बताओ, ऐसे आदमी का कोई क्या करे जिसे शैतान सिद्ध हो? धर्मपिता अफ़नासिउस को केवल इस घोषणा से सन्तोष करना पड़ा कि वह हर उस व्यक्ति को गिरजा तथा ईसा मसीह का दुश्मन समझेंगे जो इस गुनाहगार की सोहबत में रहेगा।

इन्हीं दिनों गाँव में एक कस्साक रहता था। उसका नाम था कोर्य। उसने एक मज़दूर को नौकर रखा जिसे लोग पीतर अभागा कहते थे। अभागा इसलिए कि न तो उसके बाप का किसी को पता था और न ही उसकी माँ के बारे में कोई कुछ जानता था। यह सही है कि बस्ती के गिरजा का चौकीदार दावे के साथ कहता था कि लड़के के माता-पिता थे, लेकिन वे उस साल मर गये जब प्लेग की महामारी फैली थी। जो हो, मेरे नाना की चाची इस बात पर विश्वास नहीं करती थी और बेचारे पीतर के परिवार का आविष्कार करने में कोई क़सर नहीं उठा रखती थी, हालाँकि उसे परिवार की उसी भाँति कोई ख़ास ज़रूरत नहीं थी जैसे कि हमें पिछले जाड़ों की बर्फ़ की ख़ास ज़रूरत नहीं होती। मेरे नाना की चाची जो भी आता उसे ही विश्वास दिलाने का प्रयत्न करती कि पीतर का बाप युक्रेन देश का निवासी था, बन्दी बनकर वह तुर्की पहुँचा और ऐसी-ऐसी यातनाएँ उसने सहीं जिनका बदला केवल ईश्वर ही ले सकता है, अन्त में अपनी जान हथेली पर रख उसने खोजा का भेष धारण किया और निकल भागा।

गाँव की सुन्दर लड़कियों और युवा गृहिणियों को इस बात में बहुत कम दिलचस्पी थी कि पीतर के माँ-बाप कौन और क्या थे। वे तो बस इतना ही कहती थीं कि अगर पीतर नया कोट पहने हो और उसकी कमर में लाल रंग का पटका बँधा हो, उसके सिर पर अगर भेड़ की खाल की बाँकी टोपी जँची हो और पटके से तुर्की तलवार लटकी हो, एक हाथ में उसके चाबुक और दूसरे में अगर बढ़िया कामदार पाइप हो तो गाँव में अपने समय का वह सबसे ज़्यादा सुन्दर बाँका जवान होगा। लेकिन अफ़सोस, पीतर के पास भूरे रंग की चिथड़ी फतुही के सिवा और कुछ न था, जो छेदों से उसी प्रकार भरी थी जिस प्रकार कि किसी यहूदी की जेब सोने की मुद्राओं से भरी रहती है।

बात अगर यहीं तक रहती तब भी ग़नीमत थी। अब हुआ यह कि बूढ़े कोर्य की एक युवती लड़की थी। उसका सौन्दर्य इतना दमकता था कि तुम्हारे देखने में कभी न आया होगा। तुम यह जानते ही हो कि एक स्त्री - तुम्हारे सामने की बात और है - शैतान का मुँह चूमने तक के लिए तैयार हो जायेगी, लेकिन यह कभी नहीं मंजूर करेगी कि कोई अन्य स्त्री उससे ज़्यादा सुन्दर है। मेरे नाना की चाची कहा करती कि पिदोरका के भरे-पूरे गालों में उतनी ही ताज़गी है जितनी कि गुलाबी से गुलाबी पपी के कोमलतम लाल फूल में, जो उगते हुए सूरज की किरणों में भोर की ओस से अपना मुँह पखारने के लिए अपनी पँखुरियाँ खोलता है। वह मानती थी कि पिदोरका की कमान-सी काली भौंहें विधाता की पूर्ण कारीगरी का नमूना हैं, और यह कि उसके नन्हे मुँह की झलक मात्रा युवकों को पागल बनाने के लिए काफ़ी है। ऐसा मालूम होता था मानो गाने के लिए - कोयल के गीत गाने के लिए - मुँह की, उसके उस मुँह की रचना की गयी हो। मेरे नाना की चाची का यह भी कहना था कि उसके बाल काग के पंख की भाँति काले और रेशम की भाँति मुलायम थे। उन दिनों कँुवारी लड़कियाँ अपने बालों को छोटा नहीं कराती थीं। सो रंग-बिरंगे फ़ीतों से सजे उसके घुँघराले बाल उसकी सुनहरी कामदार जाकेट पर लहराते रहते थे। आह, मुझे कीर्तन में फिर कभी शामिल होना नसीब न हो, अगर यहाँ और इसी समय मैं ख़ुद सुन्दर पिदोरका का मुँह न चूम लूँ - हालाँकि उम्र ने मेरे बालों में बर्फ़ छिड़क दी है और चाहे मेरी बूढ़ी पत्नी भी मेरी बग़ल में मौजूद हो, आँख में पड़ी हुई कंकरी की भाँति दुःख देने वाली!

अब पिदोरका और पीतर की आँखें चार होने के बाद जो कुछ हुआ, उसकी तुम सहज ही कल्पना कर सकते हो। अक्सर जैसे ही लवा पक्षी गाना शुरू करता, उसके लाल जूतों की एड़ियाँ उस जगह पर अपने निशान छोड़ जातीं जहाँ कि पिदोरका पीतर से बतियाती थी। यह सब होने पर भी बूढ़े कोर्य के दिल में कभी सन्देह तक पैदा न होता अगर एक दिन शैतान पीतर को न कुरेदता और उसे इस बात के लिए प्रेरित न करता कि वह चुपचाप गलियारे में पहुँचकर मनहर पिदोरका को अपनी बाँहों में जकड़ ले और अपने होंठों से उसके मुँह पर चुम्बन जड़ दे। और इसी शैतान ने - पवित्र सलीब सपने में भी उसे चैन न लेने दे - ठीक उसी समय बूढ़े दढ़ियल को भी दरवाज़ा खोल बाहर झाँकने के लिए उकसा दिया।

कोर्य ऐसे खड़ा था मानो लकड़ी का बुत हो - मुँह फाड़े और गिरने से बचने के लिए दरवाज़े की चौखट का सहारा लिये हुए। उस कमबख़्त चुम्बन की आवाज़ गाज की भाँति उसके हृदय पर गिरी और चक्की के पत्थर की आवाज़ से भी ज़्यादा भारी तथा स्तब्ध कर देने वाली मालूम हुई, जिससे कि किसान गोली-बारूद के अभाव में, डायनों-चुड़ैलों को भगाते हैं।

आपे में आने पर उसने दीवार पर से हण्टर उतारा जो उसके नाना की सम्पत्ति थी। हण्टर से वह पीतर की कमर की चमड़ी उधेड़ने वाला था कि ईवास, जो कि पिदोरका का छोटा भाई था, न जाने कैसे भागा-भागा बाहर आया और अपने नन्हे हाथों को फैलाकर पिता के घुटनों से लिपट गया।

"पापा, पापा!" वह चिल्लाया, "पीतर को न मारो, पापा!"

अब कोर्य क्या करता? पिता का हृदय पत्थर का तो होता नहीं, हण्टर को अलग रख कोर्य ने पीतर को बाहर धकेल दिया और बोला:

"पीतर, अगर फिर कभी तूने मेरे घर में पाँव रखा या मेरी खिड़की के नीचे दिखायी दिया, तो ख़ुदा की क़सम तेरी मूँछ काट डालूँगा और सिर के बाल उखाड़कर फेंक दूँगा। नहीं जानता, मेरा नाम तेरेन्ती कोर्य है!"

इसके बाद उसने पीतर की गर्दन पर ऐसा रद्दा मारा कि बेचारा शैतान का मारा लुढ़कियाँ खाता हुआ सिर पर पैर रखकर भागता चला गया।

जुदाई से दोनों प्रेमियों के हृदय टूक-टूक हो गये। और इस ख़बर ने तो, जो कि तुरन्त गाँव में फैलनी शुरू हो गयी थी, ख़ास तौर से क़हर बरपा किया कि कोर्य आजकल किसी पोल की ख़ूब आवभगत करता है। यह पोल धन में लोटता था, बड़ी-बड़ी उसकी मूँछें थीं, तलवार लटकाये चलता था, घुड़सवारी का जामा पहनता था और उसकी जेबें उसी तरह खनखनाती थीं जैसे कि घण्टा बजाने वाले तारास की तालियों का गुच्छा रोज़ गिरजा जाते समय खनखनाता था। हर कोई जानता था कि इस तरह का आदमी किस इरादे से काली भौंहों वाली सुन्दर लड़की के पिता के घर धूनी रमाता है।

एक दिन पिदोरका ने, आँखों से आँसू चुआते हुए, नन्हे ईवास को अपनी बाँहों में उठा लिया और उससे कहने लगी:

"मेरे प्यारे ईवास, मेरे प्यारे छोटे भाई, तीर की तरह पीतर के पास जा और उसे ख़ुद अपने मुँह से सारी बात सुना। उसकी भूरी आँखों पर न्यौछावर होने के लिए मैं क्या कुछ नहीं करती, उसके सोने से पीले मुखड़े को अपने चुम्बनों से रँग देती। लेकिन भाग्य साथ दे तब न। बीसियों रूमाल मैं अपने आँसुओं से तर कर चुकी हूँ। मेरा हृदय उदास है। मेरा सगा पिता मेरा दुश्मन है और उस पोल के गले मुझे मढ़ना चाहता है जिससे कि मैं घृणा करती हूँ। उसे बताना, उससे कहना ईवास कि मेरी सुहाग शैया सजायी जा रही है, लेकिन उसके साथ गाने-बजाने की आवाज़ नहीं सुनायी देगी, शहनाई की जगह गिरजा के उन लोगों की आवाज़ें सुनायी देंगी जो मृत्यु के समय आत्मा की शान्ति के लिए भजन गाते हैं। मैं अपने मंगेतर के साथ नाच में शामिल नहीं होऊँगी। मुझे उसके पास ले जाया जायेगा। लेकिन मेरे रहने की जगह अँधेरी, एकदम अँधेरी होगी, धुआँ निकलने की चिमनी की जगह सलीब उसकी छत को सुशोभित करेगा।"

पीतर को काठ मार गया जब मासूम बालक की अनपढ़ आवाज़ में उसने पिदोरका के इन शब्दों को सुना।

"और मैं!" उसने कहा, "मैं दूसरे ही सपने देख रहा था, मेरी रानी! मैं सोच रहा था कि तुर्की या क्रीमिया जाऊँगा और वहाँ से तुम्हारे लिए ख़ूब धन कमाकर लाऊँगा। वह आशा अब धूल में मिल गयी। निश्चय ही किसी बुरी नज़र का तुम पर और मुझ पर परछावाँ पड़ा है। मेरी भी सुहाग शैया सजेगी, लेकिन मेरे सिरहाने गिरजा के गायक तक न होंगे। धर्मपिता की आवाज़ की जगह काले कौवे की काँव-काँव मुझे सुनायी देगी। नंगी धरती मेरा बिछौना होगी और छत की बजाय भूरे आकाश का तनौवा मेरे सिर पर तना होगा। गिद्ध मेरी भूरी आँखों का नाश्ता करेगा, वर्षा की बौछार भाग्य की मारी मेरी इन हड्डियों को पखारेगी और गरम आँधी के थपेड़े उन्हें सुखायेंगे। लेकिन आखि़र मेरी बिसात ही क्या है? मैं होता कौन हूँ? किसके खि़लाफ़ और किसके सामने मैं शिकायत करूँ? ख़ुदा की अगर ऐसी ही मर्ज़ी है, अगर मुझे धूल में ही मिलना है, तो ऐसा ही होगा।"

और वह सीधा सराय पहुँचा। मेरे नाना की चाची पीतर को देखकर कुछ अचरज में पड़ गयी, ख़ास तौर से इस समय, जबकि सभी भले ईसाई सुबह की प्रार्थना में शामिल होते हैं। और उस समय उसने अपनी आँखें और भी ज़्यादा फाड़ लीं - मानो वह अभी भी उनींदी अवस्था में हो - जब उसने सुना कि पीतर ने पूरे कटोरे-भर वोदका की फ़रमाइश की है जो कि सवा सेर से कम नहीं होती। इस तरह भला कहीं ग़म ग़लत होता है? और ऐसा ही हुआ भी। वोदका क्या थी, मानो तरल आग थी। गले को जलाने और काँटों की भाँति चुभने वाली, और ज़हर से भी ज़्यादा कड़वी!

"इस पस्तहिम्मती से काम नहीं चलेगा, कस्साक!" उसके कानों में एक गहरी आवाज़ सुनायी दी।

उसने सिर उठाकर देखा और सुअर ऐसे कड़े बालोंवाले बसावरियोक के चेहरे को पहचानने में उसे देर नहीं लगी।

"मैं जानता हूँ कि तुम्हें किस चीज़ की ज़रूरत है," बसावरियोक ने कहा।

"इधर... यह देखो!"

यह कहते हुए उसके चेहरे पर कुत्सित मुस्कुराहट खेल गयी और अपनी कमर से बँधी चमड़े की छोटी-सी थैली को उसने हिलाया। मुट्ठी भरकर सोने की मुद्राएँ उसने थैली में से निकालीं और उन्हें अपनी हथेली में उछालने लगा।

"क्या चमाचम चमकती और कितनी मधुर झंकार करती हैं। और ये सब तुम्हारी हो सकती हैं। इसके लिए तुम्हें बस मेरा एक छोटा-सा काम करना होगा।"

"चाहे तुम शैतान ही क्यों न हो," पीतर ने चिल्लाकर कहा, "मुझे ये मुद्राएँ दे दो। जो भी कहोगे, मैं करने के लिए तैयार हूँ।"

और उन्होंने, प्याले खनकाकर, एक-दूसरे से सौदा पक्का करने के उपलक्ष्य में शराब पी।

"अब मेरी बात सुनो, पीतर," बसावरियोक ने समझाते हुए कहा, "बहुत ही बढ़िया मौक़ा है। कल सन्त जौन का भोज होगा, और साल-भर में आज की रात ही एक ऐसी रात होती है। जबकि फ़र्न झाड़ी में फूल खिलते हैं। आधी रात के समय भालू की घाटी में मैं तुम्हारा इन्तज़ार करूँगा। देर न करना, समझे!"

जितनी उत्सुकता या बेसब्री से मुर्ग़ी के बच्चे उस क्षण की प्रतीक्षा करते हैं जबकि किसान की पत्नी उनके लिए दाना डालती है, पीतर ने उससे भी कहीं अधिक बेसब्री से रात होने की प्रतीक्षा की। सारी दोपहर-भर वह पेड़ों की परछाईंयों को लम्बा होते और सूरज को गुलाबी आभा में नीचे उतरते देखता रहा। जितना ही सूरज के डूबने और साँझ के उतरने में देर होती, बेचैनी अपने नुकीले पंजों से उतना ही अधिक उसके हृदय को क्षत-विक्षत करती। आह, समय भी कितना धीरे-धीरे रेंगता है। लगता है जैसे दिन का कभी अन्त न होगा।

आखि़र सूरज ओझल हो गया। केवल आकाश का एक छोटा-सा खण्ड लाल था, सो वह अन्त में पीला पड़ गया। खेतों से ठण्डी हवा का एक झोंका आया। परछाईंयाँ गहरी हुईं और रात हो आयी। पीतर चल दिया। उसका हृदय बुरी तरह धड़क रहा था। लगता था जैसे वह छाती फोड़कर बाहर निकल आयेगा। लेकिन वह घने जंगल में सावधानी से राह खोजता, आगे बढ़ता और गहरी घाटी में, जो भालू की घाटी कहलाती थी, नीचे उतरता गया।

बसावरियोक पहले से ही वहाँ उसका इन्तज़ार कर रहा था। अँधेरा इतना गहरा था कि कुछ भी सुझायी नहीं देता था। हाथ में हाथ डालकर दोनों एक साथ दलदल को पार करने लगे, कँटीली झाड़ियों से चिपकते और क़रीब-क़रीब हर क़दम पर ठोकर खाते हुए। आखि़र वह एक ऐसी जगह पहुँचे जहाँ ज़मीन ठोस थी। पीतर ने घूमकर अपने दाहिनी और बायीं ओर नज़र डाली। पहले कभी इस जगह को उसने नहीं देखा था। बसावरियोक रुककर खड़ा हो गया।

"ठीक अपने सामने उन तीन पहाड़ियों को देख रहे हो न?" उसने कहा, "वहाँ तुम्हें हर तरह के फूल दिखायी देंगे। दानवी ताक़तें तुम्हारी रक्षा करें, उन्हें कभी न तोड़ना। लेकिन जैसे ही फ़र्न का फूल खिले, उसे तोड़ लेना और फिर पलटकर न देखना, चाहे तुम्हारी पीठ पीछे कुछ भी क्यों न हो!"

पीतर चाहता था कि अपने इस रहनुमा से कुछ और सवाल पूछे, लेकिन यह क्या - उसने देखा कि बसावरियोक ग़ायब हो चुका था। पीतर पहाड़ियों के पास पहुँचा, लेकिन यहाँ उसे एक भी फूल न दिखायी दिया। केवल काले तनों से निकली जंगली जड़ी-बूटियाँ और अजीबोग़रीब पौधे हर चीज़ को ढँके थे। सहसा रात के अँधेरे में एक बिजली-सी कौंध गयी और उसकी दरकदार रोशनी में पीतर ने देखा कि अजीब और सुन्दर लाल फूलों का एक कालीन बिछा है। ऐसे उसने पहले कभी नहीं देखे थे। उनके बीच उसे एक साधारण फ़र्न की दलदार पत्तियाँ दिखायी दीं। अचरज और दुविधा में डूबा, कूल्हों पर हाथ रखे, वह बुत की भाँति उनके सामने खड़ा था।

"इसमें तो ऐसी कोई ख़ास बात नहीं दिखायी देती," मन ही मन उसने अपने आप से पूछा, "इस तरह की फ़र्न झाड़ियाँ तो मैं दिन में दस बार देखता हूँ। इनमें आखि़र भेद की बात क्या है? कहीं ऐसा तो नहीं है कि बसावरियोक ने मुझे छकाकर उल्लू बनाने के लिए यह सब किया हो?"

तभी, अकस्मात, एक नन्ही कली का रंग लाल हो गया और वह इस तरह हिली मानो उसमें अचानक जान पड़ गयी हो। यह एक बहुत ही अजीब बात थी। देखते-न-देखते उस कली का आकार बड़ा और उसका रंग धधकते हुए कोयले की भाँति लाल होता गया। वह धीमी आवाज़ के साथ चटकी और एकदम फूल के रूप में खिल गयी। उसमें शोले जैसी दमक थी और अपनी रोशनी से अन्य सभी फूलों को उसने चमका दिया था।

"ठीक यही वह मौक़ा है," अपना हाथ बढ़ाते हुए पीतर ने सोचा।

लेकिन उसी क्षण उसे अपने पीछे पदचापों की एक बाढ़ सुनायी दी और सैकड़ों बालदार बाँहें उसके कन्धों को पार कर दमकते हुए फूल की ओर बढ़ने लगीं। बसावरियोक की चेतावनी को याद कर उसने अपनी आँखें मूँद लीं और तेज़ी से तने पर झपट्टा मारा। फूल को उसने अपनी मज़बूत मुट्ठी में दबोच लिया। चारों ओर फिर सन्नाटा छा गया। बसावरियोक अब फिर प्रकट हुआ। वह एक पेड़ के ठूँठ पर बैठा था। निश्चल और लाश की भाँति बेजान। काश कि वह अपनी एक उँगली ही हिलाता! लेकिन नहीं, उसकी आँखें किसी चीज़ पर, जो केवल उसे ही दिखायी देती थी, बुरी तरह जमी थीं। उसका मुँह आधा खुला था, और होंठ भूलकर भी कोई आवाज़ नहीं कर रहे थे। भयानक दृश्य था।

सहसा तेज़ सीटी की आवाज़ को सुनकर पीतर का हृदय जमकर बर्फ़ हो गया। उसे लगा मानो इस आवाज़ ने झाड़ियों को कँपा दिया हो और फूल बाँसुरी के स्वर में एक-दूसरे से बातें कर रहे हों, ठीक वैसे ही जैसे कि चाँदी की छोटी-छोटी घण्टियाँ बजती हैं। इसी के साथ पेड़ों ने भी एक स्वर से भुनभुनाना शुरू कर दिया। बसावरियोक के चेहरे में एक बार फिर हरकत पैदा हुई और उसकी आँखें चमक उठीं।

"मुझे भारी मुसीबत भुगतनी पड़ी," दाँत भींचते हुए उसने कहा, "तब कहीं जाकर यह डायन (जीगिनी) आने को राजी हुई है। सुनो पीतर, अब वह तुम्हारे सामने प्रकट होगी। जैसे वह कहे वैसे ही करना। अन्यथा तुम्हारी ख़ैर नहीं।"

इसके बाद उसने अपनी गाँठ-गँठीली छड़ी से एक कँटीली झाड़ी की टहनियों को हटाया और वहाँ एक छोटा-सा घर दिखायी दिया। फिर अपनी मुट्ठी से उसने घर को इस हद तक खटखटाया कि उसकी दीवारें हिलने लगीं। तभी काले रंग का एक बड़ा कुत्ता गुर्राता हुआ दरवाज़े से बाहर निकला। उसकी आवाज़ एक तेज़ चीख़ के रूप में बदल गयी और वह यकायक कुत्ते से गोंगियाती हुई बिल्ली बन गयी। बिल्ली ने अपनी कमर दोहरी कर ली और उछलकर उनकी आँखें नोचने के लिए एकदम तैयार दिखायी देने लगी।

"बस-बस, बहुत ताव न दिखा, नरकवासिनी बूढ़ी छछून्दर!" बसावरियोक ने उससे कहा और अपने इस आदेश के साथ एक ऐसी गाली का प्रयोग किया जिसे सुनते ही कोई भी भला आदमी कान मूँद लेगा।

और तब... बिल्ली की जगह एक बुढ़िया वहाँ दिखायी देने लगी। उसका मुँह तन्दूर में भुने सेब की भाँति झुर्रियों से भरा था। उसकी कमर झुककर कमान हो गयी थी। उसकी नाक और ठोड़ी एक-दूसरे को इस तरह छूती थी कि उसका चेहरा सँड़सी जैसा दिखायी देता था।

"वाह, क्या परियों-सा चेहरा-मोहरा है!" पीतर ने मन ही मन सोचा। उसकी रग-रग में भय सरसरा रहा था।

बूढ़ी डायन ने तुरन्त झपटकर उसके हाथ से फूल छीन लिया और उसके ऊपर झुकते हुए न जाने क्या अण्ड-बण्ड बुदबुदाने और उस पर पानी छिड़कने लगी। उसके मुँह से चिनगारियाँ निकल रही थीं और होंठों पर झाग उफन रहे थे। इसके बाद उसने फिर वह फूल पीतर के हाथों में थमा दिया।

"इसे फेंक दो!" उसने आदेश दिया।

उसने फूल फेंक दिया। तभी एक विचित्र बात हुई। एकदम ज़मीन पर गिरने के बजाय, वह फूल अँधेरे में आग के एक छोटे गोले की भाँति, हवा में इस तरह तैरने लगा जैसे नाव पानी में तैरती है। अन्त में वह चक्कर काटता, ऊँचे से नीचे आ गया और इतनी दूर धरती पर जा गिरा कि यहाँ से पोस्त के दाने से ज़्यादा बड़ा नहीं मालूम होता था।

"उधर!" बुढ़िया ने चिल्लाकर कहा।

वे उधर पहुँचे। पीतर को फावड़ा देते हुए बसावरियोक ने कहा:

"इस जगह खोदो पीतर। यहाँ तुम्हें इतना सोना मिलेगा कि तुमने, अथवा कोर्य ने, सपने में भी नहीं देखा होगा।"

पीतर ने अपनी हथेली पर थूककर हाथ मसले, फावड़े को उठाया और खोदने लगा। उसने एक बार फावड़ा-भर मिट्टी हटायी, फिर दूसरी और तीसरी बार, और अन्त में चौथी बार। तब उसे लगा जैसे फावड़ा किसी सख़्त चीज़ से टकराया हो। बड़ी मुश्किल से पता चला कि लोहा-जड़ी सन्दूक़ है। उसे उठाने के लिए वह दोहरा हो गया, लेकिन उठने की बजाय सन्दूक़ और भी नीचे धरती में धँसने लगी। जितना ही वह कोशिश करता, उतना ही अधिक वह सन्दूक़ धरती में धँसती जाती।

तभी उसने हँसी की एक आवाज़ अपने पीछे की ओर सुनी, जो हँसी से ज़्यादा साँप के मुँह से निकली फुँकार-सी मालूम होती थी।

"बेकार जान खपा रहे हो," डायन ने सलाह दी। "सोना तब तक तुम्हारा नहीं होगा, जब तक कि तुम उस पर मानव का रक्त नहीं ढालते!"

और सहसा एक छोटे बालक को उसकी ओर धकेलते हुए उसने उसका गला काटने का इशारा किया।

पीतर का सिर चकरा गया। वह जमकर काठ हो गया। तो क्या मानव का सिर काटना होगा? और सबसे भयानक यह कि एक बालक का सिर काटना होगा! ग़ुस्से में उबलते हुए पीतर ने उस चादर को उतार फेंका जिसमें शिकार लिपटा था। पहचानते देर नहीं लगी... वह ईवास था। ईवास जिसका सिर झुका था और हाथ सीने पर जुड़े थे। पीतर डायन की ओर झपटा और ग़ुस्से में अपने चाकू से उस पर वार करना ही चाहता था कि बसावरियोक ने चिल्लाकर कहा:

"तुमने मुझे वचन दिया था कि पिदोरका की ख़ातिर तुम किसी भी काम से इंकार नहीं करोगे!"

इन शब्दों ने, पीछे से किये गये गोली के वार की भाँति, युवक को घायल कर दिया। तभी बूढ़ी चुड़ैल ने धरती पर अपना पाँव पटका और धरती में से एक नीला शोला प्रकट हुआ। उसके पाँव के चारों ओर ज़मीन इतनी परदर्शी हो गयी, मानो उस पर साफ़ बिल्लौरी चादर जड़ी हो। धरती के गर्भ में छिपी हर चीज़ उसमें से इतनी साफ़ दिखायी देती थी, मानो वह तुम्हारे हाथ की हथेली पर ही रखी हो। सोने के पासे और हीरे-जवाहर घड़ों और मर्तबानों में न समा सकने के कारण बाहर धरती पर ठीक उन्हीं के पाँवों के नीचे बिखरे हुए थे। पीतर की आँखें चौंधियाँ गयीं और उसे भले-बुरे का कोई ध्यान नहीं रहा...

पागल की भाँति उसने चाकू उठा लिया और मासूम बालक के ख़ून के फ़व्वारे ने उसका चेहरा रँग दिया। भालू की घाटी नारकीय अट्टहास से गूँज उठी। हत्यारे की आँखों के सामने दल-के-दल विचित्र और भयानक जिन्न तैरते हुए निकल गये। डायन ने बालक के सिर-विहीन शरीर पर अपने नाख़ून गड़ा दिये थे और भूखे भेड़िये की भाँति उसका ख़ून डकार रही थी।

पीतर के दिमाग़ का तार टूट गया और अपनी बची-खुची शक्ति बटोरकर वह वहाँ से भागा। राह में जिस चीज़ को भी वह छूता, वही लाल हो जाती। पेड़ों से ख़ून टपकता और वे कराहते मालूम होते। लाल दमकता हुआ आसमान डगमगा और थरथरा रहा था। भगोड़े युवक की पथरायी हुई-सी आँखों के आगे आग की लपटें आँखमिचौनी खेल रही थीं। भागते-भागते आखि़र वह अपनी शरणागार में पहुँच गया और थकान से चूर धरती पर ढेर हो गया। इसके बाद उसे बोझिल नींद ने धर दबाया।

दो दिन और दो रात तक वह बराबर सोता रहा। एक बार भी उसकी नींद नहीं टूटी। तीसरे दिन जब उसने अपनी आँखें खोलीं तो आँखें फाडे़ बहुत देर तक अपने रहने का एक-एक कोना देखता रहा। लेकिन बहुत ज़ोर मारने पर भी, वह याद नहीं कर सका कि उसे क्या हो गया था। तभी, बदन फैलाते समय, उसका पाँव किसी चीज़ से टकराया। उसने झुककर देखा - दो थैलियाँ हैं, सोने से भरी हुईं।

और केवल तब, सपने की बात की भाँति, उसे याद आया कि वह किसी ख़ज़ाने की खोज में निकला था और घने जंगल में एकदम एकाकी डर ने उसे दबोच लिया था। लेकिन क्या खोकर और किस तरह ख़ज़ाना उसके हाथ लगा, बहुत कोशिश करने पर भी यह सब उसे याद नहीं आया।

"मेरे प्यारे पीतर," सोने की थैलियों को देखकर नर्म पड़ते हुए कोर्य ने कहा, "मेरे बढ़िया पीतर कौन नहीं जानता कि मैंने सदा तुम्हें प्यार की नज़र से देखा है और तुम्हारे साथ अपने बेटे की भाँति व्यवहार किया है।"

बूढ़ा दढ़ियल कुछ इतने प्यार और हार्दिकता से पेश आया कि पीतर की आँखों में आँसू तरने लगे। पिदोरका ने उसे बताया कि वे ख़ानाबदोश, जो गाँव से गुज़र रहे थे, नन्हे ईवास को चुरा ले गये। लेकिन यह सुनकर भी पीतर की स्मृति नहीं जागी, डायन ने इतना गहरा जादू उस पर कर दिया था।

कहानी के साथ अब ज़्यादा खींचतान करने की ज़रूरत नहीं। थोड़े में यह कि पोल प्रेमी को रद्द कर दिया गया और पीतर तथा पिदोरका की ख़ूब धूमधाम से शादी हुई। पकवान बनाये गये। रूमाल और तौलियों पर कसीदाकारी की गयी, वोदका का पूरा पीपा मँगाया गया और नव-दम्पति मेज़ पर बैठाये गये। तरह-तरह के बाजे बजे और ख़ूब ख़ुशियाँ मनायी गयीं।

पुराने दिनों में शादियाँ आज से बिल्कुल भिन्न चीज़ होती थीं। काश कि मेरे नाना की चाची के मुँह से उन शादियों का ज़िक्र सुन पाते! एक सिरे से सभी लड़कियाँ बढ़िया से बढ़िया साज़-सिंगार करती थीं। अपने बालों में पीले, लाल और नीले रंग के फ़ीते बाँधती थीं, जिनमें सुनहरे गोटे के फुँदने लगे होते थे। लाल रेशम से कढ़े तथा रुपहले फूल बने, बढ़िया सालटी के ब्लाउज़ पहने, पाँव में लाल रंग की ऊँची एड़ी वाले लचकदार चमड़े के जूते डाटे, वे मोर की भाँति कमरे में राजसी मुद्रा में थिरकतीं या नृत्य के आवेग में तूफ़ानी किलकारियों के साथ बगूला बन जाती थीं। युवा गृहिणियाँ सिर पर हल्के रंग के ऐसे सुनहरे कामदार रूमालों से बँधे लहरिया जूड़े बाँधती थीं, जिनका पिछला भाग गरदन के पीछे बेलबूटों से युक्त रेशमी टोपी जैसा जान पड़ता था। इस टोपी में, सजावट के लिए काले मेमने की ऊन के दो सींग टँके होते थे, एक आगे की ओर निकला हुआ और दूसरा पीछे की ओर। लाल गोट लगी बढ़िया रेशम की नीली जाकेट पहने, कूल्हों पर हाथ रखे, वे गर्व के साथ खड़ी होतीं और हेपक नृत्य के गत के साथ अपने एक पाँव को लहराती। युवक लोग, अपने पाइपों को दाँतों में दाबे और सिर पर ऊँचे कस्साक टोप तथा बदन पर बढ़िया कपडे़ की चुस्त फतुही पहने, और कमर में चाँदी की पेटी कसे, युवतियों के आगे बिछ जाते और उनके साथ पे्रमाभिनय करते।

इस यौवनमय वातावरण में कोर्य से भी न रहा गया। वह बुढ़ापे के बावजूद उसमें शामिल हो गया। हाथ में वह सितार लिये था, पाइप से धुआँ उड़ाते हुए गाता भी जाता था, और सिर पर वोदका से भरे गिलास को ऐसे सन्तुलित किये था कि वह छलक नहीं पाता था। पिण्डलियों को झुकाये भले आदमी ने वह नाच दिखाया कि नशे में धुत्त मेहमानों की ख़ुशी और हल्ले-गुल्ले का वारापार न रहा।

नशे में भी ख़ूब दूर की सूझती है। जो भी मन में आ जाये वही थोड़ा। हमारे पुरखे, तरंग में आने पर, ऐसी-ऐसी अजीबोग़रीब पोशाक पहनते थे कि क्या बताऊँ। आजकल हम क्या करते हैं? ख़ानाबदोशों या मास्कोवासियों का स्वाँग भरकर समझते हैं कि बहुत बड़ी बाज़ी मार ली!

लेकिन पुराने दिनों में, मिसाल के लिए अगर कोई यहूदी का स्वाँग भरता था तो दूसरा शैतान का। दोनों चुम्बन से शुरू करते और अन्त होते न होते एक-दूसरे के बाल खींचने लगते। और तब, ख़ुदा तुम्हारा भला करे, दर्शकों में हँसी की ऐसी बाढ़ आती कि पेट में बल पड़ जाते।

अन्य लोगों में से कुछ तुरुक बनते और कुछ तातार। उनके कपड़े सिर से पाँव तक लक़दक़ करते। लेकिन जब वे उल्लू बनना या बनाना शुरू करते अथवा कोई शैतानी करने की बात सोचते तो हमेशा छकौवल पर उतर आते। ऐसे ही मेरे नाना की चाची के साथ, जो इस शादी में शामिल हुई थी, एक बहुत ही मज़ेदार चाल की गयी। वह ढीलाढाला तातारी चोग़ा पहने थी। हाथ में झारी लिये सभी पात्रों में मदिरा ढाल रही थी। मेहमानों में से एक को शैतान ने उकसाया और उसने बेचारी के चूतड़ों पर ब्राण्डी छिड़क दी। एक दूसरे हँसीबाज़ को जो मज़ाक़ सूझा तो उसने चाची के पिछले हिस्से में तुरन्त दियासलाई दिखा दी। ब्राण्डी ने आग पकड़ ली और लपटें उठने लगीं। बेचारी चाची और क्या करती, डर के मारे उसने अपने कपड़े उतार फेंके और सबके सामने नंगी हो गयी। बस, फिर क्या था, वह मज़ा आया कि कुछ न पूछो। हँसी का ऐसा दौरा, ऐसी बाढ़, पहले कभी नहीं आयी थी। लोगों ने ख़ूब फब्तियाँ कसीं, ख़ूब चुटकियाँ लीं। अच्छे-ख़ासे मेले-ठेले का समाँ बँध गया।

थोडे़ शब्दों में यह कि पुराने लोगों की याद में इतना मज़ा पहले और किसी की शादी में नहीं आया था जितना कि बूढ़े कोर्य की लड़की की शादी में आया।

और जब शादी हो गयी तो पिदोरका और पीतर कुलीन लोगों की भाँति ठाठ से रहने लगे। उनके घर में किसी चीज़ का अभाव नहीं था, सभी कुछ चकाचक था। लेकिन उनके इस ठाठ-बाट को देखकर ईमानदार लोग गम्भीरता से सिर हिलाते और एक स्वर से घोषणा करते:

"शैतान की संगत का फल कभी अच्छा नहीं होता!"

और यह बात ठीक भी थी। आखि़र पीतर ने यह धन-दौलत पायी कहाँ से थी? उसी से तो जो भले लोगों का धर्म भ्रष्ट करता है। सोने के ये ढेर यों ही आसमान से तो नहीं टपक पड़े! और फिर, ठीक उसी दिन जब पीतर ने यह औचक वैभव प्राप्त किया, बसावरियोक क्यों एकदम ग़ायब हो गया?

एक महीना बीत गया - एक ऐसा महीना जिसने पीतर में गहरा परिवर्तन कर दिया। सच तो यह है कि अब वह पहचान में भी नहीं आता था।

लेकिन क्यों? पीतर के साथ ऐसा क्यों हुआ?

ईश्वर ही इसका जवाब दे सकता था। वह एक ही जगह पर बैठा रहता, न किसी से बोलता न चालता, सदा ही सोच में डूबा रहता और किसी तरह भी न चेतता। किन्हीं भूली बातों को याद करने की कोशिशों में वह इस हद तक फँसा था। केवल पिदोरका के बोलने पर वह कभी-कभी चेत जाता और उससे बतियाते समय उसके चेहरे पर ख़ुशी भी दौड़ जाती। लेकिन किसी बुरी घड़ी में सोने की थैलियों पर जैसे ही उसकी नज़र पड़ती, वह चिल्ला उठता:

"ठहरो... ठहरो... ओह, मुझे कुछ याद नहीं पड़ता!"

और अपना सिर वह फिर अपने हाथों से दबोच लेता और याद करने की कोशिश करता।

कभी-कभी, एकाग्रचित होने पर वह सोचता कि उसका अतीत फिर लौटने वाला है, लेकिन अगले ही क्षण सब कुछ फिर घुलकर साफ़ हो जाता। वह कल्पना में देखता कि वह सराय में बैठा है, कोई उसे वोदका लाकर देता है, और वह उसके तीते स्वाद तक का अनुभव करता है। फिर कोई उसके पास आकर खड़ा हो जाता, और उसके कन्धों को थपथपाता... इसके बाद आगे क्या हुआ, यह वह नहीं देख पाता, एक धुँध-सी उसकी आँखों के सामने छा जाती और सभी कुछ ओझल हो जाता। उसके माथे से पसीना चूने लगता और शरीर इतना थक जाता कि वह उस जगह से डिग तक न पाता, वहीं जाम होकर रह जाता।

उसकी पत्नी ने कोई उपाय बाक़ी नहीं छोड़ा। वह डायनों के पास गयी। उनसे उसने पूछा कि वह क्या चीज़ है जो भूत की तरह पीतर के सिर पर सवार है, यहाँ तक कि पेट की शिकायतें दूर करने के लिए जादू-टोनों का भी उसने सहारा लिया। लेकिन कोई चीज़ कारगर सिद्ध नहीं हुई।

इस प्रकार गर्मियाँ गुज़र गयीं। अधिकांश किसानों ने अपनी फ़सलें काट और बटोर लीं। जो अधिक साहसी थे, वे दूर यात्राओं पर चले गये। स्तेपी में घास पीली पड़ गयी और खेतों में, जहाँ-तहाँ, कस्साक टोप की भाँति पूलों के ढूह लग गये। ईंधन की लकड़ियों और गट्ठों से लदी गाड़ियाँ राह में आती दिखायी देतीं। धरती कड़ी पड़ गयी और धुँध उसमें समा गयी। फिर आकाश रांगे के रंग का और बर्फ़ से बोझिल हो गया, और पेड़ों की टहनियों पर पाला जम गया जिससे वे ख़रगोश की मूँछों की भाँति दिखायी देने लगीं। ऐसे ही बर्फ़ीले दिनों में, जब मौसम बढ़िया होता है, लाल गरदनों, सुन्दर पंखों और मज़बूत चोंचोंवाले गवैये बनचटकी पक्षी भद्र वर्ग के पोल लोगों की भाँति सजे-धजे, बर्फ़ पर फुदकते और चुग्गे के दाने की खोज में चोंच मारते नज़र आते हैं।

लम्बी लकड़ियों से लैस बच्चे बर्फ़ पर हॉकी खेलते हैं जबकि घर के बड़े लोग तन्दूर की छत पर आराम से आसन जमाते और पाइप से तम्बाकू पीते हैं। जब-तब, ताज़ी हवा सूँघने के लिए, वे तन्दूर से नीचे भी उतर आते हैं और कड़ी ठण्ड पर टिप्पणियाँ कसते हैं, या फिर घर के बाहर ओसारे में फैले अनाज को फटकते हैं। अन्त में बर्फ़ गिरना शुरू हो जाती है।

पीतर का हाल जैसा का तैसा। समय के साथ उसके मस्तिष्क का अन्धकार और भी गहरा हो गया था। ऐसा मालूम होता था, मानो उसे एक जगह पर कीलों से जड़ दिया गया हो। कमरे के बीचोबीच रखी कुर्सी से वह ज़रा भी न डिगता। सोने से भरी थैलियाँ उसके पाँव के पास पड़ी रहतीं। समाज से अब उसका कोई वास्ता नहीं, उसकी दाढ़ी के बाल बढ़ गये थे और उसका चौखटा बड़ा भयानक मालूम होता था। वह हमेशा केवल एक ही चीज़ के बारे में सोचता था - अपनी स्मृतियों के बारे में, जो सिर पटकने पर भी उसकी पकड़ में नहीं आती थीं। उसकी सारी कोशिशें बेकार जातीं और झुँझलाहट तथा ग़ुस्से से वह उबलता-उफनता रहता। कभी-कभी वहशियों की भाँति, वह उछलकर खड़ा हो जाता, हवा में घूँसे चलाता और शून्य में किसी एक बिन्दु पर बुरी तरह अपनी धँसी हुई आँखें जमाये, पूरा ज़ोर लगाकर देखना चाहता - अपने अतीत को देखना चाहता। उसके होंठ काँपने लगते, मानो वह किसी चिर-विस्मृत नाम का उच्चारण करने की कोशिश कर रहा हो, फिर वे ख़ामोशी में जाम हो जाते। इसके बाद उसके सिर पर एक पागलपन-सा सवार हो जाता, वह कमरे में मँडराने लगता, अपने नाख़ूनों को काटता और बालों को नोंचता, और अन्त में थककर फ़र्श पर गिर पड़ता। कुछ देर वह चुपचाप, एकदम शान्त पड़ा रहता, इसके बाद फिर गरमा जाता और स्मृतियों की खोज में अपने भ्रान्त मस्तिष्क को खरोंचने लगता। लेकिन स्मृतियाँ थीं कि पकड़ में न आतीं।

कितनी भारी सज़ा दी भगवान ने उसे!

पिदोरका का जीवन भी इससे कोई ज़्यादा अच्छा नहीं था। शुरू-शुरू में उसके साथ घर में अकेले रहने में उसे डर लगता, लेकिन बाद में मुसीबत की मारी वह अपने इस दुर्भाग्य की अभ्यस्त हो गयी। उसके पहले वाले सौन्दर्य का अब कोई चिह्न तक बाक़ी नहीं बचा था। न अब गुलाब-से गालों में वह लाली थी, न अब वे उजली मुस्कुराहटें थीं। उसकी खाल मुरझा गयी थी। वह क्षीण हो गयी थी, और आँसुओं ने उसकी आँखों की चमक को धुँधला बना दिया था।

एक दिन किसी ने तरस खाकर उसे सलाह दी कि भालू की घाटी में एक डायन रहती है जो दुनिया-भर के रोगों का इलाज करने में प्रसिद्ध है। वह उसके पास जाये। अन्त में और कुछ उपाय न देख पिदोरका ने उसके पास जाने का निश्चय किया। वह बूढ़ी डायन के पास गयी और समझा-बुझाकर उसे अपने घर ले आयी।

जब पिदोरका डायन को लिये घर लौटी, उस समय रात हो गयी थी। और संयोग की बात कि वह रात भी सन्त जौन के भोज के पहले की रात थी। पीतर अपने-आप में खोया और अचेत अपनी कुर्सी पर बैठा था। कुछ देर तक उसे यह भी पता नहीं चला कि घर में कोई आया है। उसके बाद, धीरे-धीरे, उसने अपना सिर उठाया। उसके बदन में एक कँपकँपी-सी दौड़ गयी और फाँसी पर चढ़ने के लिए तैयार व्यक्ति की भाँति उसके बाल खड़े हो गये। यकायक उसने ठहाका मारकर हँसना शुरू कर दिया। उसकी यह हँसी इतनी भयानक थी कि पिदोरका का हृदय जमकर बर्फ़ हो गया।

"याद आ गया!" वहशियाना ख़ुशी से चिल्लाकर उसने कहा। "मुझे सब याद आ गया!"

और उसने एक कुल्हाड़ी घुमाकर पूरे ज़ोर से डायन पर दे मारी।

कुल्हाड़ी का फलक एक लकड़ी के दरवाज़े में दो इंच भीतर तक घुस गया। बूढ़ी चुड़ैल ग़ायब हो गयी और उसकी जगह कमरे के बीचोबीच एक सात-वर्षीय बालक दिखायी देने लगा जो सफ़ेद कपड़े पहने था और जिसका मुँह ढँका था। मुँह का पर्दा गिर गया।

"ईवास!" पिदोरका चिल्लाकर उसकी ओर बढ़ी।

लेकिन ईवास का प्रेत-शरीर सिर से पाँव तक ख़ून से चू रहा था, और इस ख़ून की लाली से सारा कमरा लाल दमक रहा था। डर की मारी पिदोरका कमरे से भाग गयी। कुछ क्षण बाद, साहस बटोरकर, उसने फिर कमरे में अपने भाई के पास आने की कोशिश की। लेकिन कमरे का दरवाज़ा उसी समय बन्द हो गया था, जब वह बाहर निकली थी। उसने अब लाख कोशिश की, पर बुरी तरह जाम हुए दरवाज़े को खोल न सकी।

कुछ पड़ोसी भी दौड़े आये और अपने बदन का सारा ज़ोर लगाने के बाद अन्दर जाने में उन्होंने सफलता प्राप्त की। लेकिन कमरा ख़ाली था!

सारे घर में धुआँ भरा था। कमरे के बीचोबीच, जहाँ पीतर खड़ा था, अँगारों का एक ढेर था जिनसे हल्का-हल्का धुआँ उठ रहा था। वे सोने की बोरियों की ओर लपके। बोरियों में सोने के पासों के आकार के मिट्टी के बरतनों के टुकड़े भरे थे। पड़ोसियों की आँखें फट गयीं और मुँह खुले के खुले रह गये। वे जहाँ खड़े थे, वहीं काठ के बुतों की भाँति खड़े रह गये। डर ने उनके पाँव इस हद तक बाँध दिये थे कि वे मूँछ के बाल बराबर भी इधर से उधर नहीं हिल सकते थे। प्रेत-लीला के गहरे रहस्य ने उन्हें हक्का-बक्का बना दिया था।

इसके बाद ठीक क्या हुआ, यह कुछ याद नहीं पड़ता। पिदोरका ने तीर्थ-यात्रा करने की मनौती मानी। अपने स्वर्गस्थ पिता की हर चीज़ उसने बेच डाली और उसके कुछ दिन बाद वह गाँव से चली गयी। वह कहाँ गयी, यह कोई नहीं जानता। गाँव की अधिक उदार बड़ी-बूढ़ियों के अनुसार वह अपने पीतर के पास उसी जगह चली गयी जहाँ शैतान ने उसे ले जाकर डाल दिया था। लेकिन एक दिन एक कस्साक ने, जो कीव से आया था, ख़बर दी कि उसने किसी ईसाई मठ में एक सधुनी को देखा जिसका बदन मांस की जगह हड्डियों का ढाँचा-भर रह गया था। घुटनों के बल बैठी वह सदा प्रार्थना में रत रहती थी। इस सधुनी का उसने जो वर्णन किया उससे दिकान्का के लोगों ने तुरन्त जान लिया कि वही पिदोरका है। ऐसा मालूम होता है कि किसी ने भी उसे बोलते नहीं सुना था, और यह कि पैदल ही उसने समूची यात्रा की थी और हमारी इष्ट देवी के मन्दिर के लिए देव-प्रतिमा रखने का एक चौखटा भेंट किया जो क़ीमती हीरों से जड़ा था और इस तरह जगमग करता था कि धर्मभीरु जनों की आँखें उसे देखकर चौंधिया जाती थीं।

लेकिन कहानी का, सच पूछो तो, यहीं अन्त नहीं हो जाता। ठीक उसी दिन जबकि शैतान पीतर को ले गया, बसावरियोक फिर आ मौजूद हुआ। लेकिन उसे देखकर सभी उससे दूर भागते। वे अब उसकी असलियत पहचान गये थे। वह साकार शैतान था और ख़ज़ाने की खोज में आदमी का चोला उसने धारण कर लिया था। लेकिन चूँकि शैतान ख़ुद अपने-आप ख़ज़ाने पर क़ब्ज़ा नहीं कर सकता, इसलिए वह छैल-चिकनिये युवकों की टोह में रहता और उन्हें अपना सहायक बनाता है।

उसी साल हमारे पुरखों ने धरती खोदकर बनाये अपने खोहनुमा घरों को छोड़ दिया और अपने लिए गाँव में घर बनाने शुरू किये। लेकिन गाँव तक में बसावरियोक उन्हें घड़ी-भर भी चैन नहीं लेने देता था। मेरे नाना की चाची कहा करती थी कि उसके पीछे तो वह ख़ास तौर से पड़ा था। इसका कारण यह था कि ओपोचनियान्स्क सड़क वाली अपनी पुरानी सराय को उसने छोड़ दिया था। यह उसे बुरा मालूम हुआ और चाची को सताने में उसने अपनी ओर से कोई क़सर नहीं छोड़ी।

एक बार ऐसा हुआ कि गाँव के बड़े लोग उसके यहाँ जमा थे। वे मेज़ के चारों ओर, अपने-अपने पद तथा मान-मर्यादा के अनुसार, बैठे बातें कर रहे थे। मेज़ पर तन्दूर की पकी एक सालिम भेड़ रखी थी। और सच मानो, वह कोई छोटी भेड़ भी नहीं थी। बातचीत का सिलसिला घूमघुमाकर जादू-टोनों और प्रेत-लीलाओं की ओर मुड़ चला।

इसी समय उन्हें ऐसा मालूम हुआ - किसी एक को नहीं, अगर ऐसा होता कोई परवाह न करता, बल्कि सबको, ध्यान देने की बात है कि एक सिरे से सबको - ऐसा मालूम हुआ मानो भेड़ ने अपना सिर उठाया। उसकी पथरायी हुई आँखें जीवन की चिनगारी से चमकती मालूम हुईं। उसने अपनी मूँछें, जो ऊपर के होंठ पर यकायक उग आयी थीं, फड़कायीं। पलक झपकते सबने - उनमें से हरेक ने - पहचाना कि अरे, यह तो भेड़ की नहीं, बसावरियोक की शक्ल है। और मेरे नाना की चाची को तो ऐसा मालूम हुआ मानो वह वोदका की फ़रमाइश करने ही वाला है। जहाँ तक बड़े लोगों का सम्बन्ध है, वे फिर नहीं टिके, आपाधापी में अपने-अपने टोप उठाकर भाग खड़े हुए।

एक अन्य घटना ख़ुद गिरजा के अधिकारी जी के साथ घटी। वह रात ढल चुकने तक बातें करने और बढ़िया ब्राण्डी की चुस्कियाँ लेने के प्रेमी थे। यह ब्राण्डी उन्हें पुरखों से विरासत में मिली थी। सो अपनी आदत के अनुसार वह चुस्कियाँ ले रहे थे और अभी दूसरा गिलास भी ख़ाली नहीं कर पाये थे कि गिलास, पूरी श्रद्धा के साथ झुककर, उनका अभिवादन करने लगा।

"तुझे शैतान उठा ले जाये!" सलीब का चिह्न बनाते हुए अधिकारी जी चिल्ला उठे।

और उसी साँझ उनकी पत्नी के साथ भी एक अद्भुत घटना घटी। एक काफ़ी बड़े बरतन में अभी उसने खमीर को फेंटना शुरू किया ही था कि यकायक बरतन सीधा खड़ा हो गया।

"अरे शान्त रह, शान्त रह!" बेचारी ने चिल्लाकर कहा।

लेकिन बरतन था कि ठसके के साथ चलकर कमरे के बीच में पहुँच गया और दरबारी पावाडन नृत्य करने लगा। सुनकर तुम भले ही हँसो, लेकिन हमारे पुरखों के लिए निश्चय ही यह कोई हँसने की बात नहीं थी। धर्मपिता अफ़नासिउस ने समूचे गाँव में पवित्र जल छिड़का और पवित्र जल का पात्र हाथ में लिये गाँव के कोने-कोने से शैतान को मार भगाया। लेकिन इसके बाद भी शैतान बहुत दिनों तक मेरे नाना की चाची को सताता रहा। वह शिकायत किया करती कि रात होते ही न जाने कौन उसकी छत पर चढ़कर रेंगता और उसकी दीवारों को खरोंचता रहता था।

लेकिन इतनी पुरानी बात को छोड़ो। आज इस जगह जहाँ हमारा गाँव बसा है, हर चीज़ शान्त और स्थिर मालूम होती है। लेकिन कुछ ही समय पहले जब मेरे पिता जीवित थे, मुझे अच्छी तरह याद है कि कोई भी नेक आदमी उस सराय के खण्डहर के पास से गुज़रने का साहस नहीं कर सकता था। उस सराय को अब यहूदियों ने अपने पैसों से बनवा लिया है। लेकिन उस समय जबकि उसमें कोई नहीं था और वह खण्डहर हुई पड़ी थी, कालिख-पुती उसकी चिमनी से धुएँ के काले बादलों के इतने ऊँचे भभके निकलते थे कि उन्हें देखने के प्रयत्न में टोपी सिर से नीचे आ रहती थी। धुएँ के उन बादलों से चिनगारियाँ निकलती थीं जो स्तेपी के समूचे ओर-छोर में फैल जाती थीं और शैतान, अपने बिल के अन्दर से, इतनी भयानक आवाज़ करता था कि पहाड़ी काग डर के मारे आसपास के ओक वृक्षों से निकलकर आकाश में मँडराने और बुरी तरह काँव-काँव करने लगते थे।

(अनुवाद: नरोत्तम नागर)

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