शहीद का कोना (अंग्रेज़ी कहानी) : आर. के. नारायण
Shaheed Ka Kona (English Story in Hindi) : R. K. Narayan
मार्केट रोड के मोड़ पर, जहाँ से केमिस्ट की दुकान के लिए गली शुरू होती है, इसी कोने पर उसका प्रतिष्ठान था। इसे 'प्रतिष्ठान' कहने में किसी को परेशानी होती हो तो वह इसके लिए स्वतंत्र है, लेकिन सभी दृष्टियों से यह एक ऐसी जगह थी जो लगता था, आसमान से उतर आयी हो। आठ बजे तक वहाँ कोई नहीं दिखायी देता और दस बजे भी कोई नहीं होता था, इन दो घंटों में ही वह आता, अपनी चीजें बेचता और चला जाता था।
जो उसे देखते, कहते, 'बड़ा भाग्यवान् है। दिन में घंटे भर काम करता है और दस रुपये कमा लेता है-जितना ग्रेजुएट भी नहीं कमा पाते। महीने में तीन सौ रुपये!" लेकिन जब वह ऐसी बातें सुनता तो परेशान होकर कहता, 'इन लोगों को यह नहीं दिखाई देता कि दिनभर मैं भट्टी पर बैठा ये सब चीजें तलता रहता हूँ।"
सवेरे जब पड़ोस के घर का मुर्गा बाँग देता, तब वह उठ बैठता। कभी-कभी वह खुद तीन बजे ही जाग जाता और कहता, 'आज मुर्गों को क्या हो गया, बोला ही नहीं?' लेकिन तीन बजें या चार, उसे हर रोज सवेरे उठकर दिनभर के लिए काम पर लग जाना होता था।
शाम को सवा आठ के करीब वह उस जगह अपना सामान लेकर पहुँचता। वह इतनी चीजें लिये आता कि लगता, उसके चार हाथ हैं। सिर पर बड़ा-सा थाल, जिसमें तरह-तरह के खाद्य-पदार्थ सजे रखे होते थे, बाँह के बीच लटका स्टूल, दूसरे हाथ में लैम्प, जिसमें हर दिन तीन पैसे का मिट्टी का तेल जलता और जिसे वह हमेशा अपने साथ रखता क्योंकि बिजली के बल्ब पर उसे भरोसा नहीं था, और इसलिए भी कि उसे ढेर-सी रेजगारी और दूसरी चीजों की देखभाल करनी पड़ती थी।
जब वह लेंप की रोशनी में अपना थाल सजा लेता तो कोई भी राहगीर उसकी ओर नजर डाले बिना गुजर नहीं सकता था। बोंडों का एक ढेर जो ऊपर से तो कड़े लगते थे लेकिन मुँह में रखते ही घुल जाते; दोसे, सफेद, गोल और गुलगुले, जैसे मलमल के बने हों, चपातियाँ इतनी पतली कि पचास एक ऊँगली पर उठ आयें; बत्तख के उबले कड़े अंडे जैसे हाथी दाँत की गेंद; और स्टोव पर हर वक्त उबलती तैयार कॉफी। अलग अलम्युनियम के एक बर्तन में चटनी, जो हर चीज के साथ मुफ्त दी जाती थी।
हर दिन वह उस समय पहुँचता जब शाम का शो खत्म होने पर भीड़ बाहर निकल रही होती। उसके आने से पहले उस जगह एक और आदमी छोटा-सा खोमचा लगाये बिक्री कर रहा होता, लेकिन इससे उसे कोई परेशनी नहीं होती थी। वह कहता, 'इस गरीब चूहे को भी जब मैं यहाँ नहीं होता, कुछ कमा लेने दो।' उसे भी इस भावना की कद्र थी क्योंकि जब गद्दी का यह राजकुमार यहाँ आता, उससे एक मिनट पहले ही वह जगह खाली कर देता था।
उसके ग्राहक उसे चाहते भी बहुत थे। वे कहते, 'और कोई ऐसी जगह है जहाँ आप छह पैसे में कॉफी और एक आने में चार चपाती ले सकें?' सब उसके थाल के इर्द-गिर्द बैठ जाते और जो चाहते, लेकर खाते रहते। एक मिनट में दर्जन भर हाथ इधर-से-उधर होते, क्योंकि उसके ग्राहकों को यह अधिकार था कि पहले देखभाल कर चीजों की परीक्षा कर लें, तब जो चाहें लेकर खायें।
हालांकि बहुत से हाथ यह काम करते नजर आते, उसे पता रहता कि कौन क्या ले रहा है। अपनी विशेष बुद्धि से उसे पता होता कि कौन-सा गाड़ीवाला किस समय चपाती ले रहा है,वह उसकी गाड़ी का लायसेंस नंबर भी बता सकता था; उसे पता होता कि जो गंदा-सा हाथ, झिड़कता-सा आगे बढ़ रहा है वह बूट पालिश करने वाले का हाथ है; वह जानता था कि ठीक किस समय पहलवान की मजबूत बाँह अच्छे सख्त अंडे की तलाश करेगी, जिसे वह खाने से पहले थाली के कोने पर चटकाकर तोड़ेगा।
उसके ज्यादातर ग्राहक फुटपाथ के लोग थे: जैसे बूट पालिश वाले लड़के, जो थैले में बुश और पॉलिश लटकाये आवाज लगाते हैं, 'बूट पालिश, बढ़िया पालिश!' इन बच्चों के लिए रामा के मन में विशेष प्यार था। जब वह देखता कि कोई मोटा आसामी पॉलिश कराने के बाद पैसे देने में इनसे झगड़ रहा है, तो उसका मन होता कि चिल्लाकर कहे, 'इस गरीब को जरा ज्यादा दे देने से तुम्हारा कुछ बिगड़ नहीं जायेगा। एक आने में ये एक दोसा और चपाती खा लेंगे। देखते नहीं, ये अधभूखे सड़कों पर डोल रहे हैं।'
इन भूखे, खाली आँखों वाले बच्चों को देखकर उसका दिल हिल उठता, चिथड़ों में ढके इनके दुबले-पतले शरीर उसे परेशान करते, और जब वे उत्सुक आँखें लिये अपना थैला बगल में कहीं रखकर खोमचे के पास आते, तो वह बहुत दुखी हो उठता। लेकिन वह कर ही क्या सकता था! दान-भंडार चलाना उसके बस की बात नहीं थी। वह उनको ग्लास में कॉफी बिलकुल सही भरकर देता, जिसे वे देर तक मजा लेकर पीते रहते।
एक अंधा भिखारी, जो होटल के सामने दिनभर भीख माँगता रहता, शाम को उसके पास आता और दिनभर में इकट्ठी रकम में से कुछ उसे देकर खाने को माँगता. और वे घास बेचने वाली औरतें! औरतों को देना उसे पसंद नहीं था. उनकी तीखी, जोरदार आवाजें उसे परेशान करती थीं। ये अपने घास के बंडल सही कीमत पर बेचने के बाद उसके पास आतीं। और वह चालाक-सा लंगड़ा, जो हर शाम तरह-तरह की चीजों का एक बंडल लाता और थोड़ी दूर सड़क के उस पार चुपचाप खड़ी एक वेश्यानुमा स्त्री को जाकर देता।
दुनिया के इस हिस्से के वे सब स्त्री-पुरुष जो मामूली काम-धंधे करके अपनी रोजी-रोटी कमाते, वे शाम को उसी के पास आकर बैठते और खाते-पीते। फिर जब सिनेमा का रात का शो शुरू हो जाता, वह कमाया हुआ सब पैसा, जिसे वह गले में कमीज के भीतर पड़ी एक थैली में सँभालकर रखता जाता, लेकर अपने घर वापस चला जाता।
मार्केट के पीछे की दूसरी गली में उसका घर था। उसकी बीवी दरवाजा खोलती, और भीतर जल रही ढिबरी के तेल की बूबाहर आ जाती। वह उसके हाथ से खाली बर्तन ले लेती, कमीज के भीतर हाथ डालकर थैली निकाल लेती और तुरंत पैसे गिनना शुरू कर देती। फिर वे इस पर बातचीत करते, 'सवेरे पाँच रुपये का सामान लगाया तो आमदनी हुई पाँच रुपये और.।' गुणा-भाग का यह रहस्य वे समझ नहीं पाते थे। फिर दूसरे दिन के खर्च के लिए थैली में पैसा रखकर वह आमदनी का सब पैसा सँभालकर उस लकड़ी के डिब्बे में रख देती जिसे सालों पहले वह अपने मायके से लायी थी।
खाना खाने के बाद वह मुँह में एक पान दबाता, तंबाकू फाँकता और घर के सामने लगे पत्थर पर सो जाता। उसे नींद में उन पुलिसवालों के सपने आते जो उस जगह से खोमचा हटाने के लिए उसे परेशान करते और हेल्थ इंसपेक्टर के, जो उससे कहते कि तुम इन चीजों से लोगों में बीमारियाँ फैला रहे हो और शहर की जनसंख्या घटा रहे हो। लेकिन वास्तविक जीवन में कोई इन बातों की ज्यादा परवाह नहीं करता था। वह कभी-कभी इन पुलिसवालों और हेल्थ इंसपेक्टरों को भी अपनी चीजें खिला दिया करता था।
एक दिन हेल्थ अफसर भी उसके पास आया और कहने लगा, 'ये चीजें तुम शीशे से ढककर रखा करो.नहीं तो मैं किसी दिन ये सब फिंकवा दूंगा..।" लेकिन वह कठोर नहीं था और उसने ऐसा कुछ भी नहीं किया। वह चुपचाप सोचा करता, 'ये लोग ये चीजें खाकर जिन्दा कैसे रहते हैं! मेरी तो समझ में नहीं आता। मेरा ख्याल है खुद भी ऐसी ही जिन्दगी बिताने के कारण इनमें ये सब जहर बरदाश्त करने का माद्दा बढ़ जाता है।' रामा वास्तव में सफाई के किसी भी नियम का पालन नहीं करता था लेकिन उसके ग्राहकों को ये चीजें खाकर कुछ भी नहीं होता था, उलटे, सालों से यही सब खाने के बाद भी वे सही-सलामत और तंदुरुस्त बने रहते थे।
कहा जा सकता है कि रामा की जिंदगी बहुत संतोषपूर्वक व्यतीत हो रही थी जिसमें कोई हलचल और परेशानी नहीं थी। यह इसी तरह अनंत काल तक क्यों नही चलती रह सकती थी, जब तक यह सूर्य ठंडा न पड़ जाता और सृष्टि समाप्त न हो जाती-जब यह माना जा सकता कि उसने शुद्ध प्रयत्न के आधार पर एक सादा, सफल जीवन जिया। उसके काम-काज और धन कमाने के उपाय से किसी को कोई परेशानी नहीं थी, न यह कहा जा सकता है कि उसकी बनायी चीजें खाकर बहुत ज्यादा लोग मर गये, इन खानों से भी उतने ही लोग मरे होंगे जितने दूसरे कारणों से, जैसे म्युनिसपैलिटी की बदइन्तजामी से, मरे होंगे।
लेकिन मनुष्य के जीवन में यह सुरक्षा उपलब्ध नहीं है। किसी के बहुत ज्यादा संतुष्ट होने से देवता जलन महसूस करने लगते हैं, और अचानक वे अपना रोष व्यक्त करने लगते हैं। एक रात जब वह उस जगह, जहाँ वह हमेशा बैठने आता था, अपना सामान लेकर आया, उसे वहाँ कुछ लोग शोर मचाते दिखाई दिये। उसने अधिकारपूर्वक कहा, 'यह जगह खाली कर दीजिए, " तो किसी ने उसकी बात पर ध्यान नहीं दिया। पड़ोस की कागज-कलम की दुकान वाले का लड़का यह देखकर उसके पास आया और उसकी बाँह पकड़कर कहने लगा, 'ये लोग शाम से पता नहीं किस बात के लिए लड़-झगड़ रहे हैं...।"
'किसलिए लड़ रहे हैं?'
'पता नहीं.। कुछ लोग कहते हैं कि किसी आदमी को, जब वह वोट माँगने या पता नहीं किस बात के लिए परचे बाँट रहा था, तब सेल्स टैक्स के दफ्तर के पास उसे मार दिया गया। यह जातीय झगड़ा भी हो सकता है। लेकिन कौन परवाह करता है! जो लड़ना चाहते हैं वे लड़ते ही रहते हैं।'
किसी ने कहा, 'तुम हमारे बारे में ऐसी बातें क्यों कह रहे हो?'
सबने इस आदमी की तरफ गुस्से से देखा। एक कहने लगा, 'क्या किसी को बोलने का हक भी नहीं है... ?'
इस पर उस आदमी ने उसे एक तमाचा जड़ दिया। रामा अपना सामान लादे खड़ा था और समझ नहीं पा रहा था कि क्या करे! यह तमाचा चिनगारी का काम कर गया। एक और आदमी ने एक और आदमी को मारा, किसी दूसरे ने तीसरे को मारा और किसी ने नारा लगाया, 'मुर्दाबाद.।"
दूसरे गुट के लोगों ने चिल्लाकर कहा, 'ये योजना बनाकर, संगठित ढंग से हमें कुचलने के लिए आये हैं। हमारा सोच सही निकला।'
शोर मचने लगा। सोडावाटर की बोतलें हथियार की तरह फेंकी जाने लगीं। हर आदमी हर दूसरे आदमी को मारने लगा। कुछ आदमी बाजार की दुकानों में घुस गये और कहने लगे, 'बंद करो सब दुकानें.। "
दुकानदारों ने पूछा, 'लेकिन क्यों?'
'आप व्यापार कैसे करते रह सकते हैं जब..
' सभ्य जीवन के नियम अचानक ताक पर रख दिये गये। हर आदमी दूसरे आदमी से गुस्सा नजर आता था। घंटे भर में बाजार लड़ाई के मैदान में बदल गया। थोड़ी देर में पुलिस भी आ गयी। लेकिन इससे हालात और भी बिगड़ गये क्योंकि अब लड़ाई का एक तीसरा पक्ष भी खड़ा हो गया। पुलिस के तीन काम थे: शान्ति स्थापित करना, अपने को सही-सलामत बनाये रखना और जिस पक्ष को वे पीड़ित पक्ष समझते हैं, उसकी रक्षा करना। जो दुकानें बंद नहीं हुई थीं, वे लूट ली गयीं।
सिनेमाघर भी एकदम खाली हो गया। उसके लोग बाहर निकलकर अपनेअपने पक्ष वालों में शामिल हो गये। जिन लोगों के हाथ में चाकू थे, वे घूमघूमकर हमला कर रहे थे, जो घायल हो गए थे वे चीख रहे थे और एम्बुलेंस की गाड़ियाँ इधर-उधर भाग-दौड़ कर रही थीं। पुलिस लाठी और टियर गैस का इस्तेमाल कर रही थी, इसके बाद वह गोलियाँ चलाने लगीं। कई आदमी मर गये। जनता का कहना था कि तीन हजार लोग मरे और घायल हुए हैं लेकिन सरकार के अनुसार पाँच लोग घायल हुए थे और सवा चार पुलिस फायरिंग में मर गये थे। आधी रात के बाद वह उस जगह से बाहर निकला जहाँ वह छिप गया था और घर चला आया।
दूसरे दिन उसने अपनी बीवी से कहा, 'अब मैं ज्यादा सामान नहीं ले जाऊँगा। अब वहाँ बहुत थोड़े लोग होंगे। ईश्वर जाने इन लोगों को क्या हो गया है! ये कुछ वोटों के लिए एक-दूसरे को मार रहे हैं.। उसका विचार सही था। मार्केट रोड पर आम लोगों से ज्यादा पुलिसवाले थे और जहाँ उसका खोमचा होता था, उस जगह की रक्षा का विशेष प्रबंध किया गया था। यहाँ से कुछ दूर हटकर पुलिस अफसर द्वारा बताय स्थान पर उसन अपना खामचा लगाया।
स्थिति सामान्य होने में दस दिन लगे। अखबारों ने माँग की कि इस मामले में पूरी जाँच कराई जाये : जैसे क्या पुलिस का गोलियाँ चलाना जायज था, और हादसा रोकने के लिए पुलिस ने क्या बंदोबस्त किये थे, और इस तरह की बहुत सी बातें। रामा अखबार बेचने वालों द्वारा बोली जाने वाली सुखियों में वर्तमान समय का इतिहास बनता देखता रहा और इन्तजार करता रहा कि कब उसका कोना खाली होता है।
कोना भी खाली हो गया और जैसे ही वह वहाँ अपना खोमचा लगाने लगा, बैज लगाये दो नवयुवक दौड़कर उसके पास आये और कहने लगे, 'यहाँ तुम अपना खोमचा नहीं लगा सकते...।"
'क्यों नहीं, भाई?'
'यह वह पवित्र स्थल है जहाँ उस दिन हमारे नेता की मृत्यु हुई थी। पुलिस ने यहीं उन्हें गोलियों से भून दिया था। यहाँ हम उनका स्मारक बना रहे हैं। यह जगह अब हमारी है, म्युनिसपल कमेटी ने यह हमें दे दी है।'
बहुत जल्द यह जगह चारों तरफ से घेर ली गयी और हर समय यहाँ कुछ न-कुछ कार्यक्रम किया जाने लगा। धन इकट्ठा करने के लिए लोग डिब्बे लेकर घूमने लगे और उसमें पैसे डाले जाने लगे। रामा यह अच्छी तरह जानता था कि धन आकर्षित करने के लिए इससे अच्छी दूसरी जगह नहीं है। कुछ ही दिनों में इतना पैसा जमा हो गया कि स्मारक का पत्थर खरीदा जा सके और उसकी खूबसूरत चारदीवारी बनाकर फूल-पत्तों से सजाया जा सके। इससे इस स्थान की शक्लो -सूरत बदल गयी।
फिर वहाँ गुरु-गंभीर से दिखाई पड़ने वाले कुछ लोग आये और आपस में बातें करने लगे। रामा को वहाँ से करीब दो सौ गज दूर गली में बैठने की जगह दी गयी। इसका मतलब हुआ कि मार्केट से गुजरने वाले लोगों की उस पर निगाह न पड़ती। उसका खोमचा एक तरह से अँधेरे में पड़ गया। सिनेमा से निकलने वाले लोग उसके बगल से होकर चले जाते; ठेले-गाड़ीवाले जो लोग पहले सिपाही की ढील का फायदा उठाकर एक मिनट के लिए सड़क के किनारे गाड़ी खड़ी करके यहाँ कुछ खा-पी लेते, अब इतनी दूर आने का जोखिम न उठा पाते और बूट पालिश वाले लड़के भी सामने के फुटपाथ पर छोटे खोमचे से खाने-पीने लगे, जिससे उसका सितारा अचानक चमक उठा।
अब रामा बिक्री के लिए काफी थोड़ा सामान तैयार करता, फिर भी वापसी में कुछ-न-कुछ बचा रह जाता। इसमें से कुछ वह खुद ही खा-पी लेता और बाकी सामान को, बीवी की सलाह मानकर, दूसरे दिन भी उसी को गरम करके चला लेता। एक-दो खाने वालों ने इसे चखने के बाद ही थूक दिया और बाजार में कहना शुरु कर दिया कि रामा की चीजें अब खराब हो गयी हैं। एक रात जब वह कमायी के सिर्फ दो आने लेकर घर पहुंचा तो बीवी से कहने लगा कि उसका व्यापार अब खत्म हो गया है, अब इसके बारे में सोचना बंद कर देना चाहिए।
उसने अपना थाल, दूसरे बर्तन और लैंप सब अलग रख दिये और रिटायर हो जाने की बात सोचने लगा। फिर धीरे-धीरे उसकी बचत भी खत्म हो गयी। तब वह कोहनूर रेस्तराँ में, जिस पर दिन-रात लाउडस्पीकर बजता रहता था, नौकरी के लिए लाइन लगाकर खड़ा हो गया।
अब बीस रुपये महीने पर वह आठ घंटे मेजों पर जमे लोगों की सेवा करता। लोग आते और जाते, रेडियो बजता रहता, जिसकी कर्कश आवाज उसकी नसों को झकझोर देती, लेकिन उसने काम नहीं छोड़ा, करता रहा और कोई रास्ता भी तो नहीं था।
एक दिन जब एक ग्राहक उससे कुछ कठोरता से पेश आया तो उसने धीरे से कहा, 'जनाब, जरा धीरे बोलिए, मैं भी कभी होटल का मालिक था।'
यह बात कहकर उसे बहुत संतोष हुआ।