शाह दौले का चूहा (कहानी) : सआदत हसन मंटो
Shah Daule Ka Chuha (Hindi Story) : Saadat Hasan Manto
सलीमा की जब शादी हुई तो वो इक्कीस बरस की थी। पाँच बरस होगए मगर उस के औलाद न हुई। उस की माँ और सास को बहुत फ़िक्र थी। माँ को ज़्यादा थी कि कहीं उस का नजीब दूसरी शादी ना करले। चुनांचे कई डाक्टरों से मश्वरा किया गया मगर कोई बात पैदा न हुई।
सलीमा बहुत मुतफ़क्किर थी। शादी के बाद बहुत कम लड़कियां ऐसी होती हैं जो औलाद की ख़्वाहिशमंद न हो। उस ने अपनी माँ से कई बार मश्वरा किया। माँ की हिदायतों पर भी अमल किया। मगर नतीजा सिफ़र था।
एक दिन उस की एक सहेली जो बांझ क़रार दे दी गई थी। उस के पास आई। सलीमा को बड़ी हैरत हुई कि उस की गोद में एक गुल गोथना लड़का था। सलीमा ने उस से बड़े बींडे अंदाज़ में पूछा “फ़ातिमा तुम्हारे ये लड़का कैसे पैदा होगया।”
फ़ातिमा उस से पाँच साल बड़ी थी। उस ने मुस्कुरा कर कहा। ये शाह दौले साहब की बरकत है। मुझ से एक औरत ने कहा कि अगर तुम औलाद चाहती हो तो गुजरात जाकर शाह दौले साहब के मज़ार पर मिन्नत मानव। कहो कि हुज़ूर मेरे जो पहले बच्चा होगा वो आप की ख़ानक़ाह पर चढ़ा दूंगी।
उस ने ये भी सलीमा को बताया कि जब शाह दौले साहब के मज़ार पर ऐसी मिन्नत मानी जाये तो पहला बच्चा ऐसा होता है जिस का सर बहुत छोटा होता है। फ़ातिमा की ये बात सलीमा को पसंद न आई और जब उस ने मज़ीद कहा कि पहला बच्चा इस ख़ानक़ाह में छोड़कर आना पड़ता है तो उस को और भी दुख हुआ।
उस ने सोचा कौन ऐसी माँ है जो अपने बच्चे से हमेशा के लिए महरूम हो जाये। उस का सर छोटा हो। नाक चिपटी हो। आँखें भींगी हों। लेकिन माँ उस को घूरे में नहीं फेंक सकती वो कोई डायन ही हो सकती है। लेकिन उसे औलाद चाहिए थी इस लिए वो अपनी उम्र से ज़्यादा सहेली की बात मान गई।
वो गुजरात की रहने वाली तो थी ही जहां शाह दौले का मज़ार था। उस ने अपने ख़ाविंद से कहा। “फ़ातिमा मजबूर कर रही है कि मेरे साथ चलो। इस लिए आप मुझे इजाज़त दे दीजिए।”
उस के ख़ाविंद को क्या एतराज़ हो सकता था। उस ने कहा। “जाओ मगर जल्दी लोट आना।”
वो फ़ातिमा के साथ गुजरात चली गई।
शाह दौला का मज़ार जैसा कि उस ने समझा था कोई अह्द-ए-अतीक़ की इमारत नहीं थी। अच्छी ख़ासी जगह थी। जो सलीमा को पसंद आई। मगर जब उस ने एक हुजरे में शाह दौले के चूहे देखे, जिन की नाक से रेंठ बह रहा था और उन का दिमाग़ बिलकुल माऊफ़ था तो काँप काँप गई।
एक जवान लड़की थी पूरे शबाब पर मगर वो ऐसी हरकतें करती थी कि संजीदा से संजीदा आदमी को भी हंसी आ सकती थी। सलीमा उस को देख कर एक लम्हे के लिए हंसी मगर फ़ौरन ही उस की आँखों में आँसू आगए। सोचने लगी इस लड़की का क्या होगा। यहां के मुजाविर उसे किसी के पास बेच देंगे या बंदर बना कर उसे शहर ब शहर फिराएं गे। ये ग़रीब की रोज़ी का ठीकरा बन जाएगी।
उस का सर बहुत छोटा था। लेकिन उस ने सोचा कि अगर सर छोटा है तो इंसानी फ़ितरत तो इतनी छूटी नहीं..... वो तो पागलों के साथ भी चिम्टी रहती है।
इस शाह दौले की चूहिया का जिस्म बहुत ख़ूबसूरत था। उस की हर क़ौस अपनी जगह पर मुनासिब-ओ-मौज़ूं थी।
मगर उस की हरकात ऐसी थीं जैसे किसी ख़ास ग़र्ज़ के मातहत उस के हवास मुख़्तल कर दिए गए हैं..... वो इस तरीक़े से खेलती फिरती और हंसती थी जैसे कोई कोक भरा खिलौना हो। सलीमा ने महसूस किया कि वो इसी ग़रज़ के लिए बनाई गई है।
लेकिन इन तमाम एहसासात के बावजूद उस ने अपनी सहेली फ़ातिमा के कहने पर शाह दूला साहब के मज़ार पर मिन्नत मानी कि अगर उस के बच्चा हुआ तो वो उन की नज़र कर देगी।
डाकटरी ईलाज सलीमा ने जारी रखा। दो माह बाद बच्चे की पैदाइश के आसार पैदा होगए। वो बहुत ख़ुश हुई। मुक़र्ररा वक़्त पर इस के हाँ लड़का हुआ, बड़ा ही ख़ूबसूरत। हमल के दौरान में चूँकि चांद ग्रहण हुआ था इस लिए इस के दाहिने गाल पर एक छोटा सा धब्बा था जो बुरा नहीं लगता था।
फ़ातिमा आई तो उस ने कहा कि इस बच्चे को फ़ौरन शाह दौले साहिब के हवाले करदेना चाहिए। सलीमा ख़ुद यही मान चुकी थी। कई दिनों तक वो टाल मटोल करती रही। उस की ममता नहीं मानती थी कि वो अपना लिखित-ए-जिगर वहां फेंक आए।
उस से कहा गया था कि शाह दौले से जो औलाद मांगता है उस के पहले बच्चे का सर छोटा होता है। लेकिन इस के लड़के का सर काफ़ी बड़ा था। और फ़ातिमा ने उस से कहा। ये कोई ऐसी बात नहीं जो तुम बहाने के तौर पर इस्तिमाल कर सको। तुम्हारा ये बच्चा शाह दौले साहब की मिल्कियत है तुम्हारा इस पर कोई हक़ नहीं। अगर तुम अपने वाअदा से फिर गईं तो याद रखो तुम पर ऐसा अज़ाब नाज़िल होगा कि सारी उम्र याद रखोगी।
बादले नख़्वास्ता सलीमा को अपना प्यारा गुल गोथना सा बेटा जिस के दाहिने गाल पर काला धब्बा था। गुजरात जाकर शाह दौले के मज़ार के मुजाविरों के हवाले करना पड़ा।
वो इस क़दर रोई..... उस को इतना सदमा हुआ कि बीमार होगई। एक बरस तक ज़िंदगी और मौत के दरमियान मुअल्लक़ रही। उस को अपना बच्चा भूलता ही नहीं था। खासतौर पर उस के दाहिने गाल पर काला धब्बा। जिस को अक्सर चूमा करती थी। चूँकि वो जहां भी था बहुत अच्छा लगता था।
इस दौरान में उस ने एक लम्हे के लिए भी अपने बच्चे को फ़रामोश न किया। अजीब अजीब ख़्वाब देखती। शाह दौला उस के परेशान तसव्वुर में एक बड़ा चूहा बन कर नुमूदार होता जो उस के गोश्त को अपने तेज़ दातों से कतरता। वो चीख़ती और अपने ख़ाविंद से “मुझे बचाईए! देखिए चूहा मेरा गोश्त खा रहा है।”
कभी इस का मुज़्तरिब दिमाग़ ये सोचता कि उस का बच्चा चूहों के बिल के अंदर दाख़िल हो रहा है। वो उस की दम खींच रही है। मगर बिल के अंदर जो बड़े बड़े चूहे हैं उन्हों ने उस की थूथनी पकड़ ली। इस लिए वो उसे बाहर निकाल नहीं सकती।
कभी उस की नज़रों के सामने वो लड़की आती जो पूरे शबाब पर थी और जिस को उस ने शाह दौले साहब के मज़ार के एक हुजरे में देखा था। सलीमा हंसना शुरू कर देती। लेकिन थोड़ी देर के बाद रोने लगती। इतना रोती के उस के ख़ाविंद नजीब को समझ में न आता कि इस के आँसू कैसे ख़ुश्क करे।
सलीमा को हर जगह चूहे नज़र आते थे। बिस्तर पर बावर्चीख़ाने में। ग़ुसलख़ाने के अंदर। सोफे पर। दिल में कानों में बाअज़ औक़ात तो वो ये महसूस करती कि वो ख़ुद चूहिया है। उस की नाक से रेंठ बह रहा है। वो शाह दौले के मज़ार के एक हुजरे में अपना छोटा बहुत छोटा सर अपने नातवां कंधों पर उठाए ऐसी हरकात कर रही है कि देखने वाले हंस हंस कर लोटपोट हो रहे हैं। उस की हालत क़ाबिल-ए-रहम थी।
उस को फ़िज़ा में धब्बे ही धब्बे नज़र आते। जैसे एक बहुत बड़ा गाल है जिस पर सूरज बुझ कर टुकड़े टुकड़े होके जगह जगह जम गया है।
बुख़ार हल्का हुआ तो सलीमा की तबीयत किसी क़दर सँभल गई नजीब भी क़दरे मुतमइन हुआ। उस को मालूम था कि उस की बीवी की अलालत का बाइस किया है। लेकिन वो ज़ईफ़-उल-एतिका़द था। उस को अपनी पहली औलाद को भेंट चढ़ाए जाने का कोई एहसास नहीं था। जो कुछ किया गया था वो उसे मुनासिब समझता था। बल्कि वो तो ये सोचता था कि इस के जो बेटा हुआ था वो इस का नहीं शाह दौले साहब का था।
जब सलीमा का बुख़ार उतर गया और उस के दिल-ओ-दिमाग़ का तूफ़ान ठंडा पड़ गया तो नजीब ने उस से कहा “मेरी जान। अपने बच्चे को भूल जाओ। वो सदक़े का था।”
सलीमा ने बड़े ज़ख़्म-ख़ुर्दा लहजे में कहा। “मैं नहीं मानती..... सारी उम्र अपनी ममता पर लानतें भेजती रहूंगी कि मैंने इतना बड़ा गुनाह क्यों किया कि अपना लख़्त-ए-जिगर उस के मजावरों के हवाले कर दिया। ये मुजाविर माँ तो नहीं हो सकते।”
एक दिन वो ग़ायब हो गई। सीधी गुजरात पहुंची। साथ आठ रोज़ वहां रही। अपने बच्चे के मुतअल्लिक़ पूछ-गछ की। मगर कोई अता पता ना मिला मायूस होकर वापिस आगई। अपने ख़ाविंद से कहा। “मैं अब उसे याद नहीं करूंगी।”
याद तो वो करती रही। लेकिन दिल ही दिल में उस के बच्चे के दाहिने गाल का धब्बा उस के दिल का दाग़ बन कर रह गया था।
एक बरस के बाद उस के लड़की हुई। उस की शक्ल इस के पहलोठी के बच्चे से बहुत मिलती जुलती थी। इस के दाहिने गाल पर दाग़ नहीं था इस का नाम उस ने मुजीब रखा क्योंकि अपने बेटे का नाम उस ने मुजीब सोचा था।
जब वो दो महीने की हुई तो उस ने उस को गोद में उठाया और सुरमा दानी से थोड़ा सा सुरमा निकाल कर उस के दाहिने गाल पर एक बड़ा सा तिल बना दिया और मुजीब को याद कर के रोने लगी। उस के आँसू बच्ची की गालों पर गिरे तो उस ने अपने दोपट्टे से पोंछे और हँसने लगी। वो कोशिश करना चाहती थी कि अपना सदमा भूल जाये।
इस के बाद सलीमा के दो लड़के पैदा हुए। उस का ख़ाविंद अब बहुत ख़ुश था।
एक बार सलीमा को किसी सहेली की शादी के मौक़ा पर गुजरात जाना पड़ा तो उस ने एक बार फिर मुजीब के मुतअल्लिक़ पूछ-गछ की। मगर उसे नाकामी हुई। उस ने सोचा शायद मर गया है। चुनांचे उस ने जुमेरात को फ़ातिहा ख़्वानी बड़े एहतिमाम से कराई।
अड़ोस पड़ोस की सब औरतें हैरान थी कि ये किस की मर्ग के सिलसिले में इतना तकल्लुफ़ किया गया है। बाअज़ ने सलीमा से पूछा भी, मगर उस ने कोई जवाब न दिया।
शाम को उस ने अपनी दस बरस की लड़की मुजीबा का हाथ पकड़ा। अंदर कमरे में ले गई। सिरे से उस के दाहिने गाल पर बड़ा सा धब्बा बनाया और उस को देर तक चूमती रही।
वो मुजीब ही को अपना गुमशुदा मुजीब समझती थी। अब उस के मुतअल्लिक़ सोचना छोड़ दिया, इस लिए कि उस की फ़ातिहा ख़्वानी कराने के बाद उस के दिल का बोझ हल्का होगया था। उस ने अपने तसव्वुर में एक क़ब्र बना ली थी। जिस पर वो तसव्वुर ही में फूल भी चढ़ाया करती।
उस के तीन बच्चे स्कूल में पढ़ते थे। उन को हर सुबह सलीमा तैय्यार करती। उन के लिए नाशतादान बनवाती। हर एक को बनाती संवारती। जब वो चले जाते तो एक लहज़ा के लिए उसे अपने मुजीब का ख़्याल आता कि वो उस की फ़ातिहा ख़्वानी करा चुकी थी। दिल का बोझ हल्का होगया था। फिर भी उस को कभी कभी ऐसा महसूस होता कि मुजीब के दाहिने गाल का स्याह धब्बा उस के दिमाग़ में मौजूद है।
एक दिन उस के तीनों बच्चे भागे भागे आए और कहने लगे अम्मी हम तमाशा देखना चाहते हैं।
उस ने बड़ी शफ़क़त से पूछा। “कैसा तमाशा?”
उस लड़की ने जो सब से बड़ी थी कहा “अम्मी जान एक आदमी है वो तमाशा दिखाता है।”
सलीमा ने कहा। “जाओ उस को बुला लाओ। मगर घर के अंदर न आए। बाहर तमाशा करे।”
बच्चे भागे हुए गए और उस आदमी को बुला लाए और तमाशा देखते रहे। जब ये ख़त्म होगया तो मुजीबा अपनी माँ के पास गई कि पैसे दे दो। माँ ने अपने पर्स से चवन्नी निकाली और बाहर बरामदे में गई। दरवाज़े के पास पहुंची तो शाह दौला का एक चूहा खड़ा अजीब अहमक़ाना अंदाज़ में अपना सर हिला रहा था सलीमा को हंसी आगई।
दस बारह बच्चे उस के गिर्द जमा थे जो बेतहाशा हंस रहे थे। इतना शोर मचा था कि कान पड़ी आवाज़ सुनाई नहीं देती थी।
सलीमा चवन्नी हाथ में लिए आगे बढ़ी और उस ने शाह दौले के इस चूहे को देना चाही तो उस का हाथ एक दम पीछे हट गया। जैसे बिजली का करंट छू गया।
इस चूहे के दाहिने गाल पर स्याह दाग़ था। सलीमा ने ग़ौर से उस की तरफ़ देखा। उस की नाक से रेंठ बह रहा था। मुजीबा ने जो उस के पास खड़ी थी, अपनी माँ से कहा। “ये ..... ये चूहा..... अम्मी जान उस की शक्ल मुझ से क्यों मिलती है..... मैं भी क्या चूहिया हूँ।”
सलीमा ने इस शाह दौले के चूहे का हाथ पकड़ा और अंदर ले गई। दरवाज़े बंद करके उस को चूमा। उस की बलाऐं लीं। वो उस का मुजीब था। लेकिन वो ऐसी अहमक़ाना हरकतें करता था कि सलीमा के ग़म-ओ-अंदोव में डूबे हुए दिल में भी हंसी के आसार नुमूदार हो जाते।
उस ने मुजीब से कहा। “बेटे मैं तेरी माँ हूँ।”
शाह दौले का चूहा बड़े बेहंगम तौर पर हंसा। अपनी नाक की रेंठ आसतीन से पूंछ कर उस ने अपनी माँ के सामने हाथ फैलाया “एक पैसा।”
माँ ने अपना पर्स खोला। मगर उस की आँखें अपनी सारी नहरें, इस से पहले ही खोल चुकी थीं। उस ने सौ रुपय का नोट निकाला और बाहर जाकर उस आदमी को दिया..... जो उस को तमाशा बनाए हुए था। उस ने इनकार कर दिया कि इतनी कम क़ीमत पर अपनी रोज़ी के ज़रीये को नहीं बेच सकता।
सलीमा ने उसे बिलआख़िर पाँच सो रूपों पर राज़ी कर लिया। ये रक़म अदा कर के जब वो अंदर आई तो मुजीब ग़ायब था,। मुजीबा ने उस को बताया कि वो पिछवाड़े से बाहर निकल गया है।
सलीमा की कोख पुकारती रही कि मुजीब वापस आ जाओ, मगर वो ऐसा गया कि फिर न आया।