शब्द कल्पद्रुम (बांग्ला कहानी) : शिवराम चक्रवर्ती

Shabd Kalpadrum (Bangla Story) : Shibram Chakraborty

हमलोगों ने बोर्ड में यह तय किया है कि तुम ही इस काम के योग्य हो, तुम्हारी आयु कम है। साथ ही साथ सत्यनिष्ठ, परिश्रमी और चरित्रवान भी हो, हम सभी का विश्वास तुम्हीं पर है, इतने दिनों तक सेल्समेन के काम में तुमने जिस सफलता का परिचय दिया है, उसी के फल स्वरुप आज प्रमोशन कर के तुम्हें सेल्स मेनेजर बना दिया है। गुड लक टू यू यंग मैंन।‘ यह कहकर ऑफिस के बड़े साहब ने पल्लव से हाथ मिलाया।‘

सारा रास्ता पल्लव ख़ुशी से उड़ता हुआ जा रहा था। जब तक पत्नी के पास यह खबर नहीं पहुंचा पायेगा, उसे चैन कहां?

कब से उसकी तमन्ना थी - फ्रीज रेडियोग्राम, पत्नी के लिए तरह-तरह की साड़ियां और सुन्दर-सुन्दर गहने, और भी न जाने क्या-क्या खरीदेगा। ओफिस में बड़े साहब ने आज मुझे अपने कमरे में बुलाया था - सोच-सोच कर ही मन ही मन प्रसन्न हो रहा था।

घर पहुँचते ही पत्नी से कहना आरम्भ कर दिया – ‘ओफिस के बड़े साहब ने आज मुझे अपने कमरे में बुलाया था।‘ बहुत ही उत्सुकता से पल्लव ने कहना प्रारम्भ किया।

'मिस्टर चटर्जी?' - पत्नी ने पूछा।

'हाँ, उन्होंने ही मुझे बुलाया था।'

'तुम्हारे चटर्जी साहब बहुत ही भले आदमी हैं, गर्मी की छुट्टियों में उनसे बोटैनिकल गार्डन में मुलाकात हुई थी न?'

'हाँ उन्होंने क़हा है ...।'

'उन्होंने कहा था - तुम्हारी पत्नी बहुत खूबसूरत है और कहा था - ऐसी पत्नी तो भाग्य से मिलती है। कहा था न?’

‘हाँ भाई हाँ। मैं जो बात कह रहा था -- उन्होंने आज मुझे अपने ऑफिस के कमरे में बुलाया था ....।'

'उनकी ऑफिस कितनी सुंदर है, कितना अच्छा, अहा! कितना ठंडा है, कितना बड़ा और सुन्दर टेबल है उनका।'

पल्लव ने फिर कहना शुरू किया - 'मुझे मैनेजिंग बोर्ड से ...'

'और उनके कमरे की कालीन कितनी मोटी और मुलायम है। उस बार जब तुम बीमार पड़े थे, तुम्हारे सारे कागज़ाद लेकर मैं गयी थी तभी तो देखा था, उस दिन वे आये नहीं थे। छुट्टी पर गए थे, उनकी जगह .....।'

'हां, हम लोगों के छोटे बाबू, मिस्टर मित्रा.....।'

'वे भी बड़े अच्छे आदमी है। मुझे बिठाया, चाय पिलाई और लंच में रहने के लिए भी बार-बार आग्रह किया था।'

'हां, हां मुझे मालूम है, पहले भी तुमने यह सब बातें बतलायीं थी। अभी मैं जो कह रहा हूँ ....।'

'उस कालीन का दाम शायद बहुत अधिक है न? शायद हज़ार से काम नहीं होगा।'

'सो होगा, आज बड़े साहब ने कहा है कि मैं ...'

‘अहा, वैसी एक कालीन अगर हमलोगों के पास होती तो इस बैठक की रौनक ही बदल जाती। चौरंगी के एम्पोरियम के शोकेस में वैसी, ठीक वैसी ही कालीन देखी है, केवल सात सौ पचत्तर रुपये दाम है। खरीदेंगे, बतलाओ न?'

'हां, हां, खरीदूंगा, खरीदूंगा, उसीकी बात तो बतला रहा हूँ।'

'होगा, होगा सुन रही हूँ, न जाने वो दिन कब आएगा।' तुम ही बताओ, ऐसे मकान में कभी किसी को बुलाया जा सकता है?'

'सब कुछ बहुत जल्दी होगा, अभी जो कुछ कह रहा हूं वह तो सुनो।'

'कभी कोई बात तुम मुझे कहने नहीं देते, इसी तरह कालीन की बात भी ढंकना चाहते हो। क्या मैं कुछ समझती नहीं हूं? मैं सब समझती हूं।'

'तुम तो मुझे कुछ कहने ही नहीं दे रही हो।'

'कितनी बार मैं तुम्हें बतलाया, हमलोगों का घर द्वार असभ्यों की तरह है। इस बैठक को ड्राइंग रूम की तरह सजाना होगा, सोफ़ासेट, कालीन आदि से। कब से तुम्हें समझा रही हूं, पर कानो पर तुम्हारे जूं तक नहीं रेंगती। अगर हम लोगों का घर भी सजा हुआ, आधुनिक ढंग का होता तो तुम्हारे चैटर्जी और मित्रा साहब को हम चाय पर बुला सकते थे।'

घड़ी की और देख कर पल्लव ने कहा - 'अच्छा जो मैं कह रहा था वह अभी रहने दो।'

कह कर वह बाहर निकल गया। लग रहा था कि अभी हाल ही में शादी हुई है तब तो वह बोल भी नहीं सकती थी, आज इतना अधिक बोलने लग गयी? उसे आश्चर्य होता है - पहले दिन का वह शब्द अंकुरित होकर पत्र -पल्लव, और पत्र -पल्लव से शाखा, प्रशाखा और उससे प्रसारित विस्तारित होकर शब्द कल्पद्रुम हो गया है। रात को घर लौटते ही पत्नी ने फिर शुरू किया।

'तुम कैसे हो? शाम को न्यू मार्केट में चटर्जी साहब से अचानक भेंट हो गयी। उन्होंने बतलाया तभी तो मुझे पता चला। तुम ने मुझे बतलाया तक नहीं, यह सुनकर उन्हें बहुत ताज़्ज़ुब हुआ और मुझे बेहद शर्म आयी। अपने प्रमोशन की बात तुमने मुझे बतलाई नहीं, मुझे उनसे सुनना पड़ा, हाँ मुझे बतलाओगे भी क्यों? मैं हूँ ही कौन? इस घर में मेरा अस्तित्व ही क्या?

(अनुवाद : डॉ. शोभा घोष)

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