सेवासदन (उपन्यास) (भाग-2) : मुंशी प्रेमचंद
Sevasadan (Novel) (Part-2) : Munshi Premchand
12
पद्मसिंह के एक बड़े भाई मदनसिंह थे। वह घर का कामकाज देखते थे। थोड़ी-सी जमींदारी थी, कुछ लेन-देन करते थे। उनके एक ही लड़का था, जिसका नाम सदनसिंह था। स्त्री का नाम भामा था।
मां-बाप का इकलौता लड़का बड़ा भाग्यशाली होता है। उसे मीठे पदार्थ खूब खाने को मिलते हैं, किंतु कड़वी ताड़ना कभी नहीं मिलती। सदन बाल्यकाल में ढीठ, हठी और लड़ाकू था। वयस्क होने पर वह आलसी, क्रोधी और बड़ा उद्दंड हो गया। मां-बाप को यह सब मंजूर था। वह चाहे कितना ही बिगड़ जाए, पर आंख के सामने से न टले। उससे एक दिन का बिछोह भी न सह सकते थे। पद्मसिंह ने कितनी बार अनुरोध किया कि इसे मेरे साथ जाने दीजिए, मैं इसका नाम अंग्रेजी मदरसे में लिखा दूंगा, किंतु मां-बाप ने कभी स्वीकार नहीं किया। सदन ने अपने कस्बे ही के मदरसे में उर्दू और हिंदी पढ़ी थी। भामा के विचार में उसे इससे अधिक विद्या की जरूरत नहीं थी। घर में खाने को बहुत है, वन-वन पत्ती कौन तुड़वाए? बला से न पढ़ेगा, आंखों से देखते तो रहेंगे।
सदन अपने चाचा के साथ जाने के लिए बहुत उत्सुक रहता था। उनके साबुन, तौलिए, जूते, स्लीपर, घड़ी और कालर को देखकर उसका जी बहुत लहराता। घर में सब कुछ था; पर यह फैशन की सामग्रियां कहां? उसका जी चाहता, मैं भी चचा की तरह कपड़ों से सुसज्जित होकर टमटम पर हवा खाने निकलूं। वह अपने चचा का बड़ा सम्मान करता था। उनकी कोई बात न टालता। मां-बाप की बातों पर कान न धरता, प्रायः सम्मुख विवाद करता। लेकिन चचा के सामने वह शराफत का पुतला बन जाता था। उनके ठाट-बाट ने उसे वशीभूत कर लिया था। पद्मसिंह घर आते तो सदन के लिए अच्छे-अच्छे कपड़े और जूते लाते। सदन इन चीजों पर लहालोट हो जाता।
होली के दिन पद्मसिंह अवश्य घर आया करते थे। अबकी भी एक सप्ताह पहले उनका पत्र आया था कि हम आएंगे। सदन रेशमी अचकन और वारनिशदार जूते के स्वप्न देख रहा था। होली के एक दिन पहले मदनसिंह ने स्टेशन पर पालकी भेजी, प्रातःकाल भी, संध्या भी। दूसरे दिन भी दोनों जून सवारी गई, लेकिन वहां तो भोलीबाई के मुजरे की ठहर चुकी थी, घर कौन आता? यह पहली होली थी कि पद्मसिंह घर नहीं आए। भामा रोने लगी। सदन के नैराश्य की तो सीमा ही न थी, न कपड़े, न लत्ते, होली कैसे खेले! मदनसिंह भी मन मारे बैठे थे। एक उदासी-सी छाई हुई थी। गांव की रमणियां होली खेलने आईं। भामा को उदास देखकर तसल्ली देने लगीं, ‘बहन’ पराया कभी अपना नहीं होता, वहां दोनों जने शहर की बहार देखते होंगे, गांव में क्या करने आते?’ गाना-बजाना हुआ, पर भामा का मन न लगा। मदनसिंह होली के दिन खूब भांग पिया करते थे। आज भांग छुई तक नहीं। सदन सारे दिन नंगे बदन मुंह लटकाए बैठा था। संध्या को जाकर मां से बोला– मैं चचा के पास जाऊंगा।
भामा– वहां तेरा कौन बैठा हुआ है?
सदन– क्यों, चचा नहीं है?
भामा– अब वह चचा नहीं हैं, वहां कोई तुम्हारी बात भी न पूछेगा।
सदन– मैं तो जाऊंगा।
भामा– एक बार कह दिया, मुझे दिक मत करो, वहां जाने को मैं न कहूंगी।
ज्यों-ज्यों भामा मना करती थी, सदन जिद पकड़ता था। अंत में वह झुंझलाकर वहां से उठ गई। सदन भी बाहर चला आया। जिद सामने की चोट नहीं सह सकती, उस पर बगली वार करना चाहिए।
सदन ने मन में निश्चय किया कि चाचा के पास भाग चलना चाहिए। न जाऊं तो यह लोग कौन मुझे रेशमी अचकन बनवा देंगे। बहुत प्रसन्न होंगे तो एक नैनसुख का कुरता सिलवा देंगे। एक मोहनमाला बनवाई है, तो जानते होंगे, जग जीत लिया। एक जोशन बनवाया है, तो सारे गांव में दिखाते फिरते हैं। मानों अब मैं जोशन पहनकर बैठूंगा। मैं तो जाऊंगा, देखूं कौन रोकता है?
यह निश्चय करके वह अवसर ढूंढने लगा। रात को सब लोग सो गए, तो चुपके से उठकर घर से निकल खड़ा हुआ। स्टेशन वहां से तीन मील के लगभग था। चौथ का चांद डूब चुका था, अंधेरा छाया हुआ था। गांव के निकास पर बांस की एक कोठी थी। सदन वहां पहुंचा तो कुछ चूं-चूं की आवाज सुनाई दी। उसका कलेजा सन्न रह गया। लेकिन शीघ्र ही मालूम हो गया कि बांस आपस में रगड़ खा रहे हैं। जरा और आगे एक आम का पेड़ था। बहुत दिन हुए, इस पर से एक कुर्मी का लड़का गिरकर मर गया था। सदन यहां पहुंचा तो उसे शंका हुई, जैसे कोई खड़ा है। उसके रोंगटे खड़े हो गए, सिर में चक्कर-सा आने लगा। लेकिन मन को संभालकर जरा ध्यान से देखा तो कुछ न था। लपककर आगे बढ़ा। गांव से बाहर निकल गया।
गांव से दो मील पर पीपल का एक वृक्ष था। यह जनश्रुति थी कि वहां भूतों का अड्डा है। सबके-सब उसी वृक्ष पर रहते हैं। एक कमलीवाला भूत उनका सरदार है। वह मुसाफिरों के सामने काली कमली ओढ़े, खड़ाऊं पहने आता है और हाथ फैलाकर कुछ मांगता है। मुसाफिर ज्यों ही देने के लिए हाथ बढ़ाता है, वह अदृश्य हो जाता है। मालूम नहीं, इस क्रीड़ा से उसका क्या प्रयोजन था; रात को कोई मनुष्य उस रास्ते से अकेले न आता, और जो कोई साहस करके चला जाता, वह कोई-न-कोई अलौकिक बात अवश्य देखता। कोई कहता, गाना हो रहा था। कोई कहता, पंचायत बैठी हुई थी। सदन को अब यही एक शंका और थी। उसका हियाब बर्फ के समान पिघलता जाता था, जब एक फर्लांग शेष रह गया, तो उसके पग न उठे। जमीन पर बैठ गया सोचने लगा कि क्या करूं। चारों ओर देखा, कहीं कोई मनुष्य न दिखाई दिया। यदि कोई पशु ही नजर आता, तो उसे धैर्य हो जाता।
आध घंटे तक वह किसी आने-जाने वाले की राह देखता रहा, पर देहात का रास्ता रात को नहीं चलता। उसने सोचा, कब तक बैठा रहूंगा? एक बजे रेल आती है, देर हो जाएगी, तो सारा खेल बिगड़ जाएगा। अतएव वह हृदय में बल का संचार करके उठा और रामायण की चौपाइयां उच्च स्वर में गाता हुआ चला। भूत-प्रेत के विचार को किसी बहाने से दूर रखना चाहता था। किंतु ऐसे अवसरों पर गर्मी की मक्खियों की भांति विचार टालने से नहीं टालता। हटा दो, फिर आ पहुंचे। निदान वह सघन वृक्ष सामने दिखाई देने लगा। सदन ने उसकी ओर ध्यान से देखा। रात अधिक जा चुकी थी, तारों का प्रकाश भूमि पर पड़ रहा था। सदन को वहां कोई वस्तु न दिखाई दी, उसने और भी ऊंचे स्वर में गाना शुरू किया। इस समय एक-एक रोम सजग हो रहा था। कभी इधर ताकता, कभी उधर। नाना प्रकार के जीव दिखाई देते, किंतु ध्यान से देखते ही लुप्त हो जाते। अकस्मात् उसे मालूम हुआ कि दाहिनी ओर कोई बंदर बैठा हुआ है। कलेजा सन्न हो गया। किंतु क्षण-मात्र में बंदर मिट्टी का ढेर बन गया।
जिस समय सदन वृक्ष के नीचे पहुंचा, उसका गला थरथराने लगा, मुंह से आवाज न निकली। अब विचार को बहलाने की आवश्यकता भी न थी, मन और बुद्धि की सभी शक्तियों का संचय परमावश्यक था। अकस्मात् उसे कोई वस्तु दौड़ती नजर आई। यह उछल पड़ा, ध्यान से देखा तो कुत्ता था। किंतु वह सुन चुका था कि भूत कभी-कभी कुत्तों के रूप में भी आ जाया करते हैं। शंका और भी प्रचंड हुई, सावधान होकर खड़ा हो गया, जैसे कोई वीर पुरुष शत्रु के वार की प्रतीक्षा करता है। कुत्ता सिर झुकाए चुपचाप कतराकर निकल गया। सदन ने जोर से डांटा, धत्। कुत्ता दुम दबाकर भागा। सदन कई पग उसके पीछे दौड़े। भय की चरम सीमा ही साहस है। सदन को विश्वास हो गया, कुत्ता ही था; भूत होता तो अवश्य कोई-न-कोई लीला करता। भय कम हुआ, किंतु यह वहां से भागा नहीं। वह अपने भीरु हृदय को लज्जित करने के लिए कई मिनट तक पीपल के नीचे खड़ा रहा। इतना ही नहीं, उसने पीपल की परिक्रमा की और उसे दोनों हाथों से बलपूर्वक हिलाने की चेष्टा की। यह विचित्र साहस था। ऊपर, पत्थर, नीचे पानी। एक जरा-सी आवाज, एक जरा-सी पत्ती की खड़कन उसके जीवन का निपटारा कर सकती थी। इस परीक्षा से निकलकर सदन अभिमान से सिर उठाए आगे बढ़ा।
13
सुमन के चले जाने के बाद पद्मसिंह के हृदय में एक आत्मग्लानि उत्पन्न हुई– मैंने अच्छा नहीं किया। न मालूम वह कहां गई। अपने घर चली गई तो पूछना ही क्या, किन्तु वहां वह कदापि न गई होगी। मरता क्या न करता, कहीं कुली डिपो वालों के जाल में फंस गई, तो फिर छूटना मुश्किल है। यह दुष्ट ऐसे ही अवसर पर अपना बाण चलाते हैं। कौन जाने कहीं उनसे भी घोरतर दुष्टाचारियों के हाथ में न पड़ जाए। साहसी पुरुष को कोई सहारा नहीं होता तो वह चोरी करता है, कायर पुरुष को कोई सहारा नहीं होता तो वह भीख मांगता है, लेकिन स्त्री को कोई सहारा नहीं होता तो वह लज्जाहीन हो जाती है। युवती का घर से निकलना मुंह से बात का निकलना है। मुझसे बड़ी भूल हुई। अब इस मर्यादा-पालन से काम न चलेगा। वह डूब रही होगी। उसे बचाना चाहिए।
वह गजाधर के घर जाने के लिए कपड़े पहनने लगे। तैयार होकर घर से निकले। किंतु यह संशय लगा हुआ था कि कोई मुझे उसके दरवाजे पर देख न ले। मालूम नहीं, गजाधर अपने मन में क्या समझे। कहीं उलझ पड़ा तो मुश्किल होगी। घर से बाहर निकल चुके थे, लौट पड़े और कपड़े उतार दिए।
जब वह दस बजे भोजन करने गए, तो सुभद्रा ने तेवरियां बदलकर कहा– यह आज सवेरे सुमन के पीछे क्यों पड़ गए? निकालना ही था तो एक ढंग से निकालते। उस बुड्ढे जीतन को भेज दिया, उसने उल्टी-सीधी जो कुछ मुंह में आई, कही। बेचारी ने जीभ तक नहीं हिलाई, चुपचाप चली गई। मारे लाज के मैंने सिर नहीं उठाया। मुझसे आकर कहते, मैं समझा देती। कोई गंवारिन तो थी नहीं, अपना सुभीता करके चली जाती। यह सब तो कुछ न हुआ, बस नादिरशाही हुक्म दे दिया। बदनामी का इतना डर; वह अगर लौटकर घर न गई! तो क्या कुछ कम बदनामी होगी? कौन जाने कहां जाएगी, इसका दोष किस पर होगा?
सुभद्रा भरी बैठी थी, उबल पड़ी। पद्मसिंह अपना अपराध स्वीकार करने वाले अपराधी की भाँति सिर झुकाए सुनते रहे। जो विचार उनके मन में थे, वे सुभद्रा की जीभ पर थे। चुपचाप भोजन किया, और कचहरी चले गए। आज उस जलसे के बाद तीसरा दिन था। पहले शर्माजी को कचहरी के लोग एक चरित्रवान मनुष्य समझते थे और उनका आदर करते थे। किंतु इधर तीन-चार दिनों से जब अन्य वकीलों को अवकाश मिलता, तो वह शर्माजी के पास बैठ जाते और उनसे राग-रंग की चर्चा करने लगते– शर्माजी, सुना है, आज लखनऊ से कोई बाईजी आईं हैं, उनके गाने की बड़ी प्रशंसा है, उनका मुजरा न कराइएगा? अजी शर्माजी, कुछ सुना है आपने? आपकी भोलीबाई पर सेठ चिम्मनलाल बेहतर रीझे हुए हैं। कोई कहता, भाई साहब, कल गंगास्नान है, घाट पर बड़ी बहार रहेगी, क्यों न एक पार्टी कर दीजिए? सरस्वती को बुला लीजिएगा, गाना तो बहुत अच्छा नहीं, मगर यौवन में अद्वितीय है। शर्माजी को इन चर्चाओं से घृणा होती। वह सोचते, क्या मैं वेश्याओं का दलाल हूं, कि लोग मुझसे इस प्रकार की बातें करते हैं?
कचहरी के कर्मचारियों के व्यवहार में भी शर्माजी को एक विशेष अंतर दिखाई देता था। उन्हें जब छुट्टी मिलती, सिगरेट पीते हुए शर्माजी के पास बैठ जाते और इसी प्रकार चर्चा करने लगते। यहां तक कि शर्माजी किसी बहाने से उठ जाते और उनसे पीछा छुड़ाने के लिए घंटों किसी वृक्ष के नीचे छिपकर बैठे रहते। वह उस अशुभ मूहूर्त्त को कोसते, जब उन्होंने जलसा किया था।
आज भी वह कचहरी में ज्यादा न ठहर सके। इन्हीं घृणित चर्चाओं से उकता कर दो बजे लौट आये। ज्योंही द्वार पर पहुंचे, सदन ने आकर उनके चरण-स्पर्श किए।
शर्माजी आश्चर्य से बोले– अरे सदन, तुम कब आए?
सदन– इसी गाड़ी से आया हूं।
पद्मसिंह– घर पर तो सब कुशल हैं?
सदन– जी हाँ, सब अच्छी तरह हैं?
पद्मसिंह– कब चले थे? इसी एक बजे वाली गाड़ी से?
सदन– जी नहीं, चला तो था नौ बजे रात को, किंतु गाड़ी में सो गया और मुगलसराय पहुंच गया। उधर से बारह बजे वाली डाक से आया हूं।
पद्मसिंह– वाह अच्छे रहे! कुछ भोजन किया?
सदन– जी हाँ, कर चुका।
पद्मसिंह– मैं तो अबकी होली में न जा सका। भाभी कुछ कहती थी?
सदन– आपकी राह लोग दो दिन तक देखते रहे। दादा दो दिन पालकी लेकर गए। अम्मा रोतीं थीं, मेरा जी न लगता था, रात को उठकर चला आया।
शर्माजी– तो घर पर पूछा नहीं?
सदन– पूछा क्यों नहीं, लोकिन आप तो उन लोगों को जानते हैं, अम्मा राजी न हुईं।
शर्माजी– तब तो वह लोग घबराते होंगे, ऐसा ही था, तो किसी को साथ ले लेते। खैर अच्छा हुआ, मेरा भी जी तुम्हें देखने को लगा था। अब आ गए तो किसी मदरसे में नाम लिखाओ।
सदन– जी हां, यही तो मेरा भी विचार है।
शर्माजी ने मदनसिंह के नाम पर तार दिया, ‘‘घबराइए मत। सदन यहीं आ गया है। उसका नाम किसी स्कूल में लिखा दिया जाएगा।
तार देकर फिर सदन से गाँव-घर की बातें करने लगे, कोई कुर्मी, कहार, लोहार, चमार ऐसा न बचा, जिसके संबंध में शर्माजी ने कुछ न कुछ पूछा न हो। ग्रामीण जीवन में एक प्रकार की ममता होती है, जो नागरिक जीवन में नहीं पाई जाती। एक प्रकार का स्नेह-बंधन होता है।, जो सब प्राणियों को, चाहे छोटे हों या बड़े, बांधे रहता है।
संध्या हो गई। शर्माजी सदन के साथ सैर को निकले। किंतु बेनीबाग या क्वींस पार्क की ओर न जाकर वह दुर्गाकुंड और कान्हजी की धर्मशाला की ओर गए। उनका चित्त चिंताग्रस्त हो रहा था, आंखें इधर-उधर सुमन को खोजती-फिरती थीं। मन में निश्चय कर लिया था। कि अबकी वह मिल जाए, तो कदापि न जाने दूं, चाहे कितनी ही बदनामी हो। यही न होगा कि उसका पति मुझ पर दावा करेगा। सुमन की इच्छा होगी, चली जाएगी। चलूं गजाधर के पास, संभव है, वह घर आ गई हो। यह विचार आते ही वह घर लौटे। कई मुवक्किल उनकी बाट जोह रहे थे। उनके कागज-पत्र देखे, किंतु मन दूसरी ओर था। ज्यों ही इनसे छुट्टी हुई, वह गजाधर के घर चले, किंतु इधर-उधर ताकते जाते थे कि कहीं कोई देख न रहा हो, कोई साथ न आता हो। इस ढंग से जाते हैं मानो कोई प्रयोजन नहीं है। गजाधर के द्वार पर पहुंचे। वह अभी दुकान से लौटा था। आज उसे दोपहर ही को खबर मिली थी कि शर्माजी ने सुमन को घर से निकाल दिया। तिस पर भी उसको यह संदेह हो रहा था कि कहीं इस बहाने उसे छिपा न दिया हो। लेकिन इस समय शर्माजी को अपने द्वार पर देखकर वह उनका सत्कार करने के लिए विवश हो गया। खाट पर से उठकर उन्हें नमस्ते किया। शर्माजी रुक गए और निश्चेष्ट भाव से बोले– क्यों पंडितजी, महाराजिन घर आ गईं न?
गजाधर का संदेह कुछ हटा, बोला– जी नहीं, जब से आपके घर से गईं, तब से उसका कुछ पता नहीं।
शर्माजी– आपने कुछ इधर-उधर पूछताछ नहीं की? आखिर यह बात क्या हुई। जो आप उनसे इतने नाराज हो गए?
गजाधर– महाशय, मेरे निकालने का तो एक बहाना था, असल में वह निकलना चाहती ही थी। पास-पड़ोस की दुष्टाओं ने उसे बिगाड़ दिया था। इधर महीनों से वह अनमनी-सी रहती थी। होली के दिन एक बजे रात को घर आई, संदेह हुआ। मैंने डांट-डपट की। घर से निकल खड़ी हुई।
शर्माजी– लेकिन आप उसे घर लाना चाहते, तो मेरे यहां से ला सकते थे। इसके बदले आपने मुझको बदनाम करना शुरू किया। तो भाई, अपनी इज्जत तो सभी को प्यारी होती है। इस मुआमले में मेरा इतना ही अपराध है कि वह होली वाले जलसे में मेरे यहां रही। यदि मुझे मालूम होता कि जलसे का यह परिणाम होगा, तो या तो जलसा ही न करता या उसे अपने घर आने न देता। इतने ही अपराध के लिए आपने सारे शहर में मेरा नाम बेच डाला।
गजाधर रोने लगा। उसके मन का भ्रम दूर हो गया। रोते हुए बोला– महाशय, इस अपराध के लिए मुझे जो चाहें, सजा दें। मैं गंवार-मूर्ख ठहरा, जिसने जो बात सुझा दी, मान गया। वह जो बैंकघर के बाबू हैं, भला-सा नाम है– विट्ठलदास, मैं उन्हीं के चकमे में आ गया। होली के एक दिन पहले वह हमारी दुकान पर आए थे, कुछ कपड़ा लिया, और मुझे अलग से जाकर आपके बारे में...अब क्या कहूं। उनकी बातें सुनकर मुझे भ्रम हो गया। मैं उन्हें भला आदमी समझता था। सारे शहर में दूसरों के साथ भलाई करने के लिए उपदेश करते फिरते है। ऐसा धर्मात्मा आदमी कोई बात कहता है, तो उस पर विश्वास आ ही जाता है। मालूम नहीं, उन्हें आपसे क्या बैर था, और मेरा तो उन्होंने घर ही बिगाड़ दिया।
यह कहकर गजाधर फिर रोने लगा। उसके मन का भ्रम दूर हो गया। रोते हुए बोला– सरकार, इस अपराध के लिए मुझे जो सजा चाहे दें।
शर्माजी को ऐसा जान पड़ा, मानों किसी ने लोहे की छड़ लाल करके उनके हृदय में चुभो दी। माथे पर पसीना आ गया। वह सामने से तलवार का वार रोक सकते थे, किंतु पीछे से सुई की नोंक भी उनकी सहन-शक्ति से बाहर थी। विट्ठलदास उनके परम मित्र थे। शर्माजी उनकी इज्जत करते थे। आपस में बहुधा मतभेद होने पर भी वह उनके पवित्र उद्देश्यों का आदर करते थे। ऐसा व्यक्ति जान-बूझकर कर जब किसी पर कीचड़ फेंके, तो इसके सिवा और क्या कहा जा सकता है कि शुद्ध विचार रखते हुए भी वह क्रूर हैं। शर्माजी समझ गए कि होली के जलसे के प्रस्ताव से नाराज होकर विट्ठलदास ने यह आग लगाई। केवल मेरा अपमान करने के लिए, जनता की दृष्टि से गिराने के लिए मुझ पर यह दोषारोपण किया है। क्रोध से कांपते हुए बोले– तुम उनके मुंह पर कहोगे?
गजाधर– हां, सांच को क्या आंच? चलिए, अभी मैं उनके सामने कह दूं। मजाल है कि वह इनकार कर जाएं।
क्रोध के आवेग में शर्माजी चलने को प्रस्तुत हो गए। किंतु इतनी देर में आंधी का वेग कुछ कम हो चला था। संभल गए। इस समय वहां जाने से बात बढ़ जाएगी, यह सोचकर गजाधर से बोले– अच्छी बात है। जब बुलाऊं तो चले आना। मगर निश्चिंत मत बैठो। महाराजिन की खोज में रहो, समय बुरा है। जो खर्च की ज़रूरत हो, वह मुझसे लो।
यह कहकर शर्माजी घर चले गए। विट्ठलदास की गुप्त छुरी के आघात ने उन्हें निस्तेज बना दिया था। वह यही समझते थे कि विट्ठलदास ने केवल द्वेष के कारण यह षड्यंत्र रचा है। यह विचार शर्माजी के ध्यान में भी आया कि संभव है, उन्होंने जो कुछ कहा हो, वह शुभचिंताओं से प्रेरित होकर कहा हो और उस पर विश्वास करते हों ।
14
दूसरे दिन पद्मसिंह सदन को साथ किसी लेकर स्कूल में दाखिल कराने चले। किंतु जहां गए, साफ जवाब मिला ‘स्थान नहीं है।’ शहर में बारह पाठशालाएं थीं। लेकिन सदन के लिए कहीं स्थान न था।
शर्माजी ने विवश होकर निश्चय किया कि मैं स्वयं पढ़ाऊंगा। प्रातःकाल तो मुवक्किलों के मारे अवकाश नहीं मिलता। कचहरी से आकर पढ़ाते, किंतु एक ही सप्ताह में हिम्मत हार बैठे। कहां कचहरी से आकर पत्र पढ़ते थे, कभी हारमोनियम बजाते, कहां अब एक बूढ़े तोते को रटाना पड़ता था। वह बारंबार झुंझलाते, उन्हें मालूम होता कि सदन मंद-बुद्धि है। यदि वह कोई पढ़ा हुआ शब्द पूछ बैठता, तो शर्माजी झल्ला पड़ते। वह स्थान उलट-पुलटकर दिखाते, जहां वह शब्द प्रथम आया था। फिर प्रश्न करते और सदन ही से उस शब्द का अर्थ निकलवाते। इस उद्योग में काम कम होता था, किंतु उलझन बहुत थी। सदन भी उनके सामने पुस्तक खोलते हुए डरता। वह पछताता कि कहां-से-कहां यहां आया, इससे तो गांव ही अच्छा था। चार पंक्तियां पढ़ाएंगे, लेकिन घंटों बिगड़ेंगे। पढ़ा चुकने के बाद शर्माजी कुछ थक-से जाते। सैर करने को जी नहीं चाहता। उन्हें विश्वास हो गया कि इस काम की क्षमता मुझमें नहीं है।
मुहल्ले में एक मास्टर साहब रहते थे। उन्होंने बीस रुपए मासिक पर सदन को पढ़ाना स्वीकार किया। अब चिंता हुई कि रुपए आएं कहां से? शर्माजी फैशनेबुल मनुष्य थे, खर्च का पल्ला सदा दबा ही रहता था। फैशन का बोझ अखरता तो अवश्य था, किंतु उसके सामने कंधा न डालते थे। बहुत देर तक एकांत में बैठे सोचते रहे, किंतु बुद्धि ने कुछ काम न किया, तब सुभद्रा के पास जाकर बोले– मास्टर बीस रुपए पर राजी है।
सुभद्रा– तो क्या मास्टर ही न मिलते थे। मास्टर तो एक नहीं सौ है, रुपए कहां हैं?
शर्माजी– रुपए भी ईश्वर कहीं से देंगे ही।
सुभद्रा– मैं तो कई साल से देख रही हूं, ईश्वर ने कभी विशेष कृपा नहीं की। बस, इतना दे देते हैं कि पेट की रोटियां चल जाएं, वही तो ईश्वर हैं!
पद्मसिंह– तो तुम्हीं कोई उपाय निकालो।
सुभद्रा– मुझे जो कुछ देते हो, मत देना बस!
पद्मसिंह– तुम तो जरा-सी बात में चिढ़ जाती हो।
सुभद्रा– चिढ़ने की बात ही करते हो, आय-व्यय तुमसे छिपा नहीं है, मैं और कौन-सी बचत निकाल दूंगी? दूध-घी की तुम्हारे यहां नदी नहीं बहती, मिठाई-मुरब्बे में कभी फफूंदी नहीं लगी, कहारिन के बिना काम चलने ही का नहीं, महाराजिन का होना जरूरी है। और किस खर्चे में कमी करने को कहते हो?
पद्मसिंह– दूध ही बंद कर दो।
सुभद्रा– हां, बंद कर दो। मगर तुम न पीओगे, सदन के लिए तो लेना ही होगा।
शर्माजी फिर सोचने लगे। पान-तंबाकू का खर्च दस रुपए मासिक से कम न था, और भी कई छोटी-छोटी मदों में कुछ-न-कुछ बचत हो सकती थी। किंतु उनकी चर्चा करने से सुभद्रा की अप्रसन्नता का भय था। सुभद्रा की बातों से उन्हें स्पष्ट विदित हो गया था कि इस विषय में उसे मेरे साथ सहानुभूति नहीं है। मन में बाहर के खर्च का लेखा जोड़ने लगे। अंत में बोले– क्यों, रोशनी और पंखे के खर्च में कुछ किफायत हो सकती है?
सुभद्रा– हां, हो सकती है, रोशनी की क्या आवश्यकता है, सांझ ही से बिछावन पर पड़े रहें। यदि कोई मिलने-मिलाने आएगा, तो आप ही चिल्लाकर चला जाएगा, या घूमने निकल गए, नौ बजे लौटकर आए, और पंखा तो हाथ से भी झला जा सकता है। क्या जब बिजली नहीं थी, तो लोग गर्मी के मारे बावले हो जाते थे?
पद्मसिंह– घोड़े के रातिब में कमी कर दूं?
सुभद्रा– हां, यह दूर की सूझी। घोड़े को रातिब दिया ही क्यों जाए, घास काफी है। यही न होगा कि कूल्हे पर हड्डियां निकल आएंगी। किसी तरह मर-जीकर कचहरी तक ले ही जाएगा, यह तो कोई नहीं कहेगा कि वकील साहब के पास सवारी नहीं है।
पद्मसिंह– लड़कियों की पाठशाला को दो रुपए मासिक चंदा देता हूं, नौ रुपए क्लब का चंदा है, तीन रुपए मासिक अनाथालय को देता हूं। यह सब चंदे बंद कर दूं तो कैसा हो।
सुभद्रा– बहुत अच्छा होगा। संसार की रीति है कि पहले अपने घर में दीया जलाकर मस्जिद में जलाते हैं।
शर्माजी सुभद्रा की व्यंग्यपूर्ण बातों को सुन-सुनकर मन में झुंझला रहे थे, पर धीरज के साथ बोले– इस तरह कोई पंद्रह रुपए मासिक तो मैं दूंगा, शेष पांच रुपए का बोझ तुम्हारे ऊपर है। मैं हिसाब-किताब नहीं पूछता, किसी तरह संख्या पूरी करो।
सुभद्रा– हां, हो जाएगा, कुछ कठिन नहीं है। भोजन एक ही समय बने, दोनों समय बनने की क्या जरूरत है? संसार में करोड़ों मनुष्य एक ही समय खाते हैं, किंतु बीमार या दुबले नहीं होते।
शर्माजी अधीर हो गए। घर की लड़ाई से उनका हृदय कांपता था, पर यह चोट न सही गई। बोले– तुम क्या चाहती हो कि सदन के लिए मास्टर न रखा जाए और वह यों ही अपना जीवन नष्ट करे? चाहिए तो यह था कि तुम मेरी सहायता करती, उल्टे और जी जला रही हो। सदन मेरे उसी भाई का लड़का है, जो अपने सिर पर आटे-दाल की गठरी लादकर मुझे स्कूल में दाखिल कराने आए थे। मुझे वह दिन भूले नहीं हैं। उनके उस प्रेम का स्मरण करता हूं, तो जी चाहता है कि उनके चरणों में गिरकर घंटो रोऊं। तुम्हें अब अपने रोशनी और पंखे के खर्च में, पान-तंबाकू के खर्च में, घोड़े-साईस के खर्च में किफायत करना भारी मालूम होता है, किंतु भैया मुझे वार्निश वाले जूते पहनाकर आप नंगे पांव रहते थे। मैं रेशमी कपड़े पहनता था, वे फटे कुर्ते पर ही काटते थे। उनके उपकारों और भलाइयों का इतना भारी बोझ मेरी गर्दन पर है कि मैं इस जीवन में उससे मुक्त नहीं हो सकता। सदन के लिए मैं प्रत्येक कष्ट सहने को तैयार हूं। उसके लिए यदि मुझे पैदल कचहरी जाना पड़े, उपवास करने पड़े, अपने हाथों से उसके जूते साफ करने पड़ें, तब भी मुझे इनकार न होगा; नहीं तो मुझ जैसा कृतघ्न संसार में न होगा।
ग्लानि से सुभद्रा का मुखकमल कुम्हला गया। यद्यपि शर्माजी ने वे बातें सच्चे दिल से कहीं थीं, पर उसने यह समझा कि यह मुझे लज्जित करने के निमित्त कही गई हैं। सिर नीचा करके बोली– तो मैंने यह कब कहा कि सदन के लिए मास्टर न रखा जाए? जो काम करना ही है, उसे कर डालिए। जो कुछ होगा, देखा जाएगा। जब दादाजी ने आपके लिए इतने कष्ट उठाए है तो यही उचित है कि आप भी सदन के लिए कोई बात उठा न रखें। मुझसे जो कुछ करने को कहिए, वह करूं। आपने अब तक कभी इस विषय पर जोर नहीं दिया था, इसलिए मुझे यह भ्रम हुआ कि यह कोई आवश्यक खर्च नहीं है। आपको पहले ही दिन से मास्टर का प्रबंध करना चाहिए था। इतने आगे-पीछे का क्या काम था? अब तक तो यह थोड़ा-बहुत पढ़ भी चुका होता। इतनी उम्र गंवाने के बाद जब पढ़ने का विचार किया है, तो उसका एक दिन भी व्यर्थ न जाना चाहिए।
सुभद्रा ने तत्क्षण अपनी लज्जा का बदला ले लिया। पंडितजी को अपनी भूल स्वीकार करनी पड़ी। यदि अपना पुत्र होता, तो उन्होंने कदापि इतना सोच-विचार न किया होता।
सुभद्रा को अपने प्रतिवाद पर खेद हुआ। उसने पान बनाकर शर्माजी को दिया। यह मानो संधिपत्र था। शर्माजी ने पान ले लिया, संधि स्वीकृत हो गई।
जब वह चलने लगे तो सभद्रा ने पूछा– कुछ सुमन का पता चला?
शर्माजी– कुछ भी नहीं। न जाने कहां गायब हो गई, गजाधर भी नहीं दिखाई दिया। सुनता हूं, घर-बार छोड़कर किसी तरफ निकल गया है।
दूसरे दिन से मास्टर साहब सदन को पढ़ाने लगे। नौ बजे वह पढ़ाकर चले जाते, तब सदन स्नान-भोजन करके सोता। अकेले उसका जी घबराता, कोई संगी न साथी, न कोई हंसी न दिल्लगी, कैसे जी लगे। हां, प्रातःकाल थोड़ी-सी कसरत कर लिया करता था। इसका उसे व्यसन था। अपने गांव में उसने एक छोटा-सा अखाड़ा बनवा रखा था। यहां अखाड़ा तो न था, कमरे में ही डंड कर लेता। शाम को शर्माजी उसके लिए फिटन तैयार करा देते। तब सदन अपना सूट पहनकर गर्व के साथ फिटन पर सैर करने निकलता। शर्माजी पैदल घूमा करते थे। वह पार्क या छावनी की ओर जाते, किंतु सदन उस तरफ न जाता। वायु-सेवन में जो एक प्रकार का दार्शनिक आनंद होता है, उसका उसे क्या ज्ञान। शुद्ध वायु की सुखद शीतलता, हरे-भरे मैदानों की विचारोंत्पादक निर्जनता और सुरम्य दृश्यों की आनंदमयी निस्तब्धता– उसमें इनके रसास्वादन की योग्यता न थी। उसका यौवनकाल था, जब बनाव-श्रृंगार का भूत सिर पर सवार रहता है। वह अत्यंत रूपवान, सुगठित, बलिष्ठ युवक था। देहात में रहा, न पढ़ना न लिखना, न मास्टर का भय, न परीक्षा की चिंता, सेरों दूध पीता था। घर की भैंसें थीं, घी के लोंदे-के-लोंदे उठाकर खा जाता। उस पर कसरत का शौक। शरीर बहुत सुडौल निकल आया था। छाती चौड़ी, गर्दन तनी हुई, ऐसा जान पड़ता था, मानो देह में ईंगुर भरा हुआ है।
उसके चेहरे पर वह गंभीरता और कोमलता न थी, जो शिक्षा और ज्ञान से उत्पन्न होती है। उसके मुख से वीरता और उद्दंडता झलकती थी। आंखें मतवाली, सतेज और चंचल थीं। वह बाग का कलमी पौधा नहीं, वन का सुदृढ़ वृक्ष था। निर्जन पार्क या मैदान में उस पर किसकी निगाह पड़तीं? कौन उसके रूप और यौवन को देखता। इसलिए वह कभी दालमंडी की तरफ जाता, कभी चौक की तरफ। उसके रंग-रूप, ठाट-बाट पर बूढ़े-जवान सबकी आँखें उठ जातीं। युवक उसे ईर्ष्या से देखते, बूढ़े स्नेह से। लोग राह चलते-चलते उसे एक आंखे देखने के लिए ठिठक जाते। दुकानदार समझते कि यह किसी रईस का लड़का है।
इन दुकानों के ऊपर सौंदर्य का बाजार था। सदन को देखते ही उस बाजार में एक हलचल मच जाती। वेश्याएं छज्जों पर आकर खड़ी हो जातीं और प्रेम कटाक्ष के बाण उस पर चलातीं। देखें, यह बहका हुआ कबूतर किस छतरी पर उतरता है? यह सोने की चिड़िया किस जाल में फंसती है?
सदन में वह विवेक तो था नहीं, जो सदाचरण की रक्षा करता है। उसमें वह आत्मसम्मान भी नहीं था, जो आंखों को ऊपर नहीं उठने देता। उसकी फिटन बाजार में बहुत धीरे-धीरे चलती। सदन की आंखें उन्हीं रमणियों की ओर लगी रहतीं। यौवन के पूर्वकाल में हम अपनी कुवासनाओं के प्रदर्शन पर गर्व करते हैं, उत्तरकाल में अपने सद्गुणों के प्रदर्शन पर। सदन अपने को रसिया दिखाना चाहता था, प्रेम से अधिक बदनामी का आकांक्षी था। इस समय यदि उसका कोई अभिन्न मित्र होता, तो सदन उससे अपने कल्पित दुष्प्रेम की विस्तृत कथाएं वर्णन करता।
धीरे-धीरे सदन के चित्त की चंचलता यहां तक बढ़ी कि पढ़ना-लिखना सब छूट गया। मास्टर आते और पढ़ाकर चले जाते। लेकिन सदन को उनका आना बहुत बुरा मालूम होता। उसका मन हर घड़ी बाजार की ओर लगा रहता। वही दृश्य आंखों में फिरा करते। रमणियों के हाव-भाव और मृदु मुस्कान के स्मरण में मग्न रहता। इस भांति दिन काटने के बाद ज्यों ही शाम होती, यह बन-ठनकर दालमंडी की ओर निकल जाता। अंत में इस कुप्रवृत्ति का वही फल हुआ, जो सदैव हुआ करता है।
तीन ही चार मास में उसका संकोच उड़ गया। फिटन पर दो आदमी दूतों की तरह उसके सिर पर सवार रहते। इसलिए वह इस बाग में फूलों में हाथ लगाने का साहस न कर सकता था। वह सोचने लगा कि किसी भांति इन दूतों से गला छुड़ाऊं। सोचते-सोचते उसे एक उपाय सूझ गया। एक दिन उसने शर्माजी से कहा– चाचा, मुझे एक अच्छा-सा घोड़ा ले दीजिए। फिटन पर अपाहिजों की तरह बैठे रहना कुछ अच्छा नहीं मालूम होता। घोड़े पर सवार होने से कसरत भी हो जाएगी और मुझे सवारी का भी अभ्यास हो जाएगा।
जिस दिन से सुमन गई थी, शर्माजी को कुछ चिंतातुर रहा करते थे। मुवक्किल लोग कहते कि आजकल इन्हें न जाने क्या हो गया है। बात-बात पर झुंझला जाते हैं। हमारी बात ही न सुनेंगे तो बहस क्या करेंगे। जब हमको मेहनताना देना है, तो क्या यही एक वकील हैं? गली-गली तो मारे फिरते हैं। इससे शर्माजी की आमदनी दिन-प्रतिदिन कम होती जाती थी। यह प्रस्ताव सुनकर चिंतित स्वर में बोले– अगर इसी घोड़े पर जीन खिंचा लो तो कैसा हो? दो-चार दिन में निकल जाएगा।
सदन– जी नहीं; बहुत दुर्बल है, सवारी में न ठहरेगा। कोई चाल भी तो नहीं; न कदम, न सरपट। कचहरी से थका-मांदा आएगा तो क्या चलेगा।
शर्माजी– अच्छा, तलाश करूंगा, कोई जानवर मिला तो ले लूंगा।
शर्माजी ने चाहा कि इस तरह बात टाल दूं। मामूली घोड़ा भी ढाई-तीन सौ से कम में न मिलेगा, उस पर कम-से-कम पच्चीस रुपए मासिक का खर्च अलग। इस समय वह इतना खर्च उठाने में समर्थ न थे, किंतु सदन कब माननेवाला था? नित्यप्रति उनसे तकाजा करता, यहां तक कि दिन में कई बार टोकने की नौबत आ पहुंची। शर्माजी उसकी सूरत देखते ही सूख जाते। यदि उससे अपनी आर्थिक दशा साफ-साफ कह देते, तो सदन चुप हो जाता, लेकिन अपनी चिंताओं की रामकहानी सुनाकर वह उसे कष्ट में नहीं डालना चाहते थे।
सदन ने अपने दोनों साइसों से कह रखा था कि कहीं घोड़ा बिकाऊ हो तो हमें कहना। साइसों ने दलाली के लोभ से दत्तचित्त होकर तलाश की। घोड़ा मिल गया। डिगवी नाम के एक साहब विलायत जा रहे थे। उनका घोड़ा बिकनेवाला था। सदन खुद गया, घोड़े को देखा, उस पर सवार हुआ, चाल देखी। मोहित हो गया। शर्माजी से आकर कहा– चलिए, घोड़ा देख लीजिए, मुझे बहुत पसंद है।
शर्माजी को अब भागने का कोई रास्ता न रहा, जाकर घोड़े को देखा, डिगवी साहब से मिले, दाम पूछे। उन्होंने चार सौ रुपये मांगे, इससे कौड़ी कम नहीं।
अब इतने रुपए कहां से आएं? घर में अगर दौ-सौ रुपए थे तो वह सुभद्रा के पास थे, और सुभद्रा से इस विषय में शर्माजी को सहानुभूति की लेशमात्र भी आशा न थी। उपकारी बैंक के मैनेजर बाबू चारुचन्द्र से उनकी मित्रता थी। उनसे उधार लेने का विचार किया, लेकिन आज तक शर्माजी को ऋण मांगने का अवसर नहीं पड़ा था। बार-बार इरादा करते और फिर हिम्मत हार जाते। कहीं वह इनकार कर गए तब? इस इनकार का भीषण भय उन्हें सता रहा था। वह यह बिल्कुल न जानते थे कि लोग कैसे महाजन पर अपना विश्वास जमा लेते हैं। कई बार कलम-दवात लेकर रुक्का लिखने बैठे, किंतु लिखें क्या, यह न सूझा।
इसी बीच सदन डिगवी साहब के यहां से घोड़ा ले आया। जीन-साज का मूल्य ५० रुपए और हो गया। दूसरे दिन रुपए चुका देने का वादा हुआ। केवल रात-भर की मोहलत थी, प्रातःकाल रुपए देना परमावश्यक था। शर्माजी की हैसियत के आदमी के लिए इतने रुपए का प्रबन्ध करना कोई मुश्किल न था। किंतु उन्हें चारों ओर अंधकार दिखाई देता था। उन्हें आज अपनी क्षुद्रता का ज्ञान हुआ। जो मनुष्य कभी पहाड़ पर नहीं चढ़ा है, उसका सिर एक छोटे से टीले पर भी चक्कर खाने लगता है। इस दुरावस्था में सुभद्रा के सिवा उन्हें कोई अवलंब न सूझा। उसने उनकी रोनी सूरत देखी तो पूछा–
आज इतने उदास क्यों हो? जी तो अच्छा है।
शर्माजी ने सिर झुकाकर उत्तर दिया– हां, जी तो अच्छा है।
सुभद्रा– तो चेहरा क्यों उतरा है?
शर्माजी– क्या बताऊं, कुछ कहा नहीं जाता, सदन के मारे हैरान हूं। कई दिन से घोड़े की रट लगाए हुए था। आज डिगवी साहब के यहां से घोड़ा ले आया, साढ़े चार सौ रुपए के मत्थे डाल दिया।
सुभद्रा ने विस्मित होकर कहा– अच्छा, यह सब हो गया और मुझे खबर ही नहीं।
शर्माजी– तुमसे कहते हुए डर मालूम होता था।
सुभद्रा– डर की कौन बात थी? क्या मैं सदन की दुश्मन थी, जो जल-भुन जाती? उसके खेलने-खाने के क्या और दिन आएंगे? कौन बड़ा खर्च है, तुम्हें ईश्वर कुशल से रखें, ऐसे चार-पांच सौ रुपए कहां आएंगे और कहां जाएंगे। लड़के का मन तो रह जाएगा। उसी भाई का तो बेटा है, जिसने आपको पाल-पोसकर आज इस योग्य बनाया।
शर्माजी इस व्यंग्य के लिए तैयार थे। इसीलिए उन्होंने सदन की शिकायत करके यह बात छेड़ी थी। किंतु वास्तव में उन्हें सदन का यह व्यसन दुःखजनक नहीं मालूम होता था, जितनी अपनी दारुण धनहीनता। सुभद्रा की सहानुभूति प्राप्त करने के लिए उसके हृदय में पैठना जरूरी था। बोले– चाहे जो कुछ हो, मुझे तो तुमसे कहते हुए डर लगता है, मन की बात कहता हूं। लड़कों का खाना-खेलना सबको अच्छा लगता है, पर घर में पूंजी हो तब। दिन-भर से इसी फिक्र में पड़ा हुआ हूं। कुछ बुद्धि काम नहीं करती। सबेरे डिगवी साहब का आदमी आएगा, उसे क्या उत्तर दूंगा? बीमार भी पड़ जाता, तो एक बहाना मिल जाता।
सुभद्रा– तो यह कौन मुश्किल बात है, सबेरे चादर ओढ़कर लेट रहिएगा, मैं कह दूंगी आज तबीयत अच्छी नहीं है।
शर्माजी हंसी रोक न सके। इस व्यंग्य में कितनी निर्दयता, कितनी विरक्ति थी। बोले– अच्छा, मान लिया कि आदमी कल लौट गया, परसों तो डिगवी साहब जानेवाले ही हैं। कल कोई-न-कोई फिक्र करनी ही पड़ेगी।
सुभद्रा– तो वही फिक्र आज ही क्यों नही कर डालते?
शर्माजी– भाई चिढ़ाओ मत। अगर मेरी बुद्धि काम करती तो तुम्हारी शरण क्यों आता? चुपचाप काम न कर डालता? जब कुछ नहीं बन पड़ा है, तब तुम्हारे पास आया हूं। बताओं, क्या करूं?
सुभद्रा– मैं क्या बताऊं? आपने तो वकालत पढ़ी है, मैं तो मिडिल तक भी नहीं पढ़ी, मेरी बुद्धि यहां क्या काम देगी? इतना जानती हूं कि घोड़े को द्वार पर हिनहिनाते सुनकर बैरियों की छाती धड़क जाएगी। जिस वक्त आप सदन को उस पर बैठे देखेंगे, तो आंखें तृप्त हो जाएंगी।
शर्माजी– वही तो पूछता हूं कि यह अभिलाषाएं कैसे पूरी हों?
सुभद्रा– ईश्वर पर भरोसा रखिए, वह कोई-न-कोई जुगत निकालेगा ही।
शर्माजी– तुम तो ताने देने लगीं।
सुभद्रा– इसके सिवा मेरे पास और है ही क्या? अगर आप समझते हों कि मेरे पास रुपए होंगे, तो यह आपकी भूल है। मुझे हेर-फेर करना नहीं आता, संदूक की चाबी लीजिए, सौ-सवा सौ रुपए पड़े हुए हैं, निकाल ले जाइए। बाकी के लिए और कोई फिक्र कीजिए। आपके कितने ही मित्र हैं, क्या दो-चार सौ रुपए का प्रबन्ध नहीं कर देंगे।
यद्यपि पद्यसिंह यही उत्तर पाने की आशा रखते थे, पर इसे कानों से सुनकर वह अधीर हो गए। गांठ जरा भी हल्की न पड़ी। चुपचाप आकाश की ओर ताकने लगे, जैसे कोई अथाह जल में बहा जाता हो।
सुभद्रा संदूक की चाबी देने को तैयार तो थी, लेकिन संदूक में सौ रुपए की जगह पूरे पाँच सौ रुपए बटुए में रखे हुए थे। यह सुभद्रा की दो साल की कमाई थी। इन रुपयों को देख-देख सुभद्रा फूली न समाती थी। कभी सोचती, अबकी घर चलूंगी, तो भाभी के लिए अच्छा-सा कंगन लेती चलूंगी और गांव की सब कन्याओं के लिए एक-एक साड़ी। कभी सोचती, यहीं कोई काम पड़ जाए और शर्माजी रुपये के लिए परेशान हों, तो मैं चट निकालकर दे दूंगी। वह कैसे प्रसन्न होंगे। चकित हो जाएंगे। साधारणतः युवतियों के हृदय में ऐसे उदार भाव नहीं उठा करते। वह रुपए जमा करती हैं, अपने गहनों के लिए, सुभद्रा बड़ी धनी घर की बेटी थी, गहनों से मन भरा हुआ था।
उसे रुपयों का जरा भी लोभ न था। हां, एक ऐसे अनावश्यक कार्य के लिए उन्हें निकालने में कष्ट होता था, पर पंडितजी की रोनी सूरत देखकर उसे दया आ गई, बोली– आपने बैठे-बिठाए यह चिंता अपने सिर ली। सीधी-सी तो बात थी। कह देते, भाई रुपए नहीं हैं, तब तक किसी तरह काम चलाओ। इस तरह मन बढ़ाना कौन-सी अच्छी बात है? आज घोड़े की जिद है, कल मोटरकार की धुन होगी, तब क्या कीजिएगा? माना कि दादाजी ने आपके साथ बड़े अच्छे सलूक किए हैं, लेकिन सब काम अपनी हैसियत देखकर ही किए जाते हैं। दादाजी यह सुनकर आपसे खुश न होंगे।
यह कहकर वह झमककर उठी और संदूक में से रुपयों की पांच पोटलियां निकाल लाई, उन्हें पति के सामने पटक दिया और कहा– यह लीजिए पांच सौ रुपए हैं, जो चाहे कीजिए। रखे रहते तो आप ही के काम आते, पर ले जाइए, किसी भांति आपकी चिंता तो मिटे। अब संदूक में फूटी कौड़ी भी नहीं है।
पंडितजी ने हकबकाकर रुपयों की ओर कातर नेत्रों से देखा, पर उन पर टूटे नहीं। मन का बोझ हल्का अवश्य हुआ, चेहरे से चित्त की शांति झलकने लगी। किंतु वह उल्लास, वह विह्वलता, जिसकी सुभद्रा को आशा थी, दिखाई न दी। एक ही क्षण में वह शांति की झलक भी मिट गई। खेद और लज्जा का रंग प्रकट हुआ। इन रुपयों में हाथ लगाना उन्हें अतीव अनुचित प्रतीत हुआ। सोचने लगे, मालूम नहीं सुभद्रा ने किस नीयत से यह रुपये बचाए थे, मालूम नहीं, इनके लिए कौन-कौन से कष्ट सहे थे।
सुभद्रा ने पूछा– सेंत का धन पाकर भी प्रसन्न नहीं हुए?
शर्माजी ने अनुग्रहपूर्ण दृष्टि से देखकर कहा– क्या प्रसन्न होऊं? तुमने नाहक यह रुपए निकाले। मंि जाता हूं, घोड़े को लौटा देता हूं। कह दूंगा, ‘सितारा-पेशानी’ है या और कोई दोष लगा दूंगा। सदन को बुरा लगेगा, इसके लिए क्या करूं।
यदि रुपए देने के पहले सुभद्रा ने यह प्रस्ताव किया होता, तो शर्माजी बिगड़ जाते। इसे सज्जनता के विरुद्ध समझते और सुभद्रा को आड़े हाथों लेते, पर इस समय सुभद्रा के आत्मोत्सर्ग ने उन्हें वशीभूत कर लिया था। समस्या यह थी कि घर में सज्जनता दिखाएं या बाहर? उन्होंने निश्चय किया कि घर में इसकी आवश्यकता है, किंतु हम बाहरवालों की दृष्टि में मान-मर्यादा बनाए रखने के लिए घरवालों की कब परवाह करते हैं?
सुभद्रा विस्मित होकर बोली– यह क्या? इतनी जल्दी कायापलट हो गई। जानवर लेकर उसे लौटा दोगे, तो क्या बात रह जाएगी? यदि डिगवी साहब फेर भी लें, तो यह उनके साथ कितना अन्याय है? वह बेचारे विलायत जाने के लिए तैयार बैठे हैं। उन्हें यह बात कितनी अखरेगी? नहीं, यह छोटी-सी बात है, रुपए ले जाइए, दे दीजिए। रुपया इन्हीं दिनों के लिए जमा किया जाता है। मुझे इनकी कोई जरूरत नहीं है, मैं सहर्ष दे रही हूं। यदि ऐसा ही है, तो मेरे रुपए फेर दीजिएगा, ऋण समझकर लीजिए।
बात वही थी, पर जरा बदले हुए रूप में शर्माजी ने प्रसन्न होकर कहा– हां, इस शर्त पर ले सकता हूं। मासिक किस्त बांधकर अदा करूंगा।
15
प्राचीन ऋषियों ने इंद्रियों को दमन करने के दो साधन बताए हैं– एक राग, दूसरा वैराग्य। पहला साधन अत्यंत कठिन और दुस्साध्य है। लेकिन हमारे नागरिक समाज ने अपने मुख्य स्थानों पर मीनाबाजार सजाकर इसी कठिन मार्ग को ग्रहण किया है। उसने गृहस्थी को कीचड़ का कमल बनाना चाहा है।
जीवन की भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में भिन्न-भिन्न वासनाओं का प्राबल्य रहता है। बचपन मिठाइयों का समय है, बुढा़पा लोभ का, यौवन प्रेम और लालसाओं का समय है। इस अवस्था में मीनाबाजार की सैर मन में विप्लव मचा देती है। जो सुदृढ़ हैं, लज्जाशील व भावशून्य है, वह संभल जाते हैं। शेष फिसलते और गिर पड़ते हैं।
शराब की दुकानों को हम बस्ती से दूर रखने का यत्न करते हैं, जुएखाने से भी हम घृणा करते हैं, लेकिन वेश्याओं की दुकानों को हम सुसज्जित कोठों पर, चौक बाजारों से ठाट से सजाते हैं। यह पापोत्तेजना नहीं तो और क्या है?
बाजार की साधारण वस्तुओं में कितना आकर्षण है। हम उन पर लट्टू हो जाते हैं और कोई आवश्यकता न होने पर भी उन्हें ले लेते हैं। तब वह कौन-सा हृदय है, जो रूप-राशि जैसे अमूल्य रत्न पर मर न मिटेगा? क्या हम इतना भी नहीं जानते?
विपक्षी कहता है, यह व्यर्थ की शंका है। सहस्रों युवक नित्य शहरों में घूमते रहते हैं, किन्तु उनमें से विरला ही कोई बिगड़ता है। वह मानव-पतन का प्रत्यक्ष प्रमाण चाहता है। किंतु उसे मालूम नहीं कि वायु की भांति दुर्बलता भी एक अदृश्य वस्तु है, जिसका ज्ञान उसके कर्म से ही हो सकता है। हम इतने निर्लज्ज, इतने साहस-रहित क्यों हैं। हममें आत्मगौरव का इतना अभाव क्यों है? हमारी निर्जीवता का क्या कारण है? वह मानसिक दुर्बलता के लक्षण हैं।
इसलिए आवश्यक है कि इन विष-भरी नागिनों को आबादी से दूर किसी पृथक् स्थान में रखा जाए। तब उन निद्यं स्थानों की ओर सैर करने को जाते हुए हमें संकोच होगा। यदि वह आबादी से दूर हों और वहां घूमने के लिए किसी बहाने की गुंजाइश न हो, तो ऐसे बहुत कम बेहया आदमी होंगे, जो इस मीनाबाजार में कदम रखने का साहस कर सकें।
कई महीने बीत गए। वर्षाकाल आ पहुंचा। मेलों-ठेलों की धूम मच गई। सदन बांकी सज-धज बनाए मनचले घोड़े पर चारों ओर घूमा करता। उसके हृदय में प्रेम-लालसा की एक आग-सी जलती रहती थी। अब वह इतना निःशंक हो गया था कि दालमंडी में घोड़े से उतरकर तंबोलियों की दुकानों पर पान खाने बैठ जाता। वह समझते, यह कोई बिगड़ा हुआ रईसजादा है। उससे रूप-हाट की नई-नई घटनाओं का वर्णन करते। गाने में कौन-सी अच्छी है और सुंदरता में अद्वितीय है, इसकी चर्चा छिड़ जाती। इस बाजार में नित्य वह चर्चा रहती। सदन इन बातों को चाव से सुनता। अब तक वह कुछ रसज्ञ हो गया था। पहले जो गजलें निरर्थक मालूम होती थीं, उन्हें सुनकर अब उसके हृदय का एक-एक तार सितार की भांति गूंजने लगता था। संगीत के मधुर स्वर उसे उन्मत्त कर देते, बड़ी कठिनता से वह अपने को कोठों पर चढ़ने से रोक पाता।
पद्मसिंह सदन को फैशनेबुल तो बनाना चाहते थे, लेकिन उसका बांकपन उनकी आंखों में खटकता था। वह नित्य वायुसेवन करने जाते, पर सदन उन्हें पार्क या मैदान में कभी न मिलता। वह सोचते कि यह रोज कहां घूमने जाता है। कहीं उसे दालमंडी की हवा तो नहीं लगी?
उन्होंने दो-तीन बार सदन को दालमंडी में खड़े देखा। उन्हें देखते ही सदन चट एक दुकान पर बैठ जाता और कुछ-न-कुछ खरीदने लगता। शर्माजी उसे देखते और सिर नीचा किए हुए निकल जाते। बहुत चाहते कि सदन को इधर आने से रोकें, किंतु लज्जावश कुछ न कह सकते।
एक दिन शर्माजी सैर करने जा रहे थे कि रास्ते में दो सज्जनों से भेंट हो गई। यह दोनों म्युनिसिपैलिटी के मेंबर थे। एक का नाम था अबुलवफा, दूसरे का नाम अब्दुल्लतीफ। ये दोनों फिटन पर सैर करने जा रहे थे। शर्माजी को देखते ही रुक गए।
अबुलवफा बोले– आइए जनाब! आप ही का जिक्र हो रहा था। आइए, कुछ दूर साथ ही चलिए।
शर्माजी ने उत्तर दिया– मैं इस समय घूमा करता हूं, क्षमा कीजिए।
अबुलवफा– अजी, आपसे एक खास बात कहनी है। हम तो आपके दौलतखाने पर हाजिर होने वाले थे।
इस आग्रह से विवश होकर शर्माजी फिटन पर बैठे।
अबुलवफा– वह खबर सुनाएं कि रूह फड़क उठे।
शर्माजी– फरमाइए तो।
अबुलवफा– आपकी महाराजिन सुमन ‘बाई’ हो गई।
अब्दुल्लतीफ– वल्लाह, हम आपके नजर इंतखाव के कायल हैं। अभी तीन-चार दिनों से ही उसने दालमंडी में बैठना शुरू किया है, लेकिन इतने में ही उसने सबका रंग मात कर दिया है। उसके सामने अब किसी का रंग ही नहीं जमता। उसके बालखाने के सामने रंगीन मिजाजों का अंबोह जमा रहता है। मुखड़ा गुलाब है और जिस्म तपाया हुआ कुंदन। जनाब, मैं आपसे अजरूये ईमान कहता हूं कि ऐसी दिलफरेबी सूरत मैंने न देखी थी।
अबुलवफा– भाई, उसे देखकर भी कोई पाकबाजी का दावा करे, तो उसका मुरीद हो जाऊं। ऐसे लाले बेबहा को गूदड़ से निकालना आप ही जैसे हुस्नशिनास का काम है।
अब्दुललतीफ– बला की जहीन मालूम होती है। अभी आपके यहां से निकले हुए उसे पांच-छह महीने से ज्यादा नहीं हुए होंगे, लेकिन कल उनका गाना सुना तो दंग रह गए। इस शहर में उसका सानी नहीं। किसी के गले में वह लोच और नजाकत नहीं है।
अबुलवफा– अजी, जहां जाता हूं, उसी की चर्चा सुनता हूं। लोगों पर जादू-सा हो गया है। सुनता हूं, सेठ बलभद्रदासजी की आमदरफ्त शुरू हो गई। चलिए, आज आप भी पुरानी मुलाकात ताजा कर आइए। आपकी तुफैल में हम भी फैज पा जाएंगे।
अब्दुललतीफ– हम आपको खींच ले चलेंगे, इस वक्त आपको हमारी खातिर करनी होगी।
शर्माजी इस समाचार को सुनकर खेद, लज्जा और ग्लानि के बोझ से इतने दब गए कि सिर भी न उठा सके। जिस बात का उन्हें भय था, वह अंत में पूरी होकर ही रही। उनका जी चाहता था कि कहीं एकांत में बैठकर इस दुर्घटना की आलोचना करें और निश्चय करें कि इसका कितना भार उनके सिर पर है। इस दुराग्रह पर कुछ खिन्न होकर बोले– मुझे क्षमा कीजिए, मैं न चल सकूंगा।
अबुलवफा– क्यों?
शर्माजी– इसलिए कि एक भले घर की स्त्री को इस दशा में देखना मैं सहन नहीं कर सकता। आप लोग मन में चाहे जो समझें, किंतु उसका मुझसे केवल इतना ही संबंध है कि मेरी स्त्री के पास आती-जाती थी।
अब्दुलललीफ– जनाब, यह पारसाई की बातें किसी वक्त के लिए उठा रखिए। हमने इसी कूची में उम्र काट दी है, और इस रूमुज को खूब समझते हैं। चलिए, आपकी सिफारिश से हमारा भला हो जाएगा।
शर्माजी से अब सब्र न हो सका। अधीर होकर बोले– मैं कह चुका कि मैं वहां न जाऊंगा। मुझे उतर जाने दीजिए।
अबुलवफा– और हम कह चुके कि जरूर ले चलेंगे। आपको हमारी खातिर से इतनी तकलीफ करनी पड़ेगी।
अब्दुललतीफ ने घोड़े को एक चाबुक लगाया। वह हवा हो गया। शर्माजी ने क्रोध से कहा– आप मेरा अपमान करना चाहते हैं?
अबुलवफा– जनाब, आखिर वजह भी तो कुछ होनी चाहिए। जरा देर में पहुंच जाते हैं। यह लीजिए, सड़क घूम गई है।
शर्माजी समझ गए कि यह लोग इस समय मेरी आरजू-मिन्नत पर ध्यान न देंगे। सुमन के पास जाने के बदले वह कुएं में गिरना अच्छा समझते थे। अतएव उन्होंने अपने कर्त्तव्य का निश्चय कर लिया। वह उठे और वेग से चलती हुई गाड़ी पर से कूद पड़े। यद्यपि उन्होंने अपने को बहुत संभाला, पर रुक न सके। पैर लड़खड़ा गए और वह उल्टे हुए पचास कदम तक चले गए। कई बार गिरते-गिरते बचे, पर अंत में ठोकर खाकर गिर ही पड़े। हाथ की कुहनियों में कड़ी चोट लगी, हांफते-हांफते बेदम हो गए। शरीर पसीने में डूब गया, सिर चक्कर खाने लगा और आंखें तिलमिला गईं। जमीन पर बैठ गए। अब्दुललतीफ ने घोड़ा रोक दिया, दौड़े हुए दोनों आदमी उनके पास आए और रुमाल निकालकर झलने लगे।
कोई पंद्रह मिनट में शर्माजी सचेत हुए। दोनों महाशय पछताने लगे, बहुत लज्जित हुए और शर्माजी से क्षमा मांगने लगे। बहुत आग्रह किया कि गाड़ी पर बिठाकर आपको घर पहुंचा दें। किंतु शर्माजी राजी न हुए। उन्हें वहीं छोड़कर वह खड़े हो गए और लंगड़ाते हुए घर की तरफ चले। लेकिन अब सावधान होने पर उन्हें विस्मय होता था कि मैं फिटन से कूद क्यों पड़ा? यदि मैं एक बार झिड़ककर कह देता कि गाड़ी रोको, तो किसकी मजाल थी कि न रोकता और अगर वह इतने पर भी न मानते, तो मैं उनके हाथ से रास छीन सकता था। पर खैर, जो हुआ, वह हुआ। कहीं वह दोनों मुझे बातों में बहलाकर सुमन के दरवाजे पर जा पहुंचते, तो मुश्किल होती। सुमन से मेरी आंखें कैसे मिलतीं? कदाचित् मैं गाड़ी से उतरते ही भागता, पागलों की भाँति बाजार में दौड़ता। गऊ का वध होते तो चाहे देख सकूं, पर सुमन को इस दशा में नहीं देख सकता। बड़े-से-बड़ा भय सदैव कल्पित हुआ करता है।
इस समय उनके मन में यह प्रश्न उठ रहा था कि इस दुर्घटना का उत्तरदायी कौन है? उनकी विवेचना-शक्ति पिछली बातों की आलोचना कर रही थी। यदि मैंने उसे घर से निकाल न दिया होता, तो इस भांति उसका पतन न होता। मेरे यहां से निकलकर उसे और कोई ठिकाना न रहा और क्रोध और कुछ नैराश्य की अवस्था में यह भीषण अभिनय करने पर बाध्य हुई। इसका सारा अपराध मेरे सिर है।
लेकिन गजाधर सुमन से इतना क्यों बिगड़ा? यह कोई पर्दानशीन स्त्री न थी, मेले-ठेले में आती-जाती थी, केवल एक दिन जरा देर हो जाने से गजाधर उसे कठोर दंड कभी न देता। वह उसे डांटता, संभव है, दो-चार धौल भी लगाता, सुमन रोने लगती, गजाधर का क्रोध ठंडा हो जाता, वह सुमन को मना लेता, बस झगड़ा तय हो जाता। पर ऐसा नहीं हुआ, केवल इसीलिए कि विट्ठलदास ने पहले से ही आग लगा दी थी। निस्संदेह सारा अपराध उन्हीं का है। मैंने भी सुमन को घर से निकाला तो उन्हीं के कारण। उन्होंने सारे शहर में बदनाम करके मुझे निर्दयी बनने पर विवश किया। इस भांति विट्ठलदास पर दोषारोपण करके शर्माजी को बहुत धैर्य हुआ। इस धारणा ने पश्चात्ताप की आग ठंडी की, जो महीनों से उनके हृदय में दहक रही थी। उन्हें विट्ठलदास को अपमानित करने का मौका मिला। घर पहुँचते ही विट्ठलदास को पत्र लिखने बैठ गए। कपड़े उतारने की भी सुधि न रही–
प्रिय महाशय, नमस्ते!
आपको यह जानकर असीम आनंद होगा कि सुमन अब दालमंडी में एक कोठे पर विराजमान है। आपको स्मरण होगा कि होली के दिन वह अपने पति के भय से मेरे घर चली आई थी और मैंने सरल रीति से उसे उतने दिनों तक आश्रय देना उचित समझा, जब तक उसके पति का क्रोध न शान्त हो जाए। पर इसी बीच में मेरे कई मित्रों ने, जो मेरे स्वभाव से सर्वथा अपरिचित नहीं थे, मेरी उपेक्षा तथा निंदा करनी आरंभ की। यहां तक कि मैं उस अभागिन अबला को अपने घर से निकालने पर विवश हुआ और अंत में वह उसी पापकुंड में गिरी, जिसका मुझे भय था। अब आपको भली-भांति ज्ञात हो जाएगा कि इस दुर्घटना का उत्तरदायी कौन है, और मेरा उसे आश्रय देना उचित था या अनुचित।
भवदीय–
पद्मसिंह
बाबू विट्ठलदास शहर की सभी सार्वजनिक संस्थाओं के प्राण थे। उनकी सहायता के बिना कोई कार्य सिद्ध न होता था। पुरुषार्थ का पुतला इस भारी बोझ को प्रसन्नचित्त से उठाता, दब जाता था, किंतु हिम्मत न हारता था। भोजन करने का अवकाश न मिलता, घर पर बैठना नसीब न होता, स्त्री उनके स्नेहरहित व्यवहार की शिकायत किया करती। विट्ठलदास जाति-सेवा की धुन में अपने सुख और स्वार्थ को भूल गए थे। कहीं अनाथालय के लिए चंदा जमा करते फिरते हैं, कहीं दीन विद्यार्थियों की छात्रवृत्ति का प्रबंध करने में दत्तचित्त हैं। जब जाति पर कोई संकट आ पड़ता, तो उनका देशप्रेम उमड़ पड़ता था। अकाल के समय सिर पर आटे का गट्ठर लादे गांव-गांव घूमते थे। हैजे और प्लेग के दिनों में उनका आत्मसमर्पण और विलक्षण त्याग देखकर आश्चर्य होता था। अभी पिछले दिनों जब गंगा में बाढ़ आ गई थी, तो महीनों घर की सूरत नहीं देखी, अपनी सारी संपत्ति देश पर अर्पण कर चुके थे, पर इसका तनिक भी अभिमान न था। उन्होंने उच्च शिक्षा नहीं पाई थी वाक्-शक्ति भी साधारण थी। उनके विचारों में बहुधा प्रौढ़ता और दूरदर्शिता का अभाव होता था। वह विशेष नीतिकुशल, चतुर या बुद्धिमान् न थे। पर उनमें देशानुराग का एक ऐसा गुण था, जो उन्हें सारे नगर में सर्वसम्मान्य बनाए था।
उन्होंने शर्माजी का पत्र पढ़ा, तो एक थप्पड़-सा मुंह पर लगा। उस पत्र में कितना व्यंग्य था, इसकी ओर उन्होंने कुछ ध्यान नहीं दिया। अपने एक परम मित्र को भ्रम में पड़कर कितना बदनाम किया, इसका भी उन्हें दुःख नहीं हुआ। वह बीती हुई बातों पर पछताना नहीं जानते थे। इस समय क्या करना चाहिए, इसका निश्चय करना आवश्यक था और उन्होंने तुरंत यह निश्चय कर लिया। वह दुविधा में पड़ने वाले मनुष्य न थे। कपड़े पहने और दालमंडी जा पहुंचे। सुमनबाई के मकान का पता लगाया, बेधड़क ऊपर गए और जाकर द्वार खटखटाया। हिरिया ने, जो सुमन की नायिका थी, द्वार खोल दिया।
नौ बजे गए थे। सुमन का मुजरा अभी समाप्त हुआ था। वह सोने जा रही थी। विट्ठलदास को देखकर चौंक पड़ी। उन्हें उसने कई बार शर्माजी के मकान पर देखा था। झिझककर खड़ी हो गई, सिर झुकाकर बोली– महाशय, आप इधर कैसे भूल पड़े?
विट्ठलदास सावधानी से कालीन पर बैठकर बोले– भूल तो नहीं पड़ा, जान-बूझकर आया हूं, पर जिस बात का किसी तरह विश्वास न आता था, वही देख रहा हूं। आज जब पद्मसिंह का पत्र मिला, तो मैंने समझा कि किसी ने उन्हें धोखा दिया है, पर अब अपनी आंखों को कैसे धोखा दूं? जब हमारी पूज्य ब्राह्मण महिलाएं ऐसे कलंकित मार्ग पर चलने लगीं, तो हमारे अधःपतन का अब पारावार नहीं है। सुमन, तुमने हिंदू जाति का सिर नीचा कर दिया।
सुमन ने गंभीर भाव से उत्तर दिया– आप ऐसा समझते होंगे, और तो कोई ऐसा नहीं समझता। अभी कई सज्जन यहां से मुजरा सुनकर गए हैं, सभी हिंदू थे, लेकिन किसी का सिर नीचा नहीं मालूम होता था। वह मेरे यहां आने से बहुत प्रसन्न थे। फिर इस मंडी में मैं ही एक ब्राह्मणी नहीं हूं, दो-चार का नाम तो मैं अभी ले सकती हूं, जो बहुत ऊंचे कुल की हैं, पर जब बिरादरी में अपना निबाह किसी तरह न देखा, तो विवश होकर यहां चली आईं। जब हिंदू जाति को खुद ही लाज नहीं है, तो फिर हम जैसी अबलाएं उसकी रक्षा कहां तक कर सकती हैं?
विट्ठलदास– सुमन, तुम सच कहती हो, बेशक हिंदू जाति अधोगति को पहुंच गई, और अब तक वह कभी की नष्ट हो गई होती, पर हिंदू स्त्रियों ही ने अभी तक उसकी मर्यादा की रक्षा की है। उन्हीं के सत्य और सुकीर्ति ने उसे बचाया है। केवल हिंदुओं की लाज रखने के लिए लाखों स्त्रियां आग में भस्म हो गई हैं। यही वह विलक्षण भूमि है, जहां स्त्रियां नाना प्रकार के कष्ट भोग कर, अपमान और निरादर सहकर पुरुषों की अमानुषीय क्रूरताओं को चित्त में न लाकर हिंदू जाति का मुख उज्जवल करती थीं। यह साधारण स्त्रियों का गुण था और ब्राह्मणियों का तो पूछना ही क्या? पर शोक है कि वही देवियां अब इस भांति मर्यादा का त्याग करने लगीं सुमन, मैं स्वीकार करता हूं कि तुमको घर पर बहुत कष्ट था। माना कि तुम्हारा पति दरिद्र था, क्रोधी था, चरित्रहीन था, माना कि उसने तुम्हें अपने घर से निकाल दिया था, लेकिन ब्राह्मणी अपनी जाति और कुल के नाम पर यह सब दुःख झेलती हैं। आपत्तियों का झेलना और दुरवस्था में स्थिर रहना, यही सच्ची ब्राह्मणियों का धर्म है, पर तुमने वह किया, जो नीच जाति की कुलटाएं किया करती हैं, पति से रूठकर मैके भागती हैं, और मैके में निबाह न हुआ, तो चकले की राह लेती हैं, सोचो तो कितने खेद की बात है कि जिस अवस्था में तुम्हारी लाखों बहनें हंसी-खुशी जीवन व्यतीत कर रही हैं, वही अवस्था तुम्हें इतनी असह्य हुई कि तुमने लोक-लाज, कुल-मर्यादा को लात मारकर कुपथ ग्रहण किया। क्या तुमने ऐसी स्त्रियां नहीं देखीं, जो तुमसे कहीं दीन-हीन, दरिद्र-दुःखी हैं? पर ऐसे कुविचार उनके पास नहीं फटकने पाते, नहीं तो आज यह स्वर्गभूमि नर्क के समान हो जाती। सुमन, तुम्हारे इस कर्म ने ब्राह्मण जाति का ही नहीं, समस्त हिंदू जाति का मस्तक नीचा कर दिया।
सुमन की आंखें सजल थीं। लज्जा से सिर न उठा सकी। विट्ठलदास फिर बोले– इसमें संदेह नहीं कि यहां तुम्हें भोग-विलास की सामग्रियां खूब मिलती हैं, तुम एक ऊंचे, सुसज्जित भवन में निवास करती हो, नर्म कालीनों पर बैठती हो, फूलों की सेज पर सोती हो, भांति-भांति के पदार्थ खाती हो! लेकिन सोचो तो तुमने यह सामग्रियां किन दामों मोल ली हैं? अपनी मान-मर्यादा बेचकर। तुम्हारा कितना आदर था, लोग तुम्हारी पदरज माथे पर चढाते थे, लेकिन आज तुम्हें देखना भी पाप समझा जाता है...
सुमन ने बात काटकर कहा– महाशय, यह आप क्या कहते हैं? मेरा तो यह अनुभव है कि जितना आदर मेरा अब हो रहा है, उसका शतांश भी तब नहीं होता था। एक बार मैं सेठ चिम्मनलाल के ठाकुरद्वारे में झूला देखने गई थी, सारी रात बाहर खड़ी भींगती रही, किसी ने भीतर न जाने दिया, लेकिन कल उसी ठाकुरद्वारे में मेरा गाना हुआ, तो ऐसा जान पड़ता था, मानो मेरे चरणों से वह मंदिर पवित्र हो गया।
विट्ठलदास-लेकिन तुमने यह सोचा है कि वह किस आचरण के लोग हैं?
सुमन– उनके आचरण चाहे जैसे हों, लेकिन वह काशी के हिंदू समाज के नेता अवश्य हैं। फिर उन्हीं पर क्या निर्भर है? मैं प्रातःकाल से संध्या तक हजारों मनुष्यों को इसी रास्ते आते-जाते देखती हूं। पढ़े-अपढ़, मूर्ख-विद्वान्, धनी-गरीब सभी नजर आते हैं, परन्तु सबको अपनी तरफ खुली या छिपी दृष्टि से ताकते हुए पाती हूं। उनमें कोई ऐसा नहीं मालूम होता, जो मेरी कृपादृष्टि पर हर्ष से मतवाला न हो जाए। इसे आप क्या कहते हैं? संभव है, शहर में दो-चार मनुष्य ऐसे हों, जो मेरा तिरस्कार करते हों। उनमें से एक आप हैं, उन्हीं में आपके मित्र पद्मसिंह हैं, किंतु जब संसार मेरा आदर करता है, तो इने-गिने मनुष्यों के तिरस्कार की मुझे क्या परवाह है? पद्मसिंह को भी जो चिढ़ है, वह मुझसे है, मेरी बिरादरी से नहीं। मैंने इन्हीं आंखों से उन्हें होली के दिन भोली से हंसते देखा था।
विट्ठलदास को कोई उत्तर न सूझता था। बुरे फंसे थे। सुमन ने फिर कहा– आप सोचते होंगे कि भोग-विलास की लालसा से कुमार्ग पर आई हूं, पर वास्तव में ऐसा नहीं है। मैं ऐसी अंधी नहीं कि भले-बुरे की पहचान न कर सकूं। मैं जानती हूं कि मैंने अत्यंत निकृष्ट कार्य किया है। लेकिन मैं विवश थी, इसके सिवा मेरे लिए और कोई रास्ता नहीं था। आप अगर सुन सकें तो मैं अपनी रामकहानी सुनाऊं। इतना तो आप जानते ही हैं कि संसार में सबकी प्रकृति एक-सी नहीं होती। कोई अपना अपमान सह सकता है, कोई नहीं सह सकता। मैं एक ऊंचे कुल की लड़की हूं। पिता की नादानी से मेरा विवाह एक दरिद्र मूर्ख मनुष्य से हुआ, लेकिन दरिद्र होने पर भी मुझसे अपना अपमान नहीं सहा जाता था। जिनका निरादर होना चाहिए, उनका आदर होते देखकर मेरे हृदय में कुवासनाएं उठने लगती थीं। मगर मैं इस आग में मन-ही-मन जलती थी। कभी अपने भावों को किसी से प्रकट नहीं किया। संभव था कि कालांतर में यह अग्नि आप-ही-आप शांत हो जाती, पर पद्मसिंह के जलसे ने इस अग्नि को भड़का दिया। इसके बाद मेरी जो दुर्गति हुई, वह आप जानते ही हैं। पद्मसिंह के घर से निकलकर मैं भोलीबाई की शरण में गई। मगर उस दशा में भी मैं इस कुमार्ग से भागती रही। मैंने चाहा कि कपड़े सीकर अपना निर्वाह करूं, पर दुष्टों ने मुझे ऐसा तंग किया कि अंत में मुझे कुएं में कूंदना पड़ा। यद्यपि काजल की कोठरी में आकर पवित्र रहना अत्यन्त कठिन है, पर मैंने यह प्रतिज्ञा कर ली है कि अपने सत्य की रक्षा करूंगी। गाऊंगी, नाचूंगी, पर अपने को भ्रष्ट न होने दूंगी।
विट्ठलदास– तुम्हारा यहां बैठना ही तुम्हें भ्रष्ट करने के लिए काफी है।
सुमन– तो फिर मैं और क्या कर सकती हूं, आप ही बताइए? मेरे लिए सुख से जीवन बिताने का और कौन-सा उपाय है?
विट्ठलदास– अगर तुम्हें यह आशा है कि यहां सुख से जीवन कटेगा, तो तुम्हारी बड़ी भूल है। यदि अभी नहीं तो थोड़े दिनों में तुम्हें अवश्य मालूम हो जाएगा कि यहां सुख नहीं है। सुख संतोष से प्राप्त होता है, विलास से सुख कभी नहीं मिल सकता।
सुमन– सुख न सही, यहां पर मेरा आदर तो है, मैं किसी की गुलाम तो नहीं हूं।
विट्ठलदास– यह भी तुम्हारी भूल है। तुम यहां चाहे और किसी की गुलाम न हो, पर अपनी इंद्रियों की गुलाम तो हो? इंद्रियों की गुलामी उस पराधीनता से कहीं दुःखदायिनी होती है। यहां तुम्हें न सुख मिलेगा, न आदर। हां, कुछ दिनों भोग-विलास कर लोगी, पर अंत में इससे भी हाथ धोना पड़ेगा। सोचो तो, थोड़े दिनों तक इंद्रियों को सुख देने के लिए तुम अपनी आत्मा और समाज पर कितना बड़ा अन्याय कर रही हो?
सुमन ने आज तक किसी से ऐसी बातें नहीं सुनी थीं। वह इंद्रियों के सुख को, अपने आदर को जीवन का मुख्य उद्देश्य समझती थी। उसे आज मालूम हुआ कि सुख, संतोष से प्राप्त होता है और आदर सेवा से।
उसने कहा– मैं सुख और आदर दोनों ही को छोड़ती हूं, पर जीवन निर्वाह का तो कुछ उपाय करना पड़ेगा?
विट्ठलदास– अगर ईश्वर तुम्हें सुबुद्धि दें, तो सामान्य रीति से जीवन-निर्वाह करने के लिए तुम्हें दालमंडी में बैठने की जरूरत नहीं है। तुम्हारे जीवन-निर्वाह का केवल यही एक उपाय नहीं है। ऐसे कितने धंधे हैं, जो तुम अपने घर में बैठी हुई कर सकती हो।
सुमन का मन अब कोई बहाना न ढूंढ़ सका। विट्ठलदास के सदुत्साह ने उसे वशीभूत कर लिया। सच्चे आदमी को हम धोखा नहीं दे सकते। उसकी सचाई हमारे हृदय में उच्च भावों को जागृत कर देती है। उसने कहा– मुझे यहां बैठते स्वतःलज्जा आती है। बताइए, आप मेरे लिए क्या प्रबंध कर सकते हैं? मैं गाने में निपुण हूं। गाना सिखाने का काम कर सकती हूं।
विट्ठलदास– ऐसी तो यहां कोई पाठशाला नहीं है।
सुमन– मैंने कुछ विद्या भी पढ़ी है, कन्याओं को अच्छी तरह पढ़ा सकती हूं।
विट्ठलदास ने चिंतित भाव से उत्तर दिया– कन्या पाठशालाएं तो कई हैं, पर तुम्हें लोग स्वीकार करेंगे, इसमें संदेह है।
सुमन– तो आप मुझसे क्या करने को कहते हैं? कोई ऐसा हिंदू जाति का प्रेमी है, जो मेरे लिए पचास रुपए मासिक देने पर राजी हो?
विट्ठलदास– यह तो मुश्किल है।
सुमन– तो क्या आप मुझसे चक्की पिसाना चाहते हैं? मैं ऐसी संतोषी नहीं हूं।
विट्ठलदास-(झेंपकर) विधवाश्रम में रहना चाहो, तो उसका प्रबंध कर दिया जाए।
सुमन– (सोचकर) तो मुझे यह भी मंजूर है, पर वहां मैंने स्त्रियों को अपने संबंध में कानाफूसी करते देखा तो पल-भर न ठहरूंगी।
विट्ठलदास– यह तो टेढ़ी शर्त है, मैं किस-किसकी जबान को रोकूंगा? लेकिन मेरी समझ में सभावाले तुम्हें लेने पर राजी न होंगे।
सुमन ने ताने से कहा– तो जब आपकी हिंदू जाति इतनी हृदयशून्य है, तो मैं उसकी मर्यादा पालने के लिए क्यों कष्ट भोगूं, क्यों जान दूं? जब आप मुझे अपनाने के लिए जाति को प्रेरित नहीं कर सकते, जब जाति आप ही लज्जाहीन है, तो मेरा क्या दोष है? मैं आपसे केवल एक प्रस्ताव और करूंगी और यदि आप उसे भी पूरा न कर सकेंगे, तो फिर मैं आपको और कष्ट न दूंगी। आप पं० पद्मसिंह को एक घंटे के लिए मेरे पास बुला लाइए, मैं उनसे एकांत में कुछ कहना चाहती हूं। उसी घड़ी मैं यहां से चली जाऊंगी। मैं केवल यह देखना चाहती हूं कि जिन्हें आप जाति के नेता कहते हैं, उनकी दृष्टि में मेरे पश्चात्ताप का कितना मूल्य है।
विट्ठलदास खुश होकर बोले– हां, यह मैं कर सकता हूं। बोलो, किस दिन?
सुमन– जब आपका जी चाहे।
विट्ठलदास– फिर तो न जाओगी?
सुमन– अभी इतनी नीच नहीं हुई हूं।
16
महाशय विट्ठलदास इस समय ऐसे खुश थे मानों उन्हें कोई संपत्ति मिल गई हो। उन्हें विश्वास था कि पद्मसिंह इस जरा से कष्ट से मुंह न मोड़ेंगे, केवल उनके पास जाने की देर है। वह होली के कई दिन पहले से शर्माजी के पास नहीं गए थे। यथाशक्ति उनकी निंदा करने में कोई बात न उठा रखी थी, जिस पर कदाचित् अब वह मन में लज्जित थे, तिस पर भी शर्माजी के पास जाने में उन्हें जरा संकोच न हुआ। उनके घर की ओर चले।
रात के दस बजे गए थे। आकाश में बादल उमड़े हुए थे, घोर अंधकार छाया हुआ था। लेकिन राग-रंग का बाजार पूरी रौनक पर था। अट्टालिकाओं से प्रकाश की किरणें छिटक रही थीं। कहीं सुरीली तानें सुनाई देती थीं, कहीं मधुर हास्य की ध्वनि, कहीं आमोद-प्रमोद की बातें। चारों ओर विषय-वासना अपने नग्न रूप में दिखाई दे रही थी।
दालमंडी से निकलकर विट्ठलदास को ऐसा जान पड़ा, मानो वह किसी निर्जन स्थान पर आ गए। रास्ता अभी बंद न हुआ था। विट्ठलदास को ज्योंही कोई परिचित मनुष्य मिल जाता, वह उसे तुरंत अपनी सफलता की सूचना देते! आप कुछ समझते हैं, कहां से आ रहा हूं? सुमनबाई की सेवा में गया था। ऐसा मंत्र पढ़ा कि सिर न उठा सकी, विधवाश्रम में जाने पर तैयार है। काम करनेवाले यों काम किया करते हैं।
पद्मसिंह चारपाई पर लेटे हुए निद्रा देवी की आराधना कर रहे थे कि इतने में विट्ठलदास ने आकर आवाज दी। जीतन कहार अपनी कोठरी में बैठा हुआ दिन-भर की कमाई का हिसाब लगा रहा था कि यह आवाज कान में आई। बड़ी फुरती से पैसे समेटकर कमर में रख लिए और बोला– कौन है?
विट्ठलदास ने कहा– अजी मैं हूं, क्या पंडितजी सो गए? जरा भीतर जाकर जगा तो दो, मेरा नाम लेना, कहना बाहर खड़े हैं, बड़ा जरूरी काम है, जरा चलें आएं।
जीतन मन में बहुत झुंझलाया। उसका हिसाब अधूरा रह गया, मालूम नहीं, अभी रुपया पूरा होने में कितनी कसर है। अलसाता हुआ उठा, किवाड़ खोले, पंडितजी को खबर दी। वह समझ गए कि कोई नया समाचार होगा, तभी यह इतनी रात को आए हैं। तुरंत बाहर निकल आए।
विट्ठलदास– आइए, मैंने आपको बहुत कष्ट दिया, क्षमा कीजिएगा। कुछ समझे, कहां से आ रहा हूं? सुमनबाई के पास गया था। आपका पत्र पाते ही दौड़ा कि बन पड़े, तो उसे सीधी राह पर लाऊं। इसमें उसी की बदनामी नहीं, सारी जाति की बदनामी है। वहां पहुंचा तो उसके ठाट देखकर दंग रह गया। वह भोली-भाली स्त्री अब दालमंडी की रानी है। मालूम नहीं, इतनी जल्दी वह ऐसी चतुर कैसे हो गई। कुछ देर तक चुपचाप मेरी बातें सुनती रही, फिर रोने लगी। मैंने समझा, अभी लोहा लाल है, दो-चार चोटें और लगाईं, बस आ गई पंजे में। पहले विधवाश्रम का नाम सुनकर घबराई। कहने लगी– मुझे पचास रुपये महीना गुजर के लिए दिलवाएं। लेकिन आप जानते हैं, यह पचास रुपए देने वाला कौन है? मैंने हामी न भरी। अंत में कहते-सुनते एक शर्त पर राजी हुई। उस शर्त को पूरा करना आपका काम है।
पद्मसिंह ने विस्मित होकर विट्ठलदास की ओर देखा।
विट्ठलदास– घबराइए नहीं, बहुत सीधी-सी शर्त है, बस यही कि आप जरा देर के लिए उसके पास चले जाएं, वह आपसे कुछ कहना चाहती है। यह तो मुझे निश्चय था कि आपको इसमें कोई आपत्ति न होगी, यह शर्त मंजूर कर ली। तो बताइए, कब चलने का विचार है? मेरी समझ में सबेरे चलें।
किंतु पद्मसिंह विचारशील मनुष्य थे। वह घंटों सोच-विचार के बिना कोई फैसला न कर सकते थे। सोचने लगे कि इस शर्त का क्या अभिप्राय है? वह मुझसे क्या कहना चाहती है? क्या बात पत्र द्वारा न हो सकती थी? इसमें कोई-न-कोई रहस्य अवश्य है। आज अबुलवफा ने मेरे बग्घी पर से कूद पड़ने का वृत्तान्त उससे कहा होगा। उसने सोचा होगा, यह महाशय इस तरह नहीं आते, तो यह चाल चलूं, देखूं कैसे नहीं आते। केवल मुझे नीचा दिखाना चाहती है। अच्छा, अगर मैं जाऊं भी, लेकिन पीछे से वह अपना वचन पूरा न करे तो क्या होगा? यह युक्ति उन्हें अपना गला छुड़ाने के लिए उपयोगी मालूम हुई। बोले– अच्छा, अगर वह अपने वचन से फिर जाए तो?
विट्ठलदास– फिर क्या जाएगी? ऐसा हो सकता है?
पद्मसिंह– हां, ऐसा होना असंभव नहीं।
विट्ठलदास– तो क्या आप कोई प्रतिज्ञापत्र लिखवाना चाहते हैं?
पद्मसिंह– नहीं, मुझे संदेह यही है कि वह सुख-विलास छोड़कर विधवाश्रम में क्यों जाने लगी और सभा वाले उसे लेना स्वीकार कब करेंगे?
विट्ठलदास– सभावालों को मनाना तो मेरा काम है। न मानेंगे तो मैं उसके गुजारे का और कोई प्रबंध करूंगा। रही पहली बात। मान लीजिए, वह अपने वचन को मिथ्या ही कर दे, तो इसमें हमारी क्या हानि है? हमारा कर्त्तव्य पूरा हो जाएगा।
पद्मसिंह– हां, यह संतोष चाहे हो जाए, लेकिन देख लीजिएगा, वह अवश्य धोखा देगी।
विट्ठलदास अधीर हो गए, झुंझलाकर बोले– अगर धोखा ही दे दिया, तो आपका कौन छप्पन टका खर्च हुआ जाता है।
पद्मसिंह– आपके निकट मेरी कुछ प्रतिष्ठा न हो, लेकिन मैं अपने को इतना तुच्छ नहीं समझता।
विट्ठलदास– सारांश यह कि न जाएंगे?
पद्मसिंह– मेरे जाने से कोई लाभ नहीं हैं। हां, यदि मेरा मान-मर्दन कराना ही अभीष्ट हो, तो दूसरी बात है।
विट्ठलदास– कितने खेद की बात है कि आप एक जातीय कार्य के लिए इतना मीन-मेख निकाल रहे हैं! शोक! आप आंखों से देख रहे हैं कि एक हिंदू जाति की स्त्री कुएं में गिरी हुई है, और आप उसी जाति के एक विचारवान पुरुष होकर उसे निकालने में इतना आगा-पीछा कर रहे हैं। बस आप इसी काम के हैं कि मूर्ख किसानों और जमींदारों का रक्त चूसें। आपसे और कुछ न होगा।
शर्माजी ने इस तिरस्कार का उत्तर न दिया। वह मन में अपनी अकर्मण्यता पर स्वयं लज्जित थे और अपने को इस तिरस्कार का भागी समझते थे। लेकिन एक ऐसे पुरुष के मुंह से ये बातें अत्यंत अप्रिय मालूम हुईं, जो इस बुराई का मूल कारण हो। वह बड़ी कठिनाई से प्रत्युत्तर देने के आवेग को रोक सके। यथार्थ में वह सुमन की रक्षा करना चाहते थे, लेकिन गुप्त रीति से, बोले– उसकी और भी तो शर्तें हैं?
विट्ठलदास– जी हां, हैं तो लेकिन आप में उन्हें पूरा करने का सामर्थ्य है? वह गुजारे के लिए पचास रुपए मासिक मांगती है, आप दे सकते हैं?
शर्माजी– पचास रुपए नहीं, लेकिन बीस रुपए देने को तैयार हूं।
विट्ठलदास– शर्माजी, बातें न बनाइए। एक जरा-सा कष्ट तो आपसे उठाया नहीं जाता, आप बीस रुपए मासिक देंगे?
शर्माजी– मैं आपको वचन देता हूं कि बीस रुपए मासिक दिया करूंगा और अगर मेरी आमदनी कुछ भी बढ़ी तो पूरी रकम दूंगा। हां, इस समय विवश हूं। यह बीस रुपए भी घोड़ा-गाड़ी बेचने से बच सकेंगे। मालूम नहीं, क्यों इन दिनों मेरा बाजार गिरा जा रहा है।
बिट्ठलदास– अच्छा, आपने बीस रुपए दे ही दिए, तो शेष कहां से आएंगे? औरों का तो हाल आप जानते ही हैं, विधवाश्रम के चंदे ही कठिनाई से वसूल होते हैं। मैं जाता हूं, यथाशक्ति उद्योग करूंगा, लेकिन यदि कार्य न हुआ, तो उसका दोष आपके सिर पड़ेगा।
17
संध्या का समय है। सदन अपने घोड़े पर सवार दालमंडी में दोनों तरफ छज्जों और खिड़कियों की ओर ताकता जा रहा है। जब से सुमन वहां आई है, सदन उसके छज्जे के सामने किसी-न-किसी बहाने से जरा देर के लिए अवश्य ठहर जाता है। इस नव-कुसुम ने उसकी प्रेम-लालसा को ऐसा उत्तेजित कर दिया है। कि अब उसे एक पल चैन नहीं पड़ता। उसके रूप-लावण्य में एक प्रकार की मनोहारिणी सरलता है, जो उसके हृदय को बलात् अपनी ओर खींचती है। वह इस सरल सौंदर्य मूर्ति को अपना प्रेम अर्पण करने का परम अभिलाषी है, लेकिन उसे इसका सुअवसर नहीं मिलता। सुमन के यहां रसिकों का नित्य जमघट रहता है। सदन को यह भय होता है कि इनमें से कोई चाचा की जान-पहचान का मनुष्य न हो। इसलिए उसे ऊपर जाने का साहस नहीं होता।
अपनी प्रबल आकांक्षा को हृदय में छिपाए वह नित्य इसी तरह निराश होकर लौट जाता है। लेकिन आज उसने मुलाकात करने का निश्चय कर लिया है, चाहे कितनी देर क्यों न हो जाए। विरह का दाह उससे सहा नहीं जाता। वह सुमन के कोठे के सामने पहुंचा। श्याम कल्याण की मधुर ध्वनि आ रही थी। आगे बढ़ा और दो घंटे तक पार्क और मैदान में चक्कर लगाकर नौ बजे फिर दालमंडी की ओर चला। आश्विन के चंद्र की उज्जवल किरणों ने दालमंडी की ऊंची छतों पर रुपहली चादर-सी बिछा दी थी। वह फिर सुमन के कोठे के सामने रुका। संगीत-ध्वनि बंद थी; कुछ बोलचाल न सुनाई दी। निश्चय हो गया कि कोई नहीं है। घोड़े से उतरा, उसे नीचे की दुकान के खंभे से बांध दिया और सुमन के द्वार पर खड़ा हो गया। उसकी सांस बड़े वेग से चल रही थी। और छाती जोर से धड़क रही थी।
सुमन का मुजरा अभी समाप्त हुआ था, और उसके मन पर वह शिथिलता छाई हुई थी, जो आंधी के पीछे आने वाले सन्नाटे के समान आमोद-प्रमोद का प्रतिफल हुआ करती है। यह एक प्रकार की चेतावनी होती है, जो आत्मा की ओर से भोग-विलास में लिप्त मन को मिलती है। इस दशा में हमारा हृदय पुरानी स्मृतियों का क्रीड़ा-क्षेत्र बन जाया करता है। थोड़ी देर के लिए हमारे ज्ञानचक्षु खुल जाते हैं।
सुमन का ध्यान इस समय सुभद्रा की ओर लगा हुआ था। वह मन में उससे अपनी तुलना कर रही थी। जो शांतिमय सुख उसे प्राप्त है, क्या वह मुझे मिल सकता है? असंभव! यह तृष्णा-सागर है, यहां शांति-सुख कहां? जब पद्मसिंह के कचहरी से आने का समय होता, तो सुभद्रा कितनी उल्लसित होकर पान के बीड़े लगाती थी, ताजा हलवा पकाती थी, जब वह घर में आते थे, तो वह कैसी-प्रेम विह्वल होकर उनसे मिलने दौड़ती थी। आह! मैंने उनका प्रेमालिंगन भी देखा है, कितना भावमय! कितना सच्चा! मुझे वह सुख कहां? यहां या तो अंधे आते हैं, बातों के वीर। कोई अपने धन का जाल बिछाता है, कोई अपनी चिकनी-चुपड़ी बातों का। उनके हृदय भावशून्य, शुष्क और ओछेपन से भरे हुए होते हैं।
इतने में सदन ने कमरे में प्रवेश किया। सुमन चौंक पड़ी। उसने सदन को कई दिन देखा था। उसका चेहरा उसे पद्मसिंह के चेहरे से मिलता हुआ मालूम होता था।
हां, गंभीरता की जगह एक उद्दंडता छलकती थी। वह काइयांपन, वह क्षुद्रता, जो इस मायानगर के प्रेमियों का मुख्य लक्षण है, वहां नाम को भी न थी। वह सीधा-सादा, सहज स्वभाव, सरल नवयुवक मालूम होता था। सुमन ने आज उसे कोठों का निरीक्षण करते देखा था। उसने ताड़ लिया था कि कबूतर अब पर तौल रहा है, किसी छतरी पर उतरना चाहता है। आज उसे अपने यहां देखकर उसे गर्वपूर्ण आनंद हुआ, जो दंगल में कुश्ती मारकर किसी पहलवान को होता है। वह उठी और मुस्कुराकर सदन की ओर हाथ बढ़ाया।
सदन का मुख लज्जा से अरुण-वर्ण हो गया। आंखें झुक गईं। उस पर एक रोब-सा छा गया। मुख से एक शब्द भी न निकला।
जिसने कभी मदिरा का सेवन न किया हो, मद-लालसा होने पर भी उसे मुंह से लगाते हुए वह झिझकता है।
यद्यपि सदन ने सुमनबाई को अपना परिचय ठीक नहीं दिया, उसने अपना नाम कुंवर सदनसिंह बताया, पर उसका भेद बहुत दिनों तक न छिप सका। सुमन ने हिरिया के द्वारा उसका पता भली-भांति लगा लिया तभी से वह बड़े चक्कर में पड़ी हुई थी। सदन को देखे बिना उसे चैन न पड़ता, उसका हृदय दिनोंदिन उसकी ओर खिंचता जाता था। उसके बैठे सुमन के यहां किसी बड़े-से-बड़े रईस का गुजर होना भी कठिन था। किंतु वह इस प्रेम को अनुचित और निषिद्ध समझती थी, उसे छिपाती थी।
उसकी कल्पना किसी अव्यक्त कारण से इस प्रेम-लालसा को भीषण विश्वासघात समझती थी। कहीं पद्मसिंह और सुभद्रा पर यह रहस्य खुल जाए, तो वह मुझे क्या समझेंगे? उन्हें कितना दुःख होगा? मैं उनकी दृष्टि में कितनी नीच और घृणित हो जाऊंगी? जब कभी सदन प्रेम-रहस्य की बातें करने लगता, तो सुमन बात को पलट देती, जब कभी सदन की अंगुलियां ढिठाई करना चाहतीं, तो वह उसकी ओर लज्जा-युक्त नेत्रों से देखकर धीरे से उसका हाथ हटा देती। साथ ही वह सदन को उलझाए भी रखना चाहती थी। इस प्रेम-कल्पना से उसे आनंद मिलता था, उसका त्याग करने में वह असमर्थ थी।
लेकिन सदन उसके भावों से अनभिज्ञ होने के कारण उसकी प्रेम-शिथिलता को अपनी धनहीनता पर अवलंबित समझता था। उसका निष्कपट हृदय प्रगाढ़ प्रेम में मग्न हो गया था। सुमन उसके जीवन का आधार बन गई थी। मगर विचित्रता यह थी कि प्रेम-लालसा के इतने प्रबल होते हुए भी वह अपनी कुवासनाओं को दबाता था। उसका अक्खड़पन लुप्त हो गया था। वह वही करना चाहता था, जो सुमन को पसंद हो। वह कामातुरता जो कलुषित प्रेम में व्याप्त होती है, सच्चे अनुराग के अधीन होकर सहृदयता में परिवर्तित हो गई थी, पर सुमन की अनिच्छा दिनों-दिन बढ़ती देखकर उसने अपने मन में यह निर्धारित किया कि पवित्र प्रेम की कदर यहां नहीं हो सकती। यहां के देवता उपासना से नहीं, भेंट से प्रसन्न होते हैं। लेकिन भेंट के लिए रुपए कहां से आएं? मांगे किससे? निदान उसने पिता को एक पत्र लिखा कि मेरे भोजन का अच्छा प्रबंध नहीं है, लज्जावश चाचा साहब से कुछ कह नहीं सकता, मुझे कुछ रुपए भेज दीजिए।
घर पर यह पत्र पहुंचा, तो भामा ने पति को ताने देने शुरू किए, इसी भाई का तुम्हें इतना भरोसा था, घमंड से धरती पर पांव नहीं रखते थे। अब घमंड टूटा कि नहीं? वह भी चाचा पर बहुत फूला हुआ था, अब आंखें खुली होंगी। इस काल में नेकी किसी को याद नहीं रहती, अपने दिन भूल जाते हैं। उसके लिए मैंने कौन-कौन-सा यत्न नहीं किया, छाती से दूध-भर नहीं पिलाया। उसी का यह बदला मिल रहा है। उस बेचारे का कुछ दोष नहीं, उसे मैं जानती हूं, यह सारी करतूत उन्हीं महारानी की है। अब की भेंट हुई, तो वह खरी-खरी सुनाऊं कि याद करे।
मदनसिंह को संदेह हुआ कि सदन ने यह पाखंड रचा है। भाई पर उन्हें अखंड विश्वास था, लेकिन जब भामा ने रुपए भेजने पर जोर दिया, तो उन्हें भेजने पड़े। सदन रोज डाकघर जाता, डाकिए से बार-बार पूछता। आखिर चौथे दिन पच्चीस रुपए का मनीआर्डर आया। डाकिया उसे पहचानता था, रुपए मिलने में कोई कठिनाई न हुई। सदन हर्ष से फूला न समाया। संध्या को बाजार से एक उत्तम रेशमी साड़ी मोल ली। लेकिन यह शंका हो रही थी कि कहीं सुमन उसे नापसंद न करे। वह कुंवर बन चुका था, इसीलिए ऐसी तुच्छ भेंट देते हुए झेंपता था। साड़ी जेब में रख, बड़ी देर तक घोड़े पर इधर-उधर टहलता रहा।
खाली हाथ वह सुमन के यहां नित्य बेधड़क चला जाया करता था, पर आज यह भेंट लेकर जाने में संकोच होता था। जब खूब अंधेरा हो गया, तो मन को दृढ़ करके सुमन के कोठे पर चढ़ गया और साड़ी चुपके से निकालकर श्रंगारदान पर रख दी। सुमन उसके इस विलंब से चिंतित हो रही थी। उसे देखते ही फूल के समान खिल गई। बोली, यह क्या लाए? सदन ने झेंपते हुए कहा, कुछ नहीं, आज एक साड़ी नजर आ गई, मुझे अच्छी मालूम हुई, ले ली, यह तुम्हारी भेंट है। सुमन ने मुस्कराकर कहा, आज इतनी देर तक राह दिखाई, क्या यह उसी का प्रायश्चित है? यह कहकर उसने साड़ी को देखा। सदन की वास्तविक अवस्था के विचार से वह बहुमूल्य कही जा सकती थी।
सुमन के मन में प्रश्न हुआ कि इतने रुपए इन्हें मिले कहां? कहीं घर से तो नहीं उठा लाए? शर्माजी इतने रुपए क्यों देने लगे? या इन्होंने उनसे कोई बहाना करके ठगे होंगे या उठा लाए होंगे। उसने विचार किया कि साड़ी लौटा दूं, लेकिन उससे उसके दुःखी हो जाने का भय था। इसके साथ ही साड़ी को रख लेने से उसके दुरुत्साह के बढ़ने की आशंका थी। निदान उसने निश्चय किया कि इसे अब की बार रख लूं, पर भविष्य के लिए चेतावनी दे दूं। बोली– इस अनुग्रह से कृतार्थ हुई, लेकिन आपसे मैं भेंट की भूखी नहीं। आपकी यही कृपा क्या कम है कि आप यहां तक आने का कष्ट करते हैं। मैं केवल आपकी कृपादृष्टि चाहती हूं।
लेकिन जब इस पारितोषिक से सदन का मनोरथ न पूरा हुआ और सुमन के बर्ताव में उसे कोई अंतर न दिखाई दिया, तो उसे विश्वास हो गया कि मेरा उद्योग-निष्फल हुआ। वह अपने मन में लज्जित हुआ कि मैं एक तुच्छ भेंट देकर उससे इतने बड़े फल की आशा रखता हूं, जमीन से उचककर आकाश से तार तोड़ने की चेष्टा करता हूं। अतएव वह कोई मूल्यवान प्रेमोपहार देने की चिंता में लीन हो गया। मगर महीनों तक उसे इसका कोई अवसर न मिला।
एक दिन वह नहाने बैठा, तो साबुन न था। वह भीतर के स्नानालय में साबुन लेने गया। अंदर पैर रखते ही उसकी निगाह ताक पर पड़ी। उस पर एक कंगन रखा हुआ था। सुभद्रा अभी नहाकर गई थी, उसने कंगन उतारकर रख दिया था, लेकिन चलते समय उसकी सुध न रही। कचहरी का समय निकट था, वह रसोई में चली गई। कंगन वहीं धरा रह गया। सदन ने उसे देखते ही लपककर उठा लिया। इस समय उसके मन में कोई बुरा भाव न था। उसने सोचा, चाची को खूब हैरान करके तब दूंगा, अच्छी दिल्लगी रहेगी। कंगन को छिपाकर बाहर लाया और संदूक में रख लिया।
सुभद्रा भोजन से निवृत्त होकर लेट रही, आलस्य आया, सोई तो तीसरे पहर को उठी। इसी बीच में पंडितजी कचहरी से आ गए, उनसे बातचीत करने लगी, कंगन का ध्यान ही न रहा। सदन कई बार भीतर गया कि देखूं इसकी कोई चर्चा हो रही थी या नहीं, लेकिन उसका कोई जिक्र न सुनाई दिया। संध्या समय जब वह सैर करने के लिए तैयार हुआ, तो एक आकस्मिक विचार से प्रेरित होकर उसने वह कंगन जेब में रख लिया। उसने सोचा, क्यों न यह कंगन सुमनबाई की नजर करूं? यहां तो सुझसे कोई पूछेगा ही नहीं और अगर पूछा भी गया तो कह दूंगा, मैं नहीं जानता। चाची, समझेंगी, नौकरों में से कोई उठा ले गया होगा। इस तरह के कुविचारों ने उसका संकल्प दृढ़ कर दिया।
उसका जी कहीं सैर में न लगा। वह उपहार देने के लिए व्याकुल हो रहा था। नियमित समय से कुछ पहले ही घोड़े को दालमंडी की तरफ फेर दिया। यहां उसने एक छोटा-सा मखमली बक्स लिया, उसमें कंगन को रखकर सुमन के यहां जा पहुंचा। वह इस बहुमूल्य वस्तु को इस प्रकार भेंट करना चाहता था, मानो वह कोई अति सामान्य वस्तु दे रहा हो। आज वह बहुत देर तक बैठा रहा। संध्या का समय उसके लिए निकाल रखा था। किंतु आज प्रेमालाप में भी उसका जी न लगता था। उसे चिंता लगी हुई थी कि यह कंगन कैसै भेंट करूं? जब बहुत देर हो गई, तो वह चुपके से उठा, जेब से बक्स निकाला और उसे पलंग पर रखकर दरवाजे की तरफ चला। सुमन ने देख लिया, पूछा– इस बक्स में क्या है!
सदन– कुछ नहीं, खाली बक्स है।
सुमन– नहीं-नहीं, ठहरिए, मैं देख लूं।
यह कहकर उसने सदन का हाथ पकड़ लिया और संदूकची को खोलकर देखा। इस कंगन को उसने सुभद्रा के हाथ में देखा था। उसकी बनावट बहुत अच्छी थी। पहचान गई, हृदय पर बोझ-सा आ पड़ा। उदार होकर बोली– मैंने आपसे कह दिया था कि मैं इन चीजों की भूखी नहीं हूं। आप व्यर्थ मुझे लज्जित करते हैं।
सदन ने लापरवाही से कहा, मानो वह कोई राजा है– गरीब के पानफूल स्वीकार करना चाहिए।
सुमन– मेरे लिए तो सबसे अमूल्य चीज आपकी कृपा है। वही मेरे ऊपर बनी रहे। इस कंगन को आप मेरी तरफ से अपनी नई रानी साहिबा को दे दीजिएगा। मेरे हृदय में आपके प्रति पवित्र प्रेम है। वह इन इच्छाओं से रहित है। आपके व्यवहार से ऐसा मालूम होता है कि अभी आप मुझे बाजारू औरत ही समझे हुए हैं। आप ही एक ऐसे पुरुष हैं, जिस पर मैंने अपना प्रेम, अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया है, लेकिन आपने अभी तक उसका कुछ मूल्य न समझा!
सदन की आंखें भर आईं। उसने मन में सोचा, यथार्थ में मेरा ही दोष है। मैं उसके प्रेम जैसी अमूल्य वस्तु को इन तुच्छ उपहारों का इच्छुक समझता हूं। मैं हथेली पर सरसों जमाने की चेष्टा में इस रमणी के साथ ऐसा अनर्थ करता हूं। आज इस नगर में ऐसा कौन है, जो उसके एक प्रेम-कटाक्ष पर अपना सर्वस्व न लुटा दे? बड़े-बड़े ऐश्वर्यवान् मनुष्य आते हैं और वह किसी की ओर आंख उठाकर भी नहीं देखती, पर मैं ऐसा भावशून्य नीच हूं कि इस प्रेम-रत्न को कौड़ियों से मोल लेना चाहता हूं। इस ग्लानिपूर्ण भावों से वह रो पड़ा। सुमन समझ गई कि मेरे वह वाक्य अखर गए। करुण स्वर में बोली–
आप मुझसे नाराज हो गए क्या?
सदन ने आंसू पीकर कहा– हां, नाराज तो हूं।
सुमन– क्यों नाराज हैं?
सदन– इसीलिए कि तुम मुझे बाणों से छेदती हो। तुम समझती हो कि मैं ऐसी तुच्छ वस्तुओं से प्रेम मोल लेना चाहता हूं।
सुमन– तो यह चीजें क्यों लाते हैं?
सदन– मेरी इच्छा!
सुमन– नहीं, अब से मुझे क्षमा कीजिएगा।
सदन– खैर देखा जाएगा।
सुमन– आपकी खातिर से मैं इस तोहफे को रख लेती हूं। लेकिन इसे थाती समझती रहूंगी। आप अभी स्वतंत्र नहीं हैं। जब आप अपनी रियासत के मालिक हो जाएं, तब मैं आपसे मनमाना कर वसूल करूंगी। लेकिन अभी नहीं।
18
बाबू विट्ठलदास अधूरा काम न करते थे। पद्मसिंह की ओर से निराश होकर उन्हें यह चिंता होने लगी कि सुमनबाई के लिए पचास रुपए मासिक का चंदा कैसे करूं? उनकी स्थापित की हुई संस्थाएं चंदों ही से चल रही थीं, लेकिन चंदों के वसूल होने में सदैव कठिनाइयों का सामना होता था। विधवाश्रम की इमारत बनाने में हाथ लगाया, लेकिन दो साल से उसकी दीवारें गिरती जाती थीं। उन पर छप्पर डालने के लिए रुपए हाथ न आते थे। फ्री लाइब्रेरी की पुस्तकें दीमकों का आहार बनती जाती थीं। आलमारियां बनाने के लिए द्रव्य का अभाव था, लेकिन इन बाधाओं के होते हुए भी चंदे के सिवा धन संग्रह का उन्हें और कोई उपाय न सूझा। सेठ बलभद्रदास शहर के प्रधान नेता, आनरेरी मजिस्ट्रेट और म्युनिसिपल बोर्ड के चेयरमैन थे। पहले उनकी सेवा में उपस्थित हुए। सेठजी अपने बंगले में आरामकुर्सी पर लेटे हुए हुक्का पी रहे थे। बहुत ही दुबले-पतले, गोरे-चिट्ठे आदमी थे, बड़े रसिक, बड़े शौकीन। वह प्रत्येक काम में बहुत सोच-समझकर हाथ डालते थे। विट्ठलदास का प्रस्ताव सुनकर बोले– प्रस्ताव तो बहुत उत्तम है, लेकिन यह बताइए, सुमन को आप रखना कहां चाहते हैं?
विट्ठलदास– विधवाश्रम में।
बलभद्र– आश्रम सारे नगर में बदनाम हो जाएगा और संभव है कि अन्य विधवाएं भी छोड़ भागें।
विट्ठलदास– तो अलग मकान लेकर रख दूंगा।
बलभद्र– मुहल्ले के नवयुवकों में छुरी चल जाएगी।
विट्ठलदास– तो फिर आप ही कोई उपाय बताइए।
बलभद्र– मेरी सम्पत्ति तो यह है कि आप इस झगड़े में न पड़े, जिस स्त्री के लोक-निंदा की लाज नहीं, उसे कोई शक्ति नहीं सुधार सकती। यह नियम है कि जब हमारा कोई अंग विकृत हो जाता है, तो उसे काट डालते हैं, जिससे उसका विष समस्त शरीर को नष्ट न कर डाले। समाज में भी उसी नियम का पालन करना चाहिए। मैं देखता हूं कि आप मुझसे सहमत नहीं हैं, लेकिन मेरा जो कुछ विचार था, वह मैंने स्पष्ट कर दिया। आश्रम की प्रबंधकारिणी सभा का एक मेंबर मैं भी तो हूं! मैं किसी तरह इस वेश्या को आश्रम में रखने की सलाह न दूंगा।
विट्ठलदास ने रोष से कहा– सारांश यह है कि इस काम में आप मुझे कोई सहायता नहीं दे सकते? जब आप जैसे महापुरुषों का यह हाल है, तो दूसरों से क्या आशा हो सकती है? मैंने आपका बहुत समय नष्ट किया, इसके लिए क्षमा कीजिएगा।
यह कहकर विट्ठलदास उठ खड़े हुए और सेठ चिम्मनलाल की सेवा में पहुंचे। यह सांवले रंग के बेडौल मनुष्य थे। बहुत ही स्थूल, ढीले-ढाले, शरीर में हाड़ की जगह मांस और मांस की जगह वायु भरी हुई थी। उनके विचार भी शरीर ही के समान बेडौल थे। वह ऋषि-धर्म सभा के सभापति, रामलीला कमेटी के चेयरमैन और रामलीला परिषद् के प्रबन्धकर्ता थे। राजनीति को विषभरा सांप समझते थे और समाचारपत्रों को सांप की बांबी। उच्च अधिकारियों से मिलने की धुन थी। अंग्रेजों के समाज में उनका विशेष मान था। वहां उनके सद्गुणों की बड़ी प्रशंसा होती थी। वह उदार न थे, न कृपण। इस विषय में चंदे की नामावली उनका मान निश्चय किया करती थी। उनमें एक बड़ा गुण था, जो उनकी दुर्बलताओं को छिपाए रहता था। यह उनकी विनोदशीलता थी।
विट्ठलदास का प्रस्ताव सुनकर बोले– महाशय, आप भी बिल्कुल शुष्क मनुष्य हैं। आपमें जरा भी रस नहीं। मुद्दत के बाद दालमंडी में एक चीज नजर आई, आप उसे भी गायब करने पर तुले हुए हैं। कम-से-कम अब की रामलीला तो हो जाने दीजिए। राजगद्दी के दिन उसका जलसा होगा, धूम मच जाएगी। आखिर तुर्किनें आकर मंदिर को भ्रष्ट करती हैं, ब्राह्मणी रहे तो क्या बुरा है! खैर, यह तो दिल्लगी हुई, क्षमा कीजिएगा। आपको धन्यवाद है कि ऐसे-ऐसे शुभ कार्य आपके हाथों पूरे होते हैं। कहां है चंदे की फेहरिस्त?
विट्ठलदास ने सिर खुजलाते हुए कहा– अभी तो मैं केवल सेठ बलभद्रदासजी के पास गया था, लेकिन आप जानते ही हैं, वह एक बैठकबाज हैं, इधर-उधर की बातें करके टाल दिया।
अगर बलभद्रदास ने एक लिखा होता, तो यहां दो में संदेह न था। दो लिखते तो चार निश्चित था। जब गुण कहीं शून्य हो, तो गुणनफल शून्य के सिवा और क्या हो सकता था, लेकिन बहाना क्या करते? तुरंत एक आश्रय मिल गया। बोले-महाशय, मुझे आपसे पूरी सहानुभूति है। लेकिन बलभद्रदास ने कुछ समझकर ही टाला होगा। जब मैं भी दूर तक सोचता हूं, तो इस प्रस्ताव में कुछ राजनीति का रंग दिखाई देता है, इसमें जरा भी संदेह नहीं। आप चाहें इसे उस दृष्टि से न देखते हों, लेकिन मुझे तो इसमें गुप्त राजनीति भरी हुई साफ नजर आती है। मुसलमानों को यह बात अवश्य बुरी मालूम होगी, वह जाकर अधिकारियों से इसकी शिकायत करेंगे। अधिकारियों को आप जानते ही हैं, आंखें नहीं, केवल कान होते हैं। उन्हें तुरंत किसी षड्यंत्र का संदेह हो जाएगा।
विट्ठलदास ने झुंझलाकर कहा– साफ-साफ क्यों नहीं कहते, मैं कुछ नहीं देना चाहता?
चिम्मनलाल– आप ऐसा ही समझ लीजिए। मैंने सारी जाति का कोई ठेका थोड़े ही लिया है?
विट्ठलदास का मनोरथ यहां भी पूरा न हुआ, लेकिन यह उनके लिए कुछ नई बात न थी। ऐसे निराशाजनक अनुभव उन्हें नित्य ही हुआ करते थे। यहां से डॉक्टर श्यामाचरण के पास पहुंचे। डॉक्टर महोदय बड़े समझदार और विद्वान पुरुष थे। शहर के प्रधान राजनीतिक नेता थे, उनकी वकालत खूब चमकी हुई थी। बहुत तौल-तौल कर मुंह से शब्द निकालते। उनकी मौन गंभीरता विचारशीलता का द्योतक समझी जाती थी। शांति के भक्त थे, इसलिए उनके विरोध से न किसी को हानि थी, न उनके योग से किसी को लाभ। सभी तरह के लोग उन्हें अपना मित्र समझते थे, सभी अपना शत्रु। वह अपनी कमिश्नरी की ओर से सूबे की सलाहकारी सभा के सभासद थे। विट्ठलदास की बात सुनकर बोले– मेरे योग्य जो सेवा हो, वह मैं करने को तैयार हूं। लेकिन उद्योग यह होना चाहिए कि उन कुप्रथाओं का सुधार किया जाए, जिनके कारण ऐसी समस्याएँ उपस्थित होती हैं। इस समय आप एक की रक्षा कर ही लेंगे, तो इससे क्या होगा? यहां तो नित्य ही ऐसी दुर्घटनाएं होती रहती हैं। मूल कारणों का सुधार होना चाहिए। कहिए तो कौंसिल में कोई प्रश्न करूं?
विट्ठलदास उछलकर बोले– जी हां, यह तो बहुत ही उत्तम होगा।
डॉक्टर साहब ने तुरंत प्रश्नों की एक माला तैयार की–
१. क्या गवर्नमेंट बता सकती है कि गत वर्ष वेश्याओं की संख्या कितनी बढ़ी?
२. क्या गवर्नमेंट ने इस बात का पता लगाया है कि इस वृद्धि के क्या कारण हैं और गवर्नमेंट उसे रोकने के लिए क्या करना उपाय करना चाहती हैं?
३. ये कारण कहां तक मनोविकारों से संबंध रखते हैं, कहां तक आर्थिक स्थिति से और कहां तक सामाजिक कुप्रथाओं से?
इसके बाद डॉक्टर साहब अपने मुवक्किलों से बातचीत करने लगे, विट्ठलदास आध घंटे तक बैठे रहे, अंत में अधीर होकर बोले– तो मुझे क्या आज्ञा होती है?
श्यामाचरण– आप इत्मीनान रखें, अब की कौंसिल की बैठक में गवर्नमेंट का ध्यान इस ओर आकर्षित करूंगा।
विट्ठलदास के जी में आया कि डॉक्टर साहब को आड़े हाथों लूं, किंतु कुछ सोचकर चुप रह गए। फिर किसी बड़े आदमी के पास जाने का साहस न हुआ। लेकिन उस कर्मवीर ने उद्योग से मुंह नहीं मोड़ा। नित्य किसी सज्जन के पास जाते और उससे सहायता की याचना करते। यह उद्योग निष्फल तो नहीं हुआ। उन्हें कई सौ रुपए के वचन और कई सौ नकद मिल गए, लेकिन तीस रुपए मासिक की जो कमी थी, वह इतने धन से क्या पूरी होती? तीन महीने की दौड़-धूप के बाद वह बड़ी मुश्किल से दस रुपए मासिक का प्रबंध करने में सफल हो सके।
अंत में जब उन्हें अधिक सहायता की कोई आशा न रही तो वह एक दिन प्रातःकाल सुमनबाई के पास गए। वह इन्हें देखते ही कुछ अनमनी-सी होकर बोली– कहिए महाशय, कैसे कृपा की?
विट्ठलदास– तुम्हें अपना वचन याद है?
सुमन– इतने दिनों की बातें अगर मुझे भूल जाएं, तो मेरा दोष नहीं।
विट्ठलदास– मैंने तो बहुत चाहा कि शीघ्र ही प्रबंध हो जाए, लेकिन ऐसी जाति से पाला पड़ा है, जिसमें जातीयता का सर्वथा लोप हो गया है। तिस पर भी मेरा उद्योग बिल्कुल व्यर्थ नहीं हुआ। मैंने तीस रुपए मासिक का प्रबंध कर दिया और आशा है कि और जो कसर है, वह भी पूरी हो जाएगी। अब तुमसे मेरी यही प्रार्थना है कि इसे स्वीकार करो और आज ही इस नरककुंड को छोड़ दो।
सुमन– शर्माजी को आप नहीं ला सके क्या?
विट्ठलदास– वह किसी तरह आने पर राजी न हुए। इस तीस रुपए में बीस रुपए मासिक का वचन उन्हीं ने दिया है।
सुमन ने विस्मित होकर कहा– अच्छा! वह तो बड़े उदार निकले। सेठों से कुछ मदद मिली?
विट्ठलदास– सेठों की बात न पूछो। चिम्मनलाल रामलीला के लिए हजार-दो हजार रुपए खुशी से दे देंगे। बलभद्रदास से अफसरों की बधाई के लिए इससे भी अधिक मिल सकता है, लेकिन इस विषय में उन्होंने कोरा जवाब दिया।
सुमन इस समय सदन के प्रेमजाल में फंसी हुई थी। प्रेम का आनंद उसे कभी नहीं प्राप्त हुआ था, इस दुर्लभ रत्न को पाकर वह उसे हाथ से नहीं जाने देना चाहती थी। यद्यपि वह जानती थी कि इस प्रेम का परिणाम वियोग के सिवा और कुछ नहीं हो सकता, लेकिन उसका मन कहता था कि जब तक वह आनंद मिलता है, तब तक उसे क्यों न भोगूं। आगे चलकर न जाने क्या होगा, जीवन की नाव न जाने किस-किस भंवर में पड़ेगी, न जाने कहां-कहां भटकेगी। भावी चिंताओं को वह अपने पास न आने देती थी, क्योंकि उधर भयंकर अंधकार के सिवा और कुछ न सूझता था। अतएव जीवन के सुधार करता वह उत्साह, जिसके वशीभूत होकर उसने विट्ठलदास से वह प्रस्ताव किए थे, क्षीण हो गया था। इस समय विट्ठलदास सौ रुपए मासिक का लोभ दिखाते, तो भी वह खुश न होती, किंतु एक बार जो बात खुद ही उठाई थी, उससे फिरते हुए शर्म आती थी। बोली– मैं इसका जवाब कल दूंगी। अभी कुछ सोच लेने दीजिए।
विट्ठलदास– इसमें क्या सोचना-समझना है?
सुमन– कुछ नहीं, लेकिन कल ही पर रखिए।
रात के दस बज गए थे। शरद् ऋतु की सुनहरी चांदनी छिटकी हुई थी। सुमन खिड़की से नीलवर्ण आकाश की ओर ताक रही थी। जैसे चांदनी के प्रकाश में तारागण की ज्योति मलिन पड़ गई थी उसी प्रकार उसके हृदय में चंद्ररूपी सुविचार ने विकासरूपी तारागण को ज्योतिहीन कर दिया था।
सुमन के सामने एक कठिन समस्या उपस्थित थी, विट्ठलदास को क्या उत्तर दूं?
आज प्रातःकाल उसने कल जवाब देने का बहाना करके विट्ठलदास को टाला था। लेकिन दिन-भर के सोच-विचार ने उसके विचारों में कुछ संशोधन कर दिया था।
सुमन को यद्यपि यहां भोग-विलास के सभी सामान प्राप्त थे लेकिन बहुधा उसे ऐसे मनुष्यों की आवभगत करनी पड़ती थी, जिनकी सूरत से उसे घृणा होती थी, जिनकी बातों को सुनकर उसका जी मिचलाने लगता था। अभी उसके मन में उत्तम भावों का सर्वथा लोप नहीं हुआ था। वह उस अधोगति को नहीं पहुंची थी, जहां दुर्व्यसन हृदय के समस्त भावों को नष्ट कर देता है।
इसमें संदेह नहीं कि वह विलास की सामग्रियों पर जान देती थी, लेकिन इन सामग्रियों की प्राप्ति के लिए जिस बेहयाई की जरूरत थी, वह उसके लिए असह्य थी और कभी-कभी एकांत में वह अपनी वर्तमान दशा की पूर्वावस्था से तुलना किया करती थी। वहां यह टीमटाम न थी, किंतु वह अपने समाज में आदर की दृष्टि से देखी जाती थी। वह अपनी पड़ोसिनों के सामने अपनी कुलीनता पर गर्व कर सकती थी, अपनी धार्मिकता और भक्तिभाव का रोब जमा सकती थी। किसी के सम्मुख उसका सिर नीचा नहीं होता था। लेकिन यहां उसके सगर्व हृदय को पग-पग पर लज्जा से मुंह छिपाना पड़ता था। उसे ज्ञात होता था कि मैं किसी कुलटा के सामने भी सिर उठाने योग्य नहीं हूं। जो निरादर और अपमान उसे उस समय सहने पड़ते थे, उनकी अपेक्षा यहां की प्रेमवार्ता और आंखों की सनकियां अधिक दुःखजनक प्रतीत होती थीं और उसके भावपूर्ण हृंदय पर कुठाराघात कर देती थीं। तब उसका व्यथित हृदय पद्मसिंह पर दांत पीसकर रह जाता था। यदि उस निर्दय मनुष्य ने अपनी बदनामी के भय से मेरी अवहेलना न की होती, तो मुझे इस पापकुंड में कूंदने का साहस न होता। अगर वह मुझे चार दिन भी पड़ा रहने देते, तो कदाचित् मैं अपने घर लौट जाती। अथवा वह (गजाधर) ही मुझे मना ले जाते, फिर उसी प्रकार लड़-झगड़कर जीवन के दिन काटने-कटने लगते। इसलिए उसने विट्ठलदास से पद्मसिंह को अपने साथ लाने की शर्त की थी।
लेकिन आज जब विट्ठलदास से उसे ज्ञात हुआ कि शर्माजी मुझे उबारने के लिए कितने उत्सुक हो रहे हैं और कितनी उदारता के साथ मेरी सहायता करने पर तैयार हैं, तो उनके प्रति घृणा के स्थान पर उसके मन में श्रद्धा उत्पन्न हुई। वह बड़े सज्जन पुरुष हैं। मैं खामखाह अपने दुराचार का दोष उनके सिर रखती हूं। उन्होंने मुझ पर दया की है। मैं जाकर उनके पैरों पर गिर पडूंगी और कहूंगी कि आपने इस अभागिन का उपकार किया है, उसका बदला आपको ईश्वर देंगे। यह कंगन भी लौटा दूं, जिससे उन्हें यह संतोष हो जाए कि जिस आत्मा की मैंने रक्षा की है, वह सर्वथा उसके अयोग्य नहीं है। बस, वहां से आकर इस पाप के मायाजाल से निकल भागूं।
लेकिन सदन को कैसे भुलाऊंगी?
अपने मन की इस चंचलता पर वह झुंझला पड़ी क्या उस पापमय प्रेम के लिए जीवन-सुधारक इस दुर्लभ अवसर को हाथ से जाने दूं? चार दिन की चांदनी के लिए सदैव पाप के अंधकार में पड़ी रहूं? अपने हाथ से एक सरल हृदय युवक का जीवन नष्ट करूं? जिस सज्जन पुरुष ने मेरे साथ वह सद्व्यवहार किया है, उन्हीं के साथ यह छल! यह कपट! नहीं, मैं दूषित प्रेम को हृदय से निकाल दूंगी। सदन को भूल जाऊंगी। उससे कहूंगी, तुम भी मुझे इस मायाजाल से निकलने दो।
आह! मुझे कैसा धोखा हुआ! यह स्थान दूर से कितना सुहावना, कितना मनोरम, कितना सुखमय दिखाई देता था। मैंने इसे फूलों का बाग समझा, लेकिन है क्या? एक भयंकर वन, मांसाहरी पशुओं और विषैले कीड़ों से भरा हुआ!
यह नदी दूर से चांद की चादर-सी बिछी हुई कैसी भली मालूम होती थी। पर अंदर क्या मिलता है? बड़े-बड़े विकराल जल-जंतुओं का क्रीड़ा-स्थल! सुमन इसी प्रकार विचार-सागर में मग्न थी। उसे यह उत्कंठा हो रही थी कि किसी तरह सवेरा हो जाए और विट्ठलदास आ जाए, किसी तरह यहां से निकल भागूं। आधी रात बीत गई और उसे नींद न आई। धीरे-धीरे उसे शंका होने लगी कि कहीं सबेरे विट्ठलदास न आए तो क्या होगा? क्या मुझे फिर यहां प्रातःकाल से संध्या तक मीरासियों और धाड़ियों की चापलूसियां सुननी पड़ेंगी। फिर पाप-रजोलिप्त पुतलियों का आदर-सम्मान करना पड़ेगा? सुमन को यहां रहते हुए अभी छह मास भी पूरे न हुए थे, लेकिन इतने ही दिनों में उसे यहां का पूरा अनुभव हो गया था। उसके यहां सारे दिन मीरासियों का जमघट रहता था। वह अपने दुराचार, छल और क्षुद्रता की कथाएं बड़े गर्व से कहते। उनमें कोई चतुर गिरहकट था, कोई धूर्त ताश खेलनेवाले, कोई टपके की विद्या में निपुण, कोई दीवार फांदने के फन का उस्ताद और सबके-सब अपने दुस्साहस और दुर्बलता पर फूले हुए। पड़ोस की रमणियां भी नित्य आती थीं, रंगी, बनी-ठनीं, दीपक के समान जगमगाती हुईं, किंतु यह स्वर्ण-पात्र थे, हलाहल से भरे हुए पात्र– उनमें कितना छिछोरापन था! कितना छल! कितनी कुवासना! वह अपनी निर्लज्जता और कुकर्मों के वृत्तांत कितने मजे में ले-लेकर कहतीं। उनमें लज्जा का अंश भी न रहा था। सदैव ठगने की, छलने की धुन, मन सदैव पाप-तृष्णा में लिप्त।
शहर में जो लोग सच्चरित्र थे, उन्हें यहां खूब गालियां दी जाती थीं, उनकी खूब हंसी उड़ाई जाती थी बुद्धू, गौखा आदि की पदवियां दी जाती थीं। दिन-भर सारे शहर की चोरी और डाके, हत्या और व्यभिचार, गर्भपात और विश्वासघात की घटनाओं की चर्चा रहती थी। यहां का आदर और प्रेम अब अपने यथार्थ रूप में दिखाई देता था। यह प्रेम नहीं था, आदार नहीं था, केवल कामलिप्सा थी।
अब तक सुमन धैर्य के साथ वे सारी विपत्तियां झेलती थीं। उसने समझ लिया था कि जब इसी नरककुंड में जीवन व्यतीत करना है, तो इन बातों से कहां तक भागूं? नरक में पड़कर नारकीय धर्म का पालन करना अनिवार्य था। पहली बार विट्ठलदास जब उसके पास आए थे, तो उसने मन में उनकी उपेक्षा की थी। उस समय तक उसे यहां के रंग-ढंग का ज्ञान न था। लेकिन आज मुक्ति का द्वार सामने खुला देखकर इस कारागार में उसे क्षण-भर भी ठहरना असह्य हो रहा था। जिस तरह अवसर पाकर मनुष्य की पाप-चेष्टा जाग्रत हो जाती है, उसी प्रकार अवसर पाकर उसकी धर्म-चेष्टा भी जाग्रत हो जाती है।
रात के तीन बजे थे। सुमन अभी तक करवटें बदल रही थी, उसका मन बलात् सदन की ओर खिंचता था। ज्यों-ज्यों प्रभात निकट आता था, उसकी व्यग्रता बढ़ती जाती थी। वह अपने मन को समझा रही थी। तू इस प्रेम पर फूला हुआ है? क्या तुझे मालूम नहीं कि इसका आधार केवल रंग-रूप है! यह प्रेम नहीं है, प्रेम की लालसा है। यहां कोई सच्चा प्रेम करने नहीं आता। जिस भांति मंदिर में कोई सच्ची उपासना करने नहीं जाता, उसी प्रकार इस मंडी में कोई प्रेम का सौदा करने नहीं जाता, सब लोग केवल मन बहलाने के लिए आते हैं। इस प्रेम के भ्रम में मत पड़।
अरुणोदय के समय सुमन को नींद आ गई।
19
शाम हो गई। सुमन ने दिन-भर विट्ठलदास की राह देखी, लेकिन वह अब तक नहीं आए। सुमन के मन में जो नाना प्रकार की शंकाएं उठ रही थीं, वह पुष्ट हो गईं। विट्ठलदास अब नहीं आएंगे, अवश्य कोई विघ्न पड़ा। या तो वह किसी दूसरे काम में फंस गए या जिन लोगों ने सहायता का वचन दिया था, पलट गए। मगर कुछ भी हो, एक बार विट्ठलदास को यहां आना चाहिए था। मुझे मालूम तो हो जाता कि क्या निश्चय हुआ। अगर कोई सहायता नहीं करता, न करे, मैं अपनी मदद आप कर लूंगी, केवल एक सज्जन पुरुष की आड़ चाहिए। क्या विट्ठलदास से इतना भी नहीं होगा? चलूं, उनसे मिलूं और कह दूं कि मुझे आर्थिक सहायता की इच्छा नहीं है, आप इसके लिए हैरान न हों, केवल मेरे रहने का प्रबंध कर दें और मुझे कोई काम बता दें, जिससे मुझे सूखी रोटियां मिल जाया करें। मैं और कुछ नहीं चाहती। लेकिन मालूम नहीं, वह कहां रहते हैं, बे-पते-ठिकाने कहां-कहां भटकती फिरूंगी?
चलूं पार्क की तरफ, लोग वहां हवा खाने आया करते हैं, संभव है, उनसे भेंट हो जाए। शर्माजी नित्य उधर ही घूमने जाया करते हैं, संभव है, उन्हीं से भेंट हो जाए। उन्हें यह कंगन दे दूंगी और इसी बहाने से इस विषय में भी कुछ बातचीत कर लूंगी।
यह निश्चय करके सुमन ने एक किराए की बग्घी मंगवाई और अकेले सैर को निकली। दोनों खिड़कियां बंद कर दीं, लेकिन झंझरियों से झांकती जाती थी। छावनी की तरफ दूर तक इधर-उधर ताकती चली गई, लेकिन दोनों आदमियों में कोई भी न दिखाई पड़ा। वह कोचवान को क्वींस पार्क की तरफ चलने को कहना ही चाहती थी कि सदन घोड़े को दौड़ता आता दिखाई दिया। सुमन का हृदय उछलने लगा। ऐसा जान पड़ा, मानो इसे बरसों के बाद देखा है। स्थान के बदलने से कदाचित् प्रेम में नया उत्साह आ जाता है। उसका जी चाहा कि उसे आवाज दे, लेकिन जब्त कर गई। जब तक आंखों से ओझल न हुआ, उसे सतृष्ण प्रेम-दृष्टि से देखती रही। सदन के सर्वांगपूर्ण सौंदर्य पर वह कभी इतनी मुग्ध न हुई थी।
बग्घी क्वींस पार्क की ओर चली। यह पार्क शहर से दूर था। बहुत कम लोग इधर जाते थे। लेकिन पद्मसिंह का एकांत-प्रेम उन्हें यहां खींच लाता था। यहां विस्तृत मैदान में एक तकियेदार बेंच पर बैठे हुए घंटों विचार में मग्न रहते। ज्योंही बग्घी फाटक के भीतर आई, सुमन को शर्माजी मैदान में अकेले बैठे दिखाई दिए। सुमन का हृदय दीपशिखा की भांति थरथराने लगा। भय की इस दशा का ज्ञान पहले होता, तो वह यहां तक आ ही न सकती। लेकिन इतनी दूर आकर और शर्माजी को सामने बैठे देखकर, निष्काम लौट जाना मूर्खता थी। उसने जरा दूर पर बग्घी रोक दी और गाड़ी से उतरकर शर्माजी की ओर चली, उसी प्रकार जैसे शब्द वायु के प्रतिकूल चलता है।
शर्माजी कुतूहल से बग्घी देख रहे थे। उन्होंने सुमन को पहचाना नहीं। आश्चर्य हो रहा था कि यह कौन महिला इधर चली आती है। विचार किया कि कोई ईसाई लेडी होगी, लेकिन जब सुमन समीप आ गई, तो उन्होंने उसे पहचाना। एक बार उसकी ओर दबी आंखों से देखा, फिर जैसे हाथ-पांव फूल गए हों। जब सुमन सिर झुकाए हुए उनके सामने आकर खड़ी हो गई, तो वह झेंपे हुए दीनतापूर्ण नेत्रों से इधर-उधर देखने लगे, मानो छिपने के लिए कोई बिल ढूंढ़ रहे हों। तब अकस्मात वह लपककर उठे। और पीछे की ओर फिरकर वेग के साथ चलने लगे। सुमन पर जैसे वज्रपात हो गया। वह क्या आशा मन में लेकर आई थी और क्या आंखों से देख रही है। प्रभो, यह मुझे इतना नीच और अधम समझते हैं कि मेरी परछाईं से भी भागते हैं। वह श्रद्धा जो उसके हृदय में शर्माजी के प्रति उत्पन्न हो गई थी, क्षणमात्र में लुप्त हो गई। बोली– मैं आप ही से कुछ कहने आई हूं। जरा ठहरिए, मुझ पर इतनी कृपा कीजिए।
शर्माजी ने और भी तेजी से कदम बढ़ाया, जैसे कोई भूत से भागे। सुमन से यह अपमान न सहा गया। तीव्र स्वर में बोली– मैं आपसे कुछ मांगने नहीं आई हूं कि आप इतना डर रहे हैं। मैं आपको केवल यह कंगन देने आई हूं। यह लीजिए, अब मैं आप ही चली जाती हूं।
यह कहकर उसने कंगन निकालकर शर्माजी की तरफ फेंका।
सुमन बग्घी की तरफ कई कदम जा चुकी थी। शर्माजी उसके निकट आकर बोले– तुम्हें यह कंगन कहां मिला?
सुमन– अगर मैं आपकी बातें न सुनूं और मुंह फेरकर चली जाऊं, तो आपको बुरा न मानना चाहिए।
पद्मसिंह– सुमनबाई, मुझे लज्जित न करो। मैं तुम्हारे सामने मुंह दिखाने योग्य नहीं हूं।
सुमन– क्यों?
पद्मसिंह– मुझे बार-बार वेदना होती है कि अगर उस अवसर पर मैंने तुम्हें अपने घर से जाने के लिए न कहा होता, तो यह नौबत न आती।
सुमन– तो इसके लिए आपको लज्जित होने की क्या आवश्यकता है? अपने घर से निकालकर आपने मुझ पर बड़ी कृपा की, मेरा जीवन सुधार दिया।
शर्माजी इस ताने से तिलमिला उठे, बोले– अगर यह कृपा है, तो गजाधर पांडे और विट्ठलदास की है। मैं ऐसी कृपा का श्रेय नहीं चाहता।
सुमन– आप नेकी कर और दरिया में डाल, वाली कहावत पर चले, पर मैं तो मन में आपका एहसान मानती हूं। शर्माजी, मेरा मुंह न खुलवाइए, मन की बात मन में ही रहने दीजिए, लेकिन आप जैसे सहृदय मनुष्य से मुझे ऐसी निर्दयता की आशा न थी। आप चाहे समझते हों कि आदर और सम्मान की भूख बड़े आदमियों ही को होती है; किन्तु दीन दशावाले प्राणियों को इसकी भूख और भी अधिक होती है, क्योंकि उनके पास इसे प्राप्त करने का कोई साधन नहीं होता। वे इसके लिए चोरी, छल-कपट सब कुछ कर बैठते हैं। आदर में वह संतोष है, जो धन और भोग-विलास में भी नहीं है। मेरे मन में नित्य यही चिंता रहती थी कि यह आदर कैसे मिले। इसका उत्तर मुझे कितनी ही बार मिला, लेकिन आपके होलीवाले जलसे के दिन जो उत्तर मिला, उसने भ्रम दूर कर दिया। मुझे आदर और सम्मान का मार्ग दिखा दिया। यदि मैं उस जलसे में न आती, तो आज मैं अपने झोंपड़े में संतुष्ट होती। आपको मैं बहुत सच्चरित्र पुरुष समझती थी, इसलिए आपकी रसिकता का मुझ पर और भी प्रभाव पड़ा। भोलीबाई आपके सामने गर्व से बैठी हुई थी, आप उसके सामने आदर और भक्ति की मूर्ति बने हुए थे। आपके मित्र-वृंद उसके इशारों की कठपुलती की भाँति नाचते थे। एक सरल हृदय, आदर की अभिलाषिणी स्त्री पर इस दृश्य का जो फल हो सकता था, वही मुझ पर हुआ, पर अब उन बातों का जिक्र ही क्या? जो हुआ वह हुआ। आपको क्यों दोष दूँ? यह सब मेरा अपराध था। मैं...
सुमन और कुछ कहना चाहती थी, लेकिन शर्माजी ने, जो इस कथा को बड़े गंभीर भाव से सुन रहे थे, बात काट दी और पूछा– सुमन, ये बातें तुम मुझे लज्जित करने के लिए कह रही हो या सच्ची हैं?
सुमन– कह तो आपको लज्जित करने ही के लिए रही हूँ, लेकिन बातें सच्ची हैं। इन बातों को बहुत दिन हुए मैंने भुला दिया था, लेकिन इस समय आपने मेरी परछाईं से भी दूर रहने की चेष्टा करके वे सब बातें याद दिला दीं। अब मुझे स्वयं पछतावा हो रहा है, मुझे क्षमा कीजिए।
शर्माजी ने सिर न उठाया, फिर विचार में डूब गए। सुमन उन्हें धन्यवाद देने आई थी, लेकिन बातों का कुछ क्रम ऐसा बिगड़ा कि उसे इसका अवसर ही न मिला और अब अपनी अप्रिय बातों के बाद उसे अनुग्रह और कृपा की चर्चा असंगत जान पड़ी। वह अपनी बग्घी की ओर चली। एकाएक शर्माजी ने पूछा– और कंगन?
सुमन– यह मुझे कल सर्राफे में दिखाई दिया। मैंने बहूजी के हाथों में इसे देखा था, पहचान गई, तुरंत वहां से उठा लाई।
शर्माजी– कितना देना पड़ा।
सुमन– कुछ नहीं, उल्टे सर्राफ पर और धौस जमाई।
शर्माजी– सर्राफ का नाम बता सकती हो?
सुमन– नहीं, वचन दे आई हूँ– यह कहकर सुमन चली गई। शर्माजी कुछ देर तक तो बैठे रहे, फिर बेंच पर लेट गए। सुमन का एक-एक शब्द उनके कानों में गूंज रहा था। वह ऐसे चिंतामग्न हो रहे थे कि कोई उनके सामने आकर खड़ा हो जाता तो भी उन्हें खबर न होती। उनके विचारों ने उन्हें स्तंभित कर दिया था। ऐसा मालूम होता था, मानों उनके मर्मस्थान पर कड़ी चोट लग गई है, शरीर में एक शिथिलता-सी प्रतीत होती थी, वह एक भावुक मनुष्य थे। सुभद्रा अगर कभी हंसी में भी कोई चुभती हुई बात कह देती, तो कई दिनों तक वह उनके हृदय को मथती रहती थी। उन्हें अपने व्यवहार पर, आचार-विचार पर, अपने कर्त्तव्यपालन पर अभिमान था। आज वह अभिमान चूर-चूर हो गया। जिस अपराध को उन्होंनें पहले गजाधर और विट्ठालदास के सिर मढ़कर अपने को संतुष्ट किया था, वही आज सौगुने बोझ के साथ उनके सिर पर लद गया! सिर हिलाने की भी जगह न थी। वह इस अपराध से दबे जाते थे। विचार तीव्र होकर मूर्तिमान हो जाता है। कहीं बहुत दूर से उनके कान में आवाज आई, वह जलसा न होता तो आज मैं अपने झोंपड़े में मग्न होती।– इतने में हवा चली, पत्तियां हिलने लगीं, मानो वृक्ष अपने काले भयंकर सिरों को हिला-हिलाकर कहते थे, सुमन की यह दुर्गति तुमने की है।
शर्माजी घबराकर उठे। देर हो गई थी। सामने गिरजाघर का ऊंचा शिखर था उसमें घंटा बज रहा था। घंटे की सुरीली ध्वनि कह रही थी, सुमन की यह दुर्गित तुमने की।
शर्माजी ने बलपूर्वक विचारों को समेटकर आगे कदम बढ़ाया। आकाश पर दृष्टि पड़ी। काले पटल पर उज्ज्वल दिव्य अक्षरों में लिखा हुआ था, सुमन की यह दुर्गति तुमने की।
जैसे किसी चटैल मैदान में सामने से उमड़ी हुई काली घटाओं को देखकर मुसाफिर दूर के अकेले वृक्ष की ओर सवेग चलता है, उसी प्रकार शर्माजी लंबे-लंबे पग धरते हुए उस पार्क से आबादी की तरफ चले, किंतु विचार-चित्र को कहाँ छोड़ते? सुमन उनके पीछे-पीछे आती थी, कभी सामने आकर रास्ता रोक लेती और कहती, मेरी यह दुर्गति तुमने की है। कभी इस तरफ से, कभी उस तरफ से निकल आती और यही शब्द दुहराती। शर्माजी ने बड़ी कठिनाई से उतना रास्ता तय किया, घबराए और कमरे में मुंह ढांपकर पड़े रहे। सुभद्रा ने भोजन करने के लिए आग्रह किया, तो उसे सिर-दर्द का बहाना करके टाला। सारी रात सुमन उनके हृदय में बैठी हुई उन्हें कोसती रही, तुम विद्वान बनते हो, तुमको अपने बुद्धि-विवेक पर घमंड है, लेकिन तुम फूस के झोंपड़ों के पास बारूद की हवाई फुलझड़ियां छोड़ते हो। अगर तुम अपना धन फूंकना चाहते हो, तो जाकर मैदान में फूंको, गरीब-दुखियों का घर क्यों जलाते हो?
प्रातःकाल शर्माजी विट्ठलदास के घर जा पहुंचे।
20
सुभद्रा को संध्या के समय कंगन की याद आई। लपकी हुई स्नान-घर में गई। उसे खूब याद था कि उसने यहीं ताक पर रख दिया था, लेकिन उसका वहाँ पता न था। इस पर वह घबराई। अपने कमरे के प्रत्येक ताक और आलमारी को देखा, रसोई के कमरे में चारों ओर ढूंढ़ा, घबराहट और भी बढ़ी। फिर तो उसने एक-एक संदूक, एक-एक कोना मानों कोई सुई ढूंढ रही हो, लेकिन कुछ पता न चला। महरी से पूछा तो उसने बेटे की कसम खाकर कहा, मैं नहीं जानती। जीतन को बुलाकर पूछा। वह बोला– मालकिन, बुढ़ापे में यह दाग मत लगाओ। सारी उमर भले-भले आदमियों की चाकरी में ही कटी है, लेकिन कभी नीयत नहीं बिगड़ी, अब कितने दिन जीना है कि नीयत बद करूंगा।
सुभद्रा हताश हो गई, अब किससे पूछे? जी न माना, फिर संदूक, कपड़ों की गठरियां आदि खोल-खोलकर देखीं। आटे-दाल की हांडियां भी न छोड़ी, पानी के मटकों में हाथ डाल-डालकर टटोला। अंत में निराश होकर चारपाई पर लेट गई। उसने सदन को स्नानगृह में जाते देखा था, शंका हुई कि उसी ने हंसी में छिपाकर रखा हो, लेकिन उससे पूछने की हिम्मत न पड़ी। सोचा, शर्माजी घूमकर खाना खाने आएं तो उनसे कहूंगी। ज्योंही शर्माजी घर मे आए, सुभद्रा ने उनसे रिपोर्ट की। शर्माजी ने कहा– अच्छी तरह देखो, घर ही में होगा, ले कौन जाएगा?
सुभ्रदा– घर की एक-एक अंगुल जमीन छान डाली।
शर्माजी– नौकर से पूछो।
सुभद्रा– सबसे पूछा, दोनों कसम खाते हैं। मुझे खूब याद है कि मैंने उसे नहाने के कमरे में ताक पर रख दिया था।
शर्माजी– तो क्या उसके पर लगे थे, जो आप-ही-आप उड़ गया?
सुभद्रा– नौकरों पर तो मेरा संदेह नहीं है।
शर्माजी– तो दूसरा कौन ले जाएगा?
सुभद्रा– कहो तो सदन से पूछूं? मैंने उसे उस कमरे में जाते देखा था, शायद दिल्लगी के लिए छिपा रखा हो।
शर्माजी– तुम्हारी भी क्या समझ है! उसने छिपाया होता तो कह न देता?
सुभद्रा– तो पूछने में हर्ज ही क्या है? सोचता हो कि खूब हैरान करके बताऊंगा।
शर्माजी– हर्ज क्यों नहीं है? कहीं उसने न देखा हो तो समझेगा, मुझे चोरी लगाती हैं?
सुभ्रदा– उस कमरे में तो वह गया था। मैंने अपनी आंखों देखा।
शर्माजी– तो क्या वहां तुम्हारा कंगन उठाने गया था? बेबात-की-बात करती हो। उससे भूलकर भी न पूछना। एक तो वह ले ही न गया होगा, और ले भी गया होगा, तो आज नहीं कल दे देगा, जल्दी क्या है?
सुभद्रा– तुम्हारे जैसा दिल कहां से लाऊं? ढाढस तो हो जाएगी?
शर्माजी– चाहे जो कुछ हो, उससे कदापि न पूछना।
सुभद्रा उस समय तो चुप हो गई। लेकिन जब रात को चचा-भतीजे भोजन करने बैठे तो उससे रहा न गया। सदन से बोली– लाला, मेरा कंगन नहीं मिलता। छिपा रखा हो तो दे दो, क्यों हैरान करते हो?
सदन के मुख का रंग उड़ गया और कलेजा कांपने लगा। चोरी करके सीनाजोरी करने का ढंग न जानता था। उसके मुंह में कौर था, उसे चबाना भूल गया। इस प्रकार मौन हो गया कि मानों कुछ सुना ही नहीं। शर्माजी ने सुभद्रा की ओर ऐसे आग्नेय नेत्रों से देखा कि उसका रक्त सूख गया। फिर जबान खोलने का साहस न हुआ। फिर सदन ने शीघ्रतापूर्वक दो-चार ग्रास खाए और चौके से उठ गया।
शर्माजी बोले– यह तुम्हारी क्या आदत है कि मैं जिस काम को मना करता हूं, वह अदबदा के करती हो।
सुभद्रा– तुमने उसकी सूरत नहीं देखी? वही ले गया है, अगर झूठ निकल जाए तो जो चोर की सजा, वह मेरी।
शर्माजी– यह सामुद्रिक विद्या कब से सीखी?
सुभद्रा– उसकी सूरत से साफ मालूम होता था।
शर्माजी– अच्छा मान लिया, वही ले गया हो तो, कंगन की क्या हस्ती है, मेरा तो यह शरीर ही उसी का पाला है। वह अगर मेरी जान मांगे तो मैं दे दूं। मेरा सब कुछ उसका है, वह चाहे मांगकर ले जाए, चाहे उठा ले जाए।
सुभद्रा चिढ़कर बोली– तो तुमने गुलामी लिखवाई है, गुलामी करो, मेरी चीज कोई उठा ले जाएगा, तो मुझसे चुप न रहा जाएगा।
दूसरे दिन संध्या को जब शर्माजी सैर करके लौटे, तो सुभद्रा उन्हें भोजन करने के लिए बुलाने गई! उन्होंने कंगन उसके सामने फेंक दिया। सुभद्रा ने आश्चर्य से दौड़कर उठा लिया और पहचानकर बोली– मैंने कहा था न कि उन्होंने छिपाकर रखा होगा, वही बात निकली न?
शर्माजी– फिर वही बेसिर-पैर की बातें करती हो! इसे मैंने बाजार में एक सर्राफे की दुकान पर पाया है। तुमने सदन पर संदेह करके उसे भी दुःख पहुंचाया और अपने आपको भी कलुषित किया।
21
विट्ठलदास को संदेह हुआ कि सुमन तीस रुपए मासिक स्वीकार करना नहीं चाहती, इसलिए उसने कल उत्तर देने का बहाना करके मुझे टाला है। अतएव वे दूसरे दिन उसके पास नहीं गए, इसी चिंता में पड़े रहे कि शेष रुपयों का कैसे प्रबंध हो? कभी सोचते, दूसरे शहर में डेपूटेशन ले जाऊं, कभी कोई नाटक खेलने का विचार करते। अगर उनका वश चलता, तो इस शहर के सारे बड़े-बड़े धनाढ्य पुरुषों को जहाज में भरकर काले-पानी भेज देते। शहर में एक कुंवर अनिरुद्धसिंह सज्जन, उदार पुरुष रहा करते थे। लेकिन विट्ठलदास उनके द्वार तक जाकर केवल इसलिए लौट आए कि उन्हें वहां तबले की गमक सुनाई दी। उन्होंने सोचा, जो मनुष्य राग-रंग में इतना लिप्त है, वह इस काम में मेरी क्या सहायता करेगा? इस समय उनकी सहायता करना उनकी दृष्टि में सबसे बड़ा पुण्य और उनकी उपेक्षा करना सबसे बड़ा पाप था। वह इसी संकल्प-विकल्प में पड़े हुए थे कि सुमन के पास चलूं या न चलूं। इतने में पंडित पद्यसिंह आते हुए दिखाई दिए, आंखें चढ़ी हुईं, लाल और बदन मलिन था। ज्ञात होता था कि सारी रात जागे हैं। चिंता और ग्लानि की मूर्ति बने हुए थे। तीन महीने से विट्ठलदास उनके पास नहीं गए थे, उनकी ओर से हृदय फट गया था। लेकिन शर्माजी की यह दशा देखते ही पिघल गए और प्रेम से हाथ मिलाकर बोले– भाई साहब, उदास दिखाई देते हो, कुशल तो है?
शर्माजी– जी हां, सब कुशल ही है। इधर महीनों से आपसे भेंट नहीं हुई, मिलने को जी चाहता था। सुमन के विषय में क्या निश्चय किया?
विट्ठलदास– उसी चिंता में तो दिन-रात पड़ा रहता हूं। इतना बड़ा शहर है, पर तीस रुपए मासिक का प्रबंध नहीं हो सकता। मुझे ऐसा अनुमान होता है कि मुझे मांगना नहीं आता। कदाचित् मुझमें किसी के हृदय को आकर्षित करने की सामर्थ्य नहीं है। मैं दूसरों को दोष देता हूं, पर वास्तव में दोष मेरा ही है। अभी तक केवल दस रुपए का प्रबंध हो सका है। जितने रईस हैं, सबके सब पाषाण हृदय। अजी, रईसों की बात तो न्यारी रही, मि. प्रभाकर राव ने भी कोरा जवाब दिया। उनके लेखों को पढ़ो, तो मालूम होता है कि देशानुराग और दया के सागर हैं। होली के जलसे के बाद महीनों तक आप पर विष की वर्षा करते रहे, लेकिन कल जो उनकी सेवा में गया तो बोले, क्या जाति का सबसे बड़ा ऋणी मैं ही हूं? मेरे पास लेखनी है, उससे जाति की सेवा करता हूं। जिसके पास धन हो, वह धन से करे। उनकी बातें सुनकर चकित रह गया। नया मकान बनवा रहे हैं, कोयले की कंपनी में हिस्से खरीदे हैं, लेकिन इस जातीय काम से साफ निकल गए। अजी, और लोग जरा सकुचाते तो हैं उन्होंने तो उल्टे मुझी को आड़े हाथों लिया।
शर्माजी– आपको निश्चय है कि सुमनबाई पचास रुपए पर विधवाश्रम में चली आएंगी?
विट्ठलदास– हां, मुझे निश्चय है। यह दूसरी बात है कि आश्रम कमेटी उसे लेना पसंद न करे। तब कोई और प्रबंध करूंगा।
शर्माजी– अच्छा, तो लीजिए, आपकी चिंताओं का अंत किए देता हूं, मैं पचास रुपए मासिक देने पर तैयार हूं और ईश्वर ने चाहा तो आजन्म देता रहूंगा।
विट्ठलदास ने विस्मय से शर्माजी की तरफ देखा और कृतज्ञतापूर्वक उनके गले लिपटकर बोले– भाई साहब, तुम धन्य हो। इस समय तुमने वह काम किया है कि जी चाहता है, तुम्हारे पैरों पर गिरकर रोऊं। तुमने हिंदू जाति की लाज रख ली और सारे लखपतियों के मुंह पर कालिख लगा दी। लेकिन इतना बोझ कैसे संभालोगे?
शर्माजी– सब हो जाएगा, ईश्वर कोई-न-कोई राह अवश्य निकालेंगे ही।
विट्ठलदास– आजकल आमदनी अच्छी हो रही है क्या?
शर्माजी– आमदनी पत्थर हो रही है, घोड़ागाड़ी बेच दूंगा, तीस रुपए बचत यों हो जाएगी, बिजली का खर्च तोड़ दूंगा, दस रुपए यों निकल आएंगे, दस रुपए और इधर-उधर से खींच-खांचकर निकाल लूंगा।
विट्ठलदास– तुम्हारे ऊपर अकेले इतना बोझ डालते हुए मुझे कष्ट हो रहा है, पर क्या करूं, शहर के बड़े आदमियों से हारा हुआ हूं। गाड़ी बेच दोगे तो कचहरी कैसे जाओगे? रोज किराए की गाड़ी करनी पड़ेगी?
शर्माजी– जी नहीं, किराए की गाड़ी की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। मेरे भतीजे ने एक सब्जा घोड़ा ले रखा है, उसी पर बैठकर चला जाया करूंगा।
विटठलदास– अरे वही तो नहीं है, जो कभी-कभी शाम को चौक में घूमने निकला करता है?
शर्माजी– संभव है, वही हो।
विट्ठलदास– सूरत आपसे बहुत मिलती है, धारीदार सर्ज का कोट पहनता है, खूब हृष्ट-पुष्ट है, गोरा रंग, बड़ी-बड़ी आंखें, कसरती जवान है।
शर्माजी– जी हां, हुलिया तो आप ठीक बताते हैं। वही है।
विट्ठलदास– आप उसे बाजार में घूमने से रोकते क्यों नहीं?
शर्माजी– मुझे क्या मालूम, कहां घूमने जाता है। संभव है, कभी-कभी बाजार की तरफ चला जाता हो; लेकिन लड़का सच्चरित्र है, इसलिए मैंने कभी चिंता नहीं की।
विट्ठलदास– यह आपसे बड़ी भूल हुई। पहले वह चाहे जितना सच्चरित्र हो, लेकिन आजकल उसके रंग अच्छे नहीं हैं। मैंने उसे एक बार नहीं, कई बार वहां देखा है, जहां न देखना चाहिए था। सुमनबाई के प्रेमजाल में पड़ा हुआ मालूम होता है।
शर्माजी के होश उड़ गए। बोले– यह तो आपने बुरी खबर सुनाई। वह मेरे कुल का दीपक है। अगर वह कुपथ पर चला, तो मेरी जान ही पर बन जाएगी। मैं शरम के मारे भाई साहब को मुंह न दिखा सकूंगा।
यह कहते-कहते शर्माजी की आंखें सजल हो गईं। फिर बोले– महाशय उसे किसी तरह समझाइए। भाई साहब के कानों में इस बात की भनक भी गई, तो वह मेरा मुंह न देखेंगे।
विट्ठलदास– नहीं, उसे सीधे मार्ग पर लाने के लिए उद्योग किया जाएगा। मुझे आज तक मालूम ही न था कि वह आपका भतीजा है। मैं आज ही इस काम पर उतारू हो जाऊंगा और सुमन कल तक वहां से चली आई, तो वह आप ही संभल जाएगा।
शर्माजी– सुमन के चले आने से थोड़े ही बाजार खाली हो जाएगा। किसी दूसरी के पंजे में फंस जाएगा। क्या करूं, उसे घर भेज दूं?
विट्ठलदास– वहां अब वह रह चुका, पहले तो जाएगा ही नहीं, और गया भी तो दूसरे ही दिन भागेगा। यौवनकाल की दुर्वासनाएं बड़ी प्रबल होती हैं। कुछ नहीं, यह सब इसी कुप्रथा की करामात है, जिसने नगर के सार्वजनिक स्थानों को अपना कार्यक्षेत्र बना रखा है। यह कितना बड़ा अत्याचार है कि ऐसे मनोविकार पैदा करने वाले दृश्यों को गुप्त रखने के बदले हम उनकी दुकान सजाते हैं और अपने भोले-भाले सरल बालकों की कुप्रवृत्तियों को जगाते हैं। मालूम नहीं, यह कुप्रथा कैसे चली? मैं तो समझता हूं कि विषयी मुसलमान बादशाहों के समय इसका जन्म हुआ होगा। जहां ग्रंथालय, धर्मसभाएं और सुधारक संस्थाओं के स्थान होने चाहिए, वहां हम रूप का बाजार सजाते हैं। यह कुवासनाओं को नेवता देना नहीं तो क्या है? हम जान-बूझकर युवकों को गड्ढे में ढकेलते हैं। शोक!
शर्माजी– आपने इस विषय में कुछ आंदोलन तो किया था?
विट्ठलदास– हां, किया तो था, लेकिन जिस प्रकार आप एक बार मौखिक सहानुभूति प्रकट करके मौन साध गए, उसी प्रकार, अन्य सहायकों ने भी आनाकानी की, तो भाई, अकेला चना तो भाड़ नहीं फोड़ सकता? मेरे पास न धन है, न ऐश्वर्य है, न उच्च उपाधियां हैं, मेरी कौन सुनता है? लोग समझते हैं, बक्की है, नगर में इतने सुयोग्य, विद्वान् पुरुष चैन से सुख-भोग कर रहे हैं, कोई भूलकर भी मेरी नहीं सुनता।
शर्माजी शिथिल प्रकृति के मनुष्य थे। उन्हें कर्तव्य-क्षेत्र में लाने के लिए किसी प्रबल उत्तेजना की आवश्यकता थी। मित्रों की वाह-वाह जो प्रायः मनुष्य की सुप्तावस्था को भंग किया करती है, उनके लिए काफी न थी। वह सोते नहीं थे, जागते थे। केवल आलस्य के कारण पड़े हुए थे। इसलिए उन्हें जगाने के लिए चिल्लाकर पुकारने की इतनी जरूरत नहीं थी, जितनी किसी विशेष बात की। यह कितनी अनोखी लेकिन यथार्थ बात है कि सोए हुए मनुष्य को जगाने की अपेक्षा जागते हुए मनुष्य को जगाना कठिन है। सोता हुआ आदमी अपना नाम सुनते ही चौंककर उठ बैठता है, जागता हुआ मनुष्य सोचता है कि यह किसकी आवाज है? उसे मुझसे क्या काम है? इससे मेरा काम तो न निकल सकेगा? जब इन प्रश्नों का संतोषजनक उत्तर उसे मिलता है, तो वह उठता है, नहीं तो पड़ा रहता है। पद्यसिंह इन्हीं जागते हुए आलसियों में से थे। कई बार जातीय पुकार की ध्वनि उनके कानों में आई थी, किंतु वे सुनकर भी न उठे। इस समय जो पुकार उनके कानों में पहुंच रही थी, उसने उन्हें बलात् उठा दिया। अपने भतीजे को, जिसे वह पुत्र से भी बढ़कर प्यार करते थे, कुमार्ग से बचाने के लिए, अपने भाई की अप्रसन्नता का निवारण करने के लिए, वे सब कुछ कर सकते थे। जिस कुव्यवस्था का ऐसा भयंकर परिणाम हुआ उसके मूलोच्छेदन पर कटिबद्ध होने के लिए अन्य प्रमाणों की जरूरत न थी। बाल-विधवा-विवाह के घोर शत्रुओं को भी जब-तब उसका समर्थन करते देखा गया है। प्रत्यक्ष उदाहरण से प्रबल और कोई प्रमाण नहीं होता। शर्माजी बोले– यदि मैं आपके किसी काम न आ सकूं, तो आपकी सहायता करने को तैयार हूं।
विट्ठलदास उल्लसित होकर बोले– भाई साहब, अगर तुम मेरा हाथ बंटाओं तो मैं धरती और आकाश एक कर दूंगा लेकिन क्षमा करना, तुम्हारे संकल्प दृढ़ नहीं होते। अभी यों कहते हो, कल ही उदासीन हो जाओगे। ऐसे कामों में धैर्य की बड़ी जरूरत है।
शर्माजी लज्जित होकर बोले– ईश्वर चाहेगा तो अबकी आपको इसकी शिकायत न रहेगी।
विट्ठलदास– तब तो हमारा सफल होना निश्चित है।
शर्माजी– यह तो ईश्वर के हाथ है। मुझे न तो बोलना आता है, न लिखना आता है, बस आप जिस राह पर लगा देंगे, उसी पर आंख बंद किए चला जाऊंगा।
विट्ठलदास– अजी, सब आ जाएगा, केवल उत्साह चाहिए। दृढ़ संकल्प हवा में किले बना देता है। आपकी वक्तृताओं में तो वह प्रभाव होगा कि लोग सुनकर दंग हो जाएंगे। हां, इतना स्मरण रखिएगा कि हिम्मत नहीं हारनी चाहिए।
शर्माजी– आप मुझे संभाले रहिएगा।
विट्ठलदास– अच्छा तो अब मेरे उद्देश्य भी सुन लीजिए। मेरा पहला उद्देश्य है कि वेश्याओं को सार्वजनिक स्थान से हटाना और दूसरा, वेश्याओं के नाचने-गाने की रस्म को मिटाना। आप मुझसे सहमत हैं या नहीं?
शर्माजी– क्या अब भी कोई संदेह है?
विट्ठलदास– नाच के विषय में आपके ये विचार तो नहीं हैं?
शर्माजी– अब क्या एक घर जलाकर भी वही खेल खेलता रहूंगा। उन दिनों मुझे न जाने क्या हो गया था। मुझे अब यह निश्चय हो गया है कि मेरे उसी जलसे ने सुमनबाई को घर से निकाला! लेकिन यहां मुझे एक शंका होती है। आखिर हमलोगों ने भी तो शहरों ही में इतना जीवन व्यतीत किया है, हमलोग इन दुर्वासनाओं में क्यों नहीं पड़े? नाच भी तो शहर में आए दिन हुआ ही करते हैं, लेकिन उनका ऐसा भीषण परिणाम होते बहुत कम देखा गया है। इससे यही सिद्ध होता है कि इस विषय में मनुष्य का स्वभाव ही प्रधान है। आप इस आंदोलन से स्वभाव तो नहीं बदल सकते।
विट्ठलदास– हमारा यह उद्देश्य ही नहीं, हम तो केवल उन दशाओं का संशोधन करना चाहते हैं, जो दुर्बल स्वभाव के अनुकूल हैं और कुछ नहीं चाहते। कुछ मनुष्य जन्म ही से स्थूल होते हैं, उनके लिए खाने-पीने की किसी विशेष वस्तु की जरूरत नहीं। कुछ मनुष्य ऐसे होते हैं, जो घी-दूध आदि का इच्छापूर्वक सेवन करने से स्थूल हो जाते हैं और कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो सदैव दुबले रहते हैं, वह चाहे घी-दूध के मटके ही में रख दिए जाएं तो भी मोटे नहीं हो सकते। हमारा प्रयोजन केवल दूसरी श्रेणी के मनुष्यों से है। हम और आप जैसे मनुष्य क्या दुर्व्यसन में पड़ेंगे, जिन्हें पेट के धंधों से कभी छुट्टी ही नहीं मिली, जिन्हें कभी यह विश्वास ही नहीं हुआ कि प्रेम की मंडी में उनकी आवभगत होगी। वहां तो वह फंसते हैं, जो धनी हैं, रूपवान हैं, उदार हैं, रसिक हैं। स्त्रियों को अगर ईश्वर सुदंरता दे, तो धन से वंचित न रखे। धनहीन, सुंदर, चतुर स्त्री पर दुर्व्यसन का मंत्र शीघ्र ही चल जाता है।
22
सुमन पार्क से लौटी तो उसे खेद होने लगा कि मैंने शर्माजी को वे ही दुखानेवाली बातें क्यों कहीं उन्होंने इतनी उदारता से मेरी सहायता की, जिसका मैंने यह बदला दिया? वास्तव में मैंने अपनी दुर्बलता का अपराध उनके सिर मढ़ा। संसार में घर-घर नाच-गाना हुआ करता है, छोटे-बड़े, दीन-दुःखी सब देखते हैं और आनंद उठाते हैं। यदि मैं अपनी कुचेष्टाओं के कारण आग में कूद पड़ी, तो उसमें शर्माजी का या किसी और का क्या दोष? बाबू विट्ठलदास शहर के आदमियों के पास दौड़े, क्या वह उन सेठों के पास न गए होंगे जो यहां आते हैं? लेकिन किसी ने उनकी मदद न की, क्यों? इसलिए न की कि वे नहीं चाहते हैं कि मैं यहां से मुक्त हो जाऊं। मेरे चले जाने से उनकी काम-तृष्णा में विघ्न पड़ेगा। वे दयाहीन व्याघ्र के समान मेरे हृदय को घायल करके मेरे तड़पने का आनंद उठाना चाहते हैं। केवल एक ही पुरुष है, जिसने मुझे इस अंधकार से निकालने के लिए हाथ बढ़ाया, उसी का मैंने इतना अपमान किया।
मुझे मन में कितना कृतघ्न समझेंगे। वे मुझे देखते ही कैसे भागे, चाहिए तो यह था कि मैं लज्जा से वहीं गड़ जाती, केवल मैंने इस पापभय के लिए इतनी निर्लज्जता से उनका तिरस्कार किया! जो लोग अपने कलुषित भावों से मेरे जीवन को नष्ट कर रहे हैं, उनका मैं इतना आदर करती हूं! लेकिन जब व्याध पक्षी को अपने जाल में फंसते नहीं देखता, तो उसे उस पर कितना क्रोध आता है! बालक जब कोई अशुद्ध वस्तु छू लेता है, तो वह अन्य बालकों को दौड़-दौड़कर छूना चाहता है, जिससे वह भी अपवित्र हो जाएं। क्या मैं भी हृदय शून्य व्याध हूं या अबोध बालक?
किसी ग्रंथकार से पूछिए कि वह एक निष्पक्ष समालोचक के कटुवाक्यों के सामने विचारहीन प्रशंसा का क्या मूल्य समझता है। सुमन को शर्माजी की यह घृणा अन्य प्रेमियों की रसिकता से अधिक प्रिय मालूम होती थी।
रात-भर वह इन्हीं विचारों में डूबी रही। मन में निश्चय कर लिया कि प्रातःकाल विट्ठलदास के पास चलूंगी और उनसे कहूंगी कि मुझे आश्रय दीजिए। मैं आपसे कोई सहायता नहीं चाहती, केवल एक सुरक्षित स्थान चाहती हूं। चक्की पीसूंगी, कपड़े सीऊंगी और किसी तरह अपना निर्वाह कर लूंगी।
सबेरा हुआ। वह उठी और विट्ठलदास के घर चलने की तैयारी करने लगी कि इतने में वह स्वयं आ पहुंचे। सुमन को ऐसा आनंद हुआ, जैसे किसी भक्त को आराध्यदेव के दर्शन से होता है। बोली– आइए महाशय। मैं कल दिन-भर आपकी राह देखती रही।
विट्ठलदास– कल कई कारणों से नहीं आ सका।
सुमन– तो आपने मेरे रहने का कोई प्रबंध किया?
विट्ठलदास– मुझसे तो कुछ नहीं हो सका, लेकिन पद्मसिंह ने लाज रख ली। उन्होंने तुम्हारा प्रण पूरा कर दिया। वह अभी मेरे पास आए थे और वचन दे गए हैं कि तुम्हें पचास रुपए मासिक आजन्म देते रहेंगे।
सुमन के विस्मयपूर्ण नेत्र सजल हो गए। शर्माजी की इस महती उदारता ने उसके अंतःकरण को भक्ति, श्रद्धा और विमल प्रेम से प्लावित कर दिया। उसे अपने कटु वाक्यों पर अत्यंत क्षोभ हुआ। बोली– शर्माजी दया और धर्म के सागर हैं। इस जीवन में उनसे उऋण नहीं हो सकती। ईश्वर उन्हें सदैव सुखी रखे। लेकिन मैंने उस समय जो कुछ कहा था, वह केवल परीक्षा के लिए था। मैं देखना चाहती थी कि सचमुच मुझे उबारना चाहते हैं या केवल धर्म का शिष्टाचार कर रहे हैं। अब मुझे विदित हो गया कि आप दोनों सज्जन देवरूप हैं। आप लोगों को वृथा कष्ट नहीं देना चाहती। मैं सहानुभूति की भूखी थी, वह मुझे मिल गई। अब मैं अपने जीवन का भार आप लोगों पर नहीं डालूंगी। आप केवल मेरे रहने का कोई प्रबंध कर दें, जहां मैं विघ्न-बाधा से बची रह सकूं।
विट्ठलदास चकित हो गए। जातीय गौरव से आंखें चमक उठीं। उन्होंने सोचा, हमारे देश की पतित स्त्रियों के विचार भी ऐसे उच्च होते हैं। बोले– सुमन, तुम्हारे मुंह से ऐसे पवित्र शब्द सुनकर मुझे इस समय जो आनंद हो रहा है, उसका वर्णन नहीं कर सकता। लेकिन रुपयों के बिना तुम्हारा निर्वाह कैसे होगा?
सुमन– मैं परिश्रम करूंगी। देश में लाखों दुखियाएं हैं, उनका ईश्वर के सिवा और कौन सहायक है? अपनी निर्लज्जता का कर आपसे न लूंगी।
विट्ठलदास– वे कष्ट तुमसे सहे जाएंगे?
सुमन– पहले नहीं सहे जाते थे, लेकिन अब सब कुछ सह लूंगी। यहां आकर मुझे मालूम हो गया कि निर्लज्जता सब कष्टों से दुस्सह है। और कष्टों से शरीर को दुःख होता है, इस कष्ट से आत्मा का संहार हो जाता है। मैं ईश्वर को धन्यवाद देती हूं कि उसने आप लोगों को मेरी रक्षा के लिए भेज दिया।
विट्ठलदास– सुमन, तुम वास्तव में विदुषी हो।
सुमन– तो मैं यहां से कब चलूं?
विट्ठलदास– आज ही। अभी मैंने आश्रम की कमेटी में तुम्हारे रहने का प्रस्ताव नहीं किया है, लेकिन कोई हरज नहीं है, तुम वहां चलो, ठहरो। अगर कमेटी ने कुछ आपत्ति की तो देखा जाएगा हां, इतना याद रखना कि अपने विषय में किसी से कुछ मत कहना, नहीं तो विधवाओं में हलचल मच जाएगी।
सुमन– आप जैसा उचित समझें करें, मैं तैयार हूं।
विट्ठलदास– संध्या समय चलना होगा।
विट्ठलदास के जाने के थोड़ी ही देर बाद दो वेश्याएं सुमन से मिलने आईं। सुमन ने कह दिया, मेरे सिर में दर्द है। सुमन अपने ही हाथ से भोजन बनाती थी। पतित होकर भी वह खान-पान में विचार करती थी। आज उसने व्रत करने का निश्चय किया था। मुक्ति के दिन कैदियों को भी भोजन अच्छा नहीं लगता।
दोपहर दो धाड़ियों का गोल आ पहुंचा। सुमन ने उन्हें भी बहाना करके टाला। उसे अब उनकी सूरत से घृणा होती थी। सेठ बलभद्रदास के यहां से नागपुरी संतरे की एक टोकरी आई, उसे सुमन ने तुरंत लौटा दिया। चिम्मनलाल ने चार बजे अपनी फिटन सुमन के सैर करने को भेजी। उसने उसको भी लौटा दिया।
जिस प्रकार अंधकार के बाद अरुण का उदय होते ही पक्षी कलरव करने लगते हैं और बछड़े किलोलों में मग्न हो जाते हैं, उसी प्रकार सुमन के मन में भी क्रीड़ा करने की प्रबल इच्छा हुई। उसने सिगरेट की एक डिबिया मंगवाई और वार्निश की एक बोतल मंगवाकर ताक पर रख दी और एक कुर्सी का एक पाया तोड़कर कुर्सी छज्जे पर दीवार के सहारे रख दी। पांच बजते-बजते मुंशी अबुलवफा का आगमन हुआ। यह हजरत सिगरेट बहुत पीते थे। सुमन ने आज असाधारण रीति से उनकी आवभगत की और इधर-उधर की बातें करने के बाद बोली– आइए, आज आपको वह सिगरेट पिलाऊं कि आप भी याद करें।
अबुलवफा– नेकी और पूछ-पूछ!
सुमन– देखिए, एक अंग्रेजी दुकान से खास आपकी खातिर मंगवाया है। यह लीजिए।
अबुलवफा– तब तो मैं भी अपना शुमार खुशनसीबों में करूंगा। वाह रे मैं, वाह रे मेरे साजे जिगर की तासीर।
अबुलवफा ने सिगरेट मुंह में दबाया। सुमन ने दियासलाई की डिबिया निकाल कर एक सलाई रंगड़ी। अबुलवफा ने सिगरेट को जलाने के लिए मुंह आगे बढ़ाया, लेकिन न मालूम कैसे आग सिगरेट में न लगकर उनकी दाढ़ी में लग गई। जैसे पुआल जलता है, उसी तरह एक क्षण में दाढ़ी आधी से ज्यादा जल गई, उन्होंने सिगरेट फेंककर दोनों हाथों से दाढ़ी मलना शुरू किया। आग बुझ गई, मगर दाढ़ी का सर्वनाश हो चुका था। आईने में लपककर मुंह देखा। दाढ़ी का भस्मावशेष उबाली हुई सुथनी के रेशे की तरह मालुम हुआ। सुमन ने लज्जित होकर कहा– मेरे हाथों में आग लगे। कहां-से-कहां मैंने दियासलाई जलाई।
उसने बहुत रोका, पर हंसी ओठ पर आ गई। अबुलवफा ऐसे खिसियाए हुए थे, मानों अब वह अनाथ हो गए। सुमन की हंसी अखर गई। उस भोंड़ी सूरत पर खेद और खिसियाहट का अपूर्व दृश्य था। बोले– यह कब की कसर निकाली?
सुमन– मुंशीजी, मैं सच कहती हूं, ये दोनों आंखें फूट जाएं अगर मैंने जान-बूझकर आग लगाई हो। आपसे बैर भी होता, तो दाढ़ी बेचारी ने मेरा क्या बिगाड़ा था?
अबुलवफा– माशूकों की शोखी और शरारत अच्छी मालूम होती है, लेकिन इतनी नहीं कि मुंह जला दें। अगर तुमने आग से कहीं दाग दिया होता, तो इससे अच्छा था। अब यह भुन्नास की-सी सूरत लेकर मैं किसे मुंह दिखाऊंगा? वल्लाह! आज तुमने मटियामेट कर दिया।
सुमन– क्या करूं, खुद पछता रही हूं। अगर मेरे दाढी होती तो आपको दे देती। क्यों, नकली दाढ़ियां भी तो मिलती हैं?
अबुलवफा– सुमन, जख्म पर नमक न छिड़को। अगर दूसरे ने यह हरकत की होती, तो आज उसका खून पी जाता।
सुमन– अरे, तो थोड़े-से बाल ही जल गए न और कुछ। महीने-दो-महीने में फिर निकल आएंगे। जरा-सी बात के लिए आप इतनी हाय-हाय मचा रहे हैं।
अबुलवफा– सुमन, जलाओ मत, नहीं तो मेरी जबान से भी कुछ निकल जाएगा। मैं इस वक्त आपे में नहीं हूं।
सुमन– नारायण, नारायण, जरा-सी दाढ़ी पर इतने जामे के बाहर हो गए! मान लीजिए, मैंने जानकर ही दाढ़ी जला दी तो? आप मेरी आत्मा को, मेरे धर्म को, मेरे हृदय को रोज जलाते हैं, क्या उनका मूल्य आपकी दाढ़ी से कम है? मियां, आशिक बनना मुंह का नेवाला नहीं है। जाइए, अपने घर की राह लीजिए, अब कभी यहाँ न आइएगा। मुझे ऐसे छिछोरे आदमियों की जरूरत नहीं है।
अबुलवफा ने क्रोध से सुमन की ओर देखा, तब जेब से रुमाल निकाला और जली हुई दाढ़ी को उसकी आड़ में छिपाकर चुपके से चले गए। यह वही मनुष्य है, जिसे खुले बाजार एक वेश्या के साथ आमोद-प्रमोद में लज्जा नहीं आती थी।
अब सदन के आने का समय हुआ। सुमन आज उससे मिलने के लिए बहुत उत्कंठित थी। आज यह अंतिम मिलाप होगा। आज यह प्रेमाभिनय समाप्त हो जाएगा। वह मोहिनी-मूर्ति फिर देखने को न मिलेगी। उनके दर्शनों को नेत्र तरस-तरस रहेंगे। वह सरल प्रेम से भरी हुई मधुर बातें सुनने में न आएंगी। जीवन फिर प्रेमविहीन और नीरस हो जाएगा। कलुषित सही, पर यह प्रेम सच्चा था। भगवान मुझे यह वियोग सहने की शक्ति दीजिए। नहीं, इस समय सदन न आए तो अच्छा है, उससे न मिलने में ही कल्याण है। कौन जाने उसके सामने मेरा संकल्प स्थिर रह सकेगा या नहीं। पर वह आ जाता तो एक बार दिल खोलकर उससे बातें कर लेतीं, उसे इस कपट सागर में डूबने से बचाने की चेष्टा करती।
इतने में सुमन ने विट्ठलदास को एक किराए की गाड़ी में से उतरते देखा। उसका हृदय वेग से धड़कने लगा।
एक क्षण में विट्ठलदास ऊपर आ गए और बोले– अरे, अभी तुमने कुछ तैयारी नहीं की।
सुमन– मैं तैयार हूं।
विट्ठलदास– अभी बिस्तरे तक नहीं बंधे?
सुमन– यहां की कोई वस्तु साथ न ले जाऊंगी, यह वास्तव में मेरा पुनर्जन्म हो रहा है।
विट्ठलदास– इस सामान का क्या होगा?
सुमन– आप इसे बेचकर किसी शुभ कार्य में लगा दीजिएगा।
विट्ठलदास– अच्छी बात है, मैं यहां ताला डाल दूंगा। तो अब उठो, गाड़ी मौजूद है।
सुमन– दस बजे से पहले नहीं चल सकती। आज मुझे अपने प्रेमियों से विदा होना है। कुछ उनकी सुननी है, कुछ अपनी कहनी है। आप तब तक छत पर जाकर बैठिए, मुझे तैयार ही समझिए।
विट्ठलदास को बुरा मालूम हुआ, पर धैर्य से काम लिया। ऊपर जाकर खुली हुई छत पर टहलने लगे।
सात बज गए, लेकिन सदन न आया। आठ बजे तक सुमन उसकी राह देखती रही, अंत में वह निराश हो गई। जब से वह यहां आने लगा, आज ही उसने नागा किया। सुमन को ऐसा मालूम होता था, मानो वह किसी निर्जन स्थान में खो गई है। हृदय में एक अत्यंत तीव्र किंतु सरल, वेदनापूर्ण किंतु मनोहारी आकाक्षां का उद्वेग हो रहा था। मन पूछता था, उनके न आने का क्या कारण है? किसी अनिष्ट की आशंका ने उसे बेचैन कर दिया।
आठ बजे सेठ चिम्मनलाल आए। सुमन उनकी गाड़ी देखते ही छज्जे पर जा बैठी। सेठजी बहुत कठिनाई से ऊपर आए और हांफते हुए बोले– कहां हो देवी, आज बग्घी क्यों लौटा दी? क्या मुझसे कोई खता हो गई?
सुमन– यहीं छज्जे पर चले आइए, भीतर कुछ गर्मी मालूम होती है। आज सिर में दर्द था, सैर करने को जी नहीं चाहता था।
चिम्मनलाल– हिरिया को मेरे यहां क्यों नहीं भेज दिया, हकीम साहब से कोई नुस्खा तैयार करा देता। उनके पास तेलों के अच्छे-अच्छे नुस्खे हैं।
यह कहते हुए सेठजी कुर्सी पर बैठे, लेकिन तीन टांग की कुर्सी उलट गई, सेठजी का सिर नीचे हुआ और पैर ऊपर, और वह एक कपड़े की गांठ के समान औंधे मुंह लेट गए। केवल एक बार मुंह से ‘अरे’ निकला और फिर वह कुछ न बोले। जड़ ने चैतन्य को परास्त कर दिया।
सुमन डरी कि चोट ज्यादा आ गई। लालटेन लाकर देखा, तो हंसी न रुक सकी।
सेठजी ऐसे असाध्य पड़े थे, मानों पहाड़ से गिर पड़े हैं। पड़े-पड़े बोले– हाय राम, कमर टूट गई। जरा मेरे साईस को बुलवा दो, घर जाऊंगा।
सुमन– चोट बहुत आ गई क्या? आपने भी तो कुर्सी खींच ली, दीवार से टिककर बैठते तो कभी न गिरते। अच्छा, क्षमा कीजिएगा, मुझी से भूल हुई कि आपको सचेत न कर दिया। लेकिन आप जरा भी न संभले, बस गिर ही पड़े।
चिम्मनलाल– मेरी तो कमर टूट गई, और तुम्हें मसखरी सूझ रही है।
सुमन– तो अब इसमें मेरा क्या वश है? अगर आप हल्के होते, तो उठाकर बैठा देती। जरा खुद ही जोर लगाइए, अभी उठ बैठिएगा।
चिम्मनलाल– अब मेरा घर पहुंचना मुश्किल है। हाय! किस बुरी साइत से चले थे, जीने पर से उतरने में पूरी सांसत हो जाएगी। बाईजी, तुमने यह कब का बैर निकाला?
सुमन– सेठजी, मैं बहुत लज्जित हूं।
चिम्मनलाल– अजी रहने भी दो, झूठ-मूठ की बातें बनाती हो। तुमने मुझे जानकर गिराया।
सुमन– क्या आपसे मुझे कोई बैर था? और आपसे बैर हो भी, तो आपकी बेचारी कमर ने मेरा क्या बिगाड़ा था?
चिम्मनलाल– अब यहां आनेवाले पर लानत है।
सुमन– सेठजी, आप इतनी जल्दी नाराज हो गए। मान लीजिए, मैंने जानबूझकर ही आपको गिरा दिया, तो क्या हुआ?
इतने में विट्ठलदास ऊपर से उतर आए। उन्हें देखते ही सेठजी चौंक पड़े। घड़ों पानी पड़ गया।
विट्ठलदास ने हंसी को रोककर पूछा– कहिए सेठजी, आप यहां कैसे आ फंसे? मुझे आपको यहां देखकर बड़ा आश्चर्य होता है।
चिम्मनलाल– इस घड़ी न पूछिए। फिर यहां आऊं तो मुझ पर लानत है। मुझे किसी तरह यहां से नीचे पहुंचाइए।
विट्ठलदास ने एक हाथ थामा, साईस ने आकर कमर पकड़ी। इस तरह लोगों ने उन्हें किसी तरह जीने से उतारा और लाकर गाड़ी में लिटा दिया।
ऊपर आकर विट्ठलदास ने कहा– गाड़ीवाला अभी तक खड़ा है, दस बज गए। अब विलंब न करो।
सुमन ने कहा– अभी एक काम और करना है। पंडित दीनानाथ आते होंगे। बस, उनसे निपट लूं। आप थोड़ा-सा कष्ट और कीजिए।
विट्ठलदास ऊपर जाकर बैठे ही थे कि पंडित दीनानाथ आ पहुंचे। बनारसी साफा सिर पर था, बदन पर रेशमी अचकन शोभायमान थी। काले किनारे की महीन धोती और काली वार्निश के पंप जूते उनके शरीर पर खूब जंचते थे।
सुमन ने कहा– आइए महाराज! चरण छूती हूं।
दीनानाथ– आशीर्वाद, जवानी बढ़े, आंख के अंधे गांठ के पूरे फंसे, सदा बढ़ती रहो।
सुमन– कल आप कैसे नहीं आए, समाजियों को लिए रात तक आपकी राह देखती रही।
दीनानाथ– कुछ न पूछो, कल एक रमझल्ले में फंस गया था। डॉक्टर श्यामाचरण और प्रभाकर राव स्वराज्य की सभा में घसीट ले गए। वहां बकझक-झकझक होती रही। मुझसे सबने व्याख्यान देने को कहा। मैंने कहा, मुझे कोई उल्लू समझा है क्या? पीछा छुड़ाकर भागा। इसी में देरी हो गई।
सुमन– कई दिन हुए, मैंने आपसे कहा था कि किवाड़ों में वार्निश लगवा दीजिए। आपने कहा, वार्निश कहीं मिलती ही नहीं। यह देखिए, आज मैंने एक बोतल वार्निश मंगा रखी है। कल जरूर लगवा दीजिए।
पंडित दीनानाथ मसनद लगाए बैठे थे। उनके सिर पर ही वह ताक था, जिस पर वार्निश रखी हुई थी। सुमन ने बोतल उठाई, लेकिन मालूम नहीं, कैसे बोतल की पेंदी अलग हो गई और पंडितजी वार्निश से नहा उठे। ऐसा मालूम होता था, मानो शीरे की नांद में फिसल पड़े हों। वह चौंककर खड़े हुए और साफा उतारकर रुमाल से पोंछने लगे।
सुमन ने कहा– मालूम नहीं, बोतल टूटी थी क्या– सारी वार्निश खराब हो गई।
दीनानाथ– तुम्हें अपनी वार्निश की पड़ी है, यहां सारे कपड़े तर हो गए। अब घर तक पहुंचना मुश्किल है।
सुमन– रात को कौन देखता है, चुपके से निकल जाइएगा।
दीनानाथ– अजी, रहने भी दो, सारे कपड़े सत्यानाश कर दिए, अब उपाय बता रही हो। अब यह धुल भी नहीं सकते।
सुमन– तो क्या मैंने जान-बुझकर गिरा दिया।
दीनानाथ– तुम्हारे मन का हाल कौन जाने?
सुमन– अच्छा जाइए, जानकर ही गिरा दिया।
दीनानाथ– अरे, तो मैं कुछ कहता हूं, जी चाहे और गिरा दो।
सुमन– बहुत होगा अपने कपड़ों की कीमत ले लीजिएगा।
दीनानाथ– खफा क्यों होती हो, सरकार? मैं तो कह रहा हूं, गिरा दिया, अच्छा किया।
सुमन– इस तरह कह रहे हैं, मानों मेरे साथ बड़ी रियायत कर रहे हैं।
दीनानाथ– सुमन, क्यों लज्जित करती हो?
सुमन– जरा-सा कपड़े खराब हो गए, उस पर ऐसे जामे से बाहर हो गए, यही आपकी मुहब्बत है, जिसकी कथा सुनते-सुनते मेरे कान पक गए। आज उसकी कलई खुल गई। जादू सिर पर चढ़के बोला। आपने अच्छे समय पर मुझे सचेत कर दिया। अब कृपा करके घर जाइए। यहां फिर न आइएगा। मुझे आप जैसे मियां मिट्ठुओं की जरूरत नहीं।
विट्ठलदास ऊपर बैठे हुए कौतुक देख रहे थे। समझ लिया कि अब अभिनय समाप्त हो गया। नीचे उतर आए। दीनानाथ ने चौंककर उन्हें देखा और छड़ी उठाकर शीघ्रतापूर्वक नीचे चले आए।
थोड़ी देर बाद सुमन ऊपर से उतरी। वह केवल एक उजली साड़ी पहने थी, हाथों में चूड़ियां तक न थीं। उसका मुख उदास था, लेकिन इसलिए नहीं कि यह भोग-विलास अब उससे छूट रहा है, वरन् इसलिए कि वह अग्निकुंड में गिरी क्यों थी। इस उदासीनता में मलिनता न थी, वरन् एक प्रकार का संयम था। यह किसी मदिरा-सेवी मुख पर छानेवाली उदासी नहीं थी, बल्कि उसमें त्याग और विचार आभासित हो रहा था।
विट्ठलदास ने मकान में ताला डाल दिया और गाड़ी के कोच-बक्स पर जा बैठे। गाड़ी चली।
बाजारों की दुकानें बंद थीं, लेकिन रास्ता चल रहा था। सुमन ने खिड़की से झांककर देखा। उसे आगे लालटेनों की एक सुंदर माला दिखाई दी। लेकिन ज्यों-ज्यों गाड़ी बढ़ती जाती थी, त्यों-त्यों वह प्रकाशमाला भी आगे बढ़ती जाती थी। थोड़ी दूर पर लालटेनें मिलती थीं, पर वह ज्योतिर्माला अभिलाषाओं के सदृश दूर भागती जाती थी।
गाड़ी वेग से जा रही थी। सुमन का भावी जीवन-यान भी विचार-सागर में वेग के साथ हिलता, डगमगाता, तारों के ज्योतिर्जाल में उलझता चला जाता था।
23
सदन प्रातःकाल घर गया, तो अपनी चाची के हाथों में कंगन देखा। लज्जा से उसकी आंखें जमीन में गड़ गईं। नाश्ता करके जल्दी से बाहर निकल आया और सोचने लगा, यह कंगन इन्हें कैसे मिल गया?
क्या यह संभव है कि सुमन ने उसे यहां भेज दिया हो? वह क्या जानती है कि कंगन किसका है? मैंने तो उसे अपना पता भी नहीं बताया। यह हो सकता है कि यह उसी नमूने का दूसरा कंगन हो, लेकिन इतनी जल्दी वह तैयार नहीं हो सकता। सुमन ने अवश्य ही मेरा पता लगा लिया है और चाची के पास यह कंगन भेज दिया है।
सदन ने बहुत विचार किया। किंतु हर प्रकार से वह इस परिणाम पर पहुंचता था। उसने फिर सोचा। अच्छा, मान लिया जाए कि उसे मेरा पता मालूम हो गया, तो क्या यह उचित था कि वह मेरी दी हुई चीज को यहां भेज देती? यह तो एक प्रकार का विश्वासघात है?
अगर सुमन ने मेरा पता लगा लिया है, तब तो वह मुझे मन में धूर्त, पाखंडी, जालिया समझती होगी? कंगन को चाची के पास भेजकर उसने यह भी साबित कर दिया कि वह मुझे चोर समझती है।
आज संध्या समय सदन को सुमन के पास जाने का साहस न हुआ। चोर, दगाबाज बनकर उसके पास कैसे जाए? उसका चित्त खिन्न था, घर पर बैठना बुरा मालूम होता था। उसने यह सब सहा, पर सुमन के पास न जा सका।
इस भांति एक सप्ताह बीत गया। सुमन से मिलने की उत्कंठा नित्य प्रबल होती जाती थी और शंकाएं इस उत्कंठा को दबाती जाती थी। संध्या समय उसकी दशा उन्मत्तों की-सी हो जाती। जैसे बीमारी के बाद मनुष्य का चित्त उदास रहता है, किसी से बातें करने को जी नहीं चाहता, उठना-बैठना पहाड़ हो जाता है, जहां बैठता है, वहीं का हो जाता है, वही दशा इस समय सदन की थी।
अंत को वह अधीर हो गया। आठवें दिन उसने घोड़ा कसाया और सुमन से मिलने चला। उसने निश्चय कर लिया था कि आज चलकर उससे अपना सारा कच्चा चिट्ठा बयान कर दूंगा। जिससे प्रेम हो गया, उससे अब छिपाना कैसा! हाथ जोड़कर कहूंगा, सरकार बुरा हूं तो, भला हूं तो, अब आपका सेवक हूं। चाहे जो दंड दो, सिर तुम्हारे सामने झुका हुआ है। चोरी की, चाहे दगा किया, सब तुम्हारे प्रेम के निमित्त किया, अब क्षमा करो।
विषय– वासना, नीति, ज्ञान और संकोच किसी के रोके नहीं रुकती। उसके नशे में हम सब बेसुध हो जाते हैं।
वह व्याकुल होकर पांच बजे निकल पड़ा और घूमता हुआ नदी के तट पर आ पहुंचा। शीतल, मंद वायु उसके तपते हुए शरीर को अत्यंत सुखद मालूम होती थी और जल की निर्मल, श्याम, सुवर्ण धारा में रह-रहकर उछलती हुई मछलियां ऐसी मालूम होती थीं, मानों किसी सुंदरी के चंचल नयन महीन घूंघट से चमकते हों।
सदन घोड़े से उतरकर कगार पर बैठ गया और इस मनोहर दृश्य को देखने में मग्न हो गया। अकस्मात् उसने एक जटाधारी साधु को पेड़ों की आड़ से अपनी तरफ आते देखा। उसके गले में रुद्राक्ष की माला थी और नेत्र लाल थे। ज्ञान और योग की प्रतिभा की जगह उसके मुख से एक प्रकार की सरलता और दया प्रकट होती थी। उसे अपने निकट देखकर सदन ने उठकर सत्कार किया।
साधु ने इस ढंग से उसका हाथ पकड़ लिया, मानो उससे परिचय है और बोला– सदन, मैं कई दिन से तुमसे मिलना चाहता था। तुम्हारे हित की एक बात कहना चाहता हूं। तुम सुमनबाई के पास जाना छोड़ दो, नहीं तो तुम्हारा सर्वनाश हो जाएगा। तुम नहीं जानते, वह कौन है? प्रेम के नशे में तुम्हें उसके दूषण नहीं दिखाई देते। तुम समझते हो कि वह तुमसे प्रेम करती है। किंतु यह तुम्हारी भूल है। जिसने अपने पति को त्याग दिया वह दूसरों से क्या प्रेम निभा सकती है? तुम इस समय वहीं जा रहे हो। साधु का वचन मानो, घर लौट जाओ, इसी में तुम्हारा कल्याण है।
यह कहकर वह महात्मा जिधर से आए थे, उधर ही चल दिए और इससे पूर्व कि सदन उनसे कुछ जिज्ञासा करने के लिए सावधान हो सके, वह आंखों से ओझल हो गए।
सदन सोचने लगा, यह महात्मा कौन है? यह मुझे कैसे जानते है? मेरे गुप्त रहस्यों का इन्हें कैसे ज्ञान हुआ? कुछ उस स्थान की नीरवता, कुछ अपने चित्त की स्थिति, कुछ महात्मा के आकस्मिक आगमन और उनकी अंर्तदृष्टि ने उनकी बातों को आकाशवाणी के तुल्य बना दिया। सदन के मन में किसी भावी अमंगल की आशंका उत्पन्न हो गई। उसे सुमन के पास जाने का साहस न हुआ। वह घोड़े पर बैठा और इस आश्चर्यजनक घटना की विवेचना करता घर की तरफ चल दिया।
जब से सुभद्रा ने सदन पर अपने कंगन के विषय में संदेह किया था, तब से पद्मसिंह उससे रुष्ट हो गए थे। इसलिए सुभद्रा का यहां अब जी न लगता था। शर्माजी भी इसी फिक्र में थे कि सदन को किसी तरह यहां से घर भेज दूं। अब सदन का चित्त भी यहां से उचाट हो रहा था। वह भी घर जाना चाहता था, लेकिन कोई इस विषय में मुंह न खोल सकता था पर दूसरे ही दिन पंडित मदनसिंह के एक पत्र ने उन सबकी इच्छाएं पूरी कर दीं। उसमें लिखा था, सदन के विवाह की बातचीत हो रही है। सदन को बहू के साथ तुरंत भेज दो।
सुभद्रा यह सूचना पाकर बहुत प्रसन्न हुई। सोचने लगी, महीने-दो महीने चहल-पहल रहेगी, गाना-बजाना होगा, चैन से दिन कटेंगे। इस उल्लास को मन में छिपा न सकी। शर्माजी उसकी निष्ठुरता देखकर और भी उदास हो गए। मन में कहा, इसे अपने आनंद के आगे कुछ भी ध्यान नहीं है। एक या दो महीनों में फिर मिलाप होगा, लेकिन यह कैसी खुश है?
सदन ने भी चलने की तैयारी कर दी। शर्माजी ने सोचा था कि वह अवश्य हीला-हवाला करेगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
इस समय आठ बजे थे। दो बजे दिन को गाड़ी जाती थी। इसलिए शर्माजी कचहरी न गए। कई बार प्रेम से विवश होकर घर में गए। लेकिन सुभद्रा को उनसे बातचीत करने की फुरसत कहां? वह अपने गहने-कपड़े और मांग-चोटी में मग्न थी। कुछ गहने खटाई में पड़े थे, कुछ महरी साफ कर रही थी। पानदान मांजा जा रहा था। पड़ोस की कई स्त्रियां बैठी हुई थीं। सुभद्रा ने आज खुशी में खाना नहीं खाया।
पूड़ियां बनाकर शर्माजी और सदन के लिए बाहर ही भेज दीं।
यहां तक कि एक बज गया। जीतन ने गाड़ी लाकर द्वार पर खड़ी कर दी। सदन ने अपने ट्रंक और बिस्तर आदि रख दिए। उस समय सुभद्रा को शर्माजी की याद आई, महरी से बोली– जरा देख तो कहां हैं। बुला ला। उसने बाहर आकर देखा। कमरे में झांका, नीचे जाकर देखा, शर्माजी का पता न था। सुभद्रा ताड़ गई। बोली– जब तक वह न आएंगे, मैं न जाऊंगी। शर्माजी कहीं बाहर न गए थे। ऊपर छत पर जाकर बैठे थे। जब एक बज गया और सुभद्रा न निकली, तब वह झुंझलाकर घर में गए और सुभद्रा से बोले– अभी तक तुम यहीं हो? एक बज गया।
सुभद्रा की आंखों में आंसू भर आए। चलते-चलते शर्माजी की यह रुखाई अखर गई। शर्माजी अपनी निष्ठुरता पर पछताए। सुभद्रा के आंसू पोंछे, गले से लगाया और लाकर गाड़ी में बैठा दिया।
स्टेशन पर पहुंचे, गाड़ी छूटने ही वाली थी। सदन दौड़कर गाड़ी में जा बैठा। सुभद्रा बैठने भी न पाई थी कि गाड़ी छूट गई। वह खिड़की पर खड़ी शर्माजी को ताकती रही और जब तक वह आंखों से ओझल न हुए, वह खिड़की पर से न हटी।
संध्या समय गाड़ी ठिकाने पर पहुंची। मदनसिंह पालकी और घोड़ा लिए स्टेशन पर मौजूद थे। सदन ने दौड़कर पिता के चरण-स्पर्श किए।
ज्यों-ज्यों गांव निकट आता था, सदन की व्यग्रता बढ़ती जाती थी, जब गाँव आध मील दूर रह गया और धान के खेत की मेड़ों पर घोड़े को दौड़ाना कठिन जान पड़ा तो वह उतर पड़ा और वेग के साथ गांव की तरफ चला। आज उसे अपना गांव बहुत सुनसान मालूम होता था। सूर्यास्त हो गया था। किसान बैलों को हांकते खेतों से चले आते थे। सदन किसी से कुछ न बोला– सीधे अपने घर में चला गया और माता के चरण छुए। माता ने छाती से लगाकर आशीर्वाद दिया।
भामा– वे कहां रह गईं?
सदन– आती हैं, मैं सीधे खेतों में से चला आया।
भामा– चाचा-चाची से जी भर गया न?
सदन– क्यों?
भामा– वह तो चेहरा ही कहे देता है।
सदन– वाह, मैं तो मोटा हो गया हूं।
भामा– झूठें, चाची ने दानों को तरसा दिया होगा।
सदन– चाची ऐसी नहीं है। यहां से मुझे बहुत आराम था। वहां दूध अच्छा मिलता था।
भामा– तो रुपए क्यों मांगते थे?
सदन– तुम्हारे प्रेम की थाह ले रहा था। इतने दिन में तुमसे पचीस रुपए ही लिए न! चाचा से सात सौ ले चुका। चार सौ का तो एक घोड़ा ही लिया। रेशमी कपड़े बनवाए, शहर में रईस बना घूमता था। सबेरे चाची ताजा हलवा बना देती थीं। उस पर सेर भर दूध, तीसरे पहर मेवे और मिठाइयां। मैंने वहां जो चैन किया, वह कभी न भूलूंगा।
मैंने भी सोचा कि अपनी कमाई में तो चैन कर चुका, इस अवसर पर क्यों चूकूं, सभी शौक पूरे कर लिए।
भामा को ऐसा अनुमान हुआ कि सदन की बातों में कुछ निरालापन आ गया है। उनमें कुछ शहरीपन आ गया है।
सदन ने अपने नागरिक जीवन का उस उत्साह से वर्णन किया, जो युवाकाल का गुण है।
सरल भामा का हृदय सुभद्रा की ओर से निर्मल हो गया।
दूसरे दिन प्रातःकाल गांव के मान्य पुरुष निमंत्रित हुए और उनके सामने सदन का फलदान चढ़ गया।
सदन की प्रेम-लालसा इस समय ऐसी प्रबल हो रही थी कि विवाह की कड़ी धर्म-बेड़ी को सामने लखकर भी वह चिंतित न हुआ। उसे सुमन से जो प्रेम था, उसमें तृष्णा का ही आधिक्य था। सुमन उसके हृदय में रहकर भी उसके जीवन का आधार न बन सकती थी। सदन के पास यदि कुबेर का धन होता, तो वह सुमन को अर्पण कर देता। वह अपने जीवन के संपूर्ण सुख उसकी भेंट कर सकता था, किंतु अपने दुःख से, विपति से, कठिनाइयों से, नैराश्य से वह उसे दूर रखता था। उसके साथ वह सुख का आनंद उठा सकता था, लेकिन दुःख का आनंद नहीं उठा सकता था। सुमन पर उसे वह विश्वास कहां था, जो प्रेम का प्राण है! अब वह कपट प्रेम के मायाजाल से मुक्त हो जाएगा। अब उसे बहु रूप धरने की आवश्यकता नहीं। अब वह प्रेम को यथार्थ रूप में देखेगा और यथार्थ रूप में दिखाएगा। यहां उसे वह अमूल्य वस्तु मिलेगी, जो सुमन के यहां किसी प्रकार नहीं मिल सकती थी। इन विचारों ने सदन को इस नए प्रेम के लिए लालायित कर दिया। अब उसे केवल यही संशय था कि कहीं वधू रूपवती न हुई तो? रूप-लावण्य प्राकृतिक गुण है, जिसमें कोई परिवर्तन नहीं हो सकता। स्वभाव एक उपार्जित गुण है; उसमें शिक्षा और सत्संग से सुधार हो सकता है। सदन ने इस विषय में ससुराल के नाई से पूछ-ताछ करने की ठानी; उसे खूब भंग पिलाई, खूब मिठाइयां खिलाईं। अपनी एक धोती उसको भेंट की। नाई ने नशे में आकर वधू की ऐसी लंबी प्रशंसा की; उसके नख-शिख का ऐसा चित्र खींचा कि सदन को इस विषय में कोई संदेह न रहा। यह नख-शिख सुमन में बहुत कुछ मिलता था। अतएव सदन नवेली दुलहिन का स्वागत करने के लिए और भी उत्सुक हो गया।
24
यह बात बिल्कुल तो असत्य नहीं है कि ईश्वर सबको किसी-न-किसी हीले से अन्न-वस्त्र देता है। पंडित उमानाथ बिना किसी हीले ही के संसार का सुख-भोग करते थे। उनकी आकाशी वृत्ति थी। उनके भैंस और गाएं न थीं, लेकिन घर में घी-दूध की नदी बहती थी; वह खेती-बारी न करते थे, लेकिन घर में अनाज की खत्तियां भरी रहती थीं। गांव में कहीं मछली मरे, कहीं बकरा कटे, कहीं आम टूटे, कहीं भोज हो, उमानाथ का हिस्सा बिना मांगे आप-ही-आप पहुंच जाता। अमोला बड़ा गांव था। ढाई-तीन हजार जनसंख्या थी। समस्त गांव में उनकी सम्मति के बिना कोई काम न होता था। स्त्रियों को यदि गहने बनवाने होते तो वह उमानाथ से कहतीं। लड़के-लड़कियों के विवाह उमानाथ की मार्फत तय होते। रेहननामें, बैनामें, दस्तावेज उमानाथ ही के परामर्श से लिखे जाते। मुआमिले-मुकद्दमें उन्हीं के द्वारा दायर होते और मजा यह था कि उनका यह दबाव और सम्मान उनकी सज्जनता के कारण नहीं था। गांववालों के साथ उनका व्यवहार शुष्क और रूखा होता था। वह बेलाग बात करते थे, लल्लो-चप्पो करना नहीं जानते थे, लेकिन उनके कटु वाक्यों को लोग दूध के समान पीते थे। मालूम नहीं, उनके स्वभाव में क्या जादू था। कोई कहता था, यह उनका इकबाल है, कोई कहता था उन्हें महावीर का इष्ट है। लेकिन हमारे विचार में यह उनके मानव-स्वभाव के ज्ञान का फल था। जानते थे कि कहां झुकना और कहां तनना चाहिए। गांवोंवालों से तनने में अपना काम सिद्ध होता था, अधिकारियों से झुकने में। थाने और तहसील के अमले, चपरासी से लेकर तहसीलदार तक सभी उन पर कृपादृष्टि रखते थे। तहसीलदार साहब के लिए वह वर्षफल बनाते, डिप्टी साहब को भावी उन्नति की सूचना देते। कानूनगो और कुर्कअमीन उनके द्वार पर बिना बुलाए मेहमान बने रहते। किसी को यंत्र देते, किसी को भगवद्गीता सुनाते और जिन लोगों की श्रद्धा इन बातों पर न थी, उन्हें मीठे आचार और नवरत्न की चटनी खिलाकर प्रसन्न रखते। थानेदार साहब उन्हें अपना दाहिना हाथ समझते थे। जहां ऐसे उनकी दाल न गलती वहां पंडितजी की बदौलत पांचों उंगलियां घी में हो जातीं। भला, ऐसे पुरुष की गांव वाले क्यों न पूजा करते?
उमानाथ को अपनी बहन गंगाजली से प्रेम था, लेकिन गंगाजली को मैके जाने के थोड़े ही दिनों पीछे ज्ञात हुआ कि भाई का प्रेम भावज की अवज्ञा के सामने नहीं ठहर सकता। उमानाथ बहन को अपने घर लाने पर मन में बहुत पछताते। वे अपनी स्त्री को प्रसन्न रखने के लिए ऊपरी मन से उसकी हां में हां मिला दिया करते। गंगाजली को साफ कपड़े पहनने का क्या अधिकार है? शान्ता का पालन पहले चाहे कितने ही लाड़-प्यार से हुआ हो, अब उसे उमानाथ की लड़कियों से बराबरी करने का क्या अधिकार है? उमानाथ स्त्री की इन द्वेषपूर्ण बातों को सुनते और उनका अनुमोदन करते। गंगाजली को जब क्रोध आता, तो वह उसे अपने भाई ही पर उतारती। वह समझती थी कि वे अपनी स्त्री को बढ़ावा देकर मेरी दुर्गति करा रहे हैं। ये अगर उसे डांट देते तो मजाल थी कि वह यों मेरे पीछे पड़ जाती? उमानाथ को जब अवसर मिलता, तो वह गंगाजली को एकांत में समझा दिया करते। किंतु एक तो जाह्नवी उन्हें ऐसे अवसर मिलने ही न देती, दूसरे गंगाजली को भी उनकी सहानुभूति पर विश्वास न आता।
इस प्रकार एक वर्ष बीत गया। गंगाजली चिंता, शोक और निराशा से बीमार पड़ गई। उसे बुखार आने लगा। उमानाथ ने पहले तो साधारण औषधियां सेवन कराईं, लेकिन जब कुछ लाभ न हुआ, तो उन्हें चिंता हुई। एक रोज उनकी स्त्री किसी पड़ोसी के घर गई हुई थी, उमानाथ बहन के कमरे में गए। वह बेसूध पड़ी हुई थी, बिछावन चिथड़ा हो रहा था, साड़ी फटकर तार-तार हो गई थी। शान्ता उसके पास बैठी पंखा झल रही थी। यह करुणाजनक दृश्य देखकर उमानाथ रो पड़े। यही बहन है, जिसकी सेवा के लिए दो दासियां लगी हुई थीं, आज उसकी यह दशा हो रही है। उन्हें अपनी दुर्बलता पर अत्यंत ग्लानि उत्पन्न हुई। गंगाजली के सिरहाने बैठकर रोते हुए बोले– बहन, यहां लाकर मैंने तुम्हें बड़ा कष्ट दिया है। नहीं जानता था कि उसका यह परिणाम होगा। मैं आज किसी वैद्य को ले आता हूं। ईश्वर चाहेंगे तो तुम शीघ्र ही अच्छी हो जाओगी।
इतने में जाह्नवी भी आ गई, ये बातें उसके कान में पड़ी। बोली– हां-हां, दौड़ो, वैद्य को बुलाओ, नहीं तो अनर्थ हो जाएगा। अभी पिछले दिनों मुझे महीनों ज्वर आता रहा, तब वैद्य के पास न दौड़े। मैं भी ओढ़कर पड़ रहती, तो तुम्हें मालूम होता कि इसे कुछ हुआ है, लेकिन मैं कैसे पड़ रहती? घर की चक्की कौन पीसती? मेरे कर्म में क्या सुख भोगना बदा है?
उमानाथ का उत्साह शांत हो गया। वैद्य को बुलाने की हिम्मत न पड़ी। वे जानते थे कि वैद्य बुलाया, तो गंगाजली को जो दो-चार महीने जीने हैं, वह भी न जी सकेगी।
गंगाजली की अवस्था दिनोंदिन बिगड़ने लगी। यहां तक कि उसे ज्वरतिसार हो गया। जीने की आशा न रही। जिस उदर में सागू के पचाने की भी शक्ति न थी, वह जौ की रोटियां कैसे पचाता? निदान उसका जर्जर शरीर इन कष्टों को और अधिक न सह कहा। छः मास बीमार रहकर वह दुखिया अकाल मृत्यु का ग्रास बन गई।
शान्ता का अब इस संसार में कोई न था। सुमन के पास उसने दो पत्र लिखे, लेकिन वहां से कोई जवाब न गया। शान्ता ने समझा, बहन ने भी नाता तोड़ लिया। विपत्ति में कौन साथी होता है? जब तक गंगाजली जीती थी, शान्ता उसके अंचल में मुंह छिपाकर रो लिया करती थी। अब यह अवलंब भी न रहा। अंधे के हाथ से लकड़ी जाती रही। शान्ता जब-तब अपनी कोठरी के कोने में मुंह छिपाकर रोती; लेकिन घर के कोने और माता के अंचल में बड़ा अंतर है। एक शीतल जल का सागर है, दूसरा मरुभूमि।
शान्ता को अब शांति नहीं मिलती। उसका हृदय अग्नि के सदृश दहकता रहता है वह अपनी मामी और मामा को अपनी माता का घातक समझती है। जब गंगाजली जीती थी, तब शान्ता उसे कटू वाक्यों से बचाने के लिए यत्न करती रहती थी, वह अपनी मामी के इशारों पर दौड़ती थी, जिससे वह माता को कुछ न कह बैठे। एक बार गंगाजली के हाथ से घी की हांडी गिर पड़ी थी। शान्ता ने मामी से कहा था, यह मेरे हाथ से छूट पड़ी। इस पर उसने खूब गालियां खाईं। वह जानती थी कि माता का हृदय व्यंग्य की चोटें नहीं सह सकता।
लेकिन अब शान्ता को इसका भय नहीं है। वह निराधार होकर बलवती हो गई है। अब वह इतनी सहनशील नहीं है; उसे जल्द क्रोध आ जाता है। वह जली-कटी बातों का बहुधा उत्तर भी दे देती है। उसने अपने हृदय को कड़ी-से-कड़ी यंत्रणा के लिए तैयार कर लिया है। मामा से वह दबती है, लेकिन मामी से नहीं दबती और ममेरी बहनों को तो वह तुरकी-बतुरकी जवाब देती है। अब शान्ता वह गाय है जो हत्या-भय के बल पर दूसरे का खेत चरती है।
इस तरह एक वर्ष और बीत गया, उमानाथ ने बहुत दौड़-धूप की कि उसका विवाह कर दूं, लेकिन जैसा सस्ता सौदा वह करना चाहते थे, वह कहीं ठीक न हुआ। उन्होंने थाने-तहसील में जोड़-तोड़ लगाकर दो सौ रुपए का चंदा कर लिया था। मगर इतने सस्ते वर कहां? जाह्नवी का वश चलता, तो वह शान्ता को किसी भिखारी के यहां बांधकर अपना पिंड छु़ड़ा लेती, लेकिन उमानाथ ने अबकी, पहली बार उसका विरोध किया और सुयोग्य वर ढूंढ़ते रहे। गंगाजली के बलिदान ने उनकी आत्मा को बलवान बना दिया।
2
सार्वजनिक संस्थाएं भी प्रतिभाशाली मनुष्य की मोहताज होती हैं। यद्यपि विट्ठलदास के अनुयायियों की कमी न थी, लेकिन उनमें प्रायः सामान्य अवस्था के लोग थे। ऊंची श्रेणी के लोग उनसे दूर भागते थे। पद्मसिंह के सम्मिलित होते ही इस संस्था में जान पड़ गई। नदी की पतली धार उमड़ पड़ी। बड़े आदमियों में उनकी चर्चा होने लगी। लोग उन पर कुछ-कुछ विश्वास करने लगे।
पद्मसिंह अकेले न आए। बहुधा किसी काम को अच्छा समझकर भी हम उसमें हाथ लगाते हुए डरते हैं, नक्कू बन जाने का भय लगा रहता है, हम बड़े आदमियों के आ मिलने की राह देखा करते हैं। ज्यों ही किसी ने रास्ता खोला, हमारी हिम्मत बंध जाती है, हमको हंसी का डर नहीं रहता। अकेले हम अपने घर में भी डरते हैं, दो होकर जंगलों में भी निर्भय रहते हैं। प्रोफेसर रमेशदत्त, लाला भगतराम और मिस्टर रुस्तम भाई गुप्त रूप से विट्ठलदास की सहायता करते रहते थे। अब वह खुल पड़े। सहायकों की संख्या दिनोंदिन बढ़ने लगी।
विट्ठलदास सुधार के विषय में मृदुभाषी बनना अनुचित समझते थे, इसलिए उनकी बातें अरुचिकर न होती थीं। मीठी नींद सोने वालों को उनका कठोर नाद अप्रिय लगता था। विट्ठलदास को इसकी चिंता न थी।
पद्यसिंह धनी मनुष्य थे। उन्होंने बड़े उत्साह से वेश्याओं को शहर के मुख्य स्थानों से निकालने के लिए आंदोलन करना शुरू किया। म्युनिसिपैलिटी के अधिकारियों में दो-चार सज्जन विट्ठलदास के भक्त भी थे। किंतु वे इस प्रस्ताव को कार्यरूप में लाने के लिए यथेष्ट साहस न रखते थे। समस्या इतनी जटिल थी, उसकी कल्पना ही लोगों में भयभीत कर देती थी। वे सोचते थे कि इस प्रस्ताव को उठाने से न मालूम शहर में क्या हलचल मचे। शहर के कितने ही रईस, कितने ही राज्य-पदाधिकारी, कितने ही सौदागर इस प्रेम-मंडी से संबंध रखते थे। कोई ग्राहक था, कोई पारखी, उन सबसे बैर मोल लेने का कौन साहस करता? म्युनिसिपैलिटी के अधिकारी उनके हाथों में कठपुतली के समान थे।
पद्मसिंह ने मेंबरों से मिल-मिलाकर उनका ध्यान इस प्रस्ताव की ओर आकर्षित किया। प्रभाकर राव की तीव्र लेखनी ने उनकी बड़ी सहायता की। पैंफलेट निकाले गए और जनता को जाग्रत करने के लिए व्याख्यानों का क्रम बांधा गया। रमेशदत्त और पद्यसिंह इस विषय में निपुण थे। इसका भार उन्होंने अपने सिर ले लिया। अब आंदोलन ने एक नियमित रूप धारण किया।
पद्मसिंह ने यह प्रस्ताव उठा तो दिया, लेकिन वह इस पर जितना ही विचार करते थे, उतने ही अंधकार में पड़ जाते थे। उन्हें ये विश्वास न होता था कि वेश्याओं के निर्वासन से आशातीत उपकार हो सकेगा। संभव है, उपकार के बदले अपकार हो। बुराइयों का मुख्य उपचार मनुष्य का सद्ज्ञान है। इसके बिना कोई उपाय सफल नहीं हो सकता। कभी-कभी वह सोचते-सोचते हताश हो जाते। लेकिन इस पक्ष के एक समर्थक बनकर वे आप संदेह रखते हुए भी दूसरों पर इसे प्रकट न करते थे। जनता के सामने तो उन्हें सुधारक बनते हुए संकोच न होता था, लेकिन अपने मित्रों और सज्जनों के सामने वह दृढ़ न रह सकते थे। उनके सामने आना शर्माजी के लिए बड़ी कठिन परीक्षा थी। कोई कहता, किस फेर में पड़ गए हो, विट्ठलदास के चक्कर में तुम भी आ गए? चैन से जीवन व्यतीत करो। इन सब झमेलों में क्यों व्यर्थ पड़ते हो? कोई कहता, यार मालूम होता है, तुम्हें किसी औरत ने चरका दिया है, तभी तुम वेश्याओं के पीछे इस तरह से पड़े हो। ऐसे मित्रों के सामने आदर्श और उपकार की बातचीत करना अपने को बेवकूफ बनाना है।
व्याख्यान देते हुए भी जब शर्माजी कोई भावपूर्ण बात कहते, करुणात्मक दृश्य दिखाने की चेष्टा करते, तो उन्हें शब्द नहीं मिलते थे, और शब्द मिलते तो उन्हें निकालते हुए शर्माजी को बड़ी लज्जा आती थी। यथार्थ में वह इस रस में पगे नहीं थे। वह जब अपने भावशैथिल्य की विवेचना करते तो उन्हें ज्ञात होता था कि मेरा हृदय प्रेम और अनुराग खाली है।
कोई व्याख्यान समाप्त कर चुकने पर शर्माजी को यह जानने की उतनी इच्छा नहीं होती थी कि श्रोताओं पर इसका क्या प्रभाव पड़ा; जितनी इसकी कि व्याख्यान सुंदर, सप्रमाण और ओजपूर्ण था या नहीं।
लेकिन इन समस्याओं के होते हुए भी यह आंदोलन दिनोंदिन बढ़ता जाता था। यह सफलता शर्माजी के अनुराग और विश्वास से कुछ कम उत्साहवर्धक न थी।
सदनसिंह के विवाह को अभी दो मास थे। घर की चिंताओं से मुक्त होकर शर्माजी अपनी पूरी शक्ति से इस आंदोलन में प्रवृत्त हो गए। कचहरी के काम में उनका जी न लगता। वहां भी वे प्रायः इन्हीं चिंताओं में पड़े रहते। एक ही विषय पर लगातार सोचते-विचारते रहने से उस विषय से प्रेम हो जाया करता है। धीरे-धीरे शर्माजी के हृदय में प्रेम का उदय होने लगा।
लेकिन जब यह विवाह निकट आ गया, तो शर्माजी का उत्साह कुछ क्षीण होने लगा। मन में यह समस्या उठी कि भैया यहां वेश्याओं के लिए अवश्य ही मुझे लिखेंगे, उस समय मैं क्या करूंगा? नाच के बिना सभा सूनी रहेगी, दूर-दूर के गांवों से लोग नाच देखने आएंगे, नाच न देखकर उन्हें निराशा होगी, भाई साहब बुरा मानेंगे, ऐसी अवस्था में मेरा क्या कर्त्तव्य है? भाई साहब को इस कुप्रथा से रोकना चाहिए! लेकिन क्या मैं इस दुष्कर कार्य में सफल हो सकूंगा? बड़ों के सामने न्याय और सिद्धांत की बातचीत असंगत-सी जान पड़ती है। भाई साहब के मन में बड़े-बड़े हौसले हैं, इन हौसलों को पूरे होने में कुछ भी कसर रही तो उन्हें दुःख होगा। लेकिन कुछ भी हो, मेरा कर्त्तव्य यही है कि अपने सिद्धांत का पालन करूं।
यद्यपि उनके इस सिद्धांत-पालन से प्रसन्न होने वालों की संख्या बहुत कम थी और अप्रसन्न होने वाले बहुत थे, तथापि शर्माजी ने इन्हीं गिने-गिनाए मनुष्यों को प्रसन्न रखना उत्तम समझा। उन्होंने निश्चय कर लिया कि नाच न ठीक करूंगा। अपने घर से ही सुधार न कर सका, तो दूसरों को सुधारने की चेष्टा करना बड़ी भारी धूर्तता है।
यह निश्चय करके शर्माजी बारात की सजावट के सामान जुटाने लगे। वह ऐसे आनंदोत्सवों में किफायत करना अनुचित समझते थे। इसके साथ ही वह अन्य सामग्रियों के बाहुल्य से नाच की कसर पूरी करना चाहते थे, जिससे उन पर किफायत का अपराध न लगे।
एक दिन विट्ठलदास ने कहा– इन तैयारियों में आपने कितना खर्च किया?
शर्माजी– इसका हिसाब लौटने पर होगा।
विट्ठलदास– तब भी दो हजार से कम तो न होगा।
शर्माजी– हां, शायद कुछ इससे अधिक ही हो।
विट्ठलदास– इतने रुपए आपने पानी में डाल दिए। किसी शुभ कार्य में लगा देते, तो कितना उपकार होता? अब आप सरीखे विचारशील पुरुष धन को यों नष्ट करते हैं, तो दूसरों से क्या आशा की जा सकती है?
शर्माजी– इस विषय में मैं आपसे सहमत नहीं हूं। जिसे ईश्वर ने दिया हो, उसे आनंदोत्सव में दिल खोलकर व्यय करना चाहिए। हां, ऋण लेकर नहीं, घर बेचकर नहीं, अपनी हैसियत देखकर। हृदय का उमंग ऐसे ही अवसर पर निकलता है।
विट्ठलदास– आपकी समझ में डाक्टर श्यामाचरण की हैसियत दस-पांच हजार रुपए खर्च करने की है या नहीं?
शर्माजी– इससे बहुत अधिक है।
विट्ठलदास– मगर अभी अपने लड़के के विवाह में उन्होंने बाजे-गाजे, नाच-तमाशे में बहुत कम खर्च किया।
शर्माजी– हां, नाच तमाशे में अवश्य कम खर्च किया, लेकिन इसकी कसर डिनर पार्टी में निकल गई; बल्कि अधिक। उनकी किफायत का क्या फल हुआ? जो धन गरीब बाजे वाले, फुलवारी बनाने वाले, आतिशबाजी वाले पाते, वह ‘मुरे-कंपनी’ और ‘ह्वाइट वे कंपनी’ के हाथों में पहुंच गया। मैं इसे किफायत नहीं कहता, यह अन्याय है।
26
रात के नौ बजे थे। पद्मसिंह भाई के साथ बैठे हुए विवाह के संबंध में बातचीत कर रहे थे। कल बारात जाएगी। दरवाजे पर शहनाई बज रही थी और भीतर गाना हो रहा था।
मदनसिंह– तुमने जो गाड़ियां भेजी हैं; वह कल शाम तक अमोला पहुंच जाएंगी?
पद्यसिंह– जी नहीं, दोपहरी तक पहुंच जानी चाहिए। अमोला विंध्याचल के निकट है। आज मैंने दोपहर से पहले ही उन्हें रवाना कर दिया।
मदनसिंह– तो यहां से क्या-क्या ले चलने की आवश्यकता होगी?
पद्मसिंह– थोड़ा-सा खाने-पीने का सामान ले चलिए। और सब कुछ मैंने ठीक कर दिया है।
मदनसिंह– नाच कितने पर ठीक हुआ? दो ही गिरोह हैं न?
पद्मसिंह डर रहे थे कि अब नाच की बात आया ही चाहती है। यह प्रश्न सुनकर लज्जा से उनका सिर झुक गया। कुछ दबकर बोले– नाच को मैंने नहीं ठीक किया।
मदनसिंह चौंक पड़े, जैसे किसी ने चुटकी काट ली हो, बोले– धन्य हो महाराज। तुमने तो डोंगा ही डुबा दिया। फिर तुमने जनवासे का क्या सामान किया है? क्यों, फुरसत ही नहीं मिली या खर्च से हिचक गए? मैंने तो इसीलिए चार दिन पहले ही तुम्हें लिख दिया था। जो मनुष्य ब्राह्मण को नेवता देता है, वह उसे दक्षिणा देने की भी सामर्थ्य रखता है। अगर तुमको खर्च का डर था तो मुझे साफ-साफ लिखते, मैं यहां से भेज देता। अभी नारायण की दया से किसी का मोहताज नहीं हूं। अब भला बताओ तो क्या प्रबंध हो सकता है? मुंह में कालिख लगी कि नहीं? एक भलेमानस के दरवाजे पर जा रहे हो, वह अपने मन में क्या कहेगा? दूर-दूर से उसके संबंधी आए होंगे, दूर-दूर के गांवों के लोग बारात में आएंगे, वह अपने मन में क्या कहेंगे? राम-राम!
मुंशी बैजनाथ गांव के आठ आने के हिस्सेदार थे। मदनसिंह की ओर मार्मिक दृष्टि से देखकर बोले-मन में नहीं जनाब, खोल-खोलकर कहेंगे, गालियां देंगे। कहेंगे कि नाम बड़े दर्शन थोड़े, और सारे संसार में निंदा होने लगेगी। नाच के बिना जनवासा ही क्या? कम-से-कम मैंने तो कभी नहीं देखा। शायद भैया को ख्याल ही नहीं रहा, या मुमकिन है, लगन की तेजी से इंतजाम न हो सका हो?
पद्मसिंह ने डरते हुए कहा– यह बात नहीं है...
मदनसिंह– तो फिर क्या है? तुमने अपने मन में यही सोचा होगा कि सारा बोझ मेरे ही सिर पर पड़ेगा, पर मैं तुमसे सत्य कहता हूं, मैंने इस विचार से तुम्हें नहीं लिखा था। मैं दूसरों के माथे फुलौड़ियां खाने को नहीं दौड़ता।
पद्मसिंह अपने भाई की यही कर्णकटु बातें न सह सके। आंखें भर आईं।
बोले– भैया, ईश्वर के लिए आप मेरे संबंध में ऐसा विचार न करें। यदि मेरे प्राण भी आपके काम में आ सकें, तो मुझे आपत्ति न होगी। मुझे यह हार्दिक अभिलाषा रहती है कि आपकी कोई सेवा कर सकूं। यह अपराध मुझसे केवल इस कारण हुआ कि आजकल शहर में लोग नाच की प्रथा बुरी समझने लगे हैं। शिक्षित समाज में इस प्रथा का विरोध किया जा रहा है और मैं भी उसी में सम्मिलित हो गया हूं। अपने सिद्धांत को तोड़ने का मुझे साहस न हुआ।
मदनसिंह– अच्छा, यह बात है। भला किसी तरह लोगों की आंखें तो खुलीं। मैं भी इस प्रथा को निंद्य समझता हूं, लेकिन नक्कू नहीं बनना चाहता। जब सब लोग छोड़ देंगे तो मैं छोड़ दूंगा। मुझको ऐसी क्या पड़ी है कि सबके आगे-आगे चलूं। मेरे एक ही लड़का है, उसके विवाह में मन के सब हौसले पूरे करना चाहता हूं। विवाह के बाद मैं भी तुम्हारा मत स्वीकार कर लूंगा। इस समय मुझे अपने पुराने ढंग पर चलने दो, और यदि बहुत कष्ट न हो, तो सबेरे गाड़ी पर चले जाओ और बीड़ा देकर उधर से ही अमोला चले जाना। तुमसे इसलिए कहता हूं कि तुम्हें वहां लोग जानते हैं। दूसरे जाएंगे तो लुट जाएंगे।
पद्मसिंह ने सिर झुका लिया और सोचने लगे। उन्हें चुप देखकर मदनसिंह ने तेवर बदलकर कहा– चुप क्यों हों, क्या जाना नहीं चाहते?
पद्मसिंह ने अत्यंत दीनभाव से कहा– भैया, आप क्षमा करें तो...
मदनसिंह– नहीं-नहीं, मैं तुम्हें मजबूर नहीं करता, नहीं जाना चाहते, तो मत जाओ। मुंशी बैजनाथ, आपको कष्ट तो होगा, पर मेरी खातिर आप ही जाइए।
बैजनाथ– मुझे कोई उज्र नहीं है।
मदनसिंह– उधर से ही अमोला चले जाइएगा। आपका अनुग्रह होगा।
बैजनाथ– आप इत्मीनान रखें, मैं चला जाऊंगा।
कुछ देर तीनों आदमी चुप बैठे रहे। मदनसिंह अपने भाई को कृतघ्न समझ रहे थे। बैजनाथ को चिंता हो रही थी कि मदनसिंह का पक्ष ग्रहण करने में पद्मसिंह बुरा तो न मान जाएंगे। और पद्मसिंह अपने बड़े भाई की अप्रसन्नता के भय से दबे हुए थे। सिर उठाने का साहस नहीं होता था। एक ओर भाई की अप्रसन्नता थी, दूसरी ओर सिद्धांत और न्याय का बलिदान। एक ओर अंधेरी घाटी थी, दूसरी ओर सीधी चट्टान, निकलने का कोई मार्ग न था। अंत में उन्होंने डरते-डरते कहा– भाई साहब, आपने मेरी भूलें कितनी बार क्षमा की हैं। मेरी एक ढिठाई और क्षमा कीजिए। आप जब नाच के रिवाज को दूषित समझते हैं, तो उस पर इतना जोर क्यों देतें हैं?
मदनसिंह झुंझलाकर बोले– तुम तो ऐसी बातें करते हो, मानो देश में ही पैदा नहीं हुए, जैसे किसी अन्य देश से आए हो! एक यही क्या, कितनी कुप्रथाएं हैं, जिन्हें दूषित समझते हुए भी उनका पालन करना पड़ता है। गाली गाना कौन– सी अच्छी बात है? दहेज लेना कौन-सी अच्छी बात है? पर लोक-नीति पर न चलें, तो लोग उंगलियां उठाते हैं। नाच न ले जाऊं तो लोग यही कहेंगे कि कंजूसी के मारे नहीं लाए। मर्यादा में बट्टा लगेगा। मेरे सिद्धांत को कौन देखता है?
पद्यसिंह बोले– अच्छा, अगर इसी रुपए को किसी दूसरी उचित रीति से खर्च कर दीजिए, तब तो किसी को कंजूसी की शिकायत न रहेगी? आप दो डेरे ले जाना चाहते हैं। आजकल लग्न तेज हैं, तीन सौ से कम खर्च न पड़ेगा। आप तीन सौ की जगह पांच सौ रुपए के कंबल लेकर अमोला के दीन-दरिद्रों में बांट दीजिए तो कैसा हो? कम-से-कम दो सौ मनुष्य आपको आर्शीवाद देंगे और जब तक कंबल का एक-एक धागा भी रहेगा, आपका यश गाते रहेंगे। यदि यह स्वीकार न हो तो अमोला में दो सौ रुपए की लागत से एक पक्का कुआं बनवा दीजिए। इसी से चिरकाल तक आपकी कीर्ति बनी रहेगी। रुपयों का प्रबंध मैं कर दूंगा।
मदनसिंह ने बदनामी का जो सहारा लिया था, वह इन प्रस्तावों के सामने न ठहर सका। वह कोई उत्तर सोच ही रहे थे कि इतने में बैजनाथ– यद्यपि उन्हें पद्मसिंह के बिगड़ जाने का भय था, तथापि इस बात में अपनी बुद्धि की प्रकांडता दिखाने की इच्छा उस भय से अधिक बलवती थी, इसलिए बोले– भैया, हर काम के लिए एक अवसर होता है दान के अवसर पर दान देना चाहिए, नाच के अवसर पर नाच। बेजोड़े बात कभी भली नहीं लगती। और फिर शहर के जानकार आदमी हों तो एक बात भी है। देहात के उजड्ड जमींदारों के सामने आप कंबल बांटने लगेंगे, तो वह आपका मुंह देखेंगे और हंसेंगे।
मदनसिंह निरुत्तर-से हो गए थे। मुंशी बैजनाथ के इस कथन से खिल उठे। उनकी ओर कृतज्ञता से देखकर बोले– हां, और क्या होगा? बंसत में मल्हार गानेवाले को कौन अच्छा कहेगा? कुसमय की कोई बात अच्छी नहीं होती। इसी से तो मैं कहता हूं कि आप सवेरे चले जाइए और दोनों डेरे ठीक कर आइए।
पद्मसिंह ने सोचा, ये लोग तो अपने मन की करेंगे ही, पर देखूं किन युक्तियों से अपना पक्ष सिद्ध करते हैं। भैया को मुंशी वैद्यनाथ पर अधिक विश्वास है, इस बात का भी उन्हें बहुत दुःख हुआ। अतएव वह निःसंकोच होकर बोले– तो यह कैसे मान लिया जाए कि विवाह आनंदोत्सव ही का समय हैं? मैं तो समझता हूं दान और उपकार के लिए इससे उत्तम और कोई अवसर न होगा। विवाह एक धार्मिक व्रत है, एक आत्मिक प्रतिज्ञा है। जब हम गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करते हैं, जब हमारे पैरों में धर्म की बेड़ी पड़ती है, जब हम सांसारिक कर्त्तव्य के सामने अपने सिर को झुका देते हैं, जब जीवन का भार और उसकी चिंताए हमारे सिर पर पड़ती हैं, तो ऐसे पवित्र संस्कार पर हमको गांभीर्य से काम लेना चाहिए। यह कितनी निर्दयता है कि जिस समय हमारा आत्मीय युवक ऐसा कठिन व्रत धारण कर रहा हो, उस समय हम आनंदोत्सव मनाने बैठें। वह इस गुरुतर भार से दबा जाता हो और हम नाच-रंग में मस्त हों। अगर दुर्भाग्य से आजकल यही उल्टी प्रथा चल प़डी है, तो क्या यह आवश्यक है कि हम भी उसी लकीर पर चलें? शिक्षा का कम-से-कम इतना प्रभाव तो होना चाहिए कि धार्मिक विषयों में हम मूर्खों की प्रसन्नता को प्रधान न समझें।
मदनसिंह फिर चिंता-सागर में डूबे। पद्मसिंह का कथन उन्हें सर्वथा सत्य प्रतीत होता था; पर रिवाज के सामने न्याय, सत्य और सिंद्धात सभी को सिर झुकाना पड़ता है। उन्हें संशय था कि बैजनाथ अब कुछ उत्तर न दे सकेंगे। लेकिन मुंशीजी अभी हार नहीं मानना चाहते थे। वह बोले– भैया तुम वकील हो, तुमसे बहस करने की लियाकत हममें कहां है? लेकिन जो बात सनातन से होती चली आई है, चाहे वह उचित हो या अनुचित, उसके मिटाने से बदनामी अवश्य होती है। आखिर हमारे पूर्वज निरे जाहिल-जपट तो थे, नहीं, उन्होंने कुछ समझकर ही तो इस रस्म का प्रचार किया होगा।
मदनसिंह को यह युक्ति न सूझी थी। बहुत प्रसन्न हुए। बैजनाथ की ओर सम्मानपूर्ण भाव से देखकर बोले– अवश्य। उन्होंने जो प्रथाएं चलाई हैं, उन सबमें कोई-न-कोई बात छिपी रहती है, चाहे वह आजकल हमारी समझ में न आए। आजकल के नए विचार वाले लोग उन प्रथाओं के मिटाने में ही अपना गौरव समझते हैं। अपने सामने उन्हें कुछ समझते ही नहीं। वह यह नहीं देखते कि हमारे पास जो विद्या, ज्ञान, विचार और आचरण है, वह सब उन्हीं पूर्वजों की कमाई है। कोई कहता है, यज्ञोपवीत से क्या लाभ? कोई शिखा की जड़ काटने पर तुला हुआ है, कोई इसी धुन में है कि शूद्र और चांडाल सब क्षत्रिय हो जाएं, कोई विधवाओं के विवाह का राग आलापता फिरता है। और तो और कुछ ऐसे महाशय भी है, जो जाति और वर्ण को भी मिटा देना चाहते हैं। तो भाई, यह सब बातें हमारे मान की नहीं हैं। जो उन्हें मानता हो माने, हमको तो अपनी वही पुरानी चाल पसंद है। अगर जिंदा रहा, तो देखूंगा कि यूरोप का पौधा यहां कैसे-कैसे फल लाता है।
हमारे पूर्वजों ने खेती को सबसे उत्तम कहा है, लेकिन आजकल यूरोप की देखादेखी लोग मिल और मशीनों के पीछे पड़े हुए हैं। मगर देख लेना, ऐसा कोई समय आएगा कि यूरोप वाले स्वयं चेतेंगे और मिलों को खोद-खोदकर खेत बनाएंगे। स्वाधीन कृषक के सामने मिल के मजदूरों की क्या हस्ती? वह भी कोई देश है, जहां बाहर से खाने की वस्तुएं न आएं, तो लोग भूखों मरें। जिन देशों में जीवन ऐसे उल्टे नियमों पर चलाया जाता है, वह हमारे लिए आदर्श नहीं बन सकते। शिल्प और कला-कौशल का यह महल उसी समय तक है, जब तक संसार में निर्बल, असमर्थ जातियां वर्तमान हैं। उनके गले सस्ता माल मढ़कर यूरोप वाले चैन करते हैं। पर ज्योंही ये जातियां चौंकेंगी, यूरोप की प्रभुता नष्ट हो जाएगी। हम यह नहीं कहते कि यूरोपवालों से कुछ मत सीखो। नहीं, वह आज संसार के स्वामी हैं और उनमें बहुत से दिव्य गुण हैं। उनके गुणों को ले लो, दुर्गुणों को छो़ड़ दो। हमारे अपने रीति-रिवाज हमारी अवस्था के अनुकूल हैं। उनमें काट-छांट करने की जरूरत नहीं।
मदनसिंह ने ये बातें कुछ गर्व से कीं, मानों कोई विद्वान पुरुष अपने निज के अनुभव प्रकट कर रहा है, पर यथार्थ में ये सुनी-सुनाई बातें थीं, जिनका मर्म वह खुद भी न समझते थे। पद्मसिंह ने इन बातों की बड़ी धीरता के साथ सुना, पर उनका कुछ उत्तर न दिया। उत्तर देने से बात बढ़ जाने का भय था। कोई वाद जब विवाद का रूप धारण कर लेता है, तो वह अपने लक्ष्य से दूर हो जाता है। बाद में नम्रता और विनय प्रबल युक्तियों से भी अधिक प्रभाव डालती है। अतएव वह बोले– तो मैं ही चला जाऊंगा, मुंशी बैजनाथ को क्यों कष्ट दीजिएगा। वह चले जाएंगे तो यहां बहुत-सा काम पड़ा रह जाएगा। आइए मुंशीजी, हम दोनों आदमी बाहर चलें, मुझे आपसे अभी कुछ बातें करनी हैं।
मदनसिंह– तो यहीं क्यों नहीं करते? कहो तो मैं ही हट जाऊँ?
पद्यसिंह– जी नहीं, कोई ऐसी बात नहीं है, पर ये बातें मैं मुंशीजी से अपनी शंका समाधान करने के लिए कर रहा हूं। हां, भाई साहब, बतलाइए अमोला के दर्शकों की संख्या क्या होगी? कोई एक हजार। अच्छा, आपके विचार में कितने इनमें दरिद्र किसान होंगे कितने जमींदार?
बैजनाथ– ज्यादा किसान ही होंगे, लेकिन जमींदार भी दो-तीन सौ से कम न होंगे।
पद्मसिंह– अच्छा, आप यह मानते हैं कि दीन किसान नाच देखकर उतने प्रसन्न न होंगे, जितने धोती या कंबल पाकर?
बैजनाथ भी सशस्त्र थे। बोले– नहीं, मैं यह नहीं मानता। अधिकतर ऐसे किसान होते हैं, जो दान लेना कभी स्वीकार नहीं करेंगे। वह जलसा देखने आएंगे और जलसा अच्छा न होगा, तो निराश होकर लौट जाएंगे।
पद्मसिंह चकराए। सुकराती प्रश्नों का जो क्रम उन्होंने मन में बांध रखा था, वह बिगड़ गया। समझ गए कि मुंशीजी सावधान हैं। अब कोई दूसरा दांव निकालना चाहिए।
बोले– आप यह मानते हैं कि बाजार में वही वस्तु दिखाई देती है जिसके ग्राहक होते हैं और ग्राहकों के न्यूनाधिक होने पर वस्तु का न्यूनाधिक होना निर्भर है।
बैजनाथ– जी हां, इसमें कोई संदेह नहीं।
पद्मसिंह– इस विचार से किसी वस्तु के ग्राहक ही मानो उसके बाजार में आने के कारण होते हैं। यदि कोई मांस न खाए, तो बकरे की गर्दन पर छुरी क्यों चलें?
बैजनाथ समझ रहे थे कि यह मुझे किसी दूसरे पेंच में ला रहे हैं, लेकिन उन्होंने अभी तक उसका मर्म न समझा था। डरते हुए बोले– हां, बात तो यही है।
पद्मसिंह– जब आप यह मानते हैं तो आपको यह भी मानना पड़ेगा कि जो लोग वेश्याओं को बुलाते हैं, उन्हें धन देकर उनके लिए सुख-विलास की सामग्री जुटाने और उन्हें ठाट-बाट से जीवन व्यतीत करने के योग्य बनाते हैं, वे उस कसाई से कम पाप के भागी नहीं हैं, जो बकरे की गर्दन पर छुरी चलाता है। यदि मैं वकीलों को ठाट के साथ टमटम दौड़ाते हुए न देखता, तो क्या आज मैं वकील होता?
बैजनाथ ने हंसकर कहा– भैया, तुम घुमा-फिराकर अपनी बात मनवा लेते हो? लेकिन बात जो कहते हो, वह सच्ची है।
पद्मसिंह– ऐसी अवस्था में क्या समझना कठिन है कि सैकड़ों स्त्रियां, जो हर रोज बाजार में झरोखों में बैठी दिखाई देती है, जिन्होंने अपनी लज्जा और सतीत्व को भ्रष्ट कर दिया है, उनके जीवन का सर्वनाश करने वाले हमीं लोग हैं। वह हजारों परिवार जो आए दिन इस कुवासना की भंवर में पड़कर लुप्त हो जाते हैं, ईश्वर के दरबार में हमारा ही दामन पकड़ेंगे। जिस प्रथा से इतनी बुराइयां उत्पन्न हों, उसका त्याग करना क्या अनुचित है?
मदनसिंह बहुत ध्यान से ये बातें सुन रहे थे। उन्होंने इतनी उच्च शिक्षा नहीं पाई थी जिससे मनुष्य विचार-स्वातंत्र्य की धुन में सामाजिक बंधनों और नैतिक सिद्धांतों का शत्रु हो जाता है। नहीं, वह साधारण बुद्धि के मनुष्य थे। कायल होकर बतबढ़ाव करते रहना उनकी सामर्थ्य से बाहर था। मुस्कराकर मुंशी बैजनाथ से बोले– कहिए मुंशीजी, अब क्या कहते हैं? है कोई निकलने का उपाय?
बैजनाथ ने हंसकर कहा– मुझे को कोई रास्ता नहीं सूझता।
मदनसिंह– कुछ दिनों वकालत पढ़ ली होती तो यह भी करता। यहां अब कोई जवाब ही नहीं सूझता। क्यों भैया पद्मसिंह, मान लो तुम मेरी जगह होते, तो इस समय क्या जवाब देते।
पद्मसिंह– (हंसकर) जवाब तो कुछ-न-कुछ जरूर ही देता, चाहे तुक मिलती या न मिलती।
मदनसिंह– इतना तो मैं भी कहूंगा कि ऐसे जलसों से मन अवश्य चंचल हो जाता है। जवानी में जब मैं किसी जलसे से लौटता तो महीनों तक उसी वेश्या के रंग-रूप, हाव-भाव की चर्चा किया करता।
बैजनाथ– भैया, पद्मसिंह के ही मन की होने दीजिए। लेकिन कंबल अवश्य बंटवाइए।
मदनसिंह– एक कुआं बनवा दिया जाए, तो सदा के लिए नाम हो जाएगा। इधर भांवर पड़ी, उधर मैंने कुएं की नींव डाली।
27
बरसात के दिन थे, छटा छाई हुई थी। पंडित उमानाथ चुनारगढ़ के निकट गंगा के तट पर खड़े नाव की बाट जोह रहे थे। वह कई गांवों का चक्कर लगाते हुए आ रहे थे और संध्या होने से पहले चुनार के पास एक गांव में जाना चाहते थे। उन्हें पता मिला था कि उस गांव में एक सुयोग्य वर है। उमानाथ आज ही अमोला लौट जाना चाहते थे, क्योंकि उनके गांव में एक छोटी-सी फौजदारी हो गई थी और थानेदार साहब कल तहकीकात करने आने वाले थे। मगर अभी तक नाव उसी पार खड़ी थी। उमानाथ को मल्लाहों पर क्रोध आ रहा था। सबसे अधिक क्रोध उन मुसाफिरों पर आ रहा था, जो उस पार धीरे-धीरे नाव में बैठने आ रहे थे। उन्हें दौड़ते हुए आना चाहिए था, जिससे उमानाथ को जल्द नाव मिल जाए। जब खड़े-खड़े बहुत देर हो गई तो उमानाथ ने जोर से चिल्लाकर मल्लाहों को पुकारा। लेकिन उनकी कंठध्वनि को मल्लाहों के कान में पहुंचने की प्रबल आकांक्षा न थी। वह लहरों से खेलती हुई उन्हीं में समा गई।
इतने में उमानाथ ने एक साधु को अपनी ओर आते देखा। सिर पर जटा, गले में रुद्राक्ष की माला, एक हाथ में सुलफे की लंबी चिलम, दूसरे हाथ में लोहे की छड़ी, पीठ पर मृगछाला लपेटे हुए आकर नदी के तट पर खड़ा हो गया। वह भी उस पार जाना चाहता था।
उमानाथ को ऐसी भावना हुई कि मैंने इस साधु को कहीं देखा है, पर याद नहीं पड़ता कि कहां? स्मृति पर परदा-सा पड़ा हुआ था।
अकस्मात् साधु ने उमानाथ की ओर ताका और तुरंत उन्हें प्रणाम करके बोला– महाराज! घर पर तो सब कुशल है, यहां कैसे आना हुआ?
उमानाथ के नेत्र पर से परदा हट गया। स्मृति जाग्रत हो गई। हम रूप बदल सकते हैं, शब्द को नहीं बदल सकते। यह गजाधर पांडे थे।
जब से सुमन का विवाह हुआ था, उमानाथ कभी उसके पास नहीं गए थे। उसे मुंह दिखाने का साहस नहीं होता था। इस समय गजाधर को इस भेष में देखकर उमानाथ को आश्चर्य हुआ। उन्होंने समझा, कहीं मुझे फिर न धोखा हुआ हो। डरते हुए पूछा– शुभ नाम?
साधु– पहले तो गजाधर पांडे था, अब गजानन्द हूं।
उमानाथ– ओह! तभी तो मैं पहचान न पाता था। मुझे स्मरण होता था कि मैंने कहीं आपको देखा है, पर आपको इस भेष में देखकर मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा है। बाल-बच्चे कहां हैं?
गजानन्द– अब उस मायाजाल से मुक्त हो गया।
उमानाथ– सुमन कहां है?
गजानन्द– दालमंडी के कोठे पर।
उमानाथ ने विस्मित होकर गजानन्द की ओर देखा और तब लज्जा से उसका सिर झुक गया। एक क्षण के बाद उन्होंने पूछा– यह कैसे हुआ, कुछ बात समझ में नहीं आती?
गजानन्द– उसी प्रकार जैसे संसार में प्रायः हुआ करता है। मेरी असज्जनता और निर्दयता, सुमन की चंचलता और विलास-लालसा दोनों ने मिलकर हम दोनों का सर्वनाश कर दिया। मैं अब उस समय की बातों को सोचता हूं, तो ऐसा मालूम होता है कि एक बड़े घर की बेटी से ब्याह करने में बड़ी भूल की और इससे बड़ी भूल यह थी कि ब्याह हो जाने पर उसका उचित आदर-सम्मान नहीं किया। निर्धन था, इसलिए आवश्यक था कि मैं धन के अभाव को अपने प्रेम और भक्ति से पूरा करता। मैंने इसके विपरीत निर्दयता से व्यवहार किया। उसे वस्त्र और भोजन का कष्ट दिया। वह चौका-बर्तन, चक्की में निपुण नहीं थी और न हो सकती थी, पर उससे यह सब काम लेता था और जरा भी देर हो जाती, तो बिगड़ता था। अब मुझे मालूम होता है कि मैं ही उसके घर से निकलने का कारण हुआ। मैं उसकी सुंदरता का मान न कर सका, इसलिए सुमन का भी मुझसे प्रेम नहीं हो सका। लेकिन वह मुझ पर भक्ति अवश्य करती थी। पर उस समय मैं अंधा हो रहा था। कंगाल मनुष्य धन पाकर जिस प्रकार फूल उठता है, उसी तरह सुंदर स्त्री पाकर वह संशय और भ्रम में आसक्त हो जाता है। मेरा भी यही हाल था। मुझे सुमन पर अविश्वास रहा करता था और प्रत्यक्ष इस बात को न कहकर मैं अपने कठोर व्यवहार से उसके चित्त को दुःखी किया करता था। महाशय, मैंने उसके साथ जो-जो अत्याचार किए, उन्हें स्मरण करके आज मुझे अपनी क्रूरता पर इतना दुःख होता है कि जी चाहता है कि विष खा लूं। उसी अत्याचार का अब प्रायश्चित कर रहा हूं। उसके चले जाने के बाद दो-चार दिन तक तो मुझ पर नशा रहा, पर जब ठंडा हुआ, तो वह घर काटने लगा। मैं फिर उस घर में न गया। एक मंदिर में पुजारी बन गया। अपने हाथ से भोजन बनाने के कष्ट से बचा। मंदिर में दो-चार मनुष्य नित्य ही आ जाते। उनके पास सत्संग का सुअवसर मिल जाता। कभी-कभी साधु-महात्मा भी आ जाते। उनके पास सत्संग का सुअवसर मिल जाता। उनकी ज्ञान-मर्म की बातें सुनकर मेरा अज्ञान कुछ-कुछ मिटने लगा। मैं आपसे सत्य कहता हूं, पुजारी बनते समय मेरे मन में भक्ति का भाव नाम-मात्र को भी न था। मैंने केवल निरुद्यमता का सुख और उत्तम भोजन का स्वाद लूटने के लिए पूजा-वृत्ति ग्रहण की थी, पर धर्म-कथाओं के पढ़ने और सुनने से मन में भक्ति और प्रेम का उदय हुआ और ज्ञानियों के सत्संग से भक्ति ने वैराग्य का रूप धारण कर लिया। अब गांव-गांव घूमता हूं और अपने से जहां तक हो सकता है, दूसरों का कल्याण करता हूं। आप क्या काशी से आ रहे हैं?
उमानाथ– नहीं, मैं भी एक गांव से आ रहा हूं, सुमन की एक छोटी बहिन है, उसी के लिए वर खोज रहा हूं।
गजानन्द– लेकिन अबकी सुयोग्य वर खोजिएगा।
उमानाथ– सुयोग्य वरों की तो कमी नहीं है, पर उसके लिए मुझमें सामर्थ्य भी तो हो? सुमन के लिए क्या मैंने कुछ कम दौड़-धूप की थी?
गजानन्द– सुयोग्य वर मिलने के लिए आपको कितने रुपयों की आवश्यकता है?
उमानाथ– एक हजार तो दहेज ही मांगते हैं और सब खर्च अलग रहा।
गजानन्द– आप विवाह तय कर लीजिए। एक हजार रुपये का प्रबंध ईश्वर चाहेंगे, तो मैं कर दूंगा। यह भेष धारण करके अब लोगों को आसानी से ठग सकता हूं। मुझे ज्ञान हो रहा है कि मैं प्राणियों का बहुत उपकार कर सकता हूं। दो-चार दिन में आपके ही घर पर आपसे मिलूंगा।
नाव आ गई। दोनों नाव में बैठे। गजानन्द तो मल्लाहों से बातें करने लगे, लेकिन उमानाथ चिंतासागर में डूबे थे। उनका मन कह रहा था कि सुमन का सर्वनाश मेरे ही कारण हुआ।
28
पंडित उमानाथ सदनसिंह का फलदान चढ़ा आए हैं। उन्होंने जाह्नवी से गजानन्द की सहायता की चर्चा नहीं की थी। डरते थे कि कहीं यह इन रुपयों को अपनी लड़कियों के विवाह के लिए रख छोड़ने पर जिद्द न करने लगे। जाह्नवी पर उनके उपदेश का कुछ असर न होता था, उसके सामने वह उसकी हां-में-हां मिलाने पर मजबूर हो जाते थे।
उन्होंने एक हजार रुपए के दहेज पर विवाह ठीक किया था। पर अब इसकी चिंता में पड़े हुए थे कि बारात के लिए खर्च का क्या प्रबंध होगा। कम-से-कम एक हजार रुपए की और जरूरत थी। इसके मिलने का उन्हें कोई उपाय न सूझता था। हां, उन्हें इस विचार से हर्ष होता था कि शान्ता का विवाह अच्छे घर में होगा, वह सुख से रहेगी और गंगाजली की आत्मा मेरे इस काम से प्रसन्न होगी।
अंत में उन्होंने सोचा, अभी विवाह को तीन महीने हैं। मगर उस समय तक रुपयों का प्रबंध हो गया तो भला ही है। नहीं तो बारात का झगड़ा ही तोड़ दूंगा। किसी-न-किसी बात पर बिगड़ जाऊंगा, बारातवाले आप ही नाराज होकर लौट जाएंगे। यही न होगा कि मेरी थोड़ी-सी बदनामी होगी, पर विवाह तो हो ही जाएगा। लड़की तो आराम से रहेगी। मैं यह झगड़ा ऐसी कुशलता से करूंगा कि सारा दोष बारातियों पर ही आए।
पंडित कृष्णचन्द्र को जेलखाने से छूटकर आए हुए एक सप्ताह बीत गया था, लेकिन अभी तक विवाह के संबंध में उमानाथ को बातचीत का अवसर ही न मिला था। वह कृष्णचन्द्र के सम्मुख जाते हुए लजाते थे। कृष्णचन्द्र के स्वभाव में अब एक बड़ा अंतर दिखाई देता था। उनमें गंभीरता की जगह एक उद्दंडता आ गई थी और संकोच नाम को भी न रहा था। उनका शरीर क्षीण हो गया था, पर उनमें एक अद्भुत शक्ति भरी मालूम होती थी। वे रात को बार-बार दीर्घ निःश्वास लेकर ‘हाय! हाय!’ कहते सुनाई देते थे। आधी रात को चारों ओर जब नीरवता छाई हुई रहती थी, वे अपनी चारपाई पर करवटें बदल-बदलकर यह गीत गाया करते–
अगिया लागी सुंदर बन जरि गयो।
कभी-कभी यह गीत गाते–
लकड़ी जल कोयला भई और कोयला जल भई राख।
मैं पापिन ऐसी जली कि कोयला भई न राख!
उनके नेत्रों में एक प्रकार की चंचलता दिख पड़ती थी। जाह्नवी उनके सामने खड़ी न हो सकती, उसे उनसे भय लगता था।
जाड़े के दिन में कृषकों की स्त्रियां हार में काम करने जाया करती थीं। कृष्णचन्द्र भी हार की ओर निकल जाते और वहां स्त्रियों से दिल्लगी किया करते। ससुराल के नाते उन्हें स्त्रियों से हंसने-बोलने का पद था, पर कृष्णचन्द्र की बातें ऐसी हास्यपूर्ण और उनकी चितवनें ऐसी कुचेष्टापूर्ण होती थीं कि स्त्रियां लज्जा से मुंह छिपा लेतीं और आकर जाह्नवी को उलाहना देतीं। वास्तव में कृष्णचन्द्र काम-संताप से जले जाते थे।
अमोला में कितने ही सुशिक्षित सज्जन थे। कृष्णचन्द्र उनके समाज में न बैठते। वे नित्य संध्या समय नीच जाति के आदमियों के साथ चरस की दम लगाते दिखाई देते थे। उस समय मंडली में बैठे हुए वह अपने जेल के अनुभव वर्णन किया करते। वहां उनके कंठ से अश्लील बातों की धारा बहने लगती थी। उमानाथ अपने गांव में सर्वमान्य थे। वे बहनोई के इन दुष्कृत्यों को देख-देखकर कट जाते और ईश्वर से मनाते कि किसी प्रकार यहां से चले जाएं।
और तो और; शान्ता को भी अब अपने पिता के सामने आते हुए भय और संकोच होता था। गांव की स्त्रियां जब जाह्नवी से कृष्णचन्द्र की करतूतों की निंदा करने लगतीं, तो शान्ता को अत्यन्त दुःख होता था। उसकी समझ में न आता था कि पिताजी को क्या हो गया है। वह कैसे गंभीर, कैसे विचारशील, कैसे दयाशील, कैसे सच्चरित्र मनुष्य थे। यह कायापलट कैसे हो गई? शरीर तो वही है, पर आत्मा कहां गई?
इस तरह एक मास बीत गया। उमानाथ मन में झुंझलाते कि इन्हीं की लड़की का विवाह होने वाला है और ये ऐसे निश्चिंत बैठे हैं, तो मुझी को क्या पड़ी है कि व्यर्थ हैरानी में पड़ूं। यह तो नहीं होता कि जाकर कहीं चार पैसे कमाने का उपाय करें, उल्टे अपने साथ-साथ मुझे भी खराब कर रहे हैं।
29
एक रोज उमानाथ ने कृष्णचन्द्र के सहचरों को धमकाकर कहा– अब तुमलोगों को उनके साथ बैठकर चरस पीते देखा तो तुम्हारी कुशल नहीं। एक-एक की बुरी तरह खबर लूंगा। उमानाथ का रोब सारे गांव पर छाया हुआ था। वे सब-के-सब डर गए। दूसरे दिन जब कृष्णचन्द्र उनके पास गए तो उन्होंने कहा– महाराज, आप यहां न आया कीजिए। हमें पंडित उमानाथ के कोप में न डालिए। कहीं कोई मामला खड़ा कर दें, तो हम बिना मारे ही मर जाएं।
कृष्णचन्द्र क्रोध में भरे हुए उमानाथ के पास आए और बोले– मालूम होता है, तुम्हें मेरा यहां रहना अखरने लगा।
उमानाथ– आपका घर है, आप जब तक चाहें रहें, पर मैं यह चाहता हूं कि नीच आदमियों के साथ बैठकर आप मेरी और अपनी मर्यादा को भंग न करें।
कृष्णचन्द्र– तो किसके साथ बैठूं? यहां जितने भले आदमी हैं, उनमें कौन मेरे साथ बैठना चाहता है? सब-के-सब मुझे तुच्छ दृष्टि से देखते हैं। यह मेरे लिए असह्य है। तुम इनमे से किसी को बता सकते हो, जो पूर्ण धर्म का अवतार हो? सब-के-सब दगाबाज, दीन किसानों का रक्त चूसने वाले व्यभिचारी हैं। मैं अपने को उनसे नीच नहीं समझता। मैं अपने किए का फल भोग आया हूं, वे अभी तक बचे हुए हैं, मुझमें और उनमें केवल इतना ही फर्क है। वह एक पाप को छिपाने के लिए और भी कितने पाप किया करते हैं। इस विचार से वह मुझसे बड़े पातकी हैं। बगुलाभक्तों के सामने मैं दीन बनकर नहीं जा सकता। मैं उनके साथ बैठता हूं, जो इस अवस्था में भी मेरा आदर करते हैं, जो अपने को मुझसे श्रेष्ठ नहीं समझते, जो कौए होकर हंस बनने की चेष्टा नहीं करते। अगर मेरे इस व्यवहार से तुम्हारी इज्जत को बट्टा लगता है, तो मैं जबर्दस्ती तुम्हारे घर में नहीं रहना चाहता।
उमानाथ– मेरा ईश्वर साक्षी है, मैंने इस नीयत से उन आदमियों को आपके साथ बैठने से नहीं मना किया था। आप जानते हैं कि मेरी सरकारी अधिकारियों से प्रायः संसर्ग रहता है। आपके इस व्यवहार से मुझे उनके सामने आंखें नीची करनी पड़ती हैं।
कृष्णचन्द्र– तो तुम उन अधिकारियों से कह दो कि कृष्णचन्द्र कितना ही गया-गुजरा है, तो भी उनसे अच्छा है। मैं भी कभी अधिकारी रहा हूं और अधिकारियों के आचार-व्यवहार का कुछ ज्ञान रखता हूं। वे सब चोर हैं। कमीने, चोर, पापी और अधर्मियों का उपदेश कृष्णचन्द्र नहीं लेना चाहता।
उमानाथ– आपको अधिकारियों की कोई परवाह न हो, लेकिन मेरी तो जीविका उन्हीं की कृपा-दृष्टि पर निर्भर है। मैं उनकी कैसे उपेक्षा कर सकता हूं? आपने तो थानेदारी की है। क्या आप नहीं जानते कि यहां का थानेदार आपकी निगरानी करता है? वह आपको दुर्जनों के संग देखेगा, तो अवश्य इसकी रिपोर्ट करेगा और आपके साथ मेरा भी सर्वनाश हो जाएगा। ये लोग किसके मित्र होते हैं?
कृष्णचन्द्र– यहां का थानेदार कौन है?
उमानाथ– सैयद मसऊद आलम।
कृष्णचन्द्र– अच्छा, वही धूर्त सारे जमाने का बेईमान, छटा हुआ बदमाश वह मेरे सामने हेड कांस्टेबिल रह चुका है और एक बार मैंने ही उसे जेल से बचाया था। अब की उसे यहां आने दो, ऐसी खबर लूं कि वह भी याद करे।
उमानाथ– अगर आपको यह उपद्रव करना है, तो कृपा करके मुझे अपने साथ न समेटिए। आपका तो कुछ न बिगड़ेगा, मैं पिस जाऊंगा।
कृष्णचन्द्र– इसीलिए कि तुम इज्जत वाले हो और मेरा कोई ठिकाना नहीं। मित्र, क्यों मुंह खुलवाते हो? धर्म का स्वांग भरकर क्यों डींग मारते हो? थानेदारों की दलाली करके भी तुम्हें इज्जत का घमंड है?
उमानाथ– मैं अधम पापी सही, पर आपके साथ मैंने जो सलूक किए, उन्हें देखते हुए आपके मुंह से ये बातें न निकलनी चाहिए।
कृष्णचन्द्र– तुमने मेरे साथ वह सलूक किया कि मेरा घर चौपट कर दिया। सलूक का नाम लेते हुए तुम्हें लज्जा नहीं आती? तुम्हारे सलूक का बखान यहां अच्छी तरह सुन चुका। तुमने मेरी स्त्री को मारा, मेरी एक लड़की को न जाने किस लंपट के गले बांध दिया और दूसरी लड़की से मजदूरिन की तरह काम ले रहे हो। मूर्ख स्त्री को झांसा देकर मुकदमा के बहाने से खूब रुपए उड़ा दिए और तब अपने घर लाकर उसकी दुर्गति की। आज अपने सलूक की शेखी बघारते हो।
अभिमानी मनुष्य को कृतघ्नता से जितना दुःख होता है, उतना और किसी बात से नहीं होता। वह चाहे अपने उपकारों के लिए कृतज्ञता का भूखा न हो, चाहे उसने नेकी करके दरिया में ही डाल दी हो, पर उपकार का विचार करके उसको अत्यंत गौरव का आनंद प्राप्त होता है। उमानाथ ने सोचा, संसार कितना कुटिल है। मैं इनके लिए महीनों कचहरी, दरबार के चक्कर लगाता रहा, वकीलों की कैसी-कैसी खुशामदें कीं, कर्मचारियों के कैसे-कैसे नखरे सहे, निज का सैकड़ों रुपया फूंक दिया, उसका यह यश मिल रहा है। तीन-तीन प्राणियों का बरसों पालन-पोषण किया, सुमन के विवाह के लिए महीनों खाक छानी और शान्ता के विवाह के लिए महीनों से घर-घाट एक किए हूं, दौड़ते-दौड़ते पैरों में छाले पड़ गए, रुपये-पैसे की चिंता में शरीर घुल गया और उसका यह फल! हां! कुटिल संसार! यहां भलाई करने में भी धब्बा लग जाता है। यह सोचकर उनकी आंखें डबडबा आईं। बोले– भाई साहब, मैंने जो कुछ किया, वह भला ही समझकर किया, पर मेरे हाथों में यश नहीं है। ईश्वर की यही इच्छा है कि मेरा किया-कराया सारा मिट्टी में मिल जाए, तो यही सही। मैंने आपका सर्वस्व लूट लिया, खा-पी डाला, अब जो सजा चाहे दीजिए, और क्या कहूं?
उमानाथ यह कहना चाहते थे कि अब तो जो कुछ हो गया, वह हो गया; अब मेरा पिंड छोड़ो। शान्ता के विवाह का प्रबंध करो, पर डरे कि इस समय क्रोध में कहीं वह सचमुच शान्ता को लेकर चले न जाएं। इसलिए गम खा जाना ही उचित समझा। निर्बल क्रोध उदार हृदय में करुणा भाव उत्पन्न कर देता है। किसी भिक्षुक के मुंह से गाली खाकर सज्जन मनुष्य चुप रहने के सिवा और क्या कर सकता है?
उमानाथ की सहिष्णुता ने कृष्णचन्द्र को भी शांत किया, पर दोनों में बातचीत न हो सकी। दोनों अपनी-अपनी जगह विचारों में डूबे बैठे थे, जैसे दो कुत्ते लड़ने के बाद आमने-सामने बैठे रहते हैं। उमानाथ सोचते थे कि बहुत अच्छा हुआ; जो मैं चुप साध गया, नहीं तो संसार मुझी को बदनाम करता। कृष्णचन्द्र सोचते थे कि मैंने बुरा किया, जो ये गड़े मुर्दे उखाड़े। अनुचित क्रोध में सोई हुई आत्मा को जगाने का विशेष अनुराग होता है। कृष्णचन्द्र को अपना कर्त्तव्य दिखाई देने लगा। अनुचित क्रोध ने अकर्मण्यता की निद्रा भंग कर दी, संध्या समय कृष्णचन्द्र ने उमानाथ से पूछा– शान्ता का विवाह तो तुमने ठीक किया है न?
उमानाथ– हां, चुनार में, पंडित मदनसिंह के लड़के से।
कृष्णचन्द्र– यह तो कोई बड़े आदमी मालूम होते हैं। कितना दहेज ठहरा है?
उमानाथ– एक हजार।
कृष्णचन्द्र– इतना ही ऊपर से लगेगा?
उमानाथ– हां, और क्या।
कृष्णचन्द्र स्तब्ध हो गए। पूछा– रुपयों का प्रबंध कैसे होगा?
उमानाथ– ईश्वर किसी तरह पार लगाएंगे ही। एक हजार मेरे पास हैं, केवल एक हजार की और चिंता है।
कृष्णचन्द्र ने अत्यन्त ग्लानिपूर्वक कहा– मेरी दशा तो तुम देख ही रहे हो। इतना कहते-कहते उनकी आंखों से आंसू टपक पड़े।
उमानाथ– आप निश्चिंत रहिए, मैं सब कुछ कर लूंगा।
कृष्णचन्द्र– परमात्मा तुम्हें इसका शुभ फल देंगे। भैया, मुझसे जो अविनय हुई है, उसका तुम बुरा न मानना। अभी मैं आपे में नहीं हूं, इस कठिन यंत्रणा ने मुझे पागल कर दिया है। उसने मेरी आत्मा को पीस डाला है। मैं आत्माहीन मनुष्य हूं। उस नरक में पड़कर यदि देवता भी राक्षस हो जाएं, तो आश्चर्य नहीं। मुझमें इतना सामर्थ्य कहां था कि मैं इतने भारी बोझ को संभालता। तुमने मुझे उबार दिया, मेरी नाव पार लगा दी। यह शोभा नहीं देता कि तुम्हारे ऊपर इतने बड़े कार्य का भार रखकर मैं आलसी बना बैठा रहूं। मुझे भी आज्ञा दो कि कहीं चलकर चार पैसे कमाने का उपाय करूं। मैं कल बनारस जाऊंगा। यों मेरे पहले के जान-पहचान के तो कई आदमी हैं, पर उनके यहां नहीं ठहरना चाहता। सुमन का घर किस मुहल्ले में है?
उमानाथ का मुख पीला पड़ गया। बोले– विवाह तक तो आप यहीं रहिए। फिर जहां इच्छा हो जाइएगा।
कृष्णचन्द्र– नहीं, कल मुझे जाने दो, विवाह से एक सप्ताह पहले आ जाऊंगा। दो-चार दिन सुमन के यहां ठहरकर कोई नौकरी ढूंढ़ लूंगा। किस मुहल्ले में रहती है?
उमानाथ– मुझे ठीक से याद नहीं है, इधर बहुत दिनों से मैं उधर नहीं गया। शहर वालों का क्या ठिकाना? रोज घर बदला करते हैं? मालूम नहीं अब किस मुहल्ले में हों।
रात को भोजन के साथ कृष्णचन्द्र ने शान्ता से सुमन का पता पूछा। शान्ता उमानाथ के संकेतों को न देख सकी, उसने पूरा पता बता दिया।