सेतु (कहानी) : वारणासि नागलक्ष्मी
Setu (Telugu Story in Hindi) : Varanasi Nagalakshmi
हिमालय के शिवालिक पर्वतों से होकर ऋषिकेश तक बहनेवाली बयार को साथ लेकर गंगा नदी कलकल करती,दमकती आगे बढ रही थी। मई का महीना था। शाम के पांच बज गए पर गरमी कम नहीं हुई।दोनों तटों पर जहां तक नज़र पहुंचती मंदिर, आश्रम, मकान और बाज़ार सांझ की लालिमा में अनोखी चमक से भर गए थे।
राजेश्वरी अपने बेटे बहू के साथ वहां आई थी। चुपचाप उनके साथ चल रही थी। नदी की लहरों की तरह उसके मन में भी तरह तरह के ख्याल हलचल मचा रहे थे। उसे यकीन नहीं हो रहा था कि अब वह अकेली पड गई है। प्रभाकर के साथ ही उसका अपना जीवन जैसे खत्म सा हो गया था! ‘वे तो चले गये, पर जब तक ऊपर से बुलावा नहीं आता,मुझे किसी तरह जीना ही पडेगा!अकेली रहना मुमकिन नहीं इसलिए बेटे के परिवार में घुसपैठ करना होगा! एक साल बीत गया फिर भी प्रभाकर का साथ छूटने का दुःख अब भी हरे घाव की तरह पीडा दे रहा है!’ राजेश्वरी अपने ही खयालों में खोई थी।
उसकी बहू मैथिली वहां के दृश्यों को केमेरे में बांध रही थी। उसके बेटे विजय का हाथ पकडकर बातें करते हुए चल रहा था सौरभ जो कानूनन राजेश्वरी का पोता था। ‘अबतक वे तीनों आकर मेरे साथ दस बारह दिन बिताकर जाते थे। अब मुझे उनके घर जाकर हमेशा केलिए रहना होगा...दोनों बातों में कितना फर्क है! क्या वहां मैं रह पाऊंगी? मुझे इस तरह छोडकर जाना चाहा तो कम से कम मेरा जीवनसाथी मुझे कोई काम सिखा जाता ताकि मैं अपना निर्वाह खुद कर पाती? पर बिना बताए अचानक गायब हो गया!’ राजेश्वरी चारों ओर के माहौल से प्रभावित न होकर इन्हीं विचारों में खोई रही।
"तुम लोग यहीं रुको, मैं जाकर बोटिंग के टिकट लेकर आता हूं" मां का कंधा हल्के से छूकर विजय चल पडा।
"पापा, मैं भी साथ चलूं?" कहते हुए सौरभ भी विजय के पीछे भागा। एक पल केलिए राजेश्वरी को बचपन में प्रभाकर के पीछे भागनेवाला विजय याद आ गया। उसने मैथिली की ओर देखा। वह अब भी नदी में तैरती नावों की तस्वीर खींच रही थी। उन तसवीरों को देखकर चित्र बनाती है वह। भले ही चित्रकार क्यों न हो, पर पावन गंगा की आरती को देखने जा रही है, फिर भी जीन्स और टीशर्ट पहन रखा है, अजीब लडकी है! टिकट लेकर विजय आ गया। कतार लंबी थी, जब तक इनकी बारी आती बोट पूरी तरह भर गई थी। इतने में दूसरी ओर से एक और बोट आई और उसमें बैठे लोग उतर गए। ये चारों आराम से उसमें चढ गए।
"यहां बैठें?" आंखों में उत्साह भरकर सौरभ ने जगह सुझाई। आगे राम झूला था जिसे देखते ही उसने पूछा,"पापा, इस झूले में खंभे क्यों नहीं हैं? इतना लंबा पुल बिना खंभों के कहीं गिर गया तो?"
"बेटा, यहां आने से पहले यहां की खासियत के बारे में इंटरनेट पर पढने को कहा था ना?"विजय ने मुस्कुराते हुए कहा।
सौरभ शरारत भरी मुस्कान बिखेरते बोला,"पढा था पापा!इसे सस्पेन्शन ब्रिज कहते हैं।नीचे नाव और ऊपर लोग बेखटके चल सकते हैं।पुल के दोनों ओर लगे बडे टवर से बंधे बडे केबल और उनसे निकलनेवाले छोटे केबल पुल को गिरने से रोकते हैं,है ना पापा?"
विजय ने उसके घुंघराले बालों में हाथ चलाते हुए लाड से कहा," बदमाश...सब जानता है तू!"
राजेश्वरी ने बहू की ओर देखा। बहू की आँखें चमक रही थीं। फ़ौरन उसने उसपर से नज़र हटा ली।
देखते ही देखते बोट भर गई।सामने बैठा सौरभ उठा और राजेश्वरी और विजय के बीच बैठते हुए बोला,"दादी ,कल राफ्टिंग केलिए आपको भी हमारे साथ आना पडेगा!"
"नहीं मुन्ना,कल तुम तीनों जाओ।सुबह ही उठकर भगवान नीलकंठेश्वर के दर्शन करने जाना है ना?उसके बाद मैं गेस्ट हाउस में आराम करूंगी।तुम जब राफ्टिंग करके आओगे तो सब गंगास्नान करने जाएंगे,"राजेश्वरी ने कहा।
"प्लीज,आप भी आइए ना,दादी!" सुमन राजेश्वरी के कंधे पर अपना सिर रखते हुए मनाने की कोशिश करने लगा।
राजेश्वरी उसकी बातों पर ज़्यादा ध्यान न देकर बाहर के दृश्य देखने लगी।चारों तरफ के दृश्य सुंदर और पवित्र लगे,फिर भी मन के अकेलेपन के कारण उनमें भी राजेश्वरी को विषाद के साए ही दिखाई दिए।
जबतक पति के साथ सुख-दुःख बांटते हुए जीती रही,कोई भी समस्या उसे बडी नहीं लगती थी।एक ही बेटा,विजय।उसे पढाया,लिखाया काबिल बनाया।उनकी मर्ज़ी के खिलाफ उसने अपना जीवन साथी खुद चुना तो भी मना नहीं किया।कहीं सात समंदर पार रहता था विजय।अपनी पसंद की लडकी के साथ खुश रहे बस,यही सोचकर मान गए।पर मैथिली उनके लिए सिर्फ विजय की पत्नी रही,कभी बहू नहीं समझा उसे।
हर तरह से सुंदर लडकी नीलिमा को राजेश्वरी ने बहू बनाना चाहा था।विजय केलिए वही सही लगी उन्हें।नीलिमा का परिवार पडोस में रहता था।राजेश्वरी को विजय केलिए जिस तरह की लडकी पसंद थी वे सारे गुण नीलिमा में थे।पर तबतक मैथिली विजय के मन में जगह ले चुकी थी।प्रभाकर ने भी समझाया कि उसे जो पसंद है वही करने दो।
वैसे अगर वे ना कहते तो भी विजय उसीसे शादी करता,यह उन्हें मालूम था। उसकी बात मानकर दोनों ने अपना मान रखा।
राजेश्वरी केलिए प्रभाकर ही सबकुछ था।इकलौता बेटा दूर रहता है,इसका खालीपन भी वह महसूस नहीं करती थी।उन दोनों में से किसी एक को पहले इस दुनिया से जाना ही पडेगा,यह खयाल भी कभी मन में नहीं आया...जैसे हमेशा केलिए का साथ हो!
अपने ही खयालों में खोकर चुप बैठी मां को देखा विजय ने।अडतीस साल मां और पिता का साथ रहा।
एक दिन प्रभाकर को तेज़ सरदर्द हुआ और खाना खाने की इच्छा नहीं हुई,तो जाकर लेट गये।राजेश्वरी ने उनसे कहा कि दो कौर दही चावल खाने से सरदर्द चला जाएगा,और ज़बर्दस्ती खाना खिलाया।उसे खाने के कुछ ही देर बाद प्रभाकर को उलटी हुई और कटे पेड की तरह निढाल होकर गिर पडे।अचानक दिल की धडकन रुक जाने से वहीं उनकी मौत हो गई।राजेश्वरी खुद को उनकी मौत का ज़िम्मेदार मानकर बहुत रोई।उस रोज़ के बाद उसमें बहुत बडा बदलाव आ गया।खाने में कोई स्वाद नहीं लगता,खाने का मन ही नहीं करता था।वह दिन ब दिन सूखने लगी और कुछ ही महीनों में उसका वज़न आधा रह गया।ज़िंदगी में उदासी और नीरसता के सिवा कुछ भी नहीं रहा।कोई मिलने आता तो उससे कहती कि अब ज़िंदा रहने का कोई मतलब समझ में नहीं आता।
पहले प्रभाकर सबकुछ संभालते थे इसलिए उसे भविष्य की कोई चिंता नहीं सताती थी।बस घर में रोज़मर्रे की ज़रूरतों,शुभ अवसरों पर खरीदे जानेवाले उपहार,या विशेष व्यंजनों की तैयारी से ज़्यादा उसे कुछ भी सोचने की ज़रूरत नहीं होती थी।उसका संसार पति से ही जुडा था,जैसे वह पेड से लिपटी लता हो।अचानक पति के चले जाने से जैसे उसपर गाज गिरी थी।उसका एकमात्र सहारा छूट गया था। मां विजय को असहाय लडकी सी दिखाई दी।मां को देखकर उसका मन भारी हो गया।उसने ठान लिया कि मैं मां की खूब देखभाल करूंगा और खोई सेहत वापस पाने में मदद करूंगा।
मैथिली से विजय का परिचय विदेश में पढते वक्त कालेज के दिनों में हुआ।पहले दोनों सिर्फ दोस्त थे।दोस्त बनाने केलिए नाकनक्श पर नहीं स्वभाव और पसंद नापसंदों पर ही ज़्यादा ध्यान दिया जाता है।पर शादी के मामले में खूबसूरती,ओहदा,जायदाद,बिरादरी सब को अहमियत दी जाती है।मैथिली में दृढ व्यक्तित्व,आत्मविश्वास,उत्साह और ज़िंदगी को खूबसूरती से जीने का अंदाज़ ने विजय को आकर्षित किया।हर साल वह भारत आता,लडकियों को देखता पर कोई पसंद नहीं आती।राजेश्वरी अपने खूबसूरत बेटे के लिए गोरी चिट्टी खूबसूरत लडकी चाहती थी।पहले विजय भी यही चाहता था।तब विजय और मैथिली के बीच सिर्फ दोस्ती थी।
बहुत सी लडकियों को देखने के बाद वह समझ गया कि सिर्फ खूबसूरती ही काफी नहीं होती।और एक बात भी समझ में आई कि शादी करने केलिए मैथिली से बेहतर कोई नहीं हो सकती।उसे जब पता चला कि मैथिली के मन में भी यही बात है तो वह खुशी से उछल पडा।
मां और पिता जी की पूरी सहमति के बिना हुई शादी होने की वजह से मैथिली और सास ससुर के बीच की दूरी यूं ही बनी रही।इस बात से विजय दुखी था।ऊपर से शादी के दो साल तक बच्चा नहीं हुआ तो मैथिली डाक्टर से मिली।सारी जांचों के बाद मालूम हुआ कि वह कभी मां नहीं बन पाएगी।और कोई होता तो शायद यह सुनकर टूट जाता।पर कुछ ही हफ्तों में मैथिली इस दुःख से बाहर निकली।उसने विजय के साथ बैठकर बात की।"अगर अपने ही खून से जन्मे बच्चे चाहते हो तो कहो,हम तलाक ले लेते हैं।तुम दूसरी शादी कर लेना।फिर भी हम दोस्त बनकर रह सकते हैं।"उसके यह कहने पर विजय उसपर बरस पडा।समस्या को छोटी बात समझकर उसे भूलने को कहा।फिर दोनों ने इस सच के साथ समझौता कर लिया और सौरभ को गोद लिया। अब उन्हें लगता ही नहीं कि वह उनका खून नहीं है।
पर राजेश्वरी को पहले डर था कि इन दोनों की शादी ज़्यादा दिन टिकेगी भी या नहीं।जब मालूम हुआ कि मैथिली कभी मां नहीं बन सकती तो यह डर और भी गहरा हो गया।मन को समझाया कि शायद टेस्ट ट्यूब बेबी केलिए कोशिश करेंगे।पर सोचा न था कि इस तरह अनाथ बच्चे को गोद लेंगे।बेटे ने उनके मन मुताबिक कोई भी काम नहीं किया तो वह उसके परिवार से मानसिक रूप से दूर हो गई।ऊपर से ऐसा बर्ताव करती थी कि सब कुछ ठीक ठाक है,पर बहू को उसने कभी नहीं अपनाया न पोते को गले लगाया।प्रभाकर को ही अपना सबकुछ समझकर बाकी सब भूल गयी ।
नाव किनारे लगी तो उसकी सोच का सिलसिला भी रुक गया।चारों नीचे उतरे और परमार्थ निकेतन की ओर चल पडे।सौरभ दादी का हाथ पकडकर चलने लगा।उसे विजय का बचपन याद आया।
जब वह छोटा था,हाथ पकडकर नहीं चलता था।अगर वह उसका हाथ पकडती तो झटककर छुडा लेता था। तब वह कहती,"बेटा मैं बूढी हो गई हूं।ठीक से चल नहीं सकती।मेरा हाथ पकडकर चलोगे?"तब वह राजेश्वरी का हाथ थाम लेता।आज सौरभ का स्पर्श उस बात को याद दिला गया।
रस्ते के दोनों तरफ दुकानें थीं। उनमे रंग बिरंगे मनके , कलाकृतियां , आदि थे। जब भी वह प्रभाकर के साथ कहीं घूमने जाती तो प्रभाकर उसके साथ आकर ऐसी छोटी मोटी चीज़ें खरीदते थे। यह याद करते ही उसकी आँखें नम हो गईं।
थोड़ी दूर चलकर परमार्थ निकेतन पहुंच गए।यात्रियों केलिए निर्मित परमार्थ निकेतन बहुत बडा है।हज़ार कमरे हैं उस आश्रम में।अहाते में फूलों के पौधे और मंदिर हैं।पौराणिक कथाओं से संबंधित शिल्प हर कहीं दिख रहे थे।उनके बारे में सौरभ बहुत सारे सवाल पूछने लगा।विजय और मैथिली उसके सवालों के जवाब दे रहे थे।राजेश्वरी एक जगह भजन गाती विधवाओं को देखकर रुक गई।
‘इनकी तरह इस जगह रुक जऊं तो...?’मन में एक पल केलिए खयाल आया।
"चलो मां,जल्दी गंगा तट पर पहुंचेंगे तो बैठने को जगह मिल जाएगी,नहीं तो भीड में कुछ भी दिखाई नहीं देगा,"विजय ने कहा तो वह जैसे नींद से जाग गई और उनके साथ चल पडी।
सामने गांगा तट के मुखद्वार सा बडा कमान था जिसपर श्रीकृष्ण और अर्जुन का शिल्प... गीता का दृश्य था। बहुत ही सुंदर लग रहा था पूरा माहौल।आगे कमान और उसमें से दिखाई देती बलखाती गंगा की धारा... जैसे किसी चित्रकार ने उसे चित्रित किया हो!उस नदी के बीचों बीच हिमनग सी ऊपर उठी महाशिव की सफेद प्रतिमा...उसे देखकर राजेश्वरी मंत्रमुग्ध होकर खाडी रह गई।
"पापा,यहां देखो बलवान बजरंग बली ! कितनी बडी मूर्ति है, हैना?"सौरभ हैरान होकर ऊंची अवाज़ में बोला।
"बेटा ,यहां मौन रहकर चारों ओर के माहौल को महसूस करो।स्वामीजी हवन करेंगे उसे देखो।यहां चारों ओर इस कार्यक्रम से जो पाजिटिव वाइब्रेशन उठेंगे उनसे हमारे बदन में एक अद्भुत भावना ...शक्ति पैदा होगी...उसे महसूस करने केलिए मौन धारण करना पडेगा।समझे?"विजय ने प्यार से उसे समझाया..
वह बीन की धुन पर सिर हिलानेवाले नाग की तरह सिर हिलाता सुनता रहा।
चारों आखिरी सीढी पर उतरकर हाथों और मुंह पर गंगाजल छिडका और ऊपर चढकर एक सीढी पर बैठ गए।हवन शुरू हो गया था।लगभग पच्चीस बाल ब्रह्मचारी वेद मंत्रों का पाठ कर रहे थे।
गंगा माई के पैरों की मृदु ध्वनि एक तरफ और मुक्त कंठ से किया जानेवाला मंत्रोच्चारण एक तरफ। उस शांत वातावरण मे राजेश्वरी के मन की सारी पीडा ,सारी उदासी दूर हो गई। वह आंखें मूंदकर मंत्रोच्चारण सुनने लगी।उस उच्चारण से जैसे उसके बदन में नए स्पंदन जागने लगे।अंदर की सभी उलझनें , परेशानियां सुलझने लगीं और ऐसा लगा कि न दिखाई देनेवाली किसी बीमारी का मानो इलाज होने लगा!
’क्या मैं इसी धरती पर हूं?मेरा मन इतना सुकून कैसे पाने लगा है?’यही सोचती वह एक घंटे तक उसी अलौकिक आनंद में डूबी रही।
कुछ ही देर बाद स्वामीजी बडी नर्म आवाज़ में बोलने लगे-इस पर्यावरण की और खासकर कई जीवों के प्राणों का आधार इस गंगाजल की पवित्रता और शुद्धता को बनाए रखना ज़रूरी है।अपनी विरासत को नष्ट होने से बचाना चाहिए। राजेश्वरी को उनकी बातें और वेद के श्लोक सुनते हुए ऐसा लगा जैसे हर चीज़ में सूक्ष्म रूप में विद्यमान उस परमात्मा के दर्शन पा रही हो!’अगर सबमें वही परमात्मा अंश रूप में है तो फिर एक व्यक्ति की मौत ने मुझे दुःख के सागर में क्यों धकेल दिया?’वह समझने की कोशिश करने लगी।
संध्या- समय हो गया कुछ ही क्षणों में वहां नृत्य और संगीत आरंभ हो गया।
सीढियों पर रखे पीतल के दीये जलाये गए।अंधेरा घिरने लगा और इस अंधेरे में महाशिव की प्रतिमा और भी तेजस्वी दिखने लगी...राजेश्वरी को लगा जैसे उसके मन का सारा दुःख उस प्रतिमा में लीन होता जा रहा है।
दूसरे तट की ओर देखा।हज़ारों की भीड थी पर आरती के गीतों के अलावा वहां पूरी तरह निश्श्ब्दता छाई थी।स्वामीजी के शिष्यों ने गंगा माई की आरती उतारी।गंगा का जल दो सीढियां ऊपर चढ आया मानो आरती स्वीकार कर रहा हो। सबके हाथों में आरती के थाल बारी बारी दिए गए और वापस शिष्यों के पास पहुंच गए।हवन भस्म को सबने माथे पर मला।
धीरे धीरे वापस राम झूले की ओर बढे।झूले पर सौरभ उछलकर चलने लगा।उसे बहुत मज़ा आ रहा था।विजय से कहा,"पापा,देखो यह पुल कैसे हिल रहा है...झूले की तरह!"
"इसीलिए तो इसका नाम राम झूला है !"विजय ने मुस्कुराकर कहा।
शायद लोगों को एक अलौकिक अनुभूति मिली थी,इसीलिए सब चुपचाप पुल पर चलने लगे।पुल को पार करने में दस मिनट लगे।
विजय जैसे खुद ही से कह रहा था," यह पुल तो दो तटों को जोडता है।पर इससे बडा है वह वारधि जो लोगों को एकसूत्र में बांधता है!"
राजेश्वरी को लगा वह शायद मुझे सुनाने केलिए ही कह रहा है।पर मन में कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई।बहुत दिनों बाद उस रात को वह गहरी नींद सोई।
अगली सुबह पौ फटते ही उठकर स्नान आदि करके नीलकंठेश्वर के दर्शन केलिए निकल पडे।गाडी में पहाडी रास्ते का डेढ घंटे का सफर।सडक के दोनों ओर घने पेड थे सुबह की पनीली धूप में पेडों के घने हरे पत्ते चमक रहे थे।पहाडों की श्रेणियां कहीं हरी तो कहीं नीली दिखाई दे रही थीं।जैसे चारों ओर की प्रकृति को किसीने सुनहरे रंग में रंग दिया हो!बडा मनोहर दृश्य था।गंगा नदी तो रास्ते भर शरारती बच्चे क तरह उनके पीछे पीछे दौडती आई।जिधर भी देखते वहां से नज़र हटाना मुश्किल लगता।
भगवान के दर्शन करके लौटने लगे तो सौरभ फिर दादी को मनाने लगा,"दादी,प्लीज़ आप भी राफ्टिंग केलिए आइए ना? बिल्कुल खतरा नहीं होता।हम पहले भी एक बार गए थे।"
"मैं इस उम्र में राफ्टिंग क्या करूंगी,मुन्ना!तुम तीनों हो आओ।"
"मैं आरती में आया था ना,आपको भी मेरी बात माननी होगी दादी!"
"तू तो बोट में जाना और रामझूला पर चलना चाहता था,इसीलिए आया," उसने मुस्कुराते हुए कहा।
"ऐसा कुछ नहीं है।क्या कोई पहाडों और नदियों की आरती उतारता है भला?आप तीनों जा रहे थे इसलिए मुझे भी आना पडा।पापा हमेशा कहते हैं, एक परिवार में रहनेवालों को प्यार से साथ रहना है।कुछ काम इच्छा न होने पर भी एक दूसरे केलिए करना चाहिए,"सौरभ ने सीधे दादी की आंखों में देखते हुए कहा।राजेश्वरी को उन नन्ही आंखों में प्यार दिखा,वह दादी को साथ लिए बिना न जाने को ठान चुका था।दादी के साथ राफ्टिंग का मज़ा बांटना चाहता था। यह देखकर उस बच्चे पर उसके दिल में प्यार उमड आया।उसकी खातिर जाने का भी मन हुआ।
"मुझे पानी से डर लगता है,मुन्ना!और अब उम्र भी इस तरह के काम करने की नहीं रही," सौरभ के गाल खींचते हुए उसने कहा।
"क्या दादी?अभी आप सिर्फ अट्ठावन साल की हैं।उस दिन अखबार में नहीं पढा क्या,’लाइफ स्टार्ट्स् अट फिफ्टी’लिखा था?"
राजेश्वरी के मन में हूक सी उठी...अगर पचास की उम्र में ज़िंदगी शुरू करनी है तो फिर सत्तावन साल में जीवन साथी चला जाए तो वह औरत क्या करे?
"दादी यूं ही बहाने बनाती है बेटे!उन्हें पानी से बहुत लगाव है।शायद तेज़ बहती ,उछलती नदी से डरती हैं,बस।छोटी नदिया, बरसात का पानी उन्हें बहुत अच्छा लगता है,"विजय ने कहा।
"आप भी आइए मांजी!इसमें खतरा बिल्कुल नहीं होता।छोटे बच्चे तक राफ्टिंग करते हैं।नदी प्रवाह के साथ साथ चलने का ऐसा अनोखा अनुभव बार बार नहीं मिलता।गंगा आरती की तरह यह भी एक अद्भुत अनुभव है,"मैथिली ने कहा।
वैसे मैथिली किसी बात को ज़ोर देकर नहीं कहती।सास ने उसे पूरे मन से नहीं अपनाया यह जानकर वह अपनी हद में ही रहती।न जाने क्यों इस बार वह यह सब कह गई,और राजेश्वरी को वह अच्छा भी लगा।
"लाइफ जैकेट तो होगा ना दादी?पानी में गिर भी गए तो कुछ नहीं होता,बल्कि मज़ा आता है!"सौरभ ने कहा।
"तू चुप कर,पानी में गिरने का सवाल ही नहीं उठता। जहां प्रवाह का वेग कम होता वहां कुछ लोग जान बूझकर पानी में कूद पडते हैं,"मैथिली ने कहा।
राजेश्वरी ने विजय की ओर देखा।"चलो ना मां! तुम कभी गई नहीं हो इसलिए डरती हो।उम्र में तुमसे बडे भी आते हैं,"विजय ने ढाढस बंधाई।
’ज़्यादा से ज़्यादा क्या होगा...डूबकर मर जाऊंगी...तो भी क्या फर्क पडेगा!’राजेश्वरी ने सोचा,और कहा,"ठीक है मुन्ना कह रहा है इसलिए आऊंगी!"
मन में घबराहट ज़रूर थी,फिर भी राजेश्वरी ने उसे ज़ाहिर नहीं होने दिया।दोपहर का खाना खाने के बाद ,थोडी देर सुस्ताकर राफ्टिंग केलिए निकले।राजेश्वरी ने साडी की जगह सल्वार कुर्ता पहना।
विजय ने पहले सिर्फ तीन टिकट खरीदे थे।अब चौथा टिकट लेने लगा तो वह बोली,"क्यों छः सौ बेकार में खर्च करना है?मेरा आने का मन भी नहीं है!"
विजय ने छोटी बच्ची को मनाने के अंदाज़ में मां के कंधे पर हाथ डालकर कहा,"एक बार चलकर देखोगी तो कहोगी बहुत मज़ा आया! बस, अब मुझे कुछ नहीं सुनना है।चलो हमारे साथ।"
राफ्टिंग का सामान और दस लोगों के साथ जीप चल पडी।फिर से ऊंचाई तक चढाव के बाद नदी तट पर पहुंच गए।सब ने जल्दी जल्दी लाइफ जैकेट और हेल्मेट पहन लिए।मैथिली ने राजेश्वरी की मदद की।गाइड ने आकर सबकुछ चेक किया और सबके हस्ताक्षर लिए कि अगर इस दौरान किसी को चोट पहुंची या जान चली गई तो उसकी ज़िम्मेदारी राफ्टिंग करानेवालों की नहीं होगी।उसपर दस्तखत करते हुए राजेश्वरी का हाथ कांपने लगा।जीप पर बंधी राफ्ट को कुछ लोग उतार लाए और गाइड ने सबको अहतियात बरतने की कुछ बातें समझाईं।
"आंटी जी क्या आप चप्पू चलाएंगी या सिर्फ बैठना चाहेंगी?"उसने पूछा।
राजेश्वरी ने फिसलन से भरी राफ्ट को देखा और कहा,"मैं? ना बाबा...!"
मैथिली ने मुस्कुराकर कहा,"मां जी आप यहां सामने बैठिए।यहां से चारों ओर के दृश्य साफ दिखाई देंगे।यू विल ऎंज्वाय!"
राजेश्वरी मंत्रचालित सी राफ्ट् में चढकर बाताई गई जगह पर बैठ गई।राफ्ट के दोनों किनारों पर चार चार लोग बैठ गए।
"दोनों हाथों से डांडे पकडेंगे तो ऊंची लहरें आएं तो पानी में गिर न जाएंगे?" राजेश्वरी ने डर ज़ाह्र किया।
"नहीं मां,एक पैर आगे और दूसरा पीछे फंसाककर रखेंगे,"विजय ने कहा।
"छोटा बच्चा है सौरभ,वह भी डंडा चलाएगा?"
"दादी,मैं भी पापा की तरह चला सकता हूं,आप देखना!"सौरभ ने जवाब दिया।राजेश्वरी चुपचाप बैठ गई।विजय और मैथिली उसके दोनों ओर बैठ गए।
गायिड की जगह के बाद ये दोनों रैपिड में राफ्ट चलाने की खास जगहें हैं,यह जानकर वह बोली,"पीछे बैठकर माज़ा लेने के बदले क्यों ऐसे काम सर लेते हो विजय? और तुम दोनों आगे बैठोगे तो मुन्ने का ध्यान कौन रखेगा?"मन में मैथिली पर गुसा उमदने लगा ’ये कैसी मां है,बच्चे की बिल्कुल फिक्र नहीं?’
विजय कोई जवाब दिए बिना पूरी ताकत लगाकर डंडा चलाने लगा।गायिड ने सबको एकसाथ डंडा चलाने का आदेश दिया।सब सुशिक्षित फौजियों की तरह मिलकर डंडे चलाने लगे।
जैसे ही राफ्ट आगे बढने लगी राजेश्वरी की घबराहट कम होने लगी।नदी की कलकल ध्वनि को छोड हर तरफ खामोशी छाई थी।
मौसम की ठंडक सुकून पहुंचा रही थी।आगे फैला पानी बहुत सुंदर लग रहा था।चारों ओर के पहाड सूरज की रोशनी में नहा रहे थे।राजेश्वरी ने सोचा,’कभी प्रकृति को इतनी नज़दीक से नहीं देखा मैंने!’
पीछे बैठा कोई लडका गाने लगा," गंगा तेरा पानी अमृत..."
पांच मिनट राफ्ट आगे चली तो गायिड ने कहा,"अब पहाला रैपिड आएगा।सब लोग संभलकर बैठिए।मैं जो करने को कहता हूं वही करना।"कुछ ही दूरी पर नदीई उफन रही थी,उसमें भंवर उठ रहे थे ,यह देखकर राजेश्वरी का दिल धक धक करने लगा।
"मैडम, आप झुककर राफ्ट पर लगे रिंघ पकडिए और सिर राफ्ट के आगे के हिस्से पर सटाकर बैठ जाइए “गायिड ने कहा तो राजेश्वरी ने वैसा ही किया।राफ्ट चलानेवालों को गायिड लगातर सूचनाएं दे रहा था।राजेश्वरी मन ही मन सबकी सुरक्षा केलिए प्रार्थना करने लगी।तभी राफ्ट लहरों पर चढकर नीचे की ओर फिसली।
विजय चिल्ला चिल्लाकर सौरभ को डंडा चलाने का तरीका बताने लगा।राजेश्वरी ने कनखियों से मैथिली को देखा और सोचा,’इस लडकी में कितना आत्मविश्वास है!विजय सी बराबरी करते हुए डंडा चला रही है!!’
ऊंची लहरें ज़ोर से राफ्ट को दोनों तरफ से थपेडे लगाने लगीं।सब पानी में पूरी तरह भीग गए।बडी सी ऊंची लहर पर चढकर जब भी राफ्ट नीचे की ओर जाता तो सब मज़ा लेलेकर चहक उठते।राजेश्वरी को पीछे अकेले बैठे सौरभ की फिक्र बेचैन करने लगी।पर उसकी ऊंची आवाज़ में खुशी ज़ाहिर करने पर वह तसल्ली पा लेती।
किसी तरह पहले रैपिड को सही सलामत पार किया और फिर से पानी का बहाव शांत हो गया।राजेश्वरी धीरे उठी और पहलेवाली जगह पर बैठ गई।सब बडे उत्साह में थे।उस रैपिड को पार करना जैसे राजेश्वरी को कुछ सिखा गया था।ऊंची लहरों पर चढकर राफ्ट डोलती चलती है।तब क्या करना है यह दोनों गायिड समझाकर सबको सुरक्षित पार करा देते हैं।पानी में कोई गिर भी जाए तो लाइफ जैकेट पहने होने की वजह से डूबते नहीं।बाकी लोग उसे राफ्ट में चढा देते हैं।पानी में पत्थर वगैरह हो तो छोटे मोटे घाव लगेंगे,पर इतना-सा खतरा मोलने केलिए तैयार होकर ही राफ्टिंग केलिए आते हैं।यह सोचकर राजेश्वरी के मन को तसल्ली मिली।
दस मिनट आराम से आगे बढने के बाद गायिड ने दूसरे रैपिड के आने की सूचना दी।फिर से लोगों में उत्साह बढा और उसे भी पार करने केलिए जल्दी जल्दी हाथ चलाने लगे।
राजेश्वरी ने सोचा,' गंगा नदी बिना रुके सभी अडचनों को पार करती हुई, रुकावट आने पर अपना रास्ता मोड़ती हुई , सदियों से चली जा रही है, ये कभी थकती नहीं?' उसे लगा कि नदी उसे कुछ गूढ बात समझा रही है!
फिर से पानी का जोर कम हो गया और राफ्ट आराम से चलने लगी तो मैथिली ने सास की ओर देखकर कहा,"विजय,मां जी कांप रही हैं।शायद उन्हें ठंड लग रही है।"
कांपते होंठों को दबाते हुए राजेश्वरी ने कहा," अरे नहीं,मैं ठीक हूं!" फिर उसने मुडकर पोते को देखा।
"कैसा लग रहा है दादी? सूपर लग रहा है ना?"सौरभ ने हंसते हुए कहा।
'बदमाश कहीं का!' राजेश्वरी ने प्यार से उसे देखा।
तीसरा रैपिड पार करते करते उसका डर लगभग खत्म हो गया।रैपिड पार करने के बाद जो सुकून मिलता है उसका अनुभव बडा अनोखा था।
"आप लोग चूयिंग गम या टॉफी जैसी चीज खाएं तो उसका रैपर नदी में मत डालिए,बल्कि मुझे दे दीजिए।किनारे पर पहुंचकर मैं उन्हें कूडे में फेंक दूंगा," गायिड नॅ कहा।राजेश्वरी ने मुडकर उसे देखा।'बीस बाईस साल का लडका,फिर भी कितना बेफिक्र और हिम्मत से भरा है ।डरना छोड देने से जीना कितना आसान हो जाता है!'उसने सोचा।
दूर किनारा दिखाई दिया।वहां बहुत सारे राफ्ट खडे थे।
गायिड ने फिर कहा,"साब,हम दस किलोमीटर का सफर पूरा कर चुके हैं।यहां पांच मिनट रुकेंगे।किसीको पानी वानी पीना हो तो पी लें।"
"और कितनी दूर जाएंगे?" राजेश्वरी ने पूछा।
"क्यों थक गई हो मां? ठंड लग रही है?" विजय ने मां का हाथ छूते हुए पूछा।
"नहीं बेटा,मैं भली चंगी हूं। जानना चाहती थी, बस," राजेश्वरी ने कहा।प्रकृति की गोद में उसे बडा आराम मिल रहा था।
"सोलह किलोमीटर और चलना है,मां।यहां से कुछ और राफ्ट हमारे साथ चलेंगे।अब जो मजा आएगा वह अलग तरह का होगा।
पांच मिनट बाद राफ्ट फिर चल पडी।दूसरी राफ्ट में बैठनेवाले कालेज के छात्रों को देखकर सबने हाथ हिलाया।
डर कम हो जाने के बाद जब भी ऊंची लहरें सराबोर कर जातीं तो राजेश्वरी को लगता गंगा माई ने उसे पूरी तरह नहला दिया।नदी के बीचों बीच मां खुद स्वछ जल से नहला रही है,खुद तट पर पहुंचकर स्नान करने में और इस तरह नदी के हाथों नहाने में कितना फर्क है! यह सोचकर वह मुग्ध हो गई।
चार घंटों का नदी-विहार के बाद छब्बीस किलोमीटर का सफर आखरी पडाव पर पहुंचा।अब नदी चौडी और गंभीर दिखने लगी।गायिड ने कहा,"यहां सब पानी में उतर सकते हैं," तो अगले पल एक एक करके सब पानी में कूद पडे।मैथिली भी पानी में कूदकर मछली सी तैरने लगी।कुछ लोगों ने केमेरे लेकर तसवीरें खींचीं।और कुछ जांबाज तीस फुट ऊंचे पहाड पर चढ गए और वहां से ' क्लिफ जंपिंग' किया।मैथिली और सौरभ को इस तरह पहाड से कूदते देख राजेश्वरी अवाक रह गई।चाय,मेगी बेचने वालों ने आकर उन्हें घेर लिया। राजेश्वरी ने सिर्फ चाय ली।सौरभ ने मेगी खाई।फिर सब आकर राफ्ट में बैठ गए।
"पापा,देखो रामझूले के पास पहुंच गए!"सौरभ जोर से चिल्लाया।
राफ्ट पुल के नीचे से जाने लगा तो विजय ने सौरभ से कहा,"देखा, यह पुल किस तरह बनाया गया है?नदी को कोई परेशानी न हो इसीलिए झूले के आकार में बनाया।और तुमने गौर किया,गायिड ने छोटा सा कागज का टुकडा भी नदी में फेंकने से मना किया।गंगा उन्हें रोजी रोटी देती है।इसीलिए ये उसकी देखभाल इतनी श्रद्धा से करते हैं।पर्यावरण की रक्षा करने पर ही प्रकृति हमें आनंद का अनुभव कराती है, समझे?" "जी,पापा! आप,मम्मी और दादी ने मुझे ऐसे अद्भुत सफर का अनुभव कराया...थैन्क्स पापा !"कहकर उसने विजय की ओर फ्लायिन्ग किस फेंका!
कुछ ही देर में वहां पहुंच गए जहां से निकले थे।राफ्ट से उतरते हुए सबमें एक अनोखा उत्साह भरा था...मन उल्लास से भर गए थे।राजेश्वरी उतरने लगी तो मैथिली ने हाथ बढाया।राजेश्वरी ने उस हाथ को प्यार से थामकर उतरी।दूसरे किनारे पर परमार्थ निकेतन था,जहां कल गम्गा की आरती उतारी गई थी।सबके साथ सडक पर चलते हुए राजेश्वरी ने सबको सुरक्षित वापस लौटाने केलिए भगवान को मन ही मन कृतज्ञता प्रकट की।
" पापा,फिर कब आएंगे...?" सौरभ मचलते हुए बोला।
"अभी यह सफर पूरी करके घर भी नहीं पहुंचे,और पूछ रहे हो फिर कब आएंगे? मेरे मुन्ने राजा,अगले साल फिर आएंगे,ठीक है?" राजेश्वरी की आवाज में पोते केलिए प्यार उमडने लगा ।
(अनुवाद : आर. शान्ता सुन्दरी)