सेमागा कैसे पकड़ा गया (रूसी कहानी) : मैक्सिम गोर्की
Semaga Kaise Pakda Gaya (Russian Story) : Maxim Gorky
सेमागा एकदम एकाकी क़हवाख़ाने में एक मेज़ पर बैठा था। वोदका का एक पौवा और पन्द्रह कोपेक मूल्य का साग वाला मांस उसके सामने रखा था।
निचले तल्ले का कमरा था। उसकी मेहराबदार छत धुएँ से काली पड़ी थी। तीन लैम्प उसमें टिमटिमा रहे थे। एक उस जगह, जहाँ कलवार बैठा था, और दो कमरे के बीच में। हवा धुएँ से अँटी थी। धुएँ के भँवरों में धुँधली काली शक्लें तैर रही थीं - बोलती और गाती, और उन्मत्त होकर गालियाँ उछालती। वे जानती थीं कि यहाँ क़ानून उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता, यहाँ वे ख़ुद अपनी बादशाह हैं।
बाहर उन भयानक तूफ़ानों में से एक - जो शरद के आखि़र में मनमाना सिर उठाते हैं - सनसना रहा था और बड़े-बड़े चिपचिपे हिमकण मरमराकर गिर रहे थे। लेकिन भीतर गरमाई, चहल-पहल और चिरपरिचित सुहावनी महक ने समा बाँध रखा था।
सेमागा, वहाँ बैठा, धुएँ के बीच से एकटक दरवाज़े की ओर देख रहा था। हर बार, जब भी किसी को भीतर आने देने के लिए दरवाज़ा खुलता, उसकी आँखें पैनी हो उठतीं। वह आगे की ओर थोड़ा-सा झुक जाता - यहाँ तक कि अपने चेहरे को ओट में करने के लिए अपना एक हाथ तक उठा लेता - और भीतर आनेवाले की आकृति को बारीक़ी से परखता। और एक बहुत ही वाजिब कारण से वह ऐसा करता था।
जब वह नये आनेवाले का बारीक़ी से - विस्तार के साथ - अध्ययन कर चुकता और उस बात की दिलजमई कर लेता, जिसकी दिलजमई वह करना चाहता था, तब वह अपने गिलास में वोदका उँडेलता, उसे गले के नीचे उतारता, मांस और आलू के आधा एक दरजन टुकड़ों को मुँह में भर लेता और बैठकर धीरे-धीरे उन्हें चबाता रहता, होंठों से चटखारे लेते और अपनी बाँकी सैनिकशाही मूँछों को जीभ से चाटते हुए।
सीली हुई भूरी दीवार पर एक अजीब ऐंड़ी-बैंड़ी परछाईं पड़ रही थी। यह उसके बाल-बिखरे बड़े सिर की परछाईं थी और जब वह मुँह चलाता था तो ऊपर-नीचे होती रहती थी, मानो वह सिर हिला-हिलाकर बराबर किसी को बुला रही थी और जिसे बुलाया जा रहा था वह कोई ध्यान नहीं दे रहा था।
सेमागा का चेहरा चौड़ा, गालों की हड्डियाँ उभरी हुई और दाढ़ी से मुक्त थीं। उसकी आँखें बड़ी और भूरी थीं और उन्हें सिकोड़े रखने की उसे एक आदत-सी पड़ गयी थी। काली घनी भौंहें उसकी आँखों पर छाया किये थीं और घुँघराले बालों की एक लट - जिसका रंग कोई रंग नहीं था - उसकी बायीं भौंह के ऊपर, क़रीब-क़रीब उसे छूती हुई, झूल रही थी।
कुल मिलाकर, सेमागा का चेहरा उन चेहरों में से नहीं था जिन्हें देखकर उनका विश्वास करने को जी चाहता है। उसके चेहरे पर कसाव का वह भाव, जैसेकि किसी समय भी उठकर भाग जाने के लिए वह तैयार बैठा हो, एक ऐसा भाव, जो इन लोगों के बीच और इस जगह तक में बे-मौजूँ मालूम होता था, हृदय में उसके प्रति किसी भी विश्वास को जमने नहीं देता था।
वह एक खुरदरा ऊनी कोट पहने था जो कमर में एक डोरी से बँधा था। बग़ल में उसकी टोपी और दस्ताने पड़े थे और कुर्सी की पीठ के सहारे रोबदार आकार-प्रकार का एक डण्डा टिका था जिसके एक छोर पर मूठ-सी उभरी थी। यह जड़वाला सिरा था।
हाँ तो वह इस प्रकार बैठा खाने-पीने में मगन था और कुछ और वोदका के लिए ऑर्डर देने ही जा रहा था कि तभी फटाक-से दरवाज़ा खुला और क़हवाख़ाने में एक गोल-मटोल और खुरदरी-सी चीज़ लुढ़क आयी जो, दुनिया साक्षी है, नाव खींचने के रस्से का एक बड़ा गोला मालूम होती थी जिसे खोलने के लिए लुढ़का दिया गया हो। ठीक इस खुलते हुए गोले की भाँति लुढ़कते हुए उसने क़हवाख़ाने में प्रवेश किया।
“ऐ, चौकस हो जाओ, लोगो! पुलिस धावा कर रही है!” ऊँची विचलित बचकाना आवाज़ में वह चिल्ला उठी।
लोग तुरत कमर सीधी करके बैठ गये, शोर बन्द हो गया और वे, चिन्तित मुद्रा में, सलाह करने लगे। उनके बीच से, मरमरायी-सी बेचैन आवाज़ों में, कुछ सवाल प्रकट हुए -
“क्या सच कहते हो?”
“मुझे मार डालना अगर ग़लत निकले तो! वे दोनों ओर से आ रहे हैं। घोड़ों पर भी और पैदल भी। दो अप़फ़सर और ढेर सारे पुलिसमैन!”
“वे किसकी खोज में हैं? कुछ मालूम हुआ?”
“सेमागा की, मेरा अन्दाज़ है। निकिप़फ़ोरिच से वे उसके बारे में पूछताछ कर रहे थे,” बचकाना आवाज़ ने सुर में जवाब दिया और वह गुदड़ीनुमा आकृति, जिसकी कि यह आवाज़ थी, कलवार की दिशा में लुढ़क गयी।
“क्यों, क्या निकिप़फ़ोरिच पकड़ा गया?” टोपी को अपने उलझे हुए बालों पर जमाते और बिना किसी उतावली के उठते हुए सेमागा ने पूछा।
“हाँ, उन्होंने उसे अभी-अभी पकड़ा है।”
“यहाँ?”
“चची मारिया के घर पर, ‘स्टेन्का’ शराब-घर।”
“क्या तुम सीधे वहीं से आ रहे हो?”
“ओ-हो-हो! बाग़ के बाड़ों को फाँदता-लाँघता भागा हुआ मैं यहाँ आया और अब मैं सीधे ‘बरजा’ शराब-घर जा रहा हूँ। उन्हें सूचित करना भी ज़रूरी है, मेरी समझ में।”
“लपक जाओ!”
लड़का पलक झपकते क़हवाख़ाने से बाहर हो गया। लेकिन उसके निकलने पर दरवाज़ा अभी बन्द हुआ ही था कि क़हवाख़ाने का पक्के बालों वाला वृद्ध मालिक ईओना पेत्रेविच, जो कि एक धर्मभीरू आदमी था, आँखों पर बड़ा-सा चश्मा चढ़ाये और खोपड़ी पर गोल टोपी चिपकाये, उसके पीछे लपका -
“ऐ छछून्दर, शैतान के बच्चे! यह तूने क्या किया, सुअर की नापाक औलाद! पूरी रकाबी डकार गया!”
“किस चीज़ की?” सेमागा ने, जो अब दरवाज़े की ओर बढ़ रहा था, पूछा।
“कलेजी की। एकदम चट कर गया। मेरी तो यही समझ में नहीं आता कि इतनी-सी देर में उसने यह किया कैसे? क्या एक ही बार में पूरी रकाबी गले में उँडेल ली? हरामी कहीं का!”
“तो यह कहो कि तुम्हें वह भिखारी बना गया, क्यों?” दरवाज़े से बाहर होते हुए सेमागा ने रूखी आवाज़ में कहा।
नम और थपेड़े मारती हवा के बगूले - छोटी-मोटी आवाज़ें करते - इस-उसको खड़खड़ाते - ऊपर और सड़क की सीधा में सपाटे भर रहे थे और वायु उबलता हुआ दलिया की भाँति मालूम होती थी - इतनी घनता के साथ भीगे हुए हिम-कण गिर रहे थे।
सेमागा ने, एक क्षण के लिए रुककर, कानों से टोह ली। लेकिन हवा के सनसनाने और हिम-कणों की सरसराहट के सिवा, जो घरों की दीवारों-छतों पर गिर रहे थे, और कोई आवाज़ नहीं सुनायी दी।
वह चल दिया और दसेक डग भरने के बाद ही एक बाड़े को उसने लाँघा और किसी घर के पिछले बाग़ में पहुँच गया।
तभी एक कुत्ता भौंका और उसके जवाब में घोड़े ने हिनहिनाकर ज़मीन पर अपना पाँव पटका। सेमागा जल्दी से बाड़ा लाँघकर फिर सड़क पर आ गया और नगर के मध्य भाग की ओर चल दिया। अब उसके डग, पहले की निस्बत, अधिक तेज़ी से उठ रहे थे।
कुछ मिनट बाद उसे अपने सामने एक आवाज़ सुनायी दी जिसने उसे एक अन्य बाड़ा लाँघने के लिए बाध्य कर दिया। इस बार, बिना किसी दुर्घटना के, वह आगे का सहन पार कर गया, खुले दरवाज़े में से होकर बाग़ में दाखि़ल हुआ, अन्य बाड़ों को लाँघा और अन्य बाग़ों को पार किया और अन्त में एक सड़क पर पहुँच गया जो उसी सड़क के समानान्तर चली गयी थी जिसपर कि ईओना पेत्रेविच का क़हवाख़ाना था।
चलते-चलते उसने छिपने के लिए किसी सुरक्षित स्थान के बारे में सोचने की कोशिश की, लेकिन ऐसा कोई स्थान दिमाग़ में नहीं आया।
जितने भी सुरक्षित स्थान थे वे सब अब अरक्षित हो गये थे, क्योंकि पुलिस धावा मारने पर उतर आयी थी। और धावा करनेवालों या रात के चौकीदार द्वारा पकड़े जाने के ख़तरे के रहते ऐसी आँधी में बाहर रात बिताने की कल्पना भी कोई ख़ास आह्लादपूर्ण नहीं थी।
वह अब धीरे-धीरे चल रहा था, सामने तूफ़ान के सफ़ेद अँधेरे पर आँखें जमाये जिसमें से नर्म बर्फ़ के गालों से ढँके घर, घोड़े बाँधने के अड्डे, सड़क की रोशनी के खम्बे और पेड़ एकाएक बिना आवाज़ किये निकल आते थे।
तूफ़ान की आवाज़ से अलग एक विचित्र आवाज़ सुनकर उसके कान खड़े हो गये। यह आवाज़ उसके सामने किसी जगह से आ रही थी। यह किसी बच्चे के रोने की नर्म आवाज़ से मिलती थी। वह रुक गया और ख़तरे की गन्ध से आशंकित वन्य जीव की भाँति उसकी गरदन आगे की ओर तन गयी।
आवाज़ आनी बन्द हो गयी।
सेमागा ने अपनी गरदन हिलायी और फिर आगे बढ़ चला। टोपी को और भी अधिक नीचे खींचकर उसने अपनी आँखों को ढँक लिया और हिम-कणों से अपनी गरदन को बचाने के लिए कन्धों को उचकाकर एक कूब-सा निकाल लिया।
उसे फिर रोने की आवाज़ सुनायी दी और इस बार यह ठीक उसके पाँव के नीचे से आ रही थी। वह चौंका, रुका, नीचे झुका अपने हाथों से ज़मीन को टटोला, सीधा खड़ा हो गया और उस बण्डल से बर्फ़ अलग करने लगा जो कि उसे मिला था।
“वाह, क्या साथी मिला है राह चलते! एक बच्चा! बोलो, क्या कहते हो अब तुम?” शिशु को देखते हुए वह अपनेआप बुदबुदाया।
उसमें गरमाई थी। वह किलबिला रहा था। पिघली हुई बर्फ़ से वह एकदम गीला हो गया था। उसका चेहरा, जो सेमागा की मुट्ठी जितना भी बड़ा नहीं था, लाल और झुर्रियाँ-पड़ा था, उसकी आँखें बन्द थीं और उसका छोटा-सा मुँह रह-रहकर खुल और छोटी-छोटी चुसकियाँ-सी भर रहा था। उसके चेहरे के इर्द- गिर्द लिपटे चिथड़े में से पानी चूकर उसके नन्हे दाँतविहिन मुँह में पहुँच रहा था।
स्तब्ध हो जाने पर भी सेमागा में इस बात का चेत था कि इन चिथड़ों से चुआ पानी बच्चे के पेट में नहीं जाना चाहिए, सो उसने बण्डल को उलटकर उसे हिलाया।
लेकिन बच्चे को शायद यह रुचा नहीं और इसके विरोध में वह ज़ोरों से चीख़ उठा।
“तक-तक!” सेमागा ने कड़ी आवाज़ में कहा, “तक-तक! मुँह से ज़रा भी आवाज़ न निकले, समझे! नहीं तो कान खींच दूँगा। बोलो, मुझे ऐसी क्या पड़ी थी जो मैं तुमसे उलझ गया? गोया मुझे बस तुम्हारी ही ज़रूरत थी। लेकिन तुम हो कि रोना शुरू कर दिया। बोलो, नन्हें बुद्धू और कैसे होते हैं?”
लेकिन सेमागा के शब्दों का बच्चे पर ज़रा भी असर नहीं हुआ, धीमी और रुआँसी आवाज़ में उसने चिचियाना जारी रखा। सेमागा इससे अत्यधिक विचलित हो उठा -
“भई वाह, तुम भी कैसे दोस्त हो? देखो, यह अच्छी बात नहीं है। यह मैं जानता हूँ कि तुम गीले हो गये हो और तुम्हें ठण्ड सता रही है - और यह कि तुम एकदम छिपकली हो, लेकिन मैं कर भी क्या सकता हूँ? बोलो, तुम्हीं बताओ।”
लेकिन बच्चा अभी भी चिचिया रहा था।
“नहीं मानते तो यह लो,” सेमागा ने निर्णयात्मक स्वर में कहा, चिथड़े को बच्चे के चारों ओर और कसकर लपेटा और उसे फिर ज़मीन पर रख दिया।
“और कोई चारा नहीं। तुम ख़ुद देख सकते हो कि मैं तुम्हारा कुछ नहीं कर सकता। मैं ख़ुद भी एक तरह से परित्यक्त ही हूँ। अच्छा तो अब राम-राम और बस।”
सेमागा ने हवा में हाथ हिलाया और चल दिया, बुदबुदाता हुआ -
“अगर पुलिस छापा न मारती तो शायद तुम्हारे लिए कोई न कोई घोंसला खोज निकालता। लेकिन पुलिस छापा मार रही है। इसके लिए मैं क्या कर सकता हूँ? नहीं दोस्त, कुछ नहीं कर सकता। मुझे माफ़ करना, सच, तुम्हें माफ़ करना ही पड़ेगा। तुमने किसी का कुछ नहीं बिगाड़ा, तुम एकदम निर्दोष हो और तुम्हारी माँ एक डायन है - पूरी डायन। छिनाल कहीं की! अगर कभी मेरे पाले पड़ गयी तो, कम्बख़्त एक भी पसली बाक़ी न रहने दूँ, भुरकस निकाल दूँ। होश ठिकाने आ जाये और फिर कभी ऐसा करने का साहस न हो। मालूम हो जाये कि बस, यहाँ तक बढ़ना चाहिए, इससे आगे नहीं । ओइयू, स्त्री के चोले में शैतान, हृदयहीन गाय! दुखों की आग में तू जलेगी, धरती में समाना चाहेगी तो वह भी तुझे उगल देगी। तू समझती क्या है? यह भी कोई खेल है कि जहाँ-तहाँ मुँह मारा, जब बच्चे हुए तो उन्हें इधर-उधर फेंक दिया? क्यों, यही न? अगर मैं तेरा झोंटा पकड़कर तुझे बाज़ार में से घसीटता हुआ ले चलूँ तो? तेरा यही इलाज है, कुतिया! क्या तू इतना भी नहीं जानती कि ऐसी आँधी तूफ़ान में बच्चों को जहाँ-तहाँ नहीं फेंका जा सकता? वे कमज़ोर और बेबस होते हैं और इस बर्फ़ को निगलकर मर सकते हैं। बेवकूफ़ कहीं की! बच्चे को फेंकना ही था तो यह आँधी-पानी निकल जाने देती, कोई बढ़िया सूखी रात इसके लिए चुनती। मेंह-पानी से मुक्त रात में उनके जीवित रहने की सम्भावना ज़्यादा हो सकती है और उनपर अधिक लोगों की नज़र पड़ सकती है। लेकिन ऐसी रात में भी क्या कोई घर से निकलता है?”
और यही सब सोचते-सोचते न जाने कब सेमागा फिर उस बच्चे के पास पहुँच गया और अपनी गोदी में उसने उसे उठा लिया। उसकी माँ को सम्बोधित करने में वह इतना डूबा था कि उसे ख़ुद पता नहीं चला कि कब और कैसे यह सब हो गया। लेकिन उसने बच्चे को उठा अपने कोट के भीतर छिपा लिया। और उसकी माँ को आखि़री और सबसे तेज़ डाँट पिलाने के बाद वह फिर अपने रास्ते पर चल दिया। उसका हृदय भारी था और उतना ही दयनीय, जितना दयनीय कि वह बच्चा, जिसके लिए उसका हृदय इतना उमड़-घुमड़ रहा था।
बच्चा क्षीण भाव से किलबिला और चूँ-चूँ की धीमी आवाज़ कर रहा था जो भारी ऊनी कोट और सेमागा के भारी पंजे से दबी वहीं खो जाती थी। कोट के नीचे फटी कमीज़ के सिवा सेमागा और कुछ नहीं पहने था, सो उसे बच्चे के नन्हे बदन की गरमाई अनुभव करने में देर नहीं लगी।
“एइयू, नन्हे बरखुरदार!” बर्फ़ के बीच बढ़ते हुए वह बुदबुदाया, “राह में मिले मेरे साथी, तेरा मामला सचमुच में गड़बड़ है। आसार अच्छे नज़र नहीं आते। भला बता तो सही, तेरा मैं क्या करूँगा? और तेरी वह माँ...बस...बस, चुपचाप पड़ा रह। कहीं नीचे न गिर पड़ना!”
लेकिन बच्चा किलबिलाता रहा और अपनी कमीज़ के छेद में से उसके होंठों के गर्म स्पर्श का उसने अनुभव किया। उसके होंठ उसकी छाती पर कसमसा रहे थे।
सेमागा सहसा रुककर एकदम निश्चल खड़ा हो गया और चकित आवाज़ में ज़ोरों से कह उठा -
“अरे, यह स्तन की टोह में है। अपनी माँ के स्तन की! ओ भगवान! अपनी माँ के स्तन की!”
और, जाने क्यों, सेमागा का समूचा बदन थरथरा उठा - शायद लज्जा से, शायद भय से - किसी ऐसे भाव से, जो विचित्र था, बहुत ही प्रबल, दुखद और हृदयविदारक।
“मुझे अपनी माँ समझता है, जंगली कहीं का, इतनी भी अक़ल नहीं! आखि़र तेरा इरादा क्या है? और तू मुझसे चाहता क्या है? भाई मेरे, मैं एक फ़ौजी आदमी हूँ, और एक चोर, अगर तू जानना ही चाहता है तो!”
हवा की सायँ-सायँ में एक अजब वीरानगी महसूस हो रही थी।
“तुम्हें अब सो जाना चाहिए। समझे, अब चुपचाप सो जाओ। ऊँ-हुक, चीं-चीं न करो, सो जाओ। होंठों को क्या कसमसाते हो, एक बूँद पल्ले नहीं पड़ेगी। बस, सो जाओ। यह देखो, मैं तुम्हें एक लोरी सुनाता हूँ, हालाँकि यह काम मेरा नहीं, तुम्हारी माँ का है। हाँ तो, सो जा रे लल्ला, सो जा रे। बस, बस, अब सो जा, मैं कोई आया थोड़े ही हूँ!”
और सहसा सेमागा, अपने सिर को बच्चे की ओर ख़ूब नीचे झुकाये, धीमे और विलम्बित स्वरों में, हृदय की समूची कोमलता बटोरकर, गाने लगा -
तू हरजाई ज़रा न माई
करे क्यों कोई तुझसे प्यार
और इन बोलों को उसने ऐसे गाना शुरू किया जैसे लोरी गा रहा हो।
सफ़ेद अँधेरा अभी भी चारों ओर उमड़-घुमड़ रहा था और सेमागा बच्चे को अपने कोट में छिपाये पटरी पर बढ़ता जा रहा था। बच्चे का चिचियाना जारी था और चोर सेमागा कोमल स्वरों में गा रहा था -
जब होगी सुहानी रात,
करूँगा तुझसे दो-दो बात,
फिर खाकर तगड़ी लात
काँपेगा थरथर गात!
और उसके गालों पर से बूँदे लुढ़ककर नीचे तिरती आ रही थीं। हो न हो, यह पिघलती बर्फ़ की बूँदे थीं। रह-रहकर उसके बदन में एक कँपकँपी-सी उठती, गला रुँध-सा और छाती पर एक बोझ-सा मालूम होता। इतनी वीरानगी का उसने पहले कभी अनुभव नहीं किया था जितनी की वह अब - इस सूनी सड़क पर, तूफ़ान के बीच, कोट के भीतर चूँ-चूँ करते बच्चे को छिपाये - चलते समय अनुभव कर रहा था।
लेकिन वह, फिर भी, बढ़ता ही गया।
पीछे से टापों की धुँधली आवाज़ सुनायी दी। घुड़सवार पुलिसमैनों की छाया-आकृतियाँ अँधेरे में उभरीं और देखते न देखते उसके बराबर में आ पहुँची।
एक साथ दो आवाज़ों ने पूछा -
“ऐ, कौन जा रहा है?”
“तेरा नाम क्या है?”
“और यह भीतर क्या छिपाये है? इसे बाहर निकाल, जल्दी!” अपने घोड़े को एकदम पटरी से सटाते हुए एक पुलिसमैन ने आदेश दिया।
“यह क्या? - अरे, यह तो बच्चा है!”
“तेरा नाम?”
“सेमागा...आख़्तीर-निवासी।”
“ओ-हो! वही जिसकी हमें टोह थी। सीधे, मेरे घोड़े के आगे-आगे चले चलो!”
“मैं और बच्चा, घरों की ओट में ही चलें तो अच्छा हो। यहाँ सड़क पर हवा बहुत तेज़ है। बीच सड़क हमारे लिए ज़रा भी ठीक जगह नहीं है, हम तो ऐसे ही जाम हो रहे हैं।”
पुलिसमैनों के कुछ पल्ले नहीं पड़ा कि वह क्या कह रहा है, लेकिन उन्होंने उसे घरों की ओट में ही चलने दिया जबकि वह ख़ुद, जहाँ तक बन सकता था, निकट रहते हुए अपने घोड़ों पर उसके साथ-साथ चलने लगे।
इस प्रकार उनकी निगरानी में सेमागा ने पुलिस स्टेशन तक समूचा रास्ता पार किया।
“सो तुम लोगों ने उसे गिरफ्तार कर लिया, कर लिया न? यह बहुत अच्छा हुआ,” दफ्तर प्रवेश करने पर पुलिस-चीफ़ ने उनसे कहा।
“और यह बच्चा? इसका मैं क्या करूँ?” अपने सिर को झटकाते हुए सेमागा ने पूछा।
“यह क्या? कैसा बच्चा?”
“यह है। सड़क पर पड़ा था। यह देखिये।”
और सेमागा ने कोट के भीतर से उसे बाहर निकाल लिया। बच्चा उसके हाथों में लिजबिज पड़ा था।
“लेकिन यह मरा है!” पुलिस-चीफ़ चिल्ला उठा।
“मरा है?” सेमागा ने दोहराया। झुककर उसने नन्हे बण्डल की ओर देखा और फिर उसे मेज़ पर रख दिया।
“क्या तमाशा है,” उसाँस भरते हुए उसने कहा, “और मैं भी इसे एकदम सीधे उठा लाया। कौन जाने, अगर मैं इसे वहीं...लेकिन मैंने ऐसा नहीं किया। मैंने इसे उठाया और इसके बाद फिर नीचे रख दिया।”
“यह क्या बड़बड़ा रहे हो?” पुलिस-चीफ़ ने पूछा।
सेमागा ने अपने इधर-उधर खोई हुई नज़र से देखा।
बच्चे के मरने के साथ-साथ वे सब भाव भी ज़्यादातर मर चुके थे जिनका कि सड़क पर चलते समय उसने अनुभव किया था।
यहाँ वह सर्द अफ़सरशाही से घिरा था, जेल और अदालत के सिवा उसे और कुछ नज़र नहीं आता था। आहत होने की चेतना ने उसके हृदय को उमेठा। बच्चे के मृत शरीर की ओर उसने देखा। उसकी नज़र में विक्षोभ था। एक आह भरते हुए बोला -
“तुम भी एक ही रहे! तुम्हारी ख़ातिर मैं पकड़ा गया और नतीजा कुछ नहीं। मैं था कि सोच रहा था...लेकिन तुम अपनी करनी से बाज़ न आये और मेरे शरीर पर ही मर गये। वाह!”
और सेमागा ज़ोरों से अपनी कनपटी खुजलाने लगा।
“इसे ले जाओ!” सेमागा की ओर गरदन से इशारा करते हुए चीफ़ ने कहा।
सो वे उसे ले गये।
और बस।
(1895)