सेल्वी (अंग्रेज़ी कहानी) : आर. के. नारायण
Selvi (English Story in Hindi) : R. K. Narayan
संगीत कार्यक्रम समाप्त होते ही दर्शक मंच पर चढ़ आते और ऑटोग्राफ लेने के लिए चारों ओर से घेर लेते, हिलने ही न देते। तब मोहन धीरे-धीरे दरवाजे की ओर बढ़ता और पीछे घूमकर पुकारकर कहता, 'सेल्वी, जल्दी करो, ट्रेन छूट जायेगी।' वह कह सकती थी कि 'अभी बहुत समय है," लेकिन उसे मोहन का विरोध करने की आदत नहीं थी, और इससे मोहन को उस पर अपने अधिकार की बात बताने का अवसर भी मिल जाता, इसलिए वह ऐसा कोई भी अवसर कभी नहीं छोड़ता था। फिर जब प्रशंसकों का दल उन्हें, खासतौर पर सेल्वी को, कार तक पहुँचाने के लिए आगे बढ़ता तो वह मजाक के लहजे में जोर से कहता, 'इन्हें स्वतंत्र छोड़ दिया जाये तो यह दुनिया भर के लोगों को हस्ताक्षर ही देती रहेंगी, उटेंगी ही नहीं। समय की कीमत नहीं है इन्हें।'
जनता सेल्वी को बहुत विशिष्ट, मानवीय-प्रतिभा समझती थी, लेकिन मोहन ही उसके व्यक्तिगत जीवन से परिचित था। जब उसने उसे पहली दफा देखा तो कहा, 'असुन्दर तो नहीं है. लेकिन कुछ सजावट माँगती है।' उसकी भौंहें, जो पहले बिखरी हुई थीं, अब तराशकर गोल कर दी गयीं। त्वचा का रंग, जिसे गोरा नहीं कहा जा सकता, बस बीच का ही था, उसे और निखारने के लिए मोहन ने और गालों पर लगाकर वह बहुत आकर्षक लगने लगती थी। मोहन यह भी नहीं चाहता था कि दूसरे यह कहें कि प्रसाधनों का बहुत ज्यादा इस्तेमाल किया जाता है। वह महात्मा गाँधी का भक्त रहा था, कई साल जेलों में गुजारे थे और हाथ से बुनी खादी के कपड़ों के अलावा और कुछ नहीं पहनता था तथा विलास से कोसों दूर रहता था, और तब वह अपनी पत्नी को भी किसी आधुनिक वस्तु का या सज्जा का उपयोग ही नहीं करने देता था। लेकिन कुछ समय बाद सिंगापुर के अपने एक परिचित से, जो सेल्वी का विशेष प्रशंसक था, उसे प्रसाधन की कुछ विशेष सामग्रियाँ प्राप्त हो गयी थीं, जो सेल्वी के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध हुई-परिचित ने इस तथ्य को गुप्त रखने का भी भरोसा दिया था।
सेल्वी जब मंच पर आती तब साँवली न लगकर बहुत चमकदार लगती थी, और यह बात लोगों में चर्चा और बहस का विषय बन जाती कि पता नहीं, उसकी त्वचा का असली रंग क्या है! उसके जीवन और व्यक्तित्व के हर एक पहलू पर लोग तरह-तरह के कयास लगाते, जहाँ भी चार लोग इकट्ठे होते, यही बात करते, खासतौर से बोर्डलेस रेस्त्राँ में, जहाँ नियमित रूप से आने वाले अपनी मेजों पर कॉफी पीते हुए शहर की सब सूचनाओं का आदान-प्रदान करते थे। रेस्त्राँ का मालिक कैश काउन्टर पर बैठा ये सब बातें, खासतौर से सेल्वी से संबंधित बातें, ध्यान से सुनता रहता। वह भी उसका एक भक्त था, दूर से ही सही, और वह अक्सर सोचता, 'देवी लक्ष्मी ने मुझे बहुत कुछ दिया है, धन और समृद्धि के क्षेत्रों में मुझे अब कुछ भी नहीं चाहिए, लेकिन दूसरी देवियों, जैसे सरस्वती की मुझ पर कृपा अभी नहीं हुई है, जो आज हमारे बीच सेल्वी जैसी दैवी गायिका के रूप में आ तो गयी हैं-काश, वही कभी मेरे हाथों से कॉफी और मिष्ठान्न स्वीकार करती, तो कितना अच्छा होता! लेकिन जब भी मैं उसके लिए कुछ भेंट लेकर जाता हूँ तब यह मोहन ही दरवाजे पर उसे मुझसे ले लेता है और सूखा धन्यवाद देकर मुझे टरका देता है।' वर्मा उन हजारों लोगों में एक था जो सेल्वी के प्रशंसक थे। लेकिन उसे दीवालों से घिरे एक किले में रखा जाता था। यही शायद उसका भाग्य था कि मानो बंद कमरों की जेल के भीतर रहे या बाहर दुनिया में हो तो वहाँ भी इस जेलर की निगरानी में ही सब कुछ करे। वह एक क्षण के लिए भी उसे अकेला नहीं छोड़ता था, किसी के साथ जाने की तो बात ही दूर थी। वह दो दशक से मोहन के साथ रह रही थी और उसके सामने कभी भी किसी से उसकी बात नहीं हुई थी।
लोग सारे दिन उसके दर्शन करने आते रहते थे लेकिन बहुत कम उसके समीप तक पहुँच पाते थे। कुछ से पहली मंजिल पर ही बात कर ली जाती, कुछ का भीतर आँगन में स्वागत कर लिया जाता, कुछ को सीढ़ियों के दरवाजे तक पहुँचने का अवसर प्रदान किया जाता-लेकिन ऐसा कोई न था जो उसके पास तक जा पाता था, सबको मोहन के सेक्रेटरी या सेक्रेटरी के भी सेक्रेटरी से मिलकर ही लौट आना पड़ाता। परंतु कुछ चुने हुए व्यक्तियों को ऊपर हॉल में बहुत आडम्बरपूर्वक ले जाकर गद्देदार सोफों पर बिठाया जाता। सामान्य लोगों को बैठने के लिए कुर्सियाँ नहीं दी जाती थीं, वे इधर-उधर पड़े स्टूलों पर चाहें तो बैठ सकते थे और जब तक चाहें इन्तजार करते रह सकते थे-और जब चाहें घर वापस जा सकते थे।
उनका घर ईस्ट इंडिया कंपनी के जमाने की एक बड़ी-सी इमारत थी जिसमें मीनारें, खम्भे और बड़े-बड़े दालान थे-यह कभी सर फ्रेडरिक लॉली का निवास स्थल था। जिनकी मूर्ति शहर के चौराहे पर लगी थी। जिनके यहाँ चालीस नौकरों की फौज दो मंजिलों में बने छह बड़े-बड़े हॉलों की सफाई करती थी, जिनके लंबे ऊँचे दरवाजे, गोथिक खिड़कियाँ और वेनिस नमूने के शटर्स थे, और जो शहर से मेम्पी हिल्स जाने वाली सड़क पर, पाँच मील दूर, कई एकड़ के विस्तार में फैला था। इसके मैदान में बड़े विशाल दरख्त थे जिनमें से विशेष रूप से एक ऐल्म का पेड़-या पता नहीं, यह ओक का पेड़ था या बीच का-फाटक पर बड़ी शान से लगा था, जिसका बीज स्वयं सर फ्रेडरिक इंग्लैंड से लाये थे और जिसके बारे में कहा जाता था कि सारे देश में यह अपने ढंग का अकेला पेड़ है। इस बंगले में कोई नहीं रहता था क्योंकि कहा जाता था कि सर फ्रेडरिक का भूत इसमें रहता है-और भी बहुत सी अजीबोगरीब कहानियाँ इसके बारे में कही जाती थीं। जब 1947 में अंग्रेजों ने भारत छोड़ा, तब से यह इमारत खाली पड़ी थी। मोहन ने पहले-पहल इसे हथियाने की कोशिश की, कहा, 'मैं कोशिश करता हूँ। गाँधीजी की अहिंसा ने देश से अंग्रेजों को भगा दिया। मैं उनका शिष्य हूँ और देखता हूँ कि उसी तरीके से इस बंगले के भूत को भगा सकता हूँ या नहीं।' उसे इसके लिए पैसा भी मिल गया-सेल्वी ने एक फिल्म स्टार के गानों को अपनी आवाज दी तो इसकी फीस के रूप में सेल्वी के गानों पर वह अपने ओठ ही चलाता था और इससे उसे भी जबरदस्त ख्याति प्राप्त हो गयी। लेकिन इसके बाद मोहन ने निश्चय कर लिया कि किसी और अभिनेता को वह सेल्वी की आवाज नहीं लेने देगा-'मैं सेल्वी को उसके अपने गुण के सहारे स्वतंत्र रूप में ही खड़ा करूंगा, किसी मोटे अभिनेता के गायन की डमी के रूप में उसे नहीं काम करने दूंगा।'
इसके बाद धीरे-धीरे योजनापूर्वक प्रचार द्वारा और मुँह-दर-मुँह उसकी प्रशंसा फैलाकर हर पत्रकार और महत्वपूर्ण संगीत-समीक्षक का किसी-न किसी उपाय से सहयोग प्राप्त करके, उसने सेल्वी को प्रतिष्ठा की इस सर्वोच्च सीढ़ी तक पहुँचा दिया था। सालों की मेहनत का परिणाम था यह । अंत में जब सफलता उसके पैरों को चूमने लगी तो उसके नाम में एक विशेष आकर्षण पैदा हो गया और हर हफ्ते किसी-न-किसी पत्रिका में उसका चित्र प्रकाशित होने लगा। हर जगह से उसकी माँग आने लगी। देश भर से संगीत-कार्यक्रमों के आयोजकों की मोहन के दफ्तर में भीड़ लगी रहने लगी। किसी से वह कहता, 'आप अपना प्रस्ताव मेरे सेक्रेटरी के पास छोड़ जाइये। मैं अगली तिमाही का कार्यक्रम निश्चित कर आपको सूचित कर दूंगा।' दूसरे से कहता, 'मेरा कार्यक्रम 1982 तक के लिए पूरा बुक है। अगर 1981 में किसी ने अपना प्रोग्राम कैंसिल कर दिया तो मैं देखेंगा कि क्या किया जा सकता है। मुझे आप अक्टूबर 1981 में याद दिलायें, तभी मैं निश्चित उत्तर दे सकूँगा।' बहुत से प्रोग्राम वह इसी कारण अस्वीकार कर देता कि सेल्वी की महत्ता बनी रहे। जब भी वह किसी का कार्यक्रम स्वीकार करता तो प्राथों-या इसे याची कहें-कृतज्ञ महसूस करता, भले ही फीस बहुत ज्यादा क्यों न हो, जिसका आधा उसे कैश के रूप में, और बिना किसी रसीद के, तत्काल देना पड़ता था। वह कभी-कभी अपनी कार्यविधि बदल भी देता था। वह कहता कि इस प्रोग्राम से होने वाली सारी आमदनी किसी फैशनेबल समाजसेवी संस्था को दान में दी जायेगी, जिसके साथ देश के महत्वपूर्ण व्यक्तियों के नाम भी जुड़े हों। वह फीस के रूप में तो कुछ भी नहीं लेता था लेकिन खर्चों की रकम कैश ले लेता था, जिससे उसकी पूरी भरपाई हो जाती थी। आर्थिक मामलों में वह चतुर था और जानता था कि कैसे अच्छी आमदनी की जाये, और यह भी इनकम टैक्स वालों से भी कैसे बचकर रहा जाये। वह बंगले के बरामदे या लॉन में हाथ पीछे बाँधे टहलता रहता और सोचता रहता कि कैसे क्या किया जाये जिससे लोग और पैसा सब, उसके काबू में रहें। टहलते-टहलते वह अचानक रुक जाता, अपने सेक्रेटरी को बुलाकर कोई चिट्ठी या मजमून डिक्टेट कराता, या फोन उठाकर किसी से देर तक बात करता रहता।
धंधे से जुड़े कामों के सिवा वह जनसंपर्क पर भी विशेष ध्यान देता और सब महत्वपूर्ण पार्टियों में शामिल होने के अलावा अपने लॉली टैरेस में भी शानदार पार्टियाँ आयोजित करता। जिनमें जाने-माने स्त्री-पुरुषों को बुलाता और खिलातापिलाता। उसके अतिथियों में अक्सर विदेशी भी होते, और उसकी दीवालों पर सेल्वी को लिये उसके अनेक प्रख्यात व्यक्तियों के साथ फोटो टंगे थे-जैसे टीटो, बुलगानिन, यहुदी मेनुहिन, जॉन केनेडी, नेहरू परिवार के लोग, पोप, चाली चैपलिन, योगी, खिलाड़ी, राजनेता इत्यादि, जिनके साथ विशेष अवसरों पर ये फोटो लिये गये थे।
बोर्डलेस रेस्त्रों में सेल्वी की प्राइवेट जिन्दगी के बारे में तरह-तरह के अनुमान लगाये जाते थे। मेजों पर चलती बातचीत से वर्मा को पता चला था कि विनायक मुदाली स्ट्रीट के पीछे की गली में, उसे उसकी माँ ने पाला था। छोटा सा घर था, जिसकी टाइलें उखड़ रही थीं, पास में इतना पैसा नहीं था कि इन्हें बदलवाया जाये या छत की टाइलों को ही कामचलाऊ ठीक करा लिया जाये। माँ ने ही उसे संगीत सिखाया था, और उसका भाई और छोटी बहन संगत करते थे।
तब मार्केट स्ट्रीट पर मोहन की एक फोटो की दुकान थी। एक दफा सेल्वी को स्कूल में गाने के लिए पहला इनाम मिला तो उसकी माँ स्कूल की मैगजीन के लिए फोटो खिंचाने उसे लेकर यहाँ आयी। फिर मोहन ने कभी-कभी उसके यहाँ जाना शुरू कर दिया, जैसे परिवार का हित-चिंतक हो, जहाँ घर की अकेली कुर्सी पर बैठकर वह कॉफी पीता और इस तरह व्यवहार करता, जैसे उन सबको सही राय और सहायता देना उसी का काम है। कभी-कभी वह सेल्वी से गाने के लिए कहता और कुछ देर बाद गाना सुनते हुए कुर्सी से उठकर जमीन पर पालथी मारकर और आँखें बंद कर इस तरह बैठ जाता, मानो वह उसके संगीत में पूरी तरह डूब गया है, और यह दिखाता जैसे इतने अच्छे कलाकार का गाना ऊँची कुर्सी पर बैठकर सुनना जबरदस्त अपराध है।
हर रोज वह परिवार की कुछ-न-कुछ सेवा करता और इस तरह कुछ समय में उसने घर का सारा इन्तजाम अपने ऊपर ले लिया। अब बोर्डलेस में कोई निश्चित रूप से यह नहीं बता पाता था कि किस दिन से उसने सेल्वी को अपनी पत्नी बताना शुरू कर दिया, या कब, कहाँ और किस प्रकार उनकी शादी हुई थी।
उसकी माँ, भाई और बहन छह बड़े-बड़े कमरों के भवन में जाते तो दाँत काट काट कर उसकी ऊँची-ऊँची छतों और खम्भों को देखते फिरते, लेकिन सेल्वी ने कोई विशेष प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की, वह इसमें ऐसी निरपेक्ष होकर घूमती, जैसे किसी म्यूजियम में घूम रही है। शुरू में मोहन को इससे बहुत निराशा हुई। उसने पूछा, 'तुम्हें यह मकान कैसा लगा?" तो सेल्वी ने जवाब में इतना भर कहा, 'काफी बड़ा है।' उसने सेल्वी को हर कमरे और बरामदे में ले जाकर घुमाया और मकान का रोचक इतिहास भूत की बात छोड़कर भी बताया लेकिन वह चुपचाप सुनती रही, कोई रुचि नहीं दिखायी। जैसे उसका मन यहाँ नहीं, कहीं और था। वे कंपनी के दिनों की उन विशालकाय कुर्सियों पर बैठे थे, जिन्हें चूँकि साथ नहीं ले जाया जा सकता था, इसलिए यहीं छोड़ दिया गया था। उसने इस विशाल, शानदार फर्नीचर के बारे में भी, जिन पर वह बैठी थी, कुछ नहीं कहा। बाद में संगीत के सैकड़ों कार्यक्रमों में उसे प्रस्तुत करने के बाद मोहन को ज्ञात हुआ कि वातावरण से अछूते रहना, वास्तव में उसका स्वभाव ही है। सच्चाई यह थी कि कोई भी स्थान होमहल या पाँच तारा होटल में शानदार कमरे, जिनमें अनेक सेवक तैनात रहते थे, या छोटा-सा कस्बा या गाँव का घर हो, जहाँ न कोई सुविधा है न प्रायवेसी-सब जगह वह प्रसन्न और संतुष्ट रहती थी और कार्यक्रम में जाने के लिए ठीक समय पर नहा-धोकर, जरूरी साज-सज्जा के साथ तैयार रहती थी। ज्यादातर वह यह भी नहीं जानती थी कि उसे गाने के लिए कहाँ ले जाया जा रहा है, न यह पूछती थी कि इस कार्यक्रम की क्या फीस मिली है। जब भी मोहन कहता, 'सामान बाँधों और तैयार हो जाओ तो वह तुरंत बक्स में अपने कपड़े और साज-सज्जा का सामान तथा टॉनिक की शीशियाँ रखकर तैयार हो जाती। वह कभी यह न पूछती कि कहाँ जा रहे हैं। जब उससे कहा जाता कि रिजर्व सीट में बैठना है, या अगले ही स्टेशन पर उतरना है तो वह उसी तरह तैयार रहती। वह न कुछ पूछती थी, न कोई माँग करती थी और न शिकायत करती थी। लगता था कि वह न कुछ देख रही है, न अनुभव कर रही है, और अपने ही भीतर किसी गुप्त-भाव या गीत की धुन में लीन है।
चौथाई सदी में वह राष्ट्रीय ख्याति की गायिका बन गयी और देश तथा देश के बाहर दूर-दूर तक घूम आयी। उसे 'संगीत की देवी' कहा जाने लगा। कहीं भी जब उसके कार्यक्रम की घोषणा की जाती, टिकट खरीदने के लिए लाइनें लग जातीं, बहुतों को सीट भी नहीं मिलती। जब वह मंच पर उतरती तो तालियों की गड़गड़ाहट से हॉल गूंज उठता और लोग उसे ऐसे देखते, जैसे किसी देवी को प्रकट होते देख रहे हैं। जब वह बैठती, गला साफ करने के लिए जरा-सा खेंखारती और साजिंदों को अपने वाद्यों पर संगत करने का समय देने के लिए धीमे से गुनगुनाती, तो हॉल में एकदम शांति छा जाती। उसकी आवाज में एक ऐसी अनोखी लय तथा विस्तार था जो श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देता। उसका संगीत सामान्य, असंस्कृत व्यक्तियों के साथ-साथ पंडित, विद्वान् तथा विशेषज्ञ के लिए समान रूप से आकर्षक था, और संगीत को पसंद न करने वाले व्यक्ति भी इन सम्मेलनों में प्रतिष्ठा की दृष्टि से जाते थे। ___ कार्यक्रम कहीं भी हो-मद्रास, दिल्ली, लंदन, न्यूयार्क या सिंगापुर में-मोहन हमेशा सामने की पंक्ति में सबसे बीच की सीट पर बैठता और गायिका को इस तरह देखता रहता कि लोग सोचते कि या तो वह उसके गायन में खो गया है या अपनी भावना से उसे संचारित और प्रेरित कर रहा है। लेकिन उसकी आँखें भले ही गायिका की ओर होती, मन में वह आर्थिक समस्याओं के जटिल गणित को हल करने में व्यस्त रहता, साथ ही चुपचप यह भी भाँपता रहता कि कहीं कोई टेपरिकार्डर तो काम नहीं कर रहा है जो गीतों को भर ले-वह किसी भी तरह की रिकार्डिग की अनुमति कभी नहीं देता था और यह भी भाँपता रहता कि अगलबगल बैठे महत्वपूर्ण व्यक्तियों पर गायन का क्या-कैसा प्रभाव पड़ रहा है।
हर कार्यक्रम की वह विस्तृत योजना बनाता था। दोपहर बाद वह सेल्वी के साथ बैठता और मुलायमियत परंतु दृढ़ता के साथ उसे बताता, 'तुम कल्याणी वर्णम् से आरंभ करना चाहोगी-लघु वाले से?' जवाब में वह 'हाँ' कहती। इसके अलावा और कोई शब्द उसके मुख से कभी निकला ही नहीं था। मोहन आगे कहता, 'इसके बाद बेगाड में त्यागराज का गीत-विपरीत राग पेश करना ही ठीक रहेगा।...' और इस प्रकार वह चार घंटे का पूरा कार्यक्रम निश्चित कर देता। 'इन श्रोताओं में पल्लवी गाना ठीक नहीं होगा, इसकी जगह थोड़े को जरा विस्तार से गा देना। इसके बाद तुम जो चाहो प्रस्तुत करना-हलके भजन, जावली या लोकगीत।' हालांकि इस स्वतंत्रता का कोई मतलब नहीं था क्योंकि पहले रागों में ही चार घंटे निकल जाते और नियम के अनुसार कोई भी कार्यक्रम चार घंटे से अधिक नहीं जाना चाहिए। वह अक्सर सोचता, 'इस मार्गदर्शन और योजना के बिना वह पता नहीं क्या करने लगे. इसे तो कोई नहीं समझता।'
हर व्यक्ति मोहन की चापलूसी इस आशा से करता कि उसे गायिका के पास जाने का मौका मिल जायेगा। मोहन विशिष्ट व्यक्तियों की जरूर प्रोत्साहित करता कि वे लॉली टेरेस में आये और उससे मिलें। ऐसे किसी व्यक्ति के आने पर वह उसे सेंट्रल हॉल में इज्जत से बिठाता और फिर सेल्वी को आवाज देकर बुलाता, 'देखो, अमुक-अमुक आये हैं।' यह अमुक-अमुक कोई साधारण नाम न होते, यह या तो कोई मिनिस्टर होता, या पुलिस का इन्सपेक्टर जनरल, या किसी कपड़ा मिल का मैनेजिंग डायरेक्टर, या किसी समाचार पत्र का सम्पादक-ये सब मोहन के लिए कुछ ऐसा करना चाहते जिससे सेल्वी उन्हें परिवार के विशेष-मित्र के रूप में जाना जा सके। सेल्वी बुलाये जाने के दस मिनट बाद पूरी तरह तैयार होकर बाहर आती और बड़ी अच्छी तरह अपना रोल अदा करती : प्यारी मुस्कान और नमस्ते, कोमलता से हाथ जोड़कर स्वागत, जिससे विशिष्ट व्यक्ति के शरीर में फुरफुरी की एक लहर-सी दौड़ जाती, जिसके बाद वे उसके पिछले कार्यक्रम का जिक्र करते और बताते कि उससे वे कितने प्रभावित हुए थे, और किस तरह उस कार्यक्रम का अमुक राग पूरी रात उनके मन में गूंजता रहा। इस प्रशसा के उत्तर में सेल्वी बहुत उपयुक्त यह उत्तर देती: 'मुझे खुशी है कि आप जैसी योग्यता के व्यक्ति को मेरे छोटे-से गीत से आनन्द प्राप्त हुआ है, मैं इससे बहुत सम्मानित अनुभव करती हूँ।' इसी के साथ मोहन कोई हलका-सा मजाक या कोई बात कहकर बीच में घुसने की कोशिश करता। वह किसी भी मेहमान को, वह चाहे कितना ही महत्वपूर्ण क्यों न हो, सेल्वी के ज्यादा निकट नहीं आने देना चाहता था, और सही समय पर बीच में प्रवेश कर जाता था। भेंट के अंत में मोहन प्रसन्न होता कि उसके मार्गदर्शन के ही अनुसार सेल्वी बात करती, मुस्कराती और आदर-सत्कार करती थी। उसे ख्याति के इस शिखर तक सफलतापूर्वक पहुँचाने के लिए वह स्वयं को बधाई देता, 'मेरे प्रयत्नों के बिना सेल्वी विनायक मुदाली स्ट्रीट की। अपनी माँ भाई और बहन की तरह साधारण कलाकार ही बनी रहती, उससे आगे बिलकुल भी न बढ़ पाती। मुझे खुशी है कि मैं उसे इस ऊँचाई तक पहुँचाने में सफल रहा।'
विनायक मुदाली स्ट्रीट के वातावरण से बाहर निकालने के लिए उसने बहुत धीरे-धीरे और बड़ी कुशलता से उसे माँ, भाई और बहन से अलग करना शुरु किया। जैसे-जैसे समय बीतता गया, उसका अपने परिवार से मिलना कम होता गया। शुरु के दिनों में हर हफ्ते गाड़ी उन्हें लेने जाती, लेकिन जैसे-जैसे सेल्वी के बाहर जाने के कार्यक्रम बढ़ते गये, उसका परिवार उसके जीवन से बाहर होता गया। सेल्वी ने एकाध दफा मोहन से अपनी माँ के बारे में बात करने की कोशिश की, लेकिन उसने इसे गंभीरता से नहीं लिया, कहा, 'वे ठीक ही होंगी। मैं उन्हें बुलाने की कोशिश करूंगा-लेकिन अब समय ही कहाँ है? जब कभी हमें यहाँ तीन दिन रहने को मिलेंगे तो मैं उन्हें बुला लूगा।" इतना समय उन्हें बहुत कम ही मिलता था--ज्यादातर वे रेल या कार से वापस आते और चौबीस घंटे के भीतर ही कहीं और के लिए रवाना हो जाते। फिर जब कभी उन्हें समय भी मिलता और वह माँ का जिक्र भी करती तो मोहन गुस्से से कहता, 'ठीक है, ठीक है, मैं मणि को विनायक मुदाली स्ट्रीट भेजेगा लेकिन कभी और अभी नहीं। मैंने गवर्नर साहब को कल लंच के लिए निमंत्रित किया है और वे तुम्हारा गाना सुनना चाहेंगे-सिर्फ आधा घंटा।'
'उसके दूसरे दिन. " सेल्वी हिचकती हुई कहती और वह उसकी बात अनसुनी करके टेलीफोन करने चला जाता। सेल्वी समझ जाती और इसके बाद फिर कभी माँ की चर्चा न करती। लेकिन वह मन-ही-मन में घुटती रहती, 'मैं अपनी माँ से भी नहीं मिल सकती।' उसके अलावा और कौन था जिससे वह अपने मन की बात कह सके।
मोहन ने समझ लिया कि अब उसने माँ की बात करना बिलकुल बंद कर दिया है तो वह यह सोचकर प्रसन्न हुआ कि सेल्वी अपने इस मोह से उबर चुकी है। 'यह बहुत अच्छी बात है। कोई बच्चा ही अपनी माँ के लिए मचलता है।' उसने फिर अपनी पीठ ठोंकी कि वह सेल्वी को सही ढंग से चला रहा है।
इस तरह महीने और फिर साल गुजरते चले गये। सेल्वी ने इसका हिसाब नहीं रखा था, वह मशीन की तरह, जो उससे कहा जाता, उस पर आचरण करती रही और संगीत के कार्यक्रम प्रस्तुत करती रही।
जब उसकी माँ की मृत्यु हुई, तब वह कलकत्ता में थी और यहाँ एक के बाद एक कार्यक्रमों में भाग ले रही थी। जब उसे यह समाचार मिला, तब उसने होटल के कमरे से बाहर निकलने से इनकार कर दिया और सब कार्यक्रम रद्द कर देने को कहा। मोहन जब कमरे में उसे समझाने गया तो उसके बिखरे बाल और लगातार बह रहे आँसू देखकर चकित रह गया। रेल-यात्रा के दौरान वह खिड़की से बाहर ही देखती रही और बातचीत में लगाने के मोहन के सब प्रयत्न व्यर्थ हुए। उसे सेल्वी के इस व्यवहार पर आश्चर्य हो रहा था। यद्यपि वह ज्यादा बात कभी नहीं करती थी लेकिन बातों को सुनती जरूर रहती थी और कभी-कभी बीच में एकाध शब्द बोल भी देती थी। लेकिन छत्तीस घंटे के इस लंबे सफर में उसने न एक बात की और न मोहन की ओर देखा। घर पहुँचकर मोहन ने उसे तुरंत विनायक मुदाली स्ट्रीट पहुँचाने का प्रबंध किया और शोक व्यक्त करने स्वयं भी उसके साथ गयायह सोचकर कि सेल्वी को यह अच्छा लगेगा। लेकिन यहाँ के वातावरण में सफेद खादी के इस्तरी किये कपड़े पहने मोहन बहुत अच्छा नहीं लग रहा था। उसकी कार ने गली का आधा हिस्सा घेर लिया। सेल्वी की बहन ने शादी कर ली थी और कई बच्चों के साथ सिंगापुर में रहती थी, वह नहीं आ सकी थी। उसके भाई का भी पता नहीं था कि कहाँ है। एक पड़ोसी ने आकर माँ की मृत्यु का विवरण दिया और बताया कि उसने ही उसका दाह-संस्कार आदि सब कार्य संपन्न कराया है। मोहन ने उसकी यह लंबी कहानी रोकने की भी कोशिश की, क्योंकि वह नहीं चाहता था कि कोई गैर आदमी सेल्वी से सीधे बातचीत करे। लेकिन सेल्वी ने मोहन से कहा, 'आप चाहें तो टैरेस वापस जा सकते हैं। मैं यहीं रहूँगी।" मोहन को उससे इस तरह बात करने की उम्मीद नहीं थी। उसे समझ नहीं आया कि क्या जवाब दे, बोला, 'कोई बात नहीं.ठीक है.मैं बाद में गाड़ी भेज दूंगा, कब भेजें गाड़ी?'
'कभी नहीं। अब मैं पहले की तरह यहाँ रहूँगी।'
'यह कैसे हो सकता है ? इस गली में!'
परंतु सेल्वी ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया। वह बोली, 'माँ मेरी गुरु थी, यहीं उसने मुझे संगीत की शिक्षा दी और यहीं वह मरी।. मैं भी यहीं रहूँगी और यहीं मेरा देहान्त होगा। जो उसके लिए अच्छा था, वह मेरे लिए भी अच्छा है...।'
मोहन ने उसे इतना कठोर और वाचाल नहीं पाया था। इतने सालों तक वह कह और कर सकेगी, इसकी आशा ही नहीं थी। मोहन थोड़ी देर ठहरकर इन्तजार करता रहा कि शायद उसका दिमाग बदल जाये। इसी के साथ पड़ोसी बड़े विस्तार से माँ के अंतिम समय पर क्या और कैसे उसे करना पड़ा, यह कथा सुनाये चला जा रहा था। 'मुझे पता नहीं था कि तुम कहाँ हो और कैसे तुम्हें खबर भेजें, इसलिए हम ही उसे नदी पर ले गये, चिता तैयार की और मैंने ही अग्नि दी-और फिर राख सरयू में प्रवाहित कर दी।... मैं उसे बचपन से जानता था, चाची कहकर पुकारता था और जब तुम संगीत का अभ्यास करती थीं, मैं सामने पालथी मारकर शांति से सुनता रहता था।. हालाँकि बाद में जब तुम्हारे कार्यक्रम होने लगे, तब मैं तुम्हारे पास भी नहीं जा सकता था, न मेरे पास टिकट खरीदने के पैसे होते थे।'
मोहन परेशानी से यह सब देखता रहा। सेल्वी ने अब तक निश्चित सीमा से आगे बढ़ने की कोशिश नहीं की थी। उसने अब न किसी से बात की थी, न किसी कंपनी का प्रोग्राम खत्म हो जाने के बाद एक मिनट भी वहाँ रुकी थी। आज उसका व्यवहार बिलकुल भिन्न था। आज उसने मोहन के इशारे की उपेक्षा की थी और पड़ोसी जो सब बताता जा रहा था, उसे ध्यान से सुन रही थी, जिससे उसे भी लग रहा था कि वह परिवार के कुछ काम आया।
काफी इन्तजार के बाद मोहन चलने के लिए उठा। पूछा, 'तुम्हें यहाँ क्या क्या भेज दूं?"
'कुछ नहीं," उसने उत्तर दिया। मोहन ने देखा कि उसने अपने कपड़े उतारकर एक पुरानी साड़ी पहन ली है, और जेवर वगैरह भी उतार दिये हैं।
'क्या मतलब है तुम्हारा, कुछ जरूरत नहीं होगी?"
'मुझे कुछ नहीं चाहिए।'
'फिर कैसे रहोगी तुम?' कोई उत्तर नहीं आया। फिर उसने धीरे से पूछा, 'और भोपाल में कई कार्यक्रम हैं. उन्हें तारीख बदलने को कह दूँ?"
'जो चाहो करो।'
'इसका क्या मतलब हुआ?'
इस प्रश्न का भी कोई उत्तर नहीं आया।
वह बाहर निकला और कार पर बैठकर चला। अब तक कार के इर्द-गिर्द जो भीड़ इकट्ठी हो गयी थी, वह अब सेल्वी की ओर मुड़ी। वह उसे एकटक देखने लगे-अब तक जो सबके लिए बहुत दूर की चीज थी, ऐसा महल था जिसमें कोई घुस नहीं सकता था, जो सबके लिए अब तक एक कहानी थी, एक रहस्य थी।
किसी ने कहा, 'तुम अंतिम समय में अपनी माँ से मिलने क्यों नहीं आयीं? वह तुम्हें बहुत याद करती थी।'
यह सुनकर वह फूट-फूट कर रोने लगी।
तीन दिन बाद मोहन फिर वहाँ आया। बोला, 'तीस खरीख को दिल्ली यूनिवर्सिटी तुम्हें मानद उपाधि देने जा रही है.।" यह सुनकर उसने जरा-सा सिर हिलाया। 'प्रधानमंत्री स्वयं अध्यक्षता करेंगे।'
काफी दबाव पड़ने पर उसने बस इतना ही कहा, 'अब मुझे इस सब में मत घसीटो। मुझे अकेला छोड़ दो। अब मैं अकेली ही रहूँगी, मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लगता... ।'
'सिर्फ इसमें चली चलो। इसके बाद जो चाहो, करना। वहाँ न जाना ठीक नहीं होगा। सिर्फ एक दिन दिल्ली में-फिर तुरंत वापस लौट आयेंगे।. और अगले महीने के लिए तुमने ग्रामोफोन रिकार्डिंग का भी कान्ट्रैक्ट साइन किया था...।"
उसने कोई जवाब नहीं दिया। उसकी आँखों से लगता था कि यह उसका मसला नहीं है। 'इससे मुझे बहुत परेशानी हो जायेगी. सिर्फ यह वायदा पूरा कर दो...।'
चारों तरफ इकट्ठी भीड़ में, जो उसकी एक-एक बात बड़े ध्यान से सुन रहे थे, सेल्वी से बात करना कठिन हो रहा था। वह चाहता था कि अकेले में बात करने का मौका मिले, लेकिन इस घर में एक ही कमरा था, जहाँ सब लोग आते-जाते और बैठते रहते थे। अगर वह अकेली मिल जाये तो या तो वह उसे मना लेगा या उसकी गर्दन मरोड़ देगा। वह बहुत दुखी और निराश था, और अचानक घर छोड़कर चला गया।
एक सप्ताह बाद वह फिर आया। लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ। सेल्वी ने न उसका स्वागत किया, न लौट जाने को कहा। मोहन ने उसे गाड़ी में आने को कहा, इस दफा वह छोटी कार लाया था। उसने इनकार कर दिया। 'आखिरकार वह औरत काफी बूढ़ी हो गयी थी...," वह सोचने लगा। 'यह आदमी इसकी जिन्दगी बरबाद कर देगा।'
उसने शोक मनाने के चार हफ्ते सेल्वी को दिये और इसके बाद फिर आया। इस बार उसने देखा कि घर पूरा भरा है, बाहर तक भीड़ लगी हुई है। इनके सामने हाथ में तंबूरा लिये सेल्वी इस तरह गा रही है जैसे किसी बड़े हॉल में होने वाले कार्यक्रम में गा रही हो। साथ में संगत करने के लिए कहीं से एक वायलिन वादक और तबलची भी आ गये हैं।
'यह अपनी कला का गलत इस्तेमाल कर रही है, ' मोहन ने सोचा। सेल्वी ने उसे देखकर कहा, 'आओ, बैठो।'
मोहन एक कोने में बैठ गया, थोड़ी देर सुनता रहा, फिर चुपचाप निकलकर चला गया। इसके बाद वह जब भी यहाँ आता, उसे इसी तरह लोगों के सामने गाते देखता। यह खबर चारों ओर फैल गयी कि वह मुफ्त में संगीत सुनाती है तो दूर-दूर से लोग कारों, साइकिलों पर और पैदल उसे सुनने यहाँ आने लगे। वर्मा एक सुनहरे कागज से मढ़े डिब्बे में उसके लिए मिठाई लेकर आया और अपनी देवी को यह भेंट देकर अपने जीवन की सबसे बड़ी कामना पूरी कर ली। सेल्वी किसी से बेकार कोई बात नहीं करती थी, वह हमेशा चुप और जैसे अपने ही भीतर डूबी रहती और कौन आता है या कौन जाता है, इस पर ध्यान नहीं देती थी।
मोहन ने सोचा कि रात को शायद उससे अकेले में बात करने का अवसर मिलेगा। एक दिन रात को ग्यारह बजे उसने अपनी गाड़ी मार्केट रोड पर खड़ी की और पैदल विनायक मुदाली स्ट्रीट में घर तक पहुँचा। दरवाजे पर उसने धीरे से आवाज दी, 'सेल्वी, यह मैं हूँ। तुमसे बात करने आया हूँ। दरवाजा खोलो।” उसकी आवाज में याचना भरी थी, जो अँधेरे घर में गूंज गयी। सेल्वी ने खिड़की को धीरे से खोला और दृढ़ता से कहा, 'चले जाओ। इस समय किसी के घर आना ठीक नहीं है... ।'
मोहन की आवाज गले में ही अटक गयी। 'कृतघ्न औरत...,' कहते हुए वह वापस लौट पड़ा।