सीमाएँ टूटती हैं (उपन्यास) : श्रीलाल शुक्ल
Seemayen Tootati Hain (Hindi Novel) : Shrilal Shukla
सामान्य परिचय : सीमाएँ टूटती हैं (उपन्यास)
‘सीमाएँ टूटती हैं’ उपन्यास राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लि0 द्वारा पहली बार 1973 में पुस्तकालय संस्करण के रूप में प्रकाशित होने के बाद वर्ष 1988 में राजकमल पेपरबैक्स में प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास के अब तक चार पेपरबैक्स संस्करण (अंतिम 2007 में) प्रकाशित हुये हैं। यह उपन्यास तीन बडे भागों में विभाजित है।
श्रीयुत भगवती चरण वर्मा को समर्पित यह उपन्यास 'एक साहित्यिक अपराध कथा' है। दुर्गादास नामक व्यक्ति एक ग्रामोफोन रेडियो आदि का मैकेनिक था जो अपने बडे पुत्र राजनाथ की सहायता इसी से संम्बन्धित एक दुकान चलाता था। दुर्गादास के दो पुत्र तथा एक पुत्री है राजनाथ और तारक नाथ और चांद। छोटा पुत्र तारानाथ एक कस्बे के इंटरमीडिएट कालेज का प्रधानाध्यापक है तथा छोटी पुत्री चांद केमिस्टी को शोध छात्रा है। दुर्गादास का एक अधेड आयु का मित्र भी है विमल, जो साधन संपन्न है तथा सामान्यतः परेशानी के दिनों में दुर्गादास और उसके परिवार की सहायता करता है। व्यवसाय के सिलसिले में लखनऊ जाने पर दुर्गादास जिस होटल में रूकता है उसमें एक हत्या हो जाती है और परिस्थिति जन्य साक्ष्यों के आधार पर दुर्गादास पकडा जाता है और अंततः दोषसिद्ध होकर फांसी की सजा पाता हैं जो सुप्रीम कोर्ट में अपील के निर्णय के उपरांत उम्र कैद की सजा में बदल जाती है । दुर्गादास का छोटा पुत्र तारानाथ अपने विद्यालय के मैनेजर के प्रभावशाली पुत्र शंकर को साथ लेकर अपराध शास्त्र के विशेषज्ञ जेल सुपरिण्टेण्डेण्ट डा0 फड़के से मिलकर हत्या की वास्तविकता का पता लगाने का प्रयास करता है । दुर्गादास की बडी बहू नीला और उसकी पुत्री चांद भी इसी सिलसिले में अपने पिता के पारिवारिक मित्र विमल से सहयोग की अपेक्षा करती हैं तो चांद का शोध सहयोगी छात्र मुखर्जी भी अपने तरीके से अपनी मित्र चांद से अपनी बात कहता है। इसी दौरान यह भी पता चलता है कि विमल की एक महिला मित्र जूली लखनऊ में है और ठीक हत्या के दिन विमल भी लखनऊ में अपनी महिला मित्र के साथ था। उपन्याय इन्हीं पात्रों की आपसी समझा और विचारों की कशमकश के बीच आगे बढता है और अंततः हत्या के शक की सुई विमल की ओर पूरी तरह झुकती हुयी सी प्रतीत होती है परन्तु परिवार के प्रति विमल के एहसान और दुर्गादास को अपराध मुक्त करने के लिये किये जा रहे सहयोग के कारण चांद ऐसा मानने को तैयार नहीं होती और सब कुछ जानते हुये भी अधेड उम्र विमल के प्रति अपनी आसक्ति पारिवारिक विद्रोह की सीमा तक प्रदर्शित करती है। इस प्रकार प्रेम, धर्म, अपराध मनोविज्ञान, सहज मानवीय पृवृतियों से गुंथ कर समाज में स्थापित अनेक सीमाओं को तोडता हुआ यह उपन्यास आगे बढ जाता है।
पहला भाग : खंड-एक: सीमाएँ टूटती हैं (उपन्यास)
फाटक से बाहर मुड़ते ही गाड़ी के बैकव्यू मिरर में सुप्रीम कोर्ट के गोलाकार बरामदे और खंभे पुँछ गए। उनकी जगह पीछे भागती हुई सड़क और हवा से उलझती हुई टहनियों ने घेर ली। उड़ती हुई गर्द के झीनेपन में स्कूटरों के दो-एक-धब्बों को छोड़कर सारी सड़क वीरान पड़ी थी।
एक उतावले स्कूटर को दाएँ से निकलने का रास्ता देकर विमल चुपचाप गाड़ी चलाता रहा। पीछे की सीट से झुककर चाँद ने अपना सिर अगली सीट की मुँडेर पर टिका लिया था। उसका चेहरा छितरे हुए बालों में छिप गया।
विमल के पास ही अगली सीट पर राजनाथ बैठा था। उसने सुना नहीं, पर उसे लगा, एक दबी हुई सिसकी आसपास हवा में अब भी अटकी है। बिना मुड़े हुए, अपना हाथ पीछे ले जाकर उसने चाँद के बालों को थपथपाया। कहा, ‘‘चाँद,........इस तरह नहीं,....।’’
कार के भीतर गहरी खामोशी थी। उसमें यह वाक्य पानी की लकीर की तरह बिछलकर खो गया। राजनाथ ने अपना हाथ वापस खींच लिया। पिछली सीट पर चाँद से सटी हुई नीला बैठी हुई थी। उसने धीरे-से अपने बैठने का कोण बदला।
तब राजनाथ ने देखा, विमल की ओर छोड़कर सभी खिड़कियों के शीशे बंद हैं। उसने अपनी ओर का शीशा गिराया। मटियाले वसंत की हवा ने कार के अंदर की घुटन तितर-बितर कर दी। चाँद पहले की तरह अगली सीट पर सिर टेके रही। उसने अपने मत्थे के चारों ओर अपनी बाँह के घेरे से इस हवा के खिलाफ किलेबंदी-सी कर ली।
राजनाथ ने कहा, ‘‘इधर कनॉट प्लेस क्या करने चल रहे हैं अंकल ? पहले चाँद को घर छोड़ दें।’’ फिर रुककर कहा, ‘‘मैं भी सोचता हूँ वहीं रुक जाऊँगा।’’
विमल की निगाह सड़क पर थी। बोला, ‘‘घर चलकर क्या करोगे ? इससे तो अच्छा यह होगा कि तुम्हें मैं दुकान पर छोड़ दूँ। वहाँ काम में मन लगा रहेगा।’’ उसने पीछे मुड़कर देखा और कहा, ‘‘क्यों नीला ?’’
वह कोशिश करके, कुछ कृतज्ञता के साथ, मुस्कराई। चाँद के उलझे हुए बालों पर अटकती हुआ निगाह डालकर विमल फिर पहले की तरह गाड़ी चलाने लगा।
वे लोग कनॉट सर्कस आ गए थे। एक रेस्त्राँ के आगे गाड़ी रोककर विमल ने कहा, ‘‘चलो, तुम्हें एस्प्रेसो पिलाई जाए।’’ किसी ने जवाब नहीं दिया। विमल गाड़ी के बाहर आ गया।
राजनाथ भी नीचे उतर आया। अपनी ओर उसने पिछली सीट का दरवाजा खोला, उससे नीला उतरी। विमल ने चाँद के लिए दरवाजा खोलना चाहा, पर वह पहले ही गाड़ी से उतरकर फुटपाथ आ गई थी। उसके पाँव ठोस जमीन पर थे, पर जैसे वे किसी डगमगाती नाव पर टिके हुए हों। वह आँखें दबाकर धूप की ओर देख रही थी। लगता था, उसे अभी-अभी किसी तहखाने से निकालकर ठँड खाई हुई तितली की तरह बाहर छोड़ा गया है।
रेस्त्राँ के एक कोने में बैठते लगभग ही लगभग सभी ने छूट की साँस ली। विमल ने चार एस्प्रेसो काफी का आर्डर दिया। चाँद ने वेटर से कहा, ‘‘मेरे लिए अलग सादी कॉफी लाओ।’’
सामने की मेज पर एक जोड़ा आकर बैठ गया और अपने किसी निजी मज़ाक पर जोर-जोर से डँसने लगा था। विमल ने उनकी ओर देखा और नीला से कहा, ‘‘इस लड़की को पहचानती हो ? नहीं पहचानतीं ? यह मोनिका दस्तूर है। तुम मोनिका दस्तूर को नहीं जानतीं ? इसका मतलब तुम विमन्स मैगज़ीन नहीं पढ़तीं। यह बहुत मशहूर मॉडल है। इसकी तस्वीर तुमने विज्ञापनों में देखी होगी।’’
नीला ने सिर हिलाकर यह सूचना ले ली और चाँद को देखकर चुप बैठी रही। राजनाथ ने मौसम के रुखेपन की बात शुरू कर दी। पर वह बात नहीं थी; किसी आरम्भिक कक्षा का भूला हुआ पाठ था जिसे रुक-रुककर दोहराया जा रहा हो।
उनके सामने कॉफ़ी आ गई। पहली चुस्की लेकर विमल ने राजनाथ की ओर देखा; बिना कहे ही जैसे दोनों ने एक-दूसरे से कहा-घबराओ नहीं, कहीं कुछ बदला नहीं है। चाँद पहले की तरह ब्लैक कॉफ़ी पी रही है। सब कुछ वैसा ही है।
जैसे सहमे हुए बच्चों को बातचीत करने की इजाजत मिल गई हो। डाकुओं से भरे जंगल में बातों का काफ़िला ठिठक-ठिठककर चलने लगा। नीला ने कहा, ‘‘पूरा फैसला कब तक मिल जाएगा ?’’
‘‘दो महीने में।’’ विमल ने कहा।
‘‘फैसला लिखते-लिखते अगर कहीं जज को लगे कि पापा बेकसूर हैं.....’’
चाँद ने एक चुभती निगाह नीला पर डाली। फिर अपना प्याला तश्तरी पर एक अनावश्यक खट् के साथ रख दिया। नीला इससे दब-सी गई। उसने विमल से झिझकते हुए पूछा, ‘‘क्यों ? ऐसा नहीं हो सकता ?’’
उसने मेज पर कुहनियाँ टेक दीं, समझाते हुए कहा, आज के फैसले के बाद हमें थककर पूरी परिस्थिति समझ लेनी चाहिए।
‘‘अब भी कुछ समझना बाकी है ?’’ राजनाथ ने कहा।
विमल चुप रहा। सामने उसकी निगाह मॉडल पर टिक गई, पर वह उसके पीछे खिड़की पर भी टिकी हो सकती थी। नीला ने कहा, ‘‘आप कुछ कह रहे थे।’’
‘‘मैं कह रहा था, तुम्हारे पापा का मुकदमा अब खत्म हो चुका है। सुप्रीम कोर्ट ने अपना आखिरी फैसला दे दिया है। उमर-कैद का मतलब है कि उन्हें कम-से-कम आठ दस साल जेल में रहना होगा। वे दो साल से ज्यादा जेल में बिता ही चुके है। अब हम लोगों को.....मैं यही कहना चाहता हूँ, परिस्थिति का सामना करने के दिन खत्म हो गए, अब हमें मानकर चलना चाहिए....।’’
सामने की मेज पर बैठी हुई लड़की ने-लाल ओंठ, नकली भँवें, शरारती आँखों से विमल की ओर देखा। विमल अब भी उसकी ओर निगाह लगाए था, पर अब निश्चय ही उसे नहीं देख रहा था। यंत्र की तरह, चाँद को छेड़कर सभी की आँखें एक पल के लिए उधर ही उठ गईं। पर शायद वे दुनिया से निर्वासित हो चुके थे जहाँ लाल ओंठ और शोख आँखें, पगलाया संगीत और बेपनाह खुशियाँ हवा में अफीम की मिठास भी घोल देती हैं। इस हवा में जैसे जस्ता घुल रहा हो। धीरे-धीरे लड़की की आँखों की हँसी बुझ गई। वह धीरे-धीरे मेनू के पन्ने पलटने लगी। विमल कहता रहा :
‘‘राज, दुर्गादास तुम्हारे पापा हैं, पर वे मेरे भी कुछ हैं। पंद्रह सालों में मैं तुम्हें बड़े भाई की तरह मानता आया हूँ। इसलिए यह न सोचो कि तुम्हारा दुख नहीं समझता। पर....।’’
राजनाथ ने सिगरेट जलाई। कहा, ‘‘कोई और बात करें अंकल।’’
सामने की मेज पर, न जाने क्यों, लड़की का साथी एंग्लो-इंडियन अंग्रेजी में वेटर को डाँटने लगा था। काउंटर के पीछे से मेनेजर ने निकलकर चतुरता और क्षमा याचना की घुली-मिली मुस्कान के साथ उनकी ओर बढ़ना शुरू किया।
विमल ने उधर से निगाह हटा ली और राजनाथ से कहा, ‘‘नहीं, अब असलीयत से मुँह चुराना ठीक नहीं है। तुम लोग मुँह लटकाकर इस तरह कब तक बैठे रहोगे ?’’
उसने नीला और चाँद-दोनों की ओर देखा। चाँद का सिर कॉफ़ी के खाली प्याले पर झुका था। नीला ने सिर हिलाकर जताया : ठीक है, जले हुए घर की राख में एक बार फिर ढूंढ़ लिया जाए। शायद कुछ बच गया हो। विमल ने कहा।
‘‘छ: महीने तक, हाई कोर्ट ने जब हमारी अपील पर फैसला नहीं सुनाया था, हमने क्या-क्या नहीं सहा ! आखिर वहाँ से अपील का निबटारा हुआ। फाँसी की सजा घटकर आजीवन कारावास की सजा रह गई। याद करो, उस दिन हमें कितनी खुशी हुई थी। हमें उस खुशी को याद रखना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट से उन्हें छुड़ा लेने की आशा में हमने कुछ दिनों के लिए उस खुशी को ठुकरा दिया था। अब हमें फिर घूमकर उसी जगह आ जाना चाहिए। समझना चाहिए कि हाई कोर्ट ने फाँसी की सजा घटाकर आजीवन कारावास की कर दी है और बात यहीं खत्म हो गई।’’
किसी ने कुछ नहीं कहा।
‘‘हमारे सामने अब दो-तीन बातें साफ हो गई हैं। दुर्गादास को कुछ बरस जेल में रहना पड़ेगा। उन्हें पहले भी छुड़ाने की कोशिश हो सकती है। उन्हें ब्लड़-प्रेशर है, शायद उनकी तंदुरुस्ती को देखकर सरकार उन्हें पहले ही छोड़ दे। जो भी हो, इसके बारे में कुछ दिन बाद सोचेंगे।........’’
‘‘दूसरी बात बिजनेस की है। उसे तुम देख ही रही हो।’’ उसने राजनाथ से कहा, ‘‘अगर दुर्गादास आज जेल में न होते तो तुम उनसे जिस तरह उनकी मदद का भरोसा करते, उतना भरोसा तुम मुझ पर भी कर सकते हो।
‘‘और तीसरी बात चाँद, तुमसे; और नीला, तुमसे। इसका पूरा यकीन रखो, तुम्हारे पापा को सजा भले ही मिली हो, पर वे बेकसूर हैं।’’
‘‘चाँद ने दूसरी ओर देखते हुए धीरे से कहा, ‘‘पर अकेले हमारे मानने से क्या होगा ? सारा संसार, सुप्रीम कोर्ट तक, उन्हें मुजरिम मानता है।’’
‘‘पर चाँद......।’’
‘‘नहीं, उसने निर्ममता से कहा, ‘‘आप खुद कह रहे थे, असलियत से मुँह चुराना ठीक नहीं है। अब असलियत यही है कि पापा ने खून किया है। हमें अब यह मानकर चलने की आदत डालनी होगी।’’
वे चुप बैठे रहे। विमल ने ही खामोशी तोड़ी। हल्के ढंग से कहा, ‘‘ऐसी बात कहकर तुम तो अपनी नीला भाभी को भी मात दे रही हो।’’ उसने फिर समझाना शुरू किया, ‘‘चाँद, तुम एम.एस.सी. कर चुकी हो रिसर्च कर रही हो। कम-से-कम तुम्हें इतना भावुक न बनना चाहिए। तुम समझती हो मैं तुम्हारे पापा को यों ही......सिर्फ तुम्हें बहलाने के लिए...बेकसूर बता रहा हँ ?’’
चाँद ने विमल की पूरी बात सुन ली। फिर अपना सिर पहले की तरह अपने प्याले पर झुका लिया। नीला ने कहा, ‘‘बहलाने के लिए सही, कम-से-कम आप वह तो नहीं कहते, जो सारी दुनिया कह रही है।’’
"सारी दुनिया बहुत लंबी-चौड़ी है । उसे पता भी नहीं कि तुम और तुम्हारे पापा हैं कौन । वह कुछ भी नहीं कह रही है।"
सामने की मेज पर वेटर से दुबारा कोई कड़ी बात कही गई । राजनाथ थोड़ी देर उधर ही देखता रहा । फिर चाँद ने कहा, "अब घर चलें।"
कोई कुछ नहीं बोला । वे तत्काल उठे भी नहीं । कुछ रुककर विमल ने वेटर को बिल लाने का इशारा किया ।
बाहर वैसी ही धूप थी, वही हवा, गर्द की वही भीनी तरलता । इस बार चाँद ने धूप को आँख सिकोड़कर नहीं देखा । वह रेस्त्रां से सिर झुकाए हुए बाहर आई और गाड़ी में बैठ गई।
रेडियो, ट्रांजिस्टर, रिकॉर्डप्लेयर आदि की एक दुकान के ऊपर लिखा था, 'दुर्गादास एंड संस ।' विमल ने राजनाथ को वहीं उतार दिया। वह गाड़ी चलाने जा रहा था कि राजनाथ ने उसकी बाँह छूकर उसे रोका और बोला, "मुझे नाम बदलना पड़ेगा । नहीं तो सारा बिजनेस बैठ जाएगा !"
विमल ने गाड़ी की खिड़की से झाँककर साइनबोर्ड की ओर ताका । उसके एक हिस्से पर एक पेड़ की छाँह पड़ रही थी और वहाँ दो चिड़ियाँ चुपचाप खिलौने की तरह बैठी थीं । राजनाथ की आवाज का तीखापन बिलकुल ही अप्रासंगिक जान पड़ा । उसने कहा, "समझ से काम लो।"
कुछ दूर बढ़ जाने पर विमल ने नीला से कहा, "चाहो तो तुम लोगों को घर छोड़ आऊँ, पर वहाँ तम लोगों का जी ऊबेगा । यहाँ किसी पिक्चर।"
नीला का चेहरा तमतमा गया । बोली, "घर ही चलिए । पापा की सजा पक्की हो गई, कम-से-कम इस पर आज के दिन सिनेमा तो न दिखाइए।"
चाँद ने तेज़ी ने अपना सिर उठाया, नीला के कंधे पर हाथ रखकर उसे आगाह किया । नीला ने विमल से कहा, "मुझे अफसोस है।" "मुझे भी ।" उसने थकी हुई आवाज में कहा, "चलिए, आपको घर ही छोड़ दें।"
जब वे लोग राजनाथ के बंगले पर पहुँचे, दिन के तीन बज रहे होंगे । सामने एक पतली, घने पेड़ोंवाली, लगभग सुनसान सड़क थी । फाटक के अंदर जाते ही विमल को लगा, पतझड़ के बावजूद हरियाली ने पूरे वातावरण को एक सर्वग्राही जकड़ में बाँध लिया है, वह पोर्टिको और बरामदे को घेरती हुई अंदर कमरों में भी पहुंच रही है । पोर्टिकों में गाड़ी खड़ी करके वह नीचे उतरा और महिलाओं के लिए दरवाजा खोलने के बजाए उसने धूप की ओर घूरकर देखा, उधर ही देखता रहा।
नीला ने हिचकते हुए कहा, "आपका शुक्रिया कैसे अदा किया जा सकता है । फिर भी, थैंक यू ।"
विमल ने सुन लिया । उसे कई बार की तरह फिर से अहसास हुआ, वह अपने पति राजनाथ की तरह उसे 'अंकल' नहीं कहती है, अगर उसे कुछ कहने की जरूरत पड़ी तो शायद वह उसे 'विमल साहब' कहना शुरू कर देगी।
वे दोनों बरामदे में पहुँच गई थीं। सामने ड्राइंगरूम था। उसके समानांतर एक गैलरी थी। नीला ने गैलरी के दरवाजे को धक्का दिया । वह अंदर से बंद था । वह ड्राइंगरूम के शीशेदार दरवाजे को धक्का देकर अंदर चली गई । चाँद ने बंद होता हुआ किवाड़ पकड़ लिया । नीला गैलरी में पहुँच गई । चाँद ने किवाड़ को छोड़ दिया । वह स्प्रिंग के सहारे धीरे-धीरे बंद होने लगा।
विमल ने चाँद के लिए ड्राइंगरूम का दरवाजा खोला । नीला मकान के अंदर पहुँच चुकी थी।
चाँद ड्राइंगरूम के अंदर जाते-जाते दरवाजे पर ठिठक गई । विमल शीशे के पेनल के सहारे उससे सटा खडा हआ था । अपना चेहरा ऊँचा करके उसने विमल को बड़ी-बड़ी आँखों से देखा । थोड़ी देर वह उसे चुपचाप देखती रही।
दोनों चुप थे। धीरे-धीरे विमल ने अपना दायाँ हाथ उठाकर तर्जनी से उसका मत्था छुआ । फिर उसी उँगली से मत्थे के बीच से एक अदृश्य लकीर खींचता हुआ उसे दोनों भौंहों पर, फिर नाक पर ले आया; अपनी यात्रा में एक क्षण के लिए वह उँगली चाँद के ओठों पर टिकी, फिर उसी अदृश्य रेखा के सहारे, ठुड्डी को छूती हुई, उसकी सुडौल गर्दन पर जाकर टिक गई।
इसके बाद उसी क्रम से ऊपर की ओर यात्रा शुरू हुई।
ऊपरी तौर से दोनों एक निर्विकार खामोशी के बीचोंबीच खड़े थे । जब विमल की उँगली ऊपर की ओर बढ़ती हुई उसके होंठों पर दोबारा रुकी तो चाँद ने उसे अपने हाथ में लेकर धीरे-से हटाया। बोली, "मैं थक गई हूँ। सोऊँगी।" पर आवाज बहुत धीमी थी; पता नहीं, विमल ने सुना या नहीं।
वह ड्राइंगरूम के धुंधलके की ओर बढ़ गई । उसके उठते ही दरवाजे की संधि पर दोनों ओर के पल्ले धीरे-धीरे, जैसे वे अतीत को बंद कर रहे हों, एक-दूसरे से सट गए । विमल बरामदे में अकेला रह गया।
वह थोड़ी देर तक वहीं, न जाने कितने और कैसे अवरोधों की कैद में,खड़ा रहा । फिर दो-चार कदम चलकर पोर्टिको केएक खंभे के पास पहँचा । उससे टिककर उसने अपनी कार के बोनट पर निगाह डाली। खंभे में बिजली के दो स्विच लगे थे जो कहीं दूर जलनेवाली बत्ती से संबद्ध होंगे । वहाँ खड़े-खड़े उमने स्विच जलाया, गझाया; जलाता रहा, बुझाता रहा ।
अध्याय-2 : सीमाएँ टूटती हैं (उपन्यास)
तीसरे पहर की हवा थमते-थमते सारे रजिस्टरों को भुरभुरा बनाकर छोड़ गई थी । सामने खुले हुए पन्ने को साफ करने के बाद तारानाथ को जाना पड़ा, जिसे वह गर्द के कारण 240 पढ़ रहा था वह 298 था । 58 रुपए कम हुए जा रहे थे। अपने आगे खड़े हुए क्लर्क को अचंभे में डालकर वह हँसा, चपरासी से बोला, "पहले मेज के सारे कागज़ ठीक से पोंछ दो, नहीं तो हम सब उल्टा-सीधा पढ़ने लगेंगे । सभी लड़कों को दोबारा फीस देनी पड़ जाएगी।"
हेडक्लर्क दीवार की ओर मुंह करके एक मेज़ पर कुछ लिख रहा था । उसने मुड़कर तारानाथ की ओर देखा । पूछा, "क्या बात है, सर?"
"कुछ नहीं, गर्द की यही हालत रही तो लड़कों की हड़ताल हो जाएगी !
कोई दोबारा फीस थोड़े ही देगा।" वह और जोर से हँसा । हेडक्लर्क थोड़ी देर उसका मुंह देखता रहा, फिर वह भी हँसने लगा।
तारानाथ के सामने मेज पर कई रजिस्टर खुले पड़े थे । कुछ दिनों बाद परीक्षाएँ होनेवाली थीं । उनकी स्कीम को पूरा करके ही वह आज दफ्तर बंद करनेवाला था।
एक लड़के ने दरवाजे पर ठुनकी मारी । उसी के साथ तारानाथ की इजाज़त की प्रतीक्षा किए बिना वह अंदर आ गया । रुखाई से बोला, "मैं सवेरे से इंतजार कर रहा हूँ । मेरा माइग्रेशन सर्टीफिकेट मुझे अब भी नहीं मिला है।..."
छोटे कस्बे के लड़के का लिबास चौंकानेवाला था। बहुत कसा हुआ पतलून, जिद करके गंदे किए गए खुरदरे जूते, गेरुए रंग का लंबा कुर्ता, दाढ़ी-मूंछ और सिर के बाल बेतरतीब बढ़े हुए। आँख पर लोहे के फ्रेम का गो-गो चश्मा। दिल्ली के हिसाब से उसे किसी खुशहाल परिवार की फैशनेबुल संतान होना चाहिए था।
"मैं आपके बाबुओं को रिश्वत नहीं देना चाहता।"
"मत दो । हर हालत में तुम्हें मुश्किल से ही आज सर्टीफिकेट मिल पाएगा । हम लोग बुरी तरह फंसे हैं।"
लड़का सामने पड़ी हुई कुर्सी पर बैठ गया । पतलून के पीछे की जेब में हाथ डालने के लिए वह थोड़ा ऊपर उभरा । तारानाथ ने सोचा, अगर इसने सिगरेट और लाइटर निकाला तो प्रिंसिपली का अधिकार दिखाना पड़ेगा । लड़के ने जेब से एक रूमाल निकालकर उससे चेहरे और मत्थे को रगड़ा। उसके गाल चमकने लगे । तारानाथ ने कहा, "गर्द ! वही गर्द !"
"जी नहीं । कल नहीं । मुझे आज ही जाना है । मेरी गाड़ी रात दस बजे जाती है । मैं नौ बजे तक इंतजार कर सकता हूँ।"
दरवाजे पर दोबारा आहट हुई । एक डाकिया अंदर आया, तारानाथ से बोला, "आपके नाम तार है।"
उसने तार लेकर पढ़ा । डाकिया चुपचाप-शायद इनाम की आशा में-खड़ा रहा । तारानाथ ने कहा, "ठीक है । तुम जाओ।"
क्लर्क ने कहा, "फर्स्ट इयर के इम्तहान का चार्ट तो यह रहा ।" उसने तार मेज पर रख दिया । चार्ट लेकर उसे काफी देर तक देखता रहा।
लड़के ने कहा, "इसे बाद में देखिएगा प्रिंसिपल साहब; पहले मुझे बताइए, मेरे सर्टीफिकेट का क्या हुआ ? मुझे बस कल तक का टाइम दिया गया है । कल यूनिवर्सिटी में यह जमा न हुआ तो आप जानते हैं, क्या होगा ?"
"क्या होगा?"
"मैं इस साल बी. एस-सी. में न बैठ पाऊँगा।" सामने मेज पर एक पेंसिल पड़ी थी । उसे झंडे की तरह उठाकर लड़के ने कहा, "और उसकी जिम्मेदारी आप पर होगी।"
तारानाथ भी खेल के मैदान में आ गया । उसने एक दूसरी पेंसिल लेकर उसी तरह ऊपर उठाई । बोला, "नहीं होगी।"
फिर उसकी आवाज पहाड़ियों से मैदान में आ गई । कहने लगा, "मेरा कॉलिज तमने पारसाल जलाई में छोडा था। तब यह सर्टीफिकेट क्यों नहीं ले लिया था ?" उसकी निगाह चार्ट पर थी। उसे क्लर्क की ओर बढाते हए बोला, "ठीक है । अब इनका सर्टीफिकेट बना दो।"
इस आदेश के साथ आँधी ने वाद्य-वृंद का काम दिया । हवा पहले ही से बह रही थी और बादलों पर बादल बिछते जा रहे थे । सूरज डूबने में देर थी, पर उसकी चेतना मिट चकी थी । क्लर्क ने बत्तियाँ जला दीं । बोला. "मार्च में बारिश हो गई तो खेती चौपट हो जाएगी। सारी हरित क्रांति धरी रह जाएगी।"
"प्रतिक्रियावादियों की तरह मत बोलो।" तारानाथ ने कहा और यह देखने के बाद कि वह खुश हो रहा है, कमरे की खिड़कियाँ बंद करनी शुरू कर दी। क्लर्क माइग्रेशन सर्टीफिकेट बनाने लगा।
लड़के ने कहा, "लगता है, स्टेशन तक आँधी-पानी ही में जाना होगा।"
तारानाथ हँसने लगा । उसने फिर पेंसिल का झंडा बुलंद किया । बोला, "जानता हूँ, भीग गए और जुकाम हो गया तो इसकी भी जिम्मेदारी मुझी पर होगी।"
क्लर्क ने माइग्रेशन सर्टीफिकेट लाकर दिया। तारानाथ ने उस पर दस्तखत बनाए और कहा, "उधर रसीद पर दस्तखत बनाकर ले लो।"
लड़का कागज़ को एक लिफाफे में और लिफाफे को रूमाल में लपेटकर चलने लगा । चलते-चलते उसने नमस्कार का इशारा किया । तारानाथ ने उसे रोककर बोला, "जाने से पहले तुम्हें एक बात बताना जरूरी है। सर्टीफिकेट के लिए तुम बदतमीजी न दिखाते तब भी यह तुम्हें आज ही मिल जाता।"
लड़का पहले कुछ अचकचाया, फिर बोला, "क्या पता !" बूंदें पड़ने लगी थीं । वह तेजी से बाहर निकल गया ।
हेडाक्लर्क ने कहा, "दो दिन पहले इसके बाप से मिला था । ममगैन साहब ! क्या कहना ! शराफत के पुतले हैं । इस लड़के की हालत से परेशान है।"
"यह खुद शायद सारे ज़माने से परेशान हैं।"
बाहर का आसमान सिर पर टँगी हुई एक मटियाली छत बन गया था। पानी की बौछार तेज हो गई थी । तारानाथ ने कहा, "आज का काम खत्म करें । मौसम खराब हो रहा है।"
कमरे में अंदर की ओर एक छोटा दरवाजा खुलता था । लगता था, उस पार कोई कोठरी है । पर उससे वह जिस कमरे में आया, वह काफी बड़ा और साफ-सुथरा था । यही प्रिंसिपल का कमरा था । वह थोड़ी देर एक चिकनी मेज से, जिस पर सिर्फ दो-तीन पेपरवेट और कुछ पेंसिलें थीं, टिका खड़ा रहा । फिर वह अपनी रोज की कुर्सी पर बैठ गया । उसने आँखें मूंद लीं।
वह बत्तीस-तैंतीस साल का था । मँझोला कद । इस समय पतलून के ऊपर पूरी बाँह का पुलोवर पहने था । छुट्टी का दिन होने से दाढ़ी नहीं बनी थी । आँखें मूंद लेने के बाद उसके चेहरे पर एक निर्विकारता-सी उतर आई।
हेडक्लर्क ने धीरे-से झाँककर अंदर देखा, अपनी जगह वापस लौट आया। जोर का पानी पड़ना शुरू हो गया ।
आँखें खोलकर तारानाथ ने अपने चारों ओर देखा, और मन-ही-मन कही गई किसी प्रार्थना के अंतिम शब्दों को धीरे-धीरे दोहराते हुए दफ्तर के कमरे में आ गया । क्लर्क ने एक खिड़की के शीशे पर अपना मुंह दबाकर बाहर की धुंध पर निगाह स्थिर कर ली । कहा, "ओला पड़ने लगा है।"
तारानाथ बाहर बरामदे में आकर खड़ा हो गया। पीछे से हेड क्लर्क भी आकर उसके पास खडा हो गया। एक गमले से निकली हई पत्ती पर अनिश्चित-सी उँगली फेरते हुए बोला, "मुझे माफ कीजिएगा, प्रिंसिपल साहब । मैंने आपका तार पढ़ लिया है । मैंने समझा था, कॉलिज का है।"
तारानाथ ने अंग्रेजी में कहा, "तो मित्र, तुमने यह भी जान लिया होगा कि सुप्रीम कोर्ट ने मेरे पिता की अपील खारिज कर दी है।"
"मुझे अफसोस है..."
तारानाथ एक कुर्सी पर बैठ गया । कहता रहा, "मुझे चिंता अपनी बहिन की है । पता नहीं, उस पर क्या बीत रही होगी।"
बिजली की एक कड़क ने उनकी बातचीत को तोड़ दिया। वह कुछ देर सोचता रहा, बोला, "पूरे घर में नीला एक ऐसी है जिसकी समझ पर मुझे भरोसा है।"
"नीला?"
"वह मेरे भाई की बहू है-राजनाथ की ।"
"और आपके चचा?"
"चचा ? ओह, विमल अंकल ! वे मेरे चचा नहीं हैं, पापा के दोस्त हैं । मुझसे यही दस-पंद्रह साल बड़े होंगे । पापा की ओर से पूरा मुकदमा उन्होंने ही तो लड़ा है।" ओलों की जगह छर्रे रह गए थे और हवा धीमी पड़ गई थी। तारानाथ ने कहा, "इम्तहान की स्कीम कल पूरी कराके मुझे दिल्ली जाना होगा । कम-से-कम चाँद को..."
बरामदे के सामने एक जीप आकर खड़ी हो गई । स्टियरिंग व्हिल पर शंकर बैठा था । तारानाथ ने उसे हाथ के इशारे से दफ्तर की ओर बुलाया । उसने वहीं से चीखकर कहा, "नहीं, मैं उतरूँगा नहीं । तुम आ जाओ, मैं तुम्हें ही लेने आया हूँ।"
अपनी बात को जोरदार बनाने के लिए उसने हॉर्न बजाया । फिर दुगुने जोर से बोला, "बस, आ जाओ । यह काम करने का मौसम नहीं है ।"
"पानी का मौसम है !"
"क्यों नहीं!"
तारानाथ जीप पर आकर बैठ गया । शंकर शिकारियों की धज में था। कार्डराय का पतलून, ट्वीड का कोट, कुहनियों पर चमड़े के पैबंद लगे हुए । एक वजनी मफलर में गला और पैंतीस साल का मजबूत सीना ढंका हुआ । मुँह से रम की गंध आरही थी। "मैनेजर साहब बुलंदशहर से लौट आए ?" जीप पर बैठते हुए तारानाथ ने पूछा ।
"जायदाद के झमेले हैं भाई साहब, इतनी जल्दी कहाँ से लौट सकेंगे ! शायद परसों तक आ जाएँ।" शंकर ने कहा । सड़क के एक गड्ढे से जीप को और तारानाथ को उछालकर उसने समझाया, "मैंने तो बुजुर्गवार से कई बार कहा, बुलंदशहर के मकान बेच दीजिए, यहाँ के फार्म से ही मैं चौगुनी आमदनी करके दिखा दूँगा । पर, ठीक है, नहीं मानते तो भुगतें ।"
वे कस्बे के बाहर पहुँच गए थे । सड़क से मुड़कर शंकर ने एक कंकड़ के गलियारे पर जीप डाल दी और लगभग सौ गज चलते ही एक पुरानी कोठी के फाटक पर आ गया । अंदर घुसते समय तारानाथ ने कहा, "तुम्हें एक बुरी खबर सुनानी है।"
"अगर वह तुम्हारे पापा के बारे में है तो बताने की जरूरत नहीं । मैं अखबार देख चुका हूँ।"
जीप रुकते ही दोनों नीचे उतरे और कोठी के पीछे की ओर वाले बरामदे में जाकर बैठ गए। शंकर अंदर के कमरे में चला गया ।
बरामदे में शाम गहरी हो गई थी । वहाँ से सामने की नीची चहारदीवारी के पार एक ढाल था और उसके बाद गंगा की रेती शुरू हो जाती थी । फिर गंगा की धारा थी जिसका इस धुंधलके में सिर्फ अनुभव हो सकता था; उसे देखा नहीं जा सकता था।
शंकर एक हाथ में रम का भरा गिलास और दूसरे में अखबार लेकर आया । अखबार तारानाथ के सोफे पर फेंककर उसने एक खबर की ओर इशारा किया। कहा, "यह है !"
"हत्या आजीवन कारावास दिल्ली के व्यापारी की अपील सुप्रीम कोर्ट .. " आधे कालम में पूरी खबर आ गई थी । तारानाथ ने पढ़कर अखबार एक ओर रख दिया । एक नौकरानी चाय की ट्रे उसके आगे मेज पर लगा गई।
तारानाथ ने अखबार फिर से उठा लिया । बोला, "मेरे घर की खबर न होती तब भी अखबार पढ़कर अफसोस होता ।" मुस्कराकर उसने शुरू किया, 'बस के खड्ड में गिरने से आठ मृत्युएँ, ''पायलट ट्रेनी की दुर्घटना,'' कानपुर में डकैतियों और हत्याओं की वृद्धि,''साउथ एक्सटेंशन में पुलिया के पास पड़ी हुई लाश'' उसने अखबार एक ओर रखकर कहा, "यही सब पढ़ने के लिए हम पैसा खर्च करते हैं।"
तारानाथ ने बरामदे की रोशनी बुझा दी और सोफे पर बैठ गया । शंकर कुछ दूर एक आरामकुर्सी पर पड़ा हुआ रम पीता रहा । जैसे-जैसे उनकी आँखें अँधेरे में अभ्यस्त होती गई.कई तरह की रोशनियाँ और छायाकतियाँ आसपास खुलने लगीं । गंगा के उस पार कोई फैक्टरी होगी, उसके कई बल्व अँधेरे में एक छलना की तरह जल रहे थे । बरामदे की रोशनी बुझते ही वे उन्हें अपनी ओर खींचने लगे। अंदर के कमरे से रोशनी की एक पतली बर्थी बरामदे की परी चौड़ाई को छेदने लगी। फिर भी एक संतोषप्रद अँधेरा उन्हें घेरे रहा।
वे एक-दूसरे के आकारों का आभास-भर पाते हुए धीरे-धीरे बातें करते रहे । शंकर जान-बझकर सप्रीम कोर्ट के फैसले के जिक्र से कतरा रहा था। इस दखद स्थिति में इधर-उधर की बातों से वह तारानाथ को कछ राहत देना चाहता था । पर उसे लगा कि तारानाथ खुद अपने भाव को अछूता नहीं छोड़ना चाहता । उस फैसले से उसके परिवार में जो उलझनें बढ़ेगी उसका वह धीरे-धीरे ब्यौरा देता रहा । आखिर में एक अनिवार्य वाक्य आया, "भगवान की यही इच्छा थी !"
तारानाथ से ऐसी बात सुनकर उसे प्रायः उस पर तरस आता था-ऐसा तरस जो कोई पिता किसी पोलियो के मारे हुए, पर तीव्र-बुद्धि लड़के के लिए महसूस कर सकता है । उसने कहा, "ऐसे मौके पर भी तुम्हें अपने भगवान से शिकायत नहीं होती ?"
"जो कुछ हमारे साथ हुआ है, वह दुनिया में हजार लोगों के साथ हो चुका है। ये जिंदगी के सामान्य व्यापार हैं। इन्हें लेकर भगवान से क्या शिकायत !"
"तुम्हें ऐसा नहीं लगता कि तुम्हारे भगवान ने तुम्हें लेट डाउन किया है ?"
खामोशी । फिर, "तुम सुप्रीम कोर्ट के फैसले की छड़ी से मेरे भगवान को पीटना चाहते हो?"
शंकर चुपचापरम पीता रहा । तारानाथ ने कहा, "मुझे अपनी तनहाई में एक सहारे की जरूरत थी, अब भी है । बल्कि अब और ज्यादा है । उसे मैं अपने धार्मिक विश्वास के सहारे खोजता हूँ । इसमें भी तुम्हें ऐतराज़ है ?"
"बिलकुल नहीं," शंकर ने कहा, "सिर्फ यह सोचता हूँकि इस बीसवीं सदी में दूसरे इंसानों को अपनी तनहाई की समस्या का इतना आसान हल क्यों नहीं सूझता ?"
"यह हल इतना आसान नहीं है । जो आसाने हल निकालने की कोशिश में रहते हैं वे प्रेमिकाएँ रखते हैं, शादी करते हैं, अपने को चारों ओर से एक झुंड में रखकर अपने अकेलेपन को झुठलाना चाहते हैं । पर वह रास्ता आसान तो है, वह हल नहीं है । मेरा रास्ता मुश्किल है, क्योंकि उसमें अपने अकेलेपन को झुठलाने की नहीं, उसे एक बहुत बड़े अकेलेपन से खंडित करने की कोशिश है । बीसवीं सदी में भी यह रास्ता बंद नहीं हुआ है । आज भी करोड़ों लोगों को यह अपनी ओर खींचता है । तुम तो इतने साल योरोप में रहे हो । दूसरे महायुद्ध के बाद वहाँ आवारगी और अनास्था भले ही पनपी हो,फिर भी नई पीढ़ी के एक हिस्से में तुम्हें क्या वहाँ किसी विश्वास की खोज का प्रयास नहीं दिखा ? इसके लिए तुमने उनमें कोई छटपटाहट नहीं पाई ?"
"पाई थी । पर मुझे इत्मीनान नहीं हो पाया कि उसमें कितनी गहराई है और कितना दिखावा है ... और कहीं-कहीं तो साफ था, यह भी पलायन का एक रास्ता है । कुल मिलाकर, मुझे धार्मिक विश्वास को पकड़ने की दौड़ एक प्रतिगामिता की स्थिति जान पड़ी, जिसका आज के जीवन में कोई व्यावहारिक उपयोग नहीं था।"
"मेरे लिए अब तुम्हारा चेहरा देखना ज्यादा जरूरी हो गया है ।" तारानाथ ने बरामदे में रोशनी जला दी, फिर सोफे पर ढीला बैठकर कहने लगा, "जिस तरह तुम समझते हो, उस तरह तो धार्मिक विश्वास का कभी भी कोई व्यावहारिक उपयोग न था। कल्पनाओं की बात जाने दो । जैसे मध्ययुग में लोगों को धर्म की ओर प्रेरित करने के लिए स्वर्ग-नरक की कल्पनाएँ थीं. अर्थ और काम की उपलब्धियों का प्रलोभन था । मुझे याद है, बचपन में मेरे पड़ोस के एक पंडित जी, जो जिंदगी-भर दरिद्र रहे, एक स्त्रोत पढ़ा करते थे और उसमें रथ, हाथी, घोड़े, दुधारू भैंसें, बड़े-बड़े महल, दास-दासीगण, भूमि और तरह-तरह के ऐश्वर्य माँगा करते थे । पता नहीं, दिल्ली में उन्हें हाथी, घोड़े और भैंसे मिल जाते तो उन्हें कहाँ बाँधते ! जो भी हो, एक स्तर पर इस प्रकार की लालसा ही धार्मिक आस्था की प्रेरक शक्ति रही है । मैं यह भी जानता हूँ कि ये मध्यकालीन कल्पनाएँ आज भी बहुत हद तक धार्मिक विश्वास की प्रेरक शक्तियाँ हैं। अगर इसी स्तर पर मैंने भी अपने को केंद्रित किया होता तो कल का फैसला निश्चय ही मेरे लिए एक सांघातिक झटके की तरह आ सकता था।"
"तुम भगवान से कुछ नहीं चाहते ?"
"कभी-कभी चाहता भी हूँ । पर मैं इस प्रवृत्ति की असंगति को भी समझता हूँ। वास्तव में भक्ति का परंपरागत रूप, उसका सकाम और निष्काम रूप, अपने पुराने अर्थों में मेरे लिए निरर्थक हो गया है । इस तरह से मेरी भक्ति सकाम ही है, पर वह सकामता मेरी तात्कालिक आवश्यकताओं की पूर्ति की माँग नहीं करती। वह कुल इतना माँगती है कि वह मुझे अपने अकेलेपन से, इस क्रूर नियति के सामने हर कदम पर लड़खड़ा देनेवाली निराश्रयता से मुझे उबार ले । मेरी भक्ति मुझे भौतिक जगत की सामान्य और असामान्य सफलताएँ नहीं देती; वह सिर्फ मुझे इतनी ताकत देती है कि मैं असफलताओं और असंगतियों को जीवन की सहज स्थिति मानकर ग्रहण कर सकता हूँ। वह मुझे किसी सर्वशक्तिमान की दया का अधिकारी बनाकर आत्म-दया के कीचड़ में फंसने से बचाती है।"
शंकर पूरी बात बड़े ध्यान से सुन रहा था । वह अंग्रेजी में बोला, "पर यह सारी उपलब्धियाँ थोड़े आत्म-संयम से, जिंदगी की ओर एक संतुलित दृष्टि-भर रखने से भी हासिल हो सकती हैं । यह सिर्फ अपनी प्रवृत्तियों को नियंत्रित करने की बात है । उसे इतना रहस्यशील बनाने की, उसमें लोकोत्तर मान्यताओं का आरोप करने की क्या जरूरत है ?"
"तुम किसी दूसरे रास्ते में चलकर अगर वही आत्मिक ऐश्वर्य प्राप्त कर सकते हो तो जरूर करो । तब शायद बाद में पता चले कि हमारे रास्ते वास्तव में एक थे।"
शंकर जोर से हँसने लगा । बोला, "बस, इसी सधुक्कड़ी अप्रोच से मैं डरता हूँ । कम-से-कम आपसी बातचीत में तो इसे बचाए रहो । जहाँ तर्क हो रहा हो..."
"तर्क ?" अब तारानाथ भी हँसा, "जनाब, जब धार्मिक विश्वास की बात हो रही हो तो पहली और आखिरी बात यह याद रखिए कि धर्म की इंस्टिक्ट न तो तर्कसंगत है और न तर्क के विपरीत ही है । वह तर्केतर है-बिलकुल प्यार की तरह।"
वह दोबारा हँसा, "धर्म भले ही न समझते हों, प्यार तो समझते हैं न ?"
शंकर ने उसकी हँसी का साथ नहीं दिया । बोला, "नहीं, मुझे अफसोस है । मैं प्यार भी नहीं समझता।"
अध्याय-तीन : सीमाएँ टूटती हैं (उपन्यास)
आए थे हँसते-खेलते मयख़ाने में फ़िराक़,
जब पी चुके शराब तो संजीदा हो गए !
विमल ने रुक-रुककर यह शेर पढ़ा और सचमुच ही संजीदा हो गया। बड़ी सावधानी से अपना चेहरा हथेली पर टिकाकर वह जूली के कोट की ओर टकटकी बाँधे देखता रहा।
जूली खिलखिलाकर हँसी, या उसने हँसने की कोशिश की। पिछली रात की फिल्म की हीरोइन की हँसी उतारने की कोशिश में बोली,"क्या मतलब?"