साये में घर (स्पेनिश कहानी) : जूलियो कोर्टाज़ार
Saye Mein Ghar (Spanish Story in Hindi) : Julio Cortazar
(यह कहानी एक भाई-बहन के इर्द-गिर्द घुमती है, जो अपने पैतृक घर में अकेले ही जीवन व्यतीत कर रहे हैं। बड़े से घर में रहते हुए वे कुछ विचित्र “शोर” सुनना शुरू कर देते हैं। इस कारण घर के आधे हिस्से को बंद करने का फैसला करते हैं, लेकिन अंततः वह बढ़ती विचित्र सी “शोर” उन्हें अपने घर को छोड़ कर जाने पर विवश कर देती है।)
हमें हमारे घर से बहुत लगाव था, इसलिए नहीं कि वह बहुत बड़ा और पुराना था (ऐसे समय में जब लोग बड़े मुनाफे के लिए अपने पुराने घरों की नीलामी कर देते हैं), बल्कि इसलिए कि इस घर में हमारे दादा-परदादाओं, माता-पिता और हमारी बचपन की सारी यादें संजोयी हुई थीं।
यह कुछ अजीब ही था कि इरेने और मैं, केवल हम दोनों भाई-बहन ही इतने बड़े पुस्तैनी घर में रहते थे, जिसमें कम से कम आठ-नौ लोग तो बड़े आराम से रह सकते थे। वो भी बिना एक-दूसरे की चीजों में दखल दिए। हम दोनों सुबह 7 बजे जाग कर साफ़-सफाई में जुट जाते थे और 11 बजते- बजते सफाई का बचा-खुचा काम इरेने पर छोड़ कर मैं रसोई में चला जाया करता था। हम दोनों ठीक दोपहर 12 बजे खाना खा लिया करते थे।
उस समय तक केवल कुछ गंदे बर्तनों के अलावा घर का कोई और काम नहीं बचा होता था। खाना खाते हुए ऐसे खाली और शांत घर से बातें करना एक सुकून-सा देता था। और इस घर को साफ़-सुथरा रखने में हमने खुद को इतना व्यस्त कर लिया था कि हमने यह सोचना ही बंद कर दिया था कि ऐसा क्या है, जिस कारण से ना तो मेरी शादी हो पायी है और ना मेरी बहन की। एक ओर जहाँ इरेने बिना किसी ख़ास वजह के दो-दो बार शादी के आये प्रस्तावों को ठुकरा चुकी थी। वहीं दूसरी ओर मेरी सगाई होने से कुछ दिनों पहले ही मेरी मंगेतर मारिया की मेरी आँखों के सामने मौत हो गयी। अब उम्र के चालीसवें वर्ष के इस पड़ाव पर पहुँच चुके हम दोनों भाई-बहन का विवाह करने का विचार भी अमर्यादित होगा, जो हमारे घर में दादा-परदादाओं द्वारा स्थापित वंशपरंपरा को नष्ट कर देगा। हमें अब यह मोह सताती थी कि जब हमलोग इस दुनिया में नहीं रहेंगे, तो दूर का हमारा कोई रिश्तेदार इस घर पर अपनी दावेदारी जमाएगा। इसे तहस-नहस कर इसकी ईंटों को बेचकर, इस पर इमारत खड़ी कर अमीर बन जायेगा। इससे बेहतर तो यही होगा कि हमदोनों खुद ही इसे तोड़ दें, इससे पहले की अधिक देर हो जाये।
इरेने कभी किसी को परेशान नहीं किया करती थी। सुबह के घर के कामों को निपटा कर वह पूरा दिन अपने कमरे के सोफे पर बैठ बुनाई करते हुए बिताती। मुझे यह समझ कभी नहीं आता था कि वह इतनी ज्यादा बुनाई क्यों करती थी! मेरे ख्याल से औरतें तभी बुनाई करती हैं जब उनको किसी और काम को ना करने का बहाना ढूँढना होता है। लेकिन इरेने उन लोगों में से नहीं थी, वह हमेशा जरुरत की चीजें जैसे ठण्ड के लिए स्वेटर, मेरे लिए जुराबें, और अपने लिए जैकेट और दस्ताने बुनती थी। कई बार वह बुने हुए जैकेट को फिर से खोल देती क्योंकि उसमें कुछ ऐसा होता था, जो इरेने को पसंद नही आता था। टोकरी में उलझे हुए ऊन के ढ़ेर को सही रूप देने में उसका घंटों इसके साथ जूझते हुए देखना मुझे बहुत ही अच्छा लगता था। हर शनिवार मैं इरेने के लिए ऊन खरीदने शहर के बड़े बाजार में जाता था। इरेने को मेरी पसंद पर पूरा भरोसा होता था, और मेरे पसंद किये गये रंग उसे भी भाते थे, और मुझे एक भी लच्छा लौटाने की नौबत नहीं आती थी। ऊन लाने के बहाने मैं कई किताबों की दूकान के चक्कर भी लगा लेता था कि फ्रेंच साहित्य की कहीं कोई नयी किताब आई हो, लेकिन सब फिजूल। दरअसल, 1939 के बाद से अब तक अर्जेंटीना में कोई भी पसंद लायक फ्रेंच किताब आई ही नहीं थी।
लेकिन मैं उस घर की बात कर रहा हूँ, जहाँ घर और इरेने की अहमियत ज्यादा थी, मेरी नहीं। मैं सोचता हूँ कि इरेने बुनाई के अलावा करती ही क्या थी! कोई आदमी एक किताब को दुबारा पढ़ सकता है, लेकिन जब किसी स्वेटर की बुनाई समाप्त हो जाती है, तो फिर उसमें दुबारा करने के लिए कुछ रह नहीं जाता। यह कुछ बेतुका-सा था। एक दिन मैंने पाया कि आलमारी का सबसे निचला दराज उजले, हरे और बैंगनी रंग के शॉल और नेफ्त्थालिन की गोलियों के साथ भरे पड़े थे। मानो मैं एक दूकान में खड़ा हूँ। मेरे पास उससे पूछने की इतनी हिम्मत नहीं थी कि वो इनके साथ आगे क्या करने वाली है! हमें अपनी जीविका खुद कमाने की जरुरत नहीं थी, हमारे पास हर महीने खेती से भरपूर चीजें आ जाती थीं, और पैसे खर्च होने के बजाय जमा होते जा रहे थे। लेकिन इरेने केवल बुनने में ही रूचि रखती थी। बुनाई में उसकी एक अद्भुत निपुणता दिखती थी। उसके चांदी से चमकते हाथ, ऊन के काँटों का बार-बार आगे पीछे होना, फर्श पर पड़ी हुई एक-दो ऊन की टोकरियां और ऊन के लच्छों का उछलना। यह सब देखते हुए मैं घंटों बिता देता था। यह दृश्य बड़ा ही प्यारा होता था।
मैं अपने घर की बनावट को कैसे भूल सकता हूँ। वह भोजन का कमरा, एक बैठक घर जिसमे बेल-बूटेदार कढ़ाई वाली चीजें लगी हुई थीं। एक लाइब्रेरी और तीन बड़े सोने के कमरे। यह वो हिस्सा था, जो ऐसे ही खाली पड़ा रहता था, जो रोद्रिगेस पेन्या के घर की तरफ पड़ता था। केवल एक बड़ी-सी सागौन के दरवाजे से लगा गलियारा इस हिस्से को अलग करता था, जहाँ स्नानागार, रसोई घर के अलावा हमारा सोने का कमरा और हॉल था। सुंदर टाइल्स लगे एक गलियारे से होकर घर में प्रवेश का रास्ता था, जिसमें लोहे का बड़ा दरवाजा लगा था, जो सोने के कमरे की ओर खुलता था। इसके सामने बरामदा था जिससे होकर घर के पिछले भाग का रास्ता था। इसके बायीं ओर नीचे उतरने पर एक संकरा गलियारा था, जो आगे किचन और स्नानागार तक जाता था। जब यह दरवाजा खुलता था तब इसके बड़े आकार का पता चलता था। जब यह बंद होता था तो मानो आज कल के अपार्टमेंट जैसा अनुभव होता था, जिसमें घुमने फिरने की अधिक जगह न हो। इरेने और मैं घर के इसी भाग में रहते थे और आगे सागौन वाले दरवाजे के बाद वाले भाग में बमुश्किल ही जाते थे। वो भी कभी कभी साफ़-सफाई के कारण ही। लोग बूएनोस आइरेस को साफ़-स्वच्छ शहर कहते हैं, लेकिन दरअसल वो यहाँ की कम आबादी के कारण, और कोई बात नहीं है। वैसे यहाँ की हवा में बहुत अधिक धुल है, जो थोड़ी सी बूंदा-बूंदी से घर के बाहरी दीवार वाली संगमरमर की शोभा-कोष्ठ्कों और बरामदे के मेजों पर जमी हुई स्पष्ट ही दिखती है। और फिर इस जमे धूल को हटाने के लिए पंखों वाले चोगे से झारने में बहुत मशक्कत करनी पड़ती थी; जिससे धूलकण हवा में उठते, फिर मिनट भर में बगल में पड़ी पियानो और फर्नीचर पर जा बैठते।
यह घटना मुझे भलीभांति याद है, क्योंकि यह बड़ी ही सहजता से और बिना किसी शोरगुल के हुआ। इरेने अपने कमरे में बुनाई में मशगुल थी, उस समय रात के आठ बज रहे थे और मेरा अचानक माटे (दक्षिण अमरीका में प्रचलित येर्बा की चाय) पीने का मन हुआ। मैं नीचे गलियारे में सागौन वाली दरवाजे तक गया, जो थोड़ा खुला हुआ था। और फिर मैं जैसे ही रसोई घर की ओर जाने के लिए हॉल की तरफ मुड़ा, उसी समय मुझे लाइब्रेरी या भोजन कक्ष से कुछ हलचल की आवाज सुनाई पड़ी। बहुत ही धीमी और विचित्र ढ़ंग की आवाज प्रतीत हो रही थी, मानो जैसे किसी कुर्सी को फर्श की कालीन पर कोई पटक रहा हो या मानो कोई फुसफुसाकर बात कर रहा हो। उसी समय या अगले ही क्षण इसी प्रकार की आवाज उस बरामदे की ओर से आ रही थी जो सागौन वाले दरवाजे से लगे दो कमरों के साथ थी। इससे पहले की अधिक देर हो, मैंने दरवाजे को जोड़ से धक्का दिया और अपने शरीर की पूरी ताकत के साथ झट से इसे बंद कर दिया। भाग्यवश इसकी चाभी हमारे तरफ ही पड़ी थी। इसके साथ-साथ मैंने इसकी बड़ी-सी सिटकनी को भी लगा दिया, ताकि हम दोनों सुरक्षित रहें।
मैं नीचे रसोईघर में गया, केतली गर्म की और जब मैं माटे चाय की ट्रे के साथ वापस आया तो मैंने इरेने से बताया कि, “मुझे गलियारे का दरवाजा बंद करना पड़ा। दरअसल उन्होंने घर के पीछे वाले भाग को अपने कब्जे में कर लिया है।”
यह सुनते ही उसके हाथों से ऊन-काँटा नीचे गिर गया और अपने थके-गम्भीर आँखों से मेरी तरफ देखते हुए बोली, “सच में?”
मैंने हामी भरते हुए सर हिलाया।
“फिर तो हमें अब इसी तरफ रहना पड़ेगा”, ऊन-काँटा उठाते हुए वह बोली।
मैं धीरे-धीरे अपनी चाय पीने लगा, लेकिन उसे अपनी बुनाई फिर से शुरू करने में थोड़ा वक़्त लग गया। मुझे बखूबी याद है वह उस वक़्त एक भूरे रंग की जैकेट बुन रही थी। मुझे यह जैकेट बहुत पसंद था।
शुरूआती कुछ दिन हमारे लिए बहुत ही कष्टदायक थे, क्योंकि हम दोनों की बहुत सारी चीजें घर के उस भाग में रह गयी थी जिस पर उनलोगों ने अब कब्ज़ा कर लिया था। जैसे, मेरी फ्रेंच साहित्य की किताबें अब भी लाइब्रेरी में ही रह गयी थीं। इरेने बहुत-सी जरुरत की कागजों को वहीं छोड़ आई थी, और साथ में एक जोड़ी चप्पल भी, जिसे वह ठण्ड के दिनों में बराबर पहना करती थी। मुझे अपने सिगार की कमी महसूस हो रही थी, और इरेने को अपने एस्पेरिडीन वाली पुरानी बोतल की काफी कमी खल रही थी। ऐसे कुछ दिन चलता रहा (लेकिन शुरूआती दिनों में ही) कि हम किसी दराज या अलमारी को खोलते और एक दूसरे का चेहरा देखने लगते।
“यहाँ नहीं है।”
कई चीजों में एक चीज और घर की दूसरी तरफ गुम गयी थी।
लेकिन इसका लाभ भी था। अब साफ़-सफाई इतनी आसान हो गयी थी कि, देर से सुबह जागने पर, अमूमन साढे नौ बजे जागने पर भी अब ग्यारह बजे तक सब कुछ निबटा कर हम आराम से बैठे होते थे। अब तो इरेने रसोई में मेरा हाथ भी बँटाने लगी थी। हमने अब यह तय किया कि, जब मैं दोपहर का खाना तैयार करूंगा तो उसी समय इरेने रात के भोजन का इन्तेजाम करेगी, जिसे हम बिना गर्म किये खा सकें। इस ताल-मेल से हम दोनों ही खुश थे क्योंकि शाम में अपने कमरे से निकल कर रसोई में खाना बनाने जाना बहुत ही कष्टदायक-सा लगता था।
अब बुनाई के लिए उसके पास ज्यादा समय रहने लगा, इसलिए इरेने संतुष्ट थी। वहीं मैं अपनी किताबों के बिना खाली-खाली सा महसूस करता था, लेकिन इससे मेरी बहन पर कोई असर ना हो, इसके लिए मैं पिताजी के टिकटों के संग्रह को फिर से व्यवस्थित करने के काम में जुट गया, जिससे कुछ समय यूँ ही जाया हुए। इसी तरह से हमने खुद का मन बहलाना शुरू कर दिया। अधिकांशतः इरेने के कमरे में ही ज्यादा समय व्यतीत होने लगा। दरअसल उसका कमरा ज्यादा आरामदेह और व्यवस्थित जो था। अपनी बुनी हुई चीज की तरफ इशारा करते हुए कभी-कभार इरेने कहती: “इस डिजाईन की तरफ देखो, यह फलां फूल, फलां पौधे सा दीखता है ना?”
और उसके थोड़े देर बाद मैं, कागज़ के छोटे चौकोर टुकड़ों को उसके सामने रख देता ताकि वह मेरे सजाये हुए सुंदर टिकटों को देखे, जिनमें यूपेन मल्मेदी (पूर्वी बेल्जियम का क्षेत्र) वाली संग्रह भी थी। इस तरह से सब कुछ ठीक चलने लगा था, और धीरे-धीरे हमने अधिक सोचना बंद कर दिया। बिना सोचे भी तो रहा जा सकता है।
(जब भी इरेने नींद में बातें करती थी, मैं हड़बड़ा कर जाग जाता था, और फिर पूरी रात मुझे नींद नहीं आती थी। मैं कभी इस तरह की आवाज सुनने का आदी नहीं था, जो ऐसा लगता था मानो किसी मूर्ति या तोते से आ रही हो, वो आवाज जो कंठ के बजाय सपने से फूटती हो। और इरेने मुझे कहा करती थी की मैं भी नींद में काफी हलचल करता था, और इस कारण कम्बल भी कभी-कभी नीचे गिर जाया करती थी। हालांकि हम दोनों के कमरों के बीच एक बैठक का कमरा भी था, फिर भी रात में इस घर में होने वाली हर गतिविधि से हम रूबरू होते थे। एक-दूसरे की सांस लेने की, खांसने की आवाज, यहाँ तक की बत्ती जलाने-बुझाने के लिए आना-जाना भी हमें पता चलता था, ऐसा अक्सर ही होता था कि हम दोनों में से कोई भी पूरी रात नहीं सो पाते थे।)
रात्रि पहर में हमारी इन हलचलों के अलावा इस घर में बाकी सब कुछ स्थिर, शांत सा था। दिन के समय में घर में होने वाले काम-काज की आवाज, बुनाई के काँटों की खनखनाहट, और पुरानी टिकटों वाली एल्बम के पन्नों के पलटने की सरसराहट सुनाई देती थी। सागौन वाला दरवाजा बहुत बड़ा था, जैसा की मैंने पहले भी बताया था। उन लोगों द्वारा कब्ज़ा किये हुए भाग से सटा होने के कारण रसोई घर या स्नानागार में हम दोनों को आपस में जोर-जोर से बात करना पड़ता था, और कभी-कभार इरेने यहाँ पर लोड़ीयां भी गाया करती थी। रसोई घर वाले हिस्से में हमेशा ही काफी शोरगुल होता था, बर्तनों की आवाज के अलावा यहाँ और भी कई तरह की आवाज आया करती थी। हम दोनों वहां शायद ही कभी शांति महसूस कर पाते थे, लेकिन जैसे ही हम दोनों अपने कमरों या बैठक वाले कमरे में लौटते थे, तब घर में शांति छा जाती थी, फिर हम बिना किसी हलचल के और धीमे- धीमे ही अपना काम किया करते थे, ताकि एक दूसरे को पड़ेशानी ना हो। मुझे लगता है कि इसी कारण मैं अपने आप को जागने से रोक नहीं पाता था जब एकाएक इरेने नींद में बातें करना शुरू कर देती थी।)
इन सब के परिणामों को यदि छोड़ दिया जाए तो, यह सभी एक ही घटना के दोहराए जाने के प्रसंग हैं। उस रात मुझे जोर की प्यास लगी थी, और सोने से पहले, मैंने इरेने से कहा कि मैं पानी पीने रसोई घर में जा रहा हूँ। उसके कमरे (जहाँ वह बुनाई कर रही थी) के दरवाजे पर मैं खड़ा ही था कि मुझे रसोई घर से कुछ हलचल सुनाई पड़ी; यह आवाज या तो रसोई घर से आ रही थी या स्नानागार से, और बरामदे तक आते यह आवाज धीमी होती जा रही थी। इरेने यूँ मुझे अचानक रुके हुए देख हैरान हुई, और बिना कुछ बोले मेरे पास आकर खड़ी हो गयी। हमदोनों इस आवाज पर गौर कर रहे थे जो धीरे-धीरे बढती ही जा रही थी। यह तो तय था की वे लोग सागौन के बड़े दरवाजे से हमारी तरफ वाले हिस्से में ही थे, या तो रसोई घर में, या स्नानागार में, हॉल के मोड़ पर, ऐसा लग रहा था मानो हमारे बिलकुल पास थे।
हमारे पास कुछ सोचने समझने का वक़्त नहीं था। मैंने झट से इरेने का हाथ पकड़ा और बिना पीछे मुड़कर देखे हुए भारी लोहे की दरवाजे तक उसे अपने साथ भगाते हुए लाया। हमारे पीछे से आती हुई वो आवाज और भी तेज होने लगी। मैंने झट से वह भारी लोहे के दरवाजे को बाहर से बंद कर भागते-भागते कुछ दूर दालान तक आ गया था। अब यहाँ कुछ भी सुनाई नहीं दे रहा था।
“उन्होंने हमारे वाले हिस्से को भी अपने कब्जे में कर लिया है,” इरेने ने कहा। उसकी बुनाई का काँटा उसकी हाथों से छूटकर नीचे जा गिरा और ऊन का गोला दरवाजे की तरफ बढ़ते हुए उसके नीचे कहीं गुम हो गया।
“क्या तुम्हारे पास समय था अपने कमरे से सामान आदि लाने का? निराश-हताश मैं इरेने से पूछा।
“नहीं, बिलकुल भी नही।”
साथ हमारे कुछ भी नहीं था। मुझे याद आ रहे थे वो पंद्रह हजार पेसो (अर्जेंटीना की मुद्रा) जो मैंने अपने कमरे की आल्मारी में रखी थी।
लेकिन अब बहुत देर हो चुकी थी।
मेरी कलाई में एक घड़ी थी जो अब भी चल रही थी, जिसमें अभी रात के ग्यारह बज रहे थे। मैंने इरेने को अपने साथ लिया (शायद वह मन ही मन रो रही थी) और इस तरह बेघर हम सड़क पर निकल पड़े। घर छोड़ते वक़्त मैं काफी सहमा हुआ-सा था। मैंने घर के फाटक को कसकर बंद कर ताला लगा दिया और चाबी को उछाल कर नाले में फेंक दया। मैं नहीं चाहता था कि कोई और भी चोरी-लूटपाट की मंशा से हमारे घर में घुस आये, वह घर जिस पर अब अबूझ साए का कब्जा हो चुका था।
(अनुवाद: अंशु शेखर, शोधार्थी, स्पेनी भाषा-साहित्य, जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय)