साया (अंग्रेज़ी कहानी) : आर. के. नारायण

Saya (English Story in Hindi) : R. K. Narayan

सम्बू ने कहा, 'तुम मुझे कल सिनेमा देखने के लिए चार आने दे देना।' माँ यह सुनकर डर गयी। कैसे यह लड़का.। वह पिछले छह महीने से इस फिल्म के बारे में सोच रही थी। लोग यह जानते हुए कि वे अब इस दुनिया में नहीं है, कैसे इस फिल्म में उन्हें देख पायेंगे। उसे हलकी-सी यह भी आशा थी कि फिल्म के निर्माता उसकी भावनाओं का ध्यान रखते हुए अभी यह फिल्म रिलीज नहीं करेंगे। लेकिन जब उसने देखा कि फिल्म का प्रचार करने के लिए बाजे-गाजे के साथ सड़क पर जुलूस निकलना शुरू हो गया है जिसमें सबसे आगे उसके पति की बहुत बड़ी तस्वीर चल रही है तो पहले तो उसने सोचा कि कुछ दिन के लिए कहीं बाहर चली जाये लेकिन यह उपाय बहुत व्यावहारिक न होने से उसने यह विचार छोड़ दिया। अब फिल्म सिनेमाघरों में लगने वाली थी। अब उसके घर से तीन सड़कें पार करके वहाँ बने सिनेमा में उसके पति हर रोज छह घंटे बोलते, चलते, गाते दिखाई पड़ने वाले थे।

सम्बू बहुत खुश था, उसे लग रहा था कि उसके पिता सचमुच वापस आ रहे हैं। 'माँ तुम भी पिक्चर देखने नहीं चलोगी?" उसने पूछा।

'नहीं।'

'प्लीज माँ तुम्हें चलना चाहिए।'

माँ उसे समझाने की कोशिश करने लगी कि उसके लिए यह फिल्म देखना क्यों असंभव है। बच्चे ने उसके तकों का जवाब तर्क से ही दिया। कहा, 'असंभव क्यों है माँ? क्या तुम उनके फोटो घर में नहीं देखतीं? और यह बड़ा-सा फोटो दीवाल पर जो लगा है !'

'लेकिन ये फोटो न बात करते हैं, न चलते -फिरते और गाना गाते हैं।' 'फिर भी जिन्दा फोटो से तुम्हें ये फोटो ही ज्यादा पसंद हैं!"

सम्बू का दूसरा दिन बड़ी उत्तेजना में बीता। क्लास में जब भी टीचर उसकी तरफ से नजर हटाकर दूसरी तरफ देखता, वह बगल में बैठे लड़के से फुसफुसाकर कहता, 'मालूम है, इस पिक्चर में काम करने के लिए पिताजी को दस हजार रुपये मिले थे। कल मैं यह पिक्चर देखने जा रहा हूँ। तुम भी चलो न?'

'तुम कुमारी देखने जाओगे, चिढ़कर लड़के ने कहा। उसे तमिल फिल्मों से नफरत थी। 'मैं तो उधर से गुजरूंगा भी नहीं।'

'यह दूसरी फिल्मों जैसी नहीं है। पिताजी हर रात हमें उसकी कहानी पढ़कर सुनाते थे। बड़ी अच्छी कहानी है। यह उन्होंने खुद ही लिखी थी। लिखने और एक्टिंग के उन्हें दस हजार रुपये मिले थे। तुम चलना चाहो तो मैं तुम्हें ले चलूँगा।'

'कह दिया, मैं तमिल फिल्में नहीं देखता।'

'यह और फिल्मों जैसी नहीं है। अंग्रेजी फिल्मों जैसी ही अच्छी है।'

लेकिन सम्बू का दोस्त अपने इरादे पर अटल था। सम्बू को अकेले ही देखने जाना पड़ा। यह तमिल फिल्मों में नया प्रयोग था-कहानी आधुनिक और गाने बहुत कम थे। यह एक युवा लड़की कुमारी की कहानी थी जिसने चौदह साल की उम्र में शादी करने से मना कर दिया था। जो यूनिवर्सिटी में पढ़ना और अपना कैरियर बनाना चाहती थी, जिसे इसलिए उसके पिता (सम्बू के पिता) ने निकाल दिया था लेकिन बाद में माफ कर दिया था।

सम्बू चवन्नी वाले क्लास में बैठा बेचैनी से पिक्चर शुरू होने का इन्तजार कर रहा था। छह महीने से उसने पिता को नहीं देखा था। वह उन्हें बहुत प्यार करता था और उनकी कमी को बड़ी गहराई से अनुभव करता था।

घंटी बजी और हाल की बत्तियाँ बुझ गई। शुरू में विज्ञापन और ट्रेलर चलते रहे और सम्बू सोचता रहा, कब ये खत्म हों! अंत में, उसके पिता परदे पर प्रकट हुए। वे शर्ट और धोती बिलकुल उसी तरह पहने थे जैसे घर पर पहनते थे, मेज पर उसी तरह बैठे जैसे घर में बैठते थे। फिर एक छोटी-सी लड़की आयी। उन्होंने उसे बिलकुल उसी तरह थपथपाया जैसे सम्बू को थपथपाते थे और उसी तरह उससे बात की जैसे सम्बू से करते थे। फिर उन्होंने लड़की को गणित पढ़ाई। उसके घुटनों पर स्लेट थी, वे लिखाने लगे, 'एक गाड़ीवाला एक मील के दो आने लेता है। रामा के पास तीन आने हैं। इसमें वह कितने मील ले जायेगा?'

लड़की की समझ में नहीं आया और वह पेंसिल चबाने लगी। पिताजी को गुस्सा आने लगा?

सम्बू यह देखकर कहने लगा, 'जवाब दो कुमारी। नहीं तो पिताजी थप्पड़ लगा देंगे। मुझे इसका तुमसे ज्यादा अनुभव है।"

लेकिन कुमारी सम्बू से ज्यादा गणित जानती थी। उसने सही जवाब दे दिया। पिताजी खुश हुए। सम्बू भी जब कभी सही जवाब निकाल लेता था, तब वे कितने खुश होते थे, उछल ही पड़ते थे। उसे वह घटना याद हो आयी जब उसने तुक्का भिड़ाया था लेकिन जवाब सही निकला था-पहेली एक टब के बारे में थी, जिसमें ऊपर नल से पानी भर रहा है लेकिन नीचे से वह चू भी रहा है। जब उसने जवाब में बताया कि टब पूरा भरने में तीन घंटे लगेंगे तो पिता कुर्सी से उछल पड़े थे।

फिल्म खत्म हुई और हॉल में रोशनियाँ जल उठीं। सम्बू ने पीछे मुड़कर प्रोजेक्टर को देखा जिसमें अब पिताजी गायब हो गये थे। पिता के बिना अब उसे दुनिया खाली लगने लगी। वह घर लौट पड़ा। माँ दरवाजे पर खड़ी इन्तजार कर रही थी। बोली, 'बहुत देर कर दी। अब नौ बजे हैं।'

'पिक्चर और लंबी होती तो मुझे और अच्छा लगता। तुम्हारी सोच गलत है, माँ। तुम्हें पिक्चर देखनी चाहिए।'

खाना खाते हुए वह बोलता ही रहा। 'पिताजी बिलकुल इसी तरह चलते थे, इसी तरह गाते थे. बिलकुल इसी तरह।' माँ चुपचाप सब सुनती रही।

'तुम कुछ बोल क्यों नहीं रही, माँ?"

'क्या बोलू, बेटा. ?'

'तुम्हें पिक्चर पसंद नहीं है?"

उसने जवाब नहीं दिया। उलटे, पूछने लगी, 'तुम कल फिर यह पिक्चर देखने जाओगे?'

'जरूर जाऊँगा। जा सका तो जब तक पिक्चर चलेगी, जाता रहूँगा। तुम मुझे रोज चार आने देती रहोगी ?'

'दूंगी।'

'रोज दोनों शो देखें तो भी दोगी?"

'दोनों नहीं। दोनों देखोगे तो पढ़ाई का क्या होगा?"

'एक दिन तुम भी जरूर चलना, माँ।'

'हरगिज नहीं। मैं नहीं जाऊँगी।'

अगले एक हफ्ते तक हर रोज सम्बू तीन घंटे पिता के साथ रहता, और शो खत्म होने पर बहुत दुखी होता। रोज का यह अलगाव उसे अच्छा न लगता। वह तो दोनों शो देखना चाहता था लेकिन माँ पढ़ाई को जरा ज्यादा ही महत्व देती है। समय बहुत कीमती होता है, यह बात माँ नहीं समझती। पढ़ाई तो फिर भी कर ली जायेगी पर पिता तो फिर नहीं आयेंगे। उसे उन लोगों से हमदद होती जो रात को पिक्चर देखने आते थे।

बेटे के बार-बार आग्रह करने पर माँ ने आखिरी दिन पिक्चर देखना स्वीकार कर लिया। दोनों रात का शो देखने गये। वह औरतों के क्लास में बैठी। पिक्चर देखने के लिए उसे बहुत हिम्मत जुटानी पड़ी थी। जब तक परदे पर ट्रेलर और विज्ञापन दिखाये जाते रहे, वह आराम से देखती रही। लेकिन जब पिक्चर शुरु हुई तो उसका दिल तेजी से धड़कने लगा। उसका पति परदे पर अपनी बीवी से बात करता, बच्ची के साथ खेलता, गाता, चलता-फिरता, कपड़े पहनता। बिलकुल वही कपड़े, वही आवाज, वही गुस्सा, वही खुशी-ये सब चीजें उसके लिए बहुत क्रूरतापूर्ण सिद्ध हो रही थीं। उसने कई दफा आँखें बंद की, लेकिन एक विशेष आकर्षण उसे पिक्चर से जोड़े रहा-दुख और कष्ट का भी अपना आकर्षण होता है।

फिर एक दृश्य आया जिसमें वह कुसी पर बैठा अखबार पढ़ रहा है। कितने ध्यान से वह अखबार पढ़ता था-बिलकुल डूब ही जाता था उसमें। और शादी की जिन्दगी में कितनी दफा वह उससे इसके लिए लड़ी-झगड़ी थी। आखिरी दिन भी खाने के बाद वह कैनवास की कुर्सी पर इसी तरह अखबार पढ़ रहा था। उसके हाथ में अखबार था, और यह देखते ही वह अपना आपा खो बैठी थी, 'तुम और तुम्हारा अखबार! इससे अच्छा है कि मैं कहीं जाकर सो जाऊँ,' और यह कहकर वह चली गयी थी।

जब लौटी तो देखा कि वह कुर्सी पर लुढ़क गया है और अखबार से उसका यह दृश्य वह बरदाश्त नहीं कर सकी। वह सुबकने लगी।

सम्बू दूसरी तरफ मर्दो की क्लास में बैठा पिता के अखबार पढ़ने का दृश्य देखकर खुश हो रहा था। अब लड़की आयेगी और पूछेगी कि क्या पढ़ रहे हैं, फिर और भी बहुत से सवाल करने लगेगी, जिनसे परेशान होकर पिता चिल्लाकर कहेंगे, 'कुमारी यहाँ से जाओ, नहीं तो मैं तुम्हें बाहर फेंक दूंगा।' यह लड़की नहीं जानती थी कि पिताजी से कैसे व्यवहार करना चाहिए, इसलिए वह उसे अच्छी नहीं लगती थी।

सम्बू इन्तजार ही कर रहा था कि पिताजी लड़की को डॉट, तभी उसे औरतों के दरजे से रोने की आवाज सुनाई पड़ी-इसी के साथ लोगों के उठने और चिल्लाने की आवाज 'बतियाँ जलाओ। किसी का एक्सीडेंट हो गया है।'

शो रोक दिया गया। लोगों में हलचल मच गयी। पिक्चर रुक जाने से सम्बू को अच्छा नहीं लगा-पर वह पीछे घूमकर देखने लगा कि क्या हुआ है! उसने देखा कि उसकी माँ को लोग जमीन से उठा रहे हैं।

वह चीखा, 'यह तो मेरी माँ है! क्या वह भी मर गयी.?" वह कूदकर पीछे गया और रोने लगा।

किसी ने उसे दिलासा दिया, 'इसे कुछ नहीं हुआ है, सिर्फ बेहोश हो गयी है। ज्यादा शोर मत करो।'

लोगों ने उसे बाहर निकाला और जमीन पर लिटा दिया। रोशनियाँ फिर बुझ गयीं, लोग हॉल में वापस लौट गये और पिक्चर शुरू हो गयी।

थोड़ी देर में माँ ने आँखें खोलीं, वह उठकर बैठ गयी और बोली, 'घर चलते हैं।'

'ठीक है, ' सम्बू ने कहा। वह एक गाड़ी ले आया और सहारा देकर माँ को उसमें चढ़ा दिया। जब वह खुद उसमें चढ़ रहा था, हॉल में से डायलॉग सुनाई पड़ा, 'कुमारी, जाती हो या नहीं, नहीं तो मैं तुम्हें बाहर करूं।' सम्बू का दिल भारी हो आया और वह रो पड़ा।

उस पर अपनी माँ की स्थिति का और इसका, कि उसके लिए पिता की आवाज सुनने का यह आखिरी दिन है, दोनों बातों का बहुत असर पड़ा। दूसरे दिन से नई पिक्चर लग रही थी।

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