सवाब का रिश्ता (कहानी) : हसन मंज़र
Sawaab Ka Rishta (Story in Hindi) : Hasan Manzar
"कभी-कभी मैं सोचती हूँ अजीब नाम है तुम्हारा।" लड़की ने कहा।
"वह कैसे?"
"तलत तो लड़कियों का नाम होता है!"
दोनों हँस पड़े। फिर अचानक संजीदा होते हुए नौजवान ने कहा, "और तुम्हारा कौन-सा लड़कियों जैसा है?"
लड़की ने भी एकदम संजीदा होते हुए कहा, "वह कैसे?"
"वह ऐसे कि शाहजहाँ मर्दों का नाम होता है और यह बात मैं बहुत बार सोच चुका हूँ।"
"मेरा नाम मर्दों के नाम पर नहीं है। हमारे ख़ानदान में कम से कम दो शाहजहाँएँ हैं या थीं और हमारे कॉलेज में भी एक शाहजहाँ थी।"
नौजवान ने बेंच पर बैठे-बैठे पैर हवा में इस तरह उठाये जैसे थकन उतार रहा हो और बोला, "तो फिर उन तीनों के नाम शहंशाहे-हिन्दुस्तान के नाम पर थे और जहाँ तक मेरे इल्म में है, उनकी दाढ़ी-मूँछें थीं।"
एक थकी हुई हँसी के बाद दोनों ख़ामोश हो गये। थोड़ी देर के बाद नौजवान ने कहा, "शाह साहब!"
लड़की चुप बैठी रही।
नौजवान ने उसे कुहनी मारते हुए कहा, "शाहजी।"
"अच्छा! मुझसे कुछ कहते हो?"
"दो बार तो मुख़ातिब कर चुका हूँ।"
लड़की ने कहा, "मैं समझी थी, तुम्हें शायद वो पीर-फ़कीर नज़र आ रहे हैं और उन्हें तुम आवाज़ दे रहे हो।"
"अब ऐसा भी नहीं है कि तुम्हारे साथ रहते-रहते मुझे नज़र का वहम होने लगे। बात यह है कि इस वक़्त यहाँ बैठे-बैठे मुझे एक पुराना वाक़या याद आने लगा। सोचा, तुम्हें सुना डालूँ। फिर सोचा, सुनकर तुम दुखी हो जाओगी।"
शाहजहाँ ने दूर घास को पानी देने वाले आदमी को देखते हुए कहा, "अब इससे ज़्यादा दुखी क्या होऊँगी, सुना डालो।"
"सुना डालूँ?" तलत ने कहा।
"गो अहेड।"
"फिर मत कहना।"
दोनों घण्टे भर से फ्रेयर हॉल के सामने की बेंच पर बैठे हुए थे। लगता था, चल-चलकर दोनों थक गये हैं, क्योंकि दोनों ने अपने पैरों को नंगा करके ठण्डी घास पर रखा था, जो दूर तक फैली हुई थी। अभी फेरीवाले नहीं आये थे, न ही तेल-मालिशवाले और न तेल मालिश करवाने वाले। शाम होने में अभी देर थी और तब तक दोनों ने यहीं इन्तज़ार करने का फ़ैसला किया था।
ज्यों ही तलत वह वाक़या सुनाने को हुआ, शाहजहाँ को उबकाई-सी आयी।
उसने मुँह खोलकर सिर नीचे झुकाते हुए कहा, "उधर देखो।"
"क्या हुआ शाह साहब।"
"कुछ नहीं, कहा न, तुम दूसरी तरफ़ देखो।"
थोड़ी देर बाद उसने पुरसुकून होते हुए पीठ टेकी और आँखों से निकल आनेवाले पानी को पोछती हुई बोली, "हाँ तो क्या वाक़या था?"
नौजवान ने भी आराम के वापस लौट आने की साँस ली।
"यह लाहौर का वाक़या है। तुम्हें मालूम है, उन दिनों मैं वहाँ पढ़ रहा था। इम्तिहान होने वाले थे, मैं दिन-दिन भर घर में बन्द होकर पढ़ता था। कहीं आना-जाना बन्द कर रखा था। पैसों का भी उन दिनों तोड़ा था, कि दो घड़ी को आदमी किसी रेस्टोरेण्ट में जा बैठे। पर न जाने कहाँ से एक ख़याल दिमाग़ में आन बैठा था, सिगरेट का। जब पढ़ते-पढ़ते दिमाग़ फैग करने लगे, थक जाये..."
"इतनी इंग्लिश मैं भी जानती हूँ।"
"ख़ूब, ख़ूब" तलत ने कहा, "तुम्हारे साथ, यह साथ जितना भी लिखा है, अच्छा निभेगा।"
फिर वह अपने ख़यालों में खो सा गया।
"क्या मेरे साथ जूतियाँ चटखाते हुए दिमाग़ फैग होने लगा है?"
"नहीं, यह बात नहीं है।" तलत ने एक झुरझुरी-सी लेते हुए कहा, "तुम्हारे साथ चलते-चलते तो इन चन्द दिनों में, जितनी थकान सालों से दिमाग़ पर छायी थी, वह उतरने लगी है।"
"बनावटी बातें मत करो। दिल में कह रहे होगे, हमदर्दी ही हमदर्दी में बला गले लगा ली।" लड़की ने संजीदगी से कहा।
तलत ने शरारत भरी नज़रों से उसे देखते हुए कहा, "तुम्हारी इस बात का बड़ा अच्छा जवाब बनता है, लेकिन..."
"कौन-सी बात का?"
"यही बला गले लेने वाली बात का।"
शाहजहाँ की आँखों में नमी छलक आयी। कुछ देर को दोनों एक दूसरे की
आँखों में देखते रहे, जैसे एक ने दूसरे की बात पा ली हो। फिर तलत ने कहा,
"अभी सिर्फ़ साढ़े चार बजे हैं। पूरा डेढ़ घण्टा पड़ा है।"
शाहजहाँ ने कहा, "जल्दी क्या है! मुझे घर जाकर न दोपहर के बरतन धोने हैं, न रात का खाना पकाने की जल्दी है। और तुम तो मेरा ख़याल है शाम को कुछ भी नहीं करते हो? घर जाओगे तो नौकर खाना लाकर सामने रख देगा।"
"आठ बजे पहुँचा तो गरम, ग्यारह बजे पहुँचा तो ठण्डा।"
दोनों हँस पड़े।
"फिर क्या हुआ?"
"काहे का?"
"वह लाहौर में दिन-दिन भर पढ़ने का।"
"हाँ, तो बस दिन भर पढ़ता रहता था।" नौजवान ने खोये दिमाग़ से कहना शुरू किया, "सुबह मुँह अँधेरे उठकर जो पढ़ाई में जुटता था, तो जब अम्माँ नाश्ते के लिए तीन चार आवाज़ें न दे लें, अपनी जगह से टस से मस नहीं होता था। फिर नाश्ता करके बैठता था तो ग्यारह बजे एक प्याली कॉफ़ी के लिए उठता था, जो मैं ख़ुद बनाता था, फिर जो..."
"मुझे मालूम है," शाहजहाँ ने बेचैनी से कहा, "यह वह कहानी है, जो सुना है, मेरी बड़ी आपा को अब्बा मरहूम, जिन्हें मैंने देखा ही नहीं, सुनाया करते थे। चिड़िया आयी, एक दाना चावल का लिया और फुर्र से उड़ गयी। वक़्त गुज़ारने के लिए आपा मुझे यह कहानी सुनाती थी। तुम भी यूँ ही करते रहो - रोज़ाना नाश्ते से कॉफ़ी ब्रेक तक, कॉफ़ी ब्रेक से लंच तक। इसी में छह बज जायेंगे। नौजवान ने खोखली हँसी हँसते हुए कहा, "नहीं, इस कहानी में सिर्फ़ एक चावल है और चिड़िया दो। और मैं..."
"दिन भर घर में बन्द रहकर पढ़ा करता था।" लड़की ने जुमला पूरा किया। थोड़ी देर बाद जब लॉन में पानी देने वाला पाइप को अपने पीछे घसीटता हुआ पास आ चुका था और उसके पीछे घास पर बहते हुए पानी के तालाब पर कौए उतर आये थे, तो नौजवान की कहानी ख़ासी आगे बढ़ चुकी थी। घर में सिगरेट पीते हुए झिझकता था। और अँधेरा हो जाने के बाद खाना खाकर घर से टहलने के लिए निकल खड़ा होता था, ताकि सुकून से सिगरेट भी पी जा सके और उस दिन के लिए किताबों पर आखि़री हमले की तैयारी भी हो जाये। और ज़्यादा पढ़ाई के लिए दिमाग़ को हुक्के की तरह ताज़ा करना ज़रूरी था।
"रास्ते से सिगरेट ख़रीदकर मैं उस सुनसान सड़क पर चल पड़ा, जो बड़े पुल को जाती है। उस रात उम्मीद के खि़लाफ़, हवा चल रही थी, जो लाहौर के लिए बड़ी अजीब बात थी। मेरे दिमाग़ में अभी भी सारे दिन का पढ़ा हुआ घूम रहा था और मुझे नहीं मालूम कब मैं बड़े पुल की चढ़ाई चढ़ा और कब पैदल चलने वालों के लिए बने रास्ते पर हो लिया। अगर तुमने रेलवे का वह पुल नहीं देखा है तो उसकी तफ़सील मैं बताये देता हूँ वरना पूरी बात समझ में नहीं आयेगी। रेलवे की पूरी शटिंग वार्ड से होकर गुज़रता है। बीच में चौड़ी सड़क है, जिसकी चढ़ाई पर दिनभर ताँगे वाले तेज़ी से ‘वे मर जा’ कहते हुए घोड़े को चढ़ाये लिए जाते हैं। तेज़ रफ़्तारी शर्त है। वरना सुस्त रफ़्तार टाँगोंवाला भाई आखि़री ज़ोर लगाकर ताँगे समेत पीछे चल पड़ता है और फिर ताँगेवाला कूदकर घोड़े के मुँह की लगाम को थाम लेता है और उसकी अगली टाँगों पर चाबुक मारने लगता है। ख़ैर, यह बात यूँ ही बीच में आ गयी। पुल की सड़क को, पैदल चलने वालों के दोतरफ़ा रास्तों से लोहे का पार्टीशन खड़ा करके अलहदा किया गया है। उस रात मैं सिगरेट सुलगाये हवा और कश का लुत्फ़ लेता उसी पैदल रास्ते पर अँधेरे में चला जा रहा था। ट्रैफ़िक न होने के बराबर था। दायें हाथ पर लोहे का पार्टीशन था। बायें हाथ को चाँद ख़ासा ऊपर उठ गया था। पूरा तो नहीं था, लेकिन तीसरी, चौथी का भी नहीं था। इर्द गिर्द की चीज़ें भी नज़र न आयें। यार्ड में मालगाड़ी के डिब्बों की क़तारें नज़र आ रही थी। लेकिन उनके एक दूसरे से टकराने की कोई आवाज़ नहीं उठ रही थी, जो मुझे पसन्द है। इधर उधर कोई इंजन भी नज़र नहीं आ रहा था।
फीकी चाँदनी में एक जगह मुझे लोहे के पार्टीशन से मिला हुआ गन्नों की खोई का एक ढेर नज़र आया, जिस पर कोई और चीज़ भी पड़ी हुई थी।
"मैं गन्नों की खोई के ढेर पर नहीं चांका था, क्योंकि मुझे मालूम था यहाँ दिन में गन्ने का रस बेचने वाला खड़ा होता है। ताज्जुब मुझे उसी चीज़ पर हुआ, जो उस ढेर पर पड़ी थी। मुझे मेरी एक हिस (संवेदन शक्ति) ने बताया, इस चीज़ को यहाँ नहीं होना चाहिए था, दूसरी हिस ने मुझे पैर से उसे टटोलने पर उकसाया, उस जगह से पुल का दूसरा सिरा नज़दीक ही था।
"मैंने पैर बढ़ाया ही था कि पैदल के रास्ते के ख़ात्मे पर, बिजली के खम्भे के नीचे बैठे हुए दो आदमियों ने आवाज़ दी, "बाबूजी, पैर नहीं लगाना, बच्चा है।" "मैं अपनी जगह ठिठककर रह गया। अब वाकई मुझे उस ढेर में दो ऐसी चीज़े नज़र आने लगी जो बच्चे के सफ़ेद पैर भी हो सकते थे और जो शायद हिल भी रहे थे।"
अचानक तलत ख़ामोश हो गया और बेज़रूरत सामने शून्य में देखने लगा।
"फिर?"
चन्द लम्हों बाद शाहजहाँ ने कहा।
तलत फिर भी ख़ामोश रहा।
"न सही, तुम्हारी मर्ज़ी नहीं, तो न सही।" फिर उसने घड़ी देखते हुए कहा, "अभी क्लीनिक के खुलने में एक घण्टा बाक़ी है और यहाँ से हिलने में पैंतालिस मिनट।"
तलत ने खड़े होकर जिस्म को इस तरह दो-चार बार अकड़ाया, जैसे बहुत थक गया हो। फिर बोला, "कहीं चलकर चाय पी जाये।"
"अभी नहीं क्लीनिक के बाद।" शाहजहाँ ने राज़दारी के लहज़े में कहा।
"ओह!" तलत ने बात समझते हुए कहा, "मेरी अक़्ल मोटी है और हर बात को बहुत जल्दी भूल जाता हूँ।"
"नहीं, ऐसा तो नहीं है।" शाहजहाँ ने कहा, "अभी तो तुमको अपने बायें हाथ पर चाँद और दायें हाथ पर पुल पर पड़ा हुआ बच्चा नज़र आ रहा था। लगता था, तुम फ़िल्म देख रहे हो।"
"बच्चा नहीं, बच्ची।" तलत ने संजीदा लहज़े में कहा।
"फिर तुमने उसे उठा लिया।"
"नहीं, मुझे देखकर उन दोनों में जैसे हिम्मत आ गयी हो। मामूली कपड़ों में थे। उस इलाक़े में ज़्यादातर रेलवे मज़दूर बसते हैं। और मेरा ख़याल है वो दोनों भी मज़दूर थे। मैं उस ढेर के पास खड़ा रहा। वो अपनी जगह से उठकर मेरे पास आ गये। मैंने पूछा, "क्या है?" दोनों ने एक साथ कहा, "बच्ची!"
तलत ने जान-बूझकर दूर शून्य में देखते हुए एकदम कहा, "मैंने पूछा, ज़िन्दा है?"
जैसे उसने अपने अन्दर से जुम्ले को बड़ी जद्दोजहद के बाद निकाल फेंका हो। लड़की ने थूक निगला। उसकी नज़रें भी नौजवान की नज़रों से समानान्तर शून्य में देख रही थी।
"वे दोनां एक साथ बोले, ‘जी!’ फिर उन्हीं में से एक ने, जिसकी उम्र तीस के लगभग होगी, बच्ची के सीने पर से उस कपड़े के उन दोनों पटों को खोला, जिसमें वह लिपटी हुई थी। दूसरे ने माचिस सुलगाकर मुझे उसका चेहरा दिखाया। कोई चीज़ बच्ची के मुँह से बहकर कपड़ों में आसपास लग गयी थी। मैंने पूछा, क्या है? माचिसवाले ने दूसरी तीली रौशन की और बोला ‘शायद दूध डबलरोटी खिलायी है।’ ‘इतनी छोटी बच्ची को?’ मैंने कहा, ‘कितने दिन की होगी।’ ‘चार-पाँच दिन की तो होगी’ पहले आदमी ने कहा।
मुझे ख़याल आया बच्ची चाँद को देख रही है। लेकिन यह मेरा वहम रहा होगा। अँधेरे जैसी रोशनी में वहाँ क्या नज़र आता था? ज़्यादा से ज़्यादा कपड़ों के बाहर निकले हुए उसके पाँव और चेहरे की गोलाई। बाक़ी जिस्म कपड़ों में लिपटा हुआ था।
"बच्ची रो नहीं रही थी। मैंने दुबारा पूछा, "ज़िन्दा तो है न?"
"हाँ जी अभी थोड़ी देर रोयी थी।"
"मैंने कहा, ‘इसे उठाकर रौशनी में ले चलते हैं’ बच्ची के दोनों मुहाफ़िज़ एक साथ बोले, ‘और जो पुलिसवालों ने पूछताछ की, तो आप नट तो नहीं जाओगे?’
"नहीं, यहाँ से तो उठाओ। पता नहीं खोई में चींटियाँ हां या कनखजूरा।’
"एक आदमी ने बच्ची को उठा लिया और जब हम उसके साथ सीधे खड़े हुए, तो हमें पता चला, कितने लोग वहाँ, ट्रैफ़िकवाले पुल पर जमा हो चुके थे। कोई साइकिल पर बैठा लोहे के पार्टीशन को पकड़े रुका खड़ा था, कोई दो सेकेण्ड को रुककर पूछता था, ‘क्या है?’ और किसी दूसरे के बताने पर ‘इन्सान का बच्चा...’ कहकर हँसता हुआ साइकिल की पैडल मारता चल खड़ा होता था। एक ऐंग्लो-इण्डियन लड़की साइकिल पर सवार वहाँ से गुज़री।"
"किसी ने उसे गाली दी होगी।" शाहजहाँ ने कहा।
"शायद" तलत ने कहा, "लेकिन उसके बाद जो लड़की वहाँ से गुज़री थी जिसका दुपट्टा उसके पीछे हवा में उड़ रहा था और बाल कटे हुए थे, उसके लिए मुझे याद है, भीड़ में से किसी ने गाली बककर कहा था, यह काम इन जैसियों के हैं।"
"कितना आसान फ़ैसला था।"
"वह लड़की मेरे घर की तरफ़ जा रही थी और चार-पाँच घर छोड़कर हमारी ही सड़क पर रहती थी। वह किसी दफ़्तर में काम करती है। इससे ज़्यादा मैंने उसके बारे में कुछ नहीं सुना था। एकदम किसी ने कहा, ‘पुलिस आ रही है।’ और लोग वहाँ से भाग खड़े हुए। हम बच्ची को बिजली की रोशनी में ले आये। वहाँ मैंने उसका चेहरा पहली बार देखा। बड़ी ख़ूबसूरत बच्ची थी। मुझे उस वक़्त औरतों की कही हुई बात याद आयी, कि बच्चे हमेशा ही ख़ूबसूरत होते हैं। लेकिन यह बात सोचकर मैंने अपने जे़हन से नहीं निकाली थी, यह तो बस वहाँ पड़ी हुई थी।
"उन दो में से एक ने कहा, हम बहुत देर से यहीं बैठे थे, कि कोई बच्ची पर पैर रखता हुआ न गुज़र जाये, या कोई कुत्ता न आ जाये। उसके साथी ने कहा, पता नहीं कब से यहाँ पड़ी थी। वे दोनों बेढंगेपन से बच्ची का मुँह साफ़ कर रहे थे। एक बोला ‘इतनी छोटी बच्ची, भला दूध पीती है, या रोटी खाती है।’ दूसरे ने कहा, "माँ को डर होगा, पता नहीं कितनी देर भूखी-प्यासी पड़ी रहे। रोटी पेट में होगी तो ज़्यादा देर चलेगी।"
"मेरी आँखों में वह अनदेखा मंज़र घूम गया : यहाँ लाने से पहले एक लड़की जिसकी आँखों में आँसू हैं, उसे आखि़री बार दूध पिला रही है। फिर मुतमईन न होकर उसे दूध में भिगोई हुई डबलरोटी के टुकड़े खिलाने की नाकाम कोशिश करती है और आखि़रकार यहाँ के लिए लेकर चल पड़ती है। हो सकता है, सही जगह की तलाश में इधर-उधर फिरती रही हो। हो सकता है, जगह का चुनाव उसने पहले से कर रखा हो। न इतनी रोशनी कि सबको रखती हुई नज़र आ जाये न इतना अँधेरा कि उस पर कोई पैर रखता हुआ गुज़र जाये। फिर मुझे ख़याल आया, ऐसी माएँ बच्चे के आसपास देर तक मँडराती रहती हैं। जब तक यह यक़ीन न हो जाये कि उसे किसी ने उठा लिया है।
"मैंने घूमकर सड़क पर दोनों तरफ़ नज़रे उठायीं। सड़क पर से सिर्फ़ अब एक ताँगा आहिस्ता-आहिस्ता गुज़र रहा था, जैसे अपने घर जा रहा हो। कहीं से मुझे कोई सवालिया चेहरा झाँकता हुआ नज़र नहीं आया।
"फिर एक ख़याल आया, ज़रूरी है वहाँ एक लड़की ही हो? हो सकता है कोई औरत हो जिसके दस-बारह बच्चे हों और जिसमें एक और पालने की सकत न रही हो।
"फिर इस ख़याल को दिमाग़ से रद्द कर दिया। यह ज़रूरी नहीं है कि कोई औरत या लड़की ही यहाँ आयी हो। यह काम..."
"उस लड़की का मिलने वाला कोई लड़का भी कर सकता था।" शाहजहाँ ने कहा।
"तुम यक़ीनन जासूसी नावेल पढ़ती हो।" तलत ने कहा।
"जासूसी नावेल में लाशें होती है, या सड़क के किनारे छोड़े हुए बच्चे। लगता है तुमने जासूसी नावेल कभी नहीं पढ़े।"
दोनों के दरमियान जो तनाव पैदा हो गया था ख़त्म हो गया।
"हाँ तो फिर क्या हुआ?" लड़की ने घड़ी देखते हुए कहा, "अभी हमारे यहाँ से उठने में तीस मिनट बाक़ी हैं।"
"वहाँ खड़े-खड़े मैं सोच रहा था, यह बच्ची मुझे मिल जाये तो कितना अच्छा हो। घर में मेरे अपने छोटे भाई-बहन थे, लेकिन इतना छोटा बच्चा कोई और न था। एक फ़िक्र अब्बा की तरफ़ से थी। पता नहीं, अब्बा बच्ची को रखने पर राज़ी हां भी या नहीं। हमारा घराना कोई रईस घराना नहीं था। दूसरा ख़याल आया, छोटी बच्ची का गू-मूत साफ़ करने को अम्माँ तैयार नहीं होगी। मुझे किसी और क़िस्म के एतराज का डर नहीं था।
"मेरे ख़याल का सिलसिला उस वक़्त टूटा जब एक सफ़ेद सिर से पैर तक बुरके में ढकी हुई भारी-सी औरत, वहाँ आकर बच्ची के पास बैठ गयी। जैसे उसे वहाँ बुलाया गया हो। उसकी उम्र पचास के लगभग होगी और बाल मेंहदी से रंगे हुए थे। यह मुझे बाद में पता चला कि वह उन दोनों में से एक की माँ थी और घर से बुलाने के लिए एक आदमी कब का वहाँ से जा चुका था।
"उसने बच्ची का पेट खोलकर देखा और सिर पर हाथ फेरा और यक़ीन के साथ बोली, सात दिन की होगी। वे तीनों आपस में बातें करने लगे। जिसकी माँ थी, उसके घर में उन दोनों के सिवा कोई और नहीं था। घर सूना था। दूसरे के बीवी-बच्चे थे। और वह इसी बात के हक़ में थे कि बच्ची उन माँ बेटे को मिल जाये। लगता था, लाल बालोंवाली के बेटे की शादी किसी वजह से नहीं हुई थी और न जल्द होने की उम्मीद थी। मैंने पूछा, "यहाँ काहे का इन्तेज़ार कर रहे हो।
"रेलवे पुलिस का।"
"क्यों भला।"
"ऐसे ले जाने में तो केस बन जायेगा कि किसी की बच्ची उठा ले आये हैं।
"किसी को इत्तिला करने को भेजा है।"
"एक लड़के को भेजा है।" उस आदमी ने कहा, जो घर से औरत को बुलाने गया था।
"मैं वहाँ से चल खड़ा हुआ। दोनों मेरी मिन्नत-समाजत करने लगे कि पुलिस आती होगी आप हांगे तो आपकी सुन लेंगे। हमें तो उल्टा फाँस देंगे। यह नहीं देखेंगे, इतनी देर हिफ़ाजत हमने की है।"
"मैंने वादा किया, अभी आया जाता हूँ।"
एक बार अँधेरे में पहुँचकर मैंने घर की तरफ़ भागना शुरू कर दिया। पुलिस के वहाँ आने और मेरे घर से पूछकर आने में जैसे दौड़ लगी थी, जहाँ रौशनी में लोग खड़े नज़र आते थे, जिनमें कुछ जानने वाले भी होंगे। मैं भागना बन्द करके तेज़-तेज़ क़दम चलने लगता था। फिर बिजली की रौशनी से दूर होते ही दुबारा भागने लगता था।
"जब मैं घर पहुँचा तो अब्बा मरहूम इशा की नमाज़ पढ़ रहे थे। मैं पास की पलंग पर बैठकर उनके सलाम फेरने का इन्तेज़ार करने लगा। मेरी साँस फूल रही थी और कपड़े पसीना पसीना हो रहे थे।"
"उन्होंने अत्ताहियात पढ़ते हुए शहादत की उँगली उठायी और मेरे दिल में धड़का हुआ। पता नहीं फ़र्ज़ है या वित्रा। और सलाम फेरने में अभी एक या दो रकअतें बाक़ी हो। लेकिन जब वो उठकर खड़े नहीं हुए तो मुझे इतमिनान हो गया कि बस चन्द लम्हों की बात है। उन्होंने दूसरी तरफ़ सलाम फेरा ही था कि मैंने फूली हुई साँस के साथ कहा, "पुल पे बच्ची पड़ी है।"
"ज़िन्दा है?"
मैंने कहा, "जी!"
"छोड़ क्यों आये?"
उन्होंने मेरे ही जैसे जोश के साथ कहा।
"आपसे पूछने आया था।" मैंने साइकिल उठाकर दरवाज़े का रुख़ करते हुए कहा।
इसमें पूछने की क्या बात है। उनकी आवाज़ पीछे सुनायी दी। अब तक तो कोई ले जा चुका होगा।
तभी शाहजहाँ ने ज़ोर से झुरझुरी ली और उसके चेहरे की खाल तन गयी। फिर उसने अपने पेट को पकड़ लिया।
"क्या हुआ?" तलत ने पूछा।
लड़की ख़ुद को सँभालने की कोशिश कर रही थी। फिर उसने सिर को झटकते हुए कहा, "कुछ नहीं।"
"उबकाई आयी थी बादशाह सलामत?"
"नहीं! तुम्हारे समझने की बात नहीं है तलत।" फिर वह हँस पड़ी "तुम्हारा नाम लड़कियों वाला है...मेरी एक सहेली थी, तलत जबीं और एक कज़िन है, माहतलत।"
"तो तुम्हारा कौन-सा लड़कियों वाला है शाहजहाँ साहिब महाराज?"
लड़की के चेहरे पर एक बार फिर वही भाव पैदा हुए। उसने घबराकर नौजवान का हाथ पकड़ लिया। फिर सिर को झटककर बोली, "कुछ नहीं...तो तुम्हारे दिल को धक्का-सा लगा? क्यों"
"इसलिए कि मुझे ऐसा लगा जैसे बच्ची मुझसे छिन गयी हो। हालाँकि उन लोगों ने मुझे बच्ची देने का वादा नहीं किया था, लेकिन मुझे कुछ ऐसा अहसास हो गया था कि पुलिसवाले शायद उन लोगों को पढ़ा-लिखा न समझकर बच्ची मुझे दे जायें। लेकिन मेरी नज़रें पुल के दूसरे किनारे पर गयी, जहाँ बिजली की रोशनी बेहतर थी और रेलवे पुलिस के दो सिपाही कुछ लिख रहे थे।
"मेरे पास पहुँचने पर उन दोनों मज़दूरों के चेहरों पर रौनक लौट आयी।"
एक सिपाही ने पूछा, "बच्ची इन्होंने पायी थी या आपने?"
मैंने खुश्क मुँह से कहा, "इन्होंने।"
"इसे कौन लेना चाहता है?"
"वो मज़दूर और मैं एक साथ बोले, मैं।"
"लाल बालोंवाली औरत मिन्नत करते हुए बोली, हमारे घर में तो बस हम दो माँ बेटे हैं। इसकी शादी ही का आसरा नहीं होता। आपके तो बाल-बच्चे होंगे।
"मैंने कहना चाहा, अभी तो मैं पढ़ता हूँ, लेकिन दिल पूरे तौर से बच्ची को छोड़ने पर आमादा नहीं था। ऐसी बात कह देने से तो बच्ची पर मेरा हक़ बिल्कुल ख़त्म हो जाता। मैं कहने वाला था, तुम्हीं ले लो, लेकिन ख़ामोश रहा। हम असमंजस में खड़े थे कि वर्दीवाले ने, जो शायद सिपाही से ऊपर के दर्जे का था, कहा, जो इसे लेना चाहता है, साथ ले के चले। वहीं लिखा-पढ़ी के बाद बच्ची उसे मिलेगी।
"मेरे लिए नयी कशमकश पैदा हो गयी। भला मैं एक हाथ से साइकिल सँभाले दूसरे से बच्ची को कन्धे से लगाये उसके साथ स्टेशन तक कैसे चल सकता था? फिर न जाने वहाँ की कार्यवाही में कितने घण्टे लगें। और अगर मैं इसी काम में लग जाता तो रात की मेरी पढ़ाई तो गयी थी।"
"फिर तुम छोड़ आये उसे।" शाहजहाँ ने बेदिली से कहा।
"मैंने लाल बालोंवाली औरत से कहा, ख़ैर, तुम ले लो। मेरे छोटे भाई-बहन हैं। फिर मैंने एक नज़र बच्ची पर डाली, जिसे उस औरत के बेटे ने हाथों के पंगोड़े में प्यार से सँभालकर रखा था। बच्ची ग़ाफिल सो रही थी और उस वक़्त सनी हुई भी नहीं थी। पता नहीं, कब माँ-बेटे में से किसने बिल्ली की तरह चाटकर उसका मुँह धो दिया होगा।
"मुझे लगा, उस आदमी के दिल से बड़ा खटका निकल गया, जो उसे मेरी तरफ़ से रहा होगा। यक़ीनन वह और उसकी माँ और उसका साथी तीनों यही सोच रहे होंगे, अगर मैं स्टेशन तक बच्ची के साथ गया और वहाँ उस पर अपना हक़ जतलाया तो ड्यूटी पर जो अफ़सर होगा, वह बच्ची मेरे हवाले ही करेगा। ये लोग अपने शक्ल से, अपने कपड़ों से मज़दूर लग रहे थे। फिर भला बच्ची को वे कैसे सबकुछ दे सकते थे, वह बज़ाहिर मेरी शक्ल से लगता होगा, मेरे घर वाले दे सकेंगे। मैं शरीफ़ों में से था।
"पिछले आधे-पौने घण्टे में मैं जिस्मानी और जे़हनी तौर पर बुरी तरह थक गया था और अब वापसी पर बहुत आहिस्ता-आहिस्ता पैडल चला रहा था। आधा पुल पार करने के बाद मैंने पैर टेककर बाइसिकल को रोका और पलटकर बिजली के खम्भे की तरफ़ देखा। वे वहाँ से चल पड़े थे। दोनों पुलिसवाले आगे आगे थे, जैसे उस वाक़ये से उनका कोई ताल्लुक़ न हो वे तीनों उनके पीछे चल रहे थे।
"तीनों?" शाहजहाँ ने तल्ख़ी से पूछा।
"माफ़ करना, भूल गया था। चारों कहना चाहिए था। है न? लेकिन वह तो न होने के बराबर थी।"
शाहजहाँ चुप रही।
तलत भी ख़ामोश रहा, जैसे उसके पास जो कुछ कहने को था, ख़त्म हो चुका हो।
अचानक काँय-काँय करते हुए तीन-चार कौओं ने एक दूसरे के पीछे उनके सामने हवा में गोता मारा। उनके आगे आगे एक चीख़ता हुआ कम उम्र भगोड़ा कौआ था जो शायद कुछ करके भागा था।
फिर हवा पर ख़ामोशी जम गयी।
"उठा जाये।" शाहजहाँ ने कहा।
"अभी नहीं, अभी वाक़ये का सबसे दर्दनाक हिस्सा बाक़ी है।"
"छोड़ो भी। कोई औरत अपनी बच्ची को पुल पर रखकर चली गयी किसी ने पास से साइकिल पर गुज़रने वाली औरत को गाली दी, जिसे तुम मेरे सामने नहीं दोहरा पाये, इसलिए कि वह गाली मुझे लगेगी।"
"यह ग़लत है" तलत ने कहा, "मैं पहले तो गाली देता ही नहीं हूँ, फिर वह भी एक औरत के सामने।"
अपनी बात जारी रखते हुए शाहजहाँ ने कहा, "फिर तुम उस बच्ची को अपनाने की इजाज़त अपने बाप से लेकर भी वहीं छोड़ आये। अब इससे ज़्यादा दर्दनाक बात क्या होगी? यह कि उन लोगों ने उसका गला घोंट दिया?"
तलत ने कहा, "वह क्यों ऐसा करते?"
"वह इसलिए कि ऐसा काम सिर्फ़ सगी माँ ही कर सकती है।"
इसके आगे उसकी आवाज़ भर्रा गयी। तलत की समझ में नहीं आ रहा था कि उसे क्या कहना चाहिए। फिर उसने शाहजहाँ के हाथ पर अपना हाथ रख दिया। शाहजहाँ ने आँसू पोछते हुए कहा -
"चलो उठो। क्लीनिक चलते हैं। बुढ़िया बड़ी बददिमाग़ है। ज़रा देर हो गयी तो हज़ार ख़ुशामद पर भी आज के लिए राज़ी नहीं होगी और मुझे फिर छुट्टी महीने भर तक नहीं मिलेगी।
"तो ऐसा करो कि तुम नौकरी छोड़ दो।" तलत ने मज़ाक़ में कहा।
"और उसके बाद तुम रोटी खिलाओगे।"
"यही तो मैं कह रहा हूँ।"
"फिर तुम कहोगे अच्छी बला गले लगी।"
"गले लगाना ही तो चाह रहा हूँ।" तलत ने हिचकिचाते हुए कहा, फिर उसने अचानक कहा, "अपना फ़्लैट छोड़कर मेरे घर आ जाओ।"
"होय!" शाहजहाँ ने कमज़ोर-सी ताली बजाते हुए कहा, "तमाम बन्दिशें और रुकावटें तुमने एक छलाँग में पार कर ली। अरे मिस्टर यह पाकिस्तान है। यूनाइटेड स्टेट ऑफ़ अमेरीका नहीं। दोनों पकड़े जायेंगे और अख़बारवालों और पब्लिक और क़ानून सबको अचानक हममें दिलचस्पी हो जायेगी।"
"हेल विद देम" तलत ने भी उसी ख़ुशी के साथ कहा, जिसने अचानक शाहजहाँ को अपनी लपेट में ले लिया था। फिर उसने कहा, "अगर वाक़ई इस वक़्त यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ़ अमेरीका में होते, तो मैं यहीं तुम्हें गले लगा लेता।"
शाहजहाँ ने सिर घुमाकर उसकी आँखों में देखा और अचानक घड़ी को देखते हुए कहा, "बस दस मिनट बाक़ी है। उठो बुढ़िया नाराज़ हो जायेगी।"
"हेल विद हर..." तलत ने कहा, "पहले आगे का वाक़या सुन लो। फिर वहीं चलकर चाय पियेंगे, फिर..."
"फिर?" शाहजहाँ ने कहा।
"हाँ तो मैं कह रहा था कि अँधेरी रात में आहिस्ता-आहिस्ता पैडल चलाता हैण्डिल पर झुका, घर की तरफ़ जा रहा था जहाँ मुझे मालूम था अब्बा मेरा इन्तज़ार कर रहे होंगे। मुमकिन है इतनी देर घर ने एक और ज़िन्दगी को ख़ुशआमदीद कहने की तैयारी कर ली हो। अवर्स वाज़ अ वेरी रेलिजस गॉड फियरिंग फैमिली। अम्माँ, ख़ुदा बख़्शे, वैसे चाहे मेरे बच्चे को घर ले आने पर कितना बड़बड़ाती, लेकिन अगर उन्हें पता चलता कि बच्ची को रात में भी वहीं, खोयी पर पड़ी छोड़ आया हूँ तो फिर सारी रात उन्हें ख़ुदा के कहर से डर लगता और अपना बिस्तर काटने को दौड़ता। मैं सोच रहा था, अब्बा मेरे इन्तज़ार में बैठे होंगे। छोटे भाई बहन ने कहीं तोशक-फलिया और छोटे-छोटे कपड़े जमा कर लिये होंगे, क्या ख़ानदान था!
यह किस क़िस्म की ख़ुशी थी, घर में एक बच्चे के होने की? नहीं। वो तो घर में थे ही। उनकी परवरिश के दौर से, अभी अम्माँ को पाँच-छह ही साल हुए मुहलत मिली थी। किसी पर तरस खाने की? नहीं। इसके लिए उस बच्ची का मिलना ज़रूरी नहीं था। जिन पर तरस आये, उनसे शहर भरा पड़ा था। और फिर हमारा घराना खाता-पीता सही, ऐसा भी नहीं था कि अलल्ले-तलल्ले हों। ख़ुद मैंने क्या उस बच्ची को अपनाना चाहा था? इस सवाल का जवाब मैं आज तक नहीं दे पाया हूँ। यह शायद एक नया रिश्ता था, जो मुझ पर खुल रहा था। ऐसा रिश्ता जो ख़ुद अपनी जगह एक हैसियत रखता है। जो इन्सान को ज़िन्दगी में कभी-कभार ही पैदा होता है।"
"पाँच मिनट..." शाहजहाँ ने आहिस्ता से कहा।
"गोली मारो बुढ़िया को।"
शाहजहाँ ने कहा, "कमबख़्त मैंने आज की सुबह भी नैनों में गँवायी। हम चलते-चलते ख़्वार हो गये। अच्छा वह नहीं कोई और सही।"
"और कोई क्यों सही। पहले मुझे आगे का हाल बताने दो। मैं जब हार खाये इन्सान की तरह घर पहुँचा तो मेरी शक्ल देखते ही अब्बा ने कहा, ‘बच्ची कहाँ है?’ और उतनी देर में जो साइकिल रखने में मुझे लगी, उन्होंने कई बातें कह डालीं, जिनमें से अब मुझे बस दो याद है -
"कोई ले गया। पता नहीं कैसे आदमी के हाथ आयी होगी?"
"मैंने उन्हें सारी बात बतायी और अगले दिन पूछने के लिए कहा, कि वहाँ रेलवे स्टेशन पर क्या हुआ... और यह वह दर्दनाक बात है। उन्होंने अगले दिन स्टेशन से लौटकर मुझे बताया। उन लोगों ने मामूली पूछताछ के बाद उस औरत और उन दोनों आदमियों को अगले दिन आने को कहा। वह दोनों माँ-बेटे कहते रहे कि बच्ची पुलिस स्टेशन पर रात को कैसे रहेगी। लेकिन एक सिपाही ने कहा कि जाते हो या तुम्हारा चालान करें? बच्ची कहीं से उठाकर लाये हो और अब इसे क़ानूनी तौर पर अपने घर रखना चाहते हो ताकि जब बड़ी हो जाये तो..."
शाहजहाँ ने आगे सुनाने के लिए ‘हूँ’ की।
तलत ने हिचकिचाते हुए कहा, "मैं वालिद साहब की बात बिना समझाये ही समझ गया। क्योंकि वो आगे बताने से क़तरा रहे थे।"
काफ़ी देर तक दोनों ख़ामोश बैठे रहे।
शाहजहाँ ने तलत के हाथ पर हाथ रख दिया जो अपने निचले होंठ को दाँतों से दबाये हुए था। फिर उसने दुखी लहज़े में कहा, "पुलिसवालों में से एक बच्ची को अपने घर ले गया था। यानी वह उसे मिली, जिसने उसके लिए कुछ भी नहीं किया था। अब भी कभी-कभी मुझे उसका ख़याल आता है। न जाने कितनी बड़ी हो गयी होगी। अगर वह मुझे मिल जाती तो मेरी ज़िन्दगी किस तरह गुज़री होती। उन माँ-बेटों को मिलती, तो उनकी ज़िन्दगी में कैसी-कैसी तब्दीलियाँ आतीं।"
"आओ, चलो क्लीनिक चलें," शाहजहाँ ने कहा, "अभी भी वक़्त है मैं बुढ़िया को राज़ी कर लूँगी फिर ये पैसे न जाने कहाँ उठ जायें।"
"हम वहाँ नहीं जायेंगे।" तलत ने कहा।
"क्यों नहीं जायेंगे। अभी व़क्त है।"
एकबारगी परेशान होकर उसने अपना पेट पकड़ लिया और साँस रोके रही। तलत ने पूछा "क्या हुआ? उबकाई आ रही है?"
"तुम सिर्फ़ उबकाई जानते हो। मुझे कुछ और महसूस हो रहा है। जैसे कोई चीज़ अन्दर हिली हो।"
"तब तो और भी नहीं जायेंगे।" तलत ने कहा।
"चन्द हफ़्ते और मेरी ज़िन्दगी ख़तरे में पड़ जायेगी। बुढ़िया इन्कार कर देगी। वह बहुत मीन-मेखवाली है। साइकोलॉजिकल ग्राउण्डस पर तो राज़ी हुई है। उसने न कर दिया तो फिर किसी अनाड़ी नर्स का सहारा लेना पड़ेगा।"
"मैं न बुढ़िया को कुछ करने दूँगा और न किसी नर्स या दाई को।" फिर उसने पूरे भरोसे के साथ कहा, "तुम अब मेरी ज़िम्मेदारी हो।"
"चौदह-पन्द्रह दिन की वाक़फियत भी कोई वाक़फियत होती है?" शाहजहाँ ने कहा, "तुम मेरे बारे में कुछ भी नहीं जानते मिस्टर तलत जबीं।"
"न जानना चाहता हूँ शहंशाहे-हिन्दुस्तान!" तलत ने बीच से उठते हुए कहा,
"चलो, तुम्हार चार घण्टे का रोज़ा ख़त्म। चलकर कुछ खाया-पिया जाये।"