सौ मील की दौड़ (पंजाबी कहानी) : बलवंत गार्गी

Sau Mile Ki Daud (Punjabi Story) : Balwant Gargi

हमें सूझ नहीं रहा था कि एक दिन में ही सभी गाँवों को कैसे सूचना भेजी जाय कि कल शाम को जिला किसान-कमेटी की मीटिंग हो रही है। न कोई तार-घर, न टेलीफोन, न मोटर और न लारी। समीपवर्ती गाँवों को कोई सड़क भी तो नहीं जाती थी-बस चारों ओर जंगल, रेत और टीले थे।

एक कच्चे कोठे में, जहाँ रात के समय लंगड़ा हारमोनियम मास्टर नंदलाल रहता था और जो दिन के समय जिला किसान कमेटी का दफ़्तर बन जाता था, हम अब दस-बारह आदमी बैठे हुए सलाह-मशविरा कर रहे थे कि इस आकस्मिक मीटिंग की सूचना सभी गाँवों में कैसे भेजी जाय।

मेरे चारों ओर घनी, कड़ी दाढ़ियों वाले जाट रंग-बिरंगे साफे बाँधे जोर-जोर से बातें कर रहे थे। वह तरह-तरह की रायें दे रहे थे। एक कोलाहल-सा मचा हुआ था। किसी को काम की बात सूझती नहीं थी।

सहसा एक धीमे-से स्वर ने हमें चौंका दिया-“जी, मुझे दो यह पर्चियाँ, मैं पकड़ा आता हूँ मिनटों में।"

बीस-बाईस वर्ष का एक युवक, जिसकी मसें भीग रही थीं, सामने खड़ा था-धूप और वर्षा से मटियाला कुर्ता, और पैबन्द लगा गाजर-रंग का जाँघिया।

मैंने उसकी ओर देखा और पूछा- “तू किस गाँव में पकड़ा आयेगा?"
“जी, सभी गाँवों में दे आऊँगा।"
"सभी गाँवों में? तुझे पता है कि हमारी मीटिंग कल शाम को है?"
"हाँ, मुझे पता है !" उसने कहा-“रात ही रात चक्कर लगा आऊँगा। कौनसा समय लगता है। मुश्किल से दस-बारह ही तो गाँव हैं-साठ कोस से ऊपर फासला तो होगा नहीं।"

मैंने उसकी ओर पुनः देखा। उसके होंठ मोटे-मोटे थे और उन पर सुरमई रंग की मसें भीग रही थीं घोड़े की आँखों जैसी उसकी आँखें तिरछी-तिरछी, जंग लगे लोहे जैसा रंग, ऊँची गर्दन, चीते जैसा पतला पेट और ढाल जैसे घुटने। उसकी उभरी हुई पिंडलियों और जाँघों पर कोई बाल नहीं था, मोरनियाँ खुदी हुई थीं। साठ कोस का फासला यह कुछ ही घंटों में कैसे तय कर लेगा? इसको पता भी है या नहीं कि यह क्या कह रहा है।

इतने में बूढ़ा इंद्रसिंह बोला-“यह तो अपना बूटासिंह है-भागू गाँव का। आपको पता नहीं? सौ मील दौड़ लेता है यह तो!"
"सौ मील!" "हाँ, सौ मील! दौड़ता क्या है बस हवा को फाँकता है।" मुझे बड़ा अचरज लगा। सौ मील! भला यह भी कोई मानने वाली बात है।

इंद्रसिंह ने मुझसे पूछा- “आपने इससे पहले कभी नहीं सुना बूटासिंह का नाम?"
"कभी नहीं!"

"लो, बूटासिंह की यह बात तो सभी जगह मशहूर है!" इंद्रसिंह ने कहना शुरू किया-"यह मेरे गाँव का है-संतो का पुत्र! इसका बाप चम्बा जागीरदार के खेत का रखवाला था। बूटा उसी खेत में जन्मा। खेत के किनारे फूस की एक छोटी-सी झोंपड़ी में ही सारा कुटुम्ब रहता था। चम्बा फसल को सेही और जंगली जानवरों से बचाने के लिए राती को खेतों की रखवाली करता था। एक रात को जब कोहरा जम रहा था, उसको ठंड लग गई और तीन-चार दिनों के ज्वर के बाद वह मर गया। इसके बाद संतो अपने पुत्र के साथ खेत में ही रहने लगी। बेटे की बाल्यावस्था सेहियों, गीदड़ों और जंगली जानवरों के पीछे भागते हुए गुजरी। वह जागीरदार के बछड़ों के पीछे दौड़ता और उनसे आगे निकल जाता। घोड़ों और ऊँटों के पीछे दौड़ता-दौड़ता बूटा जवान हुआ। सेही अधिक-से-अधिक चार कोस दौड़ सकती है, गीदड़ आठ कोस, घोड़ा चालीस, और तेज से तेज ऊँटनी पचास कोस से अधिक नहीं. पर बूटा सौ मील दौड़ सकता है-एक ही साँस में!"

इंद्रसिंह ने सभी पर्चियाँ बूटे को दे दी और सभी गाँवों का नाम और पता-ठिकाना बता कर उससे कहा-“बूटा, यह पर्चियाँ सब गाँवों में बाँट आ। जा, मेरे बहादुर शेर! हवा हो जा।"
दूसरे दिन बारह के बारह गाँवों के सकत्तर (सेक्रेट्री) शाम को ऐन वक्त पर मीटिंग के लिए पहुँच गए। मैंने सबसे बारी-बारी से पूछा, “आपके पास संदेश लेकर कौन गया था?"
सब ने एक स्वर में उत्तर दिया-"बूटासिंह।" मीटिंग के पश्चात् मैं बूटासिंह से मिला। लालचंद वकील, जिसने मुज़ारों के कई मुकदमे बगैर फीस के लड़े थे, हेडमास्टर नत्थूराम जो अपने जमाने में क्रिकेट का बहुत अच्छा खिलाड़ी था, अजमेरसिंह रिटायर्ड जज और कस्बे के तीन-चार अन्य सम्मानित व्यक्ति इकट्ठे हो गये और बूटासिंह के साथ बातें करने लगे। हम उसकी स्फूर्ति और शक्ति पर विस्मित खड़े थे और हमें इस बात का दुख हो रहा था कि इतने आश्चर्यजनक दौड़ने वाले को इस गाँव से बाहर कोई नहीं जानता था।

आखिर जज ने सोचकर कहा-“अगर बूटा सौ मील दौड़ सकता है तो दुनियाभर की शोहरत हासिल करने से इसको कोई ताकत रोक नहीं सकती।"

एक बूढ़े हवलदार ने कहा-"महाराजा पटियाला क्रिकेट और खेलों के बड़े शौकीन हैं। उनकी फौज में मामूली आदमी जो थोड़ा-सा अच्छा खिलाड़ी था, अब कप्तान या मेजर बन गया है। अगर हम किसी तरह बूटासिंह की बात उनके कानों में पहुंचा दें तो वह जरूर बूटासिंह को विलायत भेज देंगे।"

एक चालाक अर्जीनवीस बोला-"किसी ने देखा भी है बूटा को सौ मील दौड़ते हुए कि सभी सुनी-सुनाई बातों पर हवाई किले खड़े कर रहे हो?"

हेडमास्टर ने राय दी-"क्यों न पहले यहीं इसकी दौड करवा लें। इससे शायद कुछ रुपये भी इकट्ठे हो जायेंगे। बड़े खेत का घेरा पूरे चार सौ गज है। अगर बूटा इसके चार सौ चक्कर लगा ले तो सौ मील हो जायेंगे। इसके बाद ही इसके भविष्य के बारे में सोच-विचार सकते हैं।"
यह राय सभी को पसंद आयी।
मैंने बूटे से बड़े खेत में दौड़ने के बारे में पूछा। उसने अपनी आँखें झपकीं और केवल इतना कहा--"जैसा आप कहें।"

माड़ू मेहतर ने सब गाँवों में डोंडी पीट दी और ऐलान कर दिया- "इतवार को सुबह सात बजे बूटासिंह की सौ मील दौड़ होगी। गाँव के सभी लोग बड़े खेत में यह सब देखने के लिए आयें डम डम डम।"

रविवार को प्रातः ही बड़े खेत में बूटासिंह की दौड़ के लिए तहसील के चपरासी ने चूने से दौड़ने वाली जगह पर निशान लगा दिया। बूटे ने जाँघिया और मटियाले रंग का कुर्ता पहना हुआ था। सिर पर लम्बे काले बालों का जूड़ा करके उसके चारों ओर केसरी रूमाल लपेट लिया था।

सात बजे हेडमास्टर नत्थूराम ने, जो रेफरी बन कर खड़ा था, सीटी बजाई और बूटे ने दौड़ना शुरू किया।

लोग आठ बजे तक आते रहे। नत्थूराम हेडमास्टर बैठा हुआ बूटे को दौड़ता देखता रहा। बूटा एक साँस, एक रफ्तार से मुँह बंद किये मशीन की तरह खेत के चारों ओर दौड रहा था।

स्त्रियाँ आईं और खेत की मेंड़ पर बैठ गईं। वे विवाह-शादी और सगे-संबंधियों की चुगलियाँ करती रहीं और बूटासिंह को लटू की भाँति घूमते देखती रहीं।
शाम तक वह इसी प्रकार दौड़ता रहा। साढ़े छः बजे ही (निश्चित समय से आधा घंटा पूर्व ही) उसने खेत के चार सौ चक्कर पूरे कर दिये। सूरज की डूबती हई लालिमा में बूटे के बिखरे बालों की लटें रक्तिम पंखों की भाँति लगती थीं। उसकी छाती धौंकनी की तरह चल रही थी और उसके इस्पात जैसे शरीर पर पसीने की धारा बह रही थी।

जब उसने दौड़ खत्म की तो लोगों ने नारों से उसका स्वागत किया और उसको कंधों पर उठा कर सारे गाँव में उसका जुलूस निकाला। बूटे ने सब लोगों के आगे हाथ जोड़ कर कहा-“यह सब वाहेगुरु की कृपा है। उसकी मेहर हड्डियों में दौड़ रही है। इसी कारण मैं सौ मील दौड़ सका हूँ। अगर कहीं मुझे एक बार कोई लंडन भेज दे तो मैं दौड़ में पिछला रिकाट तोड़ दूंगा।"

हमने बूटे की खबर उर्दू और पंजाबी के अखबारों में भेज दी और महाराजा पटियाला से उसकी भेंट करवाने के तरीके विचारने लगे।

एक दिन बूटासिंह ने कहा-“मेरा एक रिश्तेदार फरीदकोट में ड्योढ़ी-अफसर है। उसकी महाराजा तक बहुत पहुँच है। अगर मैं उसके पास जाऊँ तो वह मुझे जरूर महाराजा साहब से मिला देगा। फिर शायद कोई राह निकल आये।"
एक सप्ताह बाद बूटा उस आदमी से मिलने फरीदकोट चला गया।

इसके बाद मुझे पता लगा कि बूटा पटियाला चला गया है। कई लोगों की चिट्ठियाँ लेकर और कइयों से मिलते-जुलते अंत में वह महाराजा साहब के ए. डी. काँग तक पहुँच गया जिसने बूटे की महाराजा साहब से जल्द से जल्द मुलाकात करवाने का वायदा किया।

इसके पश्चात बहुत-सी घटनाएँ हुईं। मैं लाहौर अपने काम में व्यस्त रहा, इसलिए काफी समय तक गाँव न जा सका। फिर फसाद फूट पड़े, देश का विभाजन । हुआ और मैं दिल्ली आ गया। इसके बाद बूटे की काफी अर्से तक कोई सूचना नहीं मिली।

1948 की बात है। सरदार पटेल रियासतों के महाराजाओं को भारत की यूनियन में सम्मिलित करने के लिए देश का दौरा कर रहे थे। मैं उस दिन पटियाला में था। बहुत लंबा जुलूस था। सरदार पटेल और महाराजा साहब चाँदी की बग्घी में साथ-साथ बैठे हुए थे। भीड़ में एक स्थान पर मैंने बूटासिंह को भी खड़े हुए देखा।
जब सरदार पटेल की सवारी गुजर गयी तो मैं बूटे से मिला और पूछा कि उसकी महाराज से मुलाकात का क्या हुआ?

उसने उत्तर दिया- "इस समय तो सरदार पटेल दिल्ली से आये हुए हैं। महाराजा और बाकी सभी अहलकार व्यस्त हैं। जब महाराजा को अवकाश मिलेगा तो वे मुझे मिलने का अवसर देंगे।"

उसको पटियाला में काफी समय प्रतीक्षा करनी पड़ी। हर वक्त कोई न कोई जरूरी काम महाराजा साहब को घेरे रहता था। महाराजा के ए.डी. काँग ने बूटे से कहा कि बार-बार गाँव से आने-जाने की अपेक्षा यही अच्छा है कि वह पटियाला में कोई छोटी-मोटी नौकरी कर ले।
पहली फुरसत में उसकी महाराजा साहब से मुलाकात करवा दी जायेगी और फिर वह अंतर्राष्ट्रीय खेलों में भेज दिया जायेगा। यह बात बूटे को जंच गयी और वह सरकार के लस्सीखाने में दरबान के तौर पर नौकरी करने लगा।

कई बार वह बैठा-बैठा उकता जाता तो बाजार या समीपवर्ती मंडी का चक्कर लगाने चला जाता और कई-कई घंटे घूमने-फिरने के पश्चात् लौटता। एक दिन वह पशुओं की मंडी में जा घुसा और शाम को लौटा। सारा दिन ड्यूटी से अनुपस्थित रहने के कारण लस्सी-खाने के अफसर तक उसकी शिकायत पहँच गयी और इसके बाद बड़े अफसरों तक भी बात पहुँच गयी। बूटे की पेशी हुई। उस पर खूब फटकार पड़ी और चेतावनी दी गयी कि यदि भविष्य में वह बिना बताये अपनी ड्यूटी छोड़कर कहीं गया तो उसको नौकरी से जवाब मिल जायेगा। यदि इस प्रकार वह नौकरी से निकाल दिया गया तो उसके नाम को धब्बा लग जायेगा और उसको कभी भी अंतर्राष्ट्रीय देशों की दौड़ों के मुकाबले में नहीं भेजा जायेगा।
इस दुर्घटना से बूटा सहम गया और ड्यूटी पर फुर्ती से हाजिर रहने लगा।

एक वर्ष के उपरांत मुझे एक मुकदमे में गवाही देने के लिए पटियाला जाना पड़ा। सारा दिन कचहरी भूगता कर थका-हारा जब मैं किसी ताँगे या रिक्शा की प्रतीक्षा में खड़ा था तो सामने से धीरे-धीरे एक रिक्शा आता दिखाई दिया। उसके साथ-साथ छड़ी टेकती हुई एक बुढ़िया चली आ रही थी। जब रिक्शा निकट आया तो मैंने उसमें बैठे हुए बूटासिंह को पहचान लिया।

"सुना भई बूटासिंह! क्या हाल है तुम्हारा?" मैंने पूछा।
"बस जी, वाहेगुरु की कृपा है। महाराजा साहब गर्मी के कारण बाहर गये हुए हैं। जब लौटेंगे तो उनसे मेरी मुलाकात होगी। मेरा नाम सब से ऊपर है, बस पहला नाम मेरा है...मुझे पता लगा है कि असूज में दौड़ने वालों की एक टीम लंडन जा रही है। पूरी उम्मीद है महाराजा साहब मुझे अवश्य चुनेंगे और भेज देंगे।" मैंने उसकी ओर देखा और पूछा कि वह रिक्शा में क्यों बैठा है।

बूढ़ी ने दीर्घ निश्वास छोड़ते हुए कहा-“अरे बेटा। मेरा बूटा तो आजाद पंछी था। यहाँ इसे लकड़ी के स्टूल पर बाँधकर बैठा दिया गया है। इसकी टाँगों में तो बिजली थी बिजली ! इस तरह बैठे-बैठे इसकी जाँघों और पिंडलियों का लहू घुटनों में इकट्ठा हो गया है। देख तो तनिक, इसके घुटने कैसे सूजे हुए हैं। हायरी दैया!"

मैंने बूटे की ओर देखा। उसके ढाल जैसे घुटने अब उपलों की तरह फूले हुए थे। उसको इस प्रकार रिक्शे में एक अपाहिज की भाँति बैठे हुए देख कर मेरे कलेजे में एक कसक-सी उठी।
रिक्शा धीरे-धीरे चलता हुआ आगे बढ़ गया। मैं तब तक वहीं खड़ा माँ-बेटे को देखता रहा, जब तक वे दोनों दूर-सड़क के मोड़ को घूमकर मेरी आँखों से ओझल न हो गये।

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