सत्प्रण (कहानी) : आचार्य चतुरसेन शास्त्री
Satpran (Hindi Story) : Acharya Chatursen Shastri
(धन-प्राप्ति मनुष्य की सर्वोच्च अभिलाषा है। ऐसा ही एक धनलोलुप पति अपनी श्रेष्ठ पत्नी का सब चिन्तन छोड़ धन कमाने और बढ़ाने की धुन में लिप्त रहा। छल-कपट और दिवाला निकालकर उसने अपनी अभिलाषा पूर्ण की, परन्तु तब तो पत्नी सन्तप्त और दग्धहृदय लिए महाप्रयाण के लिये तैयार बैठी थी। लिप्सा और तृष्णा-तृप्ति और शान्ति की शत्रु हैं। धन की मृगतृष्णा का बहुत सुन्दर चित्र यहां खींचा गया है।)
बम्बई के वैभव का ज्वलन्त प्रकाश तो सभी को दीख पड़ता है, परन्तु उसके भीतर जो ज्वाला है, वह सबको नहीं दीख पड़ती। वह मानव-हृदय के सौन्दर्य को जीवित सती की चिता की तरह जलाकर भस्म कर देती है, और केवल धन-राशि का शुष्क एवं पापिष्ठ रूप, प्रेत-छाया की तरह, अभागे मनुष्यों के पीछे हर समय हाथ धोकर पड़ा रहता है। उस प्रेतावेश में असंख्य नर-नारी नित्य घुल-घुलकर मर रहे हैं, पर उस मायावी प्रेत का प्रभाव ऐसा विचित्र है कि प्रत्येक व्यक्ति अन्तिम समय तक अपने जीवन के उद्धार की प्रतिक्षण आशा रख़ता है।
राधाचरण सहृदय और पठित युवक थे। सौजन्य, प्रेम, विवेचना और आनन्द उनका व्यक्तित्व था। संयोग से वह एक क्षुद्र वंश और दरिद्र परिवार में उत्पन्न हुए थे। और एक छोटे से क़स्बे में अपने ससुर के साथ कारबार करते थे। उनके ससुर का कारबार भी कुछ बहुत बढ़ा-चढ़ा न था। फिर उनके पिता और परिजन भी इस बात को नापसन्द करते थे। किन्तु राधाचरण अपने ससुर के दोनों बच्चों से अत्यधिक प्रेम करते थे। उधर उनकी सास भी उन पर प्राण देती थी। राधाचरण का विवाह हुए दस वर्ष हो गए थे, पर उनके कोई सन्तान न थी। इन सब बातों के ऊपर उनके सामाजिक और राजनीतिक विचार उनके ससुर से मिलते थे। वे दोनों प्रगाढ़ प्रेमी, अभिन्न स्नेही, अनन्य समालोचक और ज़बर्दस्त तर्क-पंडित थे। इन सब कारणों से आधी में आधी बांटकर दोनों आनन्द और शान्ति से कई वर्ष काट गए।
किन्तु धन-व्यवहार और कारबार में सहृदयता, मित्रता और रिश्तेदारी कैसी? जिन ससुर जी ने राधाचरण को कन्यादान देकर कृतार्थ किया था, तथा और भी बहुत कुछ दिया था, वही अब उनसे धोबी की धुलाई तक के पैसे वसूल कर लेते थे। राधाचरण में एक मस्ती थी। वह सब तरफ़ से आंखें मूंदकर काम के समय काम, आराम के समय आराम करके, निश्चिन्त जीवन-पथ पर चल रहे थे।
एक दिन बातों ही बातों में ससुर साहब के मुंह से निकल पड़ा – अरे भई! तुम भी मेरे हिस्से में से खा रहे हो। मैं यही सोचा करता हूं, आख़िर तुम जाओगे भी कहां!
राधाचरण भोजन के बाद सीतलपाटी पर लेटे दोनों बच्चों के साथ आमोद-प्रमोद कर रहे थे। ससुर के धीमे स्वर में निकले हुए उपर्युक्त शब्द ज्यों ही उनके एक कान में होकर घुसे, त्यों ही उल्लसित बालक ने उन्हें औंधा लिटाकर कहा – जीजा जी अन्धा भैंसा बनो। लगभग उसी क्षण ये शब्द उनके दूसरे कान में घुसे। इन्होंने उनके हृदय-कमल की कली-कली खिला दी और उन शब्दों ने उस खिले कमल में एक तीर का काम किया।
पर राधाचरण के हास्य-उल्लास में अन्तर न आया। उन्होंने ससुर की बात की तरफ़ कान न देकर तत्काल अन्धा भैंसा बनने का आयोजन कर डाला, और दोनों बच्चे उनकी बलिष्ठ देह पर चढ़कर बूंसों और धक्कों से उनकी थकान मिटाने लगे। उस कोलाहल और विनोद से ऊबकर ससुर जी दूसरी ओर मुंह करके सो रहे।
उसी क्षण राधाचरण के हृदय में एक रुदन का प्रारम्भ हुआ। पर वह रुदन अत्यन्त मूक, अत्यन्त गोपनीय एवं अत्यन्त करुण था। राधाचरण हंसते-खेलते काम करते और प्रसन्न रहते थे; किन्तु वह वेदना – वह रुदन – उनके साथ था। अन्त में उन्होंने उस सुखी, किन्तु अपमानित जीवन को त्यागने का निश्चय किया। बच्चों के साथ हंसने में उन्हें बहुत साहस बटोरना पड़ता था।
राधाचरण की पत्नी स्त्रियों में अपवाद-रूपा थी। उसमें रूप न था, और उसके अभाव की पूर्ति करने को उसके पास गहने और अच्छे वस्त्र भी न थे। इन सबके स्थान पर उसमें स्वास्थ्य, कष्ट-सहिष्णुता, सन्तोष और सेवाभाव था। वह कम से कम ख़र्च में अपनी बिल्कुल संक्षिप्त गृहस्थी को शान्त और आनन्दित बनाए हुए थी। दोनों बच्चे उसके भाई-बहिन न थे, पुत्र-पुत्री थे। बालिका उसे ‘काली अम्मां’ कहती थी, और यह नाम उन बच्चों की मां ने उन्हें सिखा दिया था। राधाचरण नए गहने उसे बनवा ही न सके थे। पहले के कुछ गहने या वस्त्र जो थे भी, उन्हें वह समय-समय पर सखियों और जिस-तिस को दे चुकी थी। तिस पर भी जो कुछ अच्छे वस्त्र और गहने उसके पास बच रहे थे, उन्हें नित्य तो क्या, त्योहारों और विशेष अवसरों पर भी न पहनती थी। प्रायः रिश्ते की बहू-बेटियों और सखियों को अपनी वस्तुओं से सजाकर वह प्रातःकाल ही से रसोई में घुसती, अनेक व्यंजन बनाती और सबको खिला-पिलाकर अद्भुत आत्मतुष्टि का आनन्द प्राप्त करती थी। चौका-चूल्हा, चक्की और वस्त्र धोने तक के काम वह स्वयं करती थी। वह खद्दर का ज़माना न था, पर वह खद्दर पहनती थी। और, इन सब कार्यों के लिए उसे कोई लज्जित कर सके या ललचा सके – ऐसा कौन जन्मा था? ऐसी तपस्विनी, एकनिष्ठ पतिप्राणा वह स्त्री-रत्न थी।
खेद की बात सिर्फ़ इतनी थी कि राधाचरण अपनी पत्नी को दस वर्षों में भी पहचान न सके थे। फिर भी उसका मान करते थे, उससे दबते थे। वह यह जानते थे कि पृथ्वी पर इस छोटी सी नारी को छोड़कर, जो रात-दिन प्रतिक्षण उनकी सेवा में उपस्थित है, उनका और कोई हितू, सहयोगी एवं सहायक नहीं है।
इस अद्भुत नारी में जहां उपर्युक्त स्वाभाविक गुण थे, वहां उच्चकोटि की विद्या भी थी, और थी प्रत्येक विषय पर विवेचना की शक्ति। इस विद्या और उन गुणों के मिश्रण से उसमें आत्मनिष्ठा और साहस का व्यावहारिक रूप उत्पन्न हो गया था, जो उसके नित्य-जीवन के छोटे-बड़े कार्यों में प्रत्यक्ष दीख पड़ता था।
राधाचरण ने हठात एक बार अपनी पत्नी से कहा – क्या हम इसी प्रकार दरिद्र बने रहेंगे?
‘इसमें हमें क्या कष्ट है?’
‘सुख ही क्या है?’
‘दुःख ही क्या है?’
‘यह छोटा सा घर, ये मोटे-झोटे वस्त्र, यह टूटी खाट! अपने हाथ से काम-धन्धे में दिन-रात बिताना – यह देखकर मुझे बड़ा कष्ट होता है।’
स्त्री ने हंसकर कहा – वाह, यह अच्छी दिल्लगी है। काम करती हूं मैं, कष्ट होता है तुम्हें। कहीं यदि तुम्हें काम करना पड़ गया, तो फिर बेहोश ही हो जाओगे।
‘तुम चाहे जितना हंसो, पर मैं तुम्हें इस तरह दासी न बना रतूंगा।’
‘दासी किसकी?’
‘घर की।
‘तब क्या बनाओगे?’
‘रानी।’
‘अच्छी बात है। पर अब इस घर की रानी कौन है?’
राधाचरण निरुत्तर हुए। वे हंस पड़े। रमणी-रत्न ने बहुत अधिक मधुर स्नेह के स्वर में कहा – लिप्सा और तृष्णा को मन में कभी मत आने देना। तृप्ति और शान्ति बड़ी सुन्दर वस्तुएं हैं। हमारी आवश्यकताएं कम हैं, हम अभी इससे भी कम ख़र्च में गुज़र कर सकते हैं। क्यों हम प्रपंच में पढ़ें – क्यों हम लिप्सा में गिरें?
राधाचरण ने ज़रा उत्तेजित होकर कहा – तुम यही बात तो नहीं समझतीं। पुस्तकों में सारी बातें नहीं लिखी होतीं। मनुष्य की कद्र धन से है, धन बिना कौड़ी के तीन हैं। प्रत्येक मनुष्य को संसार धन की तराजू पर तोलता है। जो धन में भारी है, वह भारी है। जो हल्के हैं, वही हल्के हैं।
स्त्री ने जल्दी से कहा – हल्के ही सही, इसमें हर्ज ही क्या है?
‘मैं ग़रीब नहीं रह सकता।’
‘क्यों?’
‘मेरी मर्ज़ी।’
‘पर मर्ज़ी का कारण भी तो कुछ हो?’
‘सबके पास मोटर हैं, बड़े-बड़े महल हैं, दास-दासी हैं, फर्स्ट क्लास में सफ़र करते हैं, बिजली के पंखे में बैठते हैं, सैकड़ों लोगों पर हुकूमत चलाते हैं। तुम अपने घर में बैठी-बैठी इन्हें नहीं देख सकतीं न?’
‘तुम देख़ते हो, देखकर क्या सोचते हो?’
‘मेरे भी ये सब हों, तो कैसा अच्छा?’
रमणी ने ज़रा सा चुप रहकर उससे कहा – अच्छा क्या?
‘उसी ठाठ से मैं भी रहूंगा?’
स्त्री ने हंसकर कहा – अच्छी बात है, रहो।
‘तुम्हें रानी बनाकर रखूंगा।’
‘बहुत अच्छा।’
‘हीरों से लाद दूंगा – ज़रूर लाद दूंगा।’
‘बहुत अच्छा, बहुत अच्छा।’
‘क्या तुम हंसी समझती हो?’
‘तुम्हारी आज्ञा हो, तो।’
राधाचरण उठकर बैठ गए। बोले – मैंने निश्चय कर लिया है कि अगले सोमवार को बम्बई जाऊंगा। ईश्वर जो करेगा, सो होगा।
‘सचमुच?’
‘तभी तो मैं कह रहा था।’
‘पिता जी को कितना दुःख होगा?’
‘कुछ न होगा।’
‘क्या उनसे चर्चा हुई थी?’
‘हुई थी।’
‘क्या हुई?’
‘सब हिसाब-किताब साफ़ कर दिया है। आज से वही सब काम-धन्धे के मालिक हैं।’
‘क्या यहां तक?’
‘तभी तो।’
‘बुरा किया।
देवी के मुख पर विषाद की रेखा आ गई। राधाचरण के मुख से एक बात व्यग्र होकर निकलने चली, पर उसे रोककर उन्होंने कहा – मेरे मन में ख़ूब उत्साह है। मैं सफल होऊंगा, मैं रुपयों का ढेर लगा दूंगा। मगर मुझे भेजने का प्रबन्ध तुम्हें करना होगा।
‘मुझे?’
‘हां, क्या तुम्हारे पास कुछ रुपए नहीं हैं?’ – राधाचरण ने व्यग्र होकर पूछा।
‘रुपए कुछ हैं, पर बहुत थोड़े। लेकिन क्या दुकान से नहीं मिलेंगे?’
‘न’
‘क्यों?’
‘दुकान का तो हिसाब-किताब चुकता कर चुका।’
‘तब रुपए तो तुम्हें मिलेंगे न, तुम्हारे हिस्से के तो रुपए जमा हैं।’
‘एक पैसा भी नहीं।’
‘यह क्यों? क्या पिता जी देते नहीं?’
‘वे देते तो थे, पर मैंने नहीं लिये। उन्होंने अब तक अपने हिस्से में से खिला-पिलाकर हम लोगों का पालन किया है। अब हम लोग क्या दुकान में हिस्सा बटावेंगे? उनके बच्चे हैं, परिवार हैं, वे वृद्ध हैं। हम लोग तो और कमा लेंगे।’
राधाचरण की आंखें भर आई थीं और कंठ-स्वर कांपने लगा था, पर उनकी पत्नी इसे भांप न सकी। वह ज़रा चिन्तित हो गई थी। राधाचरण तुरन्त ही संभलकर हंस पड़े, और हंसकर कहा – मैं तो समझता था, तुम्हारे ख़ज़ाने से काम चल जाएगा।
पत्नी ने धीर भाव से कहा – मेरे पास पैंसठ रुपए हैं।
‘बहुत हैं।’
इसके बाद दोनों कुछ देर चुप रहे। दोनों मग्न होकर कुछ सोचते रहे। स्त्री ही ने बात छेड़ी :
‘तब यह घर छूटा?’
राधाचरण को चोट लगी। वे पत्नी की ओर देखने लगे।
वह फिर बोली – इन बच्चों का पालन क्या अम्मा से होगा?
‘ये भी चलेंगे।’
‘और, ये पैंसठ रुपए क्या काफ़ी हैं?’
‘ईश्वर भी तो है।’
‘ईश्वर तो रुपया नहीं?’
‘रुपयों का दाता तो है।’
‘एक तुम्हीं तो मांगने वाले नहीं हो, वहां तो बहुत हैं।’
‘मुझे वह जानता है, मेरी उसे चिन्ता है।’
इसके बाद उन्होंने कहा – चिन्ता की कोई बात नहीं। मैंने कई मित्रों को पत्र लिख दिए हैं। चलती बार तार दे दूंगा। बहुत सहायता मिलेगी। एक बार गोता लगाऊंगा; देखू, कितने रत्न हाथ आते हैं।
पत्नी की वाणी गद्गद हो गई। उसने कहा – क्या पिता जी से नाराज़ हो गए हो?
अस्वाभाविक तत्परता से राधाचरण ने कहा – पागल हो गई हो क्या?
‘फिर एकाएक यह क्या सोचा?’
‘बिल्कुल ठीक। जीवन का मध्यकाल परिश्रम और संचय का है। मैं करूंगा – एक बार मैं अवश्य धनी बनूंगा।’
पत्नी ने गम्भीर कम्पित स्वर में कहा – परन्तु यह धन-लिप्सा जीवन के सभी आनन्दों को नष्ट कर देती है। हम लोग तो यहां बहुत अच्छे थे।
‘यह हम लोगों का भ्रम है। अभी हमें बहुत सुखी होना है।’ – इतना कहकर राधाचरण ने प्यार से पत्नी का हाथ पकड़ लिया। कुछ क्षण मौन वार्तालाप हुआ। दोनों एक दूसरे की कल्याण-कामनाओं की विचारधाराओं का प्रवाह दौड़ाने लगे। पत्नी ने कहा – तब सोमवार को ज़रूर जाओगे?
‘ज़रूर।’
‘अकेले?’
‘वहां जाने पर सब ठीक-ठाक करके मैं तुम्हें बुला लूंगा।’
उन्हीं पैंसठ रुपयों को लेकर राधाचरण प्रातःकाल मेल ट्रेन से बम्बई रवाना हो गए। साथ में एक बिस्तर और कुछ पहनने के वस्त्रमात्र थे।
राधाचरण ने पत्र लिखा :
‘प्रिये।
आज बम्बई आए आठ दिन बीत गए। पैंसठ रुपए छाती में इस तरह छिपाकर रखे हैं, जैसे हिन्दू, जवान विधवा बेटी को रख़ते हैं। ट्राम में भी इकन्नी ख़र्च नहीं करता। पैरों में छाले पड़ गए हैं। एक मित्र के घर सोता हूं, दूसरे के घर रोटी खाता हूं। दोनों अवज्ञा करते हैं। पर इस बात पर विचार करने का अवसर नहीं। कोई भी मकान पांच मंज़िल से कम नहीं। सभी में लोग ठसाठस भर रहे हैं। मोटरों के मारे नाक में दम है। ज्वलन्त बिजली कभी रात होने ही नहीं देती। रुपया मानों वृक्षों में फल रहा है। कुंजड़िन मिर्च, पोदीना-चटनी बेचती है, पर उससे सौ रुपए का नोट भुनाया जा सकता है। आह, क्या लक्ष्मी का निखरा सौन्दर्य है! देख़ते-देख़ते जी नहीं भरता। सुना था, लक्ष्मी चंचला है। पर यहां तो उसका पीहर है। यहां वह नंगी नाच रही है। चोर, उठाईगीरे, लम्पट-लुच्चे भी यहां अनगिनत हैं। लक्ष्मी पर ये भी तो लटू हैं। मन में
उत्साह आ रहा है। देखो, लोग कैसी तेज़ी से जा रहे हैं, मानो सभी ने ताक़त की दवा खा ली है। कोई भी तो सुस्त नहीं बैठा है। स्त्रियों को देखो, वक्षस्थल से ऊपर किसी के पास भी तो सोना नहीं, हीरे-मोती हैं। मैं मूर्ख अब तक वहां पड़ा रहा। देखो, कैसा हाथ-पैर मारता हूं। निश्चय विजय करूंगा। उद्योग, पराक्रम, साहस और धैर्य – चारों ही बातें मेरी नस-नस में हैं। फिर अब और क्या चाहिए। अच्छा, शेष फिर!
तुम्हारा
………’
छह दिन बाद उत्तर मिला :
‘पूज्य पतिदेव,
आप जैसे व्यक्ति को लक्ष्मी पर ऐसा मोह देखकर मन में कौतूहल उत्पन्न होता है। रह-रहकर जी चाहता है कि कहूं – प्यारे! लौट आओ – ‘टूटी खटिया, टूटी छपरखट, टूटा गेह, पिय के संग उससवा सुखकर लूट’। – स्वामी! सभी चमकीली चीजें सच्ची नहीं होतीं। रात्रि अन्धकारपूर्ण है; पर शान्ति और आनन्द उसी में अधिक है। आपसे क्या कहूं! क्या कर रहे हो, सो लिखना।
आपकी दासी
………’
छोटा सा कमरा था, पर शृंगार और ठाठ के सभी सामानों से भरा पूरा। कमरे की दीवारें रोगन से रंगी और छत सुनहले काम से जगमगा रही थी। बढ़िया शृंगारदान पर दर्जनों देशी-विलायती सुगन्ध-द्रव्य शीशियों में धरे थे, जिनकी कसी हुई डाटों की ज़रा भी परवा न करके सुगन्ध कमरे भर में फैल रही थी। दो मखमली कोच और तीन-चार बढ़िया कुर्सियां करीने से रखी थीं। ज़मीन पर विलायती कारपेट, और आधे भाग में सेमर की रुई का हाथ भर मोटा गद्दा। उस पर निर्मल चांदनी और चुनी हुई मसनदें अछूती-सी धरी थीं। एक कोने में लोहे का स्प्रिंगदार विशाल पलंग था, जिस पर चमकते हुए पीतल के डंडों पर रेशमी छपरखट झूम रही थी। इस पलंग पर एक क्षीणकाय महिला महीन रेशमी साड़ी में अपना निस्तेज मुख ढके पड़ी हुई, कठिन संयम से अपनी शरीर-वेदना और मन की विकलता के छिपाने का अभ्यास कर रही थी।
अन्त में धैर्यहीन होकर उसने दासी को पुकारकर कहा – क्या बाबू जी अभी नहीं आए?
‘जी नहीं!
‘रसोई हो चुकी?’
‘जी हां!’
‘रसोइए से कह दो, रसोई रखकर चला जाए।’
‘किन्तु आप कुछ…’
‘मुझे आज भूख नहीं।’
रोगिणी ने कष्ट से सांस ली और मुख फेर लिया।
कुछ क्षण बाद हाथी के समान भारी पद-ध्वनि करते हुए गृह-स्वामी ने घर में प्रवेश किया। यह बाबू राधाचरण थे। अब से दो वर्ष पूर्व इनके मुख पर जो लाली थी, वह गायब हो चुकी थी। उसके स्थान पर निस्तेज पीत छाया नेत्रों की गहराई तक घुस गई थी। परन्तु उनके अस्वस्थ थके हुए सूखे होंठ हंस रहे थे। उन्होंने बहुमूल्य रेशमी कोट एक तरफ़ फेंककर नौकर को आवाज़ दी, और उसके आने पर बूट खोलने का आदेश दिया। फिर वह अपनी नोटबुक हाथ में ले कुछ हिसाब में डूब गए। थोड़ी देर बाद उन्होंने जेब से नोटों का मुट्ठा निकालकर सावधानी से गिना, और तिजोरी खोल उसमें रख दिया। इसके बाद हंसते हुए पत्नी के पास पहुंचकर बोले – आज तो तुम अच्छी जान पड़ती हो।
‘हां, आज जी हल्का है।’
‘पर, तुम पड़ी ही रहती हो, यह बुरा है।’
‘तब बाज़ार ले चला करो, रुई और अलसी के सौदे कर लिया करूंगी।’
राधाचरण ज़ोर से हंसकर बोले – तुम? इसके लिए मैं काफ़ी हूं। आज सात हज़ार कमाए। अभी तिजोरी में रख आया हूं। ये लो वे कड़े। बदमाश ने डेढ़ हज़ार से कम ही नहीं लिये। दाम तो कुछ अधिक ज़रूर देने पड़े हैं; पर हैं ये बहुत बढ़िया।
राधाचरण ने जड़ाऊ कड़ों का मखमली बॉक्स निकालकर पत्नी के हाथ में दे दिया।
पत्नी ने लिया और बिना देखे ही सिरहाने धरकर कहा – अब भोजन कर लो, रसोइया अभी गया है। उसका बच्चा बीमार है।
राधाचरण क्रुद्ध होकर बोले – वह बड़ा हरामखोर हो गया है। ज़रा देर नहीं ठहरा जाता, ठंडा खाना मैं नहीं खा सकता।
‘सदा तो वह दो-तीन बजे तक बैठा ही रहता है। आज मैंने ही उसे कहा था, वह चला गया। नाराज़ न हो। मैं यहीं मंगाती हूं। मेरे पास बैठकर खाओ, मैं देखूगी।’
स्त्री की आवाज़ लड़खड़ाने लगी। क्षण-भर को राधाचरण ने देखा, पर फिर वह एक कुर्सी खींच जमकर बैठ गए। नौकर को वहीं खाना ले आने का आदेश दे दिया।
भोजन समाप्त करते ही राधाचरण झटपट कपड़े पहनने लगे।
पत्नी ने कहा – क्या कहीं जा रहे हो?
‘हां, ज़रा शेयर-बाज़ार में होकर आता हूं।’
‘थोड़ा आराम न करोगे?’
‘नहीं, काम बहुत ज़रूरी है।
राधाचरण चले गए। रोगिणी चुपचाप एकटक देख़ती रह गई। दासी ने कहा – अब आप कुछ खा लें।
‘नहीं, मेरी इच्छा कुछ खाने की नहीं है।’
‘देखा, जो-जो मैंने तुमसे पहले कहा था, वही-वही हुआ।’
‘क्या-क्या हुआ?’
‘तुम रानी बन गईं, हीरे-मोती से लद गईं। मैं मोटरों में घूमता हूं, मैं धनी हूं, मेरे पास सब-कुछ है। चलो, अब ज़रा देश चलें। लोग देखें भी तो; इसीलिए तो ठाठ जुटाए हैं।’
‘इतने ही दिन में यह हो गया? दिन स्वप्न की तरह बीत गए!’
‘मैंने कहा था – मर्द तो वही, जो धरती में लात मारकर लक्ष्मी निकाले। तुम्हारा पति कैसा मर्द निकला। कहो, अब बहस करोगी?’
‘नहीं, तुम देख़ते ही हो। अब मुझमें उतनी शक्ति नहीं है। बात करते जी घबराता है, और हरारत बढ़ जाती है। खांसी भी दम नहीं लेने देती।’
‘पर तुम दवा भी तो ठीक-ठाक नहीं खातीं। मुझे तो फुर्सत नहीं मिलती। तुम ज़रा शरीर का ध्यान रख़तीं, तो अब तक क्या पड़ी रहतीं? वास्तव में तुम बड़ी आराम-तलब हो गई हो?’
‘रानी होकर भी आराम न करूं? ये पलंग और दास-दासी फिर क्या होंगे?’
‘मैं काम करने को थोड़े ही कहता हूं। मैं कहता हूं, दिन-भर पड़े रहना अच्छा नहीं। जरा मोटर लेकर घूम आया करो। दूसरी मोटर इसीलिए तो मैंने ली है?’
‘अच्छी बात है, पर तुम देश जाने को कह रहे थे न?’
‘हां!’
‘तब चलो। सम्भव है, वहां हवा बदलने से तबीयत सुधर जाए तुम भी तो पीले पड़ रहे हो।’
‘पर मैं तो एक महीने बाद जा सकूँगा। सीज़न सामने है, बाज़ार तेज़ी पर जा रहा है। ईश्वर ने चाहा तो इसी महीने में तीन-चार लाख की बाज़ी हाथ आवेगी। तब तुम ऐसा करो – तुम घर चलो, मैं एक महीने बाद आता हूं।’
स्त्री चुप रही। पति को छोड़कर अकेली जाने का प्रस्ताव सुनकर पत्नी का उत्साह ठंडा पड़ गया। उसने कहा – तब एक मास बाद ही सही, ऐसी जल्दी क्या है।
‘यही तो बात है, तुम्हारी ज़िद ही तुम्हें ठीक नहीं होने देती। मैं कहता हूं, मुझे काम है। तुम गले क्यों पड़ती हो? घर चलो, तन्दुरुस्ती ठीक हो जाएगी, ज्वर भी छूट जाएगा। मैं काम ख़त्म करके आता हूं।’
‘मैं नहीं जाऊंगी।’
‘तुम्हें जाना होगा।’
गृहिणी की आंखों में आंसू भर आए। राधाचरण उठकर चले गए। दूसरे दिन पत्नी नौकर के साथ रिज़र्व फर्स्ट क्लास में भेज दी गई। स्टेशन तक भेजने राधाचरण गए थे। उनके दिमाग में सौदे घूम रहे थे, और गृहिणी का कंठ अवरुद्ध हो रहा था। गाड़ी ने सीटी दी। गृहिणी ने हाथ जोड़कर मस्तक झुकाया और धीरे से कहा – मैं तो अब बम्बई से चली। – राधाचरण के हृदय में मानो तीर लगा। वह दो क़दम गाड़ी के साथ दौड़े। दो मोती उन्होंने टपकते देखे। गाड़ी क्षण-भर में आंखों से ओझल हो गई।
राधाचरण उन्मादग्रस्त-से बैठे मुनीमों और गुमाश्तों को अनाप-शनाप गालियां बक रहे थे। द्वार पर पचास-साठ दलाल खड़े दिवालिया, झूठा, बेईमान कहकर हल्ला मचा रहे थे। पुलिस उन्हें डंडे मार-मारकर खदेड़ रही थी। आज राधाचरण की तक़दीर का फ़ैसला हो गया था, आज बाज़ार उलट गया था। रात तीन-चार लाख पर हाथ मारने का निश्चय करके सोए थे। रात-ही-रात में एक जापानी फ़र्म ने गज़ब ढा दिया। आज राधाचरण को साढ़े चार लाख रुपए दस बजे से पहले चुका देना था। रुपया सब लग रहा था, नक़द न था। बैंकों में मुद्दती हुंडियां या स्टाक जमा थे, नक़द पैसा भी न था। आज वह भुगतान न कर सके, बाज़ार में हलचल मच गई। राधाचरण सभी की ज़बान पर थे। झूठा, दिवालिया, चोर, बेईमान – इन उपाधियों की वर्षा हो रही थी। उसी डाक में उसी दिन उन्हें उनकी पत्नी का पत्र मिला। पत्र में लिखा था :
‘पूज्य स्वामी जी!
आज बाईस दिन व्यतीत हो गए। एक क्षण को भी ज्वर नहीं दूर होता। डॉक्टर कहता है, तपेदिक है। खांसी रात को भयानक कष्ट देती है। कुछ भी खाया-पिया नहीं जाता। प्रति क्षण आपमें प्राण अटके हैं। क्या आपका काम अभी समाप्त नहीं हुआ? न हुआ हो, तो भी अब तो तत्काल चले आइए। रुपए तो आपकी ठोकर में हैं, आप फिर कमा लेंगे। इस बार मुझे बचाइए। मैं सुनती हूं, तपेदिक का मरीज़ बच नहीं सकता। क्या मैं भी न बच सकूँगी? फिर आपकी सम्हाल कौन करेगा? परिश्रम और चिन्ता से आप आधे हो रहे हैं। किसे आपकी फिक्र होगी। आपके लिए मेरा बचना ज़रूरी है। डॉक्टर का कहना है कि सदैव बन्द मकानों में रहने, खुली वायु का सेवन और परिश्रम न करने से यह रोग हुआ है। यहां तीन साल बाद धूप देखी है। कैसी सुन्दर है। झूमते हुए नीम के वृक्ष का झोंका कैसा प्रिय मालूम देता है। उस बिजली के पंखे में यह कहां था। प्राण संजीवन हो रहे हैं; मगर पापी ज्वर नहीं टूटता; नहीं टूटता। सुबह से शाम और शाम से सुबह प्रतीक्षा करती हूं, नहीं टूटता। तब क्या यह तपेदिक ही है? मेरे अन्तःकरण में कंपकंपी उत्पन्न होती है। उस दिन मैंने स्वप्न देखा था; वही आला, जिसे माता जी देव-स्थान कहती थीं, मेरे सिरहाने है। उसमें एक सुन्दर स्त्री-मूर्ति उदय हुई। उसने कहा – दुखी न होना। दो मास का कष्ट है; आज अमावस्या है। इसके बाद आंख खुल गई। अमावस्या ही मेरी जन्म-तिथि है। अब आगामी अमावस्या किस प्रकार मेरा कष्ट-मोचन करेगी, यह जानने को प्राण व्याकुल है। स्वामी! आपके बिना आए यह व्याकुलता नहीं दूर होगी। आप पूज्य, गुरु और महान हैं। धन का ध्यान इस समय छोड़ने को कहूं, तो धृष्टता न समझना। इच्छा होती है, लिखे ही जाऊं; पर अब शक्य नहीं। उंगलियां ऐंठ गई हैं, कमर टूट गई है। अब एक क्षण भी नहीं बैठ सकती। स्वामी! नमस्ते!
दर्शन की प्यासी
दासी’
उसी क्षण राधाचरण ने उत्तर लिखा :
‘प्रिये!
तुम जियो। मैं आता हूं। वह धन आज उसी तरह गया, जैसे आया था। अभी दिवाले की दरख्वास्त देने जा रहा हूं। वह स्वप्न नष्ट हो गया। अब हम फिर जाकर अपने दरिद्र घर में सुखी होंगे। मैं उस डॉक्टर को मार डालूंगा, जो तुम्हें तपेदिक बताता है। उसका इलाज तत्काल बन्द कर दो। मैं तुम्हें पहाड़ ले चलूंगा, पर रुपए नहीं।
मैंने ससुर जी को हारकर लिखा है। हाय! इस क्षण पतन हुआ। वह एक सौ रुपया भेज देंगे, ऐसी आशा है। चिन्तित न होना। एक सप्ताह में सब ठीक-ठाक करके आ रहा हूं।
तुम्हारा अधीर,
रा. च.’
ज्वलन्त ज्येष्ठ बीत रहा था। पृथ्वी पर सर्वत्र आग बरस रही थी। राधाचरण पत्नी को जंगल में, एक पर्णकुटी में, लिये अकेले बैठे थे। राधाचरण की गड्ढे में धंसी आंखें, मलिन वेश और सन्तप्त हृदय करुणा की मूर्ति बन रहा था। उनकी पत्नी का वह बलिष्ठ शरीर अस्थि-पंजरमात्र था। वह शय्या में सिकुड़ी पड़ी, नेत्र बन्द किए, अपने श्वास के कष्ट को सहन कर रही थी। ज्वर से शरीर जल रहा था। लू के झोंके रह-रहकर तड़पा रहे थे। विकल होकर रोगिणी ने हल्की सी सांस ली, नेत्र खोलकर पति की ओर देखा और कहा – क्या पहाड़ जाना सम्भव नहीं?
‘नहीं’!
‘रुपए नहीं आए?’
‘नहीं।’
‘जवाब नहीं आया?’
‘आया।’
‘क्या लिखा है?’
‘कुशल-संवाद पूछा है।’
राधाचरण आगे प्रश्नोत्तर न कर, उठे। रोगिणी ने रोककर पूछा – कहां चले?
‘और थोड़ा पानी कुएं से खींचकर टट्टियां तर कर दूं।’
‘दिन-भर पानी खींचते रहे हो।’
‘टट्टियां सूख गई हैं, गर्म हवा आ रही है।’
रोगिणी ने सूखे हाथ उठाकर पति का हाथ पकड़ा। वह रस्सियों के घावों से परिपूर्ण था। रोगिणी चुपचाप उस हाथ पर सिर रखकर रोने लगी। राधाचरण भी रोए।
रोगिणी ने कहा – स्वामी, इतना कष्ट क्यों? जब मेरा राज्य था, तब मैं एक गिलास जल भी तुम्हें न लेने देती थी। वह मेरा राज्य तुम्हें न भाया। तुम्हें तब मैं मलिन वेश में अपने दरिद्र घर की रानी न जंची; तुमने हीरे-मोती की रानी बनाना चाहा। उस दिन तुमने कहा था – मेरा उद्देश्य सफल हुआ। – अब सफल होकर, इस हीरे-मोती की रानी के राज्य में तुम दिन-भर कुएं से पानी खींच-खींचकर रानी के दाह को कम करने का प्रयत्न कर रहे हो! स्वामी, तुम्हारे हाथों में घाव हो गए, मुंह सूख गया। बैठे रहो! गर्म हवा अब मुझे कष्ट नहीं देती। आओ, अब हम अपने पुराने छोटे से जीवन की याद करें।
अधीर होकर राधाचरण ने कहा – मुझे वहीं ले चलो।
‘बनता, तो ले जाती।’
‘तुम्हें बचाऊंगा।’
रोगिणी के होंठों पर मुस्कान आई और आंखों में आंसू। उसने कहा – जीवन, स्वास्थ्य और शान्ति पृथ्वी की सबसे बड़ी वस्तु हैं। लाखों मनुष्य इनकी गणना मिट्टी के बराबर भी नहीं करते हैं। क्या समय बीतने पर पछताने से ये वापस मिल सकती हैं? स्वामी! तुम्हारे जैसे पुरुष धन-लिप्सा में ऐसे गिरे…।
‘प्रिये! तुम्हारे पिता ने मेरा अपमान किया था।’ राधाचरण ने वे शब्द कह सुनाए। फिर कहा – इन सौ रुपयों के मांगने पर उन्होंने क्या कहा, जानती हो?
‘क्या कहा?’
‘कहा, मुझे लड़की की शादी करनी है। जब तुम्हारे पास रुपए नहीं, तो उचित है कि पहाड़ का शौक़ छोड़ दो। सभी रोगी पहाड़ नहीं जाते।’ राधाचरण उत्तेजित हुए।
रोगिणी ने धैर्य से कहा – अब एक बात…
राधाचरण देखने लगे।
‘प्रतिज्ञा करो।’
‘कर ली।’
‘धन-लिप्सा में न गिरना, निर्धन होने के कारण अपने को तुच्छ न समझना।’
‘लोग तुच्छ समझेंगे!’
‘सम्भव नहीं; जब तक तुम अपने को तुच्छ न समझो, अपनी दरिद्रता को न छिपाओ, तब तक कौन अपमान करेगा?’
राधाचरण चुप रहे। रोगिणी ने कहा – स्वामी! दासी की स्मृति में दरिद्र रहने की इच्छा सदा बनाए रखना। मेरा अनुरोध रखना ही होगा।
‘मैं प्रण करता हूं।’
‘क्या?’
‘मैं सदा दरिद्र होने में गर्व का अनुभव करूंगा, सम्पदा का सर्प-सौन्दर्य मुझे कभी न मोहेगा।’
रोगिणी के मुख पर हास्य की छटा दीख पड़ी। उसने कहा – तुमने कहा था कि मैं सफल हुआ। मैं कहती हूं कि मैं सफल हुई – मैं जीती।
‘पर प्यारी, अब तुम्हें जल्दी आराम होना चाहिए।’
‘तुमने दिल का कांटा निकाल दिया। अब मैं शीघ्र अच्छी हो जाऊंगी।’
‘बहुत शीघ्र।’
‘कल अमावस्या है, ईश्वर कष्ट काटेंगे।’
अमावस्या आई। ज्वलन्त दुपहरी में साध्वी महिला की चिता धू-धू करके जल रही थी।