सती सुकन्या (उड़िया बाल कहानी) : रामकृष्ण नन्द/ରାମକୃଷ୍ଣ ନନ୍ଦ

Sati Sukanya (Oriya Children Story) : Ramakrushna Nanda

प्राचीन काल में शर्याति नामक एक राजा थे। उनकी पुत्रियों में सबसे गुणवती थी सुकन्या । इसलिए राजा उसे अधिक प्यार करते थे । एक दिन सुकन्या 'पिताजी से बोली- 'पिताजी, कई दिन हो गये, मैं झील देखने नहीं गयी। मुझे झील देखने की बड़ी इच्छा है। जब आप शिकार खेलने जाएँ, मुझे अपने साथ अवश्य ले जाएँ ।'

कुछ दिन के बाद महाराज शिकार खेलने गये। उन्हें सुकन्या की बात याद थी। उसे भी अपने साथ जंगल में ले चले। जंगल में एक स्थान पर पड़ाव डाला । झील उसके पास ही थी। वह झील देखने को बड़ी उतावली थी। इसलिए किसी से कुछ कहे बिना अकेली झील देखने चली गयी। झील के किनारे घूमते-घामते उसने एक अद्भुत दृश्य देखा। दूर से मिट्टी के ढेर के समान कुछ दिखाई दिया। उसका कौतूहल बढ़ा। क्योंकि उस ढेर पर दो वस्तुएँ चमक रही थीं। वह कुछ आगे बढ़ी तो मालूम हुआ कि वह एक वल्मीक है। उसके मन में जिज्ञासा पैदा हुई कि वे दो चमकदार चीजें क्या हैं - दो काँच के टुकड़े या कीमती पत्थर या जुगनू ? खोदने से जरूर मालूम होगा। यही सोचकर उसने दो पतली लकड़ियाँ लीं और वहीं चुभाई जहाँ से चमक आती थी । वल्मीक के भीतर से उफ् उफ् की आवाज निकली। सुकन्या घबराई | मनुष्य के जैसा स्वर कहाँ से निकला? वह डर के मारे भागी। पड़ाव में आकर देखा कि वहाँ के लोगों की हालत खराब है। जो लोग राजा के साथ शिकार खेलने आए थे सब के सब भीषण यंत्रणा से छटपटा रहे हैं। सबको कैसे अचानक एक प्रकार का कष्ट भोगना पड़ा, यह बात किसी की समझ में नहीं आयी। राजा शिकार खेलने का कार्यक्रम रद्द करके, सबको राजधानी ले आये। महाराज ने तत्काल मंत्री और पंडितों की बैठक बुलवाई। सब सुनने के बाद एक दरबारी पंडित बोले, 'झील के किनारे महर्षि च्यवन का आश्रम है। उनकी तपस्या में किसी ने विघ्न तो नहीं डाला?' शिकार पर गये हुए लोगों से पूछा गया। परन्तु सबने इनकार कर दिया।

सुकन्या तब तक चुप थी। पण्डित जी की बात सुनकर उसके मन में आशंका पैदा हुई। उसने पिताजी को सारी घटना बता दी। राजा बेहद चिंतित हो गये । उसने रो-रोकर यह भी बताया कि वल्मीक के भीतर से उसने मनुष्य के स्वर में उफ् उफ् का शब्द भी सुना है। उसने डर के मारे किसी से बताया ही नहीं। वह अपने को सारे अनर्थ की जड़ मानने लगी।

सही घटना का पता लगाने के लिए राजा शर्याति जंगल में गये। झील के किनारे उन्होंने देखा तो उन्हें प्रतीत हुआ कि दरबारी पण्डित की बात सही थी। वही थे च्यवन महर्षि । वल्मीक के भीतर मिट्टी के ढेर के समान दिखाई दे रहे थे। महाराज घोड़े से उतरकर उनके पास गये। उन्होंने देखा कि महर्षि अंधे हो गये हैं। हाथ जोड़कर उन्होंने महर्षि से क्षमा-याचना की ।

च्यवन महर्षि ने पूछा- 'बेटा, तुम कौन हो ?' राजा ने उत्तर दिया, 'मुनिवर मैं राजा शर्याति हूँ। मेरी पुत्री ने आपकी आँखों को जुगनू समझ उसमें लकड़ी बेध दिया। आप अंधे हो गये हैं। वह एक अबोध बालिका है। उसका अपराध क्षमा करें आपके अभिशाप से मेरे दरबारी भीषण कष्ट भोग रहे हैं। आदेश कीजिए, मैं प्रायश्चित करने के लिए तैयार हूँ।'

'मैं अंधा हूँ। मेरी सेवा में एक व्यक्ति का होना जरूरी है।' मुनिवर बोले ।

'एक व्यक्ति नहीं, सौ दास-दासियों का प्रबन्ध शीघ्र ही करा दूँगा ।' राजा ने तत्काल उत्तर दिया।

किन्तु महर्षि बोले- 'मुझे इतने सारे लोगों की आवश्यकता नहीं है। मैं चाहता हूँ कि तुम्हारी पुत्री यहीं रहकर मेरी सेवा करे।'

महाराज के सिर पर मानो वज्र टूट पड़ा। एक वृद्ध और अंधे ऋषि के पास अपनी जवान लड़की को कैसे छोड़ दें? किन्तु दूसरा उपाय भी न था । उधर सैकड़ों दरबारी भीषण यंत्रणा में छटपटा रहे थे। तत्काल किसी निर्णय तक वे नहीं पहुँच सके । भारी मन से अपनी राजधानी लौट आये।

महाराज के वन से लौटने का समाचार पाकर सुकन्या दौड़ती हुई आयी । उसने देखा कि राजा पहले से भी अधिक चिंतित दिखाई दे रहे थे । सहमते- सहमते पूछा, 'पिताजी, आप जंगल में गये थे, आपने कुछ देखा ?'

'कुछ नहीं' कहकर राजा ने लम्बी साँस ली। सुकन्या बोली, 'आप जरूर किसी संकट से गुजरे हैं। आपसे सुने बिना मैं यहाँ से जाऊँगी ही नहीं ।'

'यदि तुम सुनना चाहती हो तो सुनो, राजा ने कहा, 'उस दिन तुमने जो वल्मीक देखा था उसके भीतर महर्षि च्यवन तपस्या रत हैं । तुमने उनकी आँखें फोड़ दी हैं। इतना ही नहीं, उनकी इच्छा है कि तू सदा के लिए उनके पास रहकर उनकी सेवा करे।'

सुकन्या सहर्ष बोली, 'जरूर करूँगी। आप जरा भी चिंता न कीजिए।' राजा बोले, 'असंभव। तेरी समान पुत्री को जान-बूझकर...... ऐसा नहीं कर सकता।'

परन्तु सुकन्या विनम्रता पूर्वक बोली, 'असंभव नहीं पिताजी, संभव है । आपने तो मुझे कई बार कहा है कि मनुष्य का रूप यौवन अस्थायी है। सत्य, सेवा, धर्म आदि शाश्वत वस्तुएँ हैं। चलिए राजदरबार में ।' यह कहकर वह पिता का हाथ पकड़कर दरबार कक्ष में ले गयी। राजा शर्याति जड़मूर्ति न गये थे । मूर्ति की तरह सुकन्या के पीछे-पीछे चल पड़े।

सुकन्या सबके सामने घुटने टेक कर बैठी। हाथ जोड़कर बोली, 'मैं माता दुर्गा के नाम पर शपथ खाकर कहती हूँ कि मैं च्यवन महर्षि से विवाह कर जीवन पर्यन्त उनकी सेवा करूँगी।'

सुकन्या के मुँह से प्रतिज्ञा के शब्द निकलते ही सबकी यंत्रणा दूर हो गई। आश्चर्य से सभा में उपस्थित सभासद एक-दूसरे का मुँह ताकने लगे । राजा अवाक् होकर अपनी पुत्री को देख रहे थे ।

महर्षि का अभिशाप कट गया। सबने शांति की साँस ली। पर उसके लिए भारी कीमत चुकानी पड़ी। वचन तो निभाना पड़ेगा। राजा ने तत्काल पुत्री को च्यवन महर्षि के आश्रम में पहुँचाने का प्रबन्ध कर दिया । दास- दासी, अपरिमित धन-संपत्ति सहित मुनिवर के आश्रम में पहुँचे ।

किन्तु महर्षि च्यवन ने कोई दहेज स्वीकार नहीं किया। केवल सुकन्या को छोड़ शेष सब कुछ लौटा दिया। सुकन्या ने अपने शरीर के सारे आभूषण उतार दिए। वह बोली, 'यह सब ले जाओ। मैं तो अब ऋषि पत्नी हूँ । यह मेरे किस काम का ?' भारी हृदय से राजा पुत्री को आश्रम में छोड़कर वापस गये ।

सुकन्या के पतिदेव वृद्ध, अंधे और अक्षम । इसलिए हमेशा उनके निकट । रहकर उसने तन-मन से उनकी सेवा की। मुनिवर को खाने-पीने, घूमने- फिरने में कोई असुविधा महसूस होने नहीं दिया। दिन का सारा कार्य समाप्त कर पति को शय्या पर सुलाकर वह सोया करती थी ।

कुछ दिनों के बाद-

एक दिन सुकन्या नहाकर आश्रम लौट रही थी। रास्ते में दो सुन्दर युवक उसके सामने खड़े होकर बोले, 'हम दोनों स्वर्ग के चिकित्सक हैं और हमारा नाम अश्विनी कुमार है। तुम कौन हो, देवी या मानवी ?"

स्वर्गपुरी के चिकित्सक मेरे पति की आँखें ठीक कर सकते हैं - यही सोचकर सुकन्या ने दो पल रुक कर उनके प्रश्नों का उत्तर दिया, 'मैं च्यवन महर्षि की पत्नी सुकन्या हूँ। लेकिन मेरा दुर्भाग्य है कि वे अंधे हैं ।' अश्विनी कुमार बोले, 'तुम्हारे पिता बड़े निर्दय हैं। वरना एक अंधे बूढ़े से तुम्हारा विवाह न करते । जो हुआ सो हुआ। हम दोनों में से किसी से विवाह कर लो, सुखी रहोगी।'

सुकन्या अत्यन्त क्रोधित हो गयी। क्रोध के मारे उसका चेहरा लाल हो गया। वह बोली, 'तुमने सुना कि नहीं, मैं बता चुकी हूँ कि मैं च्यवन महर्षि की पत्नी हूँ। किसी देवता के मुँह से ऐसी घृणित बात नहीं निकलती । मेरे रास्ते से हट जाओ, नहीं तो मेरे अभिशाप से भस्म हो जाओगे ।'

अश्विनी कुमार बोले, 'सुनो, सुकन्या ! हम तो तुम्हारी परीक्षा ले रहे थे । तुम्हारे व्यवहार से हम संतुष्ट होकर वर देना चाहते हैं । तुम्हारे पति को उनकी आँखें और यौवन पुनः प्राप्त होंगे। परन्तु एक शर्त है ।'

'क्या?' सुकन्या ने पूछा।

अश्विनी कुमार बोले, 'वे स्वयं आकर हमारे बीच खड़े होंगे और तुम हमारे बीच से उन्हें पहचानकर अलग कर लोगी ।'

उन्हें कुछ समय प्रतीक्षा करने के लिए कहकर, वह पति के पास गयी और सारी बातें बताईं। च्यवन वहाँ जाने को राजी हो गये।

महर्षि के आने पर अश्विनी कुमार बोले, 'सुकन्या अपने पतिदेव को झील में ले चलो हम तीनों पानी में डूबकर स्नान करेंगे।' सुकन्या किनारे पर प्रतीक्षा करती रही। तीनों पानी में डूबकर निकले तो सबकी सूरत शक्ल एक सी थी और तीनों उसकी तरफ देख रहे थे ।

सुकन्या की अक्ल मारी गयी। वह कैसे अपने पति को पहचाने। व्याकुल होकर दुर्गामाता का स्मरण किया । शून्य में आकर दुर्गा माता ने कहा, 'पुत्री, ठीक से देख तो, वह तेरे पति हैं जिनकी पलकें डोलती हैं।' सुकन्या ने अपने पति को पहचानकर उनका हाथ पकड़ लिया। अश्विनी कुमार बोले,

'सती सुकन्या ! तुम धन्य हो । तुमने देवताओं को भी जीत लिया। अपने पति के साथ सुख से जीती रहो।' उसके बाद दोनों ओझल हो गये।

च्यवन ऋषि में जवानी का तेज फूट पड़ा, बोले, " सुकन्या, तुम धन्य हो । तुम्हारे ही कारण मुझे नया जीवन मिला। बोलो, तुम्हारी खुशी के लिए मैं क्या कर सकता हूँ।'

'नाथ ! मैं बहुत खुश हूँ। मेरी एक प्रार्थना है। मैं पिताजी के दर्शन करना चाहती हूँ ।' सुकन्या बोली ।

'तुम्हारी इच्छा शीघ्र ही पूरी होगी।' महर्षि बोले ।

उसी समय आश्रम के बाहर कोलाहल सुनाई पड़ा राजा शर्याति अपनी सेना और सामंतों सहित आश्रम पधार रहे थे। महर्षि च्यवन को देखकर वे आश्चर्य में पड़ गये । च्यवन के रूप में भी ऐसा परिवर्तन हो सकता है, ऐसा उन्होंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था । आश्चर्य और खुशी से वे उन्हें एकटक ताकते रह गये। सुकन्या दौड़ी हुई आयी और पिता का पाँव छुआ ! सारा वृत्तांत सुनकर राजा बोले, 'बेटी, तुम जैसी पुत्री का पिता होकर मैं धन्य हो गया। तुम भारतीय समाज की गर्व और गौरव हो ।'

सुकन्या कुछ भी बोल न सकी उसकी आँखों के आँसू पिता के चरणों पर टपक रहे थे।

(संपादक : बालशौरि रेड्डी)

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