ससुर बहू का जोड़ा : आदिवासी लोक-कथा
Sasur Bahu Ka Joda : Adivasi Lok-Katha
एक गाँव में एक बूढ़ा अपने परिवार के साथ रहता था। उसके परिवार में उसकी पत्नी और उसके जवान बेटा-बहू थे। चारों हँसी-ख़ुशी से रहते थे। फागुन मास में बहू का भाई बहू से मिलने आया और चैत्र मास में बहन को मायके आने का आमंत्रण दे गया। जब चैत्र मास आया तो ससुर अपनी बहू को पहुँचाने उसके गाँव गया। बहू के मायके वालों ने ससुर को भी आतिथ्य सत्कार करते हुए कई दिन तक रोक लिया।
इस बीच ससुर के गाँव में महामारी फैली और पूरा का पूरा गाँव काल कवलित हो गया। एक भी व्यक्ति जीवित न बचा। जब ससुर और बहू अपने गाँव लौटे तो वहाँ का दृश्य देखकर वे रो पड़े। ससुर अपनी पत्नी गवाँ बैठा था और बहू ने अपना पति खो दिया था। जैसे-तैसे अपने मन को ढाँढ़स बँधाकर दोनों जीवनयापन करने लगे।
‘बहू! मैं तो ठहरा बूढ़ा इंसान, तुमसे पहले मैं इस दुनिया से चला जाऊँगा। फिर तुम अकेली कैसे जीवन चलाओगी? अतः अच्छा यही होगा कि तुम किसी के साथ दूसरा विवाह कर लो और अपना घर बसाकर एक सुरक्षित जीवन जियो।’ ससुर ने एक दिन बहू से कहा।
‘ससुर जी, मैं भी चाहती हूँ कि मैं विवाह कर लूँ किंतु मैं आपके साथ विवाह करना चाहती हूँ।’ बहू ने कहा।
‘तुम्हारी मति मारी गई है क्या? ये क्या बक रही हो?’ ससुर ने बिगड़कर कहा।
‘नहीं, मैं सोच-समझकर कह रही हूँ। आप ही सोचिए कि इस गाँव के आप ही एक व्यक्ति बचे हैं, मैं तो यहाँ की बहू हूँ। आपके वंश से यह गाँव फिर से बस सकता है और बहू होने के कारण मेरा भी यही दायित्व है कि मैं अपने पति और ससुर के गाँव को फिर से बसाऊँ। यह सब तभी संभव है जब मैं और आप एक-दूसरे से विवाह कर लें।’ बहू ने ससुर को समझाया।
‘तू तो बौरा गई है। मान लो मैं तुझसे विवाह कर भी लूँ तो लोग क्या कहेंगे?’ ससुर ने कहा।
‘कहने को अब इस गाँव में बचा ही कौन है? और फिर गाँव की भलाई के लिए किसी का कुछ कहा भी सुनना पड़े तो मैं सुनने को तैयार हूँ। आपकी भी यही भावना होनी चाहिए।’ बहू ने कहा।
‘ठीक है, इस गाँव में कोई नहीं बचा है लेकिन आस-पास के गाँवों में तो सब बचे हैं। वे क्या कहेंगे? तेरे मायके वाले क्या कहेंगे?’ ससुर ने कहा।
‘आस-पास के गाँव वालों को इतनी फ़ुर्सत नहीं है कि वे हमें कुछ कहें और रहा प्रश्न मेरे मायके वालों का तो वे मेरे निर्णय पर गर्व करेंगे।’ बहू अपने निश्चय पर अटल थी।
‘अच्छा ये सब छोड़। चल भोजन परोस दे, मुझे अभी दूसरे गाँव जाना है।’ ससुर ने बात टालते हुए कहा और हाथ धोकर भोजन करने बैठ गया।
बहू समझ गई कि ससुर के मन में यदि कोई हिचक है तो वह लोगों के कहने-सुनने की। इसलिए उसने ससुर के मन से यह हिचक निकालने की ठानी। जब ससुर दूसरे गाँव जाने को निकला तो बहू ने उसकी पीठ की ओर कोट पर अपने लँहगे का टल्ला टाँक दिया। ससुर को पता ही नहीं चला।
शाम को ससुर घर लौटा तो बहू ने देखा कि टल्ला उसकी पीठ पर टँका हुआ है।
‘आपको किसी ने कुछ कहा?’ बहु ने ससुर से पूछा।
‘नहीं।’
‘आप पर कोई हँसा?’
‘नहीं।’
‘आपको किसी ने ताना मारा?’
‘नहीं? लेकिन यह सब तुम क्यों पूछ रही हो?’ ससुर ने चकित होकर पूछा।
‘तनिक अपना कोट उतारिए। ससुर ने कोट उतार दिया।
बहू ने कोट पर टँका हुआ टल्ला दिखाते हुए कहा, ‘देखिए, मैंने आपके कोट पर यह टाँक दिया था। आप दिनभर इसे पहने हुए घूमते रहे लेकिन आपसे किसी ने कुछ नहीं कहा। क्योंकि उन्हें इससे क्या मतलब की आप ऐसा कोट पहनकर क्यों घूम रहे हैं? हो सकता है कि यह आपके गाँव का रिवाज़ हो।’
‘लेकिन तुमने ऐसा क्यों किया?’ ससुर ने चकित होते हुए पूछा।
‘इसलिए कि आपके मन से यह हिचक निकल जाए कि आस-पास के गाँव वाले क्या कहेंगे? हमारे यहाँ हर गाँव अलग पहाड़ों पर बसा है। सबकी अपनी कठिनाइयाँ हैं। उनसे भयभीत होने अथवा हिचकने की आवश्यकता नहीं है। आप मुझसे विवाह कर लीजिए और इस गाँव को फिर से बसाने का पुण्यकर्म कीजिए।’ बहू ने कहा।
बहू के इस सप्रमाण तर्क के सामने ससुर को झुकना पड़ा। उसने अपनी बहू के साथ विवाह कर लिया। कुछ समय बाद उनकी संतानें हुई। फिर संतानों की संताने हुईं। फिर उन संतानों की संतानों की संताने हुईं। फिर उन संतानों की संतानों की संतानों की संताने हुईं...और इस प्रकार कालांतर में वह उजाड़, सूना गाँव बड़ा आबादी वाले गाँव में बदल गया जिसका आरंभ ससुर बहू के जोड़े से हुआ था।
(साभार : भारत के आदिवासी क्षेत्रों की लोककथाएं, संपादक : शरद सिंह)