सस्सी-पुन्नूँ : पंजाबी लोक-कथा

Sassi-Punnu : Punjabi Lok-Katha

नगर के राजा का धोबी पहर रात रहती से ही नदी किनारे कपड़े धो रहा था। दिन चढ़े उसकी धोबन आई और अब वे दोनों कपड़े सूखने डाल रहे थे।

“बच्चा नहीं, यदि किसी बच्चे के कपड़े ही मुझे धोने को मिल जाते!” रानी की धोती को निचोड़ती धोबन ने गहरी उसाँस ले उससे कहा।

“जैसे हमारे भाग्य, वैसे हमारे राजा के।” धोबी ने भी उसाँस भरी।

“सुना था, रानी को कुछ होनेवाला है।” धोबन का ध्यान नदिया में बही आ रही संदूक जैसी किसी वस्तु की ओर आकर्षित हुआ।

“देख-देख, कैसी भली सी चीज किसी की बह गई है।”

धोबी ने बीस-पच्चीस कदम आगे दौड़कर नदिया में छलाँग मार दी और तैरकर वह एक संदूक सा किनारे पर तैरा लाया।

बहुत सुंदर व सुथरा बना, आधा ढका व ऊपर की आधी फ‍ट्टियो में हवा के लिए जगह छोड़ी हुई! जब धोबी ने ढक्कन खोला तो स्वर्णिम आभा ने उसकी आँखें चौंधिया दीं। सोने की मोहरों से आधा संदूक भरा हुआ व शेष आधे में एक नवजात शिशु था, जिसके गले में सुंदर ताबीज, सोने की पतली सी जंजीर में पिरोया हुआ पड़ा था।

धोबन ने भगवान् का शुक्र मनाकर हाथ जोड़े व बच्चे को गोद में उठा लिया।

“शहजादी है यह, किसी बड़े भाग्यवान की संतान है। जन्म लेते ही भाग्य ने इसे नदी में बहा दिया, पर है यह सुनहरे भाग्यवाली!”

मुख चूमकर धोबन ने कन्या धोबी की बाँहों में दे दी।

“सभी कुछ था—एक ही अरमान तेरा बाकी था—भगवान् ने आज वह भी पूरा कर दिया। अब देखना क्या होता है!” धोबी का मुँह नए इरादों से चमक उठा।

धोबी मेहनती व भला होने के कारण राजघराने से बहुत इनाम-इकराम पाता रहता व बिरादरी में अच्छा माना जाता था। निस्संश होकर उसने राजा को बतलाया कि उसके घर पुत्री ने जन्म लिया है, उसकी धोबन चाव के साथ अपनी बिटिया को पालना चाहती है।

बहुत सारी जमीन राजा ने उसे दे दी व उस पर सुंदर सा घर बनाने व बाग लगाने का आदेश दे दिया गया।

साँझ समय जब चाँद उदित हुआ, मीठा, विनम्र व प्यारा—बादलों की ओट में से, धोबन को वह अपनी नई मिली बच्ची की भाँति तैरता प्रतीत हुआ।

“चाँद की भाँति ही यह लहरों पर तैरती हुई मुझे मिली थी।”

“चलो, इसका नाम भी हम चाँद जैसा ही रख दें—सस्सी।” धोबी ने सलाह दी।

“सस्सी!” धोबन ने फिर बालिका का मुँह चूमकर कहा, “मेरी आशाओं का चढ़ा चाँद!”

घर बन गया, बाग लग गया, राजा ने धोबी की मजदूरी भी बढ़ा दी और धोबियों की बस्ती में सस्सी रानियों की भाँति बड़ी होती गई।

किंतु किसी रानी को यह खुला सूर्य, वह खुली पवन, वह खुला नदी-किनारा व वह खुला आकाश नहीं मिले होंगे। इनकी न समाप्त होनेवाली अमीरी ने सस्सी के नयन-नक्श पर ही नहीं, अंग-प्रत्यंग पर भी सौ-सौ जादू चित्रित कर दिए।

उसके चेहरे पर उगते सूर्य जैसी आभा, कमर में लहरों जैसी लचक, आँखों में आकाश की झलक, चाल में पवन की गमक, बोल में तारों की ताल—जिधर से भी सस्सी निकल जाती, आकाश में लाँघते तारों की भाँति अपनी चमक-दमक छोड़ जाती। कितनी-कितनी देर लोग देखते, पूछते व बतियाते रहते।

महमूद धोबी की कन्या शहजादियों के भाग्य लेकर आई थी। धोबन-कन्याओं के जीवन में सस्सी ने एक ऊष्मा सी भर दी थी। कई सहेलियों को सस्सी ने अपने जैसा ही रसिक बना दिया था। सारा दिन वे अपने माँ-बाप के साथ पहले से भी अधिक कार्य करतीं, जिससे शाम पड़े उन्हें सस्सी के साथ नाचने-कूदने व खेलने की छूट मिल जाए।

धोबी-लड़कों के कठिन व फीके दिलों में भी सस्सी ने कई शौक छनका दिए। सस्सी की नजरों में आने के लिए वे कई छोटे-मोटे काम करते। जब सस्सी कपड़े इस्त्री करती, वे इस्त्री ठंडी न होने देते, वे उसके बाग की रखवाली करते। उसके काम आने की प्रतीक्षा में निरंतर रहते।

एक लड़के दारा को न अपनी शक्ल पर और न अक्ल पर भरोसा था। वह सस्सी की नजरों में आना अपने भाग्य में नहीं मानता था व छिप-छिपकर सस्सी के बाग में घुस जाया करता था। एक दिन सस्सी की सहेलियों की नजरों से वह छिप न पाया। उन्होंने अपनी ओढ़नियाँ दारे के गले में डाल दीं और कोई इधर तो कोई उधर घसीटे। अंततः सस्सी ने आकर उसे छुड़वाया, किंतु दारा बाँह से नाक पोंछता यही कहता रहा, “ऐसा बदला लूँगा सस्सी कि याद रखेगी। बुलबुल की भाँति फुदकती रहती है, यदि पिंजरे में न बंद करवा दिया तो कहना!”

राजा के घर में कई वर्षों से कोई उम्मीदवारी नहीं हुई थी। दूसरे विवाह की सलाहें दी जा रही थीं व योग्य कन्या के लिए पूछताछ होने लगी थी। दारा ने कई ढकी बातें उघाड़ने के दावे के साथ राजदरबार में आ बताया कि महमूद धोबी की लड़की केवल सौंदर्य की राजकुमारी ही नहीं, जनमी हुई भी किसी रानी की ही है, यह खचरा धोबी किसी प्रकार कोई शाही बच्चा उठा लाया है।

सस्सी के सौंदर्य की धूम तो सारे नगर में थी ही। राजा ने आज्ञा दे दी कि महमूद धोबी अपनी कन्या को राजदरबार में लाए। धोबी के मन में एक दहशत सी बैठ गई, ‘राजा मेरे पास सस्सी को रहने नहीं देगा।’ सस्सी भले ही अपने पिता को बहुत धैर्य बँधाती, किंतु उसका मन अंदर-ही-अंदर डरता ही रहा।

सस्सी को न जीवन का, न राजाओं का किसी प्रकार का अनुभव ही था। वह समझती थी कि जीवन अपनी इच्छा, अपने परिश्रम व अपने सद्व्यवहार का खेल है, जिसे जैसा मन चाहे वह उसे खेल ले। उसने भय, सितम आदि अभी तक देखा-भाला नहीं था। साहस व सौंदर्य की यह सूरत जब राजा के समक्ष हाजिर हुई, उसके अँधेरे दिल व दीवानखाने में कोई किरण मानो कहीं से आ प्रज्वलित हुई हो।

“तू किसकी लड़की है, इतनी सुंदर?” राजा ने चौंककर पूछा।

“महमूद धोबी व उसकी धोबन की।” सस्सी बहुत मान के साथ बोली।

“धोबन तो नहीं दीखती है, तू तो कोई शहजादी जैसी लगती है।”

“शहजादी तो मैंने कभी कोई देखी नहीं, एक बहुत अच्छे और भले धोबी-धोबन की कन्या मैं अवश्य हूँ।”

“अच्छा, धोबन ही सही, किंतु मैं तुझे रानी बनाना चाहता हूँ।”

“धोबन को आप रानी कैसे बनाएँगे?”

“शादी करके।”

“किंतु राजन्, विवाह के विषय में मैं अभी कुछ भी तो जानती नहीं।”

“अभी तू सभी कुछ जान जाएगी।”

सस्सी का रूप राजा को बहुत भला और अच्छा लग रहा था। उठकर वह उसके समीप चला गया। उसके गले में डालने के लिए उसने बाँह आगे बढ़ाई ही थी कि सस्सी के गले में पड़े तावीज पर उसकी नजर पड़ गई। वह झिझक सा गया।

“यह तावीज तेरे गले में किसने डाला था?”

“मेरी माँ ने।”

“ला, इसे देखूँ।”

“नहीं राजन्, माँ कहती है, मेरा यह रक्षक है। मैं इसे उतार नहीं सकती।”

राजा ने अपनी रानी को बुलवा भेजा।

रानी ने प्रकाश की ओर सस्सी को खड़ी करके तावीज को उलट-पलटकर देखा व सस्सी के रूप से भरपूर चेहरे की ओर ध्यान देकर देखा—

“हाय, मैं मर जाऊँ, यह तावीज तो मैंने अपनी अभागिन बच्ची के गले में डाला था!”

राजा व रानी ने अपनी उँगली मुँह में डाल ली। महमूद धोबी को अंदर बुलवाया। उसके पाँव थरथरा रहे थे। सच-सच कहने के लिए राजा ने आदेश दिया। सहमे व घबराए हुए महमूद को इस समय सत्य के अतिरिक्त और कोई बात न समझ आई। सारी बात—संदूकवाली जस-की-तस कह सुनाई।

रानी ने सस्सी को गले लगाकर चीखें मारीं—“मेरी शहजादी बिटिया!”

सस्सी ने देखा, उसके पालक पिता से समीप खड़ा नहीं हुआ जा रहा था। माँ की भुजाएँ ढीली होते ही सस्सी ने जाकर धोबी को आलिंगन में भर लिया व राजा पिता से माँग की कि उसके पिता को आराम से बैठा दिया जाए।

धोबी के समीप ही राजा व रानी भी बैठ गए व राजा ने अपनी छाती पर हाथ मारकर अपनी शर्मिंदगी की कहानी कह सुनाई—“अठारह वर्ष हुए हमारे घर इस बच्ची का जन्म लेना था। हमने ज्योतिषी बुलवाए। उन्होंने हमारी इस अच्छी तकदीर को खानदान के लिए कलंक बताया कि यह किसी मुसलमान के साथ विवाह करेगी। इसका प्रेम संसार की चर्चा का विषय बनेगा। अपनी छाती पर पत्थर रखकर हमने जन्म लेते ही इसे नदी में बहा दिया। यह तावीज इसकी माँ ने इसके गले में डाल दिया था। पाँच हजार मोहरें मैंने इसके संदूक में रख दी थीं। इसके बाद इसकी माँ कभी भी हँसी नहीं थी व कोई भी जीव इसी कारण हमारे घर आया नहीं। हमने बहुत बड़ी भूल की, सस्सी बेटी, तेरे सामने हम मुँह दिखाने योग्य नहीं हैं, किंतु यदि महमूद तुझे हमें लौटा दे, हमारा कुल रह जाएगा। हम इसका कर्ज कभी भी अदा नहीं कर पाएँगे।”

महमूद के दिल में न जाने क्या-क्या उठता, किंतु होंठों तक आकर वह रुक जाता आखिर सस्सी ने उसकी कठिनाई आसान कर दी।

“किंतु मेरे राजन् पिता, यह फैसला केवल आपके व धोबी के बीच ही नहीं होगा।” सस्सी ने अपने पालक-पिता को हौसला देते हुए कहा।

“इसके अतिरिक्त और किसे तेरी किस्मत पर अधिकार हो सकता है?” राजा ने पूछा।

“स्वयं किस्मतवाली को—सस्सी को!”

“तूने ठीक कहा है सस्सिए!” राजा सस्सी के मुँह की ओर ताकने लगा—“मैं तेरे समक्ष ही प्रश्न रख रहा हूँ।”

रानी तो पूर्णतया पसीज उठी, “ओ चंद्रमुखी बिटिया, हमारा भाग्य हमें लौटा दे, अपना अधिकार ले ले—मुझ नाचीज को भी कोई चीज बन जाने दे!”

सस्सी ने जननी-माँ के जोड़े हुए हाथ अपने हाथों में लेकर दबाते हुए कहा, “यह मेरा निश्चय है रानी माँ, संदूक में डालकर बहा देने के आपके फैसले से कम कठिन यह भी नहीं है—पालक माँ-बाप के साथ विचार-विमर्श कर मैं कल तक आपको कुछ बता सकूँगी। इस समय आप इतनी कृपा करें कि मेरे पिता को किसी सवारी में बैठाकर हमारे घर तक पहुँचा दें।”

दूसरे सारे दिन राजा व रानी सस्सी की ओर से आनेवाली सूचना की प्रतीक्षा करते रहे। साँझ पड़े एक धोबी सस्सी की एक पाती लेकर आया। काँपते हुए हाथों के साथ राजा ने चिट्ठी खोल रानी को पढ़ सुनाई—

‘मेरे राजा माता-पिताजी,

सारी रात मैं जनमती, बहती, तैरती रही। सारी रात रानी माँ का तावीज मेरे हाथों में रहा। उनकी अंतिम माँग मेरे कानों में व उनके आँसू मेरी आँखों में कसकते रहे। किंतु यह कुछ पल व घड़ियाँ ही थीं, दूसरी ओर अठारह वर्षों के लाड़-प्यार, सेवा व कुर्बानियों ने मेरे आस-पास झुरमुट सा खड़ा कर दिया। तोड़कर बहा दिए गए कलंक को चाँद का उतारा समझकर जिसने मुझे पाला-पोसा, उनका हक मैं उनके घर में रहते हुए भी चुका नहीं पाऊँगी व उनके घर से चले जाना...ओह! मैं जननी-माँ की चाहतों के समक्ष भी सोच नहीं सकती। कल आपने मुझसे क्षमा माँगी थी, आज मैं आपसे माँगती हूँ। किंतु जब भी बुलाएँगे, मैं आपसे मिलने आया करूँगी।

—आपकी सस्सी’

राजा ने रानी को समझा दिया कि सस्सी के अ-मोड़ निश्चय को बदलने का यत्न निर्मूल सिद्ध होगा—“हमने अपना भाग्य बहा दिया, अब सस्सी की खुशी व हमारा सुख इसी सयानेपन में है कि हम सस्सी को अपना जीवन स्वतंत्र रूप से ही जीने दें, यह हमारा भेद सँभला हुआ ही रहे तो ठीक होगा।”

सस्सी की स्वतंत्रता बढ़ गई। धोबी व धोबन ने सुख की साँस ली। न जाने कितनी-कितनी बार दिन में माँ सस्सी को आलिंगन में ले लेती। वह विश्वास करने के लिए कि सस्सी उसी की ही बेटी थी, राजा भी उसे उसके पास से छीन नहीं सका।

सस्सी के सौंदर्य की कहानियाँ देश-परदेश में भी होने लगीं।

सूरत-व-सीरत का हुस्न, नक्श व नयनों का हुस्न, रफ्तार व गुफ्तार का हुस्न, साहस व आजादी का भरपूर हुस्न, जब किसी एक पर भी आए, उसके सारे लोगों पर पर ही बसंत छा जाता है, सारा नगर ही सुंदर दीखने लगता है, किंतु किसी के मुँह में अनोखे हुस्न की बातें होती हैं।

रेशमी जुल्फों के अंबरों में से झलकता चाँद—महमूद धोबी का घाट हुस्न-परस्तों का काबा बन गया।

कच-मकरान से एक बार सौदागर आए। कई दिन भंभोर रहे। सस्सी के सौंदर्य के चर्चे उन्होंने भी सुने, क्योंकि उनका अपना शहजादा भी रसिक होने की प्रसिद्धि रखता था। उसके छोटे दोनों भाइयों ने विवाह कर लिये थे, किंतु बड़े शहजादे की आँखों में किसी का सौंदर्य अभी तक जँचा-रचा नहीं था। राजधानी की कई सुंदरियाँ, जब उसे देखतीं तो हाथों से अपनी छातियाँ सँभालती थीं।

इस सौदागर-काफिले का सरदार बेबियो, शाहजादे का दोस्त था। बेबियो ने जब भंभोर की सुंदरी को देखा व उसका नाम ‘सस्सी’—नया चाँद—सुना, तो स्वयमेव ही उसके मुँह से निकल पड़ा—“वल्लाह! यह नया चाँद तो हमारे पूर्ण चंद्र पुन्नूँ की ही जोड़ी है!”

जल्दी-जल्दी काम समाप्त कर बेबियो कच-मकरान लौटा व उसने शहजादे पुन्नूँ के साथ सस्सी की बातें की। सुन- सुनकर पुन्नू की रग-रग में मिलन की आशा बलबती हुई। पुन्नू ऐसी ही किसी सूरत का याचक था, जो उसे उसके दिल के मिलन के झूले झुलाकर एक बार आकाश को छुआ सके। वह बहुत परख व बहुत साहसवाला व्यक्ति था। पुन्नूँ भाइयों से एकदम पृथक्। आँखों का रसिया होने के बावजूद भी वह भाइयों की भाँति औरतों के पीछे घूमता नहीं फिरता था। उसकी सौंदर्य की प्यासी आँखों में कई सूरतें ठंड पैदा करती थीं, पर उसके दिल की तपिश किसी ने भी बुझाई नहीं थी। एक अमीर व सुंदर साँझा पुन्नूँ पर सभी कुछ बलिहारी करने को तैयार हो गई, किंतु जिस सौंदर्य का पुन्नूँ बंजारा था, वह सौंदर्य साँझा का माल नहीं था।

बेबियो यार की बातें सुनकर पुन्नूँ ने भी काफिला तैयार किया। सुगंधियों का पुन्नूँ प्यारा था। उसके देश के पहाड़ सुगंधियोंवाले पेड़-पौधों से महके हुए थे। सुगंधियाँ कच-मकरान का व्यवहार थीं।

काली ऊँटनी पर चढ़कर सुगंधियों का सौदागर रेगिस्तान पार करता भंभोर नगर में जा पहुँचा।

‘पत्तण’ के समीप घने वृक्षों के झुरमुट के नीचे चंबे, करने आदि इत्र-फुलेल, क्योड़े-कस्तूरी की दुकान पुन्नूँ ने सजा दी। पुन्नूँ स्वयं भी एक महकती हुई सुगंधी था। श्वेत ऊन के कालीन के ऊपर बैठा, चौड़ी छाती, साहसी कंधे, सुथरे नयन-नक्श, कुँवारा दिल, जाज्वल्यमान मस्तक, उसके युवा रक्त व अनथकी कामनाओं से हजार सुगंधियाँ उठती थीं।

उसकी इतर-फुलेलों से भी अधिक उसकी दुकान पर कोमल मुख-मंडल की शोभा सारे शहर में फैल गई। किसी-किसी समय उसकी दुकान पर नवयौवनाओं के झुंड दीखते। प्रत्येक सुंदरी को वह ‘रानी’ कहकर बुलाता व बाँका सा इत्र-भीगा फाहा, जब वह नर्म नाजुक हथेली पर रखता, तो शर्मीली आँखों की मुसकान खिल उठती।

चार दिन हो गए, आधे से अधिक माल बिक गया, आधे से अधिक नगर उसकी आँखों के सामने गुजर गया था, किंतु अभी तक वह सूरत नजर नहीं आई, जिसे देखते ही लोग व चीजें सभी के रंग और से और हो जाते व सारा संसार प्यारा-प्यारा लगने लगता।

पुन्नूँ की खबर सस्सी तक पहुँच चुकी थी, किंतु जैसे वह किसी प्रेम-युद्ध के लिए अपना सौंदर्य तौलने में लगी हुई थी—

वह कई-कई बार दिन में अपना चेहरा आईने में देखती।

सहेलियों ने मना लिया। आज सारा दिन उसकी सहेलियाँ माँ-बाप का काम बड़े चाव के साथ करती रहीं, पहले की अपेक्षा जल्दी पूरा करके, अच्छे, साफ-सुथरे कपड़े पहनकर वे सस्सी के घर आ गईं। सस्सी के अद्वितीय सौंदर्य का उन्हें मान था। कई बार स्वयं उसकी आभा देखने के लिए सस्सी के कानों में झुमके, जुल्फों में चाँद, माथे पर टीके का शृंगार करती थीं। आज उनके देश के सौदर्य का एक परदेसी के सौंदर्य से टकराव था। जैसा किसी के दिल में आया, वैसा ही उसने सस्सी को भटकाना चाहा। पहले वह कभी कुछ कहा नहीं करती थी, जो चाहें सहेलियाँ कर लिया करती थीं, किंतु आज वह अत्यधिक शृंगार के लिए मना कर रही थी। कई आभूषण आज उसने पहने ही नहीं थे।

सस्सी तैयार हो गई। जहाँ खड़ी थी, वहाँ शोले उठते दीख रहे थे। मखमल के बटुए में माँ ने न जाने कितनी सारी मोहरें डाल दी थीं।

सस्सी पुन्नूँ की दुकान पर आ गई। कोई धुंध सी मानो उठ गई थी। दिमाग अपने स्थान से उतर गया और दिल ने तख्त सँभाल लिया।

पुन्नूँ ने सस्सी के घुग्गी जैसे गुटकते हाथ पर से सुच्चे गुलाब की आत्मा फाहे से फेरकर कहा, “राणो, यह हमारे पहाड़ों का अनोखा चंबा है।”

सस्सी ने आँखें उठाईं। पुन्नूँ की आँखों में प्रथम मिलन की थिरकन उसने जाँच ली। वह मुसकरा पड़ी, “आपके पहाड़ों में चंबे के फूलों को भी गुलाब के फूल लगते हैं?”

पुन्नूँ ने अपनी शीशी को गौर से देखा—“मैं भूल गया रानी, कहना मुझे गुलाब ही था।”

“इतनी बड़ी भूल का हरजाना देना पड़ेगा।” सस्सी ने देख लिया कि पुन्नूँ के दिल-रूपी किले का हर द्वार उसके लिए खुला पड़ा है।

“रानी आज्ञा दें।” पुन्नूँ सँभल रहा था।

“मेरी प्रत्येक सहेली के हाथ पर तुम्हें चुनी हुई सुगंधियों से भरे फाहे लगाने होंगे।”

पुन्नूँ फाहे इत्र में भिगो-भिगोकर लगाता जाता। उसके अंदर उसका रक्त नाच रहा था व प्रत्येक अंग उसका जाग उठा था। “क्या जादू है यह, प्रियतम के अपना लेने में!” उसकी आँखें सस्सी को कह रही थीं।

कई शीशियाँ पुन्नूँ ने सस्सी के लिए एक छीके में डाल दीं। सस्सी ने रेशमी डोरियाँ खींचकर काले मखमल के बटुए में से सोने की मोहरें निकालकर मूल्य अदा करना चाहा।

“कल सही, घर जाकर आप पसंद कर लें।” पुन्नूँ इस व्यवहार को समाप्त नहीं करना चाह रहा था।

दूसरे दिन सस्सी आई, तीसरे दिन भी आई, किसी-न-किसी बहाने पुन्नूँ मूल्य वाली बात टाल ही देता।

इन तीन मिलन ने सस्सी की नजर, सस्सी की चाल, सस्सी के बोल आदि में किसी अनोखी मिलन की आशा धड़का दी। उसकी एड़ियाँ जमीन पर नहीं पड़ पा रही थीं। माँ के गले में जाकर उसने गलबहियाँ डाल दीं—

“सुन री माँ, मैंने अपना वर खोज लिया है।”

“कौन सा है बिटिया, मुझे भी तो बता!”

“वह सुगंधियोंवाला सौदागर है माँ!”

“प्यारी बिटिया, सौदागर तेरे पिता को पसंद नहीं है।”

“नहीं माँ, सौदागर तो वह यों ही है—अंदर से वह वही है, जो मैं हूँ।”

चौथे दिन सस्सी मोहरों से बटुआ भरकर ले गई व साथ ही सारी सुगंधियाँ भी। पुन्नूँ के आगे रखकर जरा मुँह बनाकर कहने लगी, “तुम कीमत नहीं ले रहे, मैं तुम्हारा माल तुम्हें लौटाने आई हूँ।”

“किंतु रानिए! एक ही माल का मूल्य मैं दूसरी बार कैसे ले लूँ?”

“पहले कभी मैंने कोई कीमत दी भी है?” सस्सी ने हैरान होकर पूछा।

“तुम पहले दिन ही मेरे सारे माल से अत्यधिक मूल्य दे गई थीं।”

“वह कैसे, मेरे अजीब सौदागर?”

“तुम्हारा हाथ एक-एक बार अपने हाथ में ले लेने के बदले यह सारा कुछ दे देना सस्ता सौदा समझकर ही मैं घर से चला था।”

“सच-सच कह रहे हो, मेरे अच्छे सौदागर?”

“सौदागर तो रानीजी, मैं हूँ नहीं!”

सस्सी खुशी से जमीन पर से मानो उछल पड़ी।

“मैंने भी अपनी माँ को कहा था कि तुम सौदागर नहीं हो...अच्छा, पुन्नूँ, एक बार हाथ पकड़ने का मूल्य तुमने चुका दिया, कल इसी समय मेरे बाग में आना, और यदि सदा के लिए मेरा हाथ पकड़ने का मूल्य तुम चुका सको तो सोच लेंगे, कहो, प्यारे पुन्नूँ, आओगे न?”

“कदमों से ही नहीं, धड़कते हुए दिल के साथ आऊँगा—कल इसी समय तुम्हारे बाग में।”

पुन्नूँ ने सस्सी के दोनों हाथ पकड़कर उन पर तत्काल लिये हुए फाहों से सुगंधियाँ बिखेर दीं।

सस्सी के बाग में वह व उसकी सहेलियाँ पुन्नूँ की प्रतीक्षा कर रही थीं। पुन्नूँ उन सभी के लिए उपहार लाया। उसके आस-पास सखी-सहेलियों ने घेरा डाल लिया। पुन्नूँ उनका भी था, असली सौंदर्य मालिकों का ही नहीं होता, दर्शकों का भी होता है।

सस्सी के हाथों में उन्होंने पुन्नूँ का हाथ पकड़ा दिया व उनके कुँआरे दिलों ने ऐसा नाच नाचा कि हरियाली टहनियों में से कोयलों ने भी कूकना शुरू कर दिया।

“पर पुन्नूँ प्यारे, मेरे पिता कहते हैं कि वे धोबी के अतिरिक्त लड़की किसी और से नहीं ब्याहेंगे।” सस्सी ने पुन्नूँ को उसके भाग्य से चेतावनी देनी चाही।

“यह तो शर्त सस्सी, केवल धोबी होने की है, तेरा पुन्नूँ तेरे लिए भला क्या नहीं बन सकता!”

“किंतु पुन्नूँ, तुम तो कोई राजकुमार से दिखते हो!”

“कल से तुम मुझे धोबी के रूप में ही देखोगी!”

कल आया। सस्सी ने पिता से इशारों में छोटी-छोटी बातें कह सुनाईं। अपने चुनाव की बात कहते हुए सस्सी ने कहा, “पुन्नूँ कहता था, असल में तो वह धोबी ही है।”

“ठीक है, तो कपड़े धोकर वह मुझे परीक्षा दे दे!”

दूसरी सुबह कमर में अँगोछा, गले में कुरता, सिर से बिलोची बाल मूँडे़ हुए, नए सिलवाए कपड़े पहनकर पुन्नूँ परीक्षा देने चल पड़ा।

महमूद ने मैले कपड़ों की गठरी उसके सामने खोल दी। पुत्री को कहा कि आवश्यकतानुसार मसाला देती रहे। वह अपने काम में लग गया।

कपड़े पर कपड़े पुन्नूँ पछाड़ता रहा, किंतु अपनी आँखें वह सस्सी के चेहरे से उठा न पाया। बहुत ही प्यारा रसीला रस मानो वह ग्रहण कर रहा था—बिना बोले ही आँखें संभवतः आँखों से बातें कर रही थीं। बेध्यानी में कई कपड़े फट गए, तह करते समय सस्सी घुग्गियों को देखकर सोच में डूब गई। पुन्नूँ भी बहुत लजाया। अंततः सस्सी को एक बात सूझ गई।

“क्या कुछ मोहरें लुटा सकने में सक्षम हो सकते हो, प्यारे पुन्नूँ?”

“कुछ क्या, जितनी भी कहो। कमी मोहरों की नहीं, केवल तुम्हारी है।”

सस्सी ने तरकीब सुझाई कि हर फटे हुए कपड़े पर वह एक-एक मोहर रख दे। पुन्नूँ ने जरा भी ढील न की।

सस्सी का पिता सुंदर तह किए कपड़े दे आया, किसी एक ने भी उपालंभ न दिया, वरन् सभी पहले से भी ज्यादा प्रसन्न दीखे।

पिता ने प्रसन्न होकर सस्सी को कह दिया—“तेरा चुनाव मुझे स्वीकार है, तेरा पुन्नूँ तो सचमुच बड़ा पक्का धोबी सिद्ध हुआ।”

सस्सी व पुन्नूँ का विवाह हो गया। राजा व रानी ने सौगातें भिजवाईं। सारे धोबियों ने जश्न मनाया। धोबी युवकों ने भी खुशियाँ मनाईं कि सस्सी को ब्याहनेवाला उसे उनसे दूर ले नहीं जाएगा, वरन् उनके नगर का धोबी बनकर उनकी धोबी-बस्ती की रौनक बढ़ाएगा। धोबी-घाट, धोबी-बस्ती, सस्सी का बाग व सस्सी का घर राजधानी में सौंदर्य की यात्रा बन गए थे।

असली सौंदर्य व असली बड़प्पन की रौनक भी सुंदर हो जाती है।

पुन्नूँ सारा दिन महमूद के साथ कपड़े धोता, सस्सी कपड़े तह करती। स्वच्छंद कार्य के सुहागे ने सौंदर्य का सोना और भी चमका दिया। सौंदर्य की धूम तो मची ही थी, सफल व रसिक जीवन के स्वर्ग की धूम भी मच गई। कई लोग अपनी बुझती ज्योति को ज्योतित करने के लिए उनके प्रकाशमान चेहरे देखने आ जुड़ते।

किंतु पुन्नूँ के अपने नगर कच-मकरान में तो मानो शोक की लहर ही व्याप्त हो गई। माँ-बाप दुःखी व लज्जित हुए। भाइयों को तो शायद पुन्नूँ का वियोग लेशमात्र को भी नहीं था—वह उनसे अलग-थलग था, कार्यकलापों में उनका साथी जो नहीं था, किंतु परिवार की बदनामी उन्हें चैन नहीं लेने दे रही थी, क्योंकि लोग कहते, “बड़ा राजकुमार धोबन से विवाह करके धोबी बन गया है।”

कई दूत माँ की ओर से भंभोर भिजवाए गए, जो यही उत्तर लाए—

“माँ, तेरी याद मुझे भूलती नहीं, किंतु पिता के तख्त के योग्य मैं कभी भी नहीं था। मेरे योग्य भाई चिरंजीवी हों, वे यदि मुझे भूलना चाहें तो भूल जाएँ। मैं इतना प्रसन्न हूँ कि किसी को भी भुला नहीं सकता। अपने वतन कच-मकरान की याद मेरे कण-कण में समाई हुई है, जिसकी धरती पर जन्म लेकर आज मैं फरिश्तों की ईर्ष्या का कारण बना हुआ हूँ।”

दूतों के द्वारा बात बनती न देख भाइयों ने योजना बना ली और पुन्नूँ को कहलवाया—“तुम्हारी इच्छा पर हम स्वीकृति दे देंगे, किंतु हम एक बार अपने भाई को देखने के इच्छुक हैं।”

सस्सी फूली न समाई, ‘उसके पुन्नूँ के भाई आएँगे, उसके राजकुमार देवर आएँगे!’ अपनी देवरानियों के लिए उसने उपहार इकट्ठे किए। अपना घर सजाया।

भंभोर के धोबी आपे में नहीं समा रहे थे। राजसी अतिथियों ने आना था, अतिथि-गृह में नहीं, उनकी धोबी-बस्ती में रहेंगे।

बस्ती की हर झोंपड़ी दुलहन बन गई थी।

पुन्नूँ के उमर व तुमर भाइयों का काफिला आया।

साथ ही आई श्वेत, भूरी, काली ऊँटनियाँ, उनके घुटनों पर सुनहरी गहने, गले में छलकती घंटियाँ, पीठ पर रेशम से कढ़े हुए नमदे आदि।

साथ आए सुंदर-सजीले बिलोच!

सौगातों से लदे-फदे झोले, मेवों और फलों से भरी हुई टोकरियाँ!

चार दिन सस्सी के घर में जश्न होता रहा। गायकों ने आकर गीत गाए, भाटों ने नकलें कीं, सहेलियों ने गिद्धे नाचे-गाए। उमर व तुमर की सखावत ने जो भी आया, निहाल कर दिया। कच-मकरानी की सुगंधियाँ सारे भंभोर में बिखर गईं।

भाइयों की भूखी, भाईचारे की इच्छुक सस्सी ने भाग-भागकर देवरों की खातिर की, देवरानियों की मनुहार पूछ-पूछकर ढोए-ढुकाए, सास के लिए मोहरों के हार बनवाए, ससुर के लिए कपड़े दिए, पुन्नूँ की बहनों के लिए अलग-अलग सौगातें गिनवाईं।

कल इन बिलोचों को चले जाना है, आज की रात अंतिम मेहमानदारी की है। सस्सी ने सुच्चे इश्क के खेड़े की व उमर व तुमर ने शरबत-शराब की छबील ही लगा दी, हर व्यक्ति नाचा, जो कभी पहले नाचा भी नहीं था।

किंतु चार दिन एक श्वास में चढ़ती खुशियाँ थक गई थीं या आज के शरबतों, शराबों में कोई अलग प्रकार की ही वस्तु थी—आधी रात के बाद महफिल कुछ बिखर सी गई। कोई इधर, कोई उधर लेटने के लिए कोना ढूँढ़ता फिरे। घड़ी ने जब दो बजाए, बलोच अतिथियों के अतिरिक्त सभी सोए पड़े थे।

तुरंत ही ऊँटनियाँ तैयार की गईं, सामान लादा गया। एक पर उमर ने बेहोश पुन्नूँ को धर लिया, पीछे से तुमर ने बैठकर उसे थाम लिया।

दिन चढ़े पर एक-दो की आँख खुली, लगा—मानो कोई सपना था। सस्सी ने आँख मलकर झाँका। न उमर, न तुमर और न ही उसका कोई...और...और...न ही उसका पुन्नूँ! यहाँ भी नहीं, वहाँ भी नहीं, बाहर भी नहीं, अंदर भी नहीं!

“हाय री माँ! मैं लुट गई। मिलने नहीं आए थे, उन्हें उठाने आए थे!”

माँ ने उसे गले से लगाया, समझाया, सहेलियों ने विश्वास दिलाया, पिता ने भी धैर्य बँधाया, “पुन्नूँ को होश आएगा, तो वह पल रुकने का नहीं। जो तेरे लिए धोबी बन सकता है, वह कभी भी घर नहीं रह पाएगा!”

“नहीं माँ मेरी, वह बस पड़ गया है जालिम बिलोचों के, जो रेगिस्तान पार करके मेरे पास से उसे उठा ले गए हैं, उसका वे पलमात्र को भी विश्वास नहीं करेंगे। पुन्नूँ धोबी उनकी छाती में कसक रहा था, उसे मार डालने में भी वे हिचकेंगे नहीं।”

“फिर भी धीरज रख मेरी अच्छी बिटिया, भाग्य स्वयं ही करवट लेगा।”

“जो नेह माँ, मेरे हाड़ों में बसा हुआ है, उसे भला धैर्य कहाँ है? जो पुन्नूँ मुझे मिला है माँ, उसके बिना जीवन ही व्यर्थ है। मैं जाती हूँ, रेगिस्तान मुझसे पार नहीं हो पाएगा, किंतु मेरा दिल भी यहाँ जम नहीं रहा है, मुझे रोक न, मेरी प्यारी अमड़ी! मैं यहाँ दो दिन भी जी नहीं सकूँगी, उसके पीछे भटकती शायद मैं बच ही जाऊँ!”

सस्सी पागल हो गई। कहती है, “जाऊँगी, मैं अपने मार्ग से लेशमात्र भी पीछे नहीं लौटूँगी!”

सारा दिन माँ व सहेलियों ने उस पर नजर रखी। सस्सी की अंतरात्मा से उसाँसें उठें, सारा शृंगार उसने उतार फेंका। लटें बिखरकर छितर गईं, पल-पल वह उठ बैठती—“बलोच जालिमो, मेरा पुन्नूँ मुझे लौटा दो!”

पकड़-पकड़कर बैठानेवाली सहेलियाँ थक गईं। सस्सी भी हार गई।

वही समय था, जब पुन्नूँ को उमर व तुमर ऊँटनी पर लाद रहे थे। सस्सी भौंचक्की होकर उठी, सहेलियाँ न हिलीं—आँख लग गई थीं। पुन्नूँ के गले का दुपट्टा कील पर टँगा ढूँढ़ा, चूमकर चोली के नीचे रख लिया व दबे पाँव घर के बाहर हो गई। तारे झिलमिला रहे थे, “ओ-रे पुन्नूँ... ओ-रे पुन्नूँ!” दो दबी आहें उठीं और सस्सी भंभोर छोड़ गई।

रेगिस्तान का मार्ग पूछती, ऊँटवालों के हुलिए बताती, वह बावली बनी चलती गई। उसके होंठों से मानो कोई गम झर रहा था; उसकी आँखों से कोई निराशा टपकती थी। यात्री बातें करते, किंतु बात सुनने का सस्सी में सब्र नहीं था। उसके कानों में पुन्नूँ की ऊँटनी की घंटियाँ बजतीं, यात्रियों के मुँह से निकले इशारे पर वह उड़ने लगती।

शिखर दोपहर उसे सामने रेगिस्तान दीख पड़ा—रेत का सागर! कोई वृक्ष नहीं, झाड़ नहीं, ओट नहीं!

सामनेवाली तपती रेत पैरों को जल रही थी, उसके पैरों की मेहँदी जल रही थी। उसने सोचा, दोपहर में वह इसी ओर वृक्ष के नीचे आराम कर ले। एक प्रवाहित स्रोत से उसने शीतल जल पिया। उजड़े हुए सौंदर्य का अक्स पानी में दीख पड़ा व एक कसक सी मन में उठी, ‘प्यारे पुन्नूँ, एक बार मिल जा व उजड़ा जीवन फिर से बसा दे!’ और वह भले ही लेट गई, पर उसकी पुकार संभवतः पुन्नूँ ने सुन ली। सुगंधियों के सौदागर की दुकान सज गई। सहेलियों के साथ सस्सी आई, पुन्नूँ ने इत्र का फाहा फेरा—सोई पड़ी ने हाथ नाक पर रख लिया, श्वास रुका तो नींद खुल गई। सूर्य ढलता जा रहा था।

सस्सी उठी और उसने मील भर इधर-उधर पैरों व आँखों से रेगिस्तान का कण-कण छान मारा। अंततः उसे ऊँटों के खुरों के निशान मिल ही गए। एक खुर अलग-थलग सा छोटा!

“यह मेरे पुन्नूँ की ऊँटनी का ही खुर-चिन्ह है!”

चारों पैरों के निशानों को सस्सी ने चूमा।

“जिन पैरों से प्यारे तुम गए हो, उन्हीं खुर-चिन्हों पर मैं दिन-रात चलकर तुम्हारे पास अवश्य पहुँचूँगी!”

तारकगण झिलमिलाते रहे। सस्सी के नयन झर-झर बहते रहे। आकाश से ओसकण झरते रहे, पैरों से रेत के कण उड़ते रहे। पवन के साथ लटें बिखरती रहीं, हृदय से उसाँसें उठती रहीं। काल्पनिक घंटियों की झनकार की ताल में सस्सी चलती रही व उसके शरीर की ज्योति मंद होती गई।

जब दिन उदित हुआ तो सस्सी प्यास से बेताब थी। चाहती थी ठंडी-ठंडी जगह कहीं बैठ जाए, किंतु पानी के बिना दिल जम नहीं पा रहा था। वह चलती रही। एक हरियाली की झलक उसे दीख पड़ी। समीप पहुँची। वह मेहँदी का एक झाड़ था, किंतु पानी वहाँ नहीं था। सोचा, पानी के बिना यह वृक्ष तपती रेत में किस प्रकार जीवित है—कहीं-न-कहीं समीप पानी अवश्य ही होगा, किंतु मिला कहीं भी नहीं। इतनी देर में होंठ, जुबान ही नहीं सूख गए थे, वरन् रक्त भी सूख गया था। बेहोश होकर सस्सी गिर पड़ी।

वह जहाँ गिरी, उसके नीचे से ही मेहँदी के झाड़ों को पानी पहुँचता था। सस्सी के वजन से धरती की रेत नीचे को खिसकी, पानी ऊपर चढ़ आया, उसके सिर को तरावट पहुँची, होश लौटे, हाथों से थोड़ी रेत परे किया तो स्रोत फूट पड़ा। जान-में-जान आई और वह मेहँदी के झाड़ के समीप आई व उसमें से एक छोटी सी टहनी तोड़ लाई व उसे स्रोत पर लगा दिया। उसके पत्ते-पत्ते पर अपने हाथों से पानी छिड़का।

यह मेहँदी का बूटा, कहते हैं, अभी भी सस्सी की याद में पूजा जाता है। आशिक इसकी टहनियों को चूमते व मुरादें माँगते हैं। रेगिस्तान के प्यासे यात्रियों के लिए सस्सी ने अपनी फुरकत में स्रोत निचोड़ दिया था।

सस्सी फिर चल पड़ी कि ठंडे-ठंडे वह रेगिस्तान का कुछ मार्ग और तय कर ले व दोपहर की भट्ठी जलने के पूर्व वह कोई ठिकाना ढूँढ़ ले।

खुर-चिन्हों के सहारे वह चलती गई, रेगिस्तान पहले हल्का, फिर गरम और भी ज्यादा तपने लगा। पुन्नूँ के गले का दुपट्टा उसने पवन वेग से बचने के लिए लपेट लिया। दाएँ-बाएँ सस्सी ने नजर दौड़ाई—एक ओर उसे कोई आवास सा दीख पड़ा। उधर जाती हुई को उसे कोई गड़रिया अपनी भेड़ें सँभालता मिला।

“भाई रे! जरा ठहरना तो—मेरी बात तो सुन ले!”

गड़रिया ठिठक गया। क्या सूर्य से कुछ नीचे गिर पड़ा है—कैसा चेहरा! ऐसे चेहरे तो उसकी धरती पर होते नहीं थे!

“एक दुखियारी हूँ, वियोगिन हूँ! मौत के मुँह में जा रही हूँ—पल-दो-पल की मेहमान हूँ!”

ऐसे महान् गम को समझ तो वही सकता है, जिसे मृत्यु ने चाहे अभी देखा न हो, किंतु जीवन ने उसे तोड़-बिछोड़ छोड़ा हो। तो भी भोले गड़रिए की हर अदा उस गम के लिए बेसमझे सत्कार के साथ भर गई।

सस्सी ने उसे अपने वियोग की गाथा कह सुनाई, उससे कच-मकरान का मार्ग पूछा।

गड़रिए की समूची आत्मा पिघल पड़ी। उसे लगा कि इस महिला के लिए खड़े हो पाना कठिन हुआ जा रहा है, वह बैठ गई थी। गड़रिए ने उसे छाया में खड़ी करने के लिए हाथ पकड़ा! उसका हाथ तप रहा था।

छाया में बैठाकर गड़रिए ने कहा, “मेरी बहना, अब तुम चल नहीं सकतीं, तुम्हें सूर्य ने डस लिया है और आगे तुम्हें खुर-चिह्न भी दीख नहीं पाएँगे। कहीं-कहीं पक्की धरती भी आ जाती है...मेरे घरवाले तेरी देख-रेख करेंगे। मैं तुरंत कच-मकरान जाता हूँ। तेरे पुन्नूँ को भागकर खबर पहुँचाता हूँ।”

सौ शुक्र भगवान् का व हजार शुक्र उस गड़रिए का सस्सी ने अदा किया और कहा, “ओ मेरे अच्छे वीरा, जाकर मेरे प्यारे पुन्नूँ को कहना कि सूली चढ़ी, दर्दों से घिरी, तेरी सस्सी पागल बनी घूम रही है। बिरहा से लुटी-फटी व अकेली तेरी सस्सी अकेली भटक रही है...तेरी बस एक ही नजर को तरस रही है, आकर एक झलक दिखा जा!”

उसने सस्सी की सेवा मन में धार ली। उसका गम अब गड़रिए का गम बन गया व गड़रिया सस्सी को अपनी झुग्गी में पहुँचाकर पुन्नूँ के देश की ओर भाग खड़ा हुआ।

सस्सी भट्ठी की भाँति भुन रही थी। गड़रिए का सारा परिवार उस पर टूट पड़ा। कोई मस्तक को ठंडक पहुँचाए, कोई मुँह में पानी डाले, कोई अल्लाह-पाक से दुआएँ माँगे।

दो दिन बहुत ही कठिनाई से बीते। कई बार तो सस्सी घड़ी-पल की ही मेहमान दीख पड़ी। किंतु कोई कहता, “सामने से कुछ दिखाई दिया है!” तो जान होंठों पर आई हुई रुक सी जाती।

डेढ़ दिन जाने व आधा दिन आने का, पुन्नूँ की ऊँटनी मार्ग चीरता आएगी, सभी की आँखें मार्ग पर बिछी हुई थीं। झलक पड़ती तो हट जाते, न गड़रिया, न पुन्नूँ, कुछ और ही निकल आता।

इधर सस्सी की श्वासें घटती जा रही थीं, बोलने की शक्ति भी समाप्त होने लगी थी। किसी-किसी आवाज पर आँखें खुलतीं और फिर से भिंच जातीं।

वह ऊँटनी—काली ऊँटनी—लपकी चली आ रही है!

सस्सी की आँखें खुलीं, किंतु सामने कुछ न देखकर फिर बंद हो गईं।

काली ऊँटनी झुग्गी के बाहर आ खड़ी हो गई, उसके गले की घंटियाँ बज उठीं, सस्सी के कान मानो बज उठे हों!

ऊँटनी से दो सवार उतरे। एक गड़रिया था व दूसरे ने चीख मारकर पूछा, “ओ! बताओ मेरी सस्सी!”

भुजाओं से पकड़कर उसे सस्सी के पास ले गए।

“ओ मेरी प्यारी सस्सी रानी!”

सस्सी ने आँखें खोलीं—होंठ मुसकराए, भुजाएँ फड़कीं। उठाकर पुन्नूँ ने गले में डाल लीं। आँखें चूम लीं। इस चुंबन की ही संभवतः वे प्रतीक्षा में थीं। वे फिर नहीं खुलीं व पुन्नूँ की चीख ने सभी के दिल हिला दिए।

“हाय मेरी सस्सी!”

सारी रात पुन्नूँ सस्सी के मौन कानों में अपने भाइयों के जुल्मों के रुदन सुनाता रहा।

दिन में सस्सी के लिए कब्र खोदी गई। देखकर पुन्नूँ ने कहा, “और चौड़ी करो—अब सस्सी को मैं अकेली नहीं रहने दूँगा।”

कब्र दो गुनी चौड़ी कर दी गई। सस्सी का जनाजा उसके सिरहाने ला रखा गया। सिर व पैरों को पुन्नूँ ने बार-बार चूमा।

जनाजा कब्र में उतारा गया।

“नहीं—एक ओर को करके रखो—और अभी मिट्टी न डालो—मैं दुआ पढ़ लूँ!”

और कब्र के सिरहान बैठकर पुन्नूँ ने आँखों पर हाथ रख लिये। आँखें बंद होने की देर थी कि सस्सी कब्र में से निकल आई। विवाह वाले वस्त्र उसने पहन रखे थे। पुन्नूँ को बाँहों से पकड़कर उसने उठा लिया। उसके खिले चेहरे ने पुन्नूँ का चेहरा भी खिला दिया। सस्सी और पुन्नूँ नाचने लग पड़े। कमर छोड़ हाथों में हाथ डाल लिये व कब्र के आस-पास उन्होंने ‘किकली’ खेली, जैसी सहेलियों के साथ सस्सी के बाग में खेली थी...वे खड़े हो गए, एक-दूसरे की आँखों में आँखें डालकर उन्होंने देखा...होंठ काँपे, हृदय धड़का और बाँहें गलों में लिपट गईं...वे अलग हो गए, सस्सी ने पुन्नूँ को चूमा व चूमती-चूमती वह कब्र में जा पहुँची!

पुन्नूँ ने आँखों से हाथ हटाए—वह हड़बड़ाकर उठा, कब्र में झाँका, जनाजा उसी तरह टिका पड़ा था—सभी के मुँह की ओर देखा—उसी तरह रुँधे हुए थे। कब्र की उसने परिक्रमा की। उसके मुँह से बरबस ही ऊँची चीख निकल पड़ी—

“ओ मेरी प्यारी सस्सी रानी!”

और उसने कब्र में छलाँग लगा दी।

साभार : फूलचंद मानव

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