सर्पगान (अंग्रेज़ी कहानी) : आर. के. नारायण

Sarpgaan (English Story in Hindi) : R. K. Narayan

संगीत का कार्यक्रम समाप्त होने पर हम हॉल से बाहर निकल रहे थे। कार्यक्रम बहुत अच्छा था। हम तब तक उसे अच्छा ही सोचते रहे जब तक महाबातूनी हमें दिखाई नहीं दे गया। उसका चेहरा देखकर यह लग रहा था कि किसी हत्या-घर से बाहर निकल रहा है। हमने कड़वाहट से उसकी ओर देखा और कहा, 'हमारा ख्याल है कि आप उन कुछ विद्वानों में से हैं जो मानते हैं कि दक्षिण भारतीय संगीत तो सौ साल पहले खत्म हो गया। आप ऐसे महापुरुषों में एक भी हो सकते हैं जो कभी हमारे प्राचीन धुरंधर संगीतकारों से मिलते-जुलते रहे हों, जिस कारण ये लोग सभी आधुनिक संगीत को बचकाना और बकवास मानने लगे हैं? आप उन बेचैन सैद्धांतिकों में भी हो सकते हैं जो किसी भी नए गीत की धज्जियाँ उधेड़े बिना चैन नहीं लेते ?'

'मैं ऐसा कुछ भी नहीं हूँ।' महाबातूनी ने तुरंत उत्तर दिया। 'मैं एक ऐसा मामूली आदमी भर हूँ जो यह जानता है कि वह क्या बात कर रहा है। मैं संगीत के बारे में मुझे यह देखकर बड़ा अफसोस होता है कि संगीत का स्तर इतना गिर गया है...।"

हमने उसकी टिप्पणी का विरोध उसे चुप रहकर दरगुजर करके करना चाहा, और उसकी तरफ से मुँह फेरकर आपस में बात करने लगे। लेकिन सारे रास्ते चुप नहीं रहा, बोलता ही रहा, इसलिए हारकर हमें उसकी यह कहानी सुननी ही पड़ी :

आज मुझे इस तरह किसानों को फर्टिलाइजर बेचते देखकर आपको यह लग सकता है कि इस काम के अलावा मुझे और कुछ नहीं आता। लेकिन मैं आपको बताऊँ कि एक दिन मैं खुद संगीतज्ञ बनना चाहता था, और मैं बनने के करीब तक पहुँच भी गया। सालों पहले की बात है यह। तब मैं कुम्बुम में रहता था, जो मालगुडी से 80 मील दूर छोटा-सा गाँव है। वहाँ एक बड़े संगीतकार रहते थे। वे जब बाँसुरी बजाते थे, तब कहते हैं, खेतों से पशु वहाँ आ जाते थे। वे इस सदी के शायद सबसे बड़े संगीतकार थे, जिन्हें गाँव से बाहर कोई नहीं जानता था, क्योंकि उन्हें गुमनामी में ही संतोष था, और गाँव के मंदिर में गाना गाकर वे प्रसन्न रहते थे, और उनकी रोजी-रोटी पुरखों से मिली थोड़ी-सी जमीन से ही चल जाती थी। मैं उनके कपड़े धोता, घर में झाड़ लगाता, हिसाब-किताब लिखता, दौड़ भाग के काम करता-और जब उनका मैन होता, वे मुझे गाना सिखाते थे। उनका व्यक्तित्व और ज्ञान बहुत प्रभावी था, और यदि वे घंटे भर भी कभी मुझे सिखाते तो यह साल भर की शिक्षा के बराबर होता था। उनके इर्द-गिर्द का वातावरण ही शिक्षाप्रद था।

मेरे ऊपर तीन साल तक काम करने के बाद उन्हें लगा कि मेरा संगीत ठीक होने लगा है। वे बोले, 'और एक साल में तुम इस लायक हो जाओगे कि शहर जाकर सभा में अपना गायन प्रस्तुत कर दो-यानी अगर तुम यह सब करना चाहो तो.।" और मैं सचमुच यह करना चाहता था, मुझे गुमनामी की जिन्दगी पसंद नहीं थी। मुझे पैसा और प्रतिष्ठा दोनों चाहिए था। मैं चाहता था कि मद्रास जाऊँ, वहाँ वार्षिक सम्मेलन में भाग लें, जिससे मेरा नाम जिले-जिले में गूंजने लगे। मैं अपनी बाँसुरी को कुछ इस तरह देखता था, जैसे वह जादू की छड़ी है जो मेरे लिए सारी दुनिया खोल देगी।

मैं सड़क के सिरे पर एक छोटे-से कमरे में रहता था। रात को देर तक अभ्यास करना मेरी आदत बन गयी थी। एक रात जब मैं भैरवी राग बजा रहा था, दरवाजे पर एक दस्तक हुई। यह बाधा देखकर मुझे गुस्सा आ गया।

'कौन है?' मैंने पूछा।

'साधु... मुझे कुछ भोजन चाहिए।'

'इतनी रात गये... ! जाओ, इस वक्त आकर मुझे तंग मत करो।'

'लेकिन भूख को वक्त का ज्ञान नहीं होता।'

'तुम जाओ। मेरे पास कुछ नहीं है। मैं खुद अपने गुरु की कृपा पर रहता हूँ।'

'लेकिन तुम मुझे एक पैसा, पैसा न सही तो साधु को दया का एक शब्द नहीं दे सकते? वह काशी, रामेश्वरम् हो आया है?"

'चुप रहो, ' मैं चिल्लाया, दरवाजे को घूरकर देखा और फिर संगीत में लग गया।

पंद्रह मिनट बाद दरवाजा फिर खड़का। अब मैंने अपना आपा खो दिया, कहा, 'तुम्हें समझ नहीं आई? मुझे क्यों परेशान कर रहे हो?'

'तुम्हारा संगीत ईश्वरीय है। मुझे भीतर आ जाने दो। खाना भले ही न देना, अपना संगीत तो सुन लेने दो!"

अभ्यास करते समय मुझे किसी का सामने होना अच्छा नहीं लगता था, और यह बात मुझे बहुत खल गई। मैंने कहा, 'तुम इस तरह नहीं जाओगे तो मैं धक्के मारकर तुम्हें निकाल दूंगा।'

'कड़वे शब्द मत बोलो। तुम्हें मुझे भगाने की जरूरत नहीं है। मैं जा रहा हूँ। लेकिन याद रखना, गाने का यह तुम्हारा आखिरी दिन होगा। कल तुम अपनी बाँसुरी बाजार में कौड़ियों के मोल बेच आना।'

मैं लौटते हुए उसके पैरों की खड़ाऊँ की खटखट सुनता रहा। मुझे कुछ चैन मिला और करीब दस मिनट तक मैं गाता रहा। लेकिन उसके आखिरी शब्दों से परेशान हो उठा था. । क्या अर्थ था उसके इन शब्दों का?

मैं उठा। लालटेन दीवाल पर लगी कील से उतारी और बाहर आ गया। आखिरी सीढ़ी पर खड़े होकर लालटेन ऊपर-नीचे करके मैंने घर के चारों तरफ देखा फिर भीतर आ गया। सोचने लगा, शायद साधु फिर वापस आये। इसलिए दरवाजा पूरा बंद नहीं किया। लालटेन दीवाल पर लटका दी और फिर बैठ गया। दीवाल पर लगे देवी-देवताओं के चित्रों से प्रार्थना की, कि साधु के उन शब्दों से मेरी रक्षा करना। और फिर में धुन निकालने में लग गया।

मेरी छोटी-सी बाँसुरी से एक के बाद दूसरे गाने के स्वर निकलकर वातावरण को भरते रहे। अब मेरी बाँसुरी साधारण बाँसुरी नहीं थी, मेरी धुनें दीवाल पर लगे देवी-देवता सुन रहे थे। दीवाल पर टँगी लालटेन नक्षत्र की तरह चमक रही थी।

अब मैं 'पुन्नग वरली' का सर्पगान बजाने लगा। शिव के मस्तक पर स्थित नाग अपनी पूर्ण गरिमा में मेरे सामने दिखाई दे रहा था। उसका देवत्व मेरे समक्ष व्यक्त हो रहा था। पार्वती की कलाई पर एक नाग लिपटा हुआ था जिससे सुब्रह्मण्य खेल रहे थे। विष्णु भी नाग पर विराजमान थे.। नागों के ये सब चित्रण मन में अद्भुत आदर और भक्ति का भाव उत्पन्न कर रहे थे।

तभी मैंने देखा, द्वार के सामने एक विशाल, वास्तविक काला नाग खड़ा, अपना फन फैलाये झूम रहा है। बहुत मस्त होकर झूम रहा था वह नाग। मैंने बाँसुरी बजाना बंद कर दिया और यह जानने के लिए आँखें मलीं कि यह सच्चाई है, भ्रम तो नहीं है। मैं भी जाग रहा हूँ या नहीं? । लेकिन जैसे ही गाना रुका, नाग पलटा और मेरी दिशा में देखा, फिर आगे बढ़ा। इतना बड़ा और लंबा नाग मैंने जीवन में कभी नहीं देखा था। सुरक्षा की भावना ने आवाज दी, 'बजाते रहो, रुको मत!'

मैंने तुरंत बाँसुरी मुँह से लगा ली और फिर गाने लगा। नाग जो मुझसे तीन गज दूर था, फिर जागा, शरीर का चौथाई भाग ऊपर उठाया, अपनी गोल आँखें मुझ पर गड़ा दीं और बिना सिर हिलाये संगीत सुनने लगा। अब यह इतना शांत था, कि लग रहा था पत्थर की प्रतिमा हो!

मैं भी उसके नेत्रों में एकटक देखता बाँसुरी बजाता रहा, और उसकी गरिमा तथा चमक देखकर यह सोचता रहा कि इतने महिमामय प्राणी को देवता अपने बालों में क्यों नहीं धारण करना चाहेगा!

तीन बार यही धुन बजाकर मैंने एक नई धुन आरंभ की। नाग ने तुरंत अपना सिर घुमाया और मेरी ओर देखा, जैसे कह रहा हो, 'अब यह क्या शुरू कर दिया!" फिर एक डरावनी साँस छोड़ी और धीरे से हिला। मैं सर्पराग फिर बजाने लगा, और नाग फिर अपनी शांत मुद्रा में स्थिर हो गया।

फिर मैं यही राग बार-बार बजाता रहा। परंतु कोई राग कितना ही विशेष क्यों न हो, उसे ही एक दर्जन बार बजाकर कोई भी थक जायेगा। मैंने एक-दो बार राग बदलने की कोशिश की लेकिन ऐसा करते ही नाग मेरी तरफ घूरकर देखने लगता। फिर मैंने कमरा छोड़कर बाहर भागने की कोशिश भी की, लेकिन नाग ने तुरंत मुझे विश्वास दिला दिया कि वह मुझे अवश्य खा जायेगा।

इसलिए रात भर मैं यही धुन बजाता रहा। मेरा विशिष्ट मेहमान उठने का नाम ही नहीं ले रहा था। मैं थककर चूर हो गया था। सिर चकराने लगा था, लगातार फ्रैंकने से गालों में दर्द होने लगा था, सीने से इतनी हवा निकल चुकी थी कि वह बिलकुल खाली हो गया था। लग रहा था कि कुछ ही क्षणों में मैं जमीन पर मरकर गिर पड़ेगा। अब मुझे यह चिंता नहीं रही थी कि नाग मुझे काट लेगा और मुँह की थैली में भरा सारा विष मेरे भीतर उगल देगा। मैंने बाँसुरी फेंक दी, खड़ा हुआ और नाग के सामने सिर झुकाकर कहने लगा, 'नागराज, तुम अवश्य देवता हो! चाहो तो मुझे नष्ट कर दो लेकिन अब मैं और गा नहीं सकूँगा...।"

और मैं गिर पड़ा। जब आँखें खोली, नागदेव जा चुके थे। सुबह की रोशनी कमरे में फैल गई थी और लालटेन बुझने को आ रही थी। बाँसुरी द्वार के पास पड़ी थी।

दूसरे दिन मैंने अपने गुरु को यह घटना सुनायी। वे बोले, 'अरे, तुम नहीं जानते कि मुन्नग वरली रात को नहीं बजाना चाहिए। इसके अलावा, अब तुम यह भरोसा भी नहीं कर सकते कि तुम जो भी बजाओगे, नाग नहीं आ जायेगा। और वह आ गया तो जो वह सुनना चाहता है, उसे तुम नहीं बजाआगे तो वह जरूर तुम्हें काट लेगा।'

'नहीं, नहीं। अब मैं कभी कुछ नहीं बजाऊँगा, 'मैंने चिल्लाकर कहा। पिछली रात की याद से मैं कॉप रहा था। यह राग भी मैंने जिन्दगी भर के लिए बजा लिया था।

'यह बात है तो बाँसुरी फेंक दो और गाना खत्म कर दो। नागों के साथ तुम कुछ नहीं गा-बजा सकते। ये देवताओं के खिलौने हैं। बाँसुरी फेंक दो. यह तुम्हारे किसी काम की नहीं है।'

यह सुनकर मैं रोने लगा। गुरुजी ने मुझ पर दया की और कहा, 'अगर तुम उस साधु को कहीं ढूंढ़ निकालो और उससे क्षमा माँग लो तो भी यह संकट दूर हो जायेगा।'

मैंने बाँसुरी फेंक दी। तब से मैं उस साधु की तलाश कर रहा हूं कि कहीं मिल जाये तो क्षमा माँग लूँ। आज भी अगर वह मिल जाये तो मैं उसके पैरों पर गिर पड़ूँगा-और बाँसुरी फिर उठा लूँगा।

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