सन्त की सिखावन (प्रेरक कथा) : यशपाल जैन
Sant Ki Sikhavan (Prerak Katha) : Yashpal Jain
किसी नगर में एक जुलाहा रहता था । स्वभाव का वह बड़ा अच्छा था। सभी से मीठा बोलता था और कभी किसी से नाराज नहीं होता था । लोग उसे सन्त कहा करते थे ।
एक दिन कुछ शरारती लड़के उसके यहां पहुंचे । वे उसकी परीक्षा लेकर देखना चाहते थे कि उसे कैसे गुस्सा नहीं आता । उनमें से एक बहुत धनी आदमी का लड़का था । उसे अपने पैसे का घमण्ड था । उन लड़कों को देखते ही जुलाहे ने बड़े प्यार से कहा, "आओ, बेटा, तुम लोगों को क्या चाहिए ?"
सामने रक्खी साड़ियों में से एक की ओर इशारा करके एक लड़के ने कहा, "मुझे वह साड़ी चाहिए। उसका क्या लोगे ?” जुलाहे ने कहा, "दो रुपये ।”
उस लड़के ने वह साड़ी हाथ में ले ली और उसके दो टुकड़े कर डाले । बोला, "मुझे पूरी नहीं, आधी चाहिए। इसका क्या लोगे ?"
जुलाहे ने बड़ी शान्ति से कहा, "एक रुपया ।"
नौजवान ने उस आधी साड़ी के भी दो टुकड़े करके पूछा, "इसका क्या दाम होगा ?"
"आठ आना ।" जुलाहे ने बिना किसी प्रकार की नाराजी के कहा ।
युवक तो उसको चिढ़ाना चाहता था। वह साड़ी के टुकड़े-पर-टुकड़े करता गया, पर उस जुलाहे ने न उसको रोका, न डांटा, न माथे पर शिकन तक आने दी ।
जब साड़ी के बहुत-से टुकड़े हो गये तो हँसकर लड़का बोला, "टुकड़े मेरे किस काम के ! मैं इन्हें नहीं खरीदूंगा ।"
जुलाहे ने बिना किसी तेजी के कहा, "तुम ठीक कहते हो बेटे, टुकड़े अब तुम्हारे क्या, किसी के भी काम नहीं आ सकते ।"
युवक को उसकी इस बात पर कुछ शर्म आई। उसने कहा, "यह लो, मैं तुम्हें पूरी साड़ी का दाम दिये देता हूं।"
जुलाहे ने रुपये नहीं लिये। बोला, "मैं इन टुकड़ों को जोड़कर काम में ले आऊंगा । जब ये तुम्हारे काम नहीं आ सकते तो मैं इनका दाम कैसे ले सकता हूं !"
लड़के के ऊपर तो अपने धन का नशा चढ़ा था । उसने कहा, "मेरे पास बहुत रुपये हैं, पर तुम गरीब हो। मैंने तुम्हारी चीज खराब कर दी । उसका घाटा मुझे पूरा करना चाहिए।"
जुलाहे ने धीमी आवाज में कहा, "क्या तुम इसका घाटा पूरा कर सकते हो ? क्या तुम समझते हो कि रुपये से यह घाटा पूरा हो जायगा ? देखो, किसानों की मेहनत से कपास पैदा हुई । उसकी रुई से मेरी स्त्री ने सूत काता। मैंने उस सूत को रंगा, फिर उससे साड़ी बुनी । हमारी मेहनत तब कारगर होती जब कोई उस साड़ी को पहनता । तुमने तो उसके टुकड़े-टुकड़े कर डाले ! इतने लोगों की मेहनत बेकार गई । रुपये इस घाटे को कैसे पूरा कर सकते हैं !"
जुलाहे की आवाज में तनिक भी आवेश नहीं था । वह तो उसे ऐसे समझा रहा था, जैसे कोई बाप बेटे को समझाता है ।
लड़का पानी-पानी हो गया। उसकी आंखें भर आईं। वह जुलाहे के पैरों पर गिर गया ।
जुलाहे ने उसे उठाकर छाती से लगाते हुए कहा, "बेटा, अगर मैं लालच करके दो रुपये ले लेता तो तुम्हारी जिन्दगी का वही हाल हुआ होता, जो इस साड़ी का हुआ। वह किसी के काम न आती । अब तुम समझ गये । आगे ऐसी गलती कभी नहीं कर सकते । एक साड़ी खराब हुई, दूसरी तैयार हो सकती है, लेकिन जिन्दगी बिगड़ गई तो दूसरी कहां से लाओगे ?”
लड़का और उसके साथी बहुत शर्मिन्दा हुए और सिर नीचा करके अपने घर चले गये ।
यह जुलाहे थे दक्षिण के महान् सन्त तिरुवल्लुवर, जिनका लिखा 'कुरल' आज दो हजार वर्ष बाद भी बड़ी श्रद्धा से पढ़ा जाता है।