Sanskriti-Sangam-2 : Ramdhari Singh Dinkar

संस्कृति-संगम -2 : रामधारी सिंह 'दिनकर'

भारतीय संस्कृति के लम्बे इतिहास से जो शिक्षा निकलती है , वह यह है कि जब-जब बाहर के लोग काफी बड़ी संख्या में भारत आए , तब-तब भारतीय संस्कृति में महाक्रान्ति घटित हुई और उसका रूप पहले की अपेक्षा बहुत अधिक निखर उठा । पहली महाक्रान्ति वेदों के समय हुई जब आर्य भारत आए और भारत की आर्येतर जातियों से मिलकर उन्होंने आर्य-सभ्यता की नींव डाली । आर्य-संस्कृति , सर्वांशतः , केवल आर्यों की रचना नहीं है , प्रत्युत उसका अधिकांश अनेक आर्येतर जातियों का अंशदान है । आर्य और आर्येतर जातियों के मिश्रण से जो जनता या समाज बना , उसी को हम भारत की बुनियादी जनता या बुनियादी समाज कह सकते हैं । मुस्लिम-आगमन के पूर्व तक इस जनता से भिन्न भारत में और कोई जनता नहीं थी । यह ठीक है कि आर्यों के बाद और मुस्लिम आगमन के पूर्व तक , भारत में कितनी ही जातियों के लोग आए , किन्तु ये सब-के-सब हिन्दू होकर भारतीय जनता में विलीन होते चले गए । हाँ , जब मुसलमानों का आगमन हुआ , तब देश में एक नई परम्परा शुरू हुई , यानी आगन्तुकों के हिन्दू हो जाने के बदले हिन्दू ही नए धर्म की दीक्षा लेने गए ।

हिन्दुत्व और इस्लाम के आरम्भिक मिलन में टकराहट की कर्कशता थी , किन्तु शीघ्र ही यह कर्कशता समाप्त हो गई और दोनों धर्मों के विचारक , सन्त और कवि यह उपदेश देने लगे कि धर्म के बाहरी आचार मनुष्य-मनुष्य में भेद डालते हैं , इसलिए वे हैं । धार्मिक मनुष्य की असली पहचान यह है कि वह मनुष्य-मनुष्य में भेद नहीं मानता । भारतीय संस्कृति का रूप तभी सामाजिक हो गया था , जब आर्यों और आर्येतर जातियों ने परस्पर मिलकर एक जाति और एक संस्कृति की नींव डाली थी । बाद को , मंगोल , यूनानी , शक , हूण और मुस्लिम आगमन से पूर्व आनेवाले तुर्क जब हिन्दू हो गए , तब उनके साथ भी अनेक प्रकार के रीति-रिवाज भारतीय संस्कृति में प्रविष्ट हो गए ।

इस प्रकार , भारतीय संस्कृति की सामासिकता बराबर बढ़ती आ रही थी । जब मुसलमान आकर भारत में बस गए तब हमारी संस्कृति की सामासिकता में और भी वृद्धि हुई । बौद्ध और जैन धर्मों के कारण हिन्दुत्व , प्रायः निवृत्तिमार्गी हो गया था । किन्तु इस्लाम प्रवृत्ति का प्रेमी था । जब दोनों धर्म भारत में मिले , उनके मिलन से प्रवृत्ति और निवृत्ति के बीच एक विलक्षण समन्वय उत्पन्न हुआ जिसकी झलक हम कबीर , नानक और जायसी में तथा अन्य कारणों से वही भाव सूरदास , विद्यापति और चंडीदास की कविताओं में देखते हैं । किन्तु हिन्दुत्व और इस्लाम के मिलन का इतना ही नतीजा नहीं निकला । इस मिलन के और भी कितने ही सुपरिणाम हैं , जिनकी झाँकी हमें मुस्लिम-काल की चित्रकारी और स्थापत्य , संगीत और वाद्य तथा रहन-सहन , खान-पान , पोशाक और सामाजिक आचार में मिलती है । हिन्दुत्व और इस्लाम के मिलन से जो सामाजिकता जन्मी , वह नाजुक तो है , मगर उसकी खूबसूरती से इनकार नहीं किया जा सकता । जो विलक्षणता कमल और गुलाब के मिलन में है , महाकाव्य और प्रगीत-काव्य के मिश्रण में है , विश्वकर्मा और जौहरी के आलिंगन में है , यही विलक्षणता इस्लाम और हिन्दुत्व के मिलन से उत्पन्न हुई , जिसके सबसे जाज्वल्यमान उदाहरण आगरे का ताजमहल , रहीम के दोहे और घनानन्द तथा नजीर अकबराबादी के काव्य हैं ।

मगर एक अरसे के बाद भारतीय इस्लाम के भीतर भी प्रवृत्ति की शिक्षा मन्द पड़ गई और वह भी धीरे-धीरे निवृत्ति के उसी अँधियारे में जा फँसा जिसमें बुद्ध के बाद का हिन्दुत्व रहता आया था । ठीक उसी समय पलासी के मैदान में क्लाइव की तोपें गरज उठीं , जो एक साथ अभिशाप और वरदान , दोनों का प्रतीक थीं । अभिशाप इसलिए कि इन्हीं तोपों के मुख से भारत में गुलामी का धुआँ विकीर्ण हुआ । और वरदान इसलिए कि इन्हीं तोपों की गड़गड़ाहट से भारतवासियों की वह कुम्भकर्णी निद्रा टूटी , जो प्रायः हर्षवर्द्धन के बाद , किसी-न-किसी रूप में , बरकरार चली आ रही थी ।

जब यूरोप भारत पहुँचा , उस समय हिन्दू और मुसलमान , काफी हद तक अकर्मण्य हो चुके थे । धर्म के नाम पर वे रूढ़ियों को पूजते थे और विद्या के नाम पर दर्शन , काव्य , पुराण और कुछ चालू वैद्यक और ज्योतिष ग्रन्थों के सिवा उन्हें अपने किसी अन्य ग्रन्थ का पता नहीं था । उधर यूरोप विज्ञान और बुद्धिवाद की मशालें लिये आया था । वह अमेरिका और फ्रांस की राज्य-क्रान्तियाँ देख चुका था तथा अज्ञात देशों और समुद्रों का पता लगाकर वह एशियावालों के लिए आश्चर्य का विषय बन गया था । वह स्वतन्त्र चिन्तन का प्रेमी और ऐसी हर बात को शंका से देखने का अभ्यासी था जो बुद्धि की पहुँच से परे दीखती थी । यूरोप की सभ्यता उच्छल और जवान थी । भारतीय संस्कृति बूढी , परेशान और अपने-आपमें जकड़ी हुई थी । जब दोनों सभ्यताएँ मिलीं , तब इस टकराहट से इस्लाम और हिन्दुत्व , दोनों काँप उठे । विशेषतः अंग्रेजी पढ़े-लिखे हिन्दू नौजवान , अपने धर्म और संस्कृति से घृणा करने लगे और ऐसा दिखाई पड़ा , मानो अंग्रेजी शिक्षा के जरिए ही सारा भारतवर्ष ईसाई बन जाएगा । किन्तु इस टकराहट ने हिन्दुत्व को तुरन्त जगा भी दिया और नई परिस्थिति का सामना करने के लिए हिन्दुत्व के भीतर से नए सुधारक और सन्त उत्पन्न होने लगे। राममोहन राय, केशवचन्द्र सेन, स्वामी दयानन्द, परमहंस रामकृष्ण, स्वामी विवेकानन्द और बालगंगाधर तिलक-ये इसी जाग्रत या अभिनव हिन्दुत्व के व्याख्याता हुए हैं । इनके व्याख्यान का हिन्दुत्व वह नहीं है जो मध्यकाल अथवा बौद्धकाल में था ।

अभिनव हिन्दुत्व , निवृत्ति नहीं , प्रवृत्ति पर जोर देता है । वह संसार से भागकर वैयक्तिक मोक्ष खोजने को धर्म का सच्चा स्वरूप नहीं मानता , प्रत्युत संन्यासियों को भी वह समाज-सेवा में प्रवृत्त करता है , जिस सेवा-कार्य में असंख्य गृहस्थ लगे हुए हैं । भारतीय नारियों की जो प्रतिष्ठा वैदिक काल में थी वह भारत में फिर से वापस आ गई है और अब धर्म की एक भी कड़ी ऐसी नहीं है जो नारियों को कहीं से भी बाँधकर गुलाम रख सके ।

सभी धर्म एक हैं , इस सत्य की जैसी गहरी अनुभूति अभिनव हिन्दुत्व के पास है , वैसी दुनिया में और कभी देखी न गई थी । अभिनय हिन्दुत्व के अन्यतम साधक , परमहंस रामकृष्ण , बारी-बारी से शाक्त , वैष्णव , वेदान्ती , ईसाई और मुसलमान हुए थे , और इन सभी मार्गों की साधना करके उन्होंने जो उपदेश दिया , वह यह था कि हिन्दू , मुस्लिम , ईसाई या बौद्ध मत में कोई भेद नहीं है । अभिनव हिन्दुत्व के दूसरे व्याख्याता स्वामी विवेकानन्द ने अमेरिका में कहा था कि परस्पर एक-दूसरे के धर्म को बरदाश्त करना भी यथेष्ट नहीं है । हमें तो प्रत्येक धर्म को अपना ही धर्म मानना चाहिए । इसी प्रकार , महात्मा गांधी , अरविन्द और रवीन्द्र के प्रयोगों के भीतर से हिन्दुत्व का जो रूप प्रकट हुआ है , वह लगभग विश्वधर्म की भूमिका बन गया है । जब सांस्कृतिक जागरण होता है , जातियों के कुछ प्राचीन सत्य दोबारा जन्म लेते हैं । भारतवर्ष में उन्नीसवीं सदी में जो सांस्कृतिक जागरण या ' रिनांसा ' हुआ , उसमें वेदों और उपनिषदों के सत्यों ने पुनर्जन्म ग्रहण किया और तभी से विज्ञान के सत्यों के साथ उन्हें एक करके हम आगे बढ़ रहे हैं ।

खड़े तो हम अपनी ही जमीन पर हैं , किन्तु नवीन क्षितिज से विश्व में जितनी भी किरणें उतरी हैं , हम उन सबका आलिंगन चाहते हैं । यूरोप की कर्मठता को हम भारतीय चिन्तन-शक्ति से एकाकार करना चाहते हैं । इसीलिए भारत में हमने गृहस्थ और संन्यासी का भेद उठा दिया है । विज्ञान की सीमाएँ यूरोप में अब दिखाई पड़ने लगी हैं । किन्तु विवेकानन्द को वे उन्नीसवीं सदी में ही ज्ञात थीं । विज्ञान का हम स्वागत करते हैं और चाहते हैं कि हमारे देश में भी उसका ऊँचे-से-ऊँचा विकास हो । किन्तु भारत पहुँचकर विज्ञान की ध्वंसकता दूर हो जाएगी , क्योंकि यहाँ हम जिस मनुष्य को जन्म दे रहे हैं वह हृदयहीन नहीं होगा । भारत की विशेषता आदर्श व्यक्ति की रचना रही है । यूरोप आदर्श समाज के निर्माण में पटु है । किन्तु आदर्श व्यक्तियों की संख्या न बढ़े तो आदर्श समाज की कल्पना ही निस्सार है । भारत जिस साधना में लगा हुआ है , यदि वह सफल हुई तो विश्व के सामने एक दिन हम वह समाज उपस्थित कर सकेंगे जिसका केवल ढाँचा ही आदर्श नहीं होगा प्रत्युत व्यक्ति भी आदर्श होंगे । यूरोप में साधन और साध्य दो अलग वस्तुएँ हैं । किन्तु अपने इतिहास और गांधीजी की शिक्षा से भारतवर्ष में हम यह मानकर चल रहे हैं कि साधन और साध्य , ये एक ही वस्तु के दो नाम हैं ।

( 1956 ई . )

('वेणुवन' पुस्तक से)

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