Sanskriti-Sangam-1 (Hindi Nibandh) : Ramdhari Singh Dinkar
संस्कृति-संगम-1 : रामधारी सिंह 'दिनकर'
न जहाँ तक जाना जा सका है , भारतवर्ष का इतिहास यह मिलता है कि यहाँ द्रविड़ पहले और आर्य बाद को आए थे और द्रविड़ों के भी पूर्व यहाँ नीग्रो और औष्ट्रिक जातियों के लोग बसे थे जिनकी सन्ततियाँ आज वनों में रहती हैं अथवा अन्त्यज के रूप में देश की बाकी जनता के साथ हैं ।
भारतीय संस्कृति के मूल उत्स तक जाने की राह अभी तक नहीं खुली है , के इसकी कोई सम्भावना ही दीखती है कि वहाँ तक जाने का कोई सुस्पष्ट मार्ग कभी भी पाया जा सकेगा ! केवल अनुमान के बल पर हम जानते हैं कि आर्यों के आने के पूर्व इस देश में जो लोग बसते थे , वे सुसभ्य थे , नगर-सभ्यता के स्वामी थे और उनका धर्म भी काफी विकसित हो चुका था । इन्हीं आर्य-पूर्व भारतवासियों के नगरों का विध्वंस करने के कारण आर्यों के रण-देवता इन्द्र का नाम पुरन्दर पड़ा । और आर्य जब इस देश में बस गए तथा द्रविड़ आदि जनता के साथ उनका सम्बन्ध सुदृढ़ हो गया , तब संस्कृति का वह बुनियादी रूप तैयार होने लगा जिसे हम हिन्दू या भारतीय संस्कृति कहते हैं ।
उन्नीसवीं सदी में जब आर्यसमाज , ब्रह्मसमाज , थियोसॉफी और प्रार्थना-समाज के आन्दोलन उठे तब उन सभी आन्दोलनों के नेताओं ने इस बात पर जोर दिया कि वेद और उपनिषदें , ये हमारे देश की प्राचीनतम विद्याएँ हैं जो आज के प्रसंग में भी सत्य और सुगम्भीर हैं । थियोसोफिस्टों को छोड़कर बाकी नेताओं ने यह भी घोषणा की कि हिन्दुत्व का वही रूप सत्य है जिसका समर्थन वेदों और उपनिषदों में पाया जा सकता है । इस घोषणा के दो परिणाम निकले । एक तो यह कि हिन्दू-धर्म का पुराण-समर्थित रूप उपेक्षित हो गया और दूसरा यह कि लोग यह मानने लगे कि हिन्दुत्व की रचना उन लोगों ने की , जिन्होंने वेद रचा था ।
किन्तु अर्वाचीन अनुसंधानों से जो तथ्य सामने आए हैं , उनके बल पर अब यह अनुमान प्रबलता प्राप्त कर रहा है कि हिन्दुत्व की सारी बातें आर्यों की लाई हुई नहीं हैं , बहुत-सी ऐसी भी हैं जो पहले से ही इस देश में प्रचलित थीं और आर्यों ने उन्हें इच्छा या अनिच्छा से स्वीकार कर लिया । और स्वीकार करने का मुहावरा भी ठीक नहीं ऊँचता , क्योंकि संस्कृति जब विकसित होने लगती है तब उसका विकास प्रस्तावों के अनुसार नहीं होता । संस्कृति का विकास नैसर्गिक प्रक्रिया है और इस प्रक्रिया से कहाँ क्या परिवर्तन हो रहा है, यह बात तुरन्त जानी नहीं जा सकती। जब आर्य और द्रविड़ मिलकर एक समाज के अंग बन गए तब उनके आचार-विचार , आदतें और रिवाज भी परस्पर मिश्रित होने लगे और इस मिश्रण से जो धर्म निकला , वही भारत का सनातन धर्म एवं जो संस्कृति निकली , वही भारत की आदि ( बुनियादी ) संस्कृति हुई ।
आर्यों के आगमन के बाद से लेकर मुस्लिम-विजय के पूर्व तक वायव्य और ईशान कोण से और भी बहुतेरे लोग इस देश में आए । किन्तु उनके आगमन से भारत की संस्कृति में कोई बुनियादी फर्क न हुआ , न यहाँ की बुनियादी जनता के ढाँचे में ही कोई परिवर्तन आया । जो लोग आए , वे हिन्दू बनकर भारतीय जन-समुद्र में डूबते चले गए और उनके साथ जो आदतें और विश्वास तथा रस्म और रिवाज आए , वे वे भी भारतीय संस्कृति में पचकर उसी के अंग हो गए । यह मिश्रण इतनी सघनता से सम्पन्न हुआ कि अब यह जानने का कोई उपाय नहीं है कि हमारी संस्कृति का कौन अंश किस जाति की देन है तथा कौन विचार किस जाति के साथ आए थे । फिर भी कुछ थोड़ी-सी ऐसी बातें जानी जा सकती हैं , जिनसे अनुमान होता है कि भारतीय संस्कृति किसी एक जाति की रचना नहीं है , उसमें भारत में आकर यहाँ बस जानेवाली अनेक जातियों के अंशदान हैं ।
इस तरह का एक अनुमान यह है कि शिव की पूजा आर्यों की चलाई हुई नहीं है । वह इस देश में पहले से ही प्रचलित थी और आर्यों के घर जब आर्येतर कुल की बहुएँ आने लगी तब उनके पितृकुल के देवता भी उनके साथ आ गए । दक्ष प्रजापति के यज्ञ में सभी देवताओं के यज्ञ-भाग रखे गए , किन्तु शिव को कोई स्थान न दिया गया । इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि आर्य ऋषि शिवजी की पूजा के विरुद्ध थे । शिवपुराण , वामनपुराण और कूर्मपुराण में शिवजी-विषयक जो कथाएँ आती हैं , उनसे भी यही अनुमान निकलता है कि ऋषि-पत्नियाँ तो शिवजी की पूजा करना चाहती थीं , किन्तु ऋषि इस विषय में अपनी पत्नियों के विरुद्ध थे । और शिव की पूजा तो करो , किन्तु प्रसाद न खाओ , इस प्रसंग से भी यही ध्वनि निकलती है कि ऋषियों ने शिवजी को अनिच्छापूर्वक ग्रहण किया था ।
किन्तु यहाँ भी यह ध्यान रखना चाहिए कि ऋग्वेद में रुद्र का उल्लेख मरुतों के स्वामी के रूप में मिलता है एवं यजुर्वेद के शतरुद्रीय अध्याय में रुद्र के साथ गिरीश और शिव तथा उमा का भी उल्लेख है । किन्तु , वैदिक साहित्य में भाँग-धतूरा खानेवाले , गजाजिन पहनने और श्मशान में घूमनेवाले कपर्दी का कहीं भी उल्लेख नहीं मिलता । इसके विपरीत , मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की खुदाई में शिव की जो मूर्तियाँ मिली हैं , उनसे यह बात , प्रायः सिद्ध हो गई है कि आर्यों से पूर्व इस देश में शिव की पूजा प्रचलित थी । अतएव अनुमान यह होता है कि जैसे आर्यों ने प्रकृति के ललित रूपों पर से विष्णु की कल्पना निकाली थी , वैसे ही उसके कर्कश रूपों पर से उन्होंने रुद्र की कल्पना प्रस्तुत की थी। उधर शिवजी की पूजा जनता में पहले से ही प्रचलित रही होगी और जनता ने अपनी भावना के अनुसार शिव-सम्बन्धी अनेक प्रकार की कल्पनाएँ भी कर रखी होंगी । पीछे जब आर्य और आर्येतर जातियाँ समन्वित हुईं तब उनकी रुद्र और शिव सम्बन्धी कल्पनाएँ एकाकार हो गईं जिनके परिणामस्वरूप हमें शैव धर्म की परम्परा प्राप्त हुई है । इस अनुमान का समर्थन इस बात से भी होता है कि शिवजी के पुत्र कार्तिक और गणेश की पूजा जिस उत्साह से दक्षिण भारत में की जाती है , उस उत्साह से वह उत्तर में कहीं भी नहीं की जाती और जन-जीवन में शिवजी जैसे दक्षिण में घुले हुए हैं वैसे उत्तर भारत में नहीं । ये सारी बातें बतलाती हैं कि शिवधर्म का मूल आर्येतर जातियों के हृदय में था । आर्यों की सेवा यह है कि उन्होंने इसके दर्शन-पक्ष का विकास किया ।
और एक शैव धर्म को लेकर ही यह अनुमान खड़ा किया जाता हो सो बात नहीं है । और भी शंकाएँ हैं जिनके समाधान के लिए हमें इस निष्कर्ष पर आना पड़ता है कि हमारा धर्म और हमारी संस्कृति अनेक स्रोतों का रस पीकर बढ़ी है । उदाहरण के लिए , वैष्णवों के तीन पुराण हरिवंश , विष्णु और भागवत हैं । लेकिन इनमें से किसी में भी राधा नाम का उल्लेख नहीं मिलता । हमारे प्राचीन साहित्य में भगवान कृष्ण की बाललीला का ही वर्णन मिलता है । फिर बाद को राधा के साथ उनकी प्रेम-लीला की कहानियाँ कहाँ से आ मिलीं ? वैष्णवों का जो सम्प्रदाय एकमात्र भागवत पर आधारित है वह राधा को नहीं मानता । दूसरी ओर जो भी सम्प्रदाय भागवत के बादवाले पुराणों को मानते हैं , वे राधा को भी स्वीकार करते हैं । इसलिए यह बहुत सम्भव दीखता है कि वैष्णव धर्म में कृष्ण की बाललीला और राधा के साथ उनके प्रेम की कहानी किसी आर्येतर भंडार से आ जुड़ी है ।
और यह भी नहीं कहा जा सकता कि भारतीय संस्कृति केवल आर्यों और द्रविड़ों की रचना है । यूनानी , मंगोल , शक , कुशन , आभीर , हूण आदि जो भी जातियाँ भारत में आकर यह बस गईं , उन सबका कुछ-न-कुछ योगदान यहाँ की संस्कृति को मिला होगा । यद्यपि इसके बिलगाव का अब कोई उपाय नहीं है । और तो और , आज की वनवासी जातियों के पूर्वज औष्ट्रिक या आग्नेय जाति के लोगों से भी भारतीय संस्कृति को अनेक उपकरण प्राप्त हुए हैं । चन्द्रमा को देखकर तिथि गिनने का रिवाज आग्नेय सभ्यता की देन है तथा पूर्ण चन्द्र के लिए राका एवं नए चाँद के लिए कुहू , ये शब्द भी आग्नेय भंडार से आए हैं । कहते हैं , फसल देखकर पुनर्जन्म की कल्पना भी आग्नेय लोगों ने ही की थी । और तो और , भाषातत्त्वज्ञों का कहना है कि हो न हो , स्वयं गंगा शब्द आग्नेय शब्द-भंडार से आया होगा ।
देवर और देवरानी तथा जेठ और जेठानी की प्रथा भी , शायद , आग्नेय लोगों से आई है । सिन्दूर का प्रयोग और अनुष्ठानों में नारियल और पान रखने के रिवाज भी सम्भवतः आग्नेय रिवाजों के यादगार हैं । आग्नेय जाति के लोग देवता के सामने बलिदान किए गए पशु के रक्त को मस्तक में लगाने को शुभ मानते थे। वही रिवाज सिन्दूर लगाने की प्रथा में बदल गया ।
शास्त्रानुसार , प्रेतों की पूजा निषिद्ध है । ग्रामदेवता और देवियों के पूजकों को मनु ने नाना स्थानों पर पशु कहा है । किन्तु ग्रामों में अब ब्राह्मण भी भूत-प्रेत और ग्रामदेवता की पूजा करते हैं । अवश्य ही यह प्रेत-पूजा आग्नेय सभ्यता की देन रही होगी ।
अनेक उदाहरणों में से ये कुछ थोड़े-से दृष्टान्त हैं , जिनसे पता चलता है कि भारतीय संस्कृति की रचना में उन सभी जातियों ने हिस्सा लिया है जो यहाँ आकर हिन्दू-वृत्त में सम्मिलित हो गईं । जब तक मुसलमान विजेता बनकर न आए थे , तब तक इस देश में संस्कृति केवल एक थी । हाँ , उनके आने के बाद यह दो संस्कृतियों का देश हो गया । किन्तु ज्यों-ज्यों समय बीतता गया , इन दोनों संस्कृतियों की पारस्परिक दूरी कम होती गई तथा भारतीय इस्लाम अन्य देशों के इस्लाम से ईषत् भिन्न हो गया , क्योंकि निम्न वर्ग के जो लाखों हिन्दू-मुसलमान हुए , उनके साथ हिन्दुओं की अनेक आदतें इस्लाम में प्रविष्ट हो गईं । यह भी सत्य है कि बदले में इस्लाम का भी यत्किंचित् प्रभाव हिन्दुत्व पर पड़ा । परिणाम यह है कि आज के हिन्दू और मुसलमान आपस में उतने भिन्न नहीं हैं , जितने पठानों के राज्यकाल में रहे होंगे । अपने देश के भीतर रहने पर हिन्दू और मुसलमान अपनी भिन्नता का थोड़ा-बहुत ध्यान रख सकते हैं , किन्तु यदि दोनों अरब या ईरान पहुँच जाएँ तो वहाँ के लोग दोनों को हिन्दुस्तानी ही कहेंगे । क्योंकि कोई भी हिन्दुस्तानी मुसलमान अरबों और ईरानियों के बीच केवल इस कारण नहीं खप सकता कि धर्म से वह मुसलमान है ।
संस्कृति का स्वभाव है कि वह आदान-प्रदान से बढ़ती है । जो जाति केवल देना ही जानती है , लेना कुछ भी नहीं , उसकी संस्कृति का एक दिन दिवाला निकल जाता है । इस सम्बन्ध में दोनों प्रकार के उदाहरण हमें अपने ही देश में मिल सकते हैं । जब भारतवर्ष , सचमुच , महान था तब यहाँ के लोग संस्कृति के क्षेत्र में परहेज की भावना से पीड़ित नहीं थे । उन्हें अन्य जातियों से ज्ञान ग्रहण करने में लज्जा नहीं आती थी । यूनानियों को हमने थोड़ा-सा दर्शन सिखाया था , किन्तु बदले में उनसे हमने ज्योतिष की कितनी ही बातें सीख ली थीं जिसके प्रमाण हमारे ज्योतिष के रोमक-सिद्धान्त और होराचक्र हैं । होरा , कौ j , जूक , लेय आदि कितने ही शब्द यूनानी ज्योतिष से आए हुए हैं । संस्कृत का स्वयं ' केन्द्र ' शब्द यूनानी ‘ केंटर ' से आया हुआ है ।
इसी प्रकार , हमने अरबों से भी ज्योतिष की बहुत-सी बातें ग्रहण की जिनमें से सर्वप्रधान मासफल और वर्षफल निकालने की ताजक-पद्धति है जिस पर अपने यहाँ बीस-पच्चीस ग्रन्थ लिखे गए थे , और बदले में हमने पहले अरबों को और फिर उनके द्वारा यूरोप को गणित और दर्शन की कितनी ही बातें सिखाईं । आज हम जिन अंकों को अन्तर्राष्ट्रीय कहते हैं, वे असल में भारतवर्ष में जनमे थे। यहीं से वे पहले अरब गए और अरब के ही द्वारा वे यूरोप को प्राप्त हुए थे । अरबी में आज भी अंक की संज्ञा हिन्दसा है ।
किन्तु , जब से हमने संस्कृति के क्षेत्र में परहेज की नीति अख्तियार की , हमारा पतन होने लगा । बहुत-सी वनवासी जातियाँ ऐसी हैं जो सभ्यता के सम्पर्क में आने से भय खाती हैं । यह भय उनकी संस्कृति को हानि पहुँचा रहा है । और यही हानि उनकी संस्कृति की भी होगी जो आसपास की संस्कृतियों से छूत मानते हैं । छुआछूत की भावना और सबसे बचकर अलग बैठने का भाव संस्कृतियों को ले डूबता है ।
प्राचीन भारत आसपास की दुनिया में जगद्गुरु समझा जाता था , किन्तु साथ ही वह जगत्-शिष्य भी था । विचित्रता की बात यह है कि जब तक सिखाने के साथ खुद भी कुछ सीखने की भावना उसमें बनी रही , संसार में उसका गुरुरूप ही प्रधान रहा । किन्तु जभी उसके भीतर यह जड़ता या अहंकार जाग्रत हुआ कि हम दूसरों को तो शिक्षा देंगे , किन्तु स्वयं किसी से कुछ सीखने न जाएँगे , तभी भारत का पतन आरम्भ हो गया । और जो सीखने को तैयार नहीं है , वह धीरे-धीरे सिखाना भी भूल जाता है । तभी तो संस्कृति के नेताओं ने भारत में यह नियम चला दिया था कि शूद्र यदि वेद का मन्त्र सुन ले तो उसके कान में गला हुआ राँगा डाल दो ।
( सन् 1956 ई . )
('वेणुवन' पुस्तक से)