संकट : फणीश्वरनाथ रेणु

Sankat : Phanishwar Nath Renu

मैं यह नहीं कहता कि मेरा 'सिक्स्थ-सेंस” बहुत तेज है।

आदमी को यह विशेष ज्ञान नहीं दिया है, प्रकृति ने। पशुओं में, कुत्ते की षष्ठेन्द्रिय बहुत सक्रिय होती है।

मैं, आदमी होकर यह दावा कैसे कर सकता हूँ ?

किन्तु, प्राणी विज्ञान के विशेषज्ञों के नाम, कभी किसी अखबार में एक पत्र लिखकर-एक सूचना देने की इच्छा अवश्य है कि पशु-पक्षी पालनेवाला-खासकर कुत्ता पालने में धीरे-धीरे षष्ठेन्द्रिय-ज्ञान का विकास हो जाता है।

आदमी भी सूँघकर-अशरीरी छायाओं का पीछा कर सकता है।

वह भी आनेवाले संकट की घंटी चौबीस घंटा पहले ही सुन सकता है।

संक्रामक रोग, सामूहिक शोक अथवा आँधी-तूफान की सूचनाएँ-उसे भी पहले ही मिल जाती हैं।

उसकी अन्य किसी बुद्धि का लोप हो जाता है अथवा अन्य इन्द्रियाँ शिथिल होती हैं या नहीं, कह नहीं सकता!

कटिहार जंक्शन पर सुबह आँखें खुलीं। खिड़की की झिलमिली उठाकर, कूहरे में लिपटे हुए, रेलवे-यार्ड, मालगाड़ियों के डिब्बे, शंटिंग करते हुए इंजनों को देखता हुआ-प्लेटफार्म पर मैंने काँच को गिरा दिया।

हवा का पहला झोंका-ठंडा-गरम, खुशबू-बदबू...संकट की गन्ध लगी? सं...क...ट ?

हाँ, संकट की गन्ध ही है। कटिहार के इस प्लेटफार्म पर मैंने इसके पहले भी कई बार संकटों को पहले ही गँथा है।

प्लेटफार्म पर ही नहीं-सारे स्टेशन और बाजार, ओवरब्रिज, आसपास के क्वार्टरों पर संकट की छाया को छू-छूकर मैंने अनुभव किया है। जाना है कि पेड़, सिगनल, मैदान, कौआ, खलासीटोले का हनुमानजी का पताका-सभी दम साधकर प्रतीक्षा में हैं। कोई भारी आँधी आनेवाली है? महामारी ?...बम ?

सन्‌ 1940-41 : ठीक इसी मौसम में, सुबह को ही इस स्टेशन के इसी-चार नम्बर प्लेटफार्म पर पहली बार ऐसी अनुभूति हुई थी। दो दिनों की यात्रा के बाद- अवध-तिरहुत रेलवे की गाड़ी, हमें बनारस कैंट जंक्शन से ढोकर-कटिहार जंक्शन पर पहुँचा जाती। कटिहार पहुँचते ही हमें लगता, घर की डूयोढ़ी पर पहुँच गए।

प्लेटफार्म पर एकत्र भीड़ का एक-एक आदमी हमारे घर का है।

सभी जाने-पहचाने लगते।

रास्ते की सारी थकावट दूर हो जाती। मन में रह-रहकर गुदगुदी लगती।

आज भी, ऐसा ही होता है।

उस बार, प्लेटफार्म पर भरथजी को देखकर पहले प्रफुल्लित हुआ था।

फिर, एक अज्ञात आशंका हुई थी-इतने दिनों के बाद घर लौटा हूँ।

पता नहीं, भरथजी कौन-सा प्रोग्राम लेकर... ।

हम उन दिनों नाम के लिए पढ़ते थे। यानी हम पढ़ने का, बहाना बनाकर- 'राष्ट्री” काम करते थे। देश का काम हम, विभिन्‍न राजनीतिक दलों द्वारा संचालित स्टुडेंट फेडरेशन के सदस्य, उन दिनों अपने-अपने दल का सन्देश हर कॉलेज में सुनाते फिते।

लीडरी करने के लिए सभी नुस्खे, अपने दल के बड़े नेताओं और कामरेडों से हम सीख चुके थे। कोकटीखादी का गेरुआ पाजामा और कुर्ता, चप्पल और सिगरेट- मैं किन्तु सिगार पीता था-'टेट” वर्मा चूरुट!

कामरेड बोखारी के पहनावे-ओढ़ावे ने मुझे काफी प्रभावित किया था। वह सिगार पीता था।...लाल-लाल पतले होंठों पर- काला सिगार!

भरथजी, हमारी मूल पार्टी के सदस्य थे।

हालाँकि, हमारा सम्बन्ध तत्कालीन

यू.पी. और अभी के उत्तर प्रदेश के नेताओं से था।

लेकिन, भरथजी की दौड़ बनारस-कानपुर तक थी।

हर दो या तीन महीने बाद भरथजी अचानक किसी दिन पहुँचते थे।

वे अक्सर रात को हमारे होस्टल में आते।

अपने चारों ओर एक रहस्य, एक गुप्त-आवश्यक प्रोग्राम, एक गश्ती-चिट्ठी-एक सतर्क व्यक्तित्व लेकर।

हर बार उन्हें कुछ रुपयों की आवश्यकता होती, जिसकी व्यवस्था करने के लिए हमें कभी-कभी चोरी भी करनी पड़ती।

उन दिनों किसी-न-किसी रूप से स्टोव, अँगूठी, घड़ी या कलम गुम हो जाया करती। लेकिन, ऐसा तभी होता जब हममें से किसी के पास भरथजी की आवश्यकता-पूर्ति के लिए या-सिगरेट पीने के भी पैसे नहीं होते!

किन्तु, यह भी सच है कि भरथजी के लिए पैसे जुटाने के काम को भी हम देश का काम समझते थे। इसलिए, उन चोरियों को पाप नहीं-पुण्य मानते थे।

किन्तु, उस बार भरथजी को अपने होम-डिस्ट्रिक्ट के प्रिय जंक्शन पर देखकर आशंका हुई थी। मन में झुँझलाहट भी हुई थी ।

इतने दिनों के बाद घर लौट रहा हूँ। नया चूड़ा, नया चावल, नई साग-सब्जी, नया गुड़, नवान्न, श्रीपंचमी और मेलों का आनन्द, सिर्फ एक महीने में कितना-सा उपभोग कर सकता है कोई।

और रू भी कोई प्रोग्राम लेकर पहले से ही भगरथजी उपस्थित हैं! पता नहीं, कहाँ जाना पड़े ?

, भरथजी की मुस्कुराहट देखकर हम सबकुछ भूल गए। असल में भरथजी को देखते ही हमारी, खासकर मेरी हालत तेलचटूटे की तरह हो जाती, जिसे 'भिडिंग” या “कुभ्टार-ततैया” नामक घोर नीला और चमकीला भौंरा अपने सूँड से अन्धा कर देता है। फिर खींचता हुआ अपने मिट्टी के घर में ले जाता है और बाद में सुना है-अपने ही जैसा 'भिडिंग” बना डालता है।

कितनी बार देखा है, तेलचट्टा भागने की कोशिश करता है। मगर, अन्धा तेलचट्टा किधर भागे ?

उस दिन भी कुहरे की मसहरी को उठाकर सूरज ने खुले प्लेटफार्म पर रोशनी के दी थी। भरथजी हैँसे थे-हुँ!

देखता हूँ साथ में विश्वनाथ महाराज का 'परसाद' मैं कुनमुनाया था-जी!

माँ के लिए हर बार यह सब और गंगाजल ले जाना पड़ता है।

मैं लज्जित हुआ था कि मेरे पास विश्वनाथ का 'परसाद”' और काशी की गंगा का जल” है। जी हुआ था खिड़की से बाहर फेंक दूँ, इन्हें। मगर, भरथजी ने भाँपकर कहा-मदर से इसके एवज में पैसे वसूलते हो या नहीं ?

अरे कहते क्यों नहीं कि हर

बार पण्डा दस रुपए दक्षिणा लेता है। और, एक झारी गंगाजल के लिए घाट के पंडा को पाँच रुपए...।

भरथजी जोर से हँसे थे। और, मैंने उस बार घर पहुँचकर पन्‍्द्रह रुपए का हिसाब सुना दिया था माँ को-पन्द्रह रुपए टैक्स के लगे हैं। माँ को अचरज हुआ तो कह दिया-जानती नहीं, लड़ाई शुरू हो गई है। वार फंड में आखिर पैसा कैसे जमा करेगी अंग्रेजी सरकार ?

भरथजी का प्रोगाम? उन्होंने कहा था-एकाध दिन कटिहार आ जाना। मैं यहीं मिलूँगा-अन्नपूर्णा होटल में।

जब तक बनारस में रहता-मन गाँव के लिए मचलता रहता। घर पहुँचकर, दो-चार दिनों में ही सबकुछ फीका-फीका लगने लगता। आवारा-मन उचट जाता। फिर, किसी-न-किसी बहाने घर से फिरंट!

उस बार कटिहार आकर मालूम हुआ कि भरथजी एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य से कटिहार में कैम्प डाले हुए हैं। मेरे पहुँचने पर वे बहुत खुश नहीं थे। उन्होंने बतलाया था कि पिछले कई दिनों से इस गली की नुक्कड़ पर एक आदमी उनको 'वाच' कर रहा है।...तुम आ गए हो, ठीक है। मैं अब कई दिनों तक स्टेशन नहीं जाऊँगा।

दूसरे दिन मुझे महत्त्वपूर्ण कार्य की जिम्मेदारी देते हुए कहा था-देहाती की तरह सभी से बोलना-बतियाना। सबको बाबू-बाबू कहकर बात करना। काम कुछ नहीं था। रोज कितनी गाड़ियाँ-मिलेटरी-स्पेशल पास करती हैं, देखना। बस, देखना! मैंने जिरह किया-बस देखना ?

हॉँ। बस देखना!

उसी दिन, पहली बार आसमान में करीब पचास हवाई-जहाजों को जाते देखा। उसी दिन देखा-स्टेशन की छत से लेकर फर्श तक कालिख पोता जा रहा है। खिड़कियों और बिजली के बलबों को अन्धा किया जा रहा है। पहली बार सुना और रात में देखा-ब्लैक आउट!

उस दिन कड़ाके की सर्दी पड़ी थी। मगर, स्टेशन अथवा शहर में, कहीं बाहर में अलाव नहीं नजर आ रहा था।

दिन में ही पता चल गया था-रात साढ़े-दस बजे

तक मिलेटरी-स्पेशल है! तार-बाबू ने छोटे तार-बाबू को चार्ज देते समय कहा था, बंगला में-साड़े दश टाय।

दीवारों पर, बड़े-बड़े पोस्टर चिपके हुए थे। “अफवाहों पर कान मत दीजिए'- “आपकी बात दुश्मन के फायदे की हो सकती है'-“अफवाह फैलानेवाला दुश्मन है!

रोज, आसाम की ओर जानेवाले मिलेटरी-स्पेशलों को देखता। प्लेटफार्म पर फौजियों के सामूहिक लंगर, भोजन। विभिन्‍न रंगों, जातियों, देशों के लोग। समाज के चुने-चुनाये, स्वस्थ-सुगठित शरीरवाले नौजवान-जिन्हें मिलेटरी कहते हैं-पेट के लिए अपनी जान देने जा रहे हैं। अंग्रेजी सरकार की फौज!

हठातू, एक दिन मैं डर गया। मैंने भरथजी से कहा-भरथजी! मुझे सबकुछ अजब-अजब-सा लगता है। मुझे लगता है, मैं भी किसी दिन चला जाऊँगा, किसी मिलेटरी-स्पेशल पर चढ़कर!

मैंने पूछा था, साहस बटोरकर-आखिर, रोज-रोज मिलेटरी-गाड़ी देखने से हमारी पार्टी का क्या फायदा होगा?

भरथजी ने मुझे छुट्टी दे दी-तुम अब घर जा सकते हो।

लेकिन, मैं घर नहीं गया। नहीं जा सका।

अँधेरे में प्लेटफार्म पर, रात ग्यारह बजे तक बेकार इधर-उधर खड़ा होकर लोगों से, सौनोली जानेवाली गाड़ी या मनिहारी से आनेवाली गाड़ी अथवा जोगबनी की ओर जानेवाली गाड़ियों के बारे में पूछताछ करने का नशा सवार हो गया था, मानो।

लेकिन, मैं भीषण डरा हुआ था। चारों ओर एक अद्भुत छायाओं से घिरा हुआ पाता था, अपने को। मिलेटरी-गाड़ियों और पैसेंजर ट्रेनों के प्लेटफार्म छोड़ने के बाद, लगता-हर गाड़ी में मेरा अपना आदमी चला गया है, कोई। जो अब नहीं लौटेगा।

जिन्हें अब कभी नहीं देख पारऊँगा। वह मराठा रेजीमेंट का नौजवान, जो सोरावजी रेस्ट्र में 'पिक्ल” खोजने आया था, वह बिना अँचार खाए ही मर जाएगा।

गोरखा, बलुच, जाट, राजपूत। सौनोली की ओर जानेवाली एक पार्सल ट्रेन में जो बच्चा रो रहा था उसकी आवाज मेरा पीछा करती रही।

मैंने भरथजी से कहा, “मुझे लगता है, बहुत जल्दी ही हमला होगा.!” भरथजी मेरा मुँह देखने लगे थे, “कहीं सुना कुछ?” “नहीं! मुझे लगता है।”

और, उसके दो-तीन दिन बाद ही बर्मा पर जापानियों ने चढ़ाई कर दी। भरथजी दो-तीन दिनों के लिए पटना गए। उनके बदले में दो साथी आए-रहीम साहब और चनरभूसन।

दस-पन्द्रह दिनों के बाद ही चारों ओर कोहिमा, इम्फाल, डुमडुमा नामों की डुगडुगी हर आदमी के कानों के पास बजने लगी।

जिधर मिलेटरी-स्पेशल जाती थी अर्थात्‌ आसाम की ओर से अब आने लगीं भरी गाड़ियाँ-लदी गाड़ियाँ-'इवैक्ची' शब्द उसी दिन पहली बार सुना!

देतीं रोज तीन-चार गाड़ियाँ आती और प्लेटफार्म पर हजारों नर-नारियों को उतार देती ।...थके, हारे, भागे, बीमार, परिवार से बिछुड़े, भूले, अधपगले इन्सान!

पार्टी के आदेश पर हम सभी, विभिन्‍न सार्वजनिक सेवा-समितियों के वालेण्टियर हो गए। मैं भारत-रिलीफ सोसायटी का स्वयंसेवक बना और रहीम साहब केन्द्रीय सेवा-समिति में गए।

क्यो लेकिन, मैं अपने साथियों में सबसे बड़ा कापुरुष और रिएक्शनरी निकला।

क्योंकि “मृतक सत्कार विभाग' में दस दिनों तक रहकर भी मैं कुछ 'संचय' नहीं कर सका। असल में हम सेवा कर रहे थे-'कलेकसन' के लोभ में।

जो भी मिल जाए- सोना, चाँदी, बर्तन, कारतूस, बैटरी, घड़ी। चनरभूसन इस मामले में सबसे ज्यादा मिलिटेंट निकला। उसने और सिर्फ उसी ने सबसे ज्यादा कलेकसन किया था ।

कोई उस तरह, अपने गुप्तांग में कीमती पत्थरों की छोटी पोटली छिपाकर रख सकता है, भला?

चनरभूसन मृतक सत्कार समिति में हो गया था।

बनजरवा मेहतर से उसने यह शिक्षा ली थी। हर मुर्दे को उलट-पुलटकर टटोलकर देखने की कला में वह प्रवीण हो गया था।

दिन-रात चीख-पुकार, आह-कराह, पागलों के प्रलाप, हँसी के बीच मिलेटरी-गाड़ियाँ जातीं।

चनरभूसन एक टोमीगन चुराने में सफल हुआ। मैं एक बीमार पंजाबी लड़की के प्रेम में पड़ गया । उसका घरवाला सबकुछ खोकर उसके साथ कटिहार तक आया।

मगर, उससे आगे नहीं चल सका। कैम्प-अस्पताल में उसको मरते हुए मैंने देखा था।

उसकी बीमार बीवी को खबर भी मैंने ही सुनाई थी।

वह कुछ नहीं बोली थी। चुपचाप मुझे देखती रही । फिर, मुँह में चुहनगम की तरह कोई चीज डालकर उससे दाँत रगड़ने लगी थी।

चनरभूसन ने कहा था-तुम अस्पताल की डूयूटी के भी काबिल नहीं। रहीम जाएगा तुम्हारे बदले।

रहीम ने उस पंजाबी लड़की के ब्लाउज के अन्दर हाथ डालकर बठुआ निकाल लिया था जिससे, सिर्फ दस रुपए का एक नोट निकला था। एक ताबीज!

वह लड़की जिस दिन मरी, मैं घर भाग आया। भाग आया मुजरिम की तरह। लगा, मैंने ही उसके स्वामी का गला टीपकर मार दिया है! मैंने उस, बीमार औरत की अस्मत लूटी है। मैंने, हमने। हम सभी ने मिलकर !...ताबीज मेरे पास है, आज भी।

सात साल बाद-दूसरी बार संकट की सूचना मिली। सूचना नहीं, आभास मिला! इस बार, गाड़ियों में लतकर जो लोग आए उन्हें 'रिफ्यूजी! कहा गया। भरथजी बहुत बड़े नेता हो चुके थे। चनरभूसन भी बहुत बड़ा मजदूर नेता हुआ, रहीम साहब दंगे में मारे गए और मैं कापुरुष कुछ नहीं कर सका। चार साल तक जेल में सिर्फ उसी पंजाबी लड़की की लाश के पास में लेटकर काट दिया । कोई लिटरेचर, कोई शास्त्र नहीं पढ़ा। न किसी से लड़ा, न किसी का विरोध किया।

शरणार्थियों की सेवा का अवसर मिला। कटिहार, पार्वतीपुर के कई कैम्पों में महीनों सेवा करता रहा। हाँ, इस बार भी कई पार्टियों के स्वयं-सेवक थे। हमारी पार्टी के भी थे। मानो, इस बार मुझे अन्तिम अवसर दिया गया था।

पार्वतीपुर के कैम्प में मैं एक दिन फूट-फूटकर रो पड़ना चाहता था। बेवजह!

किन्तु, मैं रोया, दाँत को चुहनगम-जैसे पदार्थ से साफ करती हुई, उस लाश के सामने मैं रो नहीं सका । चुपचाप, एक कागज पर रोने लगा। कई दिनों तक रोया-रोता रहा।

पार्ट में एक ऐसे तबके के लोग भी थे जो बैठे-बैठे ही तीर-कमान छोड़ते थे। कई वर्षों के बाद, इसी वर्ग के एक साथी ने, चुराकर मेरा वह रोना पढ़ना शुरू किया और रोने लगा। उसने कहा-यार, यह तो लिटरेचर है! यह समाजवादी-यथार्थवाद का उत्कृष्ट उदाहरण है।

किन्तु, डॉक्टरों ने मेरे घरवालों को राय दी कि काँके में कुछ दिन रखकर देखिए। अभी शुरूआत है। सही भी हो सकता है दिमाग!

इस बार, फिर कटिहार जंक्शन पर मैंने वैसी ही अशरीरी छायाएँ देखी हैं--बहुत दिनों के बाद। और, मैं जानता हूँ कि ये सारे लक्षण वही हैं।...संकट के बादल नहीं, पहाड़ टूटनेवाला है। मैं कहता हूँ, मैं कहता हूँ...।

मगर, एक बार जिसे पागल करार दे दिया जाए, उसकी बात पर जीवन-भर कोई ध्यान नहीं देते।

मैं कुत्ते की तरह धरती सूँघता हुआ चला जाऊँगा, किसी दिन-किसी भी तरफ! आसपास ही कहीं वह पंजाबी-इवैक्वी लड़की दफनाई गई थी। पासवाले बाग में ही रिफ्यूजी सावित्री एक खेमे के अन्दर धीरे-से कराह उठी-मरे गेलाम! सभी प्रतीक्षा कर रहे हैं-वेटिंगरूम में।

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