संघमित्रा (नाटक-एकाँकी) : रामवृक्ष बेनीपुरी
Sanghmitra (Hindi Natak-Ekanki) : Rambriksh Benipuri
संघमित्रा
सम्राट अशोक की सुपुत्री संघमित्रा उनकी आज्ञा पर भिक्षुणी बनकर सिंहल गई
और वहाँ बुद्ध के शांति-धर्म का प्रचार किया।
संघमित्रा बोधिवृक्ष की जिस डाल को लेकर सिंहल गई थी, वह या उसका वंशज
अश्वत्थ वृक्ष आज भी सिंहल में जीवित है।
इस छोटे से एकांकी में मैंने उसकी घटना को चित्रित करने की चेष्टा की है।
हाँ, मैंने उसके मूल उत्स को खोजने का भी प्रयत्न किया है। अशोक के
धर्म-परिवर्तन में कलिंग का स्थान रहा है, यह तो सर्वविदित है; किंतु
संघमित्रा ने भिक्षुणी बनना क्यों स्वीकार कर लिया ? क्या सिर्फ पिता का
आज्ञापालन ही इसमें कारण रहा है ? या कहीं उसके हृदय में कोई अपना
अंतर्द्वंद्व भी था ? केवल आज्ञापालन की भावना इतना बड़ा परिवर्तन कराने
में तो प्रायः असफल रही है !
‘‘रहने दो, रहने दो ; इतिहास के पन्ने को बंद ही रहने
दो !’’ इस वाक्य से यह नाटक समाप्त होता है। इसी
पन्ने को मैंने थोड़ा-सा उलटकर पाठकों के सामने रख दिया है।
इसका अधिकार मुझे था ? किंतु कलाकार तो प्रायः ही अनिधिकार चेष्टा कर
बैठता है न !
संघमित्रा :1:
[सम्राट् अशोक के राजाप्रसाद का एक कक्ष। सम्राट के पुत्र महेंद्र और उनकी
पुत्री मित्रा, जो पीछे चलकर संघमित्रा के नाम से प्रसिद्ध हुई, परस्पर
बातें कर रहे हैं।]
संघमित्रा : हाँ, तो फिर क्या हुआ भैया ?
महेंद्र : महीने पर महीने बीतते गए, हमारा घेरा मजबूत होता गया, कसता गया।
हमने ऐसी स्थिति ला दी कि उनकी राजधानी के अंदर न एक छँटाक अन्न पहुँच
पाए, न एक चुल्लू पानी।
संघमित्रा : ओह ! वे बेचारे ! भैया, फिर क्या हुआ ?
महेंद्र : उनकी राजधानी में पहले कोलाहल-कोलाहल था, फिर सन्नाटा छाने
लगा—मृत्यु का सन्नाटा !! जब मृत्यु सामने होती है, आदमी भीषणतम
संकल्प पर उतारू हो जाता है, मित्रे !
संघमित्रा : उन्होंने भी भीषणतम संकल्प किया ! क्या संकल्प किया, भैया ?
महेंद्र : एक दिन उनके दुर्ग का फाटक खुला, वे निकले ! ताँबे के रंग के वे
लोग ! वे आदमी नहीं मालूम होते थे, ताँबे की जीवित
प्रतिमाएँ—सुघर, सुंदर, चमकीली—
संघमित्रा : कलिंग के लोग सचमुच बड़े सुंदर होते हैं, भैया !
महेंद्र : सुंदर और बहादुर भी। वे ताँबे की प्रतिमाएँ गुस्से में लाल
अंगारे-सी दहकती मालूम पड़ती थीं। सबके हाथ में हथियार, सबके मुँह में
जयनाद ! कलिंग की वाहिनी हम पर इस तरह टूटी जैसे भूखे शेर शिकार पर टूटते
हैं।
संघमित्रा : भूखे शेर—शिकार पर ! ओहो ! (भय-मुद्रा)
महेंद्र : हाँ-हाँ, वे ऐसे टूटे जैसे भूखे शेर शिकार पर। दिन भर घमासान
लड़ाई होती रही, मित्रे ! ऐसी लड़ाई जिसमें एक पक्ष ने तय कर लिया हो कि
वे या तो मरेंगे या मारेंगे—नहीं, मारकर मरेंगे। क्योंकि
कलिंगवाले समझ गए थे, वे जीत नहीं सकते और पराजय की अपेक्षा उन्होंने मरण
का वरण किया था।
संघमित्रा : तब तो सचमुच बड़ी घमासान लड़ाई हुई होगी, भैया !
महेंद्र : बड़ी घमासान ! जब शाम को हम विजयी हुए तो पाया, हम मुर्दों के
देश के राजा हैं। उफ, रक्त का समुद्र हिलोरें ले रहा था; मानवता चीख-पुकार
कर अंतिम दम तोड़ रही थी !
संघमित्रा : रक्त का समुद्र ! ओह !
महेंद्र : हाँ; हाँ, मित्रे, रक्त का समुद्र ! जिसने उस समुद्र को देखा,
किसी का कलेजा स्थिर नहीं रहा। पिताजी फूट-फूटकर रोने लगे।
संघमित्रा : (आश्चर्य में) पिताजी रोने लगे ?
महेंद्र : हाँ, मित्रे, रोने लगे, बच्चों-सा बिलख-बिलखकर। जिन्होंने अपने
सौ भाइयों की हत्याएँ करवाई थीं, हर हत्या पर उत्सव मनाया था, जिनकी वीरता
क्रूरता की भी सीमा पार कर गई थी, वे ही पिताजी बच्चों-से बिलख-बिलखकर
रोने लगे। और हिचकियों में कहा—चलो पाटलिपुत्र, आज से हम युद्ध
नहीं करेंगे !
संघमित्रा : हाँ, सुना है; और आप लोग चले आए !
महेंद्र : नहीं ! उस समय संध्या हो चली थी। पिताजी ग्लानि में युद्धभूमि
से लौट रहे थे। मैं उनके साथ था; कि अकस्मात् कुछ शब्द हुआ, और हमने पाया
जैसे मुर्दों के बीच से कोई उठ खड़ा हुआ हो !
संघमित्रा : मुर्दों के बीच से कोई खड़ा हुआ हो !—आप लोग डर गए
होंगे, भैया !
महेंद्र : पगली, मर्द डरा नहीं करते !
संघमित्रा : मर्द नहीं डरते ! ओहो ! अच्छा, तो आगे क्या हुआ, भैया ?
महेंद्र : मालूम हुआ, एक लाश उठ खड़ी हुई, चीखी, हमारी ओर
बढ़ी—तीर की तरह ! और, उसने पिताजी पर वार कर दिया !
संघमित्रा : अरे, अरे !
महेंद्र : किंतु तलवार कहाँ थी ? थी सिर्फ मूँठ ! पिताजी की ढाल पर ठस-सा
शब्द हुआ और वह लाश आप ही भहरा पड़ी ! और थोड़ी ही देर में लाश पिताजी के
कंधे पर ढोई जाकर हमारे शिविर में थी। लाश में अब भी साँस थी। पिताजी ने
तुरंत चिकित्सकों को बुलाया और आज्ञा दी—इसे अच्छा करना ही है
तुम्हें। कलिंग का यही उपहार लेकिन मुझे पाटलिपुत्र लौटना है !
संघमित्रा : उसका क्या हुआ ? वह कौन था भैया ?
महेंद्र : उसका जो कुछ हुआ, सामने देखो ! (प्रकोष्ठ की ओर इंगित करता हुआ)
वही नीलमणि है। कलिंग की प्रतिहिंसा की जीवित प्रतिमा और पिताजी के
आध्यात्मिक कायाकल्प का चलता-फिरता प्रमाण ! देखो, वहाँ प्रकोष्ठ के
सुनसान कोने पर निश्चल खड़ा हुआ किस तरह गंगा की ओर घूर रहा है !
संघमित्रा :2:
[सम्राट् अशोक के प्रासाद के प्रकोष्ठ का एक एकांत स्थान। सम्राट्-कुमारी
मित्रा कलिंग-कुमार नीलमणि से बातें कर रही हैं।]
संघमित्रा : क्या देख रहे हैं, कलिंग-कुमार ?
नीलमणि : ओहो, आप ! क्या देख रहा हूँ ? आप भी देखिए न, राजकुमारी ! देखिए,
वह क्या है ?
संघमित्रा : कितना सुंदर दृश्य ! एक ओर से सोनभद्र का सुनहला पानी, दूसरी
ओर से सदानीरा की तुरत-तुरत हिमालय से उतरी शीतल जलधारा ! दोनों बाँहें
पसारकर, दौड़कर गंगा मैया से मिल रही हों मानो। वह कलकल, वह कुलकुल ! यहाँ
से भी हम शब्द सुन रहे हैं, कुमार ! कितना सुंदर, कितना मधुर !
नीलमणि : केवल यही देख रही हैं आप ?
संघमित्रा : नहीं, नहीं ! यह भी देख रही हूँ—अस्ताचलगामी सूर्य
की किरणों से स्पर्श से गंगा की ऊर्मियाँ किस प्रकार
स्वर्णिम—स्वर्णिम हो रही हैं और उनपर नागरिकों की सजी-सजाई
नौकाएँ, पुष्पवाटिका में उड़ती तितलियों की तरह, किस शान से तैर रही हैं !
नीलमणि : रहने दीजिए; आप बिलकुल कवि हैं; आप सत्य नहीं देख सकतीं।
संघमित्रा : सत्य नहीं देख सकतीं ! तो क्या मैं झूठ कह रही हूँ ?
नीलमणि : झूठ वह है जो देखने या सुनने के प्रतिकूल कहा जाय। मैंने कहा,
सत्य आप देख नहीं सकतीं। सत्य का देखना कुछ आसान काम नहीं है, राजकुमारी !
संघमित्रा : अच्छा, तो आप ही कहिए, किस कठोर सत्य को आप देख रहे हैं यहाँ ?
नीलमणि : सत्य को देखना कठिन है; तो उसका कहना कठिनतर। और राजकुमारी, उसका
सुनना तो शायद कठिनतम !
संघमित्रा : मुझे पहेली में नहीं रखिए, कलिंग-कुमार ! बताइए, क्या देख रहे
थे आप ?
नीलमणि : बताऊँ ? आप सुनने को तैयार हैं ?
संघमित्रा : (खीज में) ओह !
नीलमणि : तो सुनिए ! मैं देख रहा था, आपकी इस गंगा मैया के पानी में कितना
रक्त है और कितने आँसू !
संघमित्रा : (साश्चर्य) रक्त, आँसू ? गंगा के जल में ?
नीलमणि : हाँ, राजकुमारी, रक्त, आँसू ! मैं देख रहा हूँ, गंगा की इस
उज्जवल धारा में रक्त-ही-रक्त है, आंसू-ही-आंसू हैं।
संघमित्रा : यह क्या कह रहे हैं आप ?
नीलमणि : सत्य ! नग्न सत्य ! जो पर्दे के पीछे है, वह कठोर सत्य ! यह
गंगा—यह विशाल नदी ! यह आप लोगों की साम्राज्य-लिप्सा की प्रतीक
है, राजकुमारी ! इसने आपको बढ़ने की प्रेरणा दी है, फैलने की प्रेरणा दी
है। सीमाओं को तोड़ने, रास्तों की रुकावटों को उखाड़ फेंकने, साहस
करनेवालों को डुबोने और चारों ओर एकच्छत्र राज स्थापित करने की प्रेरणा
इसी से आप लोगों ने प्राप्त की है। शायद ही किसी नदी के तट पर इतना रक्त
बहा हो ! शायद ही किसी धारा में इतने आँसू मिले हों !! गंगे ! गंगे ! तू
दुनिया में किस अभिशाप का फल बनकर आई ?
संघमित्रा : यह आपको क्या हो गया है, कलिंग-कुमार ? आप क्या बोल रहे हैं ?
नीलमणि : (उसकी बातों से बेपरवाह) और, साम्राज्य न चले जब तक उसमें ढोंग न
हो। गंगा, ढोंग की मूर्ति। ऊपर उज्जवल चंचल लहरियों की अठखेलियाँ, नीचे
रक्त का हाहाकार, आँसुओं की चीत्कार ! (नीलमणि का ध्यान संध्याकालीन
किरणों के पड़ने से लाल बन रही गंगा की धारा की ओर जाता है—वह
अचानक अट्टहास कर उठता है।) हा-हा-हा-हा-हा। देखो; देखो राजकुमारी, देखो !
सूरज की अंतिम किरणों ने लहरियों पर चढ़कर तुम्हारी गंगा का सारा ढोंग
खत्म कर दिया। देखो, वह लाल-लाल ! वह अब लाल हो रही है तुम्हारी गंगा ! अब
तुम्हारी गंगा में रक्त-ही-रक्त है ! रक्त...रक्त...(विक्षिप्त-सी भावभंगी
करने लगता है।)
संघमित्रा : (उसे पकड़ती हुई) कुमार, कुमार ! अभी तुम स्वस्थ नहीं हुए,
कुमार ! आह !...
नीलमणि : (संघमित्रा की बातें जैसे उसने सुनी न हों) रक्त, रक्त !
(संघमित्रा की आँखों में आँसू देखकर) और यह तुम्हारी आँखों में आँसू ! उफ,
गंगे, तुम्हारी धारा में रक्त-ही-रक्त है ! तुम्हारे तट पर आँसू-ही-आँसू
हैं ! रक्त, आँसू ! रक्त, आँसू ! (चिल्लाता है)
संघमित्रा : शांत, कुमार, शांत !
नीलमणि : शांत ! आह, मैं शांत हो पाता ! जिसका घोंसला जला दिया गया हो, वह
पंक्षी भी शांत हो सकता है, राजकुमारी ?
संघमित्रा : घोंसला जला दिया गया हो ! हाँ, (कुछ रुककर) किंतु दूसरा
घोंसला बन सकता है, कुमार ! (आँखों में अनुराग)
नीलमणि : क्या कहा, दूसरा घोंसला ! क्या इसीलिए मुझे श्मशान से उठा लाया
गया ? क्या इसी लिए मेरी चिकित्सा कराई गई ? क्या इसीलिए तुम्हारे पिता
मुझ पर इतना प्रेम दिखलाते हैं ? ढोंग-ढोंग—काषाय वस्त्र के
नीचे भी इतनी कालिमा...
संघमित्रा : (बात काटती हुई) पुत्री के समक्ष पिता की निंदा भद्रोचित
नहीं, कम-से-कम इतना तो समझो।
नीलमणि : भद्रोचित ! (शांत होते हुए) आह, ऐसी समझ मुझमें आती, राजकुमारी !
एक दिन मैं भी भद्र था, हम भी भद्र थे। किंतु हमारी सारी भद्रता को
तुम्हारे पिता ने लाशों और लोथों से ढक दिया !
संघमित्रा : अतीत का गीत दुहराने से कुछ नहीं होता, कुमार ! हम वर्तमान को
देखें, भविष्य की चिंता करें। तुम चाहो तो कलिंग का भाग्य-सूर्य फिर
सोलहों कला से दीप्त-दृप्त हो सकता है।
नीलमणि : (साश्चर्य) मेरे चाहने से ?
संघमित्रा : हाँ, तुम्हारे चाहने से।
नीलमणि : मेरे चाहने से ! मैं यह समझ नहीं पाता।
संघमित्रा : (जमीन की ओर देखती हुई) समझोगे राजकुमार, समझोगे।
नीलमणि : (कुछ हतप्रभ-सा) तुम्हारा मतलब !
संघमित्रा : क्या हर मतलब को प्रकट करने के लिए शब्द ही चाहिए ?
नीलमणि : (जैसे वह भाँप गया हो) ओहो ! (फिर कुछ सोचकर) किंतु राजकुमारी,
खँड़हर पर नई इमारत बन सकती है; खँडहर खुद इमारत नहीं बन सकता। जो उजड़
गया, उजड़ गया; जो नया आएगा, वह नया आएगा। कलिंग मर चुका, कलिंग के अनेकों
राजपुरुष और राजकुमारों के साथ ही यह तुच्छ नीलमणि भी मर चुका। यह जो
तुम्हारे सामने खड़ा है, यह नीलमणि नहीं है। यह नीलमणि का भूत है, जिसे
तुमने मंत्रबल से खड़ा किया है। तुम्हारी सेवा, तुम्हारी
सुश्रुषा—जीवन भर इसे नहीं भूल सकता, राजकुमारी ! किंतु भूत को
जीवित प्राणी समझने की नासमझी न करूँगा, न करने दूँगा।
संघमित्रा : कुमार !
नीलमणि : राजकुमारी !
संघमित्रा : तुम अभी स्वस्थ नहीं हुए हो, कुमार !
नीलमणि : और न हो सकूँगा, राजकुमारी ! मेरी मानसिक स्थिति तुम लोग नहीं
समझ सकते। विजेता और विजित की मनोदशा में आकाश-पाताल का अंतर होता है।
दोनों बिलकुल दो वस्तुएँ हैं। न तुम लोग हमें समझ सकोगे, न हम तुम्हें समझ
सकेंगे। हम समानांतर रेखाएँ हैं, एक बिंदु पर मिल नहीं सकते।
संघमित्रा : (व्याकुल होकर) ओह ! कुमार...
नीलमणि : व्याकुल मत हो राजकुमारी ! अब मैं पाटलिपुत्र में नहीं रह सकता।
मुझे लगता है, सारा पाटलिपुत्र ढोंगों से भरा है ! यहाँ की गली में ढोंग
है, यहाँ के बाजार में ढोंग है। यहाँ के झोंपड़ों में ढोंग, यहाँ कि
अट्टालिकाओं में ढोंग। यहाँ के नागरिक ढोंगी, यहाँ की नागरिकाएँ ढोंगी। इस
गंगा के पानी में ही ढोंग है, राजकुमारी ! (उसाँसें लेता हुआ) अरे, इससे
तो हमारा सागर अच्छा—जो न अपने रंग को छिपाता है, न अपने स्वाद
को। संसार भर का विष पीकर जो नीला बना है, संसार भर के आँसू आत्मसात् कर
जो खारा हो चुका है; जो अपनी जगह नहीं छोड़ता, जो अपनी मर्यादा नहीं
तोड़ता ! बस उसी का तट शायद मुझे स्वस्थ कर सके, मित्रे !
संघमित्रा : बस करो, बस करो, राजकुमार !
नीलमणि : मित्रे ! (अपराधबोध करते हुए) क्षमा करना राजकुमारी, तुम्हारा
नाम लेकर पुकार दिया ! यह पहला और अंतिम अपराध हुआ—क्षमा करो !!
(वह झटपट चल देता है। सम्राट-कुमारी मित्रा देखती रह जाती है।)
संघमित्रा :3:
[सम्राट अशोक का अंतःपुर। सम्राट्-कुमारी मित्रा अपनी परिचारिका मल्लिका
से बातें कर रही हैं।]
संघमित्रा : नीलमणि ने कहा था, गंगा के पानी में ही ढोंग
है—क्या उसकी बात सच थी मल्ली ?
मल्लिका : नीलमणि को आप भूल न सकीं, राजकुमारी !
संघमित्रा : नीलमणि मेरे जीवन की एक चुनौती था, मल्ली ! चुनौती भी क्या
भूली जा सकती है ?
मल्लिका : चुनौती !
संघमित्रा : हाँ, पिताजी के लिए कलिंग चुनौती, मेरे लिए नीलमणि चुनौती। एक
ने युद्ध की निरर्थकता सिद्ध की और दूसरे ने...
मल्लिका : प्रेम की, क्यों ?
संघमित्रा : हाँ, हाँ, प्रेम की ! और जानती हो, मल्लिके, प्रेम और युद्ध
एक ही सिक्के के दो रुख हैं—अलग रूप, किंतु शरीर एक; अलग शब्द,
किंतु अर्थ एक; बोल अलग, किंतु मोल एक।
मल्लिका : कलिंग ने सम्राट को पीला वस्त्र दिया—
संघमित्रा : और नीलमणि एक दिन मित्रा के शरीर से भी यह रंगीन चीर उतारकर
रहेगा, मल्ली !
मल्लिका : यह क्या बोल रही हैं, राजकुमारी ! कहीं....
संघमित्रा : कहीं मेरे पतिदेव सुन लें, तो। और तू चिंतित होती है उनका नाम
स्मरण कर ! (मुसकराती है।)
मल्लिका : हाँ, उनके पिता ने यह अच्छा नाम नहीं चुना
था—अग्निवर्मा ! किंतु स्वभाव तो बहुत ही प्रेमल है।
संघमित्रा : तभी तो मित्रा ने अपना शरीर उन्हें पूर्णतः समर्पित कर रखा है।
मल्लिका : शरीर !
संघमित्रा : हाँ, पिता शरीर का दान करता है। पति का नैतिक अधिकार शरीर पर
होता है। जिसका जो अधिकार है, उसे मिलना ही चाहिए, मल्लिके !
मल्लिका : केवल शरीर ? और हृदय...
संघमित्रा : ढोंग नहीं मल्ली, ढोंग नहीं। जिस दिन नीलमणि की अंतिम पदचाप
सुनकर लौटी, हृदय को कहीं अलग अर्पित कर दिया।
मल्लिका : अलग ?
संघमित्रा : हाँ, अलग। किंतु किसी व्यक्ति पर नहीं ! और नीलमणि के बारे
में तो सोचना भी अन्याय है, मल्ली। नीलमणि कोई व्यक्ति तो था नहीं। उसने
यह सच कहा था—नीलमणि मर चुका। वह जो यहाँ था, वह तो भूत था उसका
!
मल्लिका : तो किसे अर्पित किया, राजकुमारी ने ?
संघमित्रा : एक स्वप्न को।
मल्लिका : स्वप्न को ?
संघमित्रा : हाँ, एक स्वप्न को, सपने के एक संसार को, जिसमें किसी को
नीलमणि नहीं बनना पड़े। जहाँ हरा-भरा देश श्मशान न बन जाय, जहाँ जीवित
मानव भूत न बन जाय। मेरा हृदय उसी स्वप्न को अर्पित हो चुका है, मल्ली !
मल्लिका : तो फिर विवाह क्यों किया ? हृदय अलग, शरीर अलग — यह तो अजीब साधना है राजकुमारी !
संघमित्रा : बिल्कुल सही कह रही हो मल्लिके ! शरीर अलग, हृदय अलग। अजीब साधना ! किन्तु पिताजी की आज्ञा जो थी । पिता की आज्ञा, राजाज्ञा ! किन्तु मैं जानती हूँ मल्ली, एक दिन पिताजी मुझे इससे भी बड़ी साधना की कसौटी पर कसेंगे। मैं उस दिन की तैयारी कर रही हूँ, मल्लिके !
मल्लिका : पिताजी .... साधना की कसौटी .....
संघमित्रा : हाँ, कलिंग ने पिताजी को जो ठेस दी, उसका प्रारम्भ ही अभी देख रही हो । उसकी परिणति हम-तुम सब पर बरस कर रहेगी । चोट खाया हुआ आदमी बीच में नहीं रुकता - वह छोर खोजता है, छोर; और उसे पाकर ही दम लेता है । मैं जानती हूँ, वह एक दिन हमें, तुम्हें, भैया को, उन्हें और सुमन को भी.... ( बच्चे के रोने की आवाज )
मल्लिका : सुमन ? सुमन शायद जग गया है, राजकुमारी !
संघमित्रा : लाओ, उसे जरा दुलरा लें । जितने दिनों तक ही सही -- पुत्र प्रेम, पति-प्रेम, सबका आनन्द लिया जाय। फिर तो.....
संघमित्रा :4:
[ कलिंग की तटभूमि : संघमित्रा का बेड़ा सिंहल जाते हुए यहाँ ठहरा है : तटभूमि में एकाकी सान्ध्य भ्रमण करती हुई संघमित्रा नीलमणि को देखकर पुकार उठती है -]
संघमित्रा : ओ, नीलमणि !
नीलमणि : ( मुड़कर धीरे-धीरे निकट आते हुए) तुम, राजकुमारी ?
संघमित्रा : हाँ, हाँ ! तुम मुझे पहचान न सके ?
नीलमणि : पहचानूं और यह वेश ?
संघमित्रा : हाँ, कुमार ....... यह वेश !
नीलमणि : नही, कुमार नही, नीलू कहो । कलिंग मर गया, कुमार मर गया, नीलमणि मर गया । यह तो नीलू भूत है जो अपनी नाव लेकर इस समुद्र के किनारे-किनारे प्रातः सन्ध्या जल-विहार किया करता है !
संघमित्रा : अह, उस दिन तुम किस प्रकार भगे ? पिताजी ने तुम्हारी खोज कराई — कलिंग में भी तुम नहीं मिले। बाद को पता चला, कभी-कभी तुम समुद्र तट पर दिखाई पड़ते हो !
नीलमणि : क्या तुम्हारी उस दिन की बात के बाद भी मैं वहाँ ठहर सकता था ! और कलिंग कहाँ रह गया ? रह गया है यह नील विस्तृत सागर! अब इसीकी शरण है! ( खिन्न हो जाता है ) - किन्तु तुम यहाँ कैसे ? और तुम्हारा यह वेश ? यह क्या देख रहा हूँ मित्रे !
संघमित्रा : मै सिंहल जा रही हूँ नीलू ! हाँ नीलू ! तुम्हारा यही नाम अच्छा लगता है ! और मुझे भी मित्रा नहीं कह अब संघमित्रा कहो । मैं सिंहल में भगवान बुद्ध के शान्ति-धर्म का संदेश लेकर जा रही हूँ !
नीलमणि : धर्म का, शान्ति-धर्म का आह! फिर ढोंग ! (घृणा से) सचमुच गंगा के पानी में ही ढोंग है !
संघमित्रा : ( उत्तेजना में) ढोंग, ढोंग मत चिल्लाया करो नीलू ! अगर हम ढोंगी होते तो मैं सात दिनों में कलिंग की इस तटभूमि पर अपने जलपोतों में लंगर डलवाकर तुम्हारी खोज में दिन-रात इधर- उधर मारी-मारी नहीं फिरती ! और फिर राज-पाट, धन-धान्य, सुख-ऐश्वर्य को ठुकरा कर युवक-युवतियों का यह झुंड जो सात समुद्र पार शान्ति का संदेश लेकर जा रहा है, वह क्या सिर्फ ढोंग ही है ? आदमी बदलता भी है नीलू ?
नीलमणि : अरे ! आदमी बदलता भी है ?
संघमित्रा : सिर्फ बदलता ही नहीं है । बदला हुआ आदमी संसार को भी बदल देता है ! हम बदल गये हैं, हम संसार को बदलने चले हैं । हम संसार को बदल देंगे, उसे ऐसा बना देंगे जिसमें न विजेता हो, न विजित; न युद्ध हो, न पराजय; न हिंसा हो, न घृणा ! जहाँ व्यक्तित्व टुकड़ों में न बँटे जहाँ हृदय खींचातानी में न पड़े। जहाँ मानव-आकांक्षा की परिणति हो ज्ञान में, मानव-कल्याण में हम संसार को बदलने चले हैं - देखो, हमारा यह अलौकिक अभियान ! भाई जंगलों को रौंदता, पहाड़ों को कुचलता थल-पथ से गया है; बहिन नदियों को लाँघती, समुद्र को फाँदती जल पथ से जा रही है !
नीलमणि : भाई ! कौन ? कुमार महेन्द्र ?
संघमित्रा : भिक्षु महेन्द्र ! नीलू, भिक्षु महेंद्र ! कलिंग धन्य है। जिसने चंडाशोक को प्रियदर्शी अशोक बनाया। प्रियदर्शी - देवनाम् प्रिय । संसार के इतिहास में अशोक ही अमर नहीं रहेंगे, कलिंग भी अमर रहेगा ! किन्तु नीलू, एक बात पूछूं ? क्या कलिंग इस महान धर्माभियान में शामिल नहीं होगा ? अब तो गंगा का पानी समुद्र में मिलने जा रहा...
नीलमणि : मित्रे, नहीं, नहीं, संघमित्रे ! उफ, तुम लोगों के ढोंग का पारावार नहीं है ! तुम लोग जिस ओर बढ़ोगे, कहाँ तक जा सकोगे, कोई कल्पना नहीं कर सकता। मैं ! मै तो तुमलोगों को देखते ही डर जाता हूँ ! देखो, देखो, मेरे सारे शरीर का यह रोमांच ! ( दिखलाता है, संघमित्रा चकित हो रहती है !) नही, नही मुझे जाने दो, देखो, वह मेरी छोटी सी नौका मुझे पुकार रही है; विदा. .....विदा... विदा........
( अचानक द्रुतगति से चल पड़ता है और थोड़ी-थोड़ी दूर से मुड़ कर कहता जाता है--विदा .......विदा)
संघमित्रा :5:
[ सिंहलद्वीप : संध्या समय संघमित्रा मल्लिका के साथ बोधिवृक्ष के बिरवा की पूजा कर रही है ]
संघमित्रा : उधर मल्ली, उस दीपक में घी रख दे !
मल्लिका : रख रही हूँ, भद्रे ।
संघमित्रा : और तनिक उसकी बाती उकसा दे ।
मल्लिका : अभी किया !
संघमित्रा : और गिन लिया है न; एक सहस्र दीपक है न ?
मल्लिका : गिन लिया है, भद्रे !
संघमित्रा : इन बातियों की झिलमिल में यह बोधिवृक्ष कितना शोभ रहा है मल्ली !
मल्लिका : बहुत ही सुन्दर लगता है, भद्रे !
संघमित्रा : याद है न ? सिर्फ एक पतली डाली थी और गिनकर दो पत्ते । साल भी नहीं लगा और एक डाली अनेक डालियाँ दे चुकी, दो पत्ते सैकड़ों पत्तों में फैल गये । लाई थी, तो विरवा लगता था ! मालूम होता है, अगले साल से ही छाया देने लगेगा मल्ली !
मल्लिका : छाया ! शरीर को ही नहीं, हृदय को भी भद्रे !
संघमित्रा : सत्य - पूर्ण सत्य ! इसकी माँ ने भरतखंड को छाया दी, यह सिंहल को शान्ति की छाया देगा !
मल्लिका : अनन्त काल तक देता रहेगा, भद्रे !
संघमित्रा : हाँ, अनन्त काल तक । कल्पना की आँखों से देख रही हूँ मल्ली, यह वृक्ष बढ़ता जा रहा है ! बढ़ता जा रहा है ! इसका सिर आसमान को छू रहा है, इसकी जड़ पाताल को नाप चुकी है। शताब्दियों सहस्राब्दियों के बाद भी, जब हम न होंगे, हमारी यह सौभाग्यशाली पीढ़ी न होगी, सम्भवतः यह राजवंश भी नहीं रहे, तो भी यह वृक्ष बढ़ता जायगा, फैलता जायगा, लोगों को शान्ति की छाया देता जायगा !
मल्लिका : यह सब आपकी तपस्या का परिणाम है आर्ये !
संघमित्रा : इसमें मेरा कोई श्रेय नहीं है मल्ली ! इसमें पिताजी की सूझ की बलिहारी है। अहा, किस प्रेम से उन्होंने इस विरवा को हमें सौंपा था गंगा में नंगे बदन, छाती भर पानी तक वे आये और मंत्रों की ध्वनि में सजल आँखों से इसे मेरे हाथों में सौपते हुए बोले थे-बेटी तथागत के इस बिरवा को आवश्यकता होने पर अपने रक्त से सींचने में भी नही चूकना ! पिताजी ..! .! (ध्यानमग्न होती है)
मल्लिका : और आपने उसे अक्षर-अक्षर निबाहा भद्रे ! सम्राट् प्रियदर्शी तो अमर हो ही चुके हैं, किन्तु आर्या को भी इस बिरवा ने अमर कर दिया !
( अकस्मात् नीलमणि का प्रवेश )
नीलमणि : सच; तुम बिलकुल सच कह रही हो मल्ली !
संघमित्रा : (चौंक कर ) कौन ? नीलू ? अरे...
नीलमणि : क्या पहचान नहीं सकी थी ?
संघमित्रा : तुम्हारा यह वेश जो ?
नीलमणि : और उस दिन इसी वेश के कारण तुम्हें नहीं पहचान सका, तो मुझे उलहना दिया था तुमने ।
संघमित्रा : किन्तु तुम और यह वेश ? तुम मेरे ढोंग का व्यंग करने तो नहीं आये ?
नीलमणि : आया तो था यही करने मित्रे, किन्तु इन बातियों के प्रकाश ने कुछ दूसरा ही कर दिया ! इस दिव्य प्रकाश ने मेरे भूत को न जाने कहाँ भगा दिया।
संघमित्रा : अरे ?
नीलमणि : ( प्रसन्न मुद्रा में ) हाँ, आया था देखने कि तुम लोगों का ढोंग कहाँ तक जाता है । जब तुम्हारे जलपोत खुले, मैने अपनी नाव का पाल भी उनके पीछे खोल दिया ! किसी तरह डूबते-उतराते यहाँ पहुँचा । तब, दिन भर कहीं माँग-मूँग कर खाता और शाम को इस जगह आता ढोंग की गहराई नापने । किन्तु धीरे- धीरे...
संघमित्रा : हाँ, प्रकाश धीरे ही धीरे फैलता है नीलू ! यह तो अंधकार है जो एक ही बार ढँक लेता है । ( कुछ रुककर ) मैं जानती थी तुम एक दिन..
नीलमणि : (साश्चर्य) जानती थी ?
संघमित्रा : ( मुस्कुराती हुई ) हाँ-हाँ मेरा विश्वास था, नीलू का भूत अपने माध्यम को छोड़ नही सकता ! बोलो, इस भूत का माध्यम मैं थी या नहीं ?
नीलमणि : ओह, ओह !
( अचानक पद चाप सुनाई पड़ता है : महेन्द्र आते हैं )
महेन्द्र : कौन ? तुम ? नीलमणि ? यहाँ ? इस वेश में ?
संघमित्रा : यह हमलोगों का ढोंग नापने आये थे भैया !
महेन्द्र : संघमित्रे ! तुम बार-बार भूल कर जाती हो । अब हम भाई बहिन नहीं रहे। अब हम संघ के सदस्य सदस्या हैं। हमलोग रक्त सम्बन्ध छोड़ चुके हैं।
( संघमित्रा आँखों में आँसू भरकर एकटक महेन्द्र को देखती रह जाती है )
महेन्द्र : फिर ये आँसू !
नीलमणि : 'रक्त' 'आँसू' । उफ, घूम फिर कर वही - रक्त... आँसू,... आँसू,... रक्त ! महेन्द्र, महेन्द्र, तुम सब धन्य हो !
महेन्द्र : धन्य हम नही, धन्य वह मार्ग है, जिस पर चल कर हम सब यहाँ पहुँचे हैं । किन्तु तुम यहाँ कैसे ?
नीलमणि : कैसे ? कैसे बताऊँ कि कैसे ?
संघमित्रा : ( अपने को सम्हालकर) कहा था न हमलोगों का ढोंग देखने ।
महेन्द्र : देख लिया ढोंग ? और रंग गये ढोंग में ! ( मुस्कुराता है )
नीलमणि : तुम सब विचित्र प्राणी हो महेन्द्र !
महेन्द्र : क्या इसी से हमें छोड़कर भगे थे ?
नीलमणि : क्या तुम लोग क्षमा नहीं कर सकते ?
संघमित्रा : एक दिन और भी तुमने क्षमा माँगी थी नीलू, और कहा था, यह पहला और अन्तिम... ( इतना कह कर संघमित्रा रुक जाती है-- वह सोचती है, क्या कह गई ! )
महेन्द्र : कब-कब नीलू ?
नीलमणि : रहने दो, रहने दो; इतिहास के एक पन्ने को बंद ही रहने दो। आह !
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