सांध्य-गीत (कहानी) : भगवान अटलानी

Sandhya-Geet (Hindi Story) : Bhagwan Atlani

जल्दी ही गिरधारी पंद्रह दिन की छुट्टी लेकर पत्नी और बच्चों के साथ आ गया। मुरारी का पत्र आया था। मुरारी कन्हैयालालजी के नए प्रस्ताव से क्षुब्ध था। संभवतः वह यह विश्वास कर बैठा था कि कन्हैयालालजी जालंधर को अपना कार्यक्षेत्र बना लेंगे। क्षोभ को मुरारी ने अपने पत्र में यद्यपि स्पष्ट अभिव्यक्ति नहीं दी थी, फिर भी वाक्य विन्यास और शब्द चयन से यह साफ था। ‘अब छुट्टियाँ शेष नहीं हैं, इसलिए आ नहीं सकता,’ यह उत्तर भी परोक्ष में उसकी असंतुष्टि का परिचायक था।

गिरधारी के आते ही कन्हैयालालजी ने तेल मिल के लिए प्रदत्त भूमि पर आवश्यक निर्माण-कार्य प्रारंभ करा दिया। गिरधारी की देख-रेख में काम होने लगा। कन्हैयालालजी की सामाजिक गतिविधियाँ पहले की तरह चलती रहीं। होमियोपैथी के दवाखाने में अपनी सेवाएँ वे पूर्ववत् देते रहे। विष्णु बैंक के अतिरिक्त सारा समय गिरधारी के कंधे-से-कंधा मिलाकर भाग-दौड़ में लगा रहता। दवाखाने के बाद एक-दो घंटे के लिए कन्हैयालालजी भी देखभाल करने चले जाते। प्रगति संतोषजनक ढंग से हो रही थी। एक माह में काम चालू हो जाने की सबको आशा थी।

अभी गिरधारी की पंद्रह दिन की छुट्टियाँ पूरी भी नहीं हो पाई थीं कि एक ऐसी स्थिति कन्हैयालालजी के सम्मुख आ खड़ी हुई, जिसने उनकी सभी योजनाओं को विशृंखलित कर दिया। रात्रि भोजन के पश्चात् जब कन्हैयालालजी शयनार्थ प्रस्थान कर रहे थे, गिरधारी ने उनसे कहा, ‘‘पापा, आपसे कुछ बातें करनी हैं।’’

‘‘हाँ-हाँ, कहो।’’

‘‘आपके कमरे में आ रहा हूँ।’’ कन्हैयालालजी समझ गए, गिरधारी एकांत में बातचीत करना चाहता है।

इसलिए उन्होंने कह दिया, ‘‘ठीक है, वहीं आ जाओ।’’

गिरधारी जल्दी ही आ गया। अपने स्वभाव के विपरीत कुछ क्षण वह हिचकिचाया। इसके बाद बोला, ‘‘पापा, लगता है, मेरा यहाँ रहना हो नहीं सकेगा।’’

कन्हैयालालजी आद्योपांत चौंक गए, ‘‘क्यों?’’

‘‘आपकी मँझली बहू और छोटी बहू में बन नहीं पा रही है।’’

‘‘किस बात पर?’’

‘‘बातें तो छोटी-छोटी ही होती हैं, मगर रोजाना की किच-किच बहुत बड़ी होती है।’’

‘‘आपस में लड़ती हैं क्या वे दोनों?’’

‘‘आमने-सामने तो नहीं लड़तीं, मगर पीठ पीछे कोई कसर बाकी नहीं छोड़ती हैं।’’

अब तक गिरधारी खड़ा ही था। कन्हैयालालजी की मुद्रा चिंतायुक्त हो गई। चेहरा गंभीर हो गया। कुरसी की ओर इशारा करके उन्होंने गिरधारी से बैठने के लिए कहा, ‘‘मुझे सारी बात विस्तार से बताओ गिरधारी, तुम्हारी बात ने तो मुझे चिंता में डाल दिया है।’’

‘‘मेरे बताने से क्या लाभ होगा? मुझे सारी बातें आपकी मँझली बहू ने बताई हैं। वह अपनी गलतियाँ तो बताने से रही।’’

‘‘फिर भी अनुमान तो लग जाएगा।’’

‘‘क्या अनुमान लगेगा? और अनुमान लगाकर होगा भी क्या? कम-से-कम आपकी मँझली बहू तो इतनी तिक्त हो गई है कि समझाकर शांत करना बिल्कुल संभव नहीं लगता।’’

‘‘तो फिर ऐसा करो। तुम जाकर मँझली बहू को मेरे पास भेज दो। मैं सारी बातें उसी से पूछ लेता हूँ।’’

गिरधारी ने जाकर अपनी पत्नी को भेज दिया। ससुर के कमरे के दरवाजे पर पहुँचकर वह थोड़ा सकुचाई। मगर कन्हैयालालजी के बुलाने पर धीरे-धीरे आकर कुरसी पर बैठ गई। बिना किसी पूर्व भूमिका के उन्होंने बड़ी नरमी से पूछा, ‘‘गिरधारी बता रहा था, तुम्हें छोटी बहू से कुछ शिकायतें हैं?’’ मँझली बहू ने कोई जवाब नहीं दिया। सिर नीचा किए वह बैठी रही। कन्हैयालालजी ने ही पुनः कहा, ‘‘जो बात तुम्हारे मन में हो, मुझे साफ-साफ बता दो, बहू। सिर्फ इसीलिए मैंने तुम्हें अकेले में बुलाया है।’’

‘‘पापा, छोटी बहू का व्यवहार ठीक नहीं है।’’ मँझली बहू ने धीरे से कहा।

‘‘उसके व्यवहार में कौन सी चीज ठीक नहीं लगती है तुम्हें?’’

‘‘कई हैं, एक हो तो बताऊँ।’’

‘‘जितनी हैं, सब बताओ। मुझे कोई जल्दी नहीं है।’’ कन्हैयालालजी ने स्वर में हास्य का पुट लाकर कहा।

‘‘आप कहेंगे, छोटी-छोटी बातों का बुरा मान रही है, मगर ये छोटी बातें ही अधिक चुभती हैं।’’ मँझली बहू ने भूमिका बनाई।

‘‘मैं कुछ नहीं कहूँगा, तुम सुनाओ तो सही।’’

‘‘भले ही यहाँ मैं अब आई हूँ, मगर हूँ तो इस घर की उससे बड़ी बहू! वह मुझसे ऐसा व्यवहार करती है, जैसे बड़ी मैं नहीं, वह हो।’’

‘‘कौन सी बात से लगा तुम्हें ऐसा?’’

‘‘कोई भी मेहमान, मिलने-जुलने वाला आता है तो न वह मुझे बुलाती है, न कोई परिचय कराती है। खुद उनके साथ बातें करने बैठ जाएगी और बच्चों में से किसी से कहलवा देगी, ‘दीदी से कहना, जरा चाय तो बना दें।’ जैसे घर की मालकिन वह हो और नौकरानी मैं होऊँ। देवरजी के सामने भी दो-तीन बार ऐसा हो चुका है।’’

‘‘यह तो ठीक है बहू कि उसे चाय-वाय के लिए तुम्हें खुद आकर नम्रता से कहना चाहिए। आगंतुकों के साथ तुम्हारा परिचय भी कराना चाहिए। लेकिन क्योंकि वह सब लोगों के साथ उठती-बैठती रही है, इसलिए उनसे बातचीत तो उसी को करनी पड़ेगी।’’

‘‘पापा, मुझे यहाँ आए पंद्रह दिन हो गए हैं। एक तरफ तो आप कहते हैं, तुम लोगों को भविष्य में यहीं रहना है, दूसरी तरफ नएपन वाली बात कह रहे हैं। मैं इस घर में नई कब तक मानी जाऊँगी? अलमारियों की, सेफ की, संदूकों की सब चाबियाँ उसी के पास हैं। उसका कर्तव्य क्या यह नहीं था कि चाबियाँ मुझे सौंप देती? आखिर मैं उससे बड़ी हूँ!’’

‘‘चलो ठीक है, तुम्हारी बात मान ली। अब अगली बात बताओ।’’

‘‘वह हम लोगों के साथ सौतेला व्यवहार करती है।’’

‘‘सौतेला? कैसा सौतेला व्यवहार?’’ कन्हैयालालजी फिर चौंके।

‘‘हमारे बच्चे कुछ बड़े हैं, इसलिए ऐसी-वैसी जिद नहीं करते हैं। अन्नू भी होने को तीन साल का है, मगर उसे बहुत सिर चढ़ा रखा है छोटी ने, इसलिए हर बात पर जिद करता है। कुल्फी वाला आएगा तो कुल्फी माँग लेगा, गुब्बारे वाला आएगा तो गुब्बारा माँग लेगा, दिन में दो-दो बार फ्रिज से निकालकर कोका कोला पीएगा। उस समय हमारा कोई भी बच्चा चाहे पास में ही क्यों न खड़ा हो, छोटी उसे कुछ नहीं देगी।’’

‘‘हूँ, और?’’

‘‘इसी तरह छोटी बहू जब नाश्ते पर सबको दूध देती है तो अन्नू और देवर के कप में तो मलाई के लच्छे होते हैं, हममें से किसी को तिनका भर भी मलाई नहीं मिलती। हमारा न रखे कोई बात नहीं, उन मासूमों का भी खयाल नहीं रखती है वह।’’

‘‘अच्छा, और बताओ। और भी कोई बात है?’’

‘‘अब क्या-क्या बताऊँ, पापा! एक दिन सारे कपड़े मैले पड़े थे, इसलिए मैंने रात को इनकी कमीज धोकर सुखा दी। सुबह धोबी से प्रेस करा ली कि ये नहा-धोकर जब बाहर निकलेंगे, पहन लेंगे। छोटी ने आव देखा न ताव, वही कमीज देवरजी को बैंक जाते समय पहनने को दे दी। मैंने देखा, मगर चुप रह गई। उसकी आँखों में इतनी सी शर्म भी नहीं आई कि कम-से-कम मेरे सामने तो कमीज देवरजी को न दे। देवरजी के जाने के बाद मैंने पूछा तो कहने लगी, ‘मैंने समझा, आपने कमीज इनके लिए प्रेस कराई है। जेठजी के कपड़े तो वैसे भी फैक्टरी के चक्कर में शाम तक मैले हो जाते हैं।’ ऐसी बातें चुभेंगी नहीं तो क्या होगा?’’

‘‘ठीक है बहू, तुम जाओ। आराम करो।’’

‘‘एक बात मैं जरूर कहूँगी पापा, छोटी यह नहीं चाहती कि हम लोग यहाँ रहें। नहीं तो वह पढ़ी-लिखी है। इतना भी नहीं समझती है क्या कि किसके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए?’’

‘‘मैं सारी बात समझ रहा हूँ, बहू।’’

मँझली बहू जाने लगी तो कन्हैयालालजी ने कहा, ‘‘सुनो बहू, जरा विष्णु को मेरे पास आने के लिए कहती जाना।’’

विष्णु आकर कुरसी पर बैठा तो कन्हैयालालजी बेहद गंभीर और गमगीन थे। कुछ पल मौन का पतला सा धागा अभेद्य दीवार बना रहा। फिर विष्णु ने ही कहा, ‘‘क्या बात है पापा, आप इतने गंभीर क्यों हो गए हैं?’’

कन्हैयालालजी ने एक लंबी साँस खींचकर उसे छोड़ दिया, ‘‘विष्णु, मँझली बहू आज कुछ कह रही थी।’’

‘‘क्या?’’

‘‘उसे छोटी बहू से कुछ शिकायतें हैं।’’

‘‘शिकायतें तो छोटी को भी भाभी से हैं। मगर हम लोगों को इस झगड़े में फँसने की क्या जरूरत है? औरतें लड़ेंगी नहीं पापा, तो और क्या करेंगी?’’

‘‘नहीं विष्णु, तुम इन बातों को कम करके मत आँको। मँझली बहू को मैंने बाद में बुलाया था। पहले गिरधारी मेरे पास आया था।’’

‘‘वे कुछ कह रहे थे?’’

‘‘हाँ। वह कह रहा था कि इन परिस्थितियों में उन लोगों का यहाँ रहना संभव नहीं है।’’

‘‘हाँ।’’ विष्णु ने मात्र इतना कहा।

‘‘कन्हैयालालजी ने ही दुबारा बात को आगे बढ़ाया, ‘‘मँझली बहू कह रही थी कि छोटी बहू उन लोगों का इस घर में रहना पसंद नहीं करती।’’

‘‘अब आपने क्या सोचा है?’’

‘‘मैं सोच रहा हूँ कि एक बार छोटी बहू को बुलाकर बात कर लूँ। कम-से-कम वस्तुस्थिति तो पता लगे।’’

विष्णु का चेहरा दृढता से खिंच गया, ‘‘उससे बात करने की कोई जरूरत नहीं है। भाभी क्या चाहती थीं, आप मुझे बताइए। सब ठीक हो जाएगा।’’

‘‘नहीं विष्णु, समस्याएँ इस तरह नहीं सुलझतीं। मैं सही हालात का पता लगाकर दोनों को आमने-सामने बैठाकर बात करा दूँगा।’’

‘‘कल आप समझा देंगे, परसों भी समझा देंगे। मगर कब तक? कब तक समझाते रहेंगे आप? दोनों में से एक को तो झुकना ही होगा। इसीलिए मैं कह रहा हूँ, मुझे बता दीजिए कि भाभी क्या कह रही थीं?’’

‘‘फिर भी मैं एक बार कोशिश करना चाहता हूँ।’’

‘‘सेवानिवृत्ति के बाद तेल मिल आप इसलिए नहीं लगा रहे हैं पापा, कि उससे होने वाला फायदा आपके लड़कों को धनवान बनाए और आपकी पेंशनयाफ्ता जिंदगी को निद्राविहीन। जिंदगी भर परेशानियों का सामना करने के बाद जाकर कहीं मानसिक सुख मिला है आपको। बड़ी मेहनत से प्राप्त किए इसके सुख को आप फिर कष्ट में बदलने को तैयार हो सकते हैं, किंतु मैं आपको ऐसा करने नहीं दूँगा।’’

कन्हैयालालजी एकाएक विष्णु के सामने कातर हो उठे, ‘‘फिर तुम बताओ, मुझे क्या करना चाहिए, विष्णु?’’

‘‘यह आप सोचिए, पापा। मगर मैं किसी भी स्थिति में आपको परेशान देखना नहीं चाहता। इस सिलसिले में सारी दुनिया से ही नहीं, मैं आपसे भी लड़ सकता हूँ।’’

विष्णु तमतमाया चेहरा लिये वापस लौट गया तो कन्हैयालालजी सोच में पड़ गए। उन्हें लगा, विष्णु कहता तो ठीक है। इस उम्र में सारी जमा-पूँजी लगाकर भी यदि उन्हें मानसिक तनाव नसीब होता है तो क्या फायदा? लड़के नौकरी में लगे हुए हैं। अमीरों की न सही, मगर गरीबों की जिंदगी से अच्छी जिंदगी है उनकी। साथ में सुख है, संतोष है, निश्चिंतता है। तेल मिल के बाद हो सकता है, उनकी हैसियत लक्जरी कार के लायक हो जाए, किंतु अपना अमन-चैन तो तब तक खो चुके होंगे ये लोग। इन लोगों की बात रहने भी दी जाए, मगर इस उम्र में कन्हैयालालजी का मानसिक सुख छिन गया तो वे कहीं के भी न रहेंगे। मानसिक दृष्टि से पहले ही वे आवश्यकता से अधिक संवेदनशील हैं। इस प्रकार की पारिवारिक खटपट तो उनके लिए जानलेवा बन जाएगी।

उधेड़बुन में आसमान का रंग बदलता रहा। पौ फटने से पहले जब उन्हें नींद आई, तब भी वे किसी निर्णय पर नहीं पहुँचे थे। प्रातः हो सकता है कन्हैयालालजी काफी देर तक सोते रहते। किंतु शायद छोटी बहू के संकेत पर अन्नू ने आकर जगाया, ‘‘बाबूजी, दवाखाने में मरीजों की भीड़ लग गई है। उठिए।’’

उन्होंने घड़ी देखी। नौ बज चुके थे। तुरंत उठकर, निवृत्त होकर, नहा-धोकर बिना नाश्ता किए ही वे बाहर आकर मरीजों को देखने बैठ गए। छोटी बहू के पुरजोर आग्रह के बाद भी उन्होंने यही कहा, ‘‘दफ्तर जानेवाले मरीजों को देखकर फिर आता हूँ। तभी नाश्ता करूँगा।’’

साढ़े दस बजे के करीब अन्नू फिर नाश्ते के लिए कहने आया। कन्हैयालालजी ने उसको लौटा दिया तो छोटी बहू खुद आ गई, ‘‘चलिए बाबूजी, नाश्ता कर लीजिए।’’

‘‘अभी नाश्ता करने की इच्छा नहीं है, बहू। जब होगी, अंदर आ जाऊँगा।’’

‘‘आपकी तबीयत तो ठीक है न?’’

‘‘हाँ-हाँ, तबीयत बिल्कुल ठीक है। तुम चिंता मत करो। गिरधारी और विष्णु गए?’’

‘‘जी हाँ।’’

कन्हैयालालजी मंगल फिर मरीजों में डूब गए। एक बजे तब वे अंदर गए तो रातभर चले मंथन की छाया उन्हें फिर घेरती प्रतीत हुई। विचारों को झटककर उन्होंने बाहर निकाला। भूख पता नहीं क्यों लग नहीं रही थी उन्हें। फिर भी यह सोचकर कि छोटी बहू पता नहीं क्या सोचेगी, उन्होंने थोड़ा-बहुत भोजन किया और अपने कमरे में जाकर सोने की चेष्टा करने लगे। शरीर, मन व मस्तिष्क तीनों से क्लांत होने के बावजूद काफी प्रयत्न के बाद उन्हें नींद आई। उठे तो शाम उतर चुकी थी। हाथ-मुँह धोकर, तैयार होकर, चाय पीकर वे बाहर निकल गए।

सोच की गुप्त धारा उनके मस्तिष्क में प्रवाहित थी। थोड़ा सा भी असावधान होते ही वह धारा उभरकर ऊपर आ जाती थी। इस कशमकश का सामना करते वे साढ़े नौ बजे घर लौटे तो विष्णु और गिरधारी भोजन के लिए उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। तनाव को भरसक छिपाने के प्रयत्न के बाद भी विष्णु ने उन्हें पकड़ लिया, ‘‘पापा, आप आज कुछ सुस्त लग रहे हैं।’’

बात को मजाक में उड़ाने के उद्देश्य से कन्हैयालालजी ने थोड़ा हँसते हुए जवाब दिया, ‘‘बेटा, अब हम बूढ़े हो गए हैं।’’

गिरधारी और विष्णु उनके लहजे पर खुलकर हँसे। उन्होंने भी हँसी में उन दोनों का साथ दिया। कन्हैयालालजी को महसूस हुआ कि विष्णु के प्रश्न को फुसलाने के प्रयत्न में लगा यह ठहाका भारीपन को अपने स्पर्श से कम कर गया है।

भोजन के दौरान कन्हैयालालजी, गिरधारी और विष्णु से आज हुए कामकाज के समाचार लेते रहे। प्रगति रिपोर्ट संतोषजनक थी, किंतु कल रात की बातचीत का दंश संतोष के मिठास में कड़वाहट की मिलावट कर रहा था। भोजन के बाद एकांत पाते ही प्रश्नों ने फिर सिर उठाया और कन्हैयालालजी को टालने में अमसर्थ पाकर धमाचौकड़ी मचाना शुरू कर दिया। घर में झगड़ेबाजी अगर चलती रही तो अंततः काम-धंधा सिरदर्द ही बनेगा। मन-मुटाव रहते काम नहीं किया जा सकता और मन-मुटाव को हमेशा के लिए समाप्त करने का कोई उपाय कन्हैयालालजी खोज नहीं पा रहे थे। गिरधारी की बात मानना यदि समस्याओं से पलायन करना था तो न मानना सतत संतोष का आमंत्रण देना था। वे पलायन और असंतोष दोनों में से किसी का भी सामना करने के लिए तैयार नहीं थे। पलायन उनके अहं और आत्मविश्वास को लहूलुहान करता था और असंतोष उनके कल्पना-चक्षुओं में आतंक की धारियाँ बनकर उभरता था।

लेकिन झगड़े-फसाद, कलह और असंतोष को आमंत्रित करने से अच्छा क्या पलायन का पथ नहीं है? दो में से एक बुराई को जब चुनना ही है तो क्यों न पलायन को चुन लिया जाए? मकान का किराया और पेंशन मिलाकर ही इतनी रकम बनती है कि वे विष्णु पर कभी आर्थिक दृष्टि से बोझ नहीं बनेंगे। उलटा उसकी आर्थिक स्थिति उनके बूते पर मजबूत ही होगी।

तभी एक और कीड़ा उनके दिमाग में कुलबुलाया। गिरधारी और उसके परिवार को वापस भेजकर तेल मिल वाली प्रक्रिया को समाप्त करके वे विष्णु के साथ रहेंगे। अपनी सामाजिक गतिविधियों में लगे रहेंगे। ठीक है। लेकिन इस बात की क्या जमानत है कि विष्णु का सिर कभी नहीं फिरेगा? अब तक वह परमभक्त रहा है पिता का, लेकिन कभी वह भी तो बदल सकता है? इसके बाद यह पलायन का रास्ता किस काम का रह जाएगा? पलायन भी करेंगे और असंतोष भी हाथ लगेगा।

कन्हैयालालजी को लगा, इस तरह अगर वे सोचते रहे, अपने ही तर्कों को काटते रहे तो कभी किसी निर्णय पर नहीं पहुँच सकेंगे। कल्पनाएँ संभावनाओं की सहोदरी हैं। कल क्या होगा, निश्चयपूर्वक कौन कह सकता है? फिर संभावनाओं पर विचार करके ऊहापोह में क्यों फँसा जाए? हर दुश्मन का मुकाबला सामने खड़े होकर किया जाए, जरूरी तो नहीं है। कभी, किसी समय यदि विष्णु का व्यवहार बदल गया तो वे गिरधारी के पास जा सकते हैं, मुरारी के पास जा सकते हैं। प्रतिष्ठापूर्वक जीवनयापन करने के लिए सबकुछ उनके पास है। कोई नहीं था, तब भी किसी तरह रास्ता दिया ही था जिंदगी ने उन्हें। अब तो उनके पास बहुत कुछ है। विकट स्थिति का सामना करने में भी वे अकेले सक्षम हैं। फिर इतना सोचना-विचारना, इतना वितंडावाद क्यों?

तेल मिल लग जाने, उसके सफलतापूर्वक चल जाने से कन्हैयालालजी मंगल की हैसियत पर क्या प्रभाव पड़ेगा? उनकी निजी आवश्यकताएँ जितनी हैं, उनकी पूर्ति के लिए किसी तेल मिल की जरूरत नहीं है। लड़के दाल-रोटी कमा रहे हैं। अधिक धन की लालसा हो तो अपना पुरुषार्थ दिखाएँ। वे क्यों जान-बूझकर जाल में उलझें?

आसमान ने रंग उस रात भी बदले। लेकिन वे रंग पिछली रात से भिन्न थे। कहीं ज्यादा चमकीले, कहीं ज्यादा खुशगवार। जब उन्हें नींद आई, उनके मुखमंडल पर निर्णय पर पहुँच जाने का सुख था। तनावमुक्त प्रभा ने कन्हैयालालजी की बंद आँखों में एक सौम्यता ज्योतित कर दी थी।

सुबह बिस्तर से उठते ही उन्होंने गिरधारी और विष्णु को अपने पास बुलाया, ‘‘मुझे तुम दोनों से कुछ काम है। गिरधारी, आज तुम इंडस्ट्रियल एरिया मत जाना और विष्णु, तुम भी आज छुट्टी ले लो। स्नानादि करके, नाश्ते से फारिग होकर तुम दोनों मेरे कमरे में आ जाओ।’’

उन्होंने गिरधारी और विष्णु की ओर देखा। गिरधारी के चेहरे पर असमंजस और विष्णु के चेहरे पर हमेशा की तरह तटस्थता के भाव थे। बेटों को सवाल-जवाब का अवसर दिए बिना ही वे उठकर निवृत्त होने चले गए।

लगभग दस बजे जब कन्हैयालालजी मंगल तैयार हुए तो गिरधारी और विष्णु पहले ही आकर उनके कमरे में बैठ गए थे। दवाखाना जाने का इरादा उन्होंने छोड़ दिया था। कुरसी पर आसन जमाकर कन्हैयालालजी ने ही बात शुरू की, ‘‘बहुओं की अनबन के बारे में परसों जो बातचीत हम लोगों में हुई थी, उससे मैं इस निर्णय पर पहुँचा हूँ कि स्वतंत्र रूप से रहने का अभ्यास हो जाने के कारण बहुओं के रहन-सहन का एक तरीका बन गया है। इस तरीके को बदलना असंभव तो नहीं, लेकिन आसान भी नहीं है। इस जटिल प्रक्रिया में उलझकर भी हम उन्हें बदलने की गारंटी नहीं दे सकते। हाँ, एक-दूसरे के प्रति बहुओं में वैमनस्य भाव जरूर पैदा हो जाएगा। इस वैमनस्य का प्रभाव तुम दोनों पर पड़े बिना भी नहीं रहेगा। आज चाहे आर्थिक दृष्टि से अमीर कहलाने की स्थिति में नहीं हो, किंतु अपनी सामान्य आवश्यकताएँ पूरी करने में तुम लोगों को कोई दिक्कत नहीं आती है। क्यों, मैं ठीक कह रहा हूँ न?’’

‘‘जी हाँ।’’ गिरधारी ने कहा। विष्णु मौन रहकर सिर झुकाए बैठा रहा।

‘‘क्यों विष्णु, तुम्हारा क्या विचार है?’’

‘‘आप अपनी बात पूरी करिए, पापा। मुझे जो कहना था, परसों रात को कह चुका हूँ।’’ विष्णु ने जवाब दिया और बात आगे सुनने के लिए कन्हैयालालजी की ओर देखने लगा।

‘‘ठीक है, मैं अपनी बात पूरी कह देता हूँ। आज तुम तीनों भाई अलग-अलग शहरों में रहते हो। किंतु एकता, भाईचारा और सुख-दुःख में काम आने की भावना तुममें एक ही जगह रहनेवाले भाइयों से भी ज्यादा है। परसों की बातचीत के बाद मैंने बहुत सोच-विचार किया है। मैं इस परिणाम पर पहुँचा हूँ कि ज्यादा पैसे के मोह में पड़कर हम अपने सुख और संतोष को दाँव पर लगा रहे हैं। तुम दोनों की बातचीत से भी यह आशय निकलता था कि पैसा चाहे कम आए, सुख-शांति कम नहीं होनी चाहिए। इसलिए मैंने सोचा है कि तेल मिल की स्थापना का काम रद्द कर दिया जाए।’’

कन्हैयालालजी थोड़ा रुके कि गिरधारी ने शंका प्रकट की, ‘‘पापा, शेड काफी बन चुका है। जो लागत अब तक हुई, वह डूब सकती है।’’

‘‘पहली बात तो यह है कि जितना पैसा हमने लगाया है, उतने में यह उससे कुछ कम में कोई भी उसको खरीद लेगा। मान लिया, कोई खरीदने के लिए तैयार नहीं हुआ, तब भी कोई बात नहीं। रुपया लेकर आत्मसंतोष दे देने से अच्छा रुपया देकर आत्मसंतोष बनाए रखना है।’’

कन्हैयालालजी मंगल देख रहे थे कि बात ज्यों-ज्यों आगे बढ़ती है, विष्णु के चेहरे पर प्रसन्नता के भाव और गिरधारी के चेहरे पर ऊहापोह, अप्रसन्नता के भाव आ रहे हैं। गिरधारी ने फिर कहा, ‘‘लेकिन रुपया रुपए को बढ़ाता भी तो है, पापा। पड़ा-पड़ा रुपया किस काम में आएगा?’’

कन्हैयालालजी के होंठों पर अनायास ही मुसकराहट खेल गई, ‘‘गिरधारी सेवा-निवृत्ति के बाद मुझे दफ्तर से जो कुछ मिला है, उसके निर्बाध उपयोग की तुम लोग मुझे छूट देते हो न?’’

‘‘वह पैसा आपका है, आप जो चाहे उसका उपयोग करें। लेकिन आगे बढ़कर पीछे लौटने वाली बात...।’’

कन्हैयालालजी ने उसे बीच में ही टोका, ‘‘हम पीछे कहाँ लौट रहे हैं, गिरधारी? जो हमारे पास था उसे छोड़कर, जो हमारे पास नहीं है, उसे पाने का प्रयत्न आगे बढ़ना कहलाएगा क्या? और पैसा? सचमुच पैसा मेरा कहाँ है? समाज का है। समाज के काम में आना चाहिए। तुम चुप क्यों हो विष्णु, कुछ तुम भी बोलो।’’

‘‘आदेश दीजिए, पापा, आपके निर्णयानुसार मुझे क्या करना है?’’

‘‘तुम्हें करना है विष्णु, बहुत कुछ करना है। फिलहाल तुम गाड़ी निकालो।’’

कन्हैयालालजी के निर्णयानुरूप सारा दिन आवश्यक काररवाई करने के बाद जब वे लोग घर लौटे तो शाम हो चुकी थी। भविष्य की योजना को कानूनी रूप दे दिया गया था। कन्हैयालालजी ने ट्रस्ट की स्थापना की थी। अपनी सारी जमा-पूँजी उन्होंने ट्रस्ट को दे दी थी। यह भी निर्णय किया गया था कि एक निश्चित राशि मृत्युपर्यंत कन्हैयालालजी के नाम से फिक्स्ड डिपोजिट में बैंक में जमा रहेगी। इस राशि का ब्याज जीवित रहने तक कन्हैयालालजी के निजी उपयोग में आएगा। मृत्यु के उपरांत ब्याज के ये रुपए ट्रस्ट के पास चले जाएँगे। इस अतिरिक्त राशि से प्राप्त ब्याज से एक अंशकालिक वेतनभोगी डॉक्टर दवाखाने के लिए नियुक्त किया जाएगा। मृत्युपर्यंत वे स्वयं ट्रस्ट के संचालक होंगे। इसके पश्चात् यह कार्य उनके कनिष्ठ पुत्र विष्णु कुमार मंगल करेंगे।

संध्या को कन्हैयालालजी मंगल दिनभर की दौड़-धूप के बावजूद हल्का महसूस कर रहे थे। फिक्स्ड डिपोजिट से मिलनेवाला ब्याज, मकान-किराया और पेंशन उनके लिए कम नहीं है। समय का जो उपयोग वे आजकल कर रहे हैं, वह उनके मानसिक सुख को बढ़ाएगा ही, घटाएगा नहीं। लड़कों में बाँटने के लिए दो मकान और यदि कोई निजी बचत होती है, तो अब भी शेष रहता है उनके पास।

तभी छोटी बहू ने आकर बताया, ‘‘बाहर कुछ लोग एक मरीज को साथ लेकर आए हैं।’’ कुरता गले में डालते हुए उन्होंने सोचा, कल विष्णु को भेजकर दवाएँ मँगवानी होंगी, कई दवाएँ खत्म हो गई हैं।

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