सन्देह : पॉल गॉगुइन
बिस्तर पर जाने का समय हो चुका था और जब हम साथ-साथ पसर गये तो मैंने अचानक पूछा, “क्या तुमने अक्लमन्दी की है?”
“हाँ।”
“और आजवाला प्रेमी, क्या तुम्हें वह अच्छा लगा?”
“मेरा कोई प्रेमी नहीं है।”
“तुम झूठ बोलती हो।” मछली बोली थी।
तेहूरा उठकर बैठ गयी और एकटक मेरी ओर देखने लगी। उसके चेहरे पर रहस्यवादिता और अजीब-से वैभव की अभिव्यक्ति मुझे दिखाई दी, जो पहले कभी नहीं दिखी थी, और मैं कभी अपेक्षा भी नहीं कर सकता था कि उसके स्वाभाविक रूप से आह्लादमय और अब तक भी लगभग बच्चे के-से चेहरे पर वह भाव कभी आ पाएगा।
हमारी उस छोटी-सी कुटिया का वातावरण परिवर्तित हो चुका था। मुझे ऐसा लगा जैसे कोई बेहद ऊँचे किस्म की चीज हम दोनों के बीच आ विराजी है। अपना ही विरोध करते हुए मैंने आस्था के प्रभाव के सामने हथियार डाल दिये और ऊपर की ओर से आनेवाले किसी सन्देश की राह तकने लगा। मुझे तनिक भी सन्देह नहीं रह गया था कि वह सन्देश नहीं आएगा। ऐसी तीव्र आस्था की निश्चितता के बावजूद सन्देहवाद का अशक्त अहं मुझ पर अभी भी प्रभाव जमाने को तत्पर था - लगता था जैसे यह आस्था भी किसी जड़ अन्धविश्वास का ही परिणाम है।
तेहूरा धीरे से द्वार तक गयी ताकि निश्चिन्त हो सके कि वह ठीक से बन्द है और फिर कमरे के बीचोंबीच पहुँचकर वह यह प्रार्थना जोर-जोर से पढ़ने लगी :
त्राहि माम्! त्राहि माम्!
सन्ध्या हो रही है, देवताओं की सन्ध्या हो रही है।
हे मेरे प्रभु, मुझ पर अपनी नजर रख!
मुझ पर नजर रख, मेरे प्रभु!
मोहजाल और बुराइयों से मुझे बचा!
और उनसे भी, जो बुराई करते हैं और कोसते हैं।
भूमि के बँटवारे पर होने वाले झगड़ों से मुझे दूर रख,
ताकि हमारे आसपास शान्ति का राज हो!
मेरे प्रभु, लड़ते हुए योद्धाओं से मुझे बचा!
उससे मेरी रक्षा कर जो मुझे धमकाता है,
जिसे मुझे कँपाकर आनन्द प्राप्त होता है,
उससे, जिसके बाल हमेशा चमकते रहते हैं-
ताकि मैं और मेरी आत्मा अन्त तक जीवित रह सकें,
हे मेरे प्रभु!
उस शाम मैंने भी तेहूरा के साथ प्रार्थना की।
अपनी प्रार्थना के बाद वह मेरे पास आयी और आँखों में आँसू भरकर बोली, “मुझे पीटो-बार-बार पीटो।”
इस चेहरे की गहन मुद्रा में और जिंदा मांस के बने इस बुत के पूर्ण सौन्दर्य में मुझे अलौकिकता की झलक मिल गयी, जिसे तेहूरा ने अपने भीतर समो रखा था।
अगर कुदरत की इस नायाब रचना पर मेरे हाथ उठें तो उन पर कहर टूट पड़े।
नग्नावस्था में भी, आँखों में डूबी शान्त आँखों को लिये, वह मुझे पवित्र वस्त्र में लिपटी-सी लगी -किसी भिक्षु के गेरुये वसन में।
वह फिर बोली, “मुझे पीटो, मुझे बार-बार मारो। नहीं तो तुम देर तक खफ़ा रहोगे और बीमार पड़ जाओगे।”
मैंने उसे चूम लिया।
और अब जबकि मैं उसे सन्देहरहित प्रेम करता हूँ और उतना ही प्यार करता हूँ, जितना कि उसकी प्रशंसा करता हूँ, मैं बुद्ध के ये शब्द अपने आप से कहता हूँ - अपने क्रोध को दया से जीतो, अच्छाई से बुराई को, सत्य से असत्य को।
वह रात अलौकिक थी, किसी भी अन्य रात से कहीं अधिक आनन्ददायी - और दिन बेहद प्रकाशमय।
तड़के-सवेरे ही उसकी माँ हमें देने के लिए कुछ ताजे नारियल लायी।
आँख की एक झपकी मात्र से उसने तेहूरा से कुछ पूछ डाला। वह जानती थी।
बहुत बढ़िया मुख-मुद्रा बनाकर उसने मुझसे कहा, “कल तुम मछली मारने गये थे। सब ठीक-ठाक रहा?”
मैंने कहा, “मुझे उम्मीद है मैं जल्दी ही फिर जाऊँगा।”