सन् '60 के बाद की हिन्दी कविता (निबंध) : केदारनाथ सिंह
San '60 Ke Baad Ki Hindi Kavita (Hindi Nibandh) : Kedarnath Singh
'आँगन के पार द्वार' के पुरस्कृत होने के साथ नई हिन्दी कविता का एक दौर पूरा हो जाता है। यह आकस्मिक नहीं कि दस-पन्द्रह वर्षों के अनवरत विरोध के बाद सहसा सन् 1965 में नई कविता की एक प्रतिनिधि कृति राजकीय पुरस्कार के योग्य मान ली गई । वस्तुतः इसके पीछे इतिहास का एक निश्चित तर्क है। यह संयोग तब और भी आश्चर्यजनक हो उठता है, जब हम 'आँगन के पार द्वार' के साथ ही इस वर्ष की बंगला की पुरस्कृत काव्यकृति 'यतो दुरेइ जाइ' को भी रख देते हैं । इन दोनों कृतियों के रचयिता (अज्ञेय तथा सुभाष मुखोपाध्याय) भारतीय कविता की उस आधुनिक धारा का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिसने स्वच्छन्दतावाद का विरोध किया था और उसके स्थान पर व्यक्ति के निजी और प्रामाणिक अनुभव को प्रतिष्ठा दी थी। आरम्भ में इस धारा में विद्रोह के तत्त्व स्वभावतः अधिक थे। पर धीरे-धीरे कलात्मक प्रौढ़ता के साथ वे कम होते गये और सन् 60 तक आते-आते उसकी भाषा और अनुभववादी दर्शन में स्थिरता आने लगी। जीवन की सारी समस्याएँ सिमटकर कवि अथवा कलाकार की सृजन-प्रक्रिया की समस्याएँ बन गईं। संभवतः नवलेखन के क्षेत्र में यह सौन्दर्यवादी रुझान कुछ दिनों तक और चलता रहता - यदि अकस्मात् सन् 1962 के राष्ट्रीय संकट ने साहित्य तथा राजनीति में एक ही साथ बहुत-से मोहक आदर्शों और खोखले काव्यात्मक शब्दों के प्रति हमारे मन में एक विराट शंका न भर दी होती। परिणाम यह हुआ कि कुछ आधुनिक विचारकों, और विशेष रूप से नई पीढ़ी के रचनाकारों में नवलेखन के इस सौन्दर्यवादी रुझान के विरुद्ध एक सीधी प्रतिक्रिया हुई। सृजनात्मक विद्रोह के वे तत्त्व, जो अज्ञेय और सुभाष मुखोपाध्याय की कृतियों से गायब हो गये थे, इन रचनाकारों की कृतियों में उभरकर आने लगे- इस अन्तर के साथ कि इनके विद्रोह के पीछे काम करनेवाला मानसिक विक्षोभ 'साहित्यिक' कम और 'ऐतिहासिक' अधिक है। इतिहास का यह एक विचित्र तर्क है कि पुराने प्रतिष्ठा प्राप्त आलोचक किसी नई प्रवृत्ति को तब तक स्वीकार नहीं करते, जब तक स्वयं इतिहास के भीतर से ही कोई नव्यतर विद्रोही प्रवृत्ति उसके समानान्तर नहीं उठ खड़ी होती । ऐसी स्थिति में उन्हें अपना पक्ष चुन लेने में सुविधा होती है। इस प्रकार की अधिकांश साहित्यिक आलोचना इसी सुविधाजनक चुनाव का परिणाम है। इस पृष्ठभूमि में रखकर देखें तो 'आँगन के पार द्वार' और 'यतो दुरेइ जाइ' का पुरस्कृत होना आश्चर्यजनक लगे, आकस्मिक बिल्कुल नहीं लगेगा ।
इस परिवर्तन के स्वरूप को समझने के लिए उस स्थिति की व्याख्या आवश्यक है, जिसमें आज का कवि रचनारत है। 'रचना' शब्द को मैं यहाँ रेखांकित करना चाहूँगा, क्योंकि आज के कवि के निकट इस शब्द की पवित्रता और महत्त्व का जादू काफी हद तक टूट चुका है। वह जानता है कि वह जो कुछ 'रचता' है, वह उसे किसी भी अर्थ में कोई वैशिष्ट्य प्रदान नहीं करता, न ही उसके द्वारा वह अपने आसपास की तर्कहीन स्थिति को कोई संगति ही दे पाता है। यह आज की मानवीय स्थिति की चरम परिणति है कि कवि के निकट स्वयं सृजन क्रिया ही भयावह हो उठी है। फिर भी वह 'रचने' की इस असुखद स्थिति से मुक्त नहीं हो पाता, क्योंकि इसके सिवाय इस निरर्थकता से उबरने का कोई उपाय भी नहीं है। हुआ यह है कि इस बीच कवि की परम्परागत प्रतिमा अचानक खंडित हो गई है। वह न तो अब द्रष्टा है, न समाज का विशिष्ट नागरिक । यहाँ तक कि अब वह अजनबी भी नहीं है, क्योंकि वह चीजों को पहचानता है और इस पहचान के परिणामों से बचने की कोशिश नहीं करता। इस स्थिति का प्रत्यक्ष प्रभाव तो यह है कि आज के कवि का 'मैं' एकवचन प्रथम पुरुष का 'मैं' न होकर 'हम' की तरह अमूर्त और व्यापक हो गया है, और ऐसा किसी बड़े आदर्श के प्रति आग्रह के कारण नहीं, बल्कि अमानवीकरण की एक बृहत्तर प्रक्रिया के अन्तर्गत अपने आप और बहुत कुछ कवि के अनजान में ही हो गया है।
नये कवि की इस विडम्बनापूर्ण स्थिति का असर उसकी कविता पर यह पड़ा कि वह वस्तु के आकर्षण से खिंचकर गद्य के और निकट आ गई। उसने अपने लिए 'विचार नहीं, केवल वस्तु' का कठिन मार्ग चुना। फलतः एक नये प्रकार के वस्तु-बोध का उदय हुआ, जो वस्तुस्थिति का सामान्य बोध न होकर वस्तु की स्वतन्त्र सत्ता का विशिष्ट बोध है। इससे पूर्व शायद वस्तु की सार्थकता अथवा निरर्थकता को इतनी तीव्रता के साथ कभी नहीं महसूस किया गया था। कुर्सी, टेबुल, जूते, पेंसिल और लैम्पपोस्ट पहली बार कविता में मानवीय अनुभूतियों के सहभोक्ता बनकर आए। पूर्ववर्ती पीढ़ी की कविता में दैनिक जीवन की वस्तुएँ प्रायः एक आलंकारिक प्रयोजन की पूर्ति के लिए प्रतीकात्मक रूप में लायी जाती थीं और उनके प्रति कवि की रागात्मक प्रतिक्रिया लगभग निश्चित होती थी। पर अब एक कुर्सी तथा टेबुल अपने स्वतन्त्र आकार की विलक्षणता के साथ मानवीय अस्तित्व की सक्रिय साझीदार बन गई हैं। नया कवि जाने-अनजाने प्रसिद्ध जर्मन कवि गाटफ्रीड बेन की इस पंक्ति को स्वीकार करके चलता है कि “यदि तुम अपने आपको वस्तुओं से स्वतंत्र कर लोगे तो तुम्हें एक रंगहीन नियति का सामना करना पड़ेगा ।" अतः वह हर क्षण महसूस करता है कि वह वस्तुओं के एक विशाल जंगल में साँस ले रहा है। यदि इस त्रासकारी अनुभव के दूरव्यापी स्रोतों की तलाश की जाय तो उसके सूत्र निस्संदेह सार्त्र के अस्तित्ववाद में मिल सकते हैं, जिसके अनुसार वस्तुएँ अपने शुद्ध विधेयात्मक रूप में एकदम तटस्थ, अनिर्दिष्ट और किसी भी भविष्यवाणी से परे, अपना लक्ष्य चुनने के लिए बिलकुल स्वतन्त्र होती हैं। पहले कवि एक नकारात्मक प्रक्रिया से उन्हें इस प्रकार रूपान्तरित कर लेता था कि वस्तु उसके लिए वस्तु रह ही नहीं जाती थी । नया कवि उन्हें रूपान्तरित नहीं करता; क्योंकि वह जानता है कि उस प्रक्रिया से वस्तुओं की मूलभूत अनिश्चितता को बदला नहीं जा सकता। साथ ही वह यह भी जानता है कि सृजन के स्तर पर एक ऐसी चीज का सामना करना, जिसकी प्रकृति के बारे में पहले से कुछ भी नहीं कहा जा सकता, अपने आपमें खतरनाक है और एक विशेष प्रकार के साहस की माँग करता है। अतः कभी-कभी वह दुस्साहस की हद तक साहस का परिचय देता है, विशेषतः ऐसी चीजों के बारे में, जिनका सम्बन्ध उच्चवर्गीय नैतिकता, सुरुचि और सौन्दर्य-बोध से होता है। इस अर्थ में वह शुद्ध कविता के विरुद्ध है और स्वयं अपनी नियति से प्रतिबद्ध हो अथवा नहीं, अपने आसपास की वस्तुओं की नियति से प्रतिबद्ध अवश्य है।
यदि नये कवि की केन्द्रीय मनोदशा की व्याख्या की जाय तो वह इलियट पाउंड आदि कवियों की अपेक्षा काफ्का और ब्रेख़्त आदि गद्य लेखकों के 'मूड' के अधिक निकट पाया जायेगा। यही कारण है कि उसकी कविता आधुनिक उपन्यास की अनेक विशेषताओं को अपने भीतर समोती चली जा रही है। वह एक सामान्य दृश्य को भी उपस्थित करता है तो लगता है जैसे आन्तरिक द्वन्द्व से उभरती हुई एक पूरी पटकथा को प्रस्तुत कर रहा हो। उसके चित्र और संकेत किसी गहरे षड्यन्त्र को छिपाए हुए नाटकीय पात्र की तरह बड़ी तेजी से आते हैं और फिर गायब हो जाते हैं। शायद आज के तनावपूर्ण नागरिक जीवन को उसकी निकटतम भाषा में व्यक्त करने के लिए यह आवश्यक था कि कविता को आधुनिक उपन्यास की अपेक्षाकृत ठोस भूमि पर उतारा जाय और यदि नया कवि अपने युग के काव्यात्मक आदर्शों से हटकर काफ्का और ब्रेख़्त की गद्यात्मक मनोभूमि के निकट पहुँचने का प्रयास कर रहा है तो इसे कविता का अन्यथाकरण नहीं, बल्कि उसके विकास की स्वाभाविक दिशा ही मानना चाहिए। रघुवीर सहाय श्रीकान्त वर्मा और कुछ दूसरे नये कवियों की कविताओं को पढ़कर हम अपने को जिस परिवेश के बीच पाते हैं, उसकी ऐतिहासिक जटिलता और वस्तुगत रहस्यमयता का निकट सम्बन्ध यदि किसी के साथ जोड़ा जा सकता है तो वह अज्ञेय और शमशेर की कविताओं के साथ नहीं, बल्कि 'लन्दन की एक रात' और 'हत्यारे' जैसी कथाकृतियों के साथ होगा। इन कवियों की कविता एक संसक्त मनःस्थिति की कविता है, जिसमें राजनीतिक स्थिति की मानवीय विवशताएँ और आर्थिक दैत्य की तैरती हुई छायाएँ भी देखी जा सकती हैं। प्रकृति और प्रेम जैसे विषयों के प्रति इन कवियों की प्रतिक्रिया एकदम बदल गई है। इनकी दृष्टि में प्रेमिका की प्रतीक्षा, वसन्त की प्रतीक्षा और अखबार की प्रतीक्षा में कोई मूलभूल अन्तर नहीं रह गया है। मानव के हँसने, बोलने और शाम को लौटकर अपने घर आ जाने जैसे चिरपरिचित कार्य भी उन्हें चमत्कार जैसे लगते हैं। सन् '60 के बाद की कविता इन्हीं सीधे-सादे पर खौफनाक चमत्कारों की काव्यात्मक प्रतिक्रिया है ।
मोटे तौर पर इस बीच लिखी जानेवाली कविताओं का विकास दो दिशाओं में हुआ है। पहला कविता से अकविता की ओर, और दूसरा शुद्ध कविता से एक खास किस्म की प्रतिबद्ध कविता की ओर ये दोनों प्रवृत्तियाँ वस्तुतः अलग-अलग न होकर उस मूल प्रवृत्ति के ही दो रूप हैं, जो कविता और जीवन के हर स्तर पर वस्तुओं के स्वीकृत अर्थ को अस्वीकार करती हैं। 'अस्वीकार' का यह स्वर कुछ कवियों में तेज है, कुछ में धीमा और कुछ में वह इतना सूक्ष्म है कि सुनाई नहीं पड़ता । पर शायद यही एक बात है जो उन्हें स्पष्टतः अपनी पूर्ववर्ती पीढ़ी से अलग करती है। उनकी प्रतिबद्धता किसी राजनीतिक मतवाद से परिचालित होने में नहीं, बल्कि आज की तीव्रतम राजनीतिक स्थिति और उसकी सारी तार्किक परिस्थितियों को अपनी नितान्त व्यक्तिगत और छोटी से छोटी अनुभूतियों के साथ सम्बद्ध कर लेने में है ।
भाषा के स्तर पर इन कवियों में शब्दों के प्रयोग की प्रवृत्ति अधिक दिखाई पड़ती है, जो अकाव्यात्मक तथा आघात देनेवाले होते हैं। कविता से अकविता की ओर बढ़ने की प्रवृत्ति का सबसे प्रत्यक्ष उदाहरण इनके शब्दों के चुनाव में ही दिखाई पड़ता है। इनका जोर ऐसे शब्दों के चुनाव पर अधिक है, जिनकी ध्वनि गणित के चिह्नों की तरह 'ठीक' और 'अचूक' हो। इस प्रयास में इस बात की पूरी संभावना थी कि उसके भीतर से एक ऐसी कविता का जन्म हो, जो भाषा अथवा प्रेषणीयता के आन्तरिक रहस्यों का काव्यात्मक विश्लेषण प्रस्तुत करे। पर इस प्रवृत्ति का एक हल्का-सा संकेत केवल कुँवर नारायण की कुछ कविताओं में ही मिलता है। अधिकांश कवियों की कोशिश यही है कि शब्दों का चुनाव ऐसे क्षेत्रों से और इस प्रकार किया जाय कि सम्पूर्ण परिस्थिति ही भाषा बन जाय । जहाँ तक प्रेषणीयता का प्रश्न है, इन कवियों का उस सम्बन्ध में कोई दावा नहीं है। वस्तुतः उनके निकट प्रेषणीयता की स्थिति बहुत सुखद और स्वाभाविक है भी नहीं । अंग्रेजी के युवा नाटककार हेराल्ड पिंटर ने कहीं कहा है कि आदमी यदि अपनी बात को दूसरे तक नहीं पहुँचा पाता तो इसलिए नहीं कि उसमें सम्प्रेषण की क्षमता का अभाव है; बल्कि इसलिए कि वह उस स्थिति की भयानकता से बचना चाहता है। आज की अधिकांश कविताएँ पिंटर के इस कथन को चरितार्थ करती-सी जान पड़ती हैं। उनकी शैली बहुत कुछ दो व्यक्तियों के बीच होनेवाले उस प्रेमालाप की तरह होती है, जिसमें फूल, पत्तों और मौसम की बात तो बार-बार की जाती है, पर वह मूल बात हर बार अकथित ही छोड़ दी जाती है, जो कि सारी वार्ता का केन्द्र होती है। और ऐसा सम्प्रेषण के अभाव के कारण नहीं, बल्कि उसकी विवश कर देनेवाली अपरिहार्यता के कारण होता है।
कुल मिलाकर सन् 60 के बाद लिखी जानेवाली कविताएँ सच्चे अर्थ में समकालीन उपकरणों के द्वारा समकालीन कवि की ओर से समकालीन पाठक के प्रति सम्बोधित कविताएँ हैं और अपने समय की कोई प्रौढ़ और सम्पूर्ण व्यवस्था चाहे न दे पाती हों, पर उसके प्रति एक सीधी और सच्ची मानवीय प्रतिक्रिया की अभिव्यक्ति जरूर करती हैं। यही उनकी उपलब्धि है और एक ऐसे समय में, जब सच्ची बात कहना जोखिम का काम हो, इतना भी कम नहीं है। ऐसी कविता के सामने, जो समकालीनता के बोध से पूरी तरह घिरी हुई हो, बहुत-से खतरे हो सकते हैं और उन पर अलग से विचार होना चाहिए। यहाँ केवल इतना ही कहा जा सकता है कि इन कवियों की भावी सफलता इस बात पर निर्भर नहीं करती कि वे इन खतरों से किस हद तक बच पाते हैं; बल्कि इस बात पर निर्भर करती है कि वे अपनी सम्पूर्ण समकालीनता के साथ कहाँ और किस बिन्दु पर इन सारे खतरों को अतिक्रान्त कर जाते हैं।
[1965]
('मेरे समय के शब्द' में से)