सम्राट का स्वत्व (कहानी) : श्री राय कृष्णदास
Samrat Ka Svatva : Sri Rai Krishna Das
एक वह और एक मैं! किंतु मेरा कुछ भी नहीं! इस जीवन में कोई पद नहीं! वह समस्त साम्राज्य पर निष्कंटक राज्य करे और मुझे एक-एक कौड़ी के लिए उसका मुँह देखना पड़े! जिस कोख में उसने नौ महीने बिताये हैं, मैं भी उसी कोख से पैदा हुआ हूँ। जिस स्तन ने शैशव में उसका पालन किया, उसी स्नेह का मैं भी पूर्ण अधिकारी था। पिता की जिस गोद में वह बैठकर खेला है, मैंने भी उसी गोद में ऊधम मचाया है। हम दोनों एक ही माता-पिता के समान स्नेह और वात्सल्य के भागी रहे हैं। हम लोगों की बाल्यावस्था बराबरी के खेलकूद और नटखटी में बीती है। हम लोगों ने एक ही साथ गुरु के यहाँ एक ही पाठ पढ़ा और याद किया। एक के दोष को दूसरे ने छिपाया। एक के लिए दूसरे ने मार खायी। संग में जंगल-जंगल शिकार के पीछे मारे-मारे फिरे। भूख लगने पर एक कौर में से आधा मैंने खाया, आधा उसने। तब किसी बात का अंतर न था–एक प्राण दो शरीर थे।
पर आज समय ही तो है। वह सिंहासन पर बैठकर आज्ञा चलाये, मैं उसके सामने भेंट लेकर नत होऊँ। कुत्ते के टुकड़े की तरह जो कुछ वह फेंक दे, सो मेरा। नहीं तो पिता-पितामह की, माता-प्रमाता की, पूर्वजों की इस विशाल सम्पत्ति पर मेरा बाल भर भी अधिकार नहीं! आह! दैव-दुर्विपाक! एक छोटे-से-छोटे कारबारी के इतना भी मेरा अधिकार नहीं। पूर्व महाराज की मुझ औरस संतान का कोई ठिकाना नहीं। क्यों इसी संयोगमात्र से कि मैं छोटा हूँ और वह बड़ा। ओह! यदि आज मैं वणिकपुत्र होता, तो भी पैतृक-सम्पत्ति का आधा भाग उसकी नाक पकड़ कर रखवा लेता। किंतु धिक्कार है मेरे क्षत्रिय-कुल में जन्मने पर, कि मैं दूर्वा की तरह, प्रतिक्षण पद-दलित होकर भी जीवित रहूँ। हरा भरा रहूँ। ‘राजकुमार’ कहा जाऊँ–‘छोटा महाराज’ कहा जाऊँ। खाली घड़े के शब्द की तरह, रिक्त बादल की गरज की तरह कोरा अभिमान कि इधर से उधर टक्कर खाता फिरूँ! शिवनिर्माल्य की तरह किसी अर्थ का न रहूँ। अपने ही घर में, अपने ही माता-पिता के आँगन में अनाथ की तरह ठोकर खाता फिरूँ। बिकर के पिंड की तरह फेंका जाऊँ। आह! यह स्थिति असह्य है मेरा क्षत्रिय-रक्त तो इसे एक क्षण भी सहन नहीं कर सकता। चाहे जैसे हो इससे छुटकारा पाना होगा। या तो मैं नहीं या यह स्थिति नहीं। देखूँ किसकी जीत होती है।
एक क्षण का तो काम है। एक प्रहार से उसका अंत होता है, किंतु क्या कायरों की तरह धोखे में प्रहार। प्रताप के लिए तो यह काम होने का नहीं, यह तो चोरों का काम है! दस्युओं का काम है! हत्यारों की वृत्ति है!
कुमार प्रतापवर्धन का चेहरा तमतमाया हुआ था। ओठ फड़क रहे थे। नस-नस में तेजी से खून दौड़ रहा था। मारे क्रोध के उसके पैर ठिकाने नहीं पड़ते थे। संध्या का शीतल समीर उसके उष्ण शरीर से टकराकर भस्म-सा हुआ जाता था। कुमार को बोध होता था कि सारा प्रासाद भूकंप से ग्रस्त है। अनेकानेक प्रेत-पिशाच उसे उखाड़े डालते हैं। क्षितिज में संध्या की लालिमा नहीं है, भयंकर आग लगी हुई है। प्रलय-काल में देर नहीं।
जिस प्रकार ज्वालामुखी के लावा का प्रवाह आँख मूँदकर दौड़ पड़ता है, उसे ध्वस्त करता चलता है, उसी प्रकार राजकुमार का मानसिक आवेश भी अंधा होकर दौड़ रहा था।
‘क्यों प्रताप, आज अकेले ही वहाँ क्यों टहल रहे हो?‘
अचानक पीयूष-वर्षा हो उठी। राजकुमार की ओर उनकी भाभी-महारानी-चली आ रही थीं। महारानी का प्रताप पर भाई जैसा प्रेम, मित्र जैसा स्नेह, और पुत्र जैसा वात्सल्य था। राजकुमार उसके सामने आते ही बालक जैसे हो जाते। पर इस समय वे कुछ न बोले। महारानी ने फिर प्रश्न किया, पर राजकुमार अवाक् थे। कुछ क्रोध के कारण नहीं, महारानी के शब्द कान में पड़ते ही उनके हृदय को भीषण धक्का लगा था। क्रोध में भारी प्रतिघात हुआ था और राजकुमार के लिये उस प्रतिघात को सहना असंभव था। यदि प्रतप्त अंगार औचक शीतल पानी में पड़ जाय तो शतधा फट जाता है। उसी तरह उनके हृदय की दशा हो रही थी। और जब महिषी ने तीसरी बार प्रश्न किया, तब प्रताप बच्चों की तरह रो पड़ा।
राजमहिषी इस गोरखधंधे को जरा भी न समझ सकीं! उन्होंने फिर कोमलता से पूछा–‘बोलो प्रताप, आज क्या बात है–तुम पर ऐसा कौन कष्ट पड़ा कि तुम रो रहे हो, मैंने तो कभी तुम्हारी ऐसी दशा न देखी थी। आज दोनों भाइयों में झगड़ा तो नहीं हुआ?’
प्रताप के आँसुओं की झड़ी ज्यों-की-त्यों जारी थी। कष्ट से हिचकियाँ लेते-लेते उसने उत्तर दिया, पर वे समझ न सकी।
कुमार का हाथ अपने हाथ से थामकर दूसरा हाथ पीठ पर फेरते हुए वे बोलीं–‘शांत हो,! मेरा हृदय फटा जाता है। बोलो, बताओ, क्या बात है? चलो तुम्हारा उनका मेल करा दूँ।
राजमहिषी ने समझा कि इसके सिवा अन्य कोई कारण नहीं है। प्रताप ने बड़ी कठिनता से अपने आपको सँभालकर कहा–भला मैं किस बल पर भाई का सामना करूँगा?’
‘प्रताप, ऐसी कटु बात न कहो। तुम्हें स्नेह का बल है, स्वत्व का बल है। इससे बढ़कर कौन बल हो सकता है बोलो क्या कारण है? कहो मेरा हृदय क्रदंन कर रहा है।’
महारानी का कंठ रुँध गया था उनकी आँखें भर आयी थीं।
‘कुछ नहीं भाभी! मन ही तो है। यों ही कुछ बातें बीते दिनों की याद आ गयीं स्नेहमयी माता नहीं पर तुम तो हो। अब तक मैं निरा बच्चा ही बना हुआ था। बस यह बचपन की एक तरंग थी।’
‘नहीं प्रताप, तुम्हें मेरी शपथ है। मुझे अपना दुख सुना दो। चाहे तुम्हारा हृदय ऐसा करने से हलका न हो, पर मेरा हृदय अवश्य हलका हो जायगा।’
प्रताप ने उदासीन मुस्कुराहट, छूँछी हँसी हँसते हुए कहा–‘कुछ नहीं भाभी, कुछ हो तब तो! संध्या की उदासी, निराली अटारी, मन में कुछ सनक आ गयी थी। अब कुछ नहीं। चलिए, आज हम लोग घूमने चलेंगे!’
‘प्रताप तुम टाल रहे हो। इसमें मुझे दुःख होता है। आज तक तुमने मुझसे कुछ छिपाया नहीं। दुःख-सुख हुआ, सब कहा। आज यही बात क्यों?’
प्रताप फिर बच्चों की तरह सिसकने लगा। उसने महिषी के चरणों की धूलि सिर पर लगा ली।
‘भाभी, तुम्हारा बच्चा ही ठहरा, कहूँ नहीं तो काम कैसे चले! कहूँगा, सब कहूँगा। पर क्षमा करो। इस समय चित्त ठिकाने नहीं है। फिर पूछ लेना।’
‘अच्छा, घूमने तो चलो।'‘
‘नहीं, इस समय मुझे अकेले छोड़ दो भाभी।’
‘क्यों, तुम्हीं ने अभी प्रस्ताव किया था न?’
‘भाभी, वह कपट था।’
‘प्रताप, तुम–और मुझसे कपट करो! कुमार, मैं इसे देवताओं की अकृपा के सिवा और क्या कहूँ, अच्छा जाती हूँ। किंतु देखो, तुम्हें अपना हृदय मेरे सामने खोलना पड़ेगा।’
रानी भी रोती-रोती चली गयीं। राजकुमार रिक्त दृष्टि से उसका जाना देखता रहा। फिर वह खड़ा न रह सका, वहीं अटारी के मुंडेरे पर बैठ गया।
महारानी ने देखा सम्राट उद्यान में खड़े हैं। रथ तैयार है। उन्होंने भी महारानी को अकेली आते देखा–उसका उतरा मुँह देखा, लटपटाती गति देखी। हृदय में एक धक्-सी हो गयी पूछ बैठे–‘क्यों, प्रताप कहाँ है? और तुम्हारी यह क्या दशा है?’
‘कुछ नहीं–महिषी ने भर्राये स्वर से कहा–चलिए घूमने।’
‘आज वह न चलेगा? बात क्या है, कुछ कहो तो? महाराज ने रूखे स्वर से पूछा।
भृत्यवर्ग स्तंभित था, चकित था। हाथ बाँधे हुए तो था, पर हृदय में काँप रहा था। क्या होने को है?
राजमहिषी ने महाराज के निकट जाकर धीरे-धीरे कुछ बातें की।
महाराज ने कहा–‘यह सब कुछ नहीं, चलो प्रताप से एक बार मैं तो बातें कर लूँ।
प्रताप और महाराज आमने-सामने थे। प्रताप की आँखें भूमि देख रही थीं। किंतु भौंहें तन उठी थीं। महाराज हिमालय की तरह शांत थे। उन्होंने जिज्ञासा की– ‘भाई प्रताप, आज कैसे हो रहे हो?’
किंतु कुमार ने कोई उत्तर नहीं दिया।
सम्राट ने उनका हाथ थाम लिया और स्नेह से उसे सहलाने लगे। प्रताप के शरीर में एक झल्लाहट-सी होने लगी। विरक्ति और घृणा से क्रोध ने कहा कि एक झटका दो, हाथ छु़ड़ा लो। साहस भी था। पर भ्रातृभाव ने यह नौबत न आने दी। तो भी प्रताप ने कोई उत्तर न दिया।
‘प्रताप, न बोलोगे? हम लोगों के जन्म-जन्म के स्नेह की तुम्हें शपथ है जो मौन रहो।’
‘भैया’–यहाँ प्रताप का गला रुक गया। बड़ी चेष्टा करते हुए उसने कहा–‘अब स्नेह नहीं रह गया।’
‘क्यों, क्या हुआ?’ महाराज उस उत्तर से कुछ चकित हो गये।
‘भैया–क्षत्रिय-रक्त ने जोर किया और नदी का बाँध टूट गया–‘प्रताप ने वयस्क होने के बाद पहली बार भाई से आँखें मिलाकर कहना शुरू किया–‘जिस जीवन की कोई हस्ती न हो, वह व्यर्थ है। हम दोनों सगे भाई हैं, तो भी–मैं कोई नहीं और आप चक्रवर्ती! यह कैसे निभ सकता है?’
‘तो लो, तुम्हीं शासन चलाओ प्रताप!’
महाराज ने अपना खड्ग प्रताप की ओर बढ़ा दिया।
प्रताप ने इस स्थिति की स्वप्न में भी कल्पना न की थी। वह किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया। महाराज साग्रह उसके हाथ में खड्ग देने लगे और वह पैरों पड़ने के सिवा कुछ न कर सका। तब महाराज ने उसे छाती से लगा लिया और समुद्र के से गम्भीर स्वर में कहने लगे– ‘सुनो प्रताप, सम्राट, राष्ट्र की एक व्यक्ति में केन्द्रित सत्ता है। भाई हो अथवा बेटा, कोई उसे बाँट नहीं सकता। यह वैभव देखकर न चकपकाओ। राष्ट्र ने अपनी महत्ता दिखाने के लिए और स्वयं प्रभावित होने के लिए इस वैभव को–इन अधिकारों को, राजा से सम्बद्ध किया है। ये अधिकार सम्पत्ति के, विलासिता के, स्वेच्छाचारिता के द्योतक नहीं। यह तराजू की कमाई नहीं है जो तौलकर जुटती और तौलकर ही बँटती भी है। यह है शक्ति की कमाई, और वह शक्ति क्या है? कच्चे सूत हाथी को बाँध लेते हैं, किंतु कब? जब एक में मिलकर वे रस्सी बन जाते हैं, तब। हाँ, कौटुम्बिक जीवन में यदि हम-तुम दो हों तो मैं अवश्य दंडनीय हूँ! समझे भाई?
‘इसी समय राजमहिषी मुस्कराती हुई महाराजा से कहने लगीं–‘नाथ इसे लक्ष्मी चाहिए, लक्ष्मी–आप समझे कैसी–गृहलक्ष्मी।’
कुमार लज्जित हो गया। फिर वह हँसता हुआ सम्राट-सम्राज्ञी दोनों को सम्बोधित कर कहने लगा–‘क्या समय बिता के ही घूमने चलिएगा?’