समय के पंख (रूसी कहानी) : कोंस्तांतीन पाउस्तोव्स्की
Samay Ke Pankh (Russian Story in Hindi) : Konstantin Paustovsky
एक बार मास्को के एक चित्रकार लावरोव को वोल्गा नदी के समीपवर्ती क्षेत्रों के प्राकृतिक तथा ग्राम्य-दृश्यों को चित्रपट पर उतारने का दायित्व सौंपा गया। उसने खुशी से यह कार्यभार स्वीकार कर लिया। पर अपने स्वभावगत आलस्य के कारण उसने सारी गर्मी तैयारी में ही बिता दी। कहीं सितम्बर महीने के आरम्भ में ही वह मास्को से वोल्गा के लिए रवाना हुआ।
धुएँ के चैड़े चोंगे वाले जलपोत के शीशों को पालिश से इतना अधिक चमकाया गया था कि वे बिल्लौर की सी झलक देते थे। इंजनों में कम्पन हुआ। जहाज धीरे-धीरे और निर्बाध गति से आगे बढ़ने लगा। जहाज में ढेरों बत्तियाँ जगमगा रही थीं और उसका डेक तरह तरह की बढ़िया पोशाकों वाले मुसाफिरों से खचाखच भरा था। जहाज आस-पास के उन जंगलों और छोटे-छोटे मैदानों के नज़दीक से होकर गुजरा, जहाँ ठण्डा होता हुआ सूर्य छिप रहा था। जंगल तो लाल तथा सुनहरा हो भी चुका था। शरद्काल के आरम्भ की उस संध्या के हल्के प्रकाश में नहर की कई दिशा-संकेत बत्तियाँ हिल रही थीं।
लावरोव था तो काफ़ी बड़ी उम्र का आदमी, मगर स्वभाव का झेंपू था। इसीलिए उसे अपने साथी मुसाफिरों से मित्रता करने में कठिनाई अनुभव हुई। अपने सभी मिलनेवालों में वह एक ही उद्देश्य से दिलचस्पी लेता था कि उनका चित्र अंकित किया जा सकता है या नहीं। जहाज पर उसने दो व्यक्तियों को इस उद्देश्य से चुन लिया था। उनमें से एक तो थी जलपोत-चालिका युवती साशा और दूसरे व्यक्ति थे, इतिहास के विख्यात प्रोफेसर। प्रोफेसर की पलकें भारी-भारी थीं और चेहरा साफ़-सफाचट। पौ फटी तो जहाज ने रीबिन्स्क समुद्र पार किया। लावरोव ओस-भीगे सूने डेक पर आकर खड़ा हो गया। पश्चिम दिशा की की ओर से आती हुई और कल-कल की ध्वनि करती हुई छोटी-छोटी लहरें धुँधली उषा से मिलने जा रही थीं। ये लहरें मौसम की खराबी की पूर्व-सूचना दे रही थीं।
प्रोफेसर भी डेक पर आ गये थे। उनका कालर ऊपर को उठा हुआ था और वे जंगले के सहारे झुककर खड़े थे। वे अपने उस काले टोप को कसकर पकड़े हुए थे जिसे बूढ़े बेहद शौक से पहनते हैं।
साशा डेक की ओर आनेवाली सीधी खड़ी सीढ़ी से धड़धड़ाती हुई नीचे उतरी। वह काला ग्रेटकोट, चमड़े के दस्ताने और ऊनी टोपी पहने थी। उसने अपनी भूरी चोटियाँ टोपी के नीचे समेट रखी थीं।
रात भर की ड्यूटी के बाद उसे अब छुट्टी मिली थी। उसके गाल ठण्ड से तमतमा रह थे और होंठ सूखे हुए थे।
‘‘नमस्कार,’’ उसने मुस्कराते हुए लावरोव का अभिवादन किया। ‘‘हमारे समुद्र की सराहना कर रहे हैं?’’
‘‘मुझे तो यकीन ही नहीं होता कि इसे इंसानी हाथों ने बनाया है,’’ लावरोव ने उत्तर दिया।
‘‘मेरा जन्म यहाँ मोलोगा में हुआ था। जब मैं छोटी सी थी तो हम यहीं, इसी समुद्र के तल पर खुमियाँ एकत्रित करने आया करते थे,’’ उसने उषा की लालिमा से लाल होती हुई लहरों की ओर संकेत किया। ‘‘और यह कोई बहुत पुरानी बात नहीं है-मुझसे कम उम्र है इस समुद्र की।’’
‘‘इतिहास की घटनाओं की तेजी के साथ कश्दम मिलाकर नहीं चल सकता,’’ प्रोफेसर ने मत प्रकट किया और अपने टोप को लगभग कानों तक खींच लिया। ‘‘घटनाएँ तो मानों पंख लगाकर उड़ती हैं और हमारे इतिहासगत और श्रमसाध्य विचारों को पीछे छोड़ती हुई आगे निकल जाती हैं। काल की इस द्रुतगति का वैज्ञानिक विश्लेषण करने के लिए सैकड़ों विशेषज्ञों की आवश्यकता होगी।’’
कीनेशमा के समीप जहाज, बेड़ों की एक लम्बी पाँति से जा मिला।
हवा हल्के और फटे-फटे बादलों को आकाश में तेजी से बहाये लिए जा रही थी। उनकी परछाइयाँ नदी और जंगल से ढके किनारों पर पड़ रही थीं। तट की रेतीली चट्टानें पानी में डूबी हुई थीं। परछाइयों के साथ, कभी-कभी सूरज भी अपनी झलक दिखा देता था। तब हर वस्तु आँखों को चकाचैंध करती हुई चमक उठती थी। सहसा अंधकार को क्षणिक दीप्ति में परिवर्तित करता हुआ गंगा चिल्लियों का एक झुण्ड दिखायी दिया और पुनः अंधकार में ही विलीन हो गया। तभी दूर स्थित एक मकान-सम्भवतः ग्राम-सोवियत-पर लगा एक झण्डा फड़फड़ाने लगा। इसके फौरन बाद ही देवदार वृक्षों की हरियाली, सूरज की रोशनी में ऐसे चमकने लगी मानो ग्रीष्मकालीन भारी वषरा ने उन्हें तर-ब-तर कर दिया हो। फिर देवदार के वृक्ष ऐसे दिखायी दिये मानो उन्होंने हरे गहरे रंग की चादर ओढ़ ली हो और उनकी मन्द-मन्द सरसराहट जहाज तक पहुँचने लगी।
जहाज के पीछे की लहर ने पास से गुजरते हुए कुछ बेड़ों पर छपाका मारा। बेड़े के देवदार के बड़े-बड़े लट्ठों पर-जिन्हें मजबूत फौलादी तारों द्वारा आपस में जोड़ा गया था-युवतियाँ नाव की हुकों को पकड़े खड़ी थीं। उन्होंने ऊँचे स्वर में कुछ कहा। किन्तु उनकी आवाज़ हवा में बिखर गयी। उनक धूप से सँवलाये, हँसते हुए चेहरों पर सफ़ेद दाँत चमक उठे। हवा के कारण उनके रुमाल और लहंगे झूल गये और उनकी कांसेरंगी टाँगें उघाड़ी हो गयीं।
साशा पुल पर खड़ी थी।
‘‘सुनो-ओ, क्या हालचाल है?’’ उसने लाउडस्पीकर में से चिल्लाकर पूछा।
‘‘मजे... में... हैं...’’ बेड़ों पर की सभी स्त्रियों ने मिलकर जवाब दिया और अपने रुमाल हिलाये।
‘‘किधर को?’’
‘‘नीचे वोल्गोग्राद की ओर! अलविदा! हमें, वोल्गा की लड़कियों को मत भूलना!’’
लावरोव ने यह अनुमान लगाया कि वे साशा को अपने में से एक ही समझती हैं। वोल्गा के आसपास के प्रदेश में अवश्य सभी उससे भली-भाँति परिचित होंगे-ऐसा होना है भी स्वाभाविक, क्योंकि जलपोत-चालिकाएँ तो इनी-गिनी ही हैं!
उस रात लावरोव ने साशा से शिकायत की कि वह तेज हवा के झोंकों, बेड़े पर बैठी युवतियों और प्रकाश और छाया की आँखमिचैली के दृश्यों को चित्रपट पर उतारने के लिए बहुत उत्सुक था। मगर जहाज इतनी तेजी से आगे निकल गया कि वह उनका खाका तक भी न बना सका।
‘‘क्या तुम घड़ी भर के लिए जहाज को रोक नहीं सकती थीं?’’ उसने मजाक करते हुए पूछा।
‘‘नही, व्लादीमिर पेत्रोविच, मैं यह कैसे कर सकती थी?’’
‘‘तुम कैसे कर सकती थीं! हाय! तुम मशीनों के दीवाने लोग! तुम सौन्दर्य की तो रत्ती भर भी परवाह नहीं करते!’’
‘‘यह ग़लत है,’’ साशा ने उत्तेजित होते हुए जवाब दिया। ‘‘हम अवश्य ही सौन्दर्य की परवाह करते हैं। पर आपको हमारा दृष्टिकोण भी समझना चाहिये!’’
‘‘उसमें समझने को रखा ही क्या है?’’
‘‘जरा देश भर के यातायात की कल्पना तो कीजिये कि वह कितना जटिल है। रेलगाड़ियों, जलयानों तथा हवाई जहाजों के निश्चित मार्गों का एक विस्तृत जाल-सा बिछा हुआ है, जिसमें एक समय-सूची दूसरी पर निर्भर है। यदि जीवन को व्यवस्थित ढंग से चलना है तो इन सबको एक घड़ी की भाँति काम करना चाहिये। आशा है कि आपको इसमें भी कुछ सौन्दर्य नज़र आता होगा।’’
‘‘हूँ, तुम्हारी बात में भी कुछ वजन तो है,’’ लावरोव ने स्वीकार किया। ‘‘इस ओर मेरा ध्यान नहीं गया था।’’
जहाज वोल्गा पर जा रहा था। वह खड़े दायें किनारे की सुनहरी पहाड़ियों के पास से गुजरा। बिजली के इस्पाती खम्भे वृक्षों की चोटियों के लाल रंगे पत्तों में आधे छिपे हुए से थे। वहाँ ऊँचाई पर, खूब कसे हुए तारों के बीच से बराबर बिजली बह रही थी। लावरोव को किसी कारणवश लगा कि बिजली की चमक में कुछ नीली-सी झलक होती है। उसने सोचा कि शायद इसीलिए कि बिजली की चिंगारियाँ नीली होती हैं।
बायीं ओर का किनारा कभी गुलाबी तो कभी सुनहरा, कभी नीला तो कभी हल्का बैंगनी नज़र आया तो कभी एक वृहदाकार लाल अथवा पीले धब्बे में बदल गया। वह अब धुन्ध में लुप्त हो चुका था। चित्रकार इन रंग-बिरंगे दृश्यों का कारण समझता था। यह रंग-परिवर्तन था जंगलों के कारण जो धुन्ध की चादर में लिपटकर अंधकारमय लगते थे या डूबते सूरज की किरणों से रंगे बादलों के कारण या खड़े तटों के कारण या कोहरे में लिपटे हुए दूरस्थित नगर की सफ़ेद इमारतों के कारण।
एक दिन लावरोव कप्तान के ऊँचे मंच के समीप ऊपर वाले डेक पर जा बैठा। वहाँ अन्य मुसाफिर उसका ध्यान भंग नहीं कर सकते थे। उसने चन्द तेज और मोटी मोटी रेखाओं के रूप में हवा, धुन्ध, रंग-बिरंगे पानी और सुनहरे मार्गों के नीरव संसार के खाके खींच डाले।
साशा ऊँचे मंच पर बैठी जहाज चला रही थी। उसने कुछ चिन्तित होकर पहले लावरोव और फिर आकाश की ओर देखा। वह इसलिए चिन्तित थी कि तेजी से घिरती हुई शाम सारी चमक समेटकर उदासी भरी धुन्ध को पीछे छोड़ती जा रही थी। ‘‘उफ, वह कैसे धीरे-धीरे काम करता है,’’ उसने सोचा, ‘‘वह कभी भी अपना काम पूरा नहीं कर पायेगा।’’
साशा ने एक रस्सी खींची और जहाज के भोंपू ने लम्बी ऊँची आवाज़ की। इस तरह मार्ग काटती हुई एक नाव को ख़तरे की पूर्वसूचना दी गयी।
जहाज नाव के समीप पहुँचा। लावरोव ने नाव में एक स्त्री को खड़े देखा। वह टकटकी बाँधकर जहाज की ओर देख रही थी। उसकी जाकेट के बटन खुले हुए थी और उसके हाथ में शरदकालीन पत्तों के गुच्छे थे। एक साँवला-सा युवक चप्पुओं के सहारे आराम करता हुआ जहाज की ओर देख रहा था। पत्तों की परछाइयाँ पानी में लहरा रही थीं।
लावरोव को वह स्त्री, अंगूरों के गुच्छों के समान दिखायी देनेवाले और उसके सिर पर से गुजरनेवाले चमकदार बादल और वह समूचा दृश्य ही बहुत सुखद और अपने प्रिय और अद्भुत देश में पाई जानेवाली अद्भुत शान्ति से भरपूर लगा। उसने अभिभूत होकर गहरी साँस ली और साशा को कड़ी नज़र से देखा।
चित्रकार की तूलिका हवा में लहरा रही थी। चित्रकार इस बात की प्रतीक्षा में था कि साशा जहाज रोके और वह अपना काम शुरू करे। मगर साशा के चेहरे पर स्थिरता तथा कठोरता के भाव के अतिरिक्त और कुछ भी दिखायी नहीं दिया।
नाव थोड़ी ही देर में झुटपुटे में हिलती-डुलती सी पीछे छूट गयी। पत्तों पर सूर्य की अन्तिम किरणें चमक उठीं। अँधेरा पत्तों की सुनहरी चमक को निगलने में असमर्थ रहा।
लावरोव आगबबूला हो उठा। उसने रंगों का बक्स समेटा और नीचे अपने कमरे में चला गया। मंच के पास से गुजरते हुए उसने साशा पर एक कड़ी नज़र डाली। वह झेंप गयी और उसने मुँह फेर लिया।
‘‘तो यह बात है!’’ लावरोव ने सोचा। ‘‘ख़ैर बाद में देखा जायेगा।’’
अपने कमरे में जाकर उसने गम्भीरतापूर्वक इस बात पर विचार किया कि वह साशा से क्या कुछ कहेगा। इस बार तो उसे साशा को बिल्कुल दोषी सिद्ध करना होगा। किन्तु उस शाम को उसकी साशा से भेंट न हो पाई। अपनी ड्यूटी के बाद वह अवश्य ही सो रही होगी। पर रात भर में उसका उलाहना बासी हो गया और स्वयं को ही मूर्खतापूर्ण लगने लगा। आखि़र वह चाहता क्या था-यही कि उसके लिए जीवन की गति रुक जाये? ऐसा कभी नहीं होगा। ज़िन्दगी एक चैड़ी और बहुरंगी धारा है जो सदा उस क्षितिज की ओर बढ़ती रहती है जिसे हम भविष्य कहते हैं। हम एक बार पिछड़े कि यह धारा फीकी पड़ी कि नज़र से ओझल हुई! तब हम पिछड़कर रह जाते हैं।
‘‘जहाज को न रोककर उसने ठीक ही किया है,’’ लावरोव ने अन्त में निर्णय किया। ‘‘मुझे उससे नाराज होने का कोई अधिकार नहीं है।’’
एक दिन बाद लावरोव की साशा से डेक पर भेंट हुई। उसने साशा की भूरी और हँसती-लजीली आँखों में झाँकते हुए कहा:
‘‘अवश्य तुम्हारा चित्र बनाऊँगा। मगर अभी नहीं, जाड़े में, मास्को लौटकर। सहमत हो न?’’
‘‘ठीक है,’’ साशा ने जवाब दिया। ‘‘धन्यवाद, व्लादीमिर पेत्रोविच!’’ और साशा ने अपना हल्का-फुल्का और विश्वासपूर्ण हाथ लावरोव के हाथ पर रख दिया।
लावरोव ने नदी की ओर देखा। शरद्काली अंधकार में बत्तियों की मालाएँ किनारे पर जगमगा रही थीं। ताजगी से भरपूर नम उसाँसें छोड़ती हुई दैत्याकार वोल्गा, रात्रि के समय बिल्लौरी लहरों के रूप में बह रही थी। वह उन बत्तियों के प्रकाश को भाँति-भाँति के, और अज़ीब-अज़ीब आकार देती थी और फिर खण्ड-खण्ड कर डालती थी। जहाज कूइबिशेव पर बनाये गये बाँध के पास पहुँचा।
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दिसम्बर महीने की बात है। साशा त्रेत्याकोव गैलरी में होने वाली एक वार्षिक चित्र-प्रदर्शनी देखने गयी। संध्या हो चुकी थी। बरफ के नन्हें-नन्हें फूल बरस रहे थे। खिड़कियाँ मानो किसी शिशिरकालीन महोत्सव के लिए गयी हज़ारों छोटी-छोटी मोमबत्तियों के प्रकाश में जगमगा रही थीं।
बड़े-बड़े कमरे लगभग सूने थे। साशा लावरोव के चित्र को ढूँढती हुई उन्हें जल्दी से पार कर गर्यी। उसने उसे दूर से देखा तो उत्तेजना के मारे साँस थामकर रह गयी। न जाने उस गुमसुम तथा कुछ सीमा तक भद्दे मनुष्य में कौन सी ऐसी शक्ति थी कि वह नदी की उस अद्भुत शाम को अपने हृदय पट पर इस सजीव ढंग से अंकित कर पाया और उसने उसमें से एक ऐसी दुनिया खोज निकाली जो वह स्वयं भी देख नहीं पाई थी। वह कौन सी शक्ति थी? क्या वह प्रतिभा थी? अथवा स्वदेश प्रेम? या दोनों?
‘‘शरद्कालीन पत्तों के गुच्छे हाथ में लिए हुए नाव में जानेवाली उस स्त्री को वह चित्रित कर पाया तो कैसे?’’ साशा सोचती रही। ‘‘मैंने तो उस समय जहाज को धीमा नहीं किया था यद्यपि मैं यह भी अच्छी तरह समझ गयी थी कि वह इसकी प्रतीक्षा में था।’’
जितनी अधिक देर तक साशा उस चित्र को देखती खड़ी रही उतनी अधिक ही उसकी यह इच्छा हुई कि वह लावरोव को धन्यवाद दे, और शायद यह भी कि श्रद्धापूर्वक उसके नाजुक तथा रंग लगे हाथों को सहलाये।
वह दूर से तस्वीर को देखती खड़ी रही और सहसा उसका हृदय गदगद हो उठा। ‘‘मैं खुश हूँ कि यहाँ आई,’’ उसने सोचा। ‘‘हर चीज़ बेहद प्यारी है। यहाँ तक कि यह रूई जैसी बर्फ़ भी, जो धीरे-धीरे गिरती और हमारे चेहरों को चूमती रहती है, बेहद प्यारी है। हर चीज़, बेशक हर चीज़ बहुत प्यारी है!’’
1951
('समय के पंख' में से)