समस्याएँ और जादू-टोना (व्यंग्य) : हरिशंकर परसाई

Samasyayen Aur Jadu-Tona (Hindi Satire) : Harishankar Parsai

जादू-टोना टोटका । तन्त्र-मन्त्र । तावीज-भभूत । साधु का आशीर्वाद । ब्राह्मणों को भोजन और दान-दक्षिणा । गृह-पूजा । शनि का दान ।

सदियों से इन निमित्तों ने कर्म का स्थान ले रखा है। कोई समस्या है। उस पर सब तरह से विचार करें। फिर निश्चय के साथ उसे ठीक करने के लिए काम करें। इसमें बड़ी मेहनत लगती है । कर्म लगता है। इसलिए अकर्म के नुस्खे आविष्कृत कर लिए हैं जो हमारी जातीय प्रकृति बन गई है।

नया जमाना, नई समस्याएँ । अकर्म से, तन्त्र-मन्त्र से समस्या का अब भी समाधान खोजा जाता है। भाषण, सेमिनार, रैली, नारे, पुतला दहन, कमीशन वगैरह । रैली निकालकर आये हैं सेवक जी । पूछिये - किसलिए रैली निकाली ? कहेंगे- साम्प्रदायिकता और जातिवाद के खिलाफ । राष्ट्रीय एकता के लिए । सब तबकों के लोग थे । दो पुतले भी जलाये ।

वे संतुष्ट थे कि राष्ट्रीय एकता हो गई। मगर मैं समझ रहा था कि सेवक जी तथा साथियों ने एक आसान अनुष्ठान कर डाला। सांकेतिक । तमाशबीन अपने आप आ जाते हैं । पुतला जलता है तो मजा आता है। मगर एक आदमी की चेतना भी जागी हो इसमें मुझे शक है ।

बात यह है कि वास्तविक साम्प्रदायिकता - विरोध, जातिवाद विरोध मेहनत मांगता है। रोज-रोज की मेहनत । लोगों से सम्पर्क करो, बात समझाओ । कई का विरोध झेलो । जन-शिक्षा करो। तय करो कि एक सचेत कार्यकर्ता दस को शिक्षित करेगा। फिर उनमें से हरएक दस का दिमाग साफ करेगा । योजना- बद्ध काम करो । रोज दो-चार घण्टे इसमें लगाओ। 1947 से ही अगर अध्या- पकों, समाज-सेवकों, कार्यकर्त्ताओं, लेखकों, बुद्धिजीवियों आदि ने ऐसी मेहनत की होती, तो आज यह दुर्गति नहीं होती। मगर सबने आराम का रास्ता पकड़ा- उपदेश, भाषण, रैली, पुतला जलाना। उधर दूसरी शक्तियों ने मेहनत की और उन्होंने वह भी मिटा दिया जो 1947 के बाद बचा था।

फरिश्ते से बेहतर है इंसान होना, मगर इसमें पड़ती है मेहनत ज्यादा ।

आसान होने के कारण फरिश्ते हो गये। कमरे के उपदेशक, चिन्तक, रास्ता, बुद्धिजीवी । ये भी रस्म अदा करते हैं। तीन चिन्तित विद्वान और सात ऊबे आदमी एक कमरे में बैठते हैं। इसे 'सेमिनार' कहते हैं। तीन विद्वान इन समस्याओं पर बोलते हैं । वे देश के महानाश के लिए परेशान हैं । परेशानी जाहिर करने के लिए वे कहीं शहर में 'ईवनिंग' तलाशते हैं। बैडमिंटन खेलना और देश की दुर्दशा पर बोलना एक जैसी 'ईवनिंग' है। ऊबे हुए श्रोता आज कुछ भी नहीं सुनते । विद्वानों के विचार अंश दूसरे दिन अखबारों में छप जाते हैं। कोई नई बात नहीं। वही जो कही जाती हैं । इन्हें कहने के लिए विद्वान की जरूरत ही नहीं है।

इन विद्वानों में अधिकतर अध्यापक होते हैं, विश्वविद्यालयों के। उनसे पूछा जाय कि आप विश्वविद्यालय में दिनभर रहते हैं। कई युवक आपके सम्पर्क आते हैं । कोई भी विषय आप पढ़ाते हों, उसमें गुंजाइश निकल आती है, इन विचारों को छात्रों को देने की।अनौपचारिक बातचीत में भी, आप यह शिक्षण कर सकते हैं। क्यों नहीं करते ? जिस काम को आप 'ईवनिंग' सेमिनार में जरूरी समझकर करते हैं, उसे रोज क्यों नहीं करते ? आग लगी है, पानी बालटियाँ रखी हैं. मगर आप बालटी का पानी आग पर नहीं फेंकते । आप ईवनिंग सेमिनार में पानी फेंकेंगे, जब बहाँ राख बच जायगी ।

अध्यापक-वर्ग से सबसे अधिक शिकायत है । एक तो इनमें अधिकतर खुद आधुनिक नहीं हैं, तार्किक नहीं हैं, वैज्ञानिक दृष्टि से सम्पन्न नहीं हैं । दकिया- नूस हैं। साथ ही ये मानसिक अलाव होते हैं। सही बात, नई बात सीखते ही नहीं हैं। विश्वविद्यालय की काट-छांट की राजनीति में तेज घुड़सवार हो जाते हैं ।

ऊपर मैंने जो तरीका बताया, उसमें मेहनत लगती है। समय लगता है । तकलीफ की बात है । इसलिए टोना-टोटका, जादू, तावीज भाषण दे लो, सेमिनार कर लो, रैली कर लो, नारे लगा लो, पुतला जला लो। सब ठीक हो जायगा ।

जातिवाद बहुत पुराना और गहरा है। पचीसों प्रकार के तो ब्राह्मण ही होते हैं। पुराने जमाने में आवागमन कठिन था। जिस क्षेत्र में लोग बस गये वहीं एक जाति बन गई। जातिभेद खत्म करना कठिन है। वह बढ़ता जाता है। क्योंकि जाति की राजनीति बेशर्मी से हो रही है। सबसे हीन दशा शूद्रों, अछूतों की है। गांधी जी ने इन्हें सम्मानसूचक हरिजन नाम दे दिया। कुछ हरिजनों को मन्दिर प्रवेश करा दिया। मन्दिर प्रवेश भी एक प्रहसन है, मगर आसान है । मन्दिर के मालिक कहते हैं कि हमारे मन्दिर में हरिजनों का प्रवेश निषिद्ध नहीं है । ठीक है । पर बस्ती के या आसपास के पहचाने हरिजन नहीं जा सकते । जिसे पहचानते नहीं वह चला जाय । पहचाने हुए हरिजनों को तो पहले से ही धमकी पहुँच जाती है। डा० अम्बेडकर अधिक रेडिकल थे। पर अछूतों को बौद्ध बनाने से भी वे अछूत रहे । पहले हिन्दू अछूत थे अब बौद्ध अछूत हो गये । समस्या की जड़ें आर्थिक हैं, काम का तरीका है, उत्पादन के औजार हैं, काम की गुणवत्ता है । गाँव में हाथ के औजारों से जो जूते सुधारता है, वह चमार है, अछूत है । पर उसका लड़का लेदर टेकनालाजी सीखकर जूते के कारखाने में काम करता है, तब वह कारीगर होता है, चमार नहीं। वह अछूत भी नहीं रहता । शूद्रों के उत्थान में मेहनत लगती है, तो समाज-सुधारक हरिजनों का मन्दिर प्रवेश करा देते हैं, किसी समारोह में उनके साथ भोजन कर लेते हैं और फोटो छपा लेते हैं ।

फरिश्ते से बेहतर है इंसान होना,
मगर उसमें लगती है मेहनत जियादा ।

तो आसानी से एक नुस्खे से समाज सुधारक फरिश्ते हो जाते हैं। काफी साल पहले उत्साही समाजवादी समझे थे कि ब्राह्मणवाद को मिटाना जरूरी है । फिर यह निष्कर्ष निकाला कि जनेऊ ब्राह्मणवाद है। तो बहुत जगह उत्सा- हियों ने सार्वजनिक स्थान पर समारोहपूर्वक अपनी जनेऊ तोड़ी। अच्छा प्रदर्शन रहा । जनेऊ टूट गई, पर पहनने वाला ब्राह्मण ही रहा। जनेऊ ब्राह्मणत्व नहीं है, पहचान है। मजा यह है कि हमारी वर्ण व्यवस्था और जातिप्रथा ऐसी सख्त है कि ब्राह्मण चाहे तो ईसाई हो सकता है, पर कायस्थ नहीं हो सकता । महाराष्ट्र में रेवरेंड तिलक, पण्डिता, रमोबाई रानडे ब्राह्मण से ईसाई हुए थे । मेरे शहर में एक रेवरेंड तिवारी थे । ये चमार होना चाहते तो नहीं हो सकते थे । चमार ही इन्हें स्वीकार नहीं करते ।

जातिवाचक उपनाम होते हैं। दुबे, श्रीवास्तव, यादव आदि । कुछ उत्साहियों ने तय किया कि जाति की पहचान मिटाने के लिए अपने नाम से जाति- वाचक उपनाम निकालने का आन्दोलन चलायेंगे। उन कुछ ने अखबारों में घोषणा करके जातिवाचक उपनाम छोड़ दिये। शीतलप्रसाद श्रीवास्तव सिर्फ- शीतलप्रसाद रह गये । यह आन्दोलन बहुत बढ़ा नहीं। आगे साल भर बाद लड़की के लिए पति खोजने लगे तो कायस्थों के घर गये। उन बेटेवालों ने पूछा-

- आपकी जाति क्या है साहब ?

— जी, मैं कायस्थ हूँ ।

- कायस्थ होते तो वर्मा, खरे, श्रीवास्तव कुछ तो होते ।

- जी, मैं श्रीवास्तव हूँ ।

मेरा कहना है कि समाज की वर्तमान हालत में कायस्थपन नहीं छूट सकता है, तो जातिनाम छोड़ने से कोई बदलाव नहीं आया। यह भी टोटका है। उन युवक-युवतियों की मैं तारीफ करता हूँ जो चुपचाप दहेज-विहीन शादी कर लेते हैं ।

अधिक से अधिक संख्या हो रही है इनकी । पास के शहर के एक मेरे मित्र लड़के-लड़की को इस शहर में आर्य समाज मन्दिर में लाकर शादी करा देते और दोनों को मेरे पास ले आते आशीर्वाद के लिए। कहते- लड़के-लड़की का हठ था कि शादी के बाद आपसे मिलेंगे। तीसरा जोड़ा आया, उसी दिन अखबार में उस शहर का समाचार छपा था कि शहर से एक के बाद एक लड़कियाँ भगाई जा रही हैं। मैंने समाचार दिखाकर मित्र से कहा- भैया, मुझे मत फँसा देना । पुलिस कहेगी कि लड़की इनके यहाँ जाती है, भागकर ये कुछ धन्धा करते हैं । इन तरुण-तरुणियों के बड़े-बूढ़े तो दहेज के पीछे लगे रहते हैं। वे जाति-बन्धन टूटने नहीं देंगे। तरुण-तरुणी ही एक अभियान चलायें, अन्तर्जातीय विवाह का । यह आन्दोलन बड़े मजे में चल सकता है, मैडिकल कॉलेज में । डाक्टर की शादी डाक्टर से - यह नारा हो ।

दो-चार जगह दंगे हों तभी एहसास होता है कि राष्ट्रीय एकता टूट रही है । राष्ट्रीय एकता एक झटके में नहीं टूटती। एक लम्बी प्रक्रिया है इसकी । लम्बे समय तक विघटन की शक्तियाँ काम करती रहती हैं, तब यह टूटन आती है। इस लम्बी अवधि में एकता की साधक शक्तियों आराम फरमाती रहती हैं । जब विस्फोट होता है तब ? राष्ट्रीय एकता के भी टोने-टोटके हैं, झाड़-फूँक करने वाले ओझा हैं । वे शान्ति रैली निकालते हैं। नारे देते हैं - हिन्दू-मुस्लिम- सिक्ख - ईसाई, आपस में हैं भाई-भाई । ऊंचे स्तर पर राष्ट्रीय एकता समिति की बैठक बुला ली जाती है। शांन्ति समिति बन जाती है, जिसके सदस्य दंगाई होते हैं । राष्ट्रीय एकता के लिए बुनियादी कार्यं ? नहीं, नहीं, इसमें मेहनत पड़ती है। कुछ तन्त्र-मन्त्र बताओ ।

हर समस्या के हल के लिए तावीज, जादू टोना, तन्त्र-मन्त्र हैं। शिक्षा में सुधार ? सुधार करने में बहुत बदलना पड़ता है। हर स्तर पर प्राथमिक से विश्वविद्यालय तक । हल्ला होता है कि बदलो इस शिक्षा-पद्धति को । हाँ-हाँ, बदलते हैं। एक समिति बिठा देते हैं। समिति 3-4 सालों में रिपोर्ट का पुलिन्दा देती है, जिसे पढ़ने में कोई समय नष्ट नहीं करता । वह शिक्षा सचिवालय के कमरे में रखी रहती है। एक के बाद एक कई समितियों की रिपोर्टों का ढेर लग गया । बदला कुछ नहीं । कम से कम इतना कर सकते हैं कि एक पुरोहित को नियुक्त कर दें जो सुबह फाइलों की पूजा करे, शाम को आरती करे। इससे कुछ हो सकता है ।

लोगों में सदाचार आना चाहिए। नैतिकता आनी चाहिए। गुलजारीलाल नन्दा दो बार कार्यकारी प्रधानमन्त्री रह चुके हैं और लगातार केन्द्रीय मन्त्री रहे हैं. गर वे पुरानी दिल्ली में किराये के कमरे में रहते हैं, जिसकी छत से पानी टपकता है । वे संसद सदस्य तथा स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी को मिलने वाली पेंशन से गुजर करते हैं। दुनिया में वे एक ही मन्त्री हैं, जो इस गरीबी में रहते हैं । वे खुद और कुछ लोग उन्हें सदाचारी मानते हैं। नन्दा जी ने बहुत ईमानदारी के साथ सदाचार अभियान चलाया। मगर तरीका ? तरीका यह कि साधुओं को स्पेशल रेलगाड़ियों से दौरा कराया उपदेश देने के लिए। साधु- वेशधारी के सदाचार का प्रमाण-पत्र किस मजिस्ट्रेट से लाये होंगे ? रूप से साधु दिखने वालों का चरित्र लोग जानते हैं । नन्दा जी ने ईमानदारी से किया, मगर किया नहीं - टोना-टोटका, ओझागिरी, तन्त्र-मन्त्र |

पुलिस को शिष्टाचार सिखाने के लिए पहले शिष्टाचार सप्ताह मनाते थे। इसका निहितार्थं पुलिस वाले यह लेते थे कि सप्ताह भर शिष्टाचार से पेश आओ, बाकी साल उसी तरह । उन्हें सिखाया जाता था कि हर नागरिक को 'श्रीमान् जी' से सम्बोधित करना चाहिए। सबसे आदर से बोलना चाहिए । तो कोई-कोई पुलिस वाले इसे निभाते थे । चिल्लाते थे-ए हरामजादे श्रीमान् जी, साइकिल वहाँ क्यों रखता है ? साले श्रीमान् जी मानते ही नहीं । 'श्रीमान् जी' बराबर कहते थे । यह भी नुस्खा है। जब आरम्भिक ट्रेनिंग में ही शिष्टाचार नहीं सिखाते तो साल में एक सप्ताह से क्या होता है ?

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