समाज और व्यक्ति (निबंध) : महादेवी वर्मा

Samaj Aur Vyakti (Hindi Nibandh) : Mahadevi Verma

समाज ऐसे व्यक्तियों का समूह है, जिन्होंने व्यक्तिगत स्वार्थों की सार्वजनिक रक्षा के लिए, अपने विषम आचरणों में साम्य उत्पन्न करने वाले कुछ सामान्य नियमों से शासित होने का समझौता कर लिया है ।

मनुष्य को समूह बनाकर रहने की प्रेरणा पशु-जगत् के समान प्रकृति से मिली है, इसमें सन्देह नहीं, परन्तु उसका क्रमिक विकास विवेक पर आश्रित है, अन्ध प्रवृत्तिमात्र पर नहीं । मानसिक विकास के साथ-साथ उसमें जिस नैतिकता की उत्पत्ति और वृद्धि हुई उसने उसे पशु-जगत् से सर्वथा भिन्न कर दिया । इसी से मनुष्य-समाज समूहमात्र नहीं रह सका, वरन् धीरे-धीरे एक ऐसी संस्था में परिवर्तित हो गया जिसका ध्येय भिन्न-भिन्न सदस्यों को लौकिक सुविधाएँ देकर उन्हें मानसिक विकास के पथ पर आगे बढ़ाते रहना है ।

आदिम युग का मनुष्य, समूह में रहते हुए भी पारस्परिक स्वार्थ की विवेचना और उसकी, समस्याओं से अपरिचित रहा होगा । अनुमानतः सामाजिक भावना का जन्म परस्पर हानि पहुँचाने वाले आचरण से तथा उसका विकास नवीन स्थानों में उत्पन्न संगठन की आवश्यकता से हुआ है । किसी भी प्राणिसमूह को अपने जन्मस्थान में उतने अधिक संगठन की आवश्यकता नहीं होती जितनी किसी नये स्थान में होती है, जहाँ उसे अपने आपको नवीन परिस्थितियों के अनुरूप बनाना पड़ता है । यदि उसकी सहजबुद्धि इस एकता की अनिवार्यता का बोध न कराती तो इस समूह-विशेष का जीवन ही कठिन हो जाता । मनुष्य जाति जब जीवन के लिए अधिक सुविधाएँ प्रदान करने वाले प्रदेशों में फैलने लगी तन उसके भिन्न-भिन्न समूहों को अपनी शक्तियों का दृढ़तर संगठन करने की आवश्यकता ज्ञात हुई, अन्यथा वे नई परिस्थितियों और नये शत्रुओं से अपनी रक्षा करने में समर्थ न हो पाते । भिन्न-भिन्न व्यक्तियों में बिखरी हुई उच्छृंखल शक्ति जाति के लिए दुर्बलता बन जाती है यह पाठ मनुष्य समूह ने अपने जीवन के आरम्भ में ही सीख लिया था ; इसी से वह उसे एकता के सूत्र में बाँध कर अपने आपको सबल बना सका । अनेक व्यक्ति एक ही स्थान में एक दूसरे के निकट बसने लगे, परस्पर सहानुभूति और सद्भाव उत्पन्न करने के लिए एक दूसरे की खाद्य और आच्छादन छीन लेने की प्रवृति को रोकने लगे और विजाति से युद्ध के समय शक्ति को संगठित रखने के लिए अपने समूह विशेष के किसी अग्रगण्य वीर का शासन मानना सीखने लगे । विशेष सुविधाओं के लिए एकत्र यह मनुष्य समूह ही हमारे विकसित तथा अनेक नैतिक और धार्मिक बन्धनों में बँधे सभ्य समाज का पूर्वज कहा जा सकता है । आज भी असभ्य जातियों के संगठन के मूल में यही आदिम युग की भावना सन्निहित है।

स्थान-विशेष की जलवायु तथा वातावरण के अनुरूप एक जाति रंग-रूप और स्वभाव में दूसरी से भिन्न रही है और प्रत्येक में अपनी विशेषताओं की रक्षा के लिए स्वभावगत प्रेरणा की प्रचुर मात्रा रहती है । आत्मरक्षा के अतिरिक्त उन्हें अपनी जातिगत विशेषताओं की चिन्ता भी थी, अतः उनमें व्यवहार के लिए ऐसे विशेष नियम भी बनने लगे जिनका पालन व्यक्ति की आत्मरक्षा के लिए न होकर जाति की विशेषताओं की रक्षा के लिए अनिवार्य था । आत्मरक्षा की भावना के साथ-साथ मनुष्य में जाति की विशेषताओं की रक्षा की भावना भी बढ़ती गई । जिससे उसके जीवन सम्बन्धी नियम विस्तृत और जटिल होने लगे । समूह-द्वार निश्चित नियम-सम्बन्धी समझौते के विरुद्ध आचरण करने वाले को दण्ड मिलने का विधान था, परन्तु इस विधान द्वारा, छिपाकर विरुद्धाचरण करनेवालों को नहीं रोका जा सकता था । अतएव कालान्तर में उन नियमों के साथ पारलौकिक सुख-दु: खों की भावना भी बँध गई । मनुष्य को स्वभाव से ही अज्ञात का भय था, इसी से उसके निर्माण के सब कार्यों में एक अज्ञात कर्ता का निर्माण प्रमुख रहा है । इस अज्ञात का दण्ड और पुरस्कार मनुष्य के आचरण को इतना अधिक प्रभावित करता आ रहा है कि अब उसे महत्व में समाज के वास्तविक दण्ड और पुरस्कार के साथ एक ही पर तोला जा सकता है । आरम्भ में, यदि समाज के रोष या प्रसाद से उत्पन्न हानि और लाभ आचरण के ढालने के कठोर साँचे थे, तो पारलौकिक सुख-दु: खों की भावना उस मानसिक संस्कार का दृढ़ आधार थी, जिससे आचरण को रूप मिलता है । इस प्रकार लौकिक सुविधा की नींव पर, नैतिक उपकरणों से, धार्मिकता का रंग देकर हमारी सामाजिकता का प्रासाद निर्मित हो सका । जिस क्रम से मनुष्य सभ्यता के मार्ग पर अग्रसर होता गया उसी क्रम से समाज के नियम अधिकाधिक परिष्कृत होते गये और पूर्ण विकसित तथा व्यवस्थित समाज में वे केवल व्यावहारिक सुविधा के साधनमात्र न रह कर सदस्यों के नैतिक तथा धार्मिक विकास के साधन भी हो गये ।

व्यक्ति तथा समाज का सम्बन्ध सापेक्ष कहा जा सकता है, क्योंकि एक के अभाव में दूसरे की उपस्थिति सम्भव नहीं । व्यक्ति के स्वत्वों की रक्षा के लिए समाज बना है और समाज के अस्तित्व के लिए व्यक्ति की आवश्यकता रहती है । एक सामाजिक प्राणी स्वतंत्र और परतंत्र दोनों ही है । जहाँ तक वैयक्तिक हितों की रक्षा के लिए निर्मित नियमों का सम्बन्ध है, व्यक्ति परतन्त्र ही कहा जायेगा, क्योंकि वह ऐसा कोई कार्य करने के लिए स्वच्छन्द नहीं जिससे अन्य सदस्यों को हानि पहुँचे । परन्तु अपने और समाज के व्यक्तिगत तथा सार्वजनिक विकास के क्षेत्र में व्यक्ति पूर्णतः स्वतन्त्र रहता है ।

अवश्य ही इस विकास की व्याख्या प्रत्येक व्यक्ति अपने स्वार्थ की दृष्टि से नहीं कर सकता, अन्यथा इसकी परिभाषाएँ समाज के सदस्यों की संख्या से न्यून हो सकतीं । मनुष्य-जाति का, बर्बरता की स्थिति से निकल कर मानवीय गुणों तथा कला-कौशल की वृद्धि करते हुए सभ्य और सुसंस्कृत होते जाना ही उसका विकास है । इस विकास की ओर अग्रसर होकर व्यक्ति समाज को भी अग्रसर करता है। व्यक्ति जब वैयक्तिक हानि-लाभ को केन्द्रबिन्दु बनाकर अपनी सार्वजनिक उपयोगिता भूलने लगता है, तब समाज की व्यवस्था और उसके सामूहिक विकास में बाधा पड़ने लगती है । भिन्न-भिन्न स्वभाव और स्वार्थवाले व्यक्तियों के आचरणों में कुछ विषमता अवश्य ही रहती है, परन्तु जब इस विषमता की मात्रा सामञ्जस्य की मात्रा के समान या उससे अधिक हो जाती तब समाज की सामूहिक प्रगति दुर्गति में परिवर्तित होने लगती है । इस विषमता का चरम सीमा पर पहुँच जाना ही क्रान्ति को जन्म देता है, जिससे समाज की व्यवस्था को नई रूपरेखा मिलती है।

व्यक्ति समाज से पृथक् रह सकता है या नहीं, यह प्रश्न कई दृष्टिकोण से देखा जा सकता है । यदि समाज का अर्थ सम्प्रदाय-विशेष समझा जावे, तो मनुष्य उससे स्वतन्त्र रह सकता है, क्योंकि ऐसी स्वतन्त्रता मनुष्य के मानसिक जगत् के अधिक समीप है । एक व्यक्ति अपनी विचारधारा में जितना स्वतन्त्र हो सकता है उतना व्यवहार में नहीं हो सकता । मानसिक जगत् का एकाकीपन व्यावहारिक जगत् में सम्भव नहीं, इसी से प्राचीन काल में भी भिन्न-भिन्न मत और दर्शन वाले व्यक्तियों के पृथक्-पृथक् समाज नहीं बनाये गये । केवल आत्मापेक्षी जगत् में मनुष्य समाज से स्वतन्त्र होकर रह सकता है । परन्तु यदि समाज की परिभाषा ऐसा मनुष्य-समूह हो, जो पारस्परिक सहयोगापेक्षी है, तो उस समाज से व्यक्ति का नितान्त स्वतन्त्र होना किसी युग में भी सम्भव नहीं हो सका है। सभ्य और असभ्य दोनों ही स्थितियों में मनुष्य दूसरे मनुष्य के सहयोग से अपना जीवन-मार्ग प्रशस्त कर सका है ! उसके लिए अन्न, वस्त्र साधारण परन्तु आवश्यक वस्तुएँ भी अनेक व्यक्तियों के प्रयत्न का फल है ; यह स्वतः प्रमाणित है । उसकी भावना को जीवित रखने वाली कलाएँ, उसके बौद्धिक विकास को प्रशस्त बनाने वाला साहित्य और व्यवहार-जगत् में उसके जीवन को सुख और सुविधाएँ देने वाले भवन, ग्राम, नगर तथा अन्य अनिवार्य वस्तुएँ सबकी उत्पत्ति मनुष्यों के सहयोग से हुई है, इसे कोई अस्वीकार न कर सकेगा । युगों से व्यक्ति को सुखी रखने और उसके जीवन को अधिक पूर्ण तथा सुगम बनाने के लिए मानव-जाति प्रकृति से निरन्तर युद्ध करती आ रही है । उसने अपनी संगठित शक्ति से पर्वतों के हृदय को वेध डाला, प्रपातों की गति बाँधी, समद्रों को पार किया और आकाश में मार्ग बनाया । मनुष्य यदि मनुष्य को सहयोग देना स्वीकार न करता तो न मानवता की ऐसी अद्भुत कहानी लिखी जाती और न अपनी आदिम अवस्था से आगे बढ़ सकता । मनुष्य जाति संगठन में ही जीवित, जब तक यह सत्य है तब तक समाज की स्थिति भी सुदृढ़ रहेगी। सारे मनुष्य एक ही स्थान में नहीं रह सकते, अतः उनके समूहों के विकासोन्मुख संगठन पर सारी जाति की उन्नति का निर्भर होना स्वाभाविक ही है । इसके अतिरिक्त मनुष्य प्रकृति से ही सामाजिक प्राणी है, अपने स्वभाव में आमूल परिवर्तन बिना किये उसका समाज से पृथक् होना न सम्भव है और न वांछनीय ।

फिर भी यह कहना कि समाज व्यक्ति के सम्पूर्ण जीवन में व्याप्त है, सत्य की उपेक्षा करना होगा । साधारणतः मानवीय स्वभाव का अधिकांश समाज के शासन में नहीं रहता, क्योंकि वह बन्धन से परे है । मनुष्य के जीवन का जितना अंश धर्म, शिक्षा आदि की भिन्न भिन्न सामाजिक संस्थाओं के सम्पर्क में आता है, उतना ही समाज-द्वारा शासित समझा जाता है और उतने ही से हम उसके विषय में अपनी धारणा बनाते रहते हैं । समाज यदि मनुष्यों का समूह मात्र नहीं है तो मनुष्य भी केवल क्रियाओं का समूह नहीं । दोनों के पीछे सामूहिक और व्यक्तिगत इच्छा, हर्ष और दु: खों की प्रेरणा है। जीवन, केवल इच्छाओं या भावनाओं से उत्पन्न आचरणों को सेना के समान कवायद सिखा देने में ही सफल नहीं हो जाता, वरन् उन इच्छाओं के उद्गमों को खोजकर उनसे मनुष्यता की मरुस्थली को आर्द्र करके पूर्णता को प्राप्त होता है ।

इस दृष्टि से समाज की सत्ता दो रूपों में विभक्त हो जाती है । एक के द्वारा वह अपने सदस्यों के व्यवहार और आचरणों पर शासन करता है और दूसरे के द्वारा वह उनकी स्वाभाविक प्रेरणाओं का मूल्य आँक कर उनके मानसिक विकास के उपयुक्त वातावरण प्रस्तुत करता रहता है । किसी भी व्यक्ति को अपने लिए विशेष वातावरण ढूँढ़ने नहीं जाना पड़ता, क्योंकि वह एक गृह-विशेष में जन्म लेकर अपनी वृद्धि के साथ-साथ अन्य सामाजिक संस्थाओं के सम्पर्क में आता रहता है । जैसे उसे साँस लेने के लिए वायु की खोज नहीं करनी पड़ती उसी प्रकार वातावरण-विशेष से भी वह अनभिज्ञ रहता है । उसकी व्यावहारिकता और आध्यात्मिकता दोनों उसके अनजानपन में एक विशेष रूपरेखा में बँधने लगती हैं और जब वह सजग होकर अपने आपको देखता है तब वह बहुत कुछ बन चुका होता है । परन्तु यदि व्यक्ति अपने इस रूप से सन्तुष्ट हो सके तो उसे निर्जीव मृत्पिण्ड ही कहेंगे, जो किसी साँचे में ढल सकता है, परन्तु ढाल नहीं सकता । वास्तव में समाज के दान की जहाँ इति है . व्यक्ति का वहीं से अथ होता है । वह दर्जी के सिले कपड़ों के समान पहले समाज के वैध सिद्धान्तों को धारण कर लेता है और तब उनके तंग या ढीले होने पर, सुन्दर या कुरूप होने पर अपना मतामत देता है। इसी मतामत से समय-समय पर समाज को अपने पुराने सिद्धान्तों को नया रूप देना पड़ता है । प्रगतिशील समाज में व्यक्ति और व्यक्तियों का समूह अन्योन्याश्रित ही रहेंगे और उनका दान प्रतिदान उपयोगिता की एक ही तुला पर विकास के एक ही बाँट से तोला जा सकेगा।

समाज की दो आधार-शिलाएँ हैं, अर्थ का विभाजन और स्त्री-पुरुष का सम्बन्ध । इनमें से यदि एक की भी स्थिति में विषमता उत्पन्न होने लगती है, तो समाज का सम्पूर्ण प्रासादहिले बिना नहीं रह सकता ।

अर्थ सामाजिक व्यक्ति की अनिवार्य आवश्यकता है, क्योंकि उसके द्वारा जीवन के लिए आवश्यक सामग्री प्राप्त हो सकती है । बर्बरता तथा सभ्यता दोनों ही परिस्थितियों में मनुष्य अपने सुख के साधन चाहता है अन्तर केवल यही है कि एक स्थिति में अपने सुख के साधन प्राप्त करना व्यक्ति की शक्ति पर निर्भर है और दूसरी में सुख की सामग्री के समान विभाजन का अधिकार समाज को सौंप दिया जाता है । बर्बरता की स्थिति में शक्ति का उपयोग व्यक्तिगत हितों की रक्षा में निहित था, परन्तु सभ्य समाज में शक्ति का उपयोग सार्वजनिक है । समाज अपने सदस्यों में प्रत्येक को, चाहे वह सबल हो चाहे निर्बल, सुख के साधन समान रूप से वितरित करने पर बाध्य समझा जाता है ।

सब व्यक्तियों का शारीरिक तथा मानसिक विकास एकसा नहीं होता और न वे सब एक जैसे कार्य के उपयुक्त हो सकते हैं, परन्तु समाज के लिए वे सभी समान रूप से उपयोगी हैं । एक दार्शनिक, कृषक का कार्य चाहे न कर सके, परन्तु मानव-जाति को मानसिक भोजन अवश्य दे सकता है । इसी प्रकार एक कृषक चाहे मानव-समूह को कोई वैज्ञानिक आविष्कार भेंट न कर सके, परन्तु जीवन-धारण के लिए अन्न देने का सामर्थ्य अवश्य रखता है । एक भवन बनाने में हमें ऐसे व्यक्ति की आवश्यकता होती है, जो बनने से पहले कागज पर उसकी भावी रूपरेखा अंकित कर सके; ऐसे व्यक्ति की सहायता भी चाहिए जो ईंट पत्थर को जमाना और जोड़ना जानता हो और ऐसे व्यक्तियों के सहयोग की अपेक्षा भी रहती है जो मिट्टी-ईंट प्रस्तुत करके निर्माता तक पहुंचा सकें । पृथक्-पृथक् देखने से किसी का भी कार्य महत्वपूर्ण न जान पड़ेगा, परन्तु उनके संयुक्त प्रयत्न से निर्मित भवन प्रमाणित कर सकता है कि उनमें से कोई भी उपेक्षणीय नहीं था । समाज की भी यही दशा है । वह अपनी पूर्णता के लिए सब सदस्यों को उनकी शक्ति और योग्यता के अनुसार कार्य देकर उनके जीवन की सुविधाएँ प्रस्तुत करता है । जब इस नियम के विरुद्ध वह किसी को बिना किसी परिश्रिम के बहुत सी सुविधाएँ दे देता है और किसी को कठिन परिश्रम के उपरान्त भी जीवन के लिए आवश्यक वस्तुओं से रहित रखता है, तब उसे लक्ष्य-भ्रष्ट ही कहना चाहिए ; क्योंकि यह स्थिति तो बर्बरता में भी सम्भव थी । यदि उस स्थिति से मनुष्य सन्तुष्ट रह सकता तो फिर समाज की आवश्यकता ही न रह जाती । किसी भी सामंजस्यपूर्ण समाज में परिश्रम और सुख की यह विषमता सम्भव नहीं, क्योंकि यह उस समझौते के नितान्त विपरीत है, जिसके द्वारा मनुष्य ने मनुष्य को सहयोग देना स्वीकार किया था । जो बर्बर मनुष्य अपने एक सुख के लिए दूसरे के अनेक सुखों को छीन लेने के लिए स्वच्छन्द था, उसी की उच्छृंखलता को समाज ने न्याय के बन्धन में बाँध लिया है । इस बन्धन के अभाव में प्रत्येक व्यक्ति फिर अपनी पूर्व स्थिति में लौट सकता है, यह इतने वर्षों के अनुभव ने अपेक्षाकृत स्पष्ट कर दिया है । कुछ व्यक्तियों के प्रति समाज का ऐसा अनुचित पक्षपात ही वह व्याधि है, जो उसके रक्त का शोषण करते-करते अन्त में उसे निर्जीव कर देती है ।

यह सम्भव है कि सबल, दुर्बलों को अपनी बर्बर शक्ति के द्वारा बाँध कर रख सकें, परन्तु यह अनिच्छा और परवशता से स्वीकृत सहयोग दासत्व से किसी भी अंश में न्यून नहीं कहा जा सकता । इतिहास प्रमाणित कर देगा कि ऐसे दासत्व बहुत काल के उपरान्त एक अद्भुत संहारक शक्ति को जन्म देते रहे हैं, जिसकी बाढ़ रोकने में बड़े शक्तिशाली भी समर्थ नहीं हो सके । मनुष्य स्वभावतः जीवन को बहुत प्यार करता है, परन्तु जब सहयोगियों के निष्ठुर उत्पीड़न से वह नितान्त दुर्वह हो उठता है, तब उसकी ममता घोरतम विरक्ति में परिवर्तित हो जाती है । पीड़ितों का समाधान सम्भव हो सकता है, परन्तु ऐसे हताश और जीवन के प्रति निर्मम व्यक्तियों का समाधान सम्भव नहीं । ऐसे व्यक्तियों का वेग आंधी के समान चक्षुहीन, बाढ़ के समान दिशाहीन और विद्युत् के समान लक्ष्यहीन हो जाता है । अपने सदस्यों की मन :स्थिति ऐसी क्रान्ति तक पहुँचा देना समाज की मनोविज्ञान-शून्यता ही प्रकट करता है ।

क्रान्ति युग की प्रवर्तिका है अवश्य, परन्तु उसका कार्य, प्रवाह को एक दिशा से रोककर दूसरी में ले जाने के समान है, इसी से उसे पहले लिखा हुआ मिटाना पड़ता है, सीखा हुआ भुलाना पड़ता है और बसाया हुआ उजाड़ना पड़ता है । इसीलिए सुव्यवस्थित समाज विकासमार्ग में रुक-रुक कर अपने गन्तव्य और दिशा की परीक्षा करना आवश्यक समझते हैं । बाढ़ से पहले बाँध की उपयोगिता है । जल के प्रलयंकर प्रवाह में चाहे वह न बन सके, परन्तु उसका पूर्ववर्ती होकर अनेक आधात सहकर भी स्थिर रह सकता है । फिर यह आवश्यक नहीं कि ऐसी संहारक और सर्वग्रासी क्रान्ति, सुन्दर निर्मायक भी हो । तरंग का स्वभाव तट से टकरा कर लौट जाना है, यह देखना नहीं कि तीर की समरेखा अक्षुण्ण रही या नहीं रही । यह कार्य तो तट की दृढ़ता और प्रकृति पर निर्भर है । क्रान्ति के आघात से अपनी रूपरेखा बचा लेना उसी समाज के लिए सम्भव है, जो उसके उद्म और दिशा से परिचित हो और उसे सहन करने की क्षमता रखता हो । जिस समुद्र के अनन्त और अथाह गर्भ में पर्वत खो गये हैं, उसी से तट से सम्बन्ध रखने वाले गोताखोर मोती निकाल लाते हैं और जिस ऊँची लहर के सामने बड़े-बड़े पोत बह जाते हैं उसी में, तट पर आधर-स्तम्भ के सहारे, मनुष्य स्नान करके निर्मल हो जाते हैं ।

यदि समाज के पास ऐसा आधार-स्तम्भ हो तो क्रान्तियाँ उसे और अधिक निर्मल बना सकती हैं । इसकी अनुपस्थिति में निरुद्देश बहना ही अधिक सम्भव है, जो व्यक्ति और समाज के युगदीर्घ बन्धन को शिथिल किये बिना नहीं रहता । ।

स्त्री पुरुष का सम्बन्ध भी अर्थ से कम महत्त्वपूर्ण नहीं । समाज को बाँधने वाला यह सूत्र कितना सूक्ष्म और दृढ़ है, यह उसके क्रमिक विकास के इतिहास से प्रकट हो जायेगा ।

यह धारणा कि गृह का आधार लेकर समाज का निर्माण हो सका है । आधुनिकता के आलोक में पुरानी मानी जावेगी । परन्तु नैतिक दृष्टि से समाज-वृक्ष के सघनमूल का पहला अंकुर स्त्री, पुरुष और उसकी सन्तान में पनपा इसे निर्मूल सिद्ध कर देना सम्भव नहीं हो सकेगा।

यदि वह ध्यान से देखें तो ज्ञात होगा कि बहुत काल से स्त्री की स्थिति समाज का विकास नापने के लिए मापदंड रही है । नितान्त बर्बर जाति में स्त्री केवल विनोद का साधन और अधिकार में रखने की वस्तु समझी जाती रही । आज भी जंगली जातियों में स्त्री की वह स्थिति नहीं है, जो सभ्य समाज में मिलेगी। उस आदिम युग में मातृत्व स्त्रीत्व का आकस्मिक परिणाम था, जिससे जाति तो लाभ उठाती थी, परन्तु स्त्री उपयोगी यन्त्र से अधिक गौरव नहीं पाती थी । तब स्त्री पुरुष का सम्बन्ध भी अपने क्षणिक विनोद और उत्तरदायित्वहीनता के कारण पशुत्व का ही एक रूप था । वह यदि पशुत्व से निकृष्ट नहीं कहा जा सकता तो उत्कृष्ट होने का गर्व भी नहीं कर सकता । कहीं पुरुषों का समूह का समूह स्त्री-समूह से विवाहित था, कहीं एक पुरुष के अधिकार में पालतू पशुओं के समान बहुत-सी स्त्रियाँ थीं और कहीं स्त्री की संख्या न्यून होने के कारण अनेक पुरुष एक स्त्री पर अधिकार रखते थे । सारांश यह कि जहाँ जनसंख्या के अनुसार आवश्यकता थी वैसे ही नियम बन गये ।

जाति की वृद्धि और पुरुषों के मनोविनोद का साधन होने के अतिरिक्त स्त्री का कोई और उपयोग नहीं था । आनन्द के अन्य उपकरणों के समान उन्हें विपक्षियों से जीत लाना या सुयोग पाकर उनका अपहरण कर लाना साधारण-सी बात थी । स्त्री के हृदय है या उसकी इच्छा अनिच्छा भी हो सकती है, यह आदिम युग के पुरुष की सहज बुद्धि से परे था, परन्तु जैसे-जैसे मानव-जाति पशुत्व की परिधि से बाहर आती गई, स्त्री की स्थिति में भी अन्तर पड़ता गया । जाति की माता होने के नाते उसके प्रति कुछ विशेष आदर का भाव भी प्रदर्शित किया जाने लगा । कब और कैसे पुरुष तथा स्त्री के सम्बन्ध में उस आसक्ति का जन्म हुआ जिसने समय के प्रवाह में परिष्कृत से परिष्कृततर होते-होते गृह की नींव डाली, यह जान सकना कठिन है, परन्तु अनुमानतः दोनों की ही प्रवृत्ति और सहज बुद्धि ने उस अव्यवस्थित जीवन की त्रुटियाँ समझ ली होंगी। परस्पर संघर्ष में लगी हुई जातियों को तो इतना अवकाश ही न मिलता था कि वे जीवन की विशेष सुविधाओं का अभाव अनुभव करतीं । परन्तु जब उन्होंने अपेक्षाकृत शान्ति से बसने का स्थान खोज निकाला जीवन के लिए कुछ सुविधाएँ प्राप्त कर लीं, तब उनका ध्यान स्त्री की स्थायी उपयोगिता पर भी गया । पुरुष ने देखा, वह कभी श्रान्त, कभी क्लान्त और कभी रोगग्रस्त एकाकी है । ऐसी दशा में किसी मृदुस्वभाव सहचरी के साहचर्य की ओर उसकी कल्पना स्वतः प्रधावित होने लगी तो आश्चर्य ही क्या है ? अपने अभाव के अतिरिक्त पुरुष की अधिकार-भावना भी गृह की नींव डालने में बहुत सहायक हुई होगी । अपनी तलवार, अपने धनुषबाण के समान पुरुष, अपनी स्त्री और अपनी सन्तान कहने के लिए भी आतुर हो उठा । मनोज्ञ स्त्री को संघर्ष से बचाने और जाति को वीर पुत्र देने का गर्व करने के लिए भी यह आवश्यक था कि स्री एकान्त रूप से उसी के अधिकार में रहती । स्त्री ने भी अनिश्चित और संघर्षमय बाह्य जीवन से थककर अपने तथा अपनी सन्तान के लिए ऐसा साहचर्य स्वीकार किया, जो उसे जीवन की अनेक असुविधाओं से मुक्त कर सकता था । इस साहचर्य के नियम बहुत काल तक कोई स्पष्ट रूपरेखा न पा सके, क्योंकि उस समय तक मनुष्य-समूह की स्थिति में भी निरन्तर परिवर्तन होता रहता था ।

जिस समाज में हर पुरुष तथा स्त्री के सम्बन्ध का प्राचीनतम रूप देख सकते हैं, वह वैदिक समाज है, परन्तु वह अपनी संस्कृति और प्रगतिशीलता के कारण किसी भी अर्थ में आदिमकाल का समाज नहीं कहा जा सकता । उस समय तक समाज की रूप-रेखा स्पष्ट और उद्देश्य निश्चित हो जाने के कारण स्त्री की स्थिति में भी बहुत अन्तर आ चुका था ।

वेदकालीन समाज जीवन-धारण के लिए अनिवार्य, अग्नि, इन्द्र, सूर्यादि का महत्व समझ चुका था ; रात्रि उषा आदि की अभिनव सुषमा देखकर भाव विह्वल हो चुका था ; नवीन स्थान में अपने संगठन को दृढ़तर करने के लिए वर्णव्यवस्था का आविष्कार कर चुका था और जाति की वृद्धि और प्रसार के लिए व्यक्ति को धर्म की दीक्षा दे चुका था । गृह के बिना पुरुष का कहीं बसना सम्भव नहीं और सी के बिना गृह नहीं, अतः स्त्री, पुरुष की सहधर्मिणी निश्चित की गई । उन दोनों का उद्देश्य समाज को सुयोग्य सन्तान की भेंट देना और फिर उस सन्तान के लिए स्थान रिक्त करके अवकाश लेना था । उस समय जाति की विधात्री होने के कारण स्त्री आवश्यक और आदरणीय तो थी ही, साथ ही, उसके जीवनचर्या सम्बन्धी नियम भी अधिक कठोर नहीं बनाये जा सके । सहधर्मिणीत्व के अभाव में भी समाज उसकी सन्तान को त्याज्य नहीं कह सकता था ; सौभाग्य से शून्य होने पर भी समाज उसे गृहधर्म से निर्वासन-दंड न दे सकता था । वह मत्स्योदरी होकर भी राजरानी के पद पर प्रतिष्ठित हो सकती थी, कुन्ती होकर भी मातृत्व की गरिमा से गुरु रह सकती थी और द्रौपदी होकर भी पतिव्रता के आसन से नहीं हटाई जा सकती थी । वह समाज की स्थिति के लिए पुरुष की सहधर्मिणी थी, पुरुष की अधिकार-भावना से बँधी अनुगामिनी मात्र नहीं । जैसे-जैसे भिन्न परिस्थितियों में उसकी सामाजिक उपयोगिता घटती गई, वैसे वैसे पुरुष, व्यक्तिगत अधिकार भावना से उसे घेरता गया । अन्त में यह स्थिति ऐसी पराकाष्ठा को पहुंच गई जहाँ व्यक्तिगत अधिकार-भावना ने स्त्री के सामाजिक महत्व को अपनी छाया से ढक लिया । एक बार पुरुष के अधिकार की परिधि में पैर रख देने के पश्चात् जीवन में तो क्या, मृत्यु में भी वह वह स्वतंत्र नहीं । इस विधान ने ही विधवा की दयनीय स्थिति सम्भव कर दी । कदाचित् पहले यह विधान वर्गों के बन्धन कुछ कठिन हो जाने पर उन सन्तानवती विधवाओं के लिए किया गया होगा जिनको अपने बालकों का पालन उनके पिता के कुल और संस्कृति के अनुसार करना होता था ।

प्रत्येक युग की सुविधा और असुविधाओं ने स्त्री-पुरुष के बन्धन को विशेष रूप से प्रभावित किया है और प्राय : वह प्रभाव स्त्री की स्थिति में अधिक अन्तर लाता रहा । शासकों में उसके प्रतिनिधियों की संख्या शून्य सी रही है, अतः उसके सब विधान पुरुष की सुविधा के केन्द्र बिन्दु बनाकर रचे गये । आध्यात्मिकता का सूक्ष्म अवलम्ब लेकर पुरुष के प्रति उसका जो कर्तव्य निश्चित किया गया है, उसमें उसके या समाज के हानि-लाभ का विशेष ध्यान नहीं रखा जा सका, यह स्पष्ट है । पुरुष और स्त्री का सम्बन्ध केवल आध्यात्मिक न होकर व्यावहारिक भी है, इस प्रत्यक्ष सत्य को समाज न जाने कैसे अनदेखा करता रहा है । व्यावहारिकता में एक व्यक्ति को दूसरे के लिए जो त्याग करना पड़ता है, उसके उपयुक्त मानसिक स्थिति उत्पन्न कर देना आध्यात्मिकता का कार्य और आध्यात्मिकता में जिस यथार्थता का स्पर्श हम भुला देते हैं, उसे स्मरण कराते रहना व्यावहारिकता का लक्ष्य है । जब तक दाम्पत्य सम्बन्ध में पशुत्व, देवत्व में घुलकर नहीं आता और देवत्व साकार बन कर नहीं अवतीर्ण होता, तब तक वह अपूर्ण ही रहेगा ।

जैसे-जैसे हमारा समाज अपने आधे सदस्यों से अधिकारहीन बलिदान और आत्म समर्पण लेता जा रहा है, वैसे-वैसे वह भी अपने अधिकार खोता जा रहा है, यह समाज के असन्तोषपूर्ण वातावरण से प्रकट है ।

आज के समाज की जो स्थिति है, उसकी उपयुक्त परिभाषा कठिनाई से दी जा सकेगी । वह कुछ विशेष अधिकार-सम्पन्न और कुछ नितान्त अधिकारशून्य व्यक्तियों का ऐसा समूह है, जो उपयोगिता से नहीं वरन् परम्परागत धारणा से बँधा है । कहीं सन्तोष की अतिवृष्टि है और कहीं असन्तोष की अनावृष्टि, जिससे सामाजिक जीवन का सामञ्जस्य नष्ट होता जा रहा है ।

हमारा समाज अब प्राचीन-काल का सुसंगठित मानव-समूह नहीं रहा जिसके हाथ में राजनैतिक, धार्मिक, सामाजिक आदि सभी व्यवस्थाएँ थीं । अब भिन्न-भिन्न समाज स्वयं अपना शासन नहीं करते अतः सदस्यों में वह सम्बन्ध रहना सम्भव नहीं जो प्राचीन संगठनों में मिल सकता था । इस प्रकार शासन-सत्ता से हीन होकर समाज दण्ड और पुरस्कार की विशेष क्षमता नहीं रखता । आरम्भ में उसने अपनी इस क्षति की पूर्ति का साधन धर्म को बनाया, जिससे सामाजिक बन्धन कठिन और दुर्वह हो उठे । धर्म जब मनुष्य के भावना-द्वार से हृदय तक पहुँचता तब उसके प्रभाव से मनुष्य की विचारधारा वैसे ही विकसित हो उठती है जैसे मलय-समीर से कली । परन्तु वही धर्म जब मनुष्य की बुद्धि पर बलात् डाल दिया जाता है तब वह अपनेभार मनुष्य की कोमल भावनाओं को कुचल-कुचल कर निर्जीव और रसहीन बनाये बिना नहीं रहता । धर्म का शासन हमारे जीवन पर वैस ही प्रयासहीन होना चाहिए, जैसा हमारी इच्छा-शक्ति का आचरण पर होता है । सप्रयास धर्म जीवन का सबसे बड़ा अभिशाप है । न वह जीवन की गहराई तक पहुँच सकता है और न उनकी प्रत्येक शिरा में व्याप्त होकर उसे रसमय ही कर सकता है । बीज को हम वृक्ष की सबसे ऊँची डाल के अग्र-भाग के साथ बहुत ऊँचाई तक पहुँचा सकते हैं, परन्तु वहाँ उसे जमा सकना हमारी क्षमता के बाहर की बात है । उसे अंकुरित होकर आकाश के लिए पहले पृथ्वी की गहराई में जाना होता है, यह प्रकृति का अटल नियम । शासन-सत्ता के साथ, समाज को अन्य सामाजिक संस्थाओं की व्यवस्था पर भी अपना प्रभुत्व कम करना पड़ा जिससे समाज और सामाजिक संस्थाएँ विकास के मार्ग में साथ-साथ न चल सकीं । नवीन परिस्थितियों में, समाज के सदस्यों को सुसंगठित होकर एक स्थान में बसने की सुविधा न मिलना भी सामाजिक बन्धन की शिथिलता का कारण बन गया । कुछ व्यक्तिवाद ने और कुछ समाज की अव्यावहारिकता ने मनुष्य को अपनी सामाजिक उपयोगिता भूल जाने पर बाध्य कर दिया ।

इस प्रकार अनेक बाह्य और आन्तरिक, प्रकट और अप्रकट कारणों ने समाज का वह रूपान्तर कर डाला जिससे सामूहिक रूप से हमारी हानि हुई । कुछ प्राकृतिक परिस्थितियों पर हमारा वश नहीं था, यह सत्य है, परन्तु यदि हम उनके अनुरूप सामाजिक संगठन कर सकते तो ऐसी अराजकता नितान्त असंभव हो उठती ।

इस समय समाज से हमारा अभिप्राय सम्प्रदाय विशेष या जाति-विशेष ही रहता है, जिसके भिन्न-भिन्न स्थानों में फैले हुए सदस्यों के आचरण और रीतियों में एक विशेष समानता रहती है । कुछ समय पूर्व तक यह समाज अपने इने-गिने अधिकारों का प्रयोग विवेक शून्य निष्ठुरता के साथ करता रहा, परन्तु इससे बँधने के स्थान में सारे सदस्य दूर दूर होते गये । अब तो विवाह आदि के समय ही व्यक्ति अपने जाति-भाइयों की खोज करता है, परन्तु यह अनिवार्यता भी धीरे-धीरे शिथिल होती जा रही है ।

प्रत्येक जाति और सम्प्रदाय में कुछ उग्र विचार वाले, कुछ नवीनता के संयत उपासक और कुछ रूढ़िवादी अवश्य मिलेंगे। इनके बिखर जाने के कारण कुछ समाज ऐसे भी बन गये हैं जिनका आधार विचारधारा है, जाति या सम्प्रदाय नहीं । परन्तु जाति के संगठन में यदि उपयोगिता का अभाव है तो इनमें व्यावहारिकता की शून्यता है । उग्र विचारवालों में विचार के अतिरिक्त और कोई समानता नहीं, संयत विचारवालों में पर्याप्त साहस नहीं और रूढ़िवादियों में व्यवहारकुशलता नहीं । समाज को ऐसा अपरूप देने का कुछ श्रेय पाश्चात्य सभ्यता को भी देना होगा, क्योंकि उसके अभाव में ऐसे परिवर्तन प्राकृतिक ढंग से आते । एक विदेशीय संस्कृति में पला समाज जब शासक के रूप में आ जाता है तब शासित जाति के संगठन में कुछ आकस्मिक परिवर्तन होना स्वाभाविक ही है । कोई भी पहले से प्रतिष्ठित संस्कृति न एकदम पराजय स्वीकार कर सकती है और न विजय में एकान्त विश्वास ही रखती है। शासक और शासित समाज का संघर्ष उच्छृंखल भी हो सकता है और संयत भी, यह ऐतिहासिक सत्य है । किसी समय भारतीय संस्कृति और समाज को मुस्लिम संस्कृति से लोहा लेना पड़ा था और उस अग्निवर्षा से वह अक्षत निकल आई । इस विजय का कारण उस संघर्ष का बाह्य और उच्छृंखल होना ही कहा जा सकता है । किसी जाति की संस्कृति उसके शरीर का वस्त्र न होकर उसकी आत्मा का रस है, इसी से न हम उसे बलात्, छीन सकते हैं और न चीर-फाड़ कर फेंक सकते हैं । उस रस का स्वाद बदलने के लिए तो हमें उससे अधिक मधुर औषधि पिलानी पड़ेगी । जब-जब बाहर की संस्कृति विवेकशून्य होकर आई, उसे पराजय ही हाथ लगी, जब उसने विवेकबुद्धि से काम लिया तब अपने पीछे विजय की ज्वलन्त कहानी छोड़ती गई है ।

पाश्चात्य संस्कृति ने हमें युद्ध की चुनौती न देकर मित्रता का हाथ बढ़ाया, इसी से हमारा उससे कोई बाह्य संघर्ष भी नहीं हुआ । वह हमारी अनेक सामाजिक संस्थाओं में प्रवेश पाते-पाते हमारे हृदय में प्रविष्ट हो गई और इस प्रकार बिना किसी संघर्ष के भी हमारे जीवन को उतना ही प्रभावित कर सकी जितना स्वयं हमारी संस्कृति कर सकती थी । उसकी उपयोगिता या अनुपयोगिता के संबध में बहुत कुछ कहा जाता रहा है और कहा जाता रहेगा, परन्तु इतना दोनों ही दशाओं में सत्य है कि उसने हमारे सामाजिक दृष्टिकोण को बहुत बदल दिया है । शासक संस्कृति होने के कारण यह अन्य संस्कृतियों के समान हमारी संस्कृति में विलीन होना नहीं चाहती, अन्यथा इससे हमारे विकास में कोई विशेष बाधा न पहुंचती। वर्तमान परिस्थितियों में उसने हमारे शिथिल समाज के भीतर एक ऐसे समाज का निर्माण कर दिया है जिसकी आत्मा भारतीय और शरीर अभारतीय जान पड़ता है । इसे न हम साथ ले चल सकते हैं और न छोड़ सकते हैं । वह पश्चिमीय विचारधारा में बहकर भी उससे शासित नहीं होता और भारतीयता में जीवित रहकर भी उससे प्रभावित नहीं होता ।

संगठन की इन असुविधाओं के साथ-साथ विषम-अर्थ-विभाजन और स्त्री की स्थिति समाज की नींव को खोखला किये दे रही हैं इसका उत्तरदायित्व समाज और शासन-विभाग दोनों पर है सही, परन्तु उससे उत्पन्न, अव्यवस्था का अधिकांश समाज को मिलता है। । केवल शक्ति से शासन हो सकता है, समाज नहीं बन सकता, जिसकी स्थिति मनुष्य के स्वच्छन्द सहयोग पर स्थिर है । निरंकुश शासन, शासक का अन्त कर सकता है, निरंकुश समाज मनुष्यता को समाप्त कर देता है ।

1937

('शृंखला की कड़ियाँ' से)

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