समाधि भाई रामसिंह (कहानी) : भीष्म साहनी
Samadhi Bhai Ram Singh (Hindi Story) : Bhisham Sahni
यह घटना मेरे शहर में घटी । यह घटना और कहीं घट भी न सकती
थी। शहरों में शहर है तो मेरा शहर और लोगों में लोग हैं तो मेरे शहर
के लोग, जो अपने तुल्य किसी को समझते ही नहीं। हमारे शहर के बाहर
एक गन्दा नाला बहता है, पतला बूढ़ा, मन्दगति, जिसमें इतना पानी भी नहीं
कि उसमें भैंसे बैठकर अपना बदन ठण्डा कर सकें, मगर हम उसे दरिया
कहते हैं। एक बाग है जिसमें शीशम और सफेदे के पेड़ों के अलावा तीसरी
तरह का पेड़ नहीं, और कौओं और चीलों के अलावा कोई परिंदा नजर नहीं
आता, नीचे झाड़-झँखाड़ हैं, और हर वक्त वहाँ कभी हरियाली देखने को
नहीं मिलती; पर शहर वाले उसे चमन कहते हैं, और उसे किसी भी
पुष्पवाटिका से अधिक सुन्दर मानते हैं। इस शहर की कोई चीज़ अपनी
नहीं, जो फल आते हैं, तो काबुल से और कपड़ा आता है, तो विलायत
से इसके अपने फल तो खट्टे अलूचे, लसूड़े और गरण्डे होते हैं, जिन्हें अब
बकरियों ने भी खाना छोड़ दिया है; मगर शहरवालों की एक चीज़ ही अपनी
है, उनकी मूँछें, जिनके कोने सदा ऊपर को उठे रहते हैं, उनमें कभी खम
नहीं आया!
इसलिए यह घटना इसी शहर में ही घट सकती थी।
चूँकि शहर बहुत पुराना नहीं, यहाँ कोई स्मारक या मन्दिर नहीं, मगर
किसी शहरवाले से कहकर तो देखो, वह आपको इस नजर से देखेगा, जैसे
वह किसी गुफावासी को देख रहा हो, और फिर पूछेगा-तुमने भाई रामसिंह
की समाधि देखी है?
और इसके बाद समाधि की तारीफ में और भाई रामसिंह की तारीफ में एक कसीदा
कह डालेगा। अब भाई रामसिंह कोई गुरु नहीं हुए, उनका
इतिहास में कहीं कोई नाम नहीं मिलता, शहर के बाहर इस बेचारे को कोई
जानता तक नहीं, मगर यहाँ उसे और उसकी समाधि को शहर का बच्चा-बच्चा
जानता है; और यदि देश-भर का बच्चा-बच्चा नहीं जानता, तो इसमें
देशवालों का दोष है, शहरवालों का नहीं।
जो घटना मैं आपको बतलाने जा रहा हूँ, वह इसी समाधि से सम्बन्ध
रखती है यूँ हमारा शहर छोटा-सा है, जिसमें एक बाज़ार लम्बा-सा कपड़ेवालों
का, एक बाजार नानवाइयों का, एक सब्जीमण्डी, एक अनाजमण्डी, अनगिनत
गलियाँ और दर्जन के लगभग मुहल्ले हैं। शहर के बीच में एक ऊँचा-सा
टीला है, जिस पर एक मन्दिर है और जिसके चारों तरफ लम्बी-लम्बी सड़कें
उतरती हैं, जैसे शिवजी की जटा से एक की बजाय चार नदियाँ बह निकलें।
लोग मस्त हैं, जो काम करते हैं वह भी, और जो काम नहीं करते वह भी ।
चौबीस घण्टों में एक चक्कर शहर का जरूर काटते हैं, इसलिए गलियों और
सड़कों पर रौनक रहती है।
उसी रौनक में आज से कोई बीस बरस पहले एक रोज इसी टीले
पर, मन्दिर की बगल में से निकलकर भाई रामसिंह चौराहे पर आन खड़ा
हुआ था। गोरा रंग लम्बी चमचमाती दाढ़ी, कुछ-कुछ काली, कुछ-कुछ सफेद
और स्वस्थ, नाटी देह। उस वक्त उसकी अवस्था चालीस-पैंतालीस के
लगभग होगी। बगल में सफेद गागर उठाए तन पर सफेद चद्दर और सफेद
अँगोछा पहने वह टीले पर आकर खड़ा हो गया। मगर किसी ने उसकी ओर
विशेष ध्यान न दिया। चौराहे के एक तरफ कुछ लड़के खेल रहे थे। भाई
रामसिंह धीरे-धीरे उनकी ओर चला गया, और एक लड़के को अपनी ओर
बुलाकर बोला-लो बेटा, यह पियो। -और गागर में से कटोरी भरकर लड़के
की ओर बढ़ायी।
लड़के सब इकट्ठे हो गए और बड़े कौतूहल से उसकी ओर देखने लगे।
फिर एक लड़के ने कटोरी भाई रामसिंह के हाथ से ले ली और बार-बार
इधर-उधर देखने के बाद मुँह को लगायी, और लगाते ही दूसरे क्षण उसे
थूक दिया और कटोरी फेंक दी।
-यह चिरायता है, बेटा, इससे फोड़े-फुन्सी नहीं होते। लो, थोड़ा-थोड़ा सब पियो।
मगर किसी ने हाथ न बढ़ाया, जिसने चखा था वह अब भी थू-थू
कर रहा था, और बाकी लड़के खड़े उस पर हँस रहे थे।
आखिर भाई रामसिंह उनसे हटकर एक सड़क से नीचे उतरने लगा।
लड़के फिर कुतूहलवश थोड़ी दूर तक उसके पीछे-पीछे गए, फिर लौट आए
और अपने खेल में जुट गए।
इसके बाद भाई रामसिंह सड़क उतरने लगा और राह जाते बच्चे, बड़े,
सबको चिरायता पीने का निमन्त्रण देने लगा, और फिर धीरे-धीरे शहर की
गलियों में खो गया।
इस तरह भाई रामसिंह का शहर में उदय हुआ था।
कुछ ही दिनों में भाई रामसिंह को शहर के सब लोग जान गए। जहाँ
जाता, स्त्रियाँ अपने खेलते बच्चों को पकड़-पकड़कर उसके सामने ले जातीं
और जबरन चिरायता पिलवातीं, क्योंकि चिरायता सचमुच फोड़े-फुन्सियों का
बेहतरीन इलाज है। जिस गली में वह पहुँचता, बच्चे फौरन छिप जाते और
माएँ उनके पीछे-पीछे भागने लगतीं, लोग हँसते और भाई रामसिंह की
खिल्ली उड़ाते। लोगों के लिए भाई रामसिंह एक तमाशा बन गया। मगर
उसके उत्साह में कोई शिथिलता नहीं आयी। बल्कि कुछ ही दिनों बाद
उसकी गागर में छोटा-सा नल लग गया, ताकि चिरायता उंडेलने में आसानी
हो; फिर एक कटोरी की बजाए तीन कटोरियाँ आ गयीं, ताकि तीन आदमी
एक साथ पी सकें; फिर भाई रामसिंह के कन्घे से एक बिगुल भी लटकने
लगा। जिस मुहल्ले में जाता, पहले बिगुल बजाकर अपने आगमन की सूचना
दे देता।
लोग तरह-तरह के अनुमान लगाने लगे। कोई कहता कि साथ वाले
कस्बे से आया है, वहाँ उसके कपड़े की दूकान थी। कोई कहता, जासूस
है किसी हत्यारे की खोज में आया है। मेरे शहर वाले अनुमान भी लगाते
हैं तो छाती ठोंककर। किसी ने कहा--इसके पास चालीस हजार रुपया नकद
है, मैंने खुद देखा है।-लड़के कहते कि श्मशानभूमि में रहता है और रात
के वक्त भी शहर के चक्कर काटता भूतों को चिरायता पिलाता है। तरह
तरह की बातें उठीं, पर धीरे-धीरे शांत हो गयीं। भाई रामसिंह बहुत बोलता
न था। उससे जो कोई पूछता, तो कहता-गुरु महाराज के चरणों में रहता हूं,
उन्हीं का दास हूं।
जब चेत-बैसाख गुजर गए, तो भाई रामसिंह गागर में ठंडा पानी पिलाने लगा।
जब मन की मौज आती तो किसी-किसी दिन पानी की जगह संदल का शर्बत पिलाने
लगता । हमारे शहर का संदल का शरबत दुनिया-भर में मशहूर है। और जाड़े के दिनों
में कभी-कभी इलायचियों वाली चाय भी लोगों को मिलती । गरज कि भाई रामसिंह का
चक्कर ज्यों-का-त्यों कायम रहा, और शहर में चिरायतेवाला साधु के नाम से वह मशहूर
हो गया।
इसी निःस्वार्थ सेवा में दस बरस बीत गए। अब जिस साधु का अपना कोई
स्थान हो, अपना अड्डा हो, वह साधु से संत जल्दी बन जाता है; मगर जो सदा घूमता रहे,
उसकी चर्चा चाहे कितनी भी हो, वह भाई का भाई ही रहता है। भाई रामसिंह के साथ
भी यही कुछ हुआ । इन दस बरसों में भाईजी की दाढ़ी के बाल रेशम की तरह सफेद हो
गए, चेहरे पर झुर्रियाँ आ गईं, हालाँकि चेहरे की रौनक ज्यों-की-त्यों कायम रही, क्योंकि
जो भी आदमी गागर उठाए तीन-चार मील का चक्कर रोज काटे, उसके चेहरे पर तो
लाली रहेगी ही। मगर अब भी भाई रामसिंह चिरायतेवाला साधु ही रहा। अब भी
गलियों में से घूमता हुआ जाता, तो वहीं लोगों को नमस्कार करता, उसे नमस्कार करने
के लिए कोई अपनी जगह से न उठता । बात भी ठीक थी, भला चिरायता पिलाने से भी
कभी कोई संत हुआ है ।
पर एक दिन न मालूम भाई रामसिंह को वैराग्य हुआ या भ्रम हुआ या उसने कोई
स्वप्न देखा या सचमुच ही उसे आकाशवाणी हुई, सुबह-सवेरे टोले पर आकर कहने
लगा--भक्तो ! रात को गुरु महाराज का परवाना आ गया है, मैं जा रहा हूं। कल सुबह
दिन चढ़ते-चढ़ते मैं चोला बदल जाऊंगा।
यह बात उसने टीले पर बुद्धसिंह बजाज की दूकान के सामने कही, जहाँ वह दिन
में पहली बार बिगुल बजाता था। आज भी उसकी बगल में गागर थी। बुद्धसिंह बजाज
ने सुना, पर कोई विशेष ध्यान न दिया; मगर उसके छोटे भाई ने, जो नामधारी सिक्ख हो
गया था, सुन लिया। कहने लगा--सुना, भाई रामसिंह ने क्या कहा ?--वह चोला
बदलने जा रहे हैं।
सरदार बुद्धसिंह ने जवाब दिया-मैंने सुन लिया है, तू समझता है, मैंने सुना
नहीं? चोला बदलना है तो बदले, मुझे उसके मुँह में आग थोड़ी देनी हे। तेरे बेटे
चिरायता पीते रहे हैं, तू उसके पाँव पकड़ !
इस पर दोनों भाई हँसकर चुप हो गए।
मगर दूकान पर बैठी हुई दो स्त्रियों के कान में यह बात पड़ गई | पहले वह भी
हँसीं, मगर जब कपड़ा लेकर लौटती हुई, वह सेवारम की गली में से गुजरीं और गली
के मोड़ पर भाई रामसिंह को खड़े चिरायता पिलाते हुए देखा, तो उनके दिल को कुछ हो
गया । एक ने दुपट्टे का आँचल मुँह पर रखते हुए कहा-हाय, बेचारा ! चोला छोड़ता है,
और आज भी चिरायता पिला रहा है !
बस फिर क्या था। खबर फैलने में देर नहीं लगी । सेवाराम की गली से बात नए
मुहल्ले में पहुंची, वहाँ से छाछी मुहल्ले में, फिर लुंडा बाजार, भाभड़खाना, सैदपुरी
दरवाजा । एक गली से दूसरी गली तक पहुंचते हुए उसकी रफ्तार तेज हो गई, यहाँ तक
कि थोड़ी ही देर में यह खबर एक बवंडर की तरह शहर की गलियों और सड़कों पर
घूमने लगी कि चिरायतावाला भाई रामसिंह कल सुबह चार बजे पौ फटते ही चोला छोड़
देगा।
अब भाई रामसिंह की गागर नियमानुकूल लुंडा बाजार के सिरे पर पहुँचकर खत्म
हो गई, और वहीं से उसने कदम फेर लिए। और शहर के बाहर, जहाँ एक पेड़ों का
झुरमुट है, जिसे हम तपोवन कहते हैं, एक पेड़ के नीचे जा बैठा ।
तपोवन शहर के बाहर कीकर और पलाश के पेड़ों का एक झुरमुट है, जहाँ एक
पुराना कुआँ है, जिस पर लोग सुबह दातुन करने और नहाने जाते हैं। वहाँ रहता कोई
नहीं, केवल कभी-कभी आए-गए संतों की कथा होती है ।
दोपहर तक तो तपोवन में शांति रही, मगर ज्यों ही दो बजे का वक्त हुआ और
स्त्रियों ने चौके उठाए, तो कई भक्तनियाँ हरिनाम जपती हुई दिल में हाय-हाय करती,
भाई रामसिंह को खोजती वहाँ आ पहुँचीं। चार बजते-बजते स्त्रियों की भीड़ लग गई ।
पुरुषों ने सुना, तो हँसे, मगर धीरे-धीरे उनका धैर्य भी टूटने लगा। क्या मालूम यह भी
कोई पहुंचा हुआ संत हो ! दर्शन करने में क्या हर्ज है ? कुछ तमाशे के ख्याल से, बच्चे,
बूढ़े, जवान, सब वहाँ पहुँचने लगे। आखिर शहर तो वही था, जो जाएँ तो सब जाएं,
और जो सब जाएं, तो घर में बैठना हराम है !
जो भाई रामसिंह अभी तक भाई रामसिंह ही था, तो दोपहर तक
वह सन्त बन गया, और शाम होते-होते सन्त महाराज की उपाधि भी उसे
मिल गयी। कई मुरादें बिन माँगे पूरी हो जाती हैं। जिसे दस बरस तक किसी
ने न पूछा था, आज उसी के दर्शन को हजारों लोग एड़ियाँ उठा-उठाकर
झाँक रहे थे। पेड़ के नीचे आसन बिछा दिया गया। फिर कहीं से चौकी
आ गयी। दर्शनों के लिए सन्त महाराज का ऊँचा बैठना जरूरी था। एक
भक्त चँवर झलने लगा। फूलों के ढेर लगने लगे। कहीं से गैस का लैम्प
आ गया, फिर दो लैम्प आ गए। स्त्रियों की भक्ति का कोई अन्त न था।
पैसे, आटा, घी, निछावर होने लगे। भाई रामसिंह को भी इसी के अनुसार
आँखें बन्द किए हुए ध्यानमग्न होकर बैठना पड़ा । फिर कहीं से बाजे, तबले,
वगैरा आ गए। कीर्तन होने लगा। लोग झुक-झुककर भाई रामसिंह की दिव्य
मूर्ति को प्रणाम करने लगे।
बात मुसलमानों के मुहल्लों में भी जा पहुँची। सन्त पीर सबके साझे
होते हैं। मुसलमान भी आ पहुँचे। वाह! वाह! क्या कमाल है! स्त्रियाँ घरों
को लौटतीं, मगर घरों में उनके पाँव कब टिकते थे? जो दाल-रोटी बन पाती,
बनाकर फिर दौड़ी वहाँ जा पहुँचतीं।
रात के बारह बज गए। उत्तेजना बढ़ने लगी। एक कोमल हृदय की
बूढ़ी औरत ने हाथ बाँधकर भाई जी से विनती की कि महाराज! दया करो,
चोला न बदलो। महाराज ने सुना, मुस्कराए और चुपचाप आँखें आकाश
की ओर करके फिर ध्यानमग्न हो गए। सारे शहर का दिल धक्-धक् कर
रहा था। उत्कण्ठित और उत्तेजित लोग इसी इन्तज़ार में थे कि कब चार
बजे और चोला बदलने का चमत्कार देखें।
रात गहरी होने लगी। लोग घड़ियाँ देखने लगे। उस रात शहर-भर
में कोई नहीं सो पाया। गलियाँ सुनसान पड़ गयीं, उनमें कोई आवाज आती,
तो दौड़ते कदमों की। एक दरवाज़ा खटकता, एक आवाज़ आती-दो बजे
हैं, बस अब दो घण्टे बाकी रह गए। तू बैठ मैं अभी आता हूँ। तू जाएगी,
तो बच्चों को कौन देखेगा? मैं लौट आऊँ, तो तू चली जाना-रात-भर यह
किस्सा होता रहा। जब मर्द के कदम दूर निकल जाते, तो औरत के कदमों
की आवाज आने लगती।
तीन बज गए, फिर साढ़े तीन। कीर्तन में अब हज़ारों स्त्री-पुरुष भाग
ले रहे थे। ऊँचे कण्ठ से गुरु-वाणी गायी जा रही थी। पेड़ों पर बैठे हुए
पंछी भी पत्तों में से झाँक-झाँककर यह दिव्य चमत्कार देख रहे थे।
पौने चार बजते-बजते जय-जयकार हो उठी। महाराज ने आँखें खोली।
स्त्रियों ने रो-रोकर एक-दूसरी को कहा-वक्त आन पहुँचा। देखो इन्हें
अपने-आप पता चल गया है।
अँधेरा अभी बहुत गहरा था। मगर लोग अपनी-अपनी घड़ियों पर
एक-एक मिनट ऊँची आवाज में गिन रहे थे। हमारे शहर में चार बजे का
वक्त पौ फटने का वक्त माना जाता है।
चार बजने में पाँच मिनट पर गुरु महाराज बेदी पर से उठ खड़े हुए
और हाथ जोड़े, सिर नवाए, नीचे आकर ऐन बेदी के सामने लम्बे लेट गए,
और छाती पर दोनों हाथ जोड़कर आँखें बन्द कर लीं। श्रद्धा और भक्ति
के बाँध टूट पड़े, औरत सिसकियाँ ले-लेकर रो उठीं, और महाराज पर फिर
से पुष्प-वर्षा होने लगी।
चार बजने में एक मिनट पर एकदम सन्नाटा छा गया। चारों तरफ
चुप्पी छा गयी। हरिनाम की ध्वनि बिलकुल शान्त हो गयी। स्त्रियों के आँसू
सूख गए और आँखें भाई रामसिंह के चेहरे पर गड़ गयीं। सब लोग साँस
रोके एकटक गुरु-महाराज की ओर देख रहे थे।
ठीक चार बजे महाराज ने आँखें बन्द कर लीं और हिलना-डुलना छोड़
दिया।
लोग चुपचाप आँखें फाड़े देखते रह गए। दो-एक ने हाथ आकाश
की ओर उठाकर, रोने की आवाज़ में कहा-गए! हमें छोड़कर चले गए।
फिर शहर के एक मुखिया ने धीरे से पास आकर कुछ फूल हटाते
हुए, महाराज की नब्ज देखी। सिर हिलाकर बोले-धीमी है, मगर चल रही
है।
लोग चुप थे। उनकी आँखें अब भी साधु महाराज के चेहरे को देख
रही थीं।
चार बजकर तीन मिनट पर फिर मुखिया ने नब्ज देखी, फिर सिर
हिलाया और आहिस्ता से कहा-धीमी है मगर चल रही है।
दूसरा मुखिया बोला-संसारी घड़ियों का क्या विश्वास? जब ऊपर
चार बजेंगे, तो चोला अपने आप छूट जाएगा।
चार बजकर पाँच मिनट हो गए। नब्ज अब भी चल रही थी। मुखिया
ने झुककर कान में महाराज से पूछा-महाराज, कैसे हैं?
जवाब धीमा-सा आया-मैं इन्तज़ार में हूँ। मैंने अपनी तरफ से चोला
छोड़ दिया है।
लोग एक-एक सेकेण्ड गिन रहे थे। चार बजकर सात मिनट पर फिर
मुखिया ने नब्ज पकड़ी, और मिनट-भर पकड़कर बैठे रहे। उन्होंने अब की
तनिक ऊँची आवाज में कहा-नब्ज ज्यों-की-त्यों चल रही है।
लोग एक-दूसरे के मुँह की तरफ देखने लगे। सिर हिलने लगे। चेहरों
पर संशय की रेखाएँ नज़र आने लगीं। फिर दूसरे मुखिया ने खड़े-खड़े
कहा-साधु महाराज क्या देरी है?
महाराज ने आँखें बन्द किए हुए उत्तर दिया-ऊपर से परवाना आए
तब तो?
जो श्रद्धा और भक्ति पहले मौन प्रतीक्षा में परिणत हुई थी, अब
अविश्वास और क्रोध में बदलने लगी। लोग समझने लगे, जैसे उनके साथ
खिलवाड़ हुआ है, उनका अपमान किया गया है।
ऐन सवा चार बजे जब मुखिया ने चिल्लाकर पूछा कि अब क्या देरी
है, हम खड़े-खड़े थक गए हैं, तो भाई रामसिंह हाथ जोड़कर उठ बैठे-भगवान
मुझे रुला रहे हैं, मैं क्या करूँ? मैं हर क्षण इन्तज़ार कर रहा हूँ।
पर इस वाक्य का उल्टा असर हुआ। औरतें भी बोलने लगीं-हैं!
देखो, यह तमाशा देखो, पाखण्डी!
दो-एक सज्जन जो रात-भर चमत्कार के इन्तज़ार में जागते रहे थे,
और स्त्रियों से लड़कर आए थे, आगे बढ़ आए-साले! जानता नहीं, यह
कौन शहर है।
महाराज डरकर उठ बैठे और हाथ जोड़े हुए चौकी के पास जा खड़े
हुए। बोले-दिन चढ़ने से पहले मैं चोला छोड़ जाऊँगा। भक्तो! मुझे यही
परवाना मिला है, आप घरों को जाओ!
-अब दिन कब चढ़ेगा? चार तो कब के बज गए! -लोगों ने
चिल्लाकर कहा।
भाइयो! आप घर लौट जाओ । मैंने यहाँ किसी को नहीं बुलाया। आप
लोग जाओ...सूरज चढ़ने से पहले...
मगर लोगों की आँखों में खून उतर आया। देखते-ही-देखते लोगों की
बाढ़ आगे बढ़ आयी। लोग मुक्के कसने लगे। शहर के पाँच-सात शोहदे
और मुस्टन्डे सामने आ गए।
भाई रामसिंह डरकर चौकी के पास से हट गया और एक पेड़ के
नीचे जा खड़ा हुआ।
बस, उसका वहाँ से हिलना था कि धक्का-मुक्की हो गई। भाई राम
सिंह को घूंसे पर घूंसे पड़ने लगे। जिसे जो हाथ लगा, उसी से मरम्मत करने
लगा।
भाई रामसिंह की भागती काया कभी एक पेड़ के पीछे और कभी
दूसरे के पीछे आश्रय ढूँढ़ने लगी। मगर जहाँ वह जाता भक्त वहीं ज़ा
पहुँचते। भला भक्तों से भी कभी कोई भाग सका है? पहले घूंसे और मुक्के,
पड़ते रहे, जब भाग खड़ा हुआ, तो पत्थर और जूते पड़ने लगे। भाई रामसिंह
बार-बार चिल्लाया-भाइयो! मैंने किसी का कुछ नहीं बिगाड़ा। मुझे मत
मारो। मैंने तुम्हारी सेवा की है।....
मगर भक्तों की भावना में कोई शिथिलता नहीं आई। हाँ, कुछ एक
ने छुड़ाने की कोशिश की, मगर पत्थरों के डर से वे भी पीछे हट गए।
फिर सचमुच एक चमत्कार हुआ, जिसकी चर्चा कर आज भी हमारे
शहर के लोग बड़ा गर्व करते हैं।
ऐन सूरज चढ़ते-चढ़ते भाई रामसिंह ने चोला बदल दिया और उसके
प्राण पखेरू उड़कर भगवान के पास जा पहुँचे। हाँ, केवल उसकी देह, कीचड़
और मिट्टी और खून से लथपथ हो गई थी, और उसके इर्द-गिर्द जूतों और
पत्थरों का ढेर लग गया था।
मगर वह तो आखिर विसर्जित चोला था, उसे मिट्टी में मिलाना
ही था।
इस चमत्कार का आभास होने में देर नहीं लगी। जब दिन चढ़ आया
और रात का भ्रम दूर हुआ और भाई रामसिंह की देह एक स्पष्ट सत्य की
तरह सामने नजर आने लगी, तो एक ने कहा-ठीक ही तो कहता था। सूरज
चढ़ने से पहले मर गया न? (मर ही तो गया)।
फिर दूसरे ने कहा-भला पत्थर मारने की क्या जरूरत थी? मर तो
उसे यों भी जाना था। हम लोगों में धैर्य नहीं।
बस फिर क्या था, स्त्रियों ने अपने दुपट्टे गले में डाल दिए। आँसू
बहने लगे। भक्त फिर इकट्ठे होने शुरू हो गए। जूते-पत्थर हटा दिए गए,
और पुष्य-वर्षा होने लगी, और भाई रामसिंह का विसर्जित चोला फूलों के
नीचे फिर दबने लगा, और भाई रामसिंह की अरथी ऐसी सजधज से निकली
कि शहर वाले खुद अपनी श्रद्धा पर अश-अश करने लगे।
और भाई रामसिंह की समाधि तपोवन के पास ऐन उसी जगह पर
बनाई गई; जहाँ पर आसन पर बैठे थे! ऐसी सफेद, सुन्दर चमकती इमारत
है कि रात को भी दूर से नज़र आती है। और उस पर एक गोल गुंबज
भी है, सन्तजी की गागर वहाँ स्थापित है, और सफेद नया बाना भी और
एक जोड़ा खड़ाऊओं का भी, जो किसी भक्त ने अपने पैसों से नया खरीद
कर वहाँ रख दिया था। और हमारे देश के बच्चे-बूढ़े सच्चे दिल से मानते
हैं कि कोई औलिया इस कलियुग में हुआ है, तो सन्त रामसिंह, जिसे भगवान
ने एक दर्शन देकर सीधे अपने पास बुला लिया था।