सलीब (कहानी) : दंडपाणी जयकांतन

Saleeb (Tamil Story in Hindi) : Dandapani Jayakanthan

ट्रंक रोड पर भारी-भरकम शोर के साथ बस चली जा रही थी। खिड़की के पास बैठी युवती कन्या-स्त्री ने मन में दृढ़ निश्चय कर लिया कि वह चौथी पंक्ति में खिड़की के पास बैठे हुए उस नवयुवक की ओर नहीं देखेगी। अपनी नजर हटाने के पक्के इरादे से वह खिड़की के बाहरवाले दृश्यों को देखने लगी। तभी उसकी निगाह अचानक उस औरत पर पड़ी।

सिर पर घास की गठरी लादे खड़ी थी वह किसान औरत। गोद में चिपका बच्चा उसके उघड़े स्तनों के बीच मुँह गड़ाये सो रहा थाशायद दूध पीते-पीते सो गया होगा। एक हाथ से बच्चे को सँभाले, दूसरा हाथ डूबते सूर्य की किरणों से बचने के लिए माथे पर रखे, बस के इन्तजार में खड़ी उस औरत को कन्या-स्त्री ने तब देखा जब वह उसे पार करके जा चुकी थी। दोनों ही बस की दिशा से उल्टी दिशा में मुँह किये थीं।

बगल में बच्चे के साथ खड़ी उस कृषक-ललना का रूप उस कमसिन युवती को बहुत ही मोहक लगा। उसने अपना सिर खिड़की से बाहर निकाला और पीछे मुड़कर देखने लगी। सिर पर पहना नील वस्त्र हवा में फड़फड़ा उठा। रास्ते पर खड़ी कृषक-ललना भी कन्या युवती की निगाह का स्पर्श पा गयी हो-वह मुस्करा उठी। जवाब में इसने भी मस्कान के साथ सिर हिलाया...

बीज बिन ही गर्भ धर कर
कन्या बन गयी माता
निराकार को मानव अवतार में
दुनिया को दे गयी...

यीशु काव्य की ये पंक्तियाँ ओठों पर नाच उठीं, किन्तु मन में कृषकललना का चित्र अपने कन्या-मठ के सामने देव-पुत्र को गोदी में लिये खड़ी पवित्र मरियम की मूर्ति की तरह अंकित हुआ। ज्यों-ज्यों उस कृषक ललना का रूप आँखों से ओझल होता गया, कन्या-युवती की निगाह धीरेधीरे बस के रुख पर मुड़ती गयी और सहज ही चौथी पंक्ति पर खिड़की के पास बैठे उस युवक के चेहरे पर जा टिकी।

यह क्या! वह भी उसी को नीले-वस्त्र के वलय में खिल रहे गोलगोल चेहरे को टकटकी बाँधकर देख रहा था।
युवती की देह में सिहरन, पलकों में कम्पन-सा हुआ और उसने झट से अपनी निगाह हटा ली।

क्यों? वह युवक सुन्दर तो है ही! और सुन्दरता...खूबसूरती...? हाँ, वही तो पाप है, गुनाह का मूल है! और पाप का नतीजा फिर पाप की गठरी बन जाता है। इस संसार में मानवरूप में पैदा होना-वह जन्मभी पाप के फलस्वरूप घटित होता है। अगर वर्जित फल को चाव से नहीं खाया होता तो आदम और ईव की सन्तान नहीं हुई होती। परमपिता परमेश्वर द्वारा कितने पवित्र रूप से सृष्ट हुए थे आदम और ईव!

'किन्तु वर्जित फल खाकर वे भ्रष्ट हो गये, पापी बन गये। उन्हीं के पाप के परिणाम हैं हम सब-मैं, यहाँ मेरे पास बैठे हुए सभी; पैदा होते ही मुझे पाप का फल मानकर कहीं फेंककर चले गये मेरे माँ-बाप; तीन दिन की मुझ अनाथ शिशु को कन्या-मठ में दाखिल करके अपनी ही तरह कन्या-स्त्री बनायी दूसरी माँ इनविलडा, गाँव की वह किसान औरत; उसकी गोद में सो रहा बच्चा; वह युवक जो लगातार मेरी ओर देखे जा रहा है-सब पापी हैं, सभी मनुष्य पापी हैं! मना किये गये जहरीले फल में कुलबुलाते कीड़े! विषैले कीड़े! जहरीले साँप!...'
बस खड़-खड़ करती आगे बढ़ रही थी।

जब उसकी निगाह फिर से बस के अन्दर लौट आयी तो उस युवक पर फिसलने के बाद सामने बैठी नारी पर पड़ी। उसकी गोद में बैठे एक साल के शिशु ने अपनी मधुर मुस्कान से उसका मन मोह लिया। वह उस बच्चे को देखकर मुस्करायी। बच्चा उसकी ओर लपका; लेकिन माँ की गोद से उतरकर पास में बैठी बूढ़ी कुँवारी-स्त्री इनविलडा के घुटने पकड़ उसका मुँह निहारने लगा। इनविलडा अपने गले में पहनी जपमाला से लटक रहे सलीब पर ध्यान लगाये बैठी थीं।
जब से बस में चढ़ी थीं, देखनेवाले सभी ने जान लिया था कि सलीब पर ध्यान लगाना उनकी आदत है। करीब दो घण्टे से सलीब पर अपनी दृष्टि एकाग्र किये बैठी थीं-छोटा-सा सलीब जिसमें यीशु की आकृति अंकित थी।

बुढ़िया ने बच्चे का चिबुक पकड़कर चेहरा ऊपर किया और मन्द मुस्कान के साथ उसे प्यार किया। बच्चा उसके हाथ का सलीब खींचने लगा। सलीब को बच्चे के हाथ में रखकर बुढ़िया ने कहा, 'स्तोत्र बोलो हे देवस्वरूप! स्तोत्र बोलो!' उन्होंने अपने हाथों में बच्चे के नन्हे हाथ थामकर उसे प्रार्थना करना सिखाया।

बच्चा हाथ जोड़ते हुए कन्या-युवती की ओर मुड़ा। गालों में गड्डा भरकर हँसते हुए उसकी ओर झपटा। उसने बच्चे को प्यार से उठाकर अपनी छाती से लगा लिया। उसे लगा कि छाती के अन्दर से कोई चीज़ ऊपर उठकर दम घोट रही है। आँखें सजल हुईं और पलकें भीग गयीं।
बूढ़ी इनविलडा फिर अपने सलीब में मशगूल।

"कैथरीन! कितने बजे हैं?" सलीब से दृष्टि हटाये बिना इनविलडा ने पूछा। उस बच्चे के स्पांज जैसे कोमल गालों को अपने गालों से सटाकर अवर्णनीय आनन्द में डूबी थी कैथरीन। इस कारण वृद्धा की आवाज उनके कानों में नहीं पड़ी।
"कैथरीन, ओ कैथरीन! सो गयी क्या?...कहीं बच्चा नीचे न गिर जाए!...मैंने पूछा कितने बजे हैं?"
"पाँच बजे हैं माँ!" जवाब देने के बाद उसने बच्चे को नीचे उतार दिया और उसके हाथों को अपनी हथेलियों में लेकर कहने लगी, "स्तोत्र बोलो, हे देवस्वरूप! स्तोत्र बोलो!"
बच्चे ने हाथ जोड़ दिये। उसने भी हाथ जोड़े। फिर न जाने कैसे उसकी निगाह सरकती हुई चली और चौथी पंक्ति पर खिड़की के पास बैठे युवक पर पड़ी।
इस बार निगाह वहाँ से हटी नहीं, पलक झपके बिना उसी पर टिकी रहीं। क्या वह उसमें मग्न हो गयी?...

युवक बीस-बाईस साल का होगा। सुदर्शन रूप-गौर वर्ण, सुगठित शरीर, शान्त-गम्भीर व्यक्तित्व। वह खिड़की के पास बस की दिशा में मुँह किये बैठा था, इसलिए सफेद कमीज के कॉलर के साथ नीले रंग की रेशमी टाई हवा में फड़फड़ाती और बीच-बीच में गरदन से लिपट जाती। हवा में बिखरते बाल माथे पर घुघराली लटों के रूप में नाचते। कन्यायुवती उसकी ओर देख रही है, यह जानकर युवक के होठों पर मुस्कान की लड़ी खिल गयी। उसकी चमकती उज्ज्वल दन्त-पंक्ति ने युवती कन्या को प्रत्युत्तर में मुस्कराने की प्रेरणा दी।

कैथरीन मुस्कान के साथ देवकन्या-सरिस सोह उठी। उसे जीवन में यही शिक्षा मिली थी-'समस्त जीवों पर दया करो, सभी मनुष्यों पर प्रेम बरसा दो।' इस अच्छे संस्कार से उत्पन्न देवोपम आभा से उसका मुखमण्डल दीप्त हो रहा था।

फिर मन में खयाल आया, 'वह...वह युवक मेरे विषय में क्या सोच रहा होगा? यही न कि यह इतनी कमजोर क्यों हो गयी। शायद वह मेरे बारे में यही राय बना रहा होगा कि यह अपने भावावेगों पर काबू रख नहीं पा रही है, यह बाला अपने धर्म का पालन करने में असमर्थ है। पापविचार से मन को हटाने में अक्षम है!' उसने फौरन अपनी निगाह हटा ली और घूमकर माँ इनविलडा को देखने लगी। पूरे माहौल से बेखबर हो बूढी अपने सलीब में तल्लीन बैठी थी। उसके चेहरे पर मन्द-स्मित का शाश्वत आवास था, बीच-बीच में होठ कुछ बुदबुदा रहे थे-प्रार्थना के बोल होंगे।

कैथरीन ने मन-ही-मन माँ इनविलडा से अपनी तुलना की-'कहाँ वे और कहाँ मैं...'
कैथरीन विचार करने लगी-'मैं कितनी पापात्मा हूँ कि इस अठारह वर्ष की आयु में मुझे कितनी बार पाप-स्वीकृति के लिए फ़ादर के सामने घुटने टेकने पड़े हैं।'
"माँ!"
"क्या है कैथरीन?" सलीब पर अंकित यीश-मूर्ति में ध्यानमग्न इनविलडा ने अपना झुरींदार चेहरा उठाकर पूछा।
"माँ! क्या आपने कभी 'कन्फेशन' किया है?"

"हाँ बिटिया! हम सब पापी ही तो हैं। लेकिन यदि परमेश्वर के सामने अपना दिल खोलकर रख दें तो रक्षित हो जाते हैं। कर्ता स्वयं हमारे पापों का बोझ उठा लेते हैं। इसीलिए तो हम रात में सोने से पहले दिन भर किये पापों को उन्हें सौंप देते हैं। इससे हमारी आत्मा शुद्ध हो जाती है। फिर भी पाप का बोध मन में काँटे की तरह चुभता न रहे, इसीलिए हम फादर के सामने भी अपने पापों को खुलकर बता देते हैं। फादर हमारी ओर से करुणामूर्ति करतार से प्रार्थना करते हैं। मैंने भी पाप किये हैं..." बूढ़ी माँ ने अश्रुपूरित आँखें पोंछते हुए कहा।
कैथरीन को आश्चर्य हुआ। क्या माँ इनविलडा भी मेरी उम्र में मेरी तरह थीं?

"...कैथरीन, उस समय मैं तुम्हारी ही उम्र की रही हूँगी। मैंने एक स्वप्न देखा-मेरी शादी हो रही है। उफ..कितना पापपूर्ण था वह सपना! जागी तो रात भर रोती रही। सपने में मैंने देखा मैं शादी के सुन्दर कपड़े पहने आह्लाद से भरी थी। क्या कोई कुँवारी बाला ऐसा स्वप्न देख सकती है? यही सोच-सोचकर मैं पूरे दिन रोती रही। उस दिन मैंने पानी तक नहीं पिया। उपवास रखते हुए प्रार्थना करती रही। अगले दिन फादर के सामने पाप का इजहार करके परमेश्वर से क्षमा माँगी।"

फिर अपनी आवाज धीमी कर इनविलडा ने कैथरीन से कहा, "एक दिन मैंने कक्षा में एक लड़की को पीट दिया...फुटे से मारा तो उसके गाल पर लाल-लाल निशान पड़ गये। दिन भर मैं पश्चात्ताप करती रही। उस पाप के लिए भी मैंने कन्फेशन किया था। इस तरह की पाँच-छह घटनाएँ हुई हैं ।"

बस, क्या माँ ने इतने ही पाप किये हैं? विश्वास नहीं हो रहा। कैथरीन बेचैन हुई। __ ऐसा तो नहीं, माँ उससे कुछ छिपा रही हो। मानों कैथरीन के इस सन्देह का निवारण कर रही हो, माँ आगे बोलीं। उन्होंने कहा-
"बेटी, पाप को छिपाना शैतान का काम है। हमें अपने मन के पापों का इजहार कर देना चाहिए, उन्हें परमेश्वर को सौंप देना चाहिए। बोलो, क्या हम परमपिता करतार से कुछ छिपा सकते हैं?"

"सही बात है। हम परमेश्वर से कुछ भी नहीं छिपा सकते।" कैथरीन ने सहमति व्यक्त की। फिर अपने हैण्डबैग से एक किताब निकाली और उसे खोलकर पढ़ने लगी। इसी बीच उसकी नजर एक बार फिर चौथी पंक्ति में खिड़की की ओर जा टिकी।
वह युवक भी टकटकी लगाये उसी को देख रहा था।

'यदि कोई वासना से किसी स्त्री की ओर देखे तो निश्चय उसका मन उससे व्यभिचार करता है। अगर तुम्हारी दायीं आँख तुम्हारे साथ दगा करे तो उसे निकालकर फेंक दो। पूरा ही शरीर नरक में झोंक दिया जाए, उससे बेहतर बात यही है कि खराब हुए अवयव को निकाल दिया जाए...'
कैथरीन आगे पढ़ नहीं पायी। उसने आँखें बन्द कर लीं। पुस्तक खुली और आँखें बन्द...
'यह कैसा पाप विचार...' मन उद्विग्न हो गया।
'वह उतरता क्यों नहीं, कब तक बैठा रहेगा बस में? क्या शैतान इसके रूप में आ बैठा है? पिता, क्या आप मेरी परीक्षा कर रहे हैं ?...अरे, मैं इसके बारे में किसलिए सोच रही हैं...हे परमेश्वर!'
उसने छाती पर सलीब का चिह्न बनाया और मन में जाप करना शुरू कर दिया- 'परमण्डल में विराजमान हमारे परमपिता...हमारी परीक्षा न लें, पाप से..बुराई से...हमारी रक्षा करें...आमीन!'
प्रार्थना से कोई अन्तर नहीं आया। उसने आँखें खोली तो दृष्टि फिर उसी युवक से जा टिकी।

'क्या मनुष्य पाप-कर्म से दूर नहीं हो सकता? आदम के लिए परमेश्वर ने अदन में जो स्वर्ग का नन्दन-वन बनाया, उसमें वर्जित फल का वृक्ष और साँप कहाँ से पैदा हो गये? परमेश्वर ने मनुष्य की सृष्टि की, ठीक है। साथ में पाप का सृजन किसलिए किया?...पाप-कृत्य में जो सुखानुभूति होती है, क्या वह भ्रम है...माया है? या क्या सुख का दूसरा नाम पाप है? तब तो दुनिया के करोड़ों-करोड़ों लोग नरक में ही तो जाएँगे? फिर मैं अकेली क्यों पाप करने से डरती हूँ। देखो, यह सुन्दर नौजवान प्यार भरी निगाह से मुझे देखे जा रहा है।...सभी नारियाँ रूप और आकार में मेरी ही जैसी हैं...और मैं...मैं भी उनकी जैसी ही हूँ!...'

कैथरीन की दृष्टि इस बार दूसरी पंक्ति में बैठे एक नव-दम्पती पर गयी। महिला गर्भवती थी..सिर चकराने के कारण या प्रेम से अभिभूत होकर वह पति के कन्धे पर झुकी, आँखें बन्द किये पड़ी थी।
यह देखकर कैथरीन के मन के अन्तरतम से एक विचार उठा-क्या वह शैतान की आवाज थी?
'उसमें और मुझमें क्या फ़र्क है? सिर्फ पोशाक का ही है न! अगर मैं कन्या-मठवाला यह लिबास उतारकर उस महिला की तरह युवक के कन्धे पर झूल जाऊँ तो...
'हाय रे, परमेश्वर! मैं निरन्तर एक के बाद एक पापों का चिन्तन क्यों कर रही हूँ? मेरी रक्षा करें, मेरे पिता!...'
बस रुकी। बस-स्टैण्ड पर भारी भीड़ थी। उस शोरगुल के साथ बस से उतर रहे यात्रियों की आवाजें घुलमिल गयीं। बूढ़ी इनविलडा और कैथरीन सब लोगों के उतर जाने तक सब्र से बैठी रहीं। अन्त में वे भी उतरीं।
एक ताँगेवाला भागा हुआ उनके पास आया।
"मदर, मठ ही जाना है न! बैठिए, मैं ले चलता हूँ।" वे उसके साथ ताँगे की ओर बढ़ीं।
तभी उन्होंने देखा, शाम की सुनहरी धप में सफेद कमीज और नीली टाईवाला वह युवक हाथ में सूटकेस के साथ वहाँ खड़ा है-वही सुदर्शन रूप, मगर शैतान का दूत जैसा।
कैथरीन की कनपटी में सुरसुरी-सी महसूस हुई। युवक मन्द-मन्द मुस्कान के साथ पास में आया और हाथ जोड़कर इनविलडा से बोला, "स्तोत्र मदर!"
"देवस्वरूप, स्तोत्र!" इनविलडा ने भी हाथ जोड़कर उत्तर दिया। युवक ने फिर कैथरीन की ओर मुड़कर 'स्तोत्र' कहा। कैथरीन के जुड़े हुए हाथ काँपने लगे।
"स्तोत्र!" प्रत्युत्तर देते हुए उसका गला रुंध-सा गया और आँखों में अश्रु छलक पड़े।

जब दोनों ताँगे में बैठ गयीं तो उसने हाथ ऊपर उठाकर विदाई की मुद्रा में हिलाया। कैथरीन ने भी हर्षित मन से हाथ हिलाया। ताँगा तेज चलने लगा। उस युवक की छवि आँखों से ओझल हो गयी। कैथरीन का हाथ जो ऊपर उठा हुआ था, ढीला होकर नीचे आया। हृदय के अन्दर एक कसक। हिचकियाँ उठने लगीं।
"वह कौन था कैथरीन? जाने क्यों मैं पहचान नहीं सकी।" इनविलडा ने पूछा।
"अरे...वह..." कैथरीन ने जान-बूझकर झूठ बोला, "माँ, पहले मैं भी उसे पहचान नहीं पायी। मेरी क्लास में पढ़ती है न इसाबेल...यह उसी का भैया है।"
"ओह!"
'हे परमेश्वर! फिर पाप हो गया...कितने पाप...मेरी रक्षा कीजिए।' कैथरीन के होठों ने बुदबुदाकर क्षमा माँगी। लेकिन मन के अन्दर युवक का मुस्कराता चेहरा, हाथ हिलाता रूप छाया हुआ था। वह दृश्य उसे आनन्दित कर रहा था।
'पता नहीं कौन है? क्या उसे दुबारा देखने का सौभाग्य मिलेगा मुझे?...क्या कहूँ इसे...भाग्य या पाप?
'हाय मुझे पाप करने का भी अधिकार नहीं है।'-यह सोचकर उसकी आँखें सजल हो गयीं। दुःख से गला भर आया। रोने का मन कर रहा था। हाय, उसे रोने का भी तो अधिकार नहीं है।
सिर पर पहना नीला स्कार्फ जो हवा में उड़ रहा था, अब चेहरे पर पड़ गया। अच्छा हुआ, माँ की नजरों से बचकर रो सकती है। उस नीले वस्त्र में अपना मुँह और मन दोनों को छिपाकर बिचारी रोती रही और गाड़ी आगे चलती रही।
बूढ़ी इनविलडा हाथ के छोटे सलीब में ध्यान लगाये मन-ही-मन जाप कर रही थीं।
पूरी रात निद्रा-रहित अवस्था में कैथरीन बिस्तर पर करवट लेती रही और अपने पापों के लिए परमेश्वर से क्षमा याचना करती रही।
कभी-कभी उस युवक की छवि मन में उभर आती...उसकी वह मोहक मुस्कान याद आती...कैथरीन लम्बी साँस भरती।
फिर जब पलकें लग गयीं, उसने एक सपना देखा।

-एक बड़ा-सा सलीब। उसे अपने कन्धे पर लादे माँ इनविडा आगे जा रही है। वह ज्यों-ज्यों दूर चली जाती है, उसका आकार माता के मन्दिर जैसा विशाल हो जाता है। कन्धे पर जो सलीब ले जा रही थी, वह अब छोटे आकार में हथेली में आ जाता है। मन्द मुस्कान के साथ वह परमेश्वर का जाप कर रही है।...
दूर कहीं से मरियम माता के मन्दिर से घण्टा-निनाद। आसमान से कोई पवित्र ज्योति नीचे उतर आती है और इनविलडा की देह से लिपट जाती है।
मातृ-मन्दिर से घण्टा-निनाद...

एक और बड़ा सलीब सामने आता है। उसे कन्धे पर ढोने के लिए कैथरीन आगे आती है। वह नीचे झुककर सलीब उठाने का प्रयत्न कर रही है। लेकिन उसे हिला तक नहीं पाती। परमेश्वर का नाम लेते हुए पूरा जोर लगाती है...चेहरे पर वेदना की रेखा, जैसे पीठ पर किसी ने चाबुक मारा हो...वह सलीब को हिला नहीं पा रही है। तभी दूर कहीं से एक आवाज सुनाई देती है-'कैथरीन...मेरी जान...कैथरीन!'

वह मुड़कर देखती है, वह युवक पीछे से दौड़ा आ रहा है। वह सलीब को छोड़कर युवक की ओर भागती है और युवक की बाँहों में लुढ़क जाती है। उसके सीने में मुँह छिपा देती है। युवक कैथरीन की ठुड्डी पकड़कर चेहरा ऊपर करता है और अधरों पर चुम्बन भरता है।
अहा! वह चुम्बन!
'क्या इसी का नाम पाप है?...तब तो मैं पापी ही रहना चाहती हूँ' यह खयाल मन में आता है। वह युवक को फिर से अपनी बाँहों में भर लेती है।...
तभी मरियम माता के मन्दिर का घण्टा बज उठा...
कैथरीन जाग उठी। आँखों में आँसू। मन में पाप-बोध!...

प्रार्थना का समय। सिर झुकाये सबके साथ घुटने टेककर परमेश्वर से प्रार्थना करती हुई...
तभी बेचारी को रोने की छूट मिली। जी भरकर आँसू बहाये।
क्या हृदय में घनीभूत पाप-भार अश्रुधारा में घुलमिलकर बूंद-बूंद होकर कम हो जाएगा!
प्रार्थना समाप्त होते ही कैथरीन पाप-स्वीकृति के लिए फादर के पास पहुंची।
शुभ्र वस्त्र पहनकर, आँखों में अनुग्रह ज्योति की चमक और होठों पर सहज मुस्कान के साथ आह्वान कर रहे फ़ादर के मुख-मण्डल को देखकर कैथरीन सकुचाई खड़ी रही।
"फादर!" "कहो बिटिया!" उन्होंने उस ओर अपने कान दिये। "मैं महापापिन हूँ!...बहुत बड़ा गुनाह किया है...मैं पापिन हूँ..."
"परमेश्वर पापियों की रक्षा करने के लिए ही परमण्डल में विराजमान हैं बेटी...क्या तुमने पढ़ा नहीं है...यीशु कहते हैं-'मैं धर्म पर चलनेवालों के नहीं, पापियों के मन-परिवर्तन करने के लिए आया हूँ...।' यदि तुम अपने मुँह से अपने पापों का बयान करके पश्चात्ताप करोगी तो माफी अवश्य मिलेगी।"

कैथरीन उनके कानों के पास झुककर बोलने लगी। बदन काँप रहा था और अश्रुधारा अविरल बह रही थी। उसने जो कहा सुनकर पादरी भी सहम गये।

"फादर, मैंने जो महापाप किया है, वह कदापि क्षम्य नहीं है...ओह...यही पाप...कन्या-स्त्री बनने का पाप...ओह!" वह फफकफफककर रोने लगी। ऐसी बिलख-बिलखकर रोयी मानों उसी को सलीब पर चढ़ा दिया हो।